Wednesday 31 January 2018

आलिंगन और उसकी विधियां

 आलिंगन और उसकी विधियां 


आलिंगन और उसकी विधियां आलिंगन का अर्थ है कामोत्तेजित करना, एक-दूसरे की त्वचा में घर्षण उत्पन्न करना, आपस में लिपटना, सहलाना, मसलना, भींचना, चुम्बन करना आदि।
बिना कामोत्तेजित हुए सेक्स करना शारीरिक व मानसिक रोगों को जन्म देना होता है। इसलिए सेक्स का वास्तविक आनन्द प्राप्त करने के लिए शास्त्रों में संभोग के आठ चरण निर्धारित किए गए हैं। यह चरण स्त्री की कामाग्नि को जाग्रत करने से लेकर उसे सेक्स के अन्तिम चरण सीमा पर पहुंचाने के लिए आवश्यक है।
*!! संभोग से पहले आलिंगन क्यों जरूरी-!!*
आलिंगन करने से स्त्री पूरी तरह कामोत्तेजित हो जाती है। जिससे उसकी योनि द्रवित (योनि से सफेद रंग का द्रव्य निकलना जिससे योनि गीली) हो जाती है और लिंग आसानी से उसमें प्रवेश कर जाता है। इस प्रकार संभोग करने से स्त्री-पुरुष दोनों को पूर्ण संतुष्टि प्राप्त होती है। अगर स्त्री द्रवित नहीं हुई और पुरुष ने शुष्क योनि में शिश्न को प्रविष्ट करने की कोशिश कि या बलपूर्वक सहवास करने की कोशिश की तो स्त्री दर्द से व्याकुल हो जाएगी और संभोग का आनंद पीड़ा में परिवर्तित हो जाएगा। इसलिए संभोग से पहले आलिंगन क्रिया करना बहुत जरूरी होता है।
संभोग के आठ चरण –
आलिंगन।
चुम्बन।
नख क्रीड़ा।
दन्त रोमांच।
संवेशन (रती-क्रीड़ा के आसन)।
सीस्कृत (संभोग काल में कामुक ध्वनियां)।
पुरुषापित (नारी द्वारा पुरुष की भूमिका)।
औपरिष्टिक (मुख द्वारा यौन-क्रीड़ा)।
*!! आलिंगन-!!*
समागम का प्रथम चरण आलिंगन है। स्त्री-पुरुष का आपस में लिपट जाना, एक-दूसरे की बांहों में लिपटकर समा जाने का प्रयास करना ही आलिंगन है। वास्तव में रति-क्रीड़ा की शुरुआत आलिंगन से ही होती है।
वैसे तो आलिंगन के 8 भेद किए हैं मगर इन्हें दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है-
1- अविवाहित आलिंगन (Per-marital embraces)
2- विवाहित आलिंगन (Per marital embraces)
*अविवाहित आलिंगन-*
इस प्रकार के आलिंगन का प्रयोग वे नर-नारी करते हैं जो एक-दूसरे से परिचित हो चुके होते हैं और जिनके हृदय में यौन प्रेम के बीज फूट चुके हों !! *!! इसके चार भेद किए गए हैं-!!*
*(1) स्पृष्टक-* इसमें एक दूसरे के शरीर का केवल स्पर्श किया जाता है। इसका प्रयोग अकेले न मिल पाने के कारण उपयुक्त अवसर मिलने पर किया जाता है। प्रेमी किसी बहाने से प्रेमिका के शरीर को हल्के-से छूते हुए आगे बढ़ जाता है। प्रेमिका भी इसी बहाने अपने प्रेमी के शरीर को छूते हुए जल्दी से आगे बढ़ जाती है। यह सब कुछ इतने आकस्मिक ढ़ंग से सम्पन्न हो जाता है कि किसी को इसका कोई आभास तक नहीं होने पाता। इस थोड़ी सी छुअन (स्पर्श) से दोनों के मन और शरीर में एक अद्भुत सनसनी प्रवाहित होने लगती है।
*(2) विद्धक-* इस आलिंगन की शुरुआत चतुर प्रेमिका खुद स्वयं करती है। अपने प्रेमी को किसी एकांत या निरापद स्थान में बैठे हुए अथवा खड़ा देखकर चुपचाप उसके पास पहुंच जाती है। प्रेमी अगर बैठा हुआ है तो नीचे रखी हुई किसी वस्तु को उठाने के बहाने वह इस प्रकार झुकती है कि उसके स्तन प्रेमी के शरीर को होले (धीरे) से स्पर्श करें। यदि प्रेमी खड़ा हुआ है तो प्रेमिका पीछे से जाकर उसे अपनी बांहों में कस लेती है। उसके पुष्ट स्तनों के स्पर्श से प्रेमी रोमांचित हो उठता है। इस आलिंगन का प्रयोग ऐसी प्रेमिकाओं के लिए उपयुक्त होता जिसके हृदय में प्रेम अंकुरित तो हो चुका है परन्तु पल्लवित नहीं हो पाया है। वैसे वे एक-दूसरे की ओर आकर्षित एवं सम्मोहित हो चुके होते हैं।
*(3) पीड़ितक-* इस आलिंगन का प्रयोग आपस में गहरा प्रेम एवं अनुराग बढ़ जाने पर किया जाता है। वास्तव में यह आलिंगन उद्धृष्टक का ही विकसित रूप है। इसमें पुरुष स्त्री को दीवार अथवा किसी वस्तु के सहारे खड़ा कर आलिंगनबद्ध कर लेता है और पूरी शक्ति का प्रयोग कर अपने शरीर से उसके कामुक (उतेजक) अंगों को घर्षण करता है। इस आलिंगन का प्रयोग प्रेमिका के द्वारा भी किया जा सकता है। यह आलिंगन इस बात का स्पष्ट संकेत होता है कि स्त्री-पुरुष दोनों मानसिक रूप से सेक्स यानि संभोग के लिए आतुर एवं बेचैन हैं !!
स्त्री-पुरुष का प्रेम जब परिपक्व हो चुका होता है तब दोनों लज्जा एवं संकोच से मुक्त होकर संभोग के आनंद से परिचित हो चुके होते हैं। उस समय संभोग से पहले अथवा बाद में प्रयोग होने वाले आलिंगनों को चार भेदों में बांटा गया है।
*1- लतावेष्टिक(लता के समान लिपट जाना)-* इसमें अपने सामने खड़े हुए प्रेमी को प्रेमिका आलिंगनबद्ध करके लता के समान अर्थात बेल की तरह लिपट जाती है और कामोद्दीप्त होकर प्रेमी के मुख तथा होठों का बार-बार चुम्बन करती है। साथ ही अपने प्रेमी को मजबूती से बांहों में जकड़कर अपने स्तनों से प्रेमी के सीने को भरपूर दबाव देकर प्रेमी को भी उत्तेजित कर देती है।
*2- वृक्षाधिरूढ़क(वृक्ष पर चढ़ने के समान)-* इसमें स्त्री अपना एक पैर पुरुष के पैर पर रखकर दूसरे पैर से उसकी जांघ तथा हाथों से कमर को जकड़ लेती है। दोनों की जांघे आपस में सट जाने के कारण शिश्न व योनि पर दबाव पड़ता है और दोनों की कामाग्नि भड़क उठती है। स्त्री आहें भरते हुए पुरुवृक्ष पर चढ़ने के समान क्रिया करती है।
*3- तिलतण्डुलक-* संभोग से पहले कामोद्दीपन (कामोत्तेजना) के लिए यह आलिंगन बिस्तर पर लेटकर किया जाता है। इसमें स्त्री ज्यादातर पुरुष के दाईं और लेटती है। दोनों करवट लेकर एक-दूसरे से चिपक जाते हैं। मुख से मुख, होठों से होठ, छाती से छाती, जांघों से जांघे, पैर से पैर तथा योनि से लिंग एकदम चिपक जाते हैं। इससे ऐसी कामोत्तेजना उत्पन्न होती है जिसमें संभोग किए बिना संतुष्टि प्राप्त नहीं होती है।
*4- क्षीरमलक-* इस आलिंगन में स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे में समा जाने को बेचैन हो जाते हैं। इस आलिंगन का प्रयोग अक्सर दो प्रकार से होता है !!
पहली क्रिया में स्त्री व पुरुष दोनों नग्न अवस्था में होते हैं। स्त्री पुरुष की गोद में बैठ कर उसे बाहों में जकड़ लेती है। स्त्री के पुष्ट स्तनों के दबाव से पुरुष सिहर उठता है !!
दूसरी क्रिया में पुरुष नीचे लेट जाता है और स्त्री उसके ऊपर इस प्रकार लेटती है कि दोनों के शरीर आपस में सट जाते हैं इससे यौनांगो में दबाव पड़ता है और कामोत्तेजना तीव्र रूप से उत्पन्न होती है जो संभोग करने के बाद ही समाप्त होती है !!
*!! इन आलिंगनों के अलावा कुछ और लोगों ने अन्य विधियों का उल्लेख किया है-!!*
*1- उरूपग्हन-* इस आलिंगन का प्रयोग स्त्री और पुरुष करवट के बल लेटकर करते हैं। इसमें पुरुष अपनी जांघों के बीच स्त्री की जांघों को बारी-बारी से बलपूर्वक दबाकर रोमांचित करता है। यही क्रिया स्त्री भी दोहराती है।
*2- जघनोपगहन-* यह प्रयोग पहले स्त्री द्वारा ही शुरु किया जाता है। इस आलिंगन में पुरुष नीचे लेट जाता है और स्त्री ऊपर से लेटकर अपनी जांघों तथा कमर से प्रेमी की जांघों तथा कमर को इस प्रकार से मिलाती है कि योनि से लिंग पर दबाव पड़ता है और दोनों ही कामोत्तेजित होकर चुम्बन क्रिया शुरू कर देते हैं।
*3- स्तनलिंगन-* यह आलिंगन भी स्त्री द्वारा ही किया जाता है। इसमें स्त्री खड़ी होकर, बैठकर, करवट से लेटकर या पुरुष के ऊपर लेटकर अपने पुष्ट स्तनों से उसकी छाती पर बार-बार दबाव देती है।
*4- ललाटिका-* इसमें भी स्त्री ही पहले शुरुआत करती है। पुरुष चित्त लेट जाता है। अब स्त्री उसके ऊपर इस प्रकार लेटती है कि माथा , आंखे तथा होंठ आपस में जुड़ जाते हैं। यह आलिंगन बहुत ही भावनात्मक एवं रागात्मक होता है। इसके प्रयोग से रोमांचयुक्त आनंद प्राप्त होता है !!

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मैथुन क्रिया

 मैथुन क्रिया


मैथुन उस क्रिया को कहते हैं जिसमें वंश वृद्धि की मूल प्रवृत्ति- काम-वासना के वशीभूत होकर दोनों भिन्न लिंगी प्राणी, स्त्री और पुरुष, एक-दूसरे के शारीरिक सम्पर्क में आ जाते हैं। पुरुष अपने शिश्न को योनि में प्रविष्ट करता है जिससे दोनों को ही बड़ा आनन्द मिलता है। इस आनन्द के कारण पुरुष बार-बार शिश्न का प्रहार योनि में करता है- और स्त्री चाहती भी है कि कुछ देर तक यह जनन अंगों की घर्षण क्रिया चलती रहे जिसके फलस्वरूप दोनों का आनन्द बढ़ता ही चला जाता है। जब यह आनन्द अपनी चरम-सीमा पर पहुंच जाता है जिसे चरमोत्कर्ष, चरम आवेग या पूर्ण उद्वेग (Orgasm) कहा जाता है तो पति और पत्नी दोनों ही स्खलित हो जाते हैं। पुरुष बीज या शुक्राणु वीर्य में मिलकर शिश्न के मार्ग से योनि में पहुंचे जाते हैं और इस प्रकार एक नये प्राणी को जन्म देने के लिए बीज बो दिया जाता है।
मैथुन क्रिया या सम्भोग को उसी समय सफल समझा जाता है जबकि दोनों के जनन अंगों में उचित समय तक और अच्छी तरह से घर्षण होता रहे। इसके लिए पुरुष के शिश्न में कड़ापन या उत्थान होना एक आवश्यक शर्त है। अतः हम अब मुख्य रूप से इस पर विचार करेंगे कि शरीर के कौन-कौन से अंग शिश्न में उत्थान लाने में सहायक होते हैं तथा किन उपायों से शिश्न को उत्थित और दृढ़ रखा जा सकता है। ताकि वह उस कार्य को पूरा कर सके जिसके लिए इसकी रचना की गई है। इस संबंध में हम सबसे पहले उस शारीरिक यन्त्र पर विचार करेंगे जो शिश्न पर नियन्त्रण रखता है, यह है मस्तिष्क । मनुष्य के प्रमस्तिष्क के उच्च क्षेत्रों (कोर्टेक्स) में कुछ विशिष्ट क्षेत्र ऐसा है जिसे उद्दीपन मिलने से मनुष्य की यौन सक्रियता बढ़ जाती है। करोड़ों न्यूरोन कोशिकाएं जो मस्तिष्क का निर्माण करती हैं उनका विकास भी लाखों वर्षों में हुआ है। प्रत्येक न्यूरोन को प्रकृति ने दो गुण दिए हैं- एक से यह मनुष्य को ऐसे कार्य करने के निर्देश देता रहे जिससे जीवित रहने के लिए वह समुचित मात्रा में भोजन जुटाता रहे और दूसरे से सैक्स क्रिया के लिए प्रेरित करता रहे ताकि मानव की वंश वृद्धि होती रहे। आज से लाखों साल पहले जब मानव शरीर सरल एक कोशिकीय रूप में था। उस समय प्रत्येक कोशिका अपना अलग भोजन ढूंढती थी और अपनी निजी सैक्स क्रिया करती थी। कुछ समय पश्चात इन प्राणियों ने अनुभव किया कि इन कार्यों को करने का उत्तर दायित्व एक केन्द्रीय संस्थान- स्नायु संस्थान या तान्त्रिक तन्त्र (Nervous system) को सौंप दिया जाए। अतः मस्तिष्क की तथा तन्त्रिका तन्त्र की प्रत्येक कोशिका का जब पहली-पहल विकास हुआ तो प्रकृति ने अपनी अमिट आज्ञा द्वारा इसको दो कार्य करने को दिये- भोजन प्राप्त करना और सेक्स क्रिया के लिए साथी को तलाश करना। चूंकि मनुष्य शरीर की प्रत्येक कोशिका में ये गुण हैं अतः हम सरलता से समझ सकते हैं कि जिस समय हम निश्चिन्त अवस्था में होते हैं उस समय स्त्री को देखने, उसकी बोली सुनने या शरीर की गन्ध मात्र से हमारे शरीर में कामवासना जाग्रत होने लगती है !!
कामोत्तेजना के समय मस्तिष्क के अन्दर बड़े परिवर्तन होने लगते हैं। मस्तिष्क को जाने वाली रक्तवाहिनियों में रक्त का दबाव (प्रेशर) बढ़ जाता है और मस्तिष्क को अधिक मात्रा में रक्त मिलने लगता है।
यौन समागम या सम्भोग के समय दो अन्य केन्द्र भी निश्चित रूप से क्रियाशील हो उठते हैं ये हैं ताप नियन्त्रक केन्द्र और शर्करा का चयापचय करने वाला केन्द्र। सम्भोग के समय शरीर का ताप बढ़ जाता है ताकि प्रत्येक कोशिका के अन्दर तेजी के साथ होने वाले असाधारण रासायनिक परिवर्तन सुगमतापूर्वक होते रहें।
इस तनावपूर्ण भावनात्मक क्षणों में मस्तिष्क के साथ-साथ मेरुरज्जु (Spinal Chord) भी सक्रिय सहती है। मेरुरज्जु के नीचे के भाग में स्थित उत्थान केन्द्र (Erection Centre) लगातार उन तन्त्रिकाओं को उद्दीपन पहुंचाता रहता है जो शिश्न में जाने वाले रक्त पर नियन्त्रण रखती हैं। त्वचा के हर स्थान से मेरुरज्जु में होकर मस्तिष्क में उद्दीपन पहुंचते रहते हैं और मस्तिष्क से शरीर के प्रत्येक अंग और रक्तवाहिनियों में ये उद्दीपन पहुंचते रहते हैं। इन तनावपूर्ण क्षणों में प्रोस्टेट ग्रन्थि और शुक्राशय भी महत्वपूर्ण कार्य कर रहे होते हैं। यौन समागन के प्रारम्भिक चरणों में प्रोस्टेट ग्रन्थि फूल जाती है। प्रोस्टेट ग्रन्थि में स्राव अधिक मात्रा में बनने लगता है और इसमें अधिक मात्रा में रक्त आने लगता है। पेशियों का हर तन्तु तनाव की अवस्था में आ जाता है। मूत्रमार्ग जहां पर मूत्राशय में से मूत्र निकलता है वहां इसके उदगम स्थल पर वृत्त के रूप में जो प्रोस्टेटिक पेशी होती है वह मजवूती से संकुचित हो जाती है ताकि स्खलित होने वाला वीर्य मूत्राशय में न पहुंच जाए। प्रोस्टेट के अन्दर श्लेष्म भर जाता है और वेरुमोन्टेनम रक्त से भरकर फूल जाता है और इस स्थान पर प्रोस्टेट से आने वाले मार्ग को पूर्णतः अवरुद्ध कर देता है। सम्पूर्ण प्रोस्टेट की पेशियों की ऐंठन के रूप में होने वाले संकुचनों के कारण वीर्य के स्खलन में सुविधा हो जाती है। जैसे-जैसे सम्भोग होता है शुक्राशय भी फैलते जाते हैं। जिस समय स्खलन होने को होता है इन थैलियों की दीवारों में अत्यधिक तनाव आ जाता है। कामोत्तेजना के समय इन ग्रन्थियों में से एक पतला निरंग और अत्यन्त ही चिकना स्राव उत्पन्न होकर मूत्रमार्ग से निकलकर शिश्न मुण्ड को चिकना कर देता है ताकि शिश्न सुगमता से योनि में प्रविष्ट हो सके। इसके अतिरिक्त यह स्राव मूत्रमार्ग को भी चिकना कर देता है ताकि वीर्य सरलता से बाहर जा सके ऐसा समझा जाता है कि शिश्न मुण्ड इस स्राव से चिकना हो जाने पर इसके अन्दर की कोमल तन्त्रिकाएं अधिक संवेदनशील हो जाती है जिससे यौन समागम का आनन्द बढ़ जाता है। यह पारदर्शक स्राव समागम के समय ही निकलता हो ऐसी बात नहीं है। यह एक संबंधी विचार मन में उठने से भी यह स्राव निकलने लगता है। यह एक प्राकृतिक स्राव है और यह वीर्य नहीं है।
स्रावी या हार्मोन पैदा करने वाली ग्रंथियां यौन समागम के समय लगातार काम करती हैं। पीयूष ग्रन्थि के दोनों भाग अपने-अपने विशिष्ट हार्मोनों का उत्पादन करने लगते हैं जो मांस-पेशियों में ऐंठन जैसे संकुचन लाने के लिए आवश्यक हैं ताकि यौन अंग अपना काम सुचारू रूप से कर सकें। थायराइड ग्रन्थि से भी एक स्राव निकलता है ताकि यौन समागम के समय शरीर में जो तीव्र आँक्सीकरण क्रिया ऊतकों में होने वाले परिवर्तन को प्रेरित करने के लिए होती है, यह निर्बाध रूप में होती रहे। एड्रीनल ग्रन्थियों में भी अधिक सक्रियता की आवश्यकता इस समय होती है ताकि रक्तदाब को ऊंचा किया जा सके और सिम्पेथेटिक तन्त्रिका तन्त्र को सक्रिय बनाया जा सके। इस समय वृषणों के अन्तःस्राव का शरीर अवशोषण करने लगता है और शरीर के पर भाग में इन्हें पहुंचाता रहता है। इस समय शरीर का हर हिस्सा अधिक सक्रिय हो उठता है। थूक उत्पादन करने वाली ग्रन्थियां अधिक मात्रा में थूक का उत्पादन करने लगती हैं। स्वेद ग्रन्थियां अधिक सक्रिय हो उठती हैं, हृदय का प्रकम्पन हल्का मगर परन्तु तेज गति से होने लगता है और फेफड़े अपनी साधारण गति की अपेक्षा तेजी से फैलने व सिकुड़ने लगते हैं। गले, आमाशय, छोटी व बड़ी आंतों तथा गुदा संकोचन पेशियों में संकुचन बढ़ जाता है। सम्भवतः सबसे उल्लेखनीय परिवर्तन शिश्न में दिखाई पड़ता है जिसमें जाने वाली धमनियां रक्त से पूरी तरह भर जाती हैं और शिराओं के मार्ग से केवल इतना ही रक्त वापस जाता रहता है जिससे ऊतकों के अन्दर उचित आक्सीकरण होता है !!
*!! शिश्न में उत्थान-!!*
संभोग या सैक्स क्रिया में शिश्न के उत्थान का महत्व बहुत अधिक है क्योंकि इसके बिना संभोग करना असम्भव है। शिश्न में उत्थान लाने में कई संरचनाएं सहायता करती हैं। शिश्न के मुख्य रूप से तीन भाग होते हैं-!! सिर या मुण्ड अथवा सुपारी, डण्डी या मध्य भाग और जड़। शिश्न मूल पेट से शुरू होती है। शिश्न अन्दर से स्पन्ज जैसा खोखला होता है। कामोत्तेजना के समय जब इसमें आने वाली धमनियां इसकी खोखली कोठरियों में रक्त भर देती हैं तो यह फूलकर ऊपर की ओर उठ आती हैं।
मेरुरज्जु के उस भाग में जो हमारे कटि क्षेत्र (Lumbar Area) में लगभग नाभि के नीचे होता है इसमें एक केन्द्र होता है जो उत्थान पर नियन्त्रण रखता है। इसी के निकट एक और केन्द्र होता है जो स्खलन पर नियन्त्रण रखता है। ये दोनों केन्द्र एक-दूसरे के सहयोग से कार्य करते हैं। स्त्री के मेरुरज्जु में भी इसी भाग में उत्थान तथा स्खलन पर नियन्त्रण रखने वाले केन्द्र होते हैं। शिश्न में उत्थान क्रिया मुख्य रूप से मानसिक क्रिया का ही प्रतिबिम्ब है। जब मस्तिष्क में काम सम्बन्धी विचार आते हैं तो शिश्न में उत्थान आ जाता है। शिश्न में उत्थान एक प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex Action) हैं। हम अपनी इच्छा शक्ति द्वारा हाथ-पैर हिला सकते हैं परन्तु इच्छा से शिश्न में उत्थान नहीं ला सकते। जिस प्रकार गर्म-गर्म जलेबियां बनते देखकर अनजाने ही हमारे मुंह में पानी आ जाता है उसी प्रकार सुन्दर नारी को देखकर शिश्न में उत्थान आ जाता है। शिश्न में उत्थान दो तरह से आता है-
1- मानसिक अर्थात् मस्तिष्क में कामोत्तेजक विचार आने से,
2- शिश्न मुण्ड या शिश्न को हाथ से सहलाने या इसके घर्षण से।
इसे प्रतिवर्ती(Reflex) क्रिया कहते हैं !!

*!! संभोग क्रिया का शास्त्रीय विवरण इस प्रकार होता है-!!*
   जब पुरुष के सामने स्त्री वास्तव में उपस्थित होती है अथवा उसकी आवाज, शरीर की गन्ध या उसके शरीर से स्पर्श होता है अथवा पुरुष अपनी कल्पना में स्त्री के साथ सेक्स करता है तो प्रमस्तिष्क में कामेच्छा उत्पन्न होती है। जब एक बार कामवासना (लिबिडो) जाग्रत हो जाती है तो उद्दीपन मस्तिष्क से चलते हुए मेरुरज्जु के उत्थान केन्द्र में पहुंचते हैं और यहां से तन्त्रिकाओं द्वारा शिश्न में पहुंचते हैं। इसके फलस्वरूप शिश्न में रक्त भर जाता है जिससे शिश्न में उत्थान आ जाता है। यहां तक कि इस क्रिया को मानसिक उत्थान कहा जा सकता है। शिश्न का, विशेषकर मुण्ड का, नारी के हाथों द्वारा अथवा योनि के साथ स्पर्श होने पर समाचार शिश्न से उत्थान केन्द्र में पहुंचता है और उत्थान केन्द्र तुरन्त ही उद्दीपन शिश्न को भेजता है जिससे शिश्न में उत्थान आ जाता है। इस दशा में मस्तिष्क से सम्पर्क रहने की जरूरत नहीं है। योनि क्षेत्र का स्पर्श करने पर इसी प्रकार नारी की योनि में भी उत्थान आता है !!
जब शिश्न को योनि में प्रवेश कर प्रहार किए जाते हैं तो बड़ी संख्या में उद्दीपन शिश्न की संवेदनग्राही तन्त्रिकाओं के मार्ग से उत्थान केन्द्र में पहुंचने लगते हैं। इस समय फूले हुए प्रोस्टेट और शुक्राशयों से भी उद्दीपन इस केन्द्र में पहुंचते रहते हैं। ये उद्दीपन मिलकर उत्थान को शक्ति तथा दृढ़ता देते रहते हैं। इस चरण को हम तन्त्रिकाओं और रक्तवाहिनियों द्वारा लाया गया उत्थान कह सकते हैं। जैसे-जैसे संभोग होता है मस्तिष्क और तन्त्रिकाओं से प्राप्त उद्दीपनों की मात्रा बढ़ती जाती है और तन्त्रिकाओं में तनाव बढते-बढ़ते आखिरी बिन्दु पर पहुंच जाता है। आखिरी में स्खलन केन्द्र का फ्यूज उड़ जाता है। मूत्रमार्ग, प्रोस्टेट, शुक्राशयों और मूलाधार की पेशियों में शक्तिशाली आंकुचन होने लगते हैं और पुरुष का वीर्य स्खलित हो जाता है तथा शिश्न बैठ जाता है !!
*!! नारी में उत्थान तथा स्खलन-!!*
पुरुष अथवा स्त्री दोनों में एक जैसे कारणों से ही कामवासना जाग्रत होती है और कामवासना जाग्रत होने का प्रभाव अर्थात उत्थान लगभग एक ही जैसा होता है। चूंकि शिश्न शरीर से बाहर होता है अतः इसमें उत्थान आने पर यह स्पष्ट दिखाई देने लगता है परन्तु योनि छुपी होने के कारण उत्थान इतना स्पष्ट दिखाई नहीं देता !! जिस समय नारी कामोत्तेजित हो जाती है तो उसकी सम्पूर्ण योनि शिश्न की तरह रक्त से भर जाने के कारण फूल जाती है, योनि का आगे का भाग कुछ खुलकर फैल जाता है और गर्भाशय में भी तनाव आ जाता है। इस समय योनि की दीवार में से रिस-रिसकर एक स्राव योनि में आने लगता है जो योनि को गीला बना देता है ताकि शिश्न का इससे घर्षण होने पर शिश्न अथवा योनि को कोई क्षति पहुंचने न पावे !!
यौन समागम अर्थात योनि में शिश्न के घर्षण से स्त्री और पुरुष दोनों को ही आनन्द मिलता है और जब यह आनन्द बढ़ते-बढ़ते अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है तो स्त्री और पुरुष दोनों ही स्खलित हो जाते हैं। स्खलन में पुरुष का तो वीर्य निकलता है परन्तु स्त्री में से कुछ नहीं निकलता। आम बोल-चाल में कहा जाता है कि स्त्री का रज छूटता है। यह एक गलत धारणा है। वास्तव में अत्यधिक कामोत्तेजित हो जाने पर किसी-किसी स्त्री की योनि में से उपरोक्त चिकना स्राव इतनी अधिक मात्रा में निकलने लगता है कि योनि के बाहर तक आ जाता है। सम्भव है प्राचीन काल में काम-शास्त्रियों ने इसे ही स्त्री का वीर्य या रज मान लिया हो !!
*!! कामवासना-!!*
अलग-अलग व्यक्तियों में कामेच्छा की मात्रा भी अलग-अलग होती है। कुछ लोग सैक्स को कोई विशेष महत्व नहीं देते हैं जबकि कुछ लोगों का जीवन सैक्स रूपी धुरी के चारों ओर घूमता रहता है। इस अन्तर का कारण यह नहीं होता कि कोई व्यक्ति शारीरिक गठन और स्वास्थ्य में बहुत तगड़ा है। पुरुष की पुंसत्व शक्ति अर्थात् सैक्स क्षमता पर कई चीजें प्रभाव डालती हैं। उसकी हार्मोन उत्पादक ग्रन्थियों की क्रियाशीलता, उसकी मानसिक विचारधारा और पर्यावरण, ये सब पुंसत्व शक्ति में अपना-अपना हाथ रखती हैं। आनुवंशिकता (Heredity) और पालन-पोषण का भी प्रभाव पड़ता है। एक वैज्ञानिक का मत है कि जिन लोगों में पुंसत्व शक्ति कम है वे प्रायः उन पिताओं की सन्तान होते हैं जिनमें यह क्षमता कम थी। ऐसे व्यक्तियों की सैक्स पावर कृत्रिम साधनों द्वारा एक निश्चित सीमा से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती। यह भी याद रखना चाहिए कि कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं जो बाहरी तौर पर सैक्स में ज्यादा दिलचस्पी न दिखाएं परन्तु उनमें सैक्स पावर अच्छी हो। या तो उसकी कामवासना किसी अन्य दिशा में मुड़ चुकी है अथवा कुछ प्रकार के भय, चिन्ताओं या मनोविकारों के कारण इसका दमन हो गया है।
कामइच्छा की तेजी ही नहीं बल्कि इसका समय भी अलग-अलग व्यक्तियों में कम व ज्यादा पाया गया है। मोटेतौर पर यह कहा जा सकता है कि सैक्स पावर उन लोगों में अधिक होता है जो भावुक प्रकृति के होते हैं और कामोत्तेजक वातावरण में रहते हैं जैसेकि संगीतज्ञ, कलाकार तथा कवि आदि !!
*!! कामेच्छा में उतार-चढ़ाव !!*
  यौन समागम होने के लिए यह जरूरी है कि तन्त्रिका-तन्त्र तथा हार्मोन उत्पादक ग्रन्थियां दोनों ही संतुलित रूप से सक्रिय हों। जैसाकि पहले बताया जा चुका है संभोग के तुरन्त पश्चात एक अवस्था क्लान्ति (थकान) की आती है जिसके दौरान कामोद्दीपन पंहुचने से भी कामेच्छा जाग्रत नहीं होती। स्वस्थ व्यक्ति में यह अवस्था बहुत थोड़ी देर की होती है तथा कुछ समय के विश्राम के बाद दोबारा कामोद्दीपन मिलने पर शिश्न में उत्थान आ सकता है। कामेच्छा में उतार-चढ़ाव अन्य कारणों से भी होता है। अधिकांश स्त्रियों में मासिक-धर्म से कुछ ही दिन पहले और कुछ समय पश्चात कामवासना अपने उच्चतम शिखर पर पहुंच जाती है। अनुभव में आया है कि पुरुषों में कामेच्छा सप्ताह में एक दिन अपने शिखर पर पहुंच जाती है और शायद यही कारण है कि अधिकांश विवाहित दम्पत्ति सप्ताह में एक बार यौन समागम करते हैं !! कामेच्छा पर बाहरी कारणों जैसेकि जलवायु तथा मौसम का भी काफी प्रभाव पड़ता है !!
यद्यपि उचित मात्रा में शारीरिक व्यायाम किया जाए तो इससे प्रायः सैक्स सक्रियता को उत्तेजना मिलती है लेकिन अधिक शारीरिक थकान से इसमें बाधा पड़ जाती है। अधिक मानसिक कार्य करने तथा केन्द्रिय तन्त्रिका तन्त्र में थकावट हो जाने से भी कामेच्छा दब जाती है !!
अन्त में यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि व्यक्ति का स्वास्थ्य गिर जाने पर कामेच्छा पूरी तरह लुप्त हो सकती है। यौन समागम में तन्त्रिकाओं की शक्ति बड़ी मात्रा में खर्च हो जाती है और यदि वह शक्ति कम है तो कामेच्छा स्वयं ही गायब होने लगती है। एक अनुभवी अर्थशास्त्री की तरह शरीर का भण्डार अपने अन्दर रिजर्व रखता है !! और अपनी शक्ति उन कार्यों में नहीं खर्च करता जो शरीर के लिए तात्कालिक महत्त्व के नहीं हैं। यौन समागम भी ऐसा ही कार्य है !!

Kalpant Healing Center
(Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad

Mob-: 9958502499 

संभोग क्या है ?

 *!! संभोग क्या है ? !!* 


समान रूप से शारीरिक सम्बन्धों द्वारा भोगा गया आनन्द ही सम्भोग है। इसमें सेक्स का आनन्द स्त्री-पुरुष को समान रूप से प्राप्त होना आवश्यक है। स्खलन के साथ ही पुरुष को तो पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हो जाती है और सेक्स सम्बन्ध स्थापित होते ही पुरूष का स्खलन निश्चित हो जाता है। यह स्खलन एक मिनट में भी हो सकता है तो दस मिनट में भी। अर्थात् पुरुष को पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए मुख्य रूप से स्त्री को मिलने वाले आनन्द की तरफ ध्यान देना आवश्यक है। अगर स्त्री इस आनन्द से वंचित रहती है, इसे सम्भोग नहीं माना जाना चाहिए। इस वास्तविकता से व्यक्ति पूरी तरह से अनभिज्ञ होकर अपने तरीके से सेक्स सम्बन्ध बनाता है और स्त्री के आनन्द की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है। इसे केवल भोग ही मानना चाहिए। सम्भोग की वास्तविकता को समझे बिना इसे जानना मुश्किल होगा। विवाह के बाद व्यक्ति सम्भोग करने के स्थान पर भोग करता है तो इसका मतलब यह है कि वह इस तरफ से अनजान है कि स्त्री को सेक्स का पूरा आनन्द मिला कि नहीं। सम्भोग शब्द की महत्ता को समझें। स्त्री को भोगें नहीं, समान रूप से आनन्द को बांटे। यही संभोग है।
युवक-युवती जब विवाह के उद्देश्य को समझ विवाह-बंधन में बंधते हैं तो वे इस बात से अवगत होते हैं कि उनके प्रेम भरे क्रिया-कलापों का अंत संभोग होगा। प्रत्येक शिक्षित युवक-युवती यह जानते हैं कि संभोग विवाह का अनिवार्य अंग है। यदि कोई सहेली ऐसी नवयुवती से पूछती है कि तू विवाह करने तो जा रही है किन्तु यह भी जानती है कि संभोग कैसा होता है ? वो या तो इसका उत्तर टाल जाएगी अथवा कह देगी कि उसके बारे मे जानने की क्या आवश्यकता है? संभोग तो पुरुष करता है। इसलिए उसे ही जानना चाहिए कि संभोग कैसे करना चाहिए।
ऐसे प्रश्नों पर युवक हंसकर उत्तर देता है, भला यह भी कोई पूछने की बात है। संभोग करना कौन नहीं जानता।
*!! संभोग आरंभ करने की स्थिति-!!*
यह ठीक है कि अनेक प्रकार की काम-क्रीड़ा से स्त्री संभोग के लिए तैयार हो जाए और उसकी योनि तथा पुरुष के शिश्न मुण्ड में स्राव आने लगे तो योनि में शिश्न डालकर मैथुन प्रारम्भ कर देना चाहिए। परन्तु जिस बात पर हमें विशेष बल देना चाहिए वह यह है कि योनि में शिश्न डालने के पश्चात् ही काम-क्रीड़ाओं को बंद नहीं कर देना चाहिए, जिनके द्वारा स्त्री को संभोग के लिए तैयार किया गया है। यह ठीक है कि समागम के कुछ आसन ऐसे होते हैं जिनमें बहुत अधिक प्रणय क्रीड़ाओं की गुंजाइश नहीं होती, परन्तु ऐसे आसन बहुत कम होते हैं। योनि में शिश्न के प्रवेश करने के बाद जब तक संभव हो सके इन क्रियाओं को जारी रखना चाहिए। यदि किसी आसन में नारी का चुम्बन लेते रहना संभव न हो तो स्तनों को सहलाते और मसलते रहना चाहिए। अगर स्तनों को मसलना या पकड़कर दबाना भी संभव न हो तो इसके चुचकों का ही स्पर्श करते रहना चाहिए। इससे तात्पर्य यह है कि इस समय जो भी प्रणय-कीड़ा संभव हो सके, उसे जारी रखना चाहिए। इससे काम आवेग में वृद्धि होती है, मनोरंजन बढ़ता है और स्त्री के उत्साह में वृद्धि होती है।
*!! प्रणय क्रीड़ाएं अनिवार्य विषय !!*
जो लोग मैथुन कार्य प्रारम्भ होते ही प्रणय क्रीड़ा बंद कर देते हैं, वे प्रणव-क्रीड़ा को मैथुन से अलग मानते हैं। उनकी धारणा है कि मैथुन कार्य प्रारम्भ होते ही प्रणय क्रियाओं की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। यह धारणा बिल्कुल गलत है। इन दोनों चीजों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में आकर प्रणय-क्रीड़ाओं को एकदम बंद कर देने से वह सिलसिला टूट जाता है जिसमें स्त्री रुचि लेने लगी थी। इस बात को सदा याद रखना चाहिए कि काम-क्रीड़ा के दो उद्देश्य होते हैं- एक तो इस क्रिया द्वारा आनन्द प्राप्त करना और दूसरे दोनों सहयोगियों-विशेषतया-स्त्री को प्रणय-क्रिया के अंतिम कार्य अर्थात् संभोग के लिए तैयार करना। इन दोनों बातों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि यदि संभोग की स्थिति पर पहुंचकर प्रणय-क्रीड़ा में अनावश्यक अवरोध पैदा कर दिया जाए या इस क्रीड़ा को बंद ही कर दिया जाए तो स्त्री के मन में झुंझलाहट पैदा हो जाएगी। इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए इस दृश्य की कल्पना कीजिए।
पुरुष नारी के गले में बाहें डाले हुए उसके स्तनों का चुम्बन कर रहा है, साथ ही वह उन्हें मसलता जाता है और उसके चूचुकों को भी समय-समय पर स्पर्श कर लेता है। स्वाभाविक है कि इससे नारी के उत्साह और काम के आवेग में वृद्धि होती है। वह उसके हाथ को अपने स्तनों पर और दबा लेती है। इसका तात्पर्य यह है कि वह चाहती है कि पुरुष उनको और जोर से मसले, क्योंकि इससे उसे और अधिक आनन्द आता है। पुरुष इस संकेत को दूसरे रूप में लेता है और समझता है कि स्त्री पर कामोन्माद का पूरा आवेग चढ़ चुका है। बस वह स्तनों को मसलना बंद करके नारी की योनि में अपने शिश्न को प्रविष्ट करने की तैयारी करने लगता है। इससे स्त्री को बड़ी निराशा होती है। पुरुष उसकी योनि में शिश्न डाले, इसमें तो उसे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु वह यह नहीं चाहती कि वह स्तनों को मसलना बंद कर दे। उसे उसके मर्दन (मसलने) से जो आनन्द प्राप्त हो रहा था, उसका सिलसिला बीच में टूट गया। वह यह नहीं चाहती थी। इसलिए यह आवश्यक है कि संभोग क्रिया आरंभ होते समय और उसके जारी रहते हुए न तो प्रणय-क्रीड़ा को समाप्त करें और न उसमें कोई रुकावट ही आने दें।
यह तो सभी लोग जानते हैं कि संभोग क्रिया में पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से भागीदार होते हैं, किन्तु बहुत से लोगों का विचार यह है कि पुरुष सक्रिय भागीदार की भूमिका अदा करता है तथा स्त्री केवल सहन करती है अथवा स्वीकार मात्र करती है यह विचार भ्रांतिपूर्ण है। स्त्रियों के जनन अंग बने ही इस प्रकार के हैं कि वे संभोग में कभी निष्क्रिय रह ही नहीं सकते। यूरोपीय देशों की अनेक कुमारी नवयुवतियों ने इस बात को स्वीकार किया है कि जब पहली बार किसी पुरुष ने उनके उरोजों को पकड़कर चूचुकों को धीरे-धीरे सहलाना शुरू किया तो उनकी योनि में विशेष तरह की फड़क-सी अनुभव हुई और यह इच्छा जाग्रत हुई कि कोई कड़ी वस्तु उसमें जाकर घर्षण करें।
कुछ पत्नियां ऐसी होती हैं जो जान-बूझकर निष्क्रिय भूमिका अदा करना चाहती हैं। वे समझती हैं जब पति उसका चुम्बन, कुचमर्दन (स्तनों को सहलाना, मसलना) आदि करे तो उन्हें ऐसा आभास देना चाहिए कि पुरुष के इस कार्य से उन्हें आनन्द नहीं मिल रहा है। उन्हें आशंका होती है कि यदि वे आनन्द प्राप्ति का आभास देंगी तो पति यह समझ लेंगे कि वे विवाह से पूर्व संभोग का आनन्द ले चुकी हैं। इस प्रकार के विचारों को उन्हें अपने मन से निकाल देना चाहिए।
संभोग करते समय इस बात को याद रखना चाहिए कि संभोग में सबसे अधिक आनन्द प्राप्त करने के लिए जिस आवेग की आवश्यकता होती है, वह तभी प्राप्त हो सकता है जब योनि में शिश्न निरंतर गतिशील रहे। इस गति का संबंध हरकत करने से है। इस स्थिति में शिश्न कड़ा और सीधा होकर योनि की दीवारों की मुलायम परतों तथा गद्दियों के सम्पर्क में आ जाता है। इसके फलस्वरूप शिश्न के तंतुओं में अधिकाधिक तनाव आ जाता है जिसकी समाप्ति वीर्य स्खलन के साथ होती है।
संभोग करते समय बहुत से पुरुषों को आशंका रहती है कि योनि में उनका लिंग प्रवेश करते ही वे स्खलित हो जाएंगे। इसी आशंका से भयभीत होकर वे योनि में शिश्न प्रविष्ट करके जल्दी-जल्दी हरकत करने लगते हैं और इस प्रकार वे बहुत जल्दी स्खलित हो जाते हैं। सेक्स के वास्तविक आनन्द की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि शिश्न के पूर्णतया प्रविष्ट हो जाने के बाद स्त्री पुरुष दोनों स्थिर होकर चुम्बन मर्दन आदि करें। इसके थोड़ी देर बाद फिर गति आरंभ करें। जब फिर स्खलन होने की आशंका होने लगे, तब फिर रुककर चुम्बन आदि में प्रवृत्त हो जाएं, इससे दोनों को अधिकाधिक आनन्द प्राप्त होगा। इस स्थिति में स्त्री को चाहिए कि जब पुरुष गति लगाए तब वह योनि को संकुचित करे, जितना अधिक वह संकुचित करेगी, उतना ही पुरुष का आनन्द बढ़ेगा और वह क्रिया करने लगेगा। ऐसा करने से स्त्री और पुरुष दोनों को आनन्द आएगा। इस भांति रुक-रुककर गति लगाने से स्त्री पूर्ण उत्तेजना की स्थिति में पहुंच जाती है। उस समय उसकी इच्छा होती है कि अब पुरुष जल्दी-जल्दी गति देकर अपने-आपको और स्त्री दोनों को स्खलित कर दे। उस समय पुरुष को जल्दी-जल्दी गति लगानी चाहिए, स्त्री को भी इसमें अपनी ओर से पूरा सहयोग देना चाहिए। अधिकांश स्त्रियों की यह धारण सही नहीं है कि गति लगाना केवल पुरुष का ही काम है।
जब कुछ देर तक स्त्री-पुरुष के यौन अंग एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात करते रहते हैं तो इस क्रिया से अब तक मस्तिष्क को जो आनन्द मिल रहा था, वह बढ़ते-बढ़ते इतना अधिक हो जाना हो जाता है कि मस्तिष्क इससे अधिक आनन्द बर्दाश्त नहीं कर पाता। इस समय स्त्री-पुरुष यौन आनन्द की चरम सीमा पर पहुंच चुके होते हैं जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में चरमोत्कर्ष कहा जाता है। ऐसी परिस्थिति में मस्तिष्क अपने आप संभोग क्रिया को समाप्त करने के संकेत देने लगता है। पुरुष व स्त्री स्खलित है जाते हैं। पुरुष के शिश्न से वीर्य निकलता है और स्त्री की योनि से पानी की तरह पतला द्रव्य।
*!! स्खलन के बाद !!*
संभोग के बाद जब वीर्य स्खलित हो जाता है तो अधिकांश पुरुष समझ लेते हैं कि अब काम समाप्त हो गया है और सो जाने के अलावा कोई काम शेष नहीं रह गया है। उनकी यह बहुत बड़ी भूल है। स्खलन के साथ ही मैथुन समाप्त नहीं हो जाता। वीर्य स्खलन का अर्थ केवल इतना है कि जिस पहाड़ की चोटी पर आप पहुंचना चाहते थे, वहां आप पहुंच गये हैं। अभी चोटी से नीचे भी उतरना है। नीचे उतरना भी एक कला है।
जो पुरुष वीर्य स्खलित होने के पश्चात सो जाता है या सोने की तैयारी करने लगता है, वह अपनी संगिनी की भावना को गहरा आघात पहुंचाता है। उसके मन में यह विचार आ सकता है कि उसका साथी केवल अपनी शारीरिक संतुष्टि को महत्त्व देता है, उसकी भावना की कोई परवाह नहीं करता। पुरुष का कर्त्तव्य है कि वह स्त्री के मन में ऐसी भावना पैदा न होने दे। स्त्री को संतुष्टि तथा आनन्द प्रदान करने के लिए पुरुष को चाहिए कि वह समागम के बाद स्त्री के विभिन्न अंगों का चुम्बन ले, प्रेमपूर्वक आलिंगन करे और कुछ समय प्रेमालाप करे। इन बातों से स्त्री को यह अनुभव होगा कि पुरुष उसे कामवासना की पूर्ति का खिलौना ही नहीं समझता, वास्तव में वह उससे प्रेम करता है। इसके अलावा संभोग के बाद पुरुष का आवेग जिस गति से शांत होता है स्त्री का आवेग उतनी तेजी से शांत नहीं होता। उसमें काफी समय लगता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पुरुष धीरे-धीरे अपनी प्रणय क्रीड़ाओं से स्त्री को सामान्य दशा में लाए। जब उसे यह विश्वास हो जाए कि स्त्री का कामोन्माद पूरी तरह से शांत हो गया है तो भी उसे उसकी ओर मुंह फेरकर नहीं सोना चाहिए। उसे अपनी छाती से तब तक लगाए रखना चाहिए तब तक वह सो न जाए। उसके सोने के बाद ही स्वयं को सोना चाहिए।
*!! संभोग क्रीड़ा का वर्गीकरण !!*
शिश्न और योनि के आकार के भेद के अनुसार जिस प्रकार संभोग क्रीड़ा का वर्गीकरण किया गया है उसी प्रकार संवेग के आधार पर भी रति-क्रीड़ा के भेद निर्धारित किए गए हैं। जिस प्रकार दो व्यक्तियों के चेहरे आपस में नहीं मिलते, जिस प्रकार दो व्यक्तियों की रुचि एवं पसन्द में तथा शारीरिक ढ़ाचे एवं मानसिक स्तर में परस्पर भिन्नता होती है, उसी प्रकार दो नर-नारियों की कामुकता एवं यौन संवेगों में पर्याप्त अन्तर होता है। कुछ नर-नारियां ऐसी होती हैं जो प्रचण्ड यौन-क्रीड़ा को सहन नहीं कर पाती। प्रगाढ़ एवं कठोर आलिंगन, चुम्बन, नख-क्रीड़ा एवं दंतक्षत उन्हें नहीं भाता। ऐसे नर-नारियों को मृदुवेगी कहा गया है। कोमल प्रकृति होने के कारण इन्हें हल्का संभोग ही अधिक रुचिकारी होता है।
जिन नर-नारियों की यौन-चेतना औसत दर्जे की अथवा मध्यम दर्जे की होती है उन्हें मध्यवेगीय कहते हैं। ये न तो अति कामुक होते हैं और न ही इनकी यौन सचेतना मंद होती है। ये संभोग प्रिय भी होते हैं और यौन कला प्रवीण भी परन्तु काम पीड़ित नहीं होते हैं। पाक क्रीड़ा में अक्रामक रुख भी नहीं अपनाते। इनका यौन जीवन सामान्यतः संतुष्ट एवं आनन्दपूर्ण होता है। ये अच्छे तथा आदर्श गृहस्थ भी होते हैं।
चण्ड वेगी नर-नारियों की कामुकत्ता प्रचण्ड होती है। ये विलासी और कामी होते हैं। बार-बार यौन क्रियाओं के लिए इच्छुक रहते हैं। मौका पाते ही संभोग भी कर लेते है। संवेगात्मक तीव्रता अथवा न्यूनता के आधार पर स्त्री-पुरुष को जो वर्गीकरण किया गया है वह प्रकार है-
*!! समरति !!*
मनदवेगी नायक का सम्पर्क मन्दवेगी नारी के साथ।
मध्यवेगी नायक का वेग मध्यवेगी नारी के साथ।
चण्डवेगी नायक का जोड़ा चण्डवेगी नारी के साथ।
*!! विषमरति !!*
मन्दनेगी पुरुष सा सम्पर्क मध्यवगी नारी के साथ।
मन्दवेगी नायक का रमण चण्डवेगी नारी के साथ।
मध्यवेगी नर का जोड़ा मन्दवेगी नारी के साथ।
मध्यवेगी पुरुष का संबध चण्डवेगी नारी के साथ।
चण्डवेगी नायक का संभोग मन्दवेगी स्त्री के साथ।
चण्डवेगी नायक का समान समागम मध्यवेगी नारी के साथ।
*स्तंभनकाल-* कई पुरुषों में देर तक सेक्स करने की क्षमता नहीं होती है। ऐसे पुरुष योनि में शिश्न प्रवेश के कुछ सैकैण्ड के बाद ही स्खलित हो जाते हैं। कुछ पुरुषों की स्तंभन शक्ति मध्यम दर्जे की होती है। थोड़े ही पुरुष ऐसे होते हैं जो देर तक रति-क्रीड़ा करने में सक्षम होते हैं जो पुरुष अधिक देर तक नहीं टिक पाते वे स्त्री को संतुष्ट नहीं कर सकते। उनका विवाहित जीवन कलहपूर्ण हो जाता है। इसी तरह कुछ स्त्रियां शीघ्र ही संतुष्ट हो जाती हैं- कुछ स्त्रियां मात्र थोड़े वेगपूर्ण घर्षणों से ही संतुष्ट होती हैं और कुछ स्त्रियां करीब 10-15 मिनट तक निरंतर घर्षण के पश्चात ही संतुष्ट होती हैं। अतः यौन-संतुष्टि के लिए काल के आधार पर भी वर्गीकरण किया गया है।
शीघ्र स्खलित होने वाले पुरुष का संयोग शीघ्र संतुष्ट होने वाली स्त्री के साथ।
मध्यम अवधि तक टिकने वाले पुरुष का सेक्स संबंध मध्यकालिक रमणी (स्त्री) के साथ।
दीर्घकालिक पुरुष का समागम देर तक घर्षण करने के बाद पश्चात संतुष्ट होने वाली रमण प्रिया नारी के साथ।
उक्त सभी वर्गीकरण स्त्री-पुरुष की मनोशारीरिक रचना एवं संवेगात्मक तीव्रता के आधार पर किए गए हैं।
वही रति-क्रीड़ा सफल एवं उत्तम होती हैं जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों चरमोत्कर्ष के क्षणों में सब कुछ भूल कर दो शरीर एक प्राण हो जाते हैं। परन्तु यह तभी संभव होता है जबकि पुरुष को सेक्स संबंधी संपूर्ण जानकारी हो तथा जिसमें पर्याप्त स्तंभन शक्ति हो। जिन पुरुषों में देर तक सेक्स करने की क्षमता होती हैं उन पर स्त्रियां मर-मिटती हैं।
अनेक पुरुषों को यह भ्रम बना रहता है कि उनके समान ही स्त्रियां भी स्खलित होती हैं। यह धारणा भ्रामक, निराधार और मजाक भी है। पुरुषों के समान स्त्रियों में चरमोत्कर्ष की स्थिति में किसी भी प्रकार का स्खलन नहीं होता। नारी की पूर्ण संतुष्टि के लिए आवश्यक है कि रति-क्रीड़ा में संलग्न होने के पूर्ण नारी को कलात्मक पाक-क्रीड़ा द्वारा इतना कामोत्तेजित कर दिया जाये कि वह सेक्स संबंध बनाने के लिए स्वयं आतुर हो उठे एवं चंद घर्षणों के पश्चात ही आनन्द के चरम शिखर पर पहुंच जाएं। नारी को उत्तेजित करने के लिए केवल आलिंगन, चुम्बन एवं स्तन मर्दन ही पर्याप्त नहीं होता। यूं तो नारी का सम्पूर्ण शरीर कामोत्तेजक होता है, पर उसके शरीर में कुछ ऐसे संवेदनशील स्थान अथवा बिन्दु हैं जिन्हें छेड़ने, सहलाने एवं उद्वेलित करने में अंग-प्रत्यंग में कामोत्तेजना प्रवाहित होने लगती है।
*!! नारी के शरीर में कामोत्तेजना के निम्नलिखित स्थान संवेदनशील होते हैं-!!*
शिश्निका (सर्वाधिक संवेदनशील), भगोष्ठः बाह्य एवं आंतरिक, जांघें, नाभि क्षेत्र, स्तन (चूचक अति संवेदनशील), गर्दन का पिछला भाग, होंठ एवं जीभ, कानों का निचला भाग जहां आभूषण धारण किए जाते हैं, कांख, रीढ़, नितम्ब, घुटनों का पृष्ठ मुलायम भाग, पिंडलियां तथा तलवे।
इन अंगों को कोमलतापूर्वक हाथों से सहलाने से नारी शीघ्र ही द्रवित होकर पुरुष से लिपटने लगती है हाथों एवं उंगलियों द्वारा इन अंगों को उत्तेजित करने के साथ ही यदि इन्हें चुम्बन आदि भी किया जाए तो नारी की कामाग्नि तेजी से भड़क उठती है एवं रति क्रीड़ा के आनन्द में अकल्पित वृद्धि होती है। यह आवश्यक नहीं कि सभी अंगों को होंठ अथवा जिव्हा से आन्दोलित किया जाए यह प्रेमी और प्रिया की परस्पर सहमति एवं रुचि पर निर्भर करता है कि प्रणय-क्रीड़ा के समय किन स्थानों पर होठ एवं जीभ का प्रयोग किया जाए। उद्देश केवल यही है कि प्रत्येक रति-क्रीड़ा में नर और नारी को रोमांचक आनन्द की उपलब्धि समान रूप से होनी चाहिए। नारी की चित्तवृत्ति सदा एक समान नहीं रहती। किसी दिन यदि वह मानसिक अथवा शारीरिक रूप से क्षुब्ध हो, रति-क्रीड़ा के लिए अनिच्छा जाहिर करे तो किसी भी प्रकार की मनमानी नहीं करनी चाहिए। सामान्य स्थिति में भी प्रिया को पूर्णतः कामोद्दीप्त कर लेने के पश्चात् ही यौन-क्रीड़ा में संलग्न होना चाहिए।

*!! संभोग के लिए प्रवृत्ति या इच्छा-!!*
स्त्री भले ही सम्भोग के लिए जल्दी मान जाए, परन्तु यह जरूरी नहीं है कि वह इस क्रिया में भी जल्द अपना मन बना ले। पुरुषों के लिए यह बात समझना थोड़ी मुश्किल है। स्त्री को शायद सम्भोग में इतना आनन्द नहीं आता जितना कि सम्भोग से पूर्व काम-क्रीड़ा, अलिंगन, चुम्बन और प्रेम भरी बातें करने में आता है। जब तक पति-पत्नी दोनों सम्भोग के लिए व्याकुल न हो उठें तब तक सम्भोग नहीं करना चाहिए !!

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