Monday 29 April 2019

योग के प्रकार

योग के प्रकार

  1. कर्म योग
  2. राज योग
  3. हठयोग
  4. भक्ति योग
  5. कुण्डिलिनी योग
  6. मंत्र योग
  7. ज्ञान योग
          मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी योग क्रिया को कर सकता है। इनमें किसी योग क्रिया को नियमानुसार करना ही योग है। योग का कोई भी रास्ता सरल नहीं है तथा योग के अभ्यास में धैर्य व आत्मविश्वास ही इसकी सबसे बड़ी सफलता है। इन सभी मार्गो पर कठिन अभ्यास को निरंतर करते रहना जरूरी है।
भक्ति योग-
          जिस मनुष्य का स्वभाव भावना या भक्ति में लीन होना हो उसे भक्ति योग कहते हैं। भक्ति चाहे भगवान के प्रति हो, देश के प्रति हो या किसी महान व्यक्ति या गुरू के प्रति हो। 
कर्म योग-
          जो मनुष्य निरंतर अपने काम में लगे रहते हैं, उन्हें कर्मयोगी कहते हैं। योग वशिष्ट में लिखा है- ´´जब कोई मनुष्य अपने अन्दर किसी प्रकार की इच्छा या फल की आशा किये बिना ही निरंतर अपने कार्य को करता रहता है, तो उसके द्वारा किया जाने वाला कर्म ही योग होता है। इस कर्म योग के रास्ते पर चलना अधिक कठिन है। आज लोग किसी काम से पहले उसके फल की इच्छा रखते हैं अत: आज के समय में अपने में ऐसी भावना का त्याग करना ही सबसे बड़ा योग है।
ज्ञान योग-
          ज्ञान योग में ऐसे व्यक्ति आते हैं, जो शास्त्र-पुराणों का अध्ययन करते हैं और अपने ज्ञान के अनुसार ही बातों का अर्थ लगाते हैं। वे अपने ज्ञान व अनुभव के बल पर ही संसार में कुछ अलग कर दिखाते हैं, ऐसे लोग ही ज्ञान योगी कहलाते हैं। इस योग में लीन रहने वाले व्यक्ति अपने बल पर कुछ विशेष भावनाएं मन में लेकर जीते हैं। ऐसे व्यक्ति के मन में ´मैं कौन हूं? मेरा अस्तित्व क्या है ? सांसारिक क्रिया अपने आप क्यों बदलती रहती है? कौन है जो इस संसार को चला रहा है? ऐसे विचार उत्पन्न होने पर वे उस वास्तविता की खोज में निकल जाते हैं। इसे ही आत्मज्ञान कहते हैं। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए जो एकाग्रता व शांति भाव बनाता है और चिंतन करते हुए सत्य की खोज करता है, वही ज्ञान योगी कहलाता है।
राज योग-
          अधिक चिंतन करने वाले तथा अपनी मानसिक क्रिया-प्रतिक्रिया से किसी क्रिया को गहराई से अध्ययन करने वाले लोग ही राजयोगी होते हैं। राज योगी मानव चेतना (सूक्ष्म शक्ति) को जानने की कोशिश करते हैं। इस योग में आत्मदर्शन की गहराईयों में उतरना होता है। योगदर्शन में योग के 8 अंग बतलाए गए है। योग के सभी अंगों को करने से व्यक्तियों को आत्मज्ञान होता है तथा वे उस सूक्ष्म शक्ति का दर्शन कर पाते हैं जिससे यह संसार क्रियाशील है और जिससे मानव का अस्तित्व मौजूद है।
हठयोग-
          हठयोग क्रिया अर्थात किसी क्रिया को ´जबर्दस्ती करना´ है। जब कोई व्यक्ति अपनी चेतना व इच्छा शक्ति को बढ़ाने के लिए या बुद्धि का उच्च विकास के लिए ऐसे रास्ते अपनाते हैं जो अत्यंत कठिन है, तो उसे हठयोग कहते हैं। ऋषि पंतजलि ने अपने ´योग दर्शन´ में कहा है कि अभ्यास के द्वारा चित्तवृति (मन के विचार) को रोकना ही योग है। मन के भटकने या चंचलता को स्थिर कर किसी एक दिशा में केन्द्रित करना ही योग है। फिर मन को किसी आसन में बैठकर रोका जाए या हठयोग क्रिया (जबर्दस्ती) के द्वारा ही रोका जाएं। हठयोग में प्रयोग होने वाले ´ह´ का अर्थ चन्द्र और ´ठ´ का अर्थ सूर्य होता है। योग में नाक के बाएं छिद्र को चन्द्र व दाएं छिद्र को सूर्य कहा गया है। दाएं छिद्र से बहने वाली वायु ´पिंगला´ नाड़ी में बहती है और बाएं छिद्र से बहने वाली वायु ´इड़ा´ नाड़ी में बहती है। शरीर में वायु का संचार होने से ही प्राणी जीवित रहता है। मानव जीवन में शारीरिक क्रिया सूर्य नाड़ी से बहने वाली वायु के कारण होती है और मस्तिष्क की क्रिया चन्द्र नाड़ी से बहने वाली वायु के कारण होती है। सूर्य नाड़ी की अधिक क्रियाशीलता के कारण शारीरिक क्रिया अधिक क्रियाशील रहती है। शारीरिक व मानसिक क्रिया में संतुलन बनाए रखने के लिए दोनों नासिकाओं (नाक के दोनो छिद्र) का समान होना आवश्यक है। हठयोग क्रिया का मुख्य आधार वायु प्रवाह को नाक के दोनों छिद्रों से समान रूप में प्रवाहित करना है। हठयोग के शारीरिक क्रिया को आसन कहते हैं। प्राणायाम व मुद्रा भी हठयोग के अंग हैं। ऐसी क्रिया जिसको करते हुए व्यक्ति को अधिक कष्ट होता है, उसे हठयोग कहते हैं और इससे शारीरिक व मानसिक स्वच्छता प्राप्त होती है।
कुण्डलिनी योग-
          कुण्डलिनी योग ऐसी योग क्रिया है, जिसमें व्यक्ति अपने अन्दर मौजूद कुण्डलिनी शक्ति को जागृत कर दिव्यशक्ति व ज्ञान को प्राप्त करता है। कुण्डलिनी शक्ति को अंग्रेजी भाषा में ´प्लक्सस´ कहते हैं। कुण्डलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी में नाभि के निचले हिस्से में सोई हुई अवस्था में रहती है। यही प्राण शक्ति का केन्द्र होता है, जिससे सभी नाड़ियों का संचालन होता है। योगशास्त्रों में मानव शरीर के अन्दर 6 चक्रों का वर्णन किया गया है। कुण्डलिनी शक्ति को जब ध्यान के द्वारा जागृत किया जाता है, तब यही शक्ति जागृत होकर मस्तिष्क की ओर बढ़ते हुए शरीर के सभी चक्रों को क्रियाशील करती है। कुण्डलिनी के साथ 6 चक्रों का जागरण होने से मनुष्य को दिव्यशक्ति व ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस ध्यान के द्वारा अपने शक्ति को जागरण करना ही कुण्डलिनी योग कहलाता है।
मंत्र योग-
          भारतीय संस्कृति के हिन्दू धर्म के अनेक ग्रंथ व वेद, पुराणों में विभिन्न प्रकार के मंत्रों का प्रयोग किया गया है। इनमें प्रयोग किये जाने वाले मंत्रों में अत्यंत शक्ति होती है, क्योंकि इन मंत्रों को पढ़ने से जो ध्वनि तरंग उत्पन्न होती है, उससे शरीर के स्थूल व सूक्ष्म अंग तक कंपित होते हैं। वैज्ञानिक परीक्षणों से यह साबित हो गया है कि मंत्रों में प्रयोग होने वाले शब्दों में भी शक्ति होती है। मंत्रों में प्रयोग होने वाले कुछ ऐसे शब्द हैं, जिन्हे ´अल्फ वेव्स´ कहते हैं। मंत्र का यह शब्द 8 से 13 साइकल प्रति सैंकेंड में होता है और यह ध्वनि तरंग व्यक्ति की एकाग्रता में भी उत्पन्न होता है। इन शब्दों से जो बनता है, उसे मंत्र कहते हें। मंत्रों का जप करने से व्यक्ति के अन्दर जो ध्वनि तरंग वाली शक्ति उत्पन्न होती है, उसे मंत्र योग कहते हैं।
         कुछ अन्य योग भी हैं जैसे- प्रेमयोग, लययोग, नादयोग, शिवयोग, ध्यानयोग आदि। ये सभी योग के छोटे रूप हैं। इन योग के किसी कार्य को पूर्ण लगन से करना भी योग ही है। भगवान का प्रतिदिन श्रद्धा व भक्ति से ध्यान करना भी योग ही है। 
लययोग-
          भगवान को प्राप्त करने का सबसे आसान व सरल योग है लययोग। प्राण और मन का लय हो जाना ही आत्मा का परमात्मा से मिलना है। आत्मा में ही सब कुछ लय कर देना या लीन हो जाना ही लययोग है। अपने चित्त को बाहरी वस्तुओं से हटाकर अंतर आत्मा में लीन कर लेना ही लय योग है।
नाद योग-
          जिस तरह योग में आसन के लिए सिद्धासन और शक्तियों में कुम्भक प्राणायाम है, उसी तरह लय और नाद भी है। परमात्मा तत्व को जानने के लिए नादयोग को ही महान बताया गया है। जब किसी व्यक्ति को इसमें सफलता मिलने लगती है, तब उसे नाद सुनाई देता है। नाद का सुनाई देना सिद्धि प्राप्ति का संकेत है। नाद समाधि खेचरी मुद्रा से सिद्ध होती है।
प्रेमयोग-

          व्यक्ति के मन में जब किसी कार्य के प्रति सच्ची लगन होती है, तभी प्रेम का उदय होता है। जब व्यक्ति के अन्दर प्रेम या निष्ठा अधिक दृढ़ हो जाती है, तब प्रेमयोग कहलाने लगता है। व्यक्ति के मन में ईश्वर के प्रति प्रगढ़ एवं अगाध श्रद्धा होती है। यह श्रद्धा जब अंतिम अवस्था में पहुंच जाती है, तब भगवान की प्राप्ति होती है।  



Jagteswer Anand Dham Avm Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Grand Master Spiritual Healing, M.I.M.S)
(Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, Treatment & Training Center)
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