Thursday 11 August 2016

रसधारएक कली

रसधारएक कली
रसधारएक कली है।कली अभी फूल नहीं है,लेकिन फूल हो सकती है।लेकिन जरूरी नहीं कि फूल हो ही।कली भी रह सकती है।यह भी हो सकता है कि फूल हो जाए,यह भी हो सकता है कली रहकर ही गिर जाए।किस बात पर निर्भर करेगा कली का फूल होना ?

कली का फूल होना उस कली के नीचे अंतर में बहती हुई रसधारा पर निर्भर करेगा।कितने बलपूर्वक उस पौधे में रस की धार बह रही है,इस पर निर्भर करेगा।वह रसधारा अगर बल में बह रही है,तो कली खिल जाएगीऔर फूल बन जाएगी।और अगर वह रसधार क्षीण है,मुर्दा है, गतिमान नहीं है तो कली कली रह जाएगीऔर फूल नहीं बन पाएगी।
कली के भीतर फूल छिपा है,संभावना की तरह।
वास्तविकता की तरह नहीं,संभावना की तरह।
एक स्वप्न है अभी तो,लेकिन साकार हो सकता है।
लेकिन कली की अपनी रसधार पर निर्भर करेगा।
परमात्मा एक स्वप्न है मनुष्य की आत्मा में छिपा।
अगर मनुष्य की आत्मा को हम कली समझें,तो परमात्मा फूल है।
लेकिन आदमी की अपनी जीवन—रसधार पर ही निर्भर करेगा। उसी रसधार का नाम श्रद्धा है।कितने बलपूर्वक,कितने आग्रहपूर्वक,कितनी शक्ति से,कितनी त्वरा से अभीप्सा है भीतर ? कितने जोर से पुकारा हैहमने जीवन को ? कितने जोर से हमने खीची है ,जीवन की प्राणवत्ता अपनी तरफ ? कितने जोर से हम सलगन हुए हैं, कितने जोर से हम समर्पित हुए हैं ? कितना एकाग्र भाव सेहमने चेष्टा की है ?
इस सब पर निर्भर करेगा कि कली फूल बने कि न बने।तो जो आदमी कहता है श्रद्धा तो नहीं है, रास्ता बता दें,वह ऐसी कली है जो कह रही है, रसधार तो नहीं है।लेकिन रास्ता बताएं कि फूल कैसे हो जाऊं?रास्ता बताया जा सकता है,लेकिन व्यर्थ होगा।
क्योंकि रास्ते का सवाल उतना नहीं है,जितना चलने वाले की आंतरिक शक्ति का है।श्रद्धा का अर्थ इतना ही हैकि मैंने इकट्ठी कीअपने प्राणो की सारी शक्ति,दाव पर लगा दी।दाव कठिन है,क्योंकि कली को फूल काकुछ भी पता नहीं है।
कली यह भी सोच सकती है कि यह दाव कहीं चूक न जाए।कहीं ऐसा न हो किफूल भी न बन पाऊं और पास की  संपदा थी,जो रसधार थी,वह भी चूक जाए।यह डर है, यह भय है।कली को सोचना पड़ेगा कि मैं दांव लगाऊं,कहीं ऐसा न होकि जिस रसधार से मैं महीनो तक कली रह सकती थीवह रसधार भी चूक जाए दांव में,फूल भी न बन पाए औेर मेरी जिदगी भी नष्ट हो जाए।यही भय आदमी को धार्मिक नहीं होने देता।डर लगा ही रहता है कि जो है,कहीं वह न छूट जाएं।और जो नहीं है,वह मिले न मिले, क्या पता इस अज्ञात में छलांग लगाने कीहिम्मत ही श्रद्धा है, कली छलांग लगा लेती है।फूल बन जाती हैऔर फूल बन कर मिटने का मजा ही और है।
और कली रह कर गिर जाना बड़ा दुःख दायी है।फूल बनकर मिटने का मजा और है।क्योंकि पूरा फूल अगर खिल गया हो,तो मिटना एक सुख है।मिटना एक आनंद है।
क्योंकि पूरा फूल बन जाने के बादविश्राम है।



अंधा आदमी

अंधा आदमी
जैसे अंधा आदमी एक अंधेरे में खड़ा हो और दरवाजा उसे पता भी नहीं है कि किस दिशा में है। आरतें होतीं तो देख भी लेता। देख भी नहीं सकता। आंखे भी होतीं तो भी मुश्किल था, क्योंकि घना अंधेरा है। फिर यह भी पक्का नहीं है कि जहां खड़ा है, वहां दरवाजा है भी या नहीं। या सब तरफ कारागृह की दीवाल है। अंधा कहा से शुरू करेगा? अंधा टटोलना शुरू करेगा। सब तरफ टटोलेगा। टटोलने में बहुत भूल—चूक होगी। क्योंकि दरवाजे पर हाथ सीधा नहीं पड़ जाएगा। दीवाल पर पड़ेगा। बहुत बार दरवाजा चूक—चूक भी जा सकता है।

चिंतन टटोलना है। चिंतन का अर्थ है. हमें कुछ पता नहीं; टटोलते हैं। मन से सोचते हैं, विचारते हैं, प्रश्न उठाते हैं, हल खोजने की कोशिश करते हैं। सब टटोलना है। इसमें सौ में निन्यानबे मौके पर तो दीवाल पर हाथ पड़ेगा। एक ही मौके पर दरवाजे पर हाथ पड़ेगा। और डर यह है कि निन्यानबे दफा जब दीवाल पर हाथ पड़े, तो हाथ भी दीवाल का आदी हो जाएगा। हो सकता है कि दरवाजे पर भी जब हाथ पड़े, तब भी आपको भरोसा न आए कि दरवाजा है। निन्यानबे बार दीवाल मिली, शायद यह भी दीवाल ही हो! चिंतन सौ में से निन्यानबे बार नास्तिकता पर पहुंचेगा, एक बार ही आस्तिकता पर पहुंचता है। यह थोड़ा समझ लेने जैसा है।
जो लोग भी सोचना शुरू करेंगे, पहले नास्तिक हो जाएंगे। दीवाल पहले मिलेगी। दरवाजा तो बहुत छोटी—सी जगह होता है, दीवाल बड़ी है। हाथ दीवाल पर ही पड़ेगा। कभी संयोग की ही बात है, या बहुत जन्मों तक दीवाल टटोलकर जो चले हों, उनका हाथ किसी जन्म में सीधा दरवाजे पर पड़ जाए। अन्यथा नास्तिकता ही प्रारंभ होगी। चिंतनशील व्यक्ति पहले नास्तिक हो जाएगा।

और ध्यान रहे, जो नास्तिक होने से डरेगा, वह पहला कदम ही नहीं उठा पाएगा। इसलिए मैं नास्तिकता को आस्तिकता का विरोध नहीं मानता हूं आस्तिकता का प्राथमिक चरण मानता हूं। इसलिए नास्तिक की मेरे मन में जरा भी निंदा नहीं है, पूरी प्रशंसा है। क्योंकि जो नास्तिक ही नहीं हुआ, उसके आस्तिक होने का कोई भी उपाय नहीं। और अगर आप नास्तिक होने के पहले आस्तिक हो गए हैं, तो आपकी आस्तिकता नपुंसक होगी, झूठी होगी, सिर्फ अंधी होगी। ऐसी आस्तिकता के पास आंखे नहीं हो सकतीं।

क्योंकि जिसने नहीं कहने की हिम्मत नहीं जुटाई, उसके ही में कोई बल नहीं होता। उसकी ही निर्बल होती है। और जिसने कभी चिंतन की धारा को निखारा नहीं, पैना नहीं किया, और जिसने चिंतन की तलवार पर धार नहीं रखी, जो इसलिए डरता रहा कि कहीं इनकार न हो जाए, उसकी बोथली तलवार—आस्तिकता की भी—किसी काम की नहीं है।

इसलिए दुनिया में बड़ी अजीब घटना घटी है। वह घटना यह है कि कुछ हैं बड़ी संख्या में लोग, जो नास्तिक न हो जाएं इसलिए सोचते ही नहीं। सोचने से भयभीत हैं, विचार करने से डरे हुए हैं। लेकिन अगर आपकी आस्तिकता विचार करने से डरती है, तो दो कौड़ी की है। जो विचार को भी नहीं सह सकती, वह आस्तिकता कहां ले जाएगी!

विचार बड़ी कमजोर चीज है। जो विचार से ही टूट जाती है, उसका क्या मूल्य है। तर्क कोई बड़ी वजनी बात नहीं है, खेल है शब्दों का। और तर्क से ही जो आस्तिकता भयभीत होती है, उस आस्तिकता के नीचे कोई भूमि नहीं है, वह अधर में लटकी है। वह ताश का घर है, जरा सा तर्क का झोंका उसे गिरा देता है। क्या आप डरते हैं? क्या आपकी श्रद्धा कंपती है? तो आप जानना कि आप पहला कदम चूक गए हैं। आपने ठीक चिंतन नहीं किया।
तो सौ में से निन्यानबे लोग झूठे आस्तिक हैं। सौ में से कभी कोई एक आदमी नास्तिक होने की हिम्मत जुटाता है। नास्तिक होना हिम्मत है। हिम्मत इसलिए है कि आस्तिकता के साथ सारी व्यवस्था है; आस्तिकता का सारा विस्तार है; आस्तिकता के साथ हमारे जीवन के सब मूल्य जुड़े हैं। आस्तिकता के साथ हमारे स्वार्थ संयुक्त हैं। नास्तिकता असुरक्षा में डाल देती है। नास्तिक आदमी कहीं का नहीं रह जाता। उसकी कोई बिलागिग नहीं रह जाती। वह किसका है? किसका साथी? किसका मित्र? किस समाज का हिस्सेदार?

ओशो


शिवलिंग

शिवलिंग
शिवलिंग से ज्यादा महत्वपूर्ण प्रतिमा पृथ्वी पर कभी नहीं खोजी गई। उसमें आपकी आत्मा का पूरा आकार छिपा है। और आपकी आत्मा की ऊर्जा एक वर्तुल में घूम सकती है, यह भी छिपा है। और जिस दिन आपकी ऊर्जा आपके ही भीतर घूमती है और आप में ही लीन हो जाती है, उस दिन शक्ति भी नहीं खोती और आनंद भी उपलब्ध होता है। और फिर जितनी ज्यादा शक्ति संगृहीत होती जाती है, उतना ही आनंद बढ़ता जाता है।हमने शंकर की प्रतिमा को, शिव की प्रतिमा को अर्धनारीश्वर बनाया है। शंकर की आधी प्रतिमा पुरुष की और आधी स्त्री की- यह अनूठी घटना है। जो लोग भी जीवन के परम रहस्य में जाना चाहते हैं, उन्हें शिव के व्यक्तित्वको ठीक से समझना ही पड़ेगा।और देवताओं को हमने देवता कहा है, शिव को महादेव कहा है। उनसे ऊंचाई पर हमने किसी को रखा नहीं। उसके कुछ कारण हैं। उनकी कल्पना में हमने सारा जीवन का सार और कुंजियां छिपा दी हैं।अर्धनारीश्वर का अर्थ यह हुआ कि जिस दिन परमसंभोग घटना शुरू होता है, आपका ही आधा व्यक्तित्व आपकी पत्नी और आपका ही आधा व्यक्तित्व आपका पति हो जाता है। आपकी ही आधी ऊर्जा स्त्रैण और आधी पुरुष हो जाती है। और इन दोनों के भीतर जो रस और जो लीनता पैदा होती है, फिर शक्ति का कहीं कोई विसर्जन नहीं होता।अगर आप बायोलॉजिस्ट से पूछें आज, वे कहते हैं- हर व्यक्ति दोनों है, बाई-सेक्सुअल है। वह आधा पुरुष है, आधा स्त्री है। होना भी चाहिए, क्योंकि आपपैदा एक स्त्री और एक पुरुष के मिलन से हुए हैं।तो आधे-आधे आप होना ही चाहिए। अगर आप सिर्फ मां से पैदा हुए होते, तो स्त्री होते। सिर्फ पिता से पैदा हुए होते, तो पुरुष होते। लेकिन आप में पचास प्रतिशत आपके पिता और पचास प्रतिशत आपकी मां मौजूद है। आप न तो पुरुष हो सकते हैं, न स्त्री हो सकते हैं- आप अर्धनारीश्वर हैं।बायोलॉजी ने तो अब खोजा है, लेकिन हमने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में आज से पचास हजार साल पहले इस धारणा को स्थापित कर दिया। यह हमने खोजी योगी के अनुभव के आधार पर।क्योंकि जब योगी अपने भीतर लीन होता है, तब वह पाता है कि मैं दोनों हूं।और मुझमें दोनों मिल रहे हैं। मेरा पुरुष मेरी प्रकृति में लीन हो रहा है; मेरी प्रकृति मेरे पुरुष से मिल रही है। और उनका आलिंगन अबाध चल रहा है; एक वर्तुल पूरा हो गया है। मनोवैज्ञानिक भी कहतेहैं कि आप आधे पुरुष हैं और आधे स्त्री। आपका चेतन पुरुष है, आपका अचेतन स्त्री है। और अगर आपका चेतन स्त्री का है, तो आपका अचेतन पुरुष है। उन दोनों में एक मिलन चल रहा है।

ओशो:

संभोग को लंबाकर संभोग से मुक्त करवाने वाला सूत्र

संभोग को लंबाकर संभोग से मुक्त करवाने वाला सूत्र

एक बात, पहली बात स्‍पष्‍ट कर लेनी जरूरी है वह हय कि यह भ्रम छोड़ देना चाहिए कि हम पैदा हो गये है, इसलिए हमें पता है—क्‍या है काम, क्‍या है संभोग। नहीं पता नहीं है। और नहीं पता होने के कारण जीवन पूरे समय काम और सेक्‍स में उलझा रहता है और व्‍यतीत होता है।
      मैंने आपसे कहा, पशुओं का बंधा हुआ समय है। उनकी ऋतु है। उनके मौसम है। आदमी का कोई बंधा हुआ समय नहीं है। क्‍यों? पशु शायद मनुष्‍य से ज्‍यादा संभोग की गहराई में उतरने में समर्थ है और मनुष्‍य उतना भी समर्थ नहीं रह गया है।
      जिन लोगों ने जीवन के इन तलों पर बहुत खोज की है और गहराइयों में गये है और  जिन लोगों ने जीवन के बहुत से अनुभव संग्रहीत किये है। उनको यह जानना, यह सुत्र उपलब्‍ध हुआ है कि अगर संभोग एक मिनट तक रुकेगा तो आदमी दूसरे दिन फिर संभोग के लिए लालायित हो जायेगा। अगर तीन मिनट तक रूक सके तो यह सप्‍ताह तक उसे सेक्‍स की वह याद भी नहीं आयेगी। और अगर साम मिनट तक रूक सके तो तीन महीने के लिए सेक्‍स से इस तरह मुक्‍त हो जायेगा कि उसकी कल्‍पना में भी विचार प्रविष्‍ट नहीं होगा। और अगर तीन घंटे तक रूक सके तो जीवन भर के लिए मुक्‍त हो जायेगा। जीवन में उसको कल्‍पना भी नहीं उठेगी।
      लेकिन सामान्‍यत: क्षण भर का अनुभव है मनुष्‍य का। तीन घंटे की कल्‍पना करनी भी मुश्‍किल है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं के तीन घंटे अगर संभोग की स्‍थिति में, उस समाधि की दशा में व्‍यक्‍ति रूक जाये तो एक संभोग पूरे जीवन के लिए सेक्‍स से मुक्‍त करने के लिए पर्याप्‍त है। इतनी तृप्‍ति पीछे छोड़ जाता है—इतनी अनुभव,इतनी बोध छोड़ जाता है कि जीवन भर के लिए पर्याप्‍त हो जाता है। एक संभोग के बाद व्‍यक्‍ति ब्रह्मचर्य को अपलब्‍ध हो सकता है।
      लेकिन हम तो जीवन भी संभोग के बाद भी उपलब्‍ध नहीं होते। क्‍या है? बूढ़ा हो जाता है आदमी मरने के करीब पहुंच जाता है और संभोग की कामना से मुक्‍त नहीं होता। संभोग की कला और संभोग के शास्‍त्र को उसने समझा नहीं है। और न कभी किसी ने समझाया है,न विचार किया है। न सोचा है, न बात की है। कोई संवाद भी नहीं हुआ जीवन में—कि अनुभवी लोग उस पर संवाद करते और विचार करते हम बिलकुल पशुओं से भी बदतर हालत पर है। उस स्‍थिति में है। आप कहेंगे कि एक क्षण से तीन घंटे तक संभोग की दशा ठहर सकती है, लेकिन कैसे?
      कुछ थोड़े से सूत्र आपको कहता हूं। उन्‍हें थोड़ा ख्‍याल में रखेंगे तो ब्रह्मचर्य की तरफ जाने में बड़ी यात्रा सरल हो जायेगी। संभोग करते क्षणों में क्षणों श्वास जितनी तेज होगी। संभोग का काल उतना ही छोटा होगा। श्वास जितनी शांत और शिथिल होगी। संभोग का काल उतना ही लंबा हो जायेगा। अगर श्वास को बिलकुल शिथिल करने का थोड़ा अभ्‍यास किया जाये, तो संभोग के क्षणों को कितना ही लंबा किया जा सकता है। और संभोग के क्षण जितने लंबे होंगे, उतने ही संभोग के भीतर से समाधि का जो सूत्र मैंने आपसे कहा है—निरहंकार भाव, इगोलेसनेस और टाइमलेसनेस का अनुभव शुरू हो जायेगा। श्वास अत्‍यंत शिथिल होनी चाहिए। श्वास के शिथिल होते ही संभोग की गहराई अर्थ और उदघाटन शुरू हो जायेंगे।
      और दुसरी बात, संभोग के क्षण में ध्‍यान दोनों आंखों के बीच, जहां योग आज्ञा चक्र को बताता है। वहां अगर ध्‍यान हो तो संभोग की सीमा और समय तीन घंटे तक बढ़ाया जा सकता है। और एक संभोग व्‍यक्‍ति को सदा के लिए ब्रह्मचर्य में प्रतिष्‍ठित कर देगा—न केवल एक जन्‍म के लिए, बल्‍कि अगले जन्‍म के लिए भी।
      किन्‍हीं एक बहन ने पत्र लिखा है और मुझे पूछा है कि विनोबा तो बाल ब्रह्मचारी है, क्‍या उन्‍हें समाधि का अनुभव नहीं हुआ होगा। मेरे बाबत पूछा है कि मैंने तो विवाह नहीं किया, मैं तो बाल ब्रह्मचारी हूं मुझे समाधि का अनुभव नहीं हुआ होगा।
      उस बहन को अगर वह यहां मौजूद हों तो मैं कहना चाहता हूं। विनोबा को या मुझे या किसी को भी बिना अनुभव के ब्रह्मचर्य उपलब्‍ध नहीं होता। वह अनुभव चाहे इस जन्‍म का हो, चाहे पिछले जन्‍म का हो—जो इस जन्‍म में ब्रह्मचर्य को उपलब्‍ध होता है, वह पिछले जन्‍मों के गहरे संभोग के अनुभव के आधार पर और किसी आधार पर नहीं। कोई और रास्‍ता नहीं है।
      लेकिन अगर पिछले जन्‍म में किसी को गहरे संभोग की अनुभूति हुई हो ता इस जन्‍म के साथ ही वह सेक्‍स से मुक्‍त पैदा होगा। उसकी कल्‍पना के मार्ग पर सेक्‍स कभी भी खड़ा नहीं होगा और उसे हैरानी दूसरे लोगों को देखकर कि यह क्‍या बात है। लोग क्‍यों पागल हैं,क्‍यों दीवाने है?  उसे कठिनाई होगी यह जांच करने में कि कौन स्‍त्री है, कौन पुरूष है?इसका भी हिसाब रखने में और फासला रखने में कठिनाई होगी।
      लेकिन कोई अगर सोचता हो कि बिना गहरे अनुभव के कोई बाल ब्रह्मचारी हो सकता है। तो बाल ब्रह्मचारी नहीं होगा, सिर्फ पागल हो जायेगा। जो लोग जबरदस्‍ती ब्रह्मचर्य थोपने की कोशिश करते है, वह विक्षिप्‍त होते है और कहीं भी नहीं पहुंचते।
      ब्रह्मचर्य थोपा नहीं जाता। वह अनुभव की निष्‍पति है। वह किसी गहरे अनुभव का फल है। और वह अनुभव संभोग का ही अनुभव है। अगर वह अनुभव एक बार भी हो जाए तो अनंत जीवन की यात्रा के लिए सेक्‍स से मुक्‍ति हो जाती है।
      तो दो बातें मैंने कहीं, उस गहराई के लिए—श्वास शिथिल हो इतनी शिथिल हो कि जैसे चलती ही नहीं और ध्‍यान, सारी अटैंशन आज्ञा चक्र के पास हो। दोनों आंखों के बीच के बिन्‍दु पर हो। जितना ध्‍यान मस्‍तिष्‍क के पास होगा, उतनी ही संभोग की गहराई अपने आप बढ़ जायेगी। और जितनी श्राव शिथिल होगी, उतनी लम्‍बाई बढ़ जायेगी। और आपको पहली दफा अनुभव होगा कि संभोग का आकर्षण नहीं है मनुष्‍य के मन में। मनुष्‍य के मन में समाधि का आकर्षण है। और एक बार उसकी झलक मिल जाए, एक बार बिजली चमक जाये और हमें दिखाई पड़ जाये अंधेरे में कि रास्‍ता क्‍या है फिर हम रास्‍ते पर आगे निकल सकते है।
      एक आदमी एक गंदे घर में बैठा है। दीवालें अंधेरी है ओर धुएँ से पूती हुई है। घर बदबू से भरा हुआ है। लेकिन खिड़की खोल सकता है। उस गंदे घर की खिड़की में खड़े होकर वह देख सकता है दूर आकाश को तारों को सूरज को, उड़ते हुए पक्षियों को। और तब उसे उस घर के बहार निकलने में कठिनाई नहीं रह जायेगी।
      जिस दिन आदमी को संभोग के भीतर समाधि का पहली थोड़ी सह भी अनुभूति होती है उसी दिन सेक्‍स का गंदा मकान सेक्‍स की दीवालें अंधेरे से भरी हुई व्‍यर्थ हो जाती है आदमी बाहर निकल जाता है।
      लेकिन यह जानना जरूरी है कि साधारणतया हम उस मकान के भीतर पैदा होते है। जिसकी दीवालें बंद है। जो अंधेरे से पूती है। जहां बदबू है जहां दुर्गंध है और इस मकान के भीतर ही पहली दफ़ा मकान के बाहर का अनुभव करना जरूरी है, तभी हम बहार जा सकते है। और इस मकान को छोड़ सकते है। जिस आदमी ने खिड़की नहीं खोली उस मकान की और उसी मकान के कोने में आँख बंद करके बैठ गया है कि मैं इस गंदे मकान को नहीं देखूँगा, वह चाहे देखे और चाहे न देखे। वह गंदे मकान के भीतर ही है और भीतर ही रहेगा।
      जिसको हम ब्रह्मचारी कहते है। तथाकथित जबर दस्‍ती थोपे हुए ब्रह्मचारी, वे सेक्‍स के मकान के भीतर उतने ही है जितना की कोई भी साधारण आदमी है। आँख बंद किये बैठे है,आप आँख खोले हुए बैठे है, इतना ही फर्क है। जो आप आँख खोलकर कर रहे है, वह आँख बंद कर के भीतर कर रहे है। जो आप शरीर से कर रहे है। वे मन से कर रहे है। और कोई फर्क नहीं है।
      इसलिए मैं कहता हूं कि संभोग के प्रति दुर्भाव छोड़ दे। समझने की चेष्‍टा,प्रयोग करने की चेष्‍टा करें और संभोग को एक पवित्रता की स्‍थिति दे।
      मैंने दो सूत्र कहे। तीसरी एक भाव दशा चाहिए संभोग के पास जाते समय। वैसा भाव-दशा जैसे कोई मंदिर के पास जा रहा है। क्‍योंकि संभोग के क्षण में हम परमात्‍मा के निकटतम होते है। इसीलिए तो संभोग में परमात्‍मा सृजन का काम करता है। और नये जीवन को जन्‍म देता है। हम क्रिएटर के निकटतम होते है।
      संभोग की अनुभूति में हम सृष्‍टा के निकटतम होते है।
      इसीलिए तो हम मार्ग बन जाते है। और एक नया जीवन हमसे उतरता है। और गतिमान हो जाता है। हम जन्‍मदाता बन जाते है।
      क्‍यों?
      सृष्‍टा के निकटतम है वह स्‍थिति। अगर हम पवित्रता से प्रार्थना से सेक्‍स के पास जायें तो हम परमात्‍मा की झलक को अनुभव कर सकते है। लेकिन हम तो सेक्‍स के पास घृणा एक दुर्भाव एक कंडेमनेशन के साथ जाते है। इसलिए दीवाल खड़ी हो जाती है। और परमात्‍मा का यहां कोई अनुभव नहीं हो पाता है।
      सेक्‍स के पास ऐसे जाऐं, जैसे की मंदिर के पास जा रहे है। पत्‍नी को ऐसा समझें, जैसे की वह प्रभु है। पति को ऐसा समझें कि जैसे कि वह परमात्‍मा है। और गंदगी में क्रोध में कठोरता में द्वेष में, ईर्ष्‍या में, जलन में चिन्‍ता के क्षणों में कभी भी सेक्‍स के पास न जायें। होता उलटा है। जितना आदमी चिन्‍तित होता है। जितना परेशान होता है। जितना क्रोध से भरा होता है। जितना घबराया होता है, जितना एंग्‍विश में होता है। उतना ही ज्‍यादा वह सेक्‍स के पास जाता है।
      आनंदित आदमी सेक्‍स के पास नहीं जाता। देखी आदमी सेक्‍स की तरफ जाता है। क्‍योंकि दुख को भुलाने के लिए इसको एक मौका दिखाई पड़ता है।
      लेकिन स्मरण रखें कि जब आप दुःख में जायेंगे, चिंता में जायेंगे, उदास हारे हुए जायेगे, क्रोध में लड़े हुए जायेंगे। तब आप कभी भी सेक्‍स की उस गहरी अनुभूति को उपलब्‍ध नहीं कर पायेंगे। जिसका की प्राणों में प्यास  है। वह समाधि की झलक वहां नहीं मिलेगी। लेकिन यहां उलटा होता है।
      मेरी प्रार्थना है जब आनंद में हों, जब प्रेम में हों, जब प्रफुल्‍लित हों और जब प्राण ‘प्रेयर फुल’ हों। जब ऐसा मालुम पड़े कि आज ह्रदय शांति से और आनंद से कृतज्ञता से भरा हुआ है, तभी क्षण है—तभी क्षण है संभोग के निकट जाने का। और वैसा व्‍यक्‍ति संभोग से समाधि को उपलब्‍ध होता है। और एक बार भी समाधि की एक किरण मिल जाये। तो संभोग से सदा के लिए मुक्‍त हो जाता है। और समाधि में गतिमान हो जाता है।
      स्‍त्री और पुरूष का मिलन एक बहुत गहरा अर्थ रखता है। स्‍त्री और पुरूष के मिलन में पहली बार अहंकार टूटता है और हम किसी से मिलते है।
      मां के पेट से बच्‍चा निकलता है और दिन रात उसके प्राणों में एक ही बात लगी रहती है जैसे की हमने किसी वृक्ष को उखाड़ लिया जमीन से। उस पूरे वृक्ष के प्राण तड़पते है कि जमीन से कैसे जुड़ जाये। क्‍योंकि जमीन से जुड़ा हुआ होकर ही उसे प्राण मिलता था। रस मिलता था जीवन  मिलता था। व्‍हाइटालिटी मिलती थी। जमीन से उखड गया तो उसकी सारी जड़ें चिल्लाये गी कि मुझे जमीन में वापस भेज दो। उसका सारा प्राण चिल्लाये गा कि मुझे जमीन में वापस भेज दो। वह उखड  गया टूट गया। अपरूटेड हो गया।
      आदमी जैसे ही मां के पेट से बाहर निकलता है, अपरूटेड हो जाता है। वह सारे जीवन और जगत से एक अर्थ में टूट गया। अलग हो गया। अब उसकी सारी पुकार और सारे प्राण की आकांशा जगत और जीवन और अस्‍तित्‍व से, एग्ज़िसटैंस से वापस जुड़ जाने की है। उसी पुकार का नाम प्रेम और प्‍यास है।
      प्रेम का और अर्थ क्‍या है? हर आदमी चाह रहा है कि मैं प्रेम पाऊँ और प्रेम करूं। प्रेम का मतलब क्‍या है?
      प्रेम का मतलब है कि मैं टुट गया हूं, आइसोलेट हो गया हूं। अलग हो गया हूं। मैं वापस जुड़ जाऊँ जीवन से। लेकिन इस जुड़ने का गहरे से गहरा अनुभव मनुष्‍य को सेक्‍स के अनुभव में होता है। स्‍त्री और पुरूष को होता है। वह पहला अनुभव है जुड़ जाने का। और जो व्‍यक्‍ति इस जुड़ जाने के अनुभव को—प्रेम की प्‍यास, जुड़ने की आकांशा के अर्थ में समझेगा,वह आदमी एक दूसरे अनुभव को भी शीध्र उपलब्‍ध हो सकता है।
      योगी जुड़ता है, साधु भी जुड़ता है। संत भी जुड़ता है, समाधिस्‍थ व्‍यक्‍ति भी जुड़ता है। संभोगी भी जुड़ता है।
      संभोग करने में दो व्‍यक्‍ति जुड़ते है। एक व्‍यक्‍ति दूसरे से जुड़ता है और एक हो जाता है।
      समाधि में एक व्‍यक्‍ति समष्‍टि से जुड़ता है और एक हो जाता है।
      संभोग दो व्‍यक्‍तियों के बीच मिलन है।
      समाधि एक व्‍यक्‍ति और अनंत के बीच मिलन है।
      स्‍वभावत: दो व्‍यक्‍ति का मिलन क्षण भर को हो सकता है। एक व्‍यक्‍ति और अनंत का मिलन अनंत के लिए हो सकता है। दोनों व्‍यक्‍ति सीमित है। उनका मिलन असीम नहीं हो सकता। यही पीड़ा है, यहीं कष्‍ट है, सारे दांपत्‍य का, सारे प्रेम का कि जिससे हम जुड़ना चाहते है। उससे भी सदा के लिए नहीं जुड़ पाते। क्षण भर को जुड़ते है और फिर फासले हो जात है। फासले पीड़ा देते है। फासले कष्ट देते है। और निरंतर दो प्रेमी इसी पीड़ा में परेशान रहते है। कि फासला क्‍यों है। और हर चीज फिर धीरे-धीरे ऐसी मालूम पड़ने लगती है कि दूसरा फासला बना रहा है। इसीलिए दूसरे पर क्रोध पैदा होना शुरू हो जाता है।

-ओशो

दमन रहित ब्रम्हचर्य का प्रयोग


दमन रहित ब्रम्हचर्य का प्रयोग

जैसे ही चित्त यौन की मांग करता है, सेक्स की मांग करता है, शरीर सेक्स की तैयारी करने लगता है। यौन-केंद्र मूलाधार से दूसरे की मांग की स्फुरणा शुरू हो जाती है। यौन-केंद्र बहिर्गामी हो जाता है। इस क्षण में तंत्र कहता है कि अगर यौन-केंद्र को अंतर्गामी किया जा सके, भीतर की तरफ खींचा जा सके–जिसे यौन-मुद्रा का नाम दिया है–अगर यौन-केंद्र मूलाधार को भीतर की तरफ खींचा जा सके, तो तत्काल आप दो क्षण में पायेंगे कि शरीर ने यौन की मांग बंद कर दी। मांग लेकिन पैदा हो गई थी। शक्ति जग गई थी, और अब मांग बंद हो गई। इस शक्ति को ऊपर ले जाया जा सकता है।

जैसे ही हम सेक्स का विचार करते हैं वैसे ही हमारा चित्त जननेंद्रिय की तरफ बहने लगता है। तो तुरंत जननेंद्रिय को भीतर की ओर खींच लेते ही जननेंद्रिय से बाहर जानेवाले सब द्वार बंद हो जाते हैं। और जो ऊर्जा जग गई है, अगर उस क्षण में हम आंखों को बंद कर लें और आंख बंद करके सिर की छत की तरफ, अंदर से जैसे ऊपर की तरफ देख रहे हों, देखना शुरू कर दें, तो ऊर्जा ऊपर की तरफ बहना शुरू हो जाती है।

यह एक महीने भर के प्रयोग से अभूतपूर्व अनुभव में किसी भी व्यक्ति को उतार दिया जा सकता है। जब भी यौन का खयाल उठे तभी यौन-केंद्र को, मूलाधार को भीतर की ओर खींच लें, आंख बंद करें और सिर की छत की तरफ अंदर से जैसे ऊपर देख रहे हों, देखना शुरू कर दें। और आप एक महीने भर के भीतर, इक्कीस दिन के भीतर पायेंगे कि आपके भीतर से कोई चीज नीचे से ऊपर की तरफ जानी शुरू हो गई है। यह वस्तुतः अनुभव होगा कि कोई चीज ऊपर बहने लगी, कोई चीज ऊपर उठने लगी। उसे कोई कुंडलिनी का नाम कहता है, उसे कोई और कोई नाम दे सकता है।

इसमें दो बिदुओं पर ध्यान देना जरूरी है। एक तो सेक्स-सेंटर पर, मूलाधार पर, और दूसरे सहस्रार पर। सहस्रार हमारे ऊपर का केंद्र है सबसे ऊपर, और मूलाधार हमारे सबसे नीचे का केंद्र है। मूलाधार को सिकोड़ लें भीतर की तरफ। तो उसमें जो शक्ति पैदा हुई है, वह शक्ति मार्ग खोज रही है। और अपने चित्त को ले जायें ऊपर की तरफ, तो वही मार्ग खुला रह जाता है। चित्त जिस तरफ देखता है उसी तरफ शरीर की शक्तियां बहनी शुरू हो जाती हैं। यह ट्रांसफार्मेशन की छोटी-सी विधि है।

तो इसका अगर प्रयोग करें तो ब्रह्मचर्य बिना सप्रेशन के फलीभूत होता है। यह सप्रेशन नहीं है, यह सब्लीमेशन है। यह दमन नहीं है। दमन का तो मतलब है कि ऊपर का द्वार नहीं खुला है और नीचे के द्वार पर रोके चले जा रहे हैं। तब उपद्रव होगा, तब विक्षिप्तता होगी, पागलपन होगा। अगर मार्ग भी है शक्ति के लिए, तो दमन नहीं होगा, सिर्फ ऊर्ध्वगमन होगा। शक्ति नीचे से ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाएगी।

यह तो एक प्रायोगिक बात मैंने आपसे कही। यह प्रयोग करें और समझें। यह कोई सैद्धांतिक बात नहीं है। न कोई बौद्धिक या शास्त्रीय बात है। यह करोड़ों लोगों की अनुभूत घटना है और सरलतम प्रयोग है। कठिन बहुत नहीं है। और एक बार मस्तिष्क के ऊपरी छोरों पर रस के फूल खिलने शुरू हो जायें तो आपकी जिंदगी से यौन विदा होने लगेगा। वह धीरे-धीरे खो जाएगा और एक नई ही ऊर्जा का, नई ही शक्ति का, एक नये ही वीर्य का, एक नई दीप्ति का, एक नये आलोक का एक नया संसार शुरू हो जाता है।
🌹ओशो 👏

प्रेम से रहित मनुष्‍य

" प्रेम से रहित मनुष्‍य मात्र एक दुर्घटना है! "

हिटलर ने जर्मनी में साठ लाख यहूदियों की हत्‍या की। पाँच सौ यहूदी रोज मारता रहा। स्‍टैलिन ने रूस में साठ लाख लोगों की हत्‍या की। जरूर इनके जन्‍म के साथ कोई गड़बड़ हो गयी। जरूर ये जन्‍म के साथ पागल पैदा हुए। उन्‍माद इनके जन्‍म के साथ इनके खून में आया और फिरा वे इसको फैलाते चले गये। पागलों में बड़ी ताकत होती है। पागल कब्‍जा कर लेते है और दौड़ कर हावी हो जाते है—धन पर,पद पर, यश पर, फिर वे सारी दूनिया को विकृत करते है। पागल ताकतवर होते है।

यह जो पागलों ने दुनिया बनायी है। यह दुनिया तीसरे महायुद्ध के करीब आ गयी है। सारी दुनिया मरेगी। पहले महायुद्ध में साढ़े तीन करोड लोगों की हत्‍या की गई। दूसरे महायुद्घ में साढ़े सात करोड़ लोगों की हत्या की गई। तब तीसरे में कितनी की जायेगी?

मैंने सूना है जब आइन्सटीन भगवान के घर पहुंच गया तो भगवान ने उससे पूछा कि मैं बहुत घबराया हुआ हूं। तीसरे महायुद्ध के संबंध में कुछ बताओगे? क्‍या होगा? उसने कहा, तीसरे के बाबत कहना मुश्‍किल है, चौथे के संबंध में कुछ जरूर बता सकता हूं। भगवान ने कहा, तीसरे के बाबत नहीं बता सकते तो चौथे के बाबत कैसे बताओगे? आइन्‍सटीन ने कहा एक बात बता सकता हूं चौथे के बाबत कि चौथा महायुद्ध कभी नहीं होगा। क्‍योंकि तीसरे में सब समाप्‍त हो जायेगा। चौथे के होने की कोई संभावना नहीं है। और तीसरे के बाबत कुछ भी कहना मुश्‍किल है कि साढ़े तीर अरब पागल आदमी क्‍या करेंगे? तीसरे महायुद्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्‍या स्‍थिति होगी।

प्रेम से रहित मनुष्‍य मात्र एक दुर्घटना है—मैं अंत में यह बात निवेदन करना चाहता हूं।

मेरी बातें बड़ी अजीब लगी होंगी; क्‍योंकि ऋषि मुनि इस तरह की बातें करते ही नहीं। मेरी बात बहुत अजीब लगी होगी। आपने सोचा होगा कि मैं भजन-कीर्तन का कोई नुस्‍खा बताऊंगा। आपने सोचा होगा कि मैं कोई माला फेरने की तरकीब बतालाऊंगा। आपने सोचा होगा कि मैं कोई आपको ताबीज दे दूँगा। जिसको बांधकर आप परमात्‍मा से मिल जायें। ऐसी कोई बात में आपको नहीं बता सकता हूं। ऐसे बताने वाले सब बेईमान है, धोखेबाज है। समाज को उन्‍होंने बहुत बर्बाद किया है।

समाज की जिंदगी को समझने के लिए मनुष्‍य के पूरे विज्ञान को समझना जरूरी है। परिवार को दंपति को, समाज को—उसकी पूरी व्‍यवस्‍था को समझना जरूरी है। कि कहां गड़बड़ हुई है। अगर सारी दुनिया यह तय कर ले कि हम पृथ्‍वी में एक प्रेम का घर बनायेगे, झूठे विवाह का नहीं। हां, प्रेम से विवाह निकले तो यह सच्‍चा विवाह होगा। हम सारी दुनिया को प्रेम का एक मंदिर बनायेगे। जितनी कठिनाइयां होंगी। मुश्‍किलें होंगी, अव्‍यवस्‍था होगी। उसको संभालने का हम कोई उपाय खोजेंगे। उस पर विचार करेंगे। लेकिन दुनिया से हम यह अप्रेम का जो जाल है, इसको तोड़ देंगे। और प्रेम की एक दुनिया बनायेगे। तो शायद पूरी मनुष्‍यजाति बच सकती है। और स्‍वस्‍थ हो सकती है।

जोर देकर मैं आपके यह कहना चाहता हूं कि अगर सारे जगत में प्रेम के केंद्र पर परिवार बन जाये तो अति मानव सुपरमैन की कल्‍पना, जो हजारों साल से हो रही है। आदमी को महा मानव बनाने की—यह जो नीत्से कल्‍पना करता है, अरविंद कल्‍पना करते है—यह कल्‍पना पूरी हो सकती है, लेकिन न तो अरविंद को प्रार्थनाओं से और न नीत्से के द्वारा पैदा किये गये सिद्धांत से वह सपना पूरा हो सकता है।

अगर पृथ्‍वी पर हम प्रेम की प्रतिष्‍ठा को वापस लौटा लाये, अगर प्रेम जीवन में वापस लौट आये सम्‍मानित हो जाए; अगर प्रेम एक आध्‍यात्‍मिक मूल्‍य ले-ले, तो नये मानव का निर्माण हो सकता है। नयी संतति का नयी पीढ़ियों को नये आदमी का। और वह आदमी वह बच्‍चा वह भ्रूण जिसका पहला अणु प्रेम से जन्‍मेंगा, विश्‍वास किया जा सकता है आश्‍वासन दिया जा सकता है कि उसकी अंतिम सांस परमात्‍मा में निकलेगी।

प्रेम है प्रारंभ। परमात्‍मा है अंत। वह अंतिम सीढी है।

जो प्रेम को ही नहीं पाता है, वह परमात्‍मा को पा ही नहीं सकता, यह असंभावना है।

~ ओशो, प्रेम और विवाह, 'संभोग से समाधि की ओर',


सेक्स और मृत्यु

****सेक्स और मृत्यु****
Height of osho explanation
जीवन की सारी गति वर्तुलाकार है, मंडलाकार है। स्त्री से जन्म मिलता है तो कहीं गहरे में स्त्री से ही मृत्यु भी मिलती होगी
अब अगर स्त्री शब्द को हटा दो तो चीजें और साफ हो जायेंगी
क्योंकि हमारी पकड़ यह होती है : स्त्री यानी स्त्री
हम प्रतीक नहीं समझ पाते; हम काव्य के संकेत नहीं समझ पाते
स्त्रियों को लगेगा, यह तो उनके विरोध में वचन है
और पुरुष सोचेंगे, हमें तो पहले ही से पता था, स्त्रियां बड़ी खतरनाक हैं! यहां स्त्री से कुछ लेना—देना नहीं है, तुम्हारी पत्नी से कोई संबंध नहीं है
यह तो प्रतीक है, यह तो काव्य का प्रतीक है, यह तो सूचक है—कुछ कहना चाहते हैं इस प्रतीक के द्वारा
कहना यह चाहते हैं कि काम से जन्म होता है और काम के कारण ही मृत्यु होती है। होगी ही
जिस वासना के कारण देह बनती है, उसी वासना के विदा हो जाने पर देह विसर्जित हो जाती है
वासना ही जैसे जीवन है। और जब वासना की ऊर्जा क्षीण हो गयी तो आदमी मरने लगता है मरने का क्या अर्थ है?
इतना ही अर्थ है कि अब वासना की ऊर्जा क्षीण हो गयी; अब नदी सूखने लगी, अब जल्दी ही नदी तिरोहित हो जायेगी
बचपन का क्या अर्थ है? —गंगोत्री। नदी पैदा हो रही है
जवानी का अर्थ है : नदी बाढ़ पर है। बुढ़ापे का अर्थ है. नदी विदा होने के करीब आ गयी; समुद्र में मिलन का क्षण आ गया; नदी अब विलीन हो जायेगी
कामवासना से जन्म है। इस जगत में जो भी, जहां भी जन्म घट रहा है—फूल खिल रहा है, पक्षी गुनगुना रहे हैं, बच्चे पैदा हो रहे हैं, अंडे रखे जा रहे हैं —सारे जगत में जो सृजन चल रहा है, वह काम—ऊर्जा है, वह सेक्स—एनर्जी है
तो जैसे ही तुम्हारे भीतर से काम—ऊर्जा विदा हो जायेगी, वैसे ही तुम्हारा जीवन समाप्त होने लगा; मौत आ गयी
मौत क्या है? काम—ऊर्जा का तिरोहित हो जाना मौत है। इसलिए तो मरते दम तक आदमी कामवासना से ग्रसित रहता है, क्योंकि आदमी मरना नहीं चाहता
तुम चकित होओगे जान कर, पुराने ताओवादी ग्रंथों में इस तरह का उल्लेख है—और उल्लेख महत्वपूर्ण है—कि सम्राट चाहे कितना ही बूढ़ा हो जाये, सदा नयी—नयी जवान लड़कियों से विवाह करता रहे
कारण? क्योंकि जब भी सम्राट नयी लड़कियों से विवाह करता है तो थोड़ी देर को भांति पैदा होती है कि मैं जवान हूं
सम्राट जब का हो जाये तो दो जवान लड़कियों को अपने दोनों तरफ सुला कर रात बिस्तर पर सोये
जवान लड़कियों की मौजूदगी उसके भीतर से वासना को तिरोहित न
होने देगी, और मौत को टाला जा सकेगा
मौत को दूर तक टाला जा सकेगा। इसमें कुछ राज है। बात में कुछ सचाई है
तुमने कभी खयाल किया, तुम्हारी उम्र पचास साल है और अगर तुम बीस साल की युवती के प्रेम में पड़ जाओ तो अचानक तुम ऐसे चलने लगोगे जैसे तुम्हारी उम्र दस साल कम हो गयी; जैसे तुम थोड़े जवान हो गये; फिर से एक पुलक आ गयी; फिर से वासना ने एक लहर ली; फिर तरंगें उठीं
बुढा आदमी भी किसी के प्रेम में पड़ जाये तो तुम पाओगे उसकी आंख में बुढ़ापा नहीं रहा, वासना तरंगित होने लगी, धूल हट गयी बुढ़ापे की
धोखा ही हो हट जाना, लेकिन हटती है। जवान आदमी को भी कोई प्रेम न करे तो वह जवानी में ही बूढ़ा होने लगता है, ऐसा लगने लगता है, बेकार हूं? व्यर्थ हूं! इसलिए तो प्रेम का इतना आकर्षण है और मरते दम तक आदमी छोड़ता नहीं; क्योंकि छोड़ने का मतलब ही मरना होता है
इसलिए कामवासना के साथ हम अंत तक ग्रसित रहते हैं
उसी किनारे को पकड़ कर तो हमारा सहारा है। न स्त्रियां उपलब्ध हों तो लोग नंगे चित्र ही देखते रहेंगे; फिल्म में ही देख आयेंगे जा कर; राह के किनारे खड़े हो जायेंगे; बाजार में धक्का—मुक्की कर आयेंगे
कुछ जीवन को गति मिलती मालूम होती है।
जब बूढ़ा आदमी सीटी बजाता है, तब उसकी उम्र उसे भूल जाती है।
जब मौत करीब है, यह भी भूल जाता है
के को दूल्हा बना कर, घोड़े पर बिठा कर देखो, तुम पाओगे वह का नहीं रहा। गठिया इत्यादि था, वह सब शिथिल हो गया है; चल पाता है ठीक से अब
वह जो लकवा लग गया था, उसका पता नहीं चलता
वह जो लंगड़ाने लगा था, अब लंगड़ाता नहीं है। जैसे जीवन की ज्योति में एक नया प्राण पड़ गया; दीये में किसी ने तेल डाल दिया
वासना, काम जीवन है। जीवन का पर्याय है काम। और काम का खो जाना है मृत्यु। इसलिए इन दोनों को एक साथ रखा है।
‘प्रीतियुक्त स्त्री और समीप में उपस्थित मृत्यु को देख कर जो महाशय अविचलमना और स्वस्थ रहता हैँ, वह निश्चय ही मुक्त है।’
अगर मरता हुआ आदमी स्त्री को देख कर वासना से भर जाये तो मौत को खड़ी देख कर भी कंपेगा। अगर मरता हुआ व्यक्ति स्त्री को ऐसा देख ले जैसे कुछ भी नहीं तो मौत को भी देख कर कंपेगा नहीं। और जो स्त्री के संबंध में सच है, वह स्त्रियों के लिए पुरुष के संबंध में सच है। चूंकि ये किताबें पुरुषों ने लिखी हैं और उनको कभी खयाल नहीं था कि स्त्रियों के संबंध कुछ कहें, स्त्रियों के लिए निवेदित नहीं थीं, इसलिए बात भूल गयी। लेकिन मैं यह तुम्हें याद दिला दूं जो पुरुष के संबंध में सही है वही स्त्री के संबंध में सही है। मरते क्षण स्त्री अगर पुरुष को देख कर—प्रीतियुक्त पुरुष को देख कर, जिसका सौंदर्य लुभाता, जिसका स्वास्थ्य आकर्षित करता, जिसकी स्वस्थ बलशाली देह, जिसकी भुजाएं, जिसका वक्ष निमंत्रण देते और जो तुम्हारे प्रति प्रेम से भरा है—ऐसे पुरुष को देखकर अगर मन में कोई विचलन न हो, तो ऐसी स्त्री मृत्यु को भी स्वीकार कर लेगी।
कहने का अर्थ इतना है : जिस दिन तुम कामवासना से अविचलित हो जाते हो, उसी दिन तुम मृत्यु से भी अविचलित हो जाते हो। यह सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है। तो मृत्यु तो कभी आयेगी, उसका तो आज पक्का पता नहीं है। और मृत्यु की तुम तैयारी भी नहीं कर सकते, क्योंकि मृत्यु कोई रिहर्सल भी नहीं करती कि आये और कहे कि अब पंद्रह दिन बाद आयेंगे, अब तुम तैयार हो जाओ। अचानक आ जाती है। कोई संदेशा भी नहीं आता। कोई नोटिस भी नहीं निकलते कि नंबर एक का नोटिस, नंबर दो, नंबर तीन—जैसा इनकम टैक्स आफिस से आते हैं, ऐसा नहीं होता। सीधी अचानक खड़ी हो जाती है—कोई खबर किये बिना! मरने वाले को क्षण भर पहले तक भी आशंका नहीं होती कि मर जाऊंगा। क्षण भर पहले तक भी मरने वाला आदमी जीवन की ही योजनाएं बनाता रहता है! सोचता रहता है—बिस्तर से उठूंगा तो क्या करना? किस धंधे में लगना? कैसे कमाना? कहां जाना? मरता हुआ आदमी भी जीवन की योजनाओं में व्यस्त रहता है। अधिकतर लोग तो जीवन की योजना में व्यस्त रहते—रहते ही मर जाते हैं; उन्हें पता ही नहीं चलता कि मौत आ गयी।
तो मौत का तो साक्षात्कार एक ही बार होगा, अनायास होगा, अचानक होगा, बिना बुलाये मेहमान की तरह द्वार पर खड़ी हो जायेगी। मृत्यु को अतिथि कहा है पुराने शास्त्रों ने। अतिथि का अर्थ होता है जो बिना तिथि को बताये आ जाये। मृत्यु अतिथि है!
लेकिन एक उपाय है फिर। और वह उपाय है कामवासना। अगर कामवासना के प्रति तुम सजग होते जाओ और कामवासना की पकड़ तुम पर छूटती जाये तो जिस मात्रा में कामवासना की पकड़ छूट रही है, उसी मात्रा में तुम्हारे ऊपर मृत्यु का भय भी छूट रहा है। तो जीवन भर तुम मृत्यु की तैयारी कर सकते हो। और मृत्यु का साक्षात्कार बिना भय के जिसने कर लिया वह अमृत हो गया। उसकी फिर कोई मृत्यु नहीं है।
तुम बार—बार सुनते हो, आत्मा अमर है। अपनी मत सोच लेना। तुम्हारी तो अभी आत्मा है भी कहां! आत्मा तो तभी है जब वासना गिर जाती है। और वासना के गिरने के बाद तुम्हारे भीतर सिर्फ चैतन्य शेष रह जाता है। वही आत्मा है। अभी तो तुम्हारी आत्मा इतनी दबी है कि तुम्हें उसका पता भी नहीं हो सकता। अभी तो जिसको तुम अपनी आत्मा समझते हो वह बिलकुल आत्मा नहीं है। अभी तो किसी ने शरीर को आत्मा समझ लिया है, किसी ने मन को आत्मा समझ लिया है, किसी ने कुछ और आत्मा समझ ली है। आत्मा का तुम्हें अभी साक्षात्कार हुआ नहीं है। वासना की धुंध में आत्मा खोयी है, दिखाई नहीं पड़ती। वासना की धुंध छटे तो आत्मा का सूरज निकले। वासना का धुंआ हटे तो आत्मा की ज्योति प्रगट हो!
आत्मा निश्चित अमर है। लेकिन इसे तुम मत सोच लेना कि तुम्हारे भीतर जो तुम जानते हो वह अमर है। उसमें तो कुछ भी अमर नहीं है। अभी अमर से तो तुम्हारी पहचान ही नहीं हुई है। अगर पहचान अमर से हो जाये तो तुम मृत्यु से डरोगे नहीं। क्योंकि तब तुम जानोगे. कैसी मृत्यु! किसकी मृत्यु! जो मरता है वह मैं नहीं हूं। शरीर मरेगा, क्योंकि शरीर पैदा हुआ था। मन मरेगा, क्योंकि मन तो केवल संयोगमात्र है। लेकिन जो शरीर और मन के पार है, दोनों का अतिक्रमण करता है, वह साक्षी बचेगा। पर साक्षी को जानोगे तब न!
और साक्षी को जानने का जो गहरे से गहरा प्रयोग है, वह कामवासना के प्रति साक्षी हो जाना है। क्योंकि वही हमारी सबसे बड़ी पकड़ है। उससे ही छूटना कठिन है। उसका वेग अदम्य है। उसका बल गहन है। उसने हमें चारों तरफ से घेरा है। और घेरने का कारण भी है।
तुम्हारा शरीर निर्मित हुआ है काम— अणु से—पिता का आधा, मां का आधा। —ऐसा दान है तुम्हारे शरीर में। दोनों के काम—अणुओं ने मिल कर पहला तुम्हारा अणु बनाया। फिर उसी अणु से और अणु पैदा होते रहे। आज तुम्हारे शरीर में, वैज्ञानिक कहते हैं, कोई सात करोड़ कामाणु हैं। ये जो सात करोड़ कामाणुओं से बना हुआ तुम्हारा शरीर है, इसके भीतर छिपा है तुम्हारा पुरुष। पुरुष यानी इस नगर के भीतर जो बसा है; इस पुर के भीतर जो बसा है। यह जो सात करोड़ की बस्ती है, इसके भीतर तुम कहीं हो। निश्चित ही सात करोड़ अणुओं ने तुम्हें घेरा हुआ है; सब तरफ से घेरा हुआ है। और उनकी पकड़ गहरी है। तुम उस भीड़ में खो गये हो। उस भीड़ में तुम्हें पता ही नहीं चल रहा है कि मैं कौन हूं? भीड़ क्या है? किसने मुझे घेरा है? तुम्हें अपनीसने मुझे घेरा है? तुम्हें अपनी याद ही नहीं रह गयी है। और इन सात करोड़ के प्रवाह में तुम खिंचे जाते हो। जैसे घोड़े, बलशाली घोड़े रथ को खींचे चले जायें, ऐसा तुम्हारे जीवन की छोटी—सी ज्योति को ये बलशाली सात करोड़ जीवाणु खींचे चले जाते हैं। तुम भागे चले जाते हो। यही मौत में गिरेंगे, क्योंकि जन्म के समय इनका ही कामवासना से निर्माण हुआ था।
ऐसा समझो : जो कामवासना से बना है वही मृत्यु में मरेगा। तुम तो बनने के पहले थे; तुम मिटने के बाद भी रहोगे। लेकिन यह प्रतीति तभी तुम्हारी स्पष्ट हो सकेगी—शास्त्र को सुन कर नहीं; स्वयं को जान कर, जाग कर।
सानुरागा स्त्रियं दृष्टवा मृत्युं वा समुपस्थितम्।
पास खड़ी हो प्रेम से भरी हुई स्त्री, युवा, सुंदर, सानुपाती, रागयुक्त, तुम्हारे प्रति उगख, तुम्हारे प्रति आकर्षित, और खड़ी हो मृत्यु, इन दोनों के बीच अगर तुम अविचलमना, जरा भी बिना हिले—डुले खड़े रहे, जैसे हवा का झोंका आये और दीये की लौ न कंपे, ऐसे तुम अकंप बने रहे, तो ही जानना कि तुम मुक्त हुए हो। जीवन—मुक्ति की यह भीतर की कसौटी है।