Wednesday 19 October 2016

शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का भटकना

शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का भटकना और दूसरे शरीर में प्रवेश करना

एक अंतिम प्रश्न और फिर हम ध्यान के लिए बैठेगें एक मित्र ने सुबह की चर्चा के बाद पूछा है कि क्या कुछ आत्माएं शरीर छोड़ने के बाद भटकती रह जाती हैं?

कुछ आत्माएं निश्चित ही शरीर छोड़ने के बाद एकदम से दूसरा शरीर ग्रहण नहीं कर पाती हैं। उसका कारण? उसका कारण है। और उसका कारण शायद आपने कभी न सोचा होगा कि यह कारण हो सकता है। दुनिया में अगर हम सारी आत्माओं को विभाजित करें, सारे व्यक्तित्वों को, तो वे तीन तरह के मालूम पड़ेंगे। एक तो अत्यंत निकृष्ट, अत्यंत हीन चित्त के लोग; एक अत्यंत उच्च, अत्यंत श्रेष्ठ, अत्यंत पवित्र किस्म के लोग; और फिर बीच की एक भीड़ जो दोनों का तालमेल है, जो बुरे और भले को मेल —मिलाकर चलती है। जैसे कि अगर डमरू हम देखें, तो डमरू दोनों तरफ चौड़ा है और बीच में पतला होता है। डमरू को उलटा कर लें। दोनों तरफ पतला और बीच में चौड़ा हो जाए तो हम दुनिया की स्थिति समझ लेंगे। दोनों तरफ छोर और बीच में मोटा—डमरू उलटा। इन छोरों पर थोड़ी—सी आत्माएं हैं।

निकृष्टतम आत्माओं को भी मुश्किल हो जाती है नया शरीर खोजने में और श्रेष्ठ आत्माओं को भी मुश्किल हो जाती है नया शरीर खोजने में। बीच की आत्माओं को जरा भी देर नहीं लगती। यहां, मरे नहीं, वहां, नई यात्रा शुरू हो गई। उसके कारण हैं। उसका कारण यह है कि साधारण, मीडियाकर मध्य की जो आत्माएं हैं, उनके योग्य गर्भ सदा उपलब्ध रहते हैं।

मैं आपको कहना चाहूंगा कि जैसे ही आदमी मरता है, मरते ही उसके सामने सैकड़ों लोग संभोग करते हुए, सैकड़ों जोड़े दिखाई पड़ते हैं, मरते ही। और जिस जोड़े के प्रति वह आकर्षित हो जाता है वहां, वह गर्भ में प्रवेश कर जाता है। लेकिन बहुत श्रेष्ठ आत्माएं साधारण गर्भ में प्रवेश नहीं कर सकतीं। उनके लिए असाधारण गर्भ की जरूरत है, जहॉं असाधारण संभावनाएं व्यक्तित्व की मिल सकें। तो श्रेष्ठ आत्माओं को रुक जाना पड़ता है। निकृष्ट आत्माओं को भी रुक जाना पडता है, क्योंकि उनके योग्य भी गर्भ नहीं मिलता। क्योंकि उनके योग्य मतलब अत्यंत अयोग्य गर्भ मिलना चाहिए वह भी साधारण नहीं।

श्रेष्ठ और निकृष्ट, दोनों को रुक जाना पड़ता है। साधारण जन एकदम जन्म ले लेता है, उसके लिए कोई कठिनाई नहीं है। उसके लिए निरंतर बाजार में गर्भ उपलब्ध हैं। वह तत्काल किसी गर्भ के प्रति आकर्षित हो जाता है।
सुबह मैंने बारदो की बात की थी। बारदो की प्रक्रिया में मरते हुए आदमी से यह भी कहा जाता है कि अभी तुझे सैकड़ों जोड़े भोग करते हुए, संभोग करते हुए दिखाई पड़ेंगे। तू जरा सोच कर, जरा रुक कर, जरा ठहर कर, गर्भ में प्रवेश करना। जल्दी मत करना, ठहर, थोड़ा ठहर! थोड़ा ठहर कर किसी गर्भ में जाना। एकदम मत चले जाना।

जैसे कोई आदमी बाजार में खरीदने गया है सामान। पहली दुकान पर ही प्रवेश कर जाता है। शो रूम में जो भी लटका हुआ दिखाई पड़ जाता है, वही आकर्षित कर लेता है। लेकिन बुद्धिमान ग्राहक दस दुकान भी देखता है। उलट—पुलट करता है, भाव—ताव करता है, खोज—बीन करता है, फिर निर्णय करता है। नासमझ जल्दी से पहले ही जो चीज उसकी आंख के सामने आ जाती है, वहीं चला जाता है।

तो बारदो की प्रक्रिया में मरते हुए आदमी से कहा जाता है कि सावधान! जल्दी मत करना। जल्दी मत करना। खोजना, सोचना, विचारना, जल्दी मत करना। क्योंकि सैकड़ों लोग निरंतर संभोग में रत हैँ। सैकड़ों जोड़े उसे स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। और जो जोड़ा उसे आकर्षित कर लेता है, और वही जोड़ा उसे आकर्षित करता है जो उसके योग्य गर्भ देने के लिए क्षमतावान होता है।

तो श्रेष्ठ और निकृष्ट आत्माएं रुक जाती हैं। उनको प्रतीक्षा करनी पड़ती है कि जब उनके योग्य गर्भ मिले। निकृष्ट आत्माओं को उतना निकृष्ट गर्भ दिखाई नहीं पड़ता, जहां, वे अपनी संभावनाएं पूरी कर सकें। श्रेष्ठ आत्मा को भी नहीं दिखाई पड़ता।

निकृष्ट आत्माएं जो रुक जाती हैं, उनको हम प्रेत कहते हैं। और श्रेष्ठ आत्माएं जो रुक जाती हैं, उनको हम देवता कहते हैं। देवता का अर्थ है, वे श्रेष्ठ आत्माएं जो रुक गईं। और प्रेत का अर्थ है, भूत का अर्थ है, वे आत्माएं जो निकृष्ट होने के कारण रुक गईं। साधारण जन के लिए निरंतर गर्भ उपलब्ध है। वह तत्काल मरा और प्रवेश कर जाता है। क्षण भर की भी देरी नहीं लगती। यहा समाप्त नहीं हुआ, और वहां, वह प्रवेश करने लगता है।

उन्होंने यह भी पूछा है कि ये जो आत्माएं रुक जाती हैं क्या वे किसी के शरीर में प्रवेश करके उसे परेशान भी कर सकती हैं?

इसकी भी संभावना है। क्योंकि वे आत्माएं, जिनको शरीर नहीं मिलता है, शरीर के बिना बहुत पीड़ित होने लगती हैं। निकृष्ट आत्माएं शरीर के बिना बहुत पीड़ित होने लगती हैं। श्रेष्ठ आत्माएं शरीर के बिना अत्यंत प्रफुल्लित हो जाती हैं। यह फर्क ध्यान में रखना चाहिए। क्योंकि श्रेष्ठ आत्मा शरीर को निरंतर ही किसी न किसी रूप में बंधन अनुभव करती है और चाहती है कि इतनी हलकी हो जाए कि शरीर का बोझ भी न रह जाए। अंततः वह शरीर से भी मुक्त हो जाना चाहती है, क्योंकि शरीर भी एक कारागृह मालूम होता है। अंततः उसे लगता है कि शरीर भी कुछ ऐसे काम करवा लेता है, जो न करने योग्य हैं। इसलिए वह शरीर के लिए बहुत मोहग्रस्त नहीं होता। निकृष्ट आत्मा शरीर के बिना एक क्षण भी नहीं जी सकती। क्योंकि उसका सारा रस, सारा सुख, शरीर से ही बंधा होता है।

शरीर के बिना कुछ आनंद लिये जा सकते हैं। जैसे समझें, एक विचारक है। तो विचारक का जो आनंद है, वह शरीर के बिना भी उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि विचार का शरीर से कोई संबंध नहीं है। तो अगर एक विचारक की आत्मा भटक जाए, शरीर न मिले, तो उस आत्मा को शरीर लेने की कोई तीव्रता नहीं होती, क्योंकि विचार का आनंद तब भी लिया जा सकता है। लेकिन समझो कि एक भोजन करने में रस लेने वाला आदमी है, तो शरीर के बिना भोजन करने का रस असंभव है। तो उसके प्राण बड़े छटपटाने लगते हैं कि वह कैसे प्रवेश कर जाए। और उसके योग्य गर्भ न मिलता हो, तो वह किसी कमजोर आत्मा में—कमजोर आत्मा से मतलब है ऐसी आत्मा, जो अपने शरीर की मालिक नहीं है—उस शरीर में वह प्रवेश कर सकता है, किसी कमजोर आत्मा की भय की स्थिति में।

और ध्यान रहे, भय का एक बहुत गहरा अर्थ है। भय का अर्थ है जो सिकोड़ दे। जब आप भयभीत होते हैं, तब आप सिकुड़ जाते हैं। जब आप प्रफुल्लित होते हैं, तो आप फैल जाते हैं। जब कोई व्यक्ति भयभीत होता है, तो उसकी आत्मा सिकुड जाती है और उसके शरीर में बहुत जगह छूट जाती है, जहां, कोई दूसरी आत्मा प्रवेश कर सकती है। एक नहीं, बहुत आत्माएं भी एकदम से प्रवेश कर सकती हैं। इसलिए भय की स्थिति में कोई आत्मा किसी शरीर में प्रवेश कर सकती है। और करने का कुल कारण इतना होता है कि उसके जो रस हैं, वे शरीर से बंधे हैं। वह दूसरे के शरीर में प्रवेश करके रस लेने की कोशिश करती है। इसकी पूरी संभावना है, इसके पूरे तथ्य हैं, इसकी पूरी वास्तविकता है। इसका यह मतलब हुआ कि एक तो भयभीत व्यक्ति हमेशा खतरे में है। जो भयभीत है, उसे खतरा हो सकता है। क्योंकि वह सिकुड़ी हुई हालत में होता है। वह अपने मकान में, अपने घर के एक कमरे में रहता है, बाकी कमरे उसके खाली पड़े रहते हैं। बाकी कमरों में दूसरे लोग मेहमान बन सकते हैं।

कभी—कभी श्रेष्ठ आत्माएं भी शरीर में प्रवेश करती हैं, कभी—कभी। लेकिन उनका प्रवेश बहुत दूसरे कारणों से होता है। कुछ कृत्य हैं करुणा के, जो शरीर के बिना नहीं किए जा सकते। जैसे समझें कि एक घर में आग लगी है और कोई उस घर को आग से बचाने को नहीं जा रहा है। भीड़ बाहर घिरी खड़ी है, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती कि आग में बढ़ जाए। और तब अचानक एक आदमी बढ़ जाता है और वह आदमी बाद में बताता है कि मुझे समझ में नहीं आया कि मैं किस ताकत के प्रभाव में बढ़ गया। मेरी तो हिम्मत न थी। वह बढ़ जाता है और आग बुझाने लगता है और आग बुझा लेता है। और किसी को बचा कर बाहर निकल आता है। और वह आदमी खुद कहता है कि ऐसा लगता है कि मेरे हाथ की बात नहीं है यह, किसी और ने मुझसे यह करवा लिया है। ऐसी किसी घडी में जहां, कि किसी शुभ कार्य के लिए आदमी हिम्मत न जुटा पाता हो, कोई श्रेष्ठ आत्मा भी प्रवेश कर सकती है। लेकिन ये घटनाएं कम होती हैं।

निकृष्ट आत्मा निरंतर शरीर के लिए आतुर रहती है। उसके सारे रस उनसे बंधे हैं। और यह बात भी ध्यान में रख लेनी चाहिए कि मध्य की आत्माओं के लिए कोई बाधा नहीं है, उनके लिए निरंतर गर्भ उपलब्ध हैं।
इसीलिए श्रेष्ठ आत्मायें कभी—कभी सैकड़ों वर्षों के बाद ही पैदा हो पाती हैं। और यह भी जानकर हैरानी होगी कि जब श्रेष्ठ आत्माएं पैदा होती हैं, तो करीब—करीब पूरी पृथ्वी पर श्रेष्ठ आत्माएं एक साथ पैदा हो जाती हैं। जैसे कि बुद्ध और महावीर भारत में पैदा हुए आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले। बुद्ध, महावीर दोनों बिहार में पैदा हुए। और उसी समय बिहार में छह और अदभुत विचारक थे। उनका नाम शेष नहीं रह सका, क्योंकि उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाए। और कोई कारण न था, वे बुद्ध और महावीर की ही हैसियत के लोग थे। लेकिन उन्होंने बड़े हिम्मत का प्रयोग किया। उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाए। उनमें एक आदमी था प्रबुद्ध कात्यायन, एक आदमी था अजित केसकंबल, एक था संजय विलट्ठीपुत्र, एक था मक्सली गोशाल, और लोग थे। उस समय ठीक बिहार में एक साथ आठ आदमी एक ही प्रतिभा के, एक ही क्षमता के पैदा हो गए। और सिर्फ बिहार में, एक छोटे — से इलाके में सारी दुनिया के। ये आठों आत्माएं बहुत देर से प्रतीक्षारत थीं। और मौका मिल सका तो एकदम से भी मिल गया।

और अक्सर ऐसा होता है कि एक श्रृंखला होती है अच्छे की भी और बुरे की भी। उसी समय यूनान में सुकरात पैदा हुआ थोड़े समय के बाद, अरस्तू पैदा हुआ, प्लेटो पैदा हुआ। उसी समय चीन में कंक्यूशियस पैदा हुआ, लाओत्से पैदा हुआ, मेन्शियस पैदा हुआ, च्चांगत्से पैदा हुआ। उसी समय सारी दुनिया के कोने —कोने में कुछ अदभुत लोग एकदम से पैदा हुए। सारी पृथ्वी कुछ अदभुत लोगों से भर गई।

ऐसा प्रतीत होता है कि ये सारे लोग प्रतीक्षारत थे, प्रतीक्षारत थीं उनकी आत्माएं और एक मौका आया और गर्भ उपलब्ध हो सके। और जब गर्भ उपलब्ध होने का मौका आता है, तो बहुत से गर्भ एक साथ उपलब्ध हो जाते हैं। जैसे कि फूल खिलता है एक। फूल का मौसम आया है, एक फूल खिला और आप पाते हैं कि दूसरा खिला और तीसरा खिला। फूल प्रतीक्षा कर रहे थे और खिल गए। सुबह हुई, सूरज निकलने की प्रतीक्षा थी और कुछ फूल खिलने शुरू हुए। कलियां टूटी, इधर फूल खिला उधर फूल निकला। रात भर से फूल प्रतीक्षा कर रहे थे, सूरज निकला और फूल खिल गए।

ठीक ऐसा ही निकृष्ट आत्माओं के लिए भी होता है। जब पृथ्वी पर उनके लिए योग्य वातावरण मिलता है, तो एक साथ एक श्रृंखला में वे पैदा हो जाते हैं। जैसे हमारे इस युग में भी हिटलर और स्टैलिन और माओ जैसे लोग एकदम से पैदा हुए। एकदम से ऐसे खतरनाक लोग पैदा हुए, जिनको हजारों साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी होगी। क्योंकि स्टैलिन या हिटलर या माओ जैसे आदमियों को भी जल्दी पैदा नहीं किया जा सकता। अकेले स्टैलिन ने रूस में कोई साठ लाख लोगों की हत्या की—अकेले एक आदमी ने। और हिटलर ने —अकेले एक आदमी नें—कोई एक करोड़ लोगों की हत्या की।

हिटलर ने हत्या के ऐसे साधन ईजाद किए, जैसे पृथ्वी पर कभी किसी ने नहीं किए। हिटलर ने इतनी सामूहिक हत्या की, जैसी कभी किसी आदमी ने नहीं की। तैमूरलंग और चंगेजखां सब बचकाने सिद्ध हो गए। हिटलर ने गैस चेंबर्स बनाए। उसने कहा, एक—एक आदमी को मारना तो बहुत महंगा है। एक—एक आदमी को मारो, तो गोली बहुत महंगी पड़ती है। एक—एक आदमी को मारना महंगा है, एक—एक आदमी को कब्र में दफनाना महंगा है। एक—एक आदमी की लाश को उठाकर गांव के बाहर फेंकना बहुत महंगा है। तो कलेक्टिव मर्डर, सामूहिक हत्या कैसे की जाए! लेकिन सामूहिक हत्या भी करने के उपाय हैं। अभी अहमदाबाद में कर दी या कहीं और कर दी, लेकिन ये बहुत महंगे उपाय हैं। एक—एक आदमी को मारो, बहुत तकलीफ होती है, बहुत परेशानी होती है, और बहुत देर भी लगती है। ऐसे एक —एक को मारोगे, तो काम ही नहीं चल सकता। इधर एक मारो, उधर एक पैदा हो जाता है। ऐसे मारने से कोई फायदा नहीं होता।

हिटलर ने गैस चेंबर बनाए। एक—एक चेंबर में पांच—पांच हजार लोगों को इकट्ठा खड़ा करके बिजली का बटन दबाकर एकदम से वाष्पीभूत किया जा सकता है। बस, पांच हजार लोग खड़े किए, बटन दबा और वे गए। एकदम गए और इसके बाद हाल खाली। वे गैस बन गए। इतनी तेज चारों तरफ से बिजली गई कि वे गैस हो गए। न उनकी कब्र बनानी पड़ी, न उनको कहीं मार कर खून गिराना पड़ा।

खून—जून गिराने का हिटलर पर कोई नहीं लगा सकता जुर्म। अगर पुरानी किताबों से भगवान चलता होगा, तो हिटलर को बिलकुल निर्दोष पाएगा। उसने खून किसी का गिराया ही नहीं, किसी की छाती में उसने छुरा मारा नहीं, उसने ऐसी तरकीब निकाली जिसका कहीं वर्णन ही नहीं था। उसने बिलकुल नई तरकीब निकाली, गैस चेंबर। जिसमें आदमी को खड़ा करो, बिजली की गर्मी तेज करो, एकदम वाष्पीभूत हो जाए, एकदम हवा हो जाए, बात खतम हो गई। उस आदमी का फिर नामोल्लेख भी खोजना मुश्किल है, हड्डी खोजना भी मुश्किल है, उस आदमी की चमड़ी खोजना मुश्किल है। वह गया। पहली दफा हिटलर ने इस तरह आदमी उड़ाए जैसे पानी को गर्म करके भाप बनाया जाता है। पानी कहां, गया, पता लगाना मुश्किल है। ऐसे सब खो गए आदमी। ऐसे गैस चेंबर बनाकर उसने एक करोड़ आदमियों को अंदाजन गैस चेंबर में उड़ा दिया।

ऐसे आदमी को जल्दी गर्भ मिलना बड़ा मुश्किल है। और अच्छा ही है कि नहीं मिलता। नहीं तो बहुत कठिनाई हो जाए। अब हिटलर को बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ेगी फिर। बहुत समय लग सकता है हिटलर को दोबारा वापस लौटने के लिए। बहुत कठिन है मामला। क्योंकि इतना निकृष्ट गर्भ अब फिर से उपलब्ध हो। और गर्भ उपलब्ध होने का मतलब क्या है? गर्भ उपलब्ध होने का मतलब है, मां और पिता, उस मां और पिता की लंबी श्रृंखला दुष्टता का पोषण कर रही है—लंबी श्रृंखला। एकाध जीवन में कोई आदमी इतनी दुष्टता पैदा नहीं कर सकता है कि उसका गर्भ हिटलर के योग्य हो जाए। एक आदमी कितनी दुष्टता करेगा? एक आदमी कितनी हत्याएं करेगा? हिटलर जैसा बेटा पैदा करने के लिए, हिटलर जैसा बेटा किसी को अपना मां—बाप चुने इसके लिए सैकड़ों, हजारों, लाखों वर्षों की लंबी कठोरता की परंपरा ही कारगर हो सकती है। यानी सैकड़ों, हजारों वर्ष तक कोई आदमी बूचड़खाने में काम करते ही रहे हों, तब नस्ल इस योग्य हो पाएगी, वीर्याणु इस योग्य हो पाएगा कि हिटलर जैसा बेटा उसे पसंद करे और उसमें प्रवेश करे।

ठीक वैसा ही भली आत्मा के लिए भी है। लेकिन सामान्य आत्मा के लिए कोई कठिनाई नहीं है। उसके लिए रोज गर्भ उपलब्ध हैं। क्योंकि उसकी इतनी भीड़ है और उसके लिए चारों तरफ इतने गर्भ तैयार हैं और उसकी कोई विशेष मांगें भी नहीं हैं। उसकी मांगें बड़ी साधारण हैं। वही खाने की, पीने की, पैसा कमाने की, काम— भोग की, इज्जत की, आदर की, पद की, मिनिस्टर हो जाने की, इस तरह की सामान्य इच्छाएं हैं। इस तरह की इच्छाओं वाला गर्भ कहीं भी मिल सकता है, क्योंकि इतनी साधारण कामनाएं हैं कि सभी की हैं। हर मां —बाप ऐसे बेटे को चुनाव के लिए अवसर दे सकता है। लेकिन अब किसी आदमी को एक करोड़ आदमी मारने हैं, किसी आदमी को ऐसी पवित्रता से जीना है कि उसके पैर का दबाव भी पृथ्वी पर न पड़े, और किसी आदमी को इतने प्रेम से जीना है कि उसका प्रेम भी किसी को कष्ट न दे पाए, उसका प्रेम भी किसी के लिए बोझिल न हो जाए, तो फिर ऐसी आत्माओं के लिए तो प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।
ओशो
मैं मृत्यु सिखाता हूँ
प्रवचन - 5

तंत्र विज्ञान

ये विधियां किसी धर्म की नहीं हैं। याद रखो, वे ठीक वैसे ही हिंदू नहीं हैं जैसे सापेक्षवाद का सिद्धांत आइंस्टीन के द्वारा प्रतिपादित होने के कारण यहूदी नहीं हो जाता, रेडियो और टेलीविजन ईसाई नहीं हैं। कोई नहीं कहता कि बिजली ईसाई है, क्योंकि ईसाई मस्तिष्क ने उसका आविष्कार किया था। विज्ञान किसी वर्ण या धर्म का नहीं है। और तंत्र विज्ञान है। इसलिए स्मरण रहे कि तंत्र हिंदू कतई नहीं है। ये विधियां हिंदुओं की ईजाद अवश्य हैं, लेकिन वे स्वयं हिंदू नहीं हैं। इसलिए इन विधियों में किसी धार्मिक अनुष्ठान का उल्लेख नहीं रहेगा। किसी मंदिर की जरूरत नहीं है। तुम स्वयं मंदिर हो। तुम ही प्रयोगशाला हो, तुम्हारे भीतर ही पूरा प्रयोग होने वाला है। और विश्वास की भी जरूरत नहीं है।
तंत्र धर्म नहीं, विज्ञान है, किसी विश्वास की जरूरत नहीं है। कुरान या वेद में, बुद्ध या महावीर में आस्था रखने की आवश्यकता नहीं है। नहीं, किसी विश्वास की आवश्यकता नहीं है। प्रयोग करने का महासाहस पर्याप्त है, प्रयोग करने की हिम्मत काफी है और यही इसका सौंदर्य है। एक मुसलमान प्रयोग कर सकता है और वह कुरान के गहरे अर्थों को उपलब्ध हो जाएगा। एक हिंदू अभ्यास कर सकता है और वह पहली दफा जानेगा कि वेद क्या है। वैसे ही एक जैन इस साधना में उतर सकता है, बौद्ध इस साधना में उतर सकता है। उन्हें अपने धर्म छोड़ने की जरूरत नहीं है। वे जहां हैं वहीं तंत्र उन्हें आप्तकाम करेगा। उनके अपने चुने हुए रास्ते जो भी हों, तंत्र सहयोगी होगा।


> तंत्र शुद्ध विज्ञान है। तुम हिंदू हो सकते हो, या मुसलमान, या पारसी, या कोई भी। तंत्र तुम्हारे धर्म को जरा भी नहीं छूता है। तंत्र का कहना है कि धर्म सामाजिक मामला है। किसी भी धर्म में रहो, यह अप्रासंगिक है। लेकिन तुम अपने को रूपांतरित कर सकते हो। और उस रूपांतरण के लिए वैज्ञानिक प्रणाली जरूरी है’। जब तुम बीमार पड़ते हो या तुम्हें तपेदिक या कुछ हो गया है, तब तुम्हारा हिंदू या मुसलमान होना कोई फर्क नहीं करता है। तपेदिक को तुम्हारे हिंदू इस्लाम या किसी भी राजनीतिक या सामाजिक विश्वास के साथ लेना—देना नहीं है। तपेदिक का इलाज वैज्ञानिक ढंग से किया जाना होगा। कोई हिंदू तपेदिक या मुसलमान तपेदिक नहीं होता।
तुम अज्ञान में हो, द्वंद्व में हो; तुम सोए हो। यह एक रोग है—आध्यात्मिक रोग। और इस रोग का इलाज तंत्र के द्वारा होना है। तुम इसमें अप्रासंगिक हो, तुम्हारा विश्वास अप्रासंगिक है। यह आकस्मिक है कि तुम कहीं पैदा हुए हो और कोई दूसरा और कहीं पैदा हुआ है। यह सांयोगिक है। तुम्हारा धर्म भी सांयोगिक है। इसलिए उससे चिपके मत रहो। और अपने को रूपांतरित करने के लिए वैज्ञानिक प्रणाली का उपयोग करो।
तंत्र बहुत माना—जाना नहीं है। यदि माना—जाना भी है तो बहुत गलत समझा गया है। और उसके कारण हैं। जो विज्ञान जितना ही ऊंचा और शुद्ध होगा, उतना ही कम जनसाधारण उसे जान—समझ सकेगा। हमने सापेक्षवाद के सिद्धांत का नाम सुना है। कहां जाता था कि आइंस्टीन के जीते—जी केवल बारह व्यक्ति उसे समझते थे। सारी जमीन पर सिर्फ बारह लोग उसे समझ सके। खुद अल्वर्ट आइंस्टीन के लिए उसे दूसरों को समझाना, उसे समझने के योग्य बनाना कठिन था। क्योंकि वह सिद्धांत ही इतना ऊंचा था। मानो वह तुम्हारे सिर के ऊपर से चला जाता था।
लेकिन उसे समझा जा सकता है। एक तकनीकी ज्ञान हो, गणित का ज्ञान हो, प्रशिक्षण हो, तो वह बिलकुल समझा जा सकता है। तंत्र उससे भी कठिन है, क्योंकि किसी प्रशिक्षण से काम नहीं चलेगा। केवल रूपांतरण मदद कर सकता है।
यही कारण है कि जनसाधारण के लिए तंत्र नहीं समझा गया। और सदा यह होता है कि जब तुम किसी चीज को नहीं समझते हो तो उसे गलत जरूर समझते हो; क्योंकि तब तुम्हें लगता है कि समझते जरूर हो। तुम रिक्त स्थान में बने रहने को राजी नहीं हो।
दूसरी बात कि जब तुम किसी चीज को नहीं समझते हो, तुम उसे गाली देने लगते हो। यह इसलिए कि यह तुम्हें अपमानजनक लगता है। तुम सोचते हो, मैं और नहीं समझूं यह असंभव है। इस चीज के साथ ही कुछ भूल होगी। और तब तुम गाली देने लगते हो। तब तुम ऊलजलूल बकने लगते हो। और कहते हो कि अब ठीक है।
इसलिए तंत्र को नहीं समझा गया, और तंत्र को गलत समझा गया। वह इतना गहरा और ऊंचा था कि यह होना स्वाभाविक था।
तीसरी बात कि चूंकि तंत्र द्वैत के पार जाता है इसलिए उसका दृष्टिकोण अति नैतिक है। कृपा कर इन शब्दों को समझो. नैतिक, अनैतिक, अति नैतिक। नैतिक क्या, हम समझते हैं, अनैतिक क्या है, वह भी हम समझते हैं। लेकिन जब कोई चीज अति नैतिक हो जाती है, नैतिक— अनैतिक दोनों के पार चली जाती है, तब उसे समझना कठिन हो जाता है।
तंत्र अति नैतिक है। इसे इस तरह देखो। औषधि, दवा अति नैतिक है, वह न नैतिक है और न अनैतिक। चोर को दवा दो तो उसे लाभ पहुंचाएगी। संत को दो, तो उसे भी लाभ पहुंचाएगी। वह चोर और संत में कोई भेद नहीं करेगी। दवा नहीं कह सकती कि यह चोर है इसलिए मैं उसे मारूंगी और वह साधु_ है उसकी मदद करूंगी। दवा वैज्ञानिक है। तुम्हारा चोर या संत होना उसके लिए अप्रासंगिक हैं।
तंत्र अति नैतिक है। तंत्र कहता है : कोई नैतिकता जरूरी नहीं है, कोई खास नैतिकता जरूरी नहीं है। सच तो यह है कि तुम अनैतिक हो, क्योंकि तुम्हारा चित्त अशात है। इसलिए तंत्र शर्त नहीं लगाता कि पहले तुम नैतिक बनो तब तंत्र की साधना कर सकते हो। तंत्र के लिए यह बात ही बेतुकी है। कोई बीमार है, बुखार में है और डाक्टर आकर कहता है : पहले अपना बुखार कम करो; पहले पूरा स्वस्थ हो लो और तभी मैं दवा दूंगा!
यही तो हो रहा है। एक चोर साधु के पास आता है और कहता है कि मैं चोर हूं मुझे ध्यान करना सिखाएं। साधु कहता है कि पहले चोरी छोड़ो, चोर रहते ध्यान कैसे करोगे! एक शराबी आकर कहता है, मैं शराबी हूं मुझे ध्यान बताएं। और साधु कहता है, पहली शर्त कि शराब छोड़ो और तब ध्यान कर सकोगे।
ये शर्तें ही आत्मघातक हो जाती हैं। वह मनुष्य शराबी है, या चोर है, या अनैतिक है; क्योंकि उसका चित्त अशांत है, रुग्ण है। ये तो रुग्ण चित्त के प्रभाव हैं, परिणाम हैं। और उसे कहां जाता है, पहले अच्छे हो लो तब ध्यान करना। लेकिन तब ध्यान की जरूरत किसको है? ध्यान औषधीय है; ध्यान औषधि है।

> उपदेशक उपदेश किए चले जाते हैं। वे लोगों से कहते हैं कि क्रोध मत करो और उसके लिए कोई उपाय नहीं बताते। और हमने यह उपदेश बहुत—बहुत समय से सुना है, लेकिन कभी नहीं पूछा : क्या कहते हो? मैं क्रोधी हूं और तुम कहते हो कि क्रोध मत करो। यह कैसे संभव है? जब मैं क्रोध में हूं तो उसका मतलब है कि मैं क्रोध ही हूं। और तुम सिर्फ कहते हो कि क्रोध मत करो। तो क्या मैं अपना दमन करूं? लेकिन दमन से तो और क्रोध पैदा होगा। उससे अपराध— भाव पैदा होगा। क्योंकि यदि मैं अपने को बदलने की कोशिश करूं और न बदल पाऊं तो मेरे भीतर हीनता पैदा होगी। उससे मुझ में अपराध— भाव पैदा होगा कि मैं निकम्मा हूं , मैं अपने क्रोध को नहीं जीत सकता।
वैसे क्रोध को कोई नहीं जीत सकता है। उसके लिए किसी उपाय की, किसी विधि की जरूरत है। क्यौंकि तुम्हारा क्रोध तुम्हारे अशात चित्त का लक्षण है। अशांत मन को बदलो और लक्षण बदल जाएगा। क्रोध इतना भर दिखा रहा है कि भीतर क्या है। भीतर को बदलो और बाहर बदल जाएगा।
यदि कोई मेरे पास आता है और मैं उससे कहता हूं कि पहले क्रोध छोड़ो, पहले काम छोड़ो, पहले यह छोड़ो वह छोड़ो तो मैं अमानुषिक हूं। जो मैं कहता हूं वह असंभव है। और इस असंभावना के कारण ही वह आदमी भीतर से क्षुद्रता का अनुभव करेगा। वह दीन—हीन अनुभव करेगा, अपनी ही आंखों में भीतर पतित मालूम पडेगा। यदि वह असंभव की चेष्टा करेगा तो हारेगा। और हार के कारण वह अपने को पापी मान बैठेगा।
उपदेशकों ने सारी दुनिया को समझा दिया है कि सब पापी हो। यह उनके लिए अच्छा है। जब तक तुम यह नहीं मानते कि तुम पापी हो, उनका धंधा नहीं चलेगा। तुम्हें पापी होना पड़ेगा; तभी गिरजे, मंदिर और मस्जिद फूलते—फलते रहेंगे। तुम्हारा पाप में होना ही उनकी कमाई का मौसम है। तुम्हारा पाप ऊंचे से ऊंचे मंदिर—मस्जिद की नींव है। तुम जितने पापी होओगे उतना ही ऊंचा उनका शिखर उठेगा। वे तुम्हारे अपराध पर, पाप पर, तुम्हारे हीनता के भाव पर ही खड़े किए जाते हैं। और इस तरह उन्होंने एक दीन—हीन मनुष्यता का निर्माण किया है।
एक बार तुम जान गए कि विधियों के द्वारा तुम पदार्थ को बदल सकते हो तो किसी दिन तुम यह भी जान ही लोगे कि विधियों के द्वारा मन को भी बदल सकते हो। क्योंकि मन सूक्ष्म पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
यही तंत्र की प्रस्तावना है कि मन सूक्ष्म पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और यह बदला जा सकता है। और मन बदला कि संसार बदल गया, क्योंकि तुम मन के द्वारा ही देखते हो। जो संसार तुम देखते हो उसे वैसा एक विशेष मन के कारण देखते हो। मन को बदलों और तब देखोगे कि एक भिन्न संसार ही तुम्हारे सामने होगा। और जब मन अ—मन हो जाए—वह तंत्र का आत्यंतिक लक्ष्य है कि एक ऐसी अवस्था आए जहां मन ही न रहे—तब संसार को बिना माध्यम के देखो। और जब माध्यम नहीं रहा तब तुम सत्य के बिलकुल आमने—सामने होते हो। क्योंकि अब तुम्हारे और सत्य के बीच में कोई भी न रहा। तब कुछ भी विरूप, विकृत नहीं किया जा सकेगा।
तंत्र कहता है कि उस अवस्था का नाम भैरव है जब मन नहीं रहता है—अ—मन की अवस्था। और तब पहली दफा तुम यथार्थत: उसको देखते हो जो है। जब तक मन है, तुम अपना ही संसार रचे जाते हो, तुम उसे आरोपित, प्रक्षेपित किए जाते हो। इसलिए पहले तो मन को बदलो

> ये एक सौ बारह विधियां तुम्हारे लिए चमत्कारिक अनुभव बन सकती हैं, या तुम उन्हें महज सुन सकते हो। यह तुम पर निर्भर है, मैं सभी संभव पहलुओं से प्रत्येक विधि की व्याख्या करूंगा। अगर तुम उसके साथ कुछ निकटता अनुभव करो तो तीन दिनों तक उससे खेलो और फिर छोड़ दो। अगर वह तुम्हें जंचे, तुम्हारे भीतर कोई तार बजा दे तो फिर तीन महीने उसके साथ प्रयोग करो।
जीवन चमत्कार है। अगर हमने उसके रहस्य को नहीं जाना है तो उससे यही जाहिर होता है कि तुम्हें उसके पास पहुंचने की विधि नहीं मालूम है।
शिव यहां एक सौ बारह विधियां प्रस्तावित कर रहे हैं। इसमें सभी संभव विधियां सम्मिलित हैं। यदि इनमें से कोई भी तुम्हारे भीतर नहीं ‘जंचती’ है, कोई भी तुम्हें यह भाव नहीं देती है कि वह तुम्हारे लिए है तो फिर कोई भी विधि तुम्हारे लिए नहीं बची। इसे ध्यान में रखो। तब अध्यात्म को भूल जाओ और खुश रहो। वह तब तुम्हारे लिए नहीं है।
लेकिन ये एक सौ बारह विधियां तो समस्त मानव—जाति के लिए हैं। और वे उन सभी युगों के लिए हैं जो गुजर गए हैं और आने वाले हैं। और किसी भी युग में एक भी ऐसा आदमी नहीं हुआ और न होने वाला ही है, जो कह सके कि ये सभी एक सौ बारह विधियां मेरे लिए व्यर्थ हैं। असंभव! यह असंभव है!

प्रत्येक ढंग के चित्त के लिए यहां गुंजाइश है। तंत्र में प्रत्येक किस्म के चित्त के लिए विधि है। कई विधियां हैं जिनके उपयुक्त मनुष्य अभी उपलब्ध नहीं हैं, वे भविष्य के लिए हैं। और ऐसी विधियां भी हैं जिनके उपयुक्त लोग रहे नहीं, वे अतीत के लिए हैं। लेकिन डर मत जाना। अनेक विधियां हैं जो तुम्हारे लिए ही हैं।

Tuesday 18 October 2016

बौद्धिक प्रश्न

यह महत्वपूर्ण है। अगर तुम कोई बौद्धिक प्रश्न पूछते हो तो तुम उसके हल के लिए निश्चित उत्तर चाहते हो। लेकिन देवी कहती हैं : ‘मेरे संशय निर्मूल करें। ‘वे वास्तव में कोई उत्तर नहीं चाहतीं, अपने मन का रूपांतरण चाहती हैं। क्योंकि जो उत्तर भी दिया जाए, संदेह तंत्र में प्रवेश करने वाला मन संदेह ही करता रहेगा।
इसे ध्यान में रख लो संदेह करने वाला मन संदेह ही करता रहेगा। उत्तर अप्रासंगिक है। मैं एक उत्तर दूं लेकिन अगर तुम्हारा मन संदेह करने वाला है तो तुम उस उत्तर पर भी संदेह करोगे। तुम्हारा मन ही संदेह करने वाला है। और संदेह से भरे मन का अर्थ है कि तुम किसी भी चीज पर प्रश्नचिह्न लगा दोगे।
इसलिए उत्तर व्यर्थ हैं। तुम मुझसे पूछते हो : किसने संसार को बनाया? और यदि मैं कहूं कि अ ने बनाया तो तुम निश्चित रूप से पूछोगे कि अ को किसने बनाया? इसलिए असली समस्या प्रश्नों के उत्तर देना नहीं है, असली समस्या है कि संदेह करने वाले मन को कैसे बदला जाए, उसे कैसे ऐसा बनाया जाए कि वह संदेह न करे, श्रद्धा करे।
इसलिए देवी कहती हैं ‘मेरे संशय निर्मूल करें। ‘
ओर जब तुम प्रश्न पूछते हो तो कई कारण से पूछ सकते हो। एक कारण हो सकता है कि तुम अपनी संपुष्टि के लिए पूछते हो। तुम्हें उत्तर पता है, उत्तर तुम्हारे पास है, तुम सिर्फ पक्का करना चाहते हो कि तुम्हारा उत्तर सही है। लेकिन तब तुम्हारा प्रश्न ही झूठा है, नकली है। वह प्रश्न ही नहीं है। तुम अपने को बदलने के इरादे से नहीं, सिर्फ कुतूहलवश पूछते हो।
मन पूछता ही जाता है। मन में प्रश्न वैसे ही आते हैं जैसे पेड में पत्ते लगते हैं। मन का स्वभाव ही है पूछना। वह पूछता ही चला जाता है। तुम क्या पूछते हो, यह महत्व का नहीं है, मन को जो भी मिले, वह उससे ही प्रश्न पैदा कर लेगा। मन प्रश्न गढ़ने की चक्की है। मन को कुछ भी दे दो, वह उसके टुकडे करके उससे अनेक प्रश्न बना लेगा। तुम एक प्रश्न का उत्तर दो, वह उसी एक उत्तर से अनेक प्रश्न गढ़ लेगा।
यही तो दर्शन का इतिहास रहा है। बर्ट्रेड रसेल ने अपने संस्मरण में कहां है कि मैं बच्चा था तो सोचता था कि एक दिन जब सारे दर्शन को समझने की प्रौढ़ता आएगी तब सभी प्रश्न हल हो जाएंगे। अब जब अस्सी का हो चुका हूं तो मैं कह सकता हूं कि मेरे बचपन के प्रश्न तो त्यों के त्यों खड़े ही हैं, दर्शन के इन सिद्धांतों के कारण बहुत—से दूसरे प्रश्न भी पैदा हो गए हैं। इसलिए रसेल ने कहां कि मैं युवा था तो कहता था कि दर्शन आत्यंतिक उत्तरों की खोज है, अब यह नहीं कह सकता। इसे तो अंतहीन प्रश्नों की खोज ही कहना उचित होगा। इसलिए एक प्रश्न अपने साथ एक उत्तर लाता है और साथ ही अनेक प्रश्न भी। संदेह करने वाला मन ही समस्या है।
(पार्वती कहती हैं : मेरे प्रश्नों की फिक्र न करें। मैंने अनेक प्रश्न पूछ लिए. ‘आपका सत्य रूप क्या है? यह आश्चर्य — भरा जगत क्या है? बीज कौन है? जागतिक चक्र की धुरी कहां है? आकार के परे जीवन क्या है? समय और स्थान से परे होकर हम उसमें पूरी तरह प्रवेश कैसे करें? लेकिन मेरे प्रश्नों की फिक्र न करें। मेरे संशय निर्मूल करें। ये प्रश्न तो मैं इसलिए पूछती हूं कि वे मेरे मन में उठते हैं। मैं आपको केवल अपना मन दिखाने के लिए ये प्रश्न पूछती हूं। उन पर बहुत ध्यान मत दें। उत्तरों से मेरा काम नहीं चलेगा। मेरी जरूरत तो है कि मेरे संशय निर्मूल हों।)
लेकिन संशय निर्मूल कैसे होंगे? किसी उत्तर से? क्या कोई उत्तर है जो कि मन के संशय दूर कर दे? मन ही तो संशय है। जब तक मन नहीं मिटता है, संशय निर्मूल कैसे होंगे?
शिव उत्तर देंगे। उनके उत्तर में सिर्फ विधियां हैं—सबसे पुरानी, सबसे प्राचीन विधियां। लेकिन तुम उन्हें अत्याधुनिक भी कह सकते हो, क्योंकि उनमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। वे पूर्ण हैं—एक सौ बारह विधियां। उनमें सभी संभावनाओं का समावेश है; मन को शुद्ध करने के, मन के अतिक्रमण के सभी उपाय उनमें समाए हैं। शिव की एक सौ बारह विधियों में एक और विधि नहीं जोड़ी जा सकती। और यह ग्रंथ, विज्ञान भैरव तंत्र, पांच हजार वर्ष पुराना है। उसमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता; कुछ जोड्ने की गुंजाइश ही नहीं है। यह सर्वांगीण है, संपूर्ण है, अंतिम है। यह सब से प्राचीन है और साथ ही सबसे आधुनिक, सबसे नवीन। पुराने पर्वतों की भांति ये तंत्र पुराने हैं, शाश्वत जैसे लगते हैं, और साथ ही सुबह के सूरज के सामने खड़े ओस—कण की भाति ये नए हैं, ये इतने ताजे हैं।ध्यान की इन एक सौ बारह विधियों से मन के रूपांतरण का पूरा विज्ञान निर्मित हुआ है।

(तुम बुद्धि को मात्र एक यंत्र की तरह काम में लाओ, मालिक की तरह नहीं। समझने के लिए यंत्र की तरह उसका उपयोग करो, लेकिन उसके जरिए नए व्यवधान मत पैदा करो। जिस समय हम इन विधियों की चर्चा करेंगे, तुम अपने पुराने ज्ञान को, पुरानी जानकारियों को .एक किनारे धर देना। उन्हें अलग ही कर देना, वे रास्ते की धूल भर हैं। तर्क को हटा देना। इस भ्रम में मत रहो कि विवाद करने वाला मन सावचेत मन है। वह नहीं है। क्योंकि जिस क्षण तुम विवाद में उतरते हो, उसी क्षण सजगता खो देते हो, सावचेत नहीं रहते हो। तुम तब यहां हो ही नहीं।)

अस्तित्व ही विश्व रूप

ध्यान में आकार मिट गया है, प्रेम में तुम दूसरे में स्वयं उसकी तरह प्रविष्ट होते हो। तुम एक हो जाते हो। और पहली दफा तुम एक अंतस को, निराकार उपस्थिति को जानते हो।
यही कारण है कि सदियों—सदियों तक हमने शिव की कोई प्रतिमा, कोई चित्र नहीं बनाया। हम सिर्फ शिवलिंग बनाते रहे, उनका प्रतीक बनाते रहे। शिवलिंग एक निराकार आकार है। जब तुम किसी को प्रेम करते हो, किसी में प्रवेश करते हो, तब वह मात्र एक ज्योति की उपस्थिति हो जाता है। शिवलिंग वही ज्योतित उपस्थिति है, प्रकाश का प्रभा—मंडल। इसीलिए अब देवी पूछती हैं :
आपका सत्य क्या है? यह विस्मय—भरा विश्व क्या है?
हम विश्व को जानते हैं, लेकिन नहीं जानते हैं कि यह आश्चर्य से भरा है। बच्चे जानते हैं, प्रेमी जानते हैं; कभी—कभी कवि और पागल भी जानते हैं। लेकिन हम नहीं जानते कि ब्रह्मांड आश्चर्य भरा है। हमारे लिए सब कुछ महज पुनरावृत्ति है; उसमें कोई आश्चर्य नहीं, कोई कविता नहीं। वह सपाट गद्य है हमारे लिए। तुम्हारे हृदय में वह कोई गीत नहीं पैदा करता, तुममें वह नृत्य नहीं उपजाता, तुम्हारे भीतर किसी कविता का जन्म नहीं बनता। सारा जगत यंत्रवत मालूम होता है।
बच्चे अवश्य उसे आश्चर्य— भरी आंखों से देखते हैं। और जब आंखें आश्चर्य— भरी होती हैं, तब सारा ब्रह्मांड आश्चर्य से भर जाता है। और जब तुम प्रेम में होते हो, तुम फिर बच्चों की भांति हो जाते हो। जीसस कहते हैं : केवल वे ही हमारे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे जो बच्चों की भांति हैं। क्यों? क्योंकि विश्व यदि आश्चर्यपूर्ण नहीं है तो तुम धार्मिक नहीं हो सकते। विश्व की व्याख्या हो सके, यह दृष्टि वैज्ञानिक है। तब जगत ज्ञात है या अज्ञात। लेकिन जो अज्ञात, वह किसी दिन ज्ञात हो सकता है। तब वह अज्ञय नहीं है। और जगत तभी अज्ञेय है, एक रहस्य है, जब आंखें विस्मय— भरी हों।
जब रूप विदा होता है तब प्रेमी विश्व बन जाता है—निराकार, अंतहीन। अचानक देवी को बोध होता है कि मैं शिव के बारे में नहीं पूछ रही हूं पूरे विश्व के बारे में पूछ रही हूं। अब शिव ही समस्त विश्व हो गए हैं। अब सब ग्रह—तारे उनके भीतर ही घूम रहे हैं; सारा आकाश, समस्त महाकाश उनसे घिरा है। अब वे सब से बड़ा घेरने वाला तत्व हैं—महा घेरनहार। जब तुम प्रेम में, प्रेम के घनिष्ठ सस्वर में प्रवेश करते हो, तब व्यक्ति का, रूप का लोप हो जाता है और प्रेमी विश्व का द्वार बनकर रह जाता है।
प्रेम में यदि आकार हो तो उसका अंत है। आकार को मिटा दो। जब चीजें अरूप हो जाती हैं—धुंधलकी, सीमाहीन हो जाती हैं, तब हर चीज दूसरी चीज में प्रवेश करती है, जब समस्त विश्व एकता में सिमट जाता है, तब—और तभी—यह विश्व विस्मय— भरा कलामय विश्व है।

(बहुत सही कहा है जब हम ध्यान के अंदर प्रवेश करते है उस परमात्मा के प्रेम में उतारते है तो सबसे पहले हमारा शरीर ही विदा होता है ओर तब ही हम आंतरिक जगत में प्रवेश करते है, ओर जेसे ही हम आंतरिक जगत में प्रवेश करते है तो सारा विश्व, पूरा ब्रमांड हमारे अन्दर समा जाता है या यु कहे की हमारा अस्तित्व ही विश्व रूप हो जाता है) 

Monday 17 October 2016

विज्ञान भैरव तंत्र

9 विज्ञान भैरव तंत्र का अर्थ ही है चेतना के भी पार जाने की विधि। विज्ञान का अर्थ चेतना है, भैरव का अर्थ वह अवस्था है जो चेतना से भी परे है और तंत्र का अर्थ विधि है, चेतना के पार जाने की विधि। यह परम धर्म—सिद्धांत है—सिद्धांत के बिना धर्म—सिद्धांत।
यह मूर्च्छा— अमूर्च्छा का खेल है। यदि तुम मूर्च्छा से अमूर्च्छा की यात्रा करते हो तो भी एक द्वैत की ही यात्रा करते हो। तंत्र कहता है. दोनों के पार चलो। जब तक तुम दोनों के पार नहीं जाते, तब तक परम को नहीं उपलब्ध हो सकते। इसलिए न अचेतन, न चेतन, दोनों के पार चलो, मात्र हो जाओ। चेतन—अचेतन नहीं होना है, मात्र होना है। यह योग के भी पार है, झेन के भी पार है, यह सभी धर्म—देशनाओं के पार है।
विज्ञान का, मतलब चेतना है। और भैरव एक विशेष शब्द है, तांत्रिक शब्द, जो पारगामी कै लिए कहां गया है। इसलिए शिव को भैरव कहते हैं और देवी को भैरवी—वे जो समस्त द्वैत के पार चले गए हैं।
हमारे अनुभव में प्रेम ही उसकी थोड़ी झलक दे सकता है। यही कारण है कि तंत्र—विद्या सिखाने के लिए प्रेम उसका बुनियादी उपाय बन जाता है। अपने अनुभव से हम कह सकते हैं कि प्रेम ही वह कुछ है जो द्वैत के पार जाता है। जब दो व्यक्ति प्रेम में होते हैं, तब ज्यों—ज्यों वे उसकी गहराई में उतरते हैं त्यों—त्यों दो कम और एक ही ज्यादा रहते हैं। और एक बिंदु आता है, एक शिखर स्पर्श होता है जहां वे देखने में ही दो होते हैं, भीतर एक ही हो जाते हैं। वहां द्वैत का अतिक्रमण हो जाता हैं।
‘परमात्मा प्रेम है’ अर्थपूर्ण हो जाता है; अन्यथा नहीं। हमारे अनुभव में प्रेम परमात्मा के सबसे निकट है। परमात्मा प्रेम है—यह एक तांत्रिक वक्तव्य है। इसका अर्थ है कि हमारे अनुभव में केवल प्रेम वह यथार्थ है जो परमात्मा के, भगवत्ता के निकटतम पड़ता है। क्योंकि प्रेम में एकता का अनुभव होता है। शरीर दो रहते हैं, लेकिन शरीर से परे कुछ है जो मिलकर एक हो जाता है।

10 यौन की भूख इतनी बड़ी है, उसकी दौड़ भारी है। असली दौड़ तो इस एकता के पीछे है। लेकिन वह एकता यौन की, काम की नहीं है। काम में दो शरीरों को एक होने का धोखा ही होता है, वे एक होते नहीं। वे आलिंगन में बंधते हैं और एक क्षण के लिए दोनों एक—दूसरे में अपने को भूल जाते हैं, और थोड़ी शारीरिक एकता अनुभव होती है। यह खोज बुरी नहीं है, लेकिन उस पर ही रुक जाना खतरनाक है। यह खोज किसी गहरी एकता की खोज की खबर भर है।
प्रेम में किसी ऊंचे तल पर कुछ आंतरिक गति करता है और एक—दूसरे में मिलकर एकता की अनुभूति होती है। उसमें द्वैत मिट जाता है। और इसी द्वैतहीन प्रेम में हमें उसकी झलक मिल सकती है जिसे भैरव की अवस्था कहते हैं। हम कह सकते हैं कि भैरवावस्था वह प्रेम है जिसमें से लौटना नहीं होता है। प्रेम के शिखर से फिर नीचे आना नहीं है, शिखर पर ही बने रहना है।
हमने कैलाश पर शिव का आवास बनाया है। वह प्रतीक है कि कैलाश सबसे ऊंचा शिखर है, सबसे पवित्र शिखर है। वहीं हमने शिव का आवास रखा है। हम वहां जा सकते हैं, लेकिन हमें वहा से नीचे उतर आना होगा। वह हमारा आवास नहीं हो सकता है। हम तीर्थयात्रा के लिए वहा जा सकते हैं। वह तीर्थ है, तीर्थयात्रा है। एक क्षण के लिए हम भी उस शिखर को छू सकते हैं, लेकिन फिर वापस आना होगा।
प्रेम में यह पवित्र तीर्थयात्रा घटित होती है, लेकिन सब के लिए नहीं। क्योंकि शायद ही कोई यौन के पार जाता है। इसलिए हम घाटी में, अंधेरी घाटी में जीते चले जाते हैं। कभी—कभी विरला कोई प्रेम के शिखर को उपलब्ध होता है, लेकिन वह भी नीचे उतर आता है, क्योंकि उस ऊंचाई पर सिर चकराने लगता है। वह इतना ऊंचा है और तुम इतने निम्न, छोटे। और वहा रहना भी कठिन है। जिन्होंने प्रेम किया है, वे जानते हैं कि प्रेम में सदा बने रहना कितना कठिन है। बार—बार वापस आना पड़ता है। वह शिव का आवास है। वे वहां रहते हैं, वह उनका घर ही है।
भैरव प्रेम में जीते हैं, प्रेम उनका आवास है। जब मैं कहता हूं कि वह उनका आवास है, उसका अर्थ है कि अब उन्हें प्रेम का भी बोध नहीं रहा। क्योंकि कैलाश पर ही रहने पर बोध भी जाता रहता है कि यह कैलाश है, शिखर है। तब शिखर समतल भूमि बन जाता है। शिव को प्रेम का बोध नहीं है। हमें प्रेम का बोध होता है, क्योंकि हम अप्रेम में जीते हैं; और इस वैषम्य के कारण, विपरीतता के कारण हमें प्रेम का बोध होता है।
शिव प्रेम ही हैं। भैरव का अर्थ होता है कि वह प्रेम ही हो गया है। यह नहीं कि वह प्रेमपूर्ण है, प्रेम करता है, वह स्वय प्रेम हो गया है, वह शिखर पर है, शिखर ही उसका आवास है।
इस सर्वोच्च शिखर को संभव कैसे बनाया जाए जो सब द्वैत के पार है, अचेतन के पार है, चेतन के पार है, शरीर और आत्मा के पार है, संसार और मोक्ष के भी पार है? इस शिखर को उपलब्ध कैसे हुआ जाए? यही है विज्ञानं भेरव तंत्र
देवी गहरे से गहरे प्रेम में हैं। और जब कोई गहरे प्रेम में होता है तब पहली दफा उसे भीतर सत्य का साक्षात्कार होता है। तब शिव आकार नहीं हैं, शरीर नहीं हैं। जब तुम प्रेम में होते हो, तब प्रेमी का शरीर लुप्त हो जाता है। तब आकार मिट जाता है, निराकार प्रकट होता है। तब तुम एक अतल गहराई के सामने होते हो। यही कारण है कि हम प्रेम से इतना डरते हैं। हम एक शरीर का सामना कर सकते हैं; हम आकृति का, रूप का सामना कर सकते हैं; लेकिन हम अगाध अतल का, महाशून्य का सामना नहीं कर सकते।
अगर तुम किसी को प्रेम करते हो, सचमुच प्रेम करते हो तो उसका शरीर निश्चित रूप से विलुप्त हो जाने वाला है। ऊंचाई के शिखर के किसी क्षण में आकार मिट जाएगा और प्रेमी के माध्यम से तुम निराकार में प्रवेश कर जाओगे। यही वजह है कि हम डरते हैं। यह तो एक अतल समुद्र में गिरना हो जाएगा।

11 देवी अवश्य ही आकार के साथ प्रेम में पड़ गई होंगी। चीजें वैसे ही शुरू होती हैं। उन्होंने पहले आदमी के रूप में इस आदमी को प्रेम किया होगा। और जब प्रेम वयस्क हुआ, प्रस्फुटित हुआ, खिला, तब यह आदमी ही अंतर्धान हो गया। वह निराकार हो गया है। अब वह आदमी कहीं दिखाई नहीं देता।
‘हे शिव, आपका सत्य क्या है?’
यह प्रेम के एक अत्यंत ही गहन क्षण में पूछा गया प्रश्न है। और जब प्रश्न उठते हैं तब जिन मनों से वे उठते हैं उनके अनुसार उनमें फर्क पड़ता है। इसलिए अपने—अपने मन में इस प्रश्न की स्थिति, इसका माहौल पैदा करो। पार्वती भारी अड़चन में पड़ी होंगी; देवी कठिनाई में पड़ी होंगी। शिव अंतर्धान हो गए हैं। जब प्रेम अपने शिखर पर होता है, तब प्रेमी अंतर्धान हो जाता है। यह क्यों होता है?
यह होता है, क्योंकि वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति निराकार है। तुम शरीर नहीं हो। शरीर की तरह चलते हो, शरीर के तल पर जीते हो, लेकिन शरीर नहीं हो। जब हम बाहर से किसी को देखते हैं तब वह शरीर ही है। लेकिन प्रेम तो भीतर प्रवेश करता है। तब हम व्यक्ति को बाहर से नहीं देखते हैं। प्रेम किसी को भी वैसे देख सकता है जैसे वह अपने को भीतर से देखता है। तब रूप विदा हो जाता है।
झेन संत रिंझाई आत्मोपलब्ध हुआ तो उसने पहला प्रश्न पूछा : मेरा शरीर कहां है? वह कहां चला गया? और वह खोजने लगा। उसने अपने शिष्यों को बुलाया और कहां : जाओ और खोजो कि मेरा शरीर कहां गया? मेरा शरीर खो गया है। वह निराकार में, अरूप में प्रवेश कर गया था।
यही कारण है कि सदियों—सदियों तक हमने शिव की कोई प्रतिमा, कोई चित्र नहीं बनाया। हम सिर्फ शिवलिंग बनाते रहे, उनका प्रतीक बनाते रहे। शिवलिंग एक निराकार आकार है। जब तुम किसी को प्रेम करते हो, किसी में प्रवेश करते हो, तब वह मात्र एक ज्योतित उपस्थिति हो जाता है। शिवलिंग वही ज्योतित उपस्थिति है, प्रकाश का प्रभा—मंडल।

आज की ध्यान बिधि -: तुम एक निराकार अस्तित्व हो। लेकिन तुम अपने को प्रत्यक्ष नहीं, दूसरों की वजह से जानते हो। तुम अपने को आईने के मार्फत जानते हो। तुम आईने में अपने को बिना पलक जपके लगातार देखो ओर जब आंख दर्द करने लगे तुम खुद को न देख पाओ तो देखते हुए आंखें बंद कर लो और तब ध्यान करो अगर आईना नहीं होता तो मैं अपना रूप कैसे पहचानता? एक ऐसी दुनिया की सोचो जहां आईना नहीं हो। तुम अकेले हो, कोई आईना नहीं है, आईने का काम करती हुई दूसरों की आंखें भी नहीं हैं। तब क्या तुम्हारा चेहरा होगा? या तुम्हारा शरीर होगा?
नहीं, नहीं होगा। है भी नहीं। हम अपने को दूसरों के द्वारा ही जानते हैं। और दूसरे केवल बाहरी रूप देखते हैं। और यही कारण है कि हम उसके साथ तादात्म्य कर लेते हैं। इस विधि को रोजाना 15 से 30 मिनट करो फिर देखो क्या घटित होता है यह विज्ञानं का रहस्य है करके ही जाना जा सकता है नहीं तो केवल वहस करते रहोगे या भटकते रहोगे

ॐ आज इतना ही सब खुश रहे |

तंत्र

तंत्र के लिए करना ही जानना, कोई जानना जानना नहीं। जब तक तुम कुछ करते नहीं, जब तक बदलते नहीं, जब तक बुद्धि के अतिरिक्त किसी अन्य ही आयाम में नहीं प्रवेश करते, तब तक कोई उत्तर नहीं है। उत्तर तो दिए जा सकते हैं, लेकिन वे सब के सब झूठे होंगे। सभी दर्शन झूठे हैं।
तुम एक प्रश्न पूछते हो और दर्शन एक उत्तर दे देता है, उससे तुम चाहे संतुष्ट होते हो या नहीं होते हो। यदि संतुष्ट हुए तो तुम उस दर्शन के अनुयायी हो जाते हो; लेकिन तुम वही के वही रहते हो। और यदि नहीं संतुष्ट हुए तो दूसरे दर्शन की खोज में निकल चलते हो जिनसे संतुष्टि मिल सके। लेकिन तुम वही के वही रहते हो, अछूते रहते हो, अपरिवर्तित रहते हो।
इसलिए तुम हिंदू हो कि मुसलमान हो कि ईसाई हो कि जैन हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। हिंदू मुसलमान या जैन के मुखौटे के पीछे जो असली व्यक्ति है, वह वही रहता है। सिर्फ शब्दों का या वस्त्रों का भेद है। चाहे वह चर्च जाता हो कि मंदिर जाता हो कि मस्जिद जाता हो, वह वही रहता है। सिर्फ चेहरों का फर्क है। और वे चेहरे झूठे हैं, वे मुखौटे भर हैं। और मुखौटों के पीछे वही आदमी है—वही क्रोध, वही आक्रामकता, वही हिंसा, वही लोभ, वही लिप्सा—सब कुछ वही का वही है। क्या मुस्लिम कामुकता हिंदू कामुकता से भिन्न है? क्या ईसाई हिंसा और हिंदू हिंसा में फर्क है? वह एक ही है। हकीकत एक है; सिर्फ वस्त्र भिन्न हैं।


6 तंत्र को तुम्हारे वस्त्रों से कुछ लेना—देना नहीं है; उसे सीधे तुमसे लेना—देना है। अगर तुम प्रश्न पूछते हो तो उससे इतना ही पता चलता है कि तुम कहां हो। और उससे यह भी पता चलता है कि तुम जहां भी हो, तुमको दिखाई नहीं पड़ता है। एक अंधा आदमी पूछता है. प्रकाश क्या है? और दर्शन बताना शुरू कर देगा कि प्रकाश क्या है। मगर तंत्र केवल यह निष्पत्ति निकालेगा कि प्रकाश के बारे में प्रश्न पूछने वाला महज आख का अंधा है। और तब तंत्र उस आदमी का उपचार शुरू करेगा, उसे बदलने का उपाय करेगा कि उसकी आंखें देख सकें। तंत्र यह नहीं बताएगा कि प्रकाश क्या है, तंत्र सिर्फ यह बताएगा कि तुम किस तरह आख को, दृष्टि को, देखने को उपलब्ध हो सकते हो। और दृष्टि की उपलब्धि के साथ ही उत्तर उपलब्ध हो जाएगा।
इसलिए तंत्र समाधान नहीं देता है, समाधान को उपलब्ध होने की विधि देता है। अब यह समाधान बौद्धिक नहीं होगा। अगर तुम अंधे आदमी को प्रकाश के बारे में कुछ कहोगे तो वह कहना बौद्धिक होगा। और अगर अंधा स्वयं देखने में सक्षम हो जाता है तो वह अस्तित्वगत बात होगी। जब मैं कहता हूं कि तंत्र अस्तित्वगत है तो उसका यही मतलब है।


7  तंत्र के सभी ग्रंथ शिव और देवी के बीच संवाद हैं। देवी पूछती हैं और शिव जवाब देते हैं। सभी तंत्र—ग्रंथ ऐसे ही शुरू होते हैं। क्यों? यह ढंग क्यों?
यह बहुत अर्थपूर्ण है। यह संवाद किन्हीं गुरु और शिष्य के बीच संवाद नहीं है, यह संवाद घटित होता है दो प्रेमियों के बीच। और तंत्र इसके द्वारा एक बहुत अर्थपूर्ण बात की खबर देता है. यह कि गहराई की शिक्षा तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक कि दोनों के, शिष्य और गुरु के बीच प्रेम का संबंध न हो। शिष्य और गुरु को गहरे प्रेमी होना होगा। तब—और तभी—ऊँचाई को, पार को अभिव्यक्त किया जा सकता, प्रकट किया जा सकता।
इसलिए यह प्रेम की भाषा है। शिष्य के लिए प्रेम के भाव में होना जरूरी है। लेकिन इतना काफी नहीं है। दो मित्र भी प्रेम में हो सकते हैं। तंत्र कहता है, शिष्य में प्रेम के अतिरिक्त ग्राहकता होनी चाहिए। तभी कुछ संभव है। शिष्य होने के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं है; लेकिन उसके लिए स्त्रैण ग्राहकता का भाव अनिवार्य है। यहां देवी पूछती हैं, स्त्रैण भाव पर यह जोर क्यों?
पुरुष और स्त्री में शारीरिक फर्क ही नहीं है, मानसिक फर्क भी है। यौन शरीर के तल पर ही नहीं, मन के तल पर भी बड़ा फर्क लाता है। स्त्रैण मन का अर्थ है ग्राहकता—समग्र ग्राहकता, समर्पण, प्रेम। शिष्य को उसी स्त्रैण मन की आवश्यकता है, अन्यथा वह नहीं सीख पाएगा। तुम पूछ तो सकते हो, लेकिन अगर खुले नहीं हो, तो उत्तर तुमको नहीं मिल सकता। प्रश्न पूछकर भी तुम बंद रह सकते हो। उस हालत में उत्तर तुम में प्रवेश नहीं करेगा। तुम्हारे द्वार—दरवाजे बंद हैं, तुम मृत हो। तुम खुले जो नहीं हो।
स्त्रैण ग्राहकता का अर्थ है. गहरे में गर्भ जैसी ग्राहकता, ताकि तुम ग्रहण कर सको, ले सको। उतना ही नहीं, उससे भी ज्यादा की जरूरत है। स्त्री कोई चीज ग्रहण ही नहीं करती है, जिस क्षण ग्रहण करती है उसी क्षण वह चीज उसके शरीर का भाग बन जाती है। बच्चा ग्रहीत हुआ। स्त्री गर्भ धारण करती है और गर्भाधान के साथ बच्चा स्त्री के शरीर का अंश बन जाता है। वह विजातीय नहीं रहा, विदेशी नहीं रहा। वह आत्मसात कर लिया गया। अब वह बच्चा कुछ ऐसा नहीं रहा जो कि मां से जुड़ा भर रहेगा, अब वह मां के अंश की तरह, मां की तरह ही जीएगा। बच्चा ग्रहीत ही नहीं होता है, स्त्रैण शरीर सृजनात्मक हो जाता है और बच्चा बढ़ने भी लगता है।
शिष्य को गर्भ जैसी ग्राहकता की जरूरत है। जो कुछ भी ग्रहण किया जाए, उसे मृत ज्ञान की तरह इकट्ठा नहीं करना है; उसे तुम्हारे भीतर बढ़ना चाहिए, उसे तुम्हारा रक्त, हड्डी ही बन जाना चाहिए। अब उसे तुम्हारा हिस्सा बन जाना पड़ेगा। उसे बढ़ने देना है, वृद्धि देनी है। और यही वृद्धि तुमको, ग्राहक को बदलेगी, रूपांतरित करेगी।
यही कारण है कि तंत्र इस उपाय को काम में लाता है। हर ग्रंथ देवी के प्रश्न से शुरू होता है और शिव उसका उत्तर देते हैं। देवी शिव की प्रिया हैं—उनका स्त्रैण अंश।


8 अब आधुनिक मनोविज्ञान, खासकर गहराई का मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों है। कोई भी व्यक्ति न मात्र पुरुष है और न मात्र स्त्री है। प्रत्येक उभयलिंगी है, उसमें दोनों यौन मौजूद हैं। पश्चिम में यह खोज हाल की घटना है, लेकिन तंत्र के लिए हजारों साल से उसकी एक बुनियादी धारणा रही है। तुमने शिव के कुछ चित्र देखे होंगे जिनमें वे अर्धनारीश्वर हैं, आधा पुरुष और आधी नारी। मनुष्य के पूरे इतिहास में यह अपनी तरह की अकेली धारणा है। शिव को उसमें आधे पुरुष और आधी स्त्री की तरह चित्रित किया गया है।
इसलिए देवी प्रिया ही नहीं हैं, शिव की अर्धांगिनी हैं। और जब तक शिष्य गुरु का दूसरा अर्धांग नहीं बन जाता, ऊंचाई की शिक्षा, गुह्य विधियों की शिक्षा नहीं दी जा सकती। जब तुम ऐसे हो जाओगे तो संदेह नहीं बचेगा। जब तुम गुरु के साथ ऐसे एक हो जाओगे—समग्र रूपेण, गहन रूपेण—कि कुछ न रहा, बुद्धि न बची, तब तुम ग्रहण करते हो, तब तुम गर्भ बन जाते हो। और तब गुरु की शिक्षा तुममें वृद्धि पाती है, तुमको बदलने लगती है। यही कारण है कि तंत्र प्रेम की भाषा में लिखा गया।
प्रेम पर, प्रेम की भाषा पर इतना जोर क्यों है? इसलिए कि अगर तुम अपने गुरु के साथ प्रेम में हो तो सारा गेस्टाल्ट बदल जाता है, समूचा दर्शन, समूचा परिदृश्य दूसरा ही हो जाता है। तब बात ही कुछ और है। तब तुम गुरु के शब्द नहीं सुनते हो, तब तुम गुरु को पीते हो। तब शब्द अप्रासंगिक हो जाते हैं; तब शब्दों के बीच का मौन महिमावान हो उठता है। गुरु जो कुछ कहता है, वह अर्थपूर्ण हो सकता है, नहीं भी हो सकता है; उसमें असली चीज उसकी दृष्टि है, मुद्रा है, असली चीज उसकी करुणा है, प्रेम है।

जब तुम गहरे प्रेम में होते हो, तब तुम्हारा मन विसर्जित हो जाता है, नहीं हो जाता है। तब कोई अतीत नहीं रहता है, वर्तमान का क्षण ही सब कुछ हो जाता है। जब तुम प्रेम में होते हो, तब वर्तमान ही मात्र समय होता है। वर्तमान ही सब कुछ है—न अतीत, न भविष्य।