Thursday 1 December 2016

तंत्र-सूत्र—विधि-08

तंत्र-सूत्र—विधि-08


आठवीं श्वा स विधि:
आत्यं तिक भक्तिि पूर्वक श्वायस के दो संधि-स्थालों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।
     इन विधियों के बीच जरा-जरा से है, तो भी तुम्हा-रे लिए वे भेद बहुत हो सकते है। एक अकेला शब्द  बहुत फर्क पैदा करता है।
      ‘’आत्यं तिक भक्तिफ पूर्वक श्वातस के दो संधि-स्थदलों पर केंद्रित होकर.....।‘’
      भीतर आने वाली श्वा स को एक संधि स्थ्ल है। जहां वह मुड़ती है। इन दो संधि-स्थ्लों—जिसकी चर्चा हम कर चुके है—के साथ यहां जरा सा भेद किया गया है। हालांकि यह भेद विधि में तो जरा सा ही है, लेकिन साधक के लिए बड़ा भेद हो सकता है। केवल एक शर्त जोड़ दी गई है—‘’आत्यं तिक भक्तिक पूर्वक’’, और पूरी विधि बदल गयी।

      इसके प्रथम रूप में भक्तिय का सवाल नहीं था। वह मात्र वैज्ञानिक विधि थी। तुम प्रयोग करो और वह काम करेगी। लेकिन लोग है जो ऐसी शुष्कत वैज्ञानिक विधियों पर काम नहीं करेंगे। इसलिए जो ह्रदय की और झुके है। जो भक्तिज  के जगत के है, उनके लिए जरा सा भेद किया गया है: आत्यं तिक भक्तिै पूर्वक श्वािस के दो संधि-स्थ लों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।‘’
      अगर तुम वैज्ञानिक रुझान के नहीं हो, अगर तुम्हालरा मन वैज्ञानिक नहीं है, तो तुम इस विधि को प्रयोग में लाओ।
      आत्यंुतिक भक्तिइ पूर्वक—प्रेम श्रद्धा के साथ—श्वाञस के दो संधि स्थ लों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।‘’
      यह कैसे संभव होगा।
      भक्तिस तो किसी के प्रति होती है। चाहे वे कृष्ण् हों या क्राइस्टा। लेकिन तुम्हाभरे स्वोयं के प्रति, श्वा्स के दो संधि-स्थललों के प्रति भक्ति  कैसी होगी। यह तत्वे तो गैर भक्तिर वाला है।  लेकिन व्यिक्ति्-व्यतक्तिि पर निर्भर है।
      तंत्र का कहना है कि शरीर मंदिर है। तुम्हािरा शरीर परमात्माक का मंदिर है, उसका निवास स्थादन है। इसलिए इसे मात्र अपना शरीर या एक वस्तुै न मानो। यह पवित्र है, धार्मिक है। जब तुम एक श्वायस भीतर ले रहे हो तब तुम ही श्वा्स नहीं ले रहे हो, तुम्हायरे भीतर परमात्मार भी श्वा स ले रहा है। तुम चलते फिरते हो—इसे इस तरह देखो—तुम नहीं, स्व यं परमात्माफ तुममें चल रहा है। तब सब चीजें पूरी तरह भक्ति  हो जाती है।
      अनेक संतों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने शरीर को प्रेम करते थे, वे उसके साथ ऐसा व्यजवहार करते थे। मानो वे शरीर उनकी प्रेमिकाओं के रहे हों।
      तुम भी अपने शरीर को यह व्ययवहार दे सकते हो। उसके साथ यंत्रवत व्यकवहार भी कर सकते हो। वह भी एक रूझान है, एक दृष्टिज है। तुम इसे अपराधपूर्ण पाप भरा और गंदा भी मान सकते हो। और इसे चमत्काेर भी समझ सकते हो, परमात्माह का घर भी समझ सकते है, यह तुम पर निर्भर है।
      यदि तुम अपने शरीर को मंदिर मान सको तो यह विधि तुम्हातरे काम आ सकती है, ‘’आत्यं तिक भक्तिक पूर्वक....।‘’ इसका प्रयोग करो। जब तुम भोजन कर रहे हो तब इसका प्रयोग करो। यह न सोचो कि तुम भोजन कर रहे हो, सोचो कि परमात्मार तुममें भोजन कर रहा है। और तब परिवर्तन को देखो। तुम वही चीज खा रहे हो। लेकिन तुरंत सब कुछ बदल जाता है। अब तुम परमात्माख को भोजन दे रहे हो। तुम स्नाुन कर रहे हो। कितना मामूली सा काम है। लेकिन दृष्टि। बदल दो, अनुभव करो कि तुम अपने में परमात्मार को स्नाटन करा रहे हो, तब यह विधि आसान होगी।
      ‘’आत्यंबतिक भक्तिी पूर्वक श्वातस के दो संधि स्थ.लों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।
 ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र

तंत्र-सूत्र—विधि-11

तंत्र-सूत्र—विधि-11


शिथिल होने की दूसरी विधि:
      जब चींटी के रेंगने की अनुभूति हो तो इंद्रियों के द्वार बंद कर दो। तब।
      यह बहुत सरल दिखता है। लेकिन उतना सरल है नहीं। मैं इसे फिर से पढ़ता हूं, ‘’ जब चींटी के रेंगने की अनुभूति हो तो इंद्रियों के द्वार बंद कर दो। तब।‘’ यक एक उदाहरण मात्र है। किसी भी चीज से काम चलेगा। इंद्रियों के द्वार बंद कर दो जब चींटी के रेंगने की अनुभूति हो। और तब—तब घटना घट जाएगी। शिव कह क्याे रहे है?

      तुम्हाोरे पाँव में कांटा गड़ा है। वह दर्द देता है, तुम तकलीफ में हो। या तुम्हाुरे पाँव पर एक चींटी रेंग रही है। तुम्हेंक उसका रेंगना महसूस होता है। और तुम अचानक उसे हटाना चाहते हो। किसी भी अनुभव को ले सकते है। तुम्हें  धाव है जो दुखता है। तुम्हा रे सिर में दर्द है, या कहीं शरीर में दर्द है। विषय के रूप में किसी से भी काम चलेगा। चींटी का रेंगना उदाहरण भर है।
      शिव कहते है: ‘’जब चींटी के रेंगने की अनुभूति हो तो इंद्रियों के द्वारा बंद कर दो।‘’
      जो भी अनुभव हो, इंद्रियों के सब द्वार बंद कर दो करना क्यां है? आंखें बंद कर लो और सोचो कि मैं अंधा हूं और देख नहीं सकता। अपने कान बंद कर लो और सोचो कि मैं सुन नहीं सकता। पाँच इंद्रियाँ है, उन सब को बंद कर लो। लेकिन उन्हें  बंद कैसे करोगे।
      यह आसान नहीं है। क्षण भर के लिए श्वानस लेना बंद कर दो, और तुम्हा री सब इंद्रियाँ बंद हो जायेगी। और जब श्वा स रुकी है और इंद्रियाँ बंद है, तो रेंगना कहां है? चींटी कहां है? अचानक तुम दूर, बहुत दूर हो जाते हो।
      मरे एक मित्र है, वृद्ध है। वे एक बार सीढ़ी से गिर पड़े। और डॉक्टरों ने कहा कि अब वे तीन महीनों तक खाट से नहीं हिल सकेंगे। तीन महीने विश्राम में रहना है। और वे बहुत अशांत व्यहक्ति  थे। पड़े रहना उनके लिए कठिन था। मैं उन्हेंु देखने गया। उन्हों ने कहा कि मेरे लिए प्रार्थना करें और मुझे आशीष दें कि में मर जाऊं। क्यों।कि तीन महीने पड़े रहना मौत से भी बदतर है। मैं पत्थमर की तरह कैसे पडा रह सकता हूं। और सब कहते है कि हिलिए मत।
      मैंने उनसे कहा, यह अच्छा‍ मौका है। आंखें बंद करें और सोचें कि मैं पत्थ।र हूं, मूर्तिवत। अब आप हिल नहीं सकते। आखिर कैसे हिलेंगे। आँख बंद करें और पत्थ र की मूर्ति हो जाएं। उन्हों ने पूछा कि उससे क्याआ होगा। मैंने कहा की प्रयोग तो करें। मैं यहां बैठा हूं। और कुछ किया भी नहीं जा सकता। जैसे भी हो आपको तो यहां तीन महीने पड़े रहना है। इसलिए प्रयोग करें।
      वैसे तो वे प्रयोग करने वाले जीव नहीं थे। लेकिन उनकी यह स्थि ति ही इतनी असंभव थी कि उन्हों ने कहा कि अच्छा  मैं प्रयोग करूंगा। शायद कुछ हो। वैसे मुझे भरोसा नहीं आता कि सिर्फ यह सोचने से कि मैं पत्थमरवत हूं, कुछ होने वाला है। लेकिन मैं प्रयोग करूंगा। और उन्हों ने किया।
      मुझे भी भरोसा नहीं था कि कुछ होने वाला है। क्यों कि वे आदमी ही ऐसे थे। लेकिन कभी-कभी जब तुम असंभव और निराश स्थि ति में होते हो तो चीजें घटित होने लगती है। उन्होंलने आंखें बंद कर ली। मैं सोचता था कि दो तीन मिनट में वे आंखे खोलेंगे। और कहेंगे कि कुछ नहीं हुआ। लेकिन उन्होंनने आंखें नहीं खोली। तीस मिनट गुजर गए। और मैं देख सका कि वे पत्थनर हो गए है। उनके माथे पर से सभी तनाव विलीन हो गए। उनका चेहरा बदल गया। मुझे कही और जाना था, लेकिन वे आंखे बंद किए पड़े थे। और वे इतने शांत थे मानो मर गए है। उनकी श्वाकस शांत हो चली थी। लेकिन क्योंेकि मुझे जाना था, इसलिए मैंने उनसे कहा कि अब आंखे खोलें और बताएं कि क्या  हुआ।
      उन्हों।ने जब आंखे खोली तब वे एक दूसरे ही आदमी थे। उन्हों ने कहा, यह तो चमत्का र है। आपने मेरे साथ क्याथ किया, मैंने कुछ भी नहीं किया। उन्होंंने फिर कहा कि आपने जरूर कुछ किया, क्योंयकि यह तो चमत्का।र है। जब मैंने सोचना शुरू किया कि मैं पत्थथर जैसा हूं तो अचानक यह भाव आया कि यदि मैं अपने हाथ हिलाना भी चाहता हूं तो उन्हेंभ हिलाना भी असंभव है। मैंने कर्इ बार अपनी आंखें खोलनी चाही, लेकिन वे पत्थ र जैसी हो गई थी। और नहीं खुल पा रही थी। और उन्हों ने कहा, मैं चिंतित भी होने लगा कि आप क्यार कहेंगे, इतनी देर हुई जाती है, लेकिन मैं असमर्थ था। मैं तीस मिनट तक हिल नहीं सका। और जब सब गति बंद हो गई तो अचानक संसार विलीन हो गया। और मैं अकेला रह गया। अपने आप में गहरे चला गया। और उसके साथ दर्द भी जाता रहा।
      उन्हेंा भारी दर्द था। रात को ट्रैंक्विलाइजर के बिना उन्हें  नींद नहीं आती थी। और वैसा दर्द चला गया। मैंने उनसे पूछा कि जब दर्द विलीन हो रहा था तो उन्हें  कैसा अनुभव हो रहा था। उन्हों ने कहा कि पहले तो लगा कि दर्द है, पर कहीं दूर पर है, किसी और को हो रहा है। और धीरे-धीरे वह दूर और दूर होता गया। और फिर एक दम से ला पता हो गया। कोई दस मिनट तक दर्द नहीं था। पत्थ र के शरीर को दर्द कैसे हो सकता है।
      यह विधि कहती है: ‘’इंद्रियों के द्वारा बंद कर दो।‘’
      पत्थिर की तरह हो जाओ। जब तुम सच में संसार के लिए बंद हो जाते हो तो तुम अपने शरीर के प्रति भी बंद हो जाते हो। क्यों कि तुम्हाेरा शरीर तुम्हाकरा हिस्साज न होकर संसार का हिस्सा। है। जब तुम संसार के प्रति बिलकुल बंद हो जाते हो तो अपने शरीर के प्रति भी बंद हो गए। और तब शिव कहते है, तब घटना घटेगी।
      इसलिए शरीर के साथ इसका प्रयोग करो। किसी भी चीज से काम चल जाएगा। रेंगती चींटी ही जरूरी नहीं है। नहीं तो तुम सोचोगे कि जब चींटी रेंगेगी तो ध्यानन करेंगे। और ऐसी सहायता करने वाली चींटियाँ आसानी से नहीं मिलती। इसलिए किसी सी भी चलेगा। तुम अपने बिस्तसर पर पड़े हो और ठंडी चादर महसूस हो रही है। उसी क्षण मृत हो जाओ। अचानक चादर दूर होने लगेगी। विलीन हो जाएगी। तुम बंद हो, मृत हो, पत्थ र जैसे हो, जिसमे कोई भी रंध्र नहीं है, तुम हिल नहीं सकते।
      और जब तुम हिल नहीं सकते तो तुम अपने पर फेंक दिये जाते हो। अपने में केंद्रित हो जाते हो। और तब पहली बार तुम अपने केंद्र से देख सकते हो। और एक बार जब अपने केंद्र से देख लिया तो फिर तुम वही व्यकक्तिब नहीं रह जाओगे जो थे।
 ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र

तंत्र-सूत्र—विधि-09

तंत्र-सूत्र—विधि-09

नौवीं विधि:
      मृतवत लेटे रहो। क्रोध में क्षुब्धो होकर उसमे ठहरे रहो। या पुतलियों को घुमाएं बिना एकटक घूरते रहो। या कुछ चुसो और चूसना बन जाओ।
      ‘’मृतवत लेटे रहो।‘’
      प्रयोग करो कि तुम एकाएक मर गए हो। शरीर को छोड़ दो, क्यों कि तुम मर गए हो। बस कल्पगना करो कि मृत हूं, मैं शरीर नहीं हूं, शरीर को नहीं हिला सकता। आँख भी नहीं हिला सकता। मैं चीख-चिल्ला। भी नहीं सकता। न ही मैं रो सकता हूं, कुछ भी नहीं कर सकता। क्यों कि मैं मरा हुआ हूं। और तब देखो तुम्हेंस कैसा लगता है। लेकिन अपने को धोखा मत दो। तुम शरीर को थोड़ा हिला सकते हो, नहीं, हिलाओ नहीं। लेकिन मच्छथर भी आ जाये, तो भी शरीर को मृत समझो। यह सबसे अधिक उपयोग की गई विधि है।

      रमण महर्षि इसी विधि से ज्ञान को उपलब्धआ हुए थे। लेकिन यह उनके इस जन्म  की विधि नहीं थी। इस जन्मआ में तो अचानक सहज ही यह उन्हें  घटित हो गई। लेकिन जरूर उन्हों ने किसी पिछले जन्मह में इसकी सतत सधाना की होगी। अन्यिथा सहज कुछ भी घटित नहीं होता। प्रत्येइक चीज का कार्य-कारण संबंध रहता है।
      जो जब वे केवल चौदह या पंद्रह वर्ष के थे, एक रात अचानक रमण को लगा कि मैं मरने वाला हूं, उनके मन में यक बात बैठ गई कि मृत्युा आ गई है। वे अपना शरीर भी नहीं हिला सकते थे। उन्हेंत लगा कि मुझे लकवा मार गया है। फिर उन्हेंर अचानक घुटन महसूस हुई और वे जान गए कि उनकी ह्रदय-गति बंद होने वाली है। और वे चिल्ला  भी नहीं सके, बोल भी नहीं सके कि मैं मर रहा हूं।
      कभी-कभी किसी दुस्वप्न में ऐसा होता है कि जब तुम न चिल्ला  पाते हो और न हिल पाते हो। जागने पर भी कुछ क्षणों तक तुम कुछ नहीं कर पाते हो। यही हुआ रमण को  अपनी चेतना पर तो पूरा अधिकार था। पर अपने शरीर पर बिलकुल नहीं। वे जानते थे कि मैं हूं, चेतना हूं, सजग हूं, लेकिन मैं मरने वाला हूं। और यह निश्च्य इतना घना था कि कोई विकल्प  भी नहीं था। इसलिए उन्होंिने सब प्रयत्ना छोड़ दिया। उन्होंीने आंखे बद कर ली और मृत्यु  की प्रतीक्षा करने लगे।
      धीरे-धीरे उनका शरीर सख्तन हो गया। शरीर मर गया। लेकिन एक समस्याथ उठ खड़ी हुई। वे जान रहे थे कि शरीर नहीं हूं। लेकिन मैं तो हूं, वे जान रहे थे कि मैं जीवित हूं, और शरीर मर गया है। फिर वे उस स्थिाति से वापस आए। सुबह में शरीर स्वाकस्थी था। लेकिन वही आदमी नहीं लौटा  था जो मृत्युं के पूर्व था। क्यों कि उसने मृत्युर को जान लिया था।
      अब रमण ने एक नए लोक को देख लिया था। चेतना के एक नए आयाम को जान लिया था। उन्होंकने घर छोड़ दिया। उस मृत्यु् के अनुभव ने उन्हेंल पूरी तरह बदल दिया। और वे इस यूग के बहुत थोड़े से प्रबुद्ध पुरूषों में हुए।
      और यहीं विधि है जो रमण को सहज घटित हुई। लेकिन तुमको यह सहज ही नहीं घटित होने वाली। लेकिन प्रयोग करो तो किसी जीवन में यह सहज हो सकती है। प्रयोग करते हुए भी यह घटित हो सकती है। और यदि नहीं घटित हुई तो भी प्रयत्न  कभी व्यतर्थ नहीं जाता है। यह प्रयत्नभ तुम में रहेगा। तुम्हािरे भीतर बीज बनकर रहेगा। कभी जब उपयुक्त   समय होगा और वर्षा होगी, यह बीज अंकुरित हो जाएगा।
      सब सहजता की यही कहानी है। किसी काल में बीज बो दिया गया था। लेकिन ठीक समय नहीं आया था। और वर्षा नहीं हुई थी। किसी दूसरे जन्मी और जीवन में समय तैयार होता है, तुम अधिक प्रौढ़, अधिक अनुभवी होते हो। और संसार में उतने ही निराश होते हो, तब किसी विशेष स्थिसति में वर्षा होती है और बीज फूट निकलता है।
      ‘’मृतवत लेटे रहो। क्रोध में क्षुब्ध  होकर उसमें ठहरे रहो।‘’
      निश्चिय ही जब तुम मर रहे हो तो वह कोई सुख का क्षण नहीं होगा। वह आनंदपूर्ण नहीं हो सकता। जब तुम देखते हो कि तुम मर रहे हो। भय पकड़ेगा। मन में क्रोध उठेगा, या विषाद, उदासी, शोक, संताप, कुछ भी पकड़ सकता है। व्य क्तिा-व्यसक्तिो में फर्क है।
      सूत्र कहता है—‘’क्रोध में क्षुब्धष होकर उसमे ठहरे रहो, स्थिेत रहो।‘’
      अगर तुमको क्रोध घेरे तो उसमे ही स्थिबत रहो। अगर उदासी घेरे तो उसमे भी। भय, चिंता, कुछ भी हो, उसमें ही ठहरे रहो, डटे रहो, जो भी मन में हो, उसे वैसा ही रहने दो, क्यों कि शरीर तो मर चुका है।
      यह ठहरना बहुत सुंदर है। अगर तुम कुछ मिनटों के लिए भी ठहर गए तो पाओगे कि सब कुछ बदल गया। लेकिन हम हिलने लगते है। यदि मन में कोई आवेग उठता है तो शरीर हिलने लगता है।  उदासी आती है, तो भी शरीर हिलता है। इसे आवेग इसीलिए कहते है कि यह शरीर में वेग पैदा करता है। मृतवत महसूस करो—और आवेगों को शरीर हिलाने इजाजत मत दो। वे भी वहां रहे और तुम भी वहां रहो। स्थितर, मृतवत। कुछ भी हो, पर हलचल नहीं हो, गति नहीं हो। बस ठहरे रहो।
      ‘’या पुतलियों को घुमाएं बिना एकटक घूरते रहो।‘’
      यह—या पुतलियों को घुमाएं बिना एकटक घूरते रहो। मेहर  बाबा की विधि थी। वर्षो वे अपने कमरे की छत को घूरते रहे, निरंतर ताकते रहे। वर्षो वह जमीन पर मृतवत पड़े रहे और पुतलियों को, आंखों को हिलाए बिना छत को एक टक देखते रहे। ऐसा वे लगातार घंटो बिना कुछ किए घूरते रहते थे। टकटकी लगाकर देखते रहते थे।
      आंखों से घूरना  अच्छा  है। क्यों कि उससे तुम फिर तीसरी आँख मैं स्थिआत हो जाते हो। और एक बार तुम तीसरी आँख में थिर हो गए तो चाहने पर भी तुम पुतलियों को नहीं घूमा सकते हो। वे भी थिर हो जाती है—अचल।
      मेहर बाबा इसी घूरने के जरिए उपलब्धत हो गए। और तुम कहते हो कि इन छोटे-छोटे अभ्याएसों से क्याग होगा। लेकिन मेहर बाबा लगातार तीन वर्षों तक बिना कुछ किए छत को घूरते रहे थे। तुम सिर्फ तीन मिनट के लिए ऐसी टकटकी लगाओ और तुमको लगेगा कि तीन वर्ष गुजर गये। तीन मिनट भी बहुत लम्बत समय मालूम होगा। तुम्हेंष लगेगा की समय ठहर गया है। और घड़ी बंद हो गई है। लेकिन मेहर बाबा घूरते रहे, घूरते रह, धीरे-धीरे विचार मिट गए। और गति बंद हो गई। मेहर बाबा मात्र चेतना रह गए। वे मात्र घूरना बन गए। टकटकी बन गए। और तब वे आजीवन मौन रह गए। टकटकी के द्वारा वे अपने भीतर इतने शांत हो गए कि उनके लिए फिर शब्दन रचना असंभव हो गई।
      मेहर बाबा अमेरिका में थे। वहां एक आदमी था जो दूसरों के विचार को, मन को पढ़ना जानता था। और वास्तरव में वह आमी दुर्लभ था—मन के पाठक के रूप में। वह तुम्हा रे सामने बैठता, आँख बंद कर लेता और कुछ ही क्षणों में वह तुम्हावरे साथ ऐसा लयवद्ध हो जाता कि तुम जो भी मन में सोचते, वह उसे लिख डालता था। हजारों बार उसकी परीक्षा ली गई। और वह सदा सही साबित हुआ। तो कोई उसे मेहर बाबा  के पास ले गया। वह बैठा और विफल रहा। और यह उसकी जिंदगी की पहली विफलता थी। और एक ही। और फिर हम यह भी कैसे कहें कि यह उसकी विफलता हुई।
      वह आदमी घूरता रहा, घूरता रहा, और तब उसे पसीना आने लगा। लेकिन एक शब्दी उसके हाथ नहीं लगा। हाथ में कलम लिए बैठा रहा और फिर बोला—किसी किस्म  का आदमी है। यह, मैं नहीं पढ़ पाता हूं, क्योंिकि पढ़ने के लिए कुछ है ही नहीं। यह आदमी तो बिलकुल खाली है। मुझे यह भी याद नहीं  रहता की यहां कोई बैठा है। आँख बंद करने के बाद मुझे बार-बार आँख खोल कर देखना पड़ता है कि यह व्यलक्तिक यहां है कि नहीं।  या यहां से हट गया है। मेरे लिए एकाग्र होना भी कठिन हो गया है। क्यों कि ज्यों  ही मैं आँख बंद करता हूं कि मुझे लगता है कि धोखा दिया जा रहा है। वह व्यंक्तिी यहां से हट जाता है। मेरे सामने कोई भी नहीं है। और जब मैं आँख खोलता हूं तो उसको सामने ही पाता हूं। वह तो कुछ भी नहीं सोच रहा है।
      उस टकटकी ने, सतत टकटकी ने मेहर बाबा के मन को पूरी तरह विसर्जित कर दिया था।
      ‘’या पुतलियों को घुमाएं बिना एकटक घूरते रहो। या कुछ चुसो और चूसना बन जाओ।‘’
      यहां जरा सा रूपांतरण है। कुछ भी काम दे देगा। तुम मर गए, यह काफी है।
      ‘’क्रोध में क्षुब्धक होकर उसमे ठहरे रहो।‘’
      केवल यह अंश भी एक विधि बन सकता है। तुम क्रोध में हो; लेटे रहो और क्रोध में स्थि त रहो। पड़े रहो। इससे हटो नहीं, कुछ करो नहीं, स्थिंर पड़ें रहो।
      कृष्णामूर्ति इसी की चर्चा किए चले जा रहे थे। उनकी पूरी विधि इस एक चीज पर निर्भर है: क्रोध से क्षुब्ध  होकर उसमे ठहरे रहो।‘’ यदि तुम क्रुद्ध हो तो क्रुद्ध होओ और क्रुद्ध रहो। उससे हिलो नहीं, हटो नहीं। और अगर तुम वैसे ठहर सको तो क्रोध चला जाता है। और तुम दूसरे आदमी बन जाते हो। और एक बार तुम क्रोध को उससे आंदोलित हुए बिना देख लो तो तुम उसके मालिक हो गए।
      ‘’या पुतलियों को घुमाएं बिना एक टक घूरते रहो। या कुछ चुसो और चूसना बन जाओ।‘’
      यह अंतिम विधि शारीरिक है। और प्रयोग में सुगम है। क्यों कि चूसना पहला काम है, जो कि कोई बच्चाि करता है। चूसना जीवन का पहला कृत्य  है। बच्चाा जब पैदा होता है, तब वह पहले रोता है। तुमने यह जानने की कोशिश नहीं की होगी कि बच्चाै क्यों  रोता है। सच में वह रोता नहीं है। वह रोता हुआ मालूम होता है। वह सिर्फ हवा का पी रहा है। चूर रहा है। अगर वह नहीं रोंए तो मिनटों के भीतर मर जाए। क्योंैकि रोना हवा लेने का पहला प्रयत्नक है। जब वह पेट में था, बच्चा  स्वांस नहीं लेता है। बिना स्वा स लिए वह जीता था। वह वहीं प्रक्रिया कर रहा था। जो भूमिगत समाधि लेने पर योगी जन करते है। वह बिना श्वा।स लिए प्राण को ग्रहण कर रहा था—मां से शुद्ध प्राण ही ग्रहण कर रहा था।
      यही कारण है कि मां और बच्चेक के बीच जो प्रेम है, वह और प्रेम से सर्वथा भिन्नह होता है। क्यों कि शुद्धतम प्राण दोनों को जोड़ता है। अब ऐसा फिर कभी नहीं होगा। उनके बीच एक सूक्ष्मध प्राणमय संबंध था। मां बच्चे् को प्राण देती थी। बच्चा  श्वा्स तक नहीं लेता था।
      लेकिन जब वह जन्मो लेता है, तब वह मां के गर्भ से उठाकर एक बिलकुल अनजानी दुनिया में फेंक दिया जाता है। अब उसे प्राण या ऊर्जा उस आसानी से उपलब्धक नहीं होगी। उसे स्वययं ही श्वाास लेनी होगी। उसकी पहली चीख चूसने का पहला प्रयत्न  है। उसके बाद वह मां के स्त न से दूध चूसता है। ये बुनियादी कृत्य  है जो  तुम करते हो। बाकी सब काम बाद में आते है। जीवन के वे बुनियादी कृत्य  है, और प्रथम कृत्य  उसका अभ्याेस भी किया जा सकता है।
      यह सूत्र कहता है: ‘’या कुछ चुसो और चूसना बन जाओ।‘’
      किसी भी चीज को चुसो , हवा को ही चुसो, लेकिन तब हवा को भूल जाओ और चूसना ही बन जाओ। इसका अर्थ क्याव हुआ? तुम कुछ चूस रहे हो, इसमें तुम चूसने वाले हो, चोषण नहीं। तुम चोषण के पीछे खड़े हो। यह सूत्र कहता है कि पीछे मत खड़े रहो, कृत्यन में भी सम्मिखलित हो जाओ और चोषण बने जाओ।
      किसी भी चीज से तुम प्रयोग कर सकते हो, अगर तुम दौड़ रहे हो तो दौड़ना ही बन जाओ और दौड़ने वाले न रहो। दौड़ना बन जाओ। दौड़ बन जाओ और दौड़ने वाले को भूल जाओ। अनुभव करो कि भीतर कोई दौड़ने वाला नहीं है। मात्र दौड़ने की प्रक्रिया है। वह प्रक्रिया तुम हो—सरिता जैसी प्रक्रिया। भीतर कोई नहीं है। भीतर सब शांत है। और केवल यह प्रक्रिया है।
      चूसना, चोषण अच्छा  है। लेकिन तुमको यह कठिन मालूम पड़ेगा। क्योंूकि हम इसे बिलकुल भूल गए है। यह कहना भी ठीक नहीं है कि बिलकुल भूल गए है। क्योंोकि उसका विकल्पह तो निकालते ही रहते है। मां के स्त न की जगह सिगरेट ले लेती है। और तुम उसे चूसते रहते हो। यह स्तैन ही है, मां का स्तरन, मां का चूचुक।  और गर्म धुआँ निकलता है, वह मां का दूध।
      इसलिए छुटपन में जिनको मां के स्तकन के पास उतना नहीं रहने दिया गया, जितना वे चाहते थे, वे पीछे चलकर धूम्रपान करने लगते है। यह बिलकुल भूल गए है, और विकल्पध से भी काम चल जाएगा। इसलिए अगर तुम सिगरेट पीते हो तो धुम्रपान ही बन जाओ। सिगरेट को भूल जाओ, पीने वाले को भूल जाओ और धूम्रपान ही बने रहो।
      एक विषय है जिसे तुम चूसते हो, एक विषयी है जो चूसता है। और उनके बीच चूसने की, चोषण की प्रक्रिया है। तुम चोषण बन जाओ प्रक्रिया बन जाओ। इसे प्रयोग करो। पहले कई चीजों से प्रयोग करना होगा और तब तुम जानोंगे कि तुम्हाचरे लिए क्या  चीज सही है।
      तुम पानी पी रहे हो। ठंडा पानी भीतर जा रहा है। तुम पानी बन जाओ। पानी न पीओ। पानी को भूल जाओ। अपने को भूल जाओ, अपनी प्याास को भी, और मात्र पानी बन जाओ। प्रक्रिया में ठंडक है, स्पीर्श है, प्रवेश है, और पानी है—वही सब बने रहो।
      क्योंह नहीं? क्याी होगा?  यदि तुम चोषण बन जाओ तो क्याग होगा?
      यदि तुम चोषण बन जाओ तो तुम निर्दोष हो जाओगे—ठीक वैसे जैसे प्रथम दिन जन्माच हुआ शिशु होता है। क्योंेकि वह प्रथम प्रक्रिया है। एक तरह से आप पीछे की और यात्रा करेंगे। लेकिन उसकी ललक, लालसा भी तो है। आदमी का पूरा अस्ति त्वक उस स्तन पान के लिए तड़पता है। उसके लिए वह कई प्रयोग करता है, लेकिन कुछ भी काम नहीं आता। क्यों कि वह बिंदु ही खो गया है। जब तक तुम चूसना नहीं बन जाते, तब तक कुछ भी काम नहीं आएगा। इसलिए इसे प्रयोग में लाओ।
      एक आदमी को मैंने यह विधि दी थी। उसने कई विधियां प्रयोग की थी। तब वह मेरे पास आया। उससे मैंने कहा, यदि मैं समूचे संसार से केवल एक चीज ही तुम्हें। चुनने को दूँ तो तुम क्यास चुनोगे? और मैंने तुरंत उसे यह भी कहा कि आँख बंद करो और इस पर तुम कुछ भी सोचे बिना मुझे बताओ। वह डरने लगा, झिझकने लगा। तो मैंने कहा, न डरों और न झिझाको। मुझे स्प,ष्टन बताओ। उसने कहा, यह तो बेहूदा मालूम पड़ता है। लेकिन मेरे सामने एक स्त न उभर रहा है। और यह कहकर वह अपराध भाव अनुभव करने लगा। तो मैंने कहा, मत अपराध भाव अनुभव करो। स्तभन में गलत क्या, है ? सर्वाधिक सुंदर चीजों में स्तभन एक है, फिर अपराध भाव क्योंर?
      लेकिन उस आदमी ने कहा, यह चीज तो मेरे लिए ग्रस्त ता बन गई है। इसलिए अपनी विधि बताने के पहले आप कृपा कर यक बताएं कि मैं क्यों  स्त्रिनयों के स्तरनों में इतना उत्सु क हूं? जब भी मैं किसी स्त्री को देखता हुं, पहले उसका स्ततन ही मुझे दिखाई देता है। शेष शरीर उतने महत्व  का नह रहता।
      और यह बात केवल उसके साथ ही लागू नहीं है। प्रत्येझक के साथ, प्रात: प्रत्येलक के साथ लागू है। और यह बिलकुल स्वा भाविक है। क्यों कि मां का स्तसन की जगत के साथ आदमी का पहला परिचय बनता है। यह बुनियादी है। जगत के साथ पहला संपर्क मां के स्तमन बनता है। यही कारण है कि स्ततन में इतना आकर्षण है, स्तिन इतना सुंदर लगता है। उसमे एक चुंबकीय शक्तित है।
      इसलिए मैंने उस व्य क्तिं से कहा कि अब मैं तुमको विधि दूँगा। और यही विधि थी जो मैंने उसे दी: किसी चीज को चुसो और चूसना बन जाओ। मैंने बताया कि आंखें बंद कर लो और अपनी मां का स्तबन याद करो या और कोई स्तंन जो तुम्हेंक पंसद हो, कल्पवना करो और ऐसे चूसना शुरू करो कि यह असली स्त‍न है। शुरू करो।
      उसने चूसना शुरू किया। तीन दिन के अंदर वह इतनी तेजी से, पागलपन के साथ चूसने लगा। और वह इसके साथ इतना मंत्र मुग्ध हो गया कि उसने एक दिन आकर मुझसे कहा, यह तो समस्यात बन गई है। सात दिन में चूसता ही रहा हूं। और यह इतना सुंदर है और इसमे ऐसी गहरी शांति पैदा होती है।‘’ और तीन महीने के अंदर उसका चोषण एक मौन मुद्रा बन गया। तुम होंठों से समझ नहीं सकते कि वह कुछ कर रहा है। लेकिन अंदर से चूसना जारी था। सारा समय वह चूसता रहता। यह जब बन गया।
      तीन महीने बाद उसके मुझसे कहा, ‘’कुछ अनूठा मेरे साथ घटित हो रहा है। निरंतर कुछ मीठी द्रव सिर से मेरी जीभ पर बरसता है। और यह इतना मीठा और शक्तिीदायक है। कि मुझे किसी और भोजन की जरूरत नहीं रही। भूख समाप्तर हो गई है। और भोजन मात्र औपचारित हो गया। परिवार में समस्यात न बने, इसलिए मैं दूध लेता हूं। लेकिन कुछ मुझे मिल रहा है जो बहुत मीठा है। बहुत जीवनदायी है।‘’
      मैंने उसे यह विधि जारी रखने को कहा।
      तीन महीने और। और वह एक दिन नाचता हुआ, पागल सा मेरे पास आया। और बोला, चूसना तो चला गया, लेकिन अब मैं दूसरा ही आदमी हो गया हूं। अब मैं वही नहीं रहा हूं। जो पहले था। मरे लिए कोई द्वार खुल गया है। कुछ टूट गया है। और कोई आकांक्षा शेष नहीं रही। अब मैं कुछ भी नहीं चाहता हूं, न परमात्माष। न मोक्ष, अब जो है, जैसा है, ठीक है। मैं उसे स्वीमकारता हूं और आनंदित हूं।‘’
      इसे प्रयोग में लाओ। किसी चीज को चुसो और चूसना बन जाओ। यह बहुतों के लिए उपयोगी होगा। क्यों कि यह इतना आधारभूत है।
 ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र

तंत्र-सूत्र—विधि-10

तंत्र-सूत्र—विधि-10


शिथिल होने की पहली विधि:
     प्रिय देवी, प्रेम किए जाने के क्षण में प्रेम में ऐसे प्रवेश करो जैसे कि वह नित्यव जीवन हो।
      शिव प्रेम से शुरू करते है। पहली विधि प्रेम से संबंधित है। क्यों कि तुम्हा रे शिथिल होने के अनुभव में प्रेम का अनुभव निकटतम है। अगर तुम प्रेम नहीं कर सकते हो तो तुम शिथिल भी नहीं हो सकते हो। और अगर तुम शिथिल हो सके तो तुम्हािरा जीवन प्रेमपूर्ण हो जाएगा।

      एक तनावग्रस्त  आदमी प्रेम नहीं कर सकता। क्यों ? क्योंोकि तनावग्रस्तर आदमी सदा उद्देश्यद से, प्रयोजन से जीता है। वह धन कमा सकता है। लेकिन प्रेम नहीं कर सकता। क्यों कि प्रेम प्रयोजन-रहित है। प्रेम कोई वस्तु  नहीं है। तुम उसे संग्रहीत नहीं कर सकते, तुम उसे बैंक खाते में नहीं डाल सकते। तुम उससे अपने अहंकार की पुष्टिे नहीं कर सकते। सच तो यह है कि प्रेम सब से अर्थहीन काम है; उससे आगे उसका कोई अर्थ नहीं है। उससे आगे उसका कोई प्रयोजन नहीं है। प्रेम अपने आप में जीता है। किसी अन्य  चीज के लिए नहीं।
      तुम धन कमाते हो—किसी प्रयोजन से। वह एक साधन नहीं है। तुम मकान बनाते हो—किसी के रहने के लिए। वह भी एक साधन है। प्रेम साधन नहीं है। तुम क्योंि प्रेम करते हो? किस लिए प्रेम करते हो?
      प्रेम अपना लक्ष्यि आप है। यही कारण है कि हिसाब किताब रखने वाला मन, तार्किक मन, प्रयोजन की भाषा में सोचने वाला मन प्रेम नहीं कर सकता। और जो मन प्रयोजन की भाषा में सोचता है। वह तनावग्रस्त  होगा। क्योंपकि प्रयोजन भविष्यै में ही पूरा किया जा सकता है। यहां और अभी नहीं।
      तुम एक मकान बना रहे हो। तुम उसमें अभी ही नहीं रह सकते। पहले बनाना होगा। तुम भविष्यो में उसमे रह सकते हो; अभी नहीं। तुम धन कमाते हो। बैंक बैलेंस भविष्यस में बनेगा, अभी नहीं। अभी साधन का उपयोग कर सकते हो, साध्य् भविष्यं में आएँगे।
      प्रेम सदा यहां है और अभी है। प्रेम का कोई भविष्यं नहीं है। यही वजह है कि प्रेम ध्याान के इतने करीब है। यही वजह है कि मृत्युं भी ध्या न के इतने करीब है। क्योंेकि मृत्यु  भी यहां और अभी है, वह भविष्या में नहीं घटती।
      क्यां तुम भविष्यक में मर सकते हो? वर्तमान में ही मर सकते हो। कोई कभी भविष्यन में नहीं मरा। भविष्यम में कैसे मर सकते हो? या अतीत में कैसे मर सकते हो। अतीत जा चुका वह अब नहीं है। इसलिए अतीत में नहीं मर सकते। और भविष्यत अभी आया नहीं है। इसलिए उसमे कैसे मरोगे?
      मृत्युे सदा वर्तमान में होती है। मृत्युअ प्रेम और ध्या न सब वर्तमान में घटित होते है। इसलिए अगर तुम मृत्युी से डरते हो तो तुम प्रेम नहीं कर सकते। अगर तुम मृत्युम से भयभीत हो तो तुम ध्यापन नहीं कर सकते। और अगर तुम ध्याुन से डरे हो तो तुम्हाारा जीवन व्य‍र्थ होगा। किसी प्रयोजन के अर्थ में जीवन व्यरर्थ नहीं होगा। वह व्य्र्थ इस अर्थ में होगा कि तुम्हें  उसमें किसी आनंद की अनुभूति नहीं होगी। जीवन अर्थहीन होगा।
      इन तीनों को—प्रेम, ध्याउन और मृत्युु को—एक साथ रखना अजीब मालूम पड़ेगा। वह अजीब है नहीं। वे समान अनुभव है। इसलिए अगर तुम एक में प्रवेश कर गए तो शेष दो में भी प्रवेश पा जाओगे।
      शिव प्रेम से शुरू करते है: ‘’प्रिय देवी, प्रेम किए जाने के क्षण में प्रेम में ऐसे प्रवेश करो जैसे कि वह नित्यप जीवन है।‘’
      इसका क्या  अर्थ है? कई चीजें, एक जब तुम्हें  प्रेम किया जाता है तो अतीत समाप्तक हो जाता है। और भविष्यि भी नहीं बचता। तुम वर्तमान के आयाम में गति कर जाते हो। तुम अब में प्रवेश कर जाते हो। क्याक तुमने कभी किसी को प्रेम किया है?यदि कभी किया है तो जानते हो कि उस क्षण मन नहीं होता है।
      यही कारण है कि तथाकथित बुद्धिमान कहते है कि प्रेम अंधे होते है, मन: शून्य और पागल होते है। वस्तुधत: वे सच कहते है। प्रेमी इस अर्थ में अंधे होते है। कि भविष्यब पर अपने किए का हिसाब रखने वाली आँख उनके पास नहीं होती। वे अंधे है, क्यों कि वे अतीत को नहीं देख पाते। प्रेमियों को क्या। हो जाता है?
      वे अभी और यही में सरक आते है, अतीत और भविष्यं की चिंता नहीं करते, क्याक होगा इसकी चिंता नहीं लेते। इस कारण वे अंधे कहे जाते है। वे है। जो गणित करते है, उनके लिए वे अंधे है, और जो गणित नहीं करते उनके लिए आँख वाले है। जो हिसाबी नहीं है वे देख लेंगे कि प्रेम ही असली आँख है, वास्त विक दृष्टि  है।
      इसलिए पहली चीज के प्रेम के क्षण में अतीत और भविष्यृ नहीं होते है। तब एक नाजुम बिंदु समझने जैसा है। जब अतीत और भविष्यो नहीं रहते तब क्या  तुम इस क्षण को वर्तमान कह सकते हो? यह वर्तमान है दो के बीच, अतीत और भविष्यक के बीच; यह सापेक्ष है। अगर अतीत और भविष्यद नहीं रहे तो इसे वर्तमान कहते में क्याक तुक है। वह अर्थहीन है। इसीलिए शिव वर्तमान शब्द  का व्यवहार नहीं करते। वे कहते है, नित्य  जीवन। उनका मतलब शाश्वमत से है—शाश्वकत में प्रवेश करो।
      हम समय को तीन हिस्सोंि में बांटते है—भूत, भविष्यक और वर्तमान। यह विभाजन गलत है। सर्वथा गलत है। केवल भूत और भविष्यन समय है, वर्तमान समय का हिस्सा  नहीं है। वर्तमान शाश्वजत का हिस्साय है। जो बीत गया वह समय है। जो आने वाला है समय है।
लेकिन जो है वह समय नहीं है। क्यों कि वह कभी बीतता नहीं है। वह सदा है। अब सदा है। वह सदा है। यह अब शाश्वोत है।
      अगर तुम अतीत से चलो तो तुम कभी वर्तमान में नहीं आते। अतीत से तुम सदा भविष्यस में यात्रा करते हो। उसमे कोई क्षण नहीं आता जो वर्तमान हो। तुम  अतीत से सदा भविष्यउ में गति करते रहते हो। आकर वर्तमान से तुम और वर्तमान में गहरे उतरते हो, अधिकाधिक वर्तमान में। यही नित्यव जीवन है।
      इसे हम इस तरह भी कह सकते है। अतीत से भविष्यो तक समय है। समय का अर्थ है कि तुम समतल भूमि पर और सीधी रेखा में गति करते हो। या हम उसे क्षैतिज कह सकते है। और जिस क्षण तुम वर्तमान में होते हो, आयाम बदल जाता है। तुम्हा‍री गति ऊर्ध्वानधर ऊपर-नीचे हो जाती है। तुम ऊपर, ऊँचाई की और जाते हो या नीचे गहराई की और जाते हो। लेकिन तब तुम्हादरी गति क्षैतिज या समतल नहीं होती है।
      बुद्ध और शिव शाश्वित में रहते है, समय में नहीं।
      जीसस से पूछा गया कि आपके प्रभु के राज्यी में क्यां होगा? जो पूछ रहा था वह समय के बारे में नहीं पूछ रहा था। वह जानना चाहता था कि वहां उसकी वासनाओं का क्याी होगा। वे कैसे पूरी होंगी? वह पूछ रहा था कि क्याा वहां अनंत जीवन होगा या वहां मृत्युो भी होगी। क्याू वहां दुःख भी रहेगा। और छोटे और बड़े लोग भी होंगे। जब उसने पूछा कि आपके प्रभु के राज्यं में क्या  होगा। तब वह इसी दुनिया की बात पूछ रहा था।
      और जीसस ने उत्तार दिया—यह उत्तऔर झेन संत के उत्तशर जैसा है—‘’वहां समय नहीं होगा।‘’ जिस व्यऔक्तिन को यह उत्तरर दिया गया था उसने कुछ नहीं समझा होगा। जीसस ने इतना ही कहा—वहां समय नहीं होगा। क्यों ? क्योंककि समय क्षैतिज है, और प्रभु का राज्यस ऊर्ध्वगामी है। वह शाश्व त है। वह सदा यहां है। उसमे प्रवेश के लिए तुम्हेंा समय से हट भर जाना है।
      तो प्रेम पहला द्वारा है। इसके द्वारा तुम समय के बाहर निकल सकते हो। यही कारण है कि हर आदमी प्रेम चाहता है, हर आदमी प्रेम करना चाहता है। और कोई नहीं जानता है कि प्रेम को इतनी महिमा क्यों  दी जाती है? प्रेम के लिए इतनी गहरी चाह क्यों  है? और जब तक तुम यह ठीक से न समझ लो, तुम ने प्रेम कर सकते हो और न पा सकते हो। क्योंहकि इस धरती पर प्रेम गहन से गहन घटना है।
      हम सोचते है कि हर आदमी, जैसा वह है, प्रेम करने को सक्षम है। वह बात नहीं है। और इसी कारण से तुम प्रेम में निराशा होते हो। प्रेम एक और ही आयाम है। यदि तुमने किसी को समय के भीतर प्रेम करने की कोशिश की तो तुम्हातरी कोशिश हारेगी। समय के रहते प्रेम संभव नहीं है।
      मुझे एक कथा याद आती है। मीरा कृष्णर के प्रेम में थी। वह गृहिणी थी—एक राजकुमार की पत्नीम। राजा को कृष्णम से ईर्ष्यान होने लगी। कृष्ण  थे नहीं। वे शरीर से उपस्थिनत नहीं थे। कृष्णस और मीरा की शारीरिक मौजूदगी में पाँच हजार वर्षों का फासला था। इसलिए यथार्थ में मीरा कृष्णं के प्रेम में कैसे हो सकती थी। समय का अंतराल इतना लंबा था।
      एक दिन राणा ने मीरा से पूछा, तुम अपने प्रेम की बात किए जाती हो, तुम कृष्णर के आसपास नाचती-गाती हो। लेकिन कृष्ण  है कहां? तुम किसके प्रेम में  हो? किससे सतत बातें किए जाती हो?
      मीरा ने कहां: कृष्ण  यहां है, तुम नहीं हो। क्योंहकि कृष्णि शाश्व त है। तुम नहीं हो, वे यहां सदा होंगे। सदा थे। वे यहां है, तुम यहां नहीं हो। एक दिन तुम यहां नहीं थे, किसी दिन फिर यहां नहीं होओगे। इसलिए मैं कैसे विश्वांस कुरू कि इन दो अनस्तित्व के बीच तुम हो। दो अनस्तित्व के बीच अस्तिंत्वक क्यात संभव है?
      राणा समय में है और कृष्ण‍ शाश्वदत में है। तुम राणा के निकट हो सकते हो। लेकिन दूरी नहीं मिटाई जा सकती। तुम दूर ही रहोगे। और समय में तुम कृष्णर से बहुत दूर हो सकते हो, तो भी तुम उनके निकट हो सकते हो। यह आयाम ही और है।
      मैं आपने सामने देखता हूं वहां दीवार है। फिर मैं अपनी आंखों को आगे बढ़ाता हूं और वहां आकाश है। जब तुम समय में देखते हो तो वहां दीवार है। और जब तुम समय के पार देखते हो तो वहां खुला आकाश है, अनंत आकाश।
      प्रेम अनंत का द्वार खोल सकता है। अस्ति त्वआ की शाश्वकतता का द्वार। इसलिए अगर तुमने कभी सच में प्रेम किया है तो प्रेम को ध्या्न की विधि बनाया जा सकता है। यह वहां विधि  है: ‘’प्रिय देवी प्रेम किए जाने के क्षण में प्रेम में ऐसे प्रवेश करो जैसे कि यह नित्यह जीवन हो।‘’
      बाहर-बाहर रहकर प्रेमी मत बनो, प्रेमपूर्ण होकर शाश्वेत में प्रवेश करो। जब तुम किसी को प्रेम करते हो तो क्याक तुम वहां प्रेमी की तरह होते हो? अगर होते हो तो समय में हो, और तुम्हाीरा प्रेम झूठा है। नकली है, अगर तुम अब भी वहां हो और कहते हो कि मैं हूं तो शारीरिक रूप से नजदीक होकर भी आध्याबत्मिऔक रूप से तुम्हाोरे बीच दो ध्रुवों की दूरी कायम रहती है।
      प्रेम में तुम न रहो, सिर्फ प्रेम रहे; इसलिए प्रेम ही हो जाओ। अपने प्रेमी या प्रेमिका को दुलार करते समय दुलार ही हो जाओ। चुंबन लेते समय चूसने वाले या चूमे जाने वाले मत रहो, चुंबन ही  बन जाओ। अहंकार को बिलकुल भूल जाओ। प्रेम के कृत्यन में धुल-मिल जाओ। कृत्यं में इतनी गहरे समा जाओ कि कर्ता न रहे।
      और अगर तुम प्रेम में नहीं गहरे उतर सकते तो खाने और चलने में गहरे उतरना कठिन होगा। बहुत कठिन होगा। क्यों कि अहंकार को विसर्जित करने के लिए प्रेम सब से सरल मार्ग है। इसी वजह से अहंकारी लोग प्रेम नहीं कर पाते। वे प्रेम के बारे में बातें कर सकते है। गीत गा सकते है। लिख सकते है; लेकिन वे प्रेम नहीं कर सकते। अहंकार प्रेम नहीं कर सकता है।
      शिव कहते है, प्रेम ही हो जाओ। जब आलिंगन में हो तो आलिंगन हो जाओ। चुंबन लेते समय चुंबन हो जाओ। अपने को इस पूरी तरह भूल जाओ कि तुम कह सको कि मैं अब नहीं हूं, केवल प्रेम है। तब ह्रदय नहीं धड़कता है, प्रेम की धड़कता है। तब खून नहीं दौड़ता है, प्रेम ही दौड़ता है। तब आंखे नहीं देखती है, प्रेम ही देखता है। तब हाथ छूने को नहीं बढ़ते है, प्रेम ही छूने को बढ़ता है। प्रेम बन जाओ और शाश्वूत जीवन में प्रवेश करो।
      प्रेम अचानक तुम्हांरे आयाम को बदल देता है। तुम समय से बाहर फेंक दिये जाते हो। तुम शाश्व्त के आमने-सामने खड़े हो जाते हो। प्रेम गहरा ध्या न बन सकता है—गहरे  से गहरा। और कभी-कभी प्रेमियों ने वह जाना है जो संतों न भी नहीं जाना। कभी-कभी प्रेमियों ने उस केंद्र को छुआ है जो अनेक योगियों ने नहीं छुआ।
      शिव को अपनी प्रिया देवी के साथ देखो। उन्हेंी ध्यापन से देखो। वे दो नहीं मालूम होते। वे एक ही है। यह एकांत इतना गहरा है। हम सबने शिव लिंग देखे है। ये लैंगिक प्रतीक है। शिव के लिंग का प्रतीक है। लेकिन वह अकेला नहीं है, वह देवी की योनि में स्थि त है। पुराने दिनों के हिंदू बड़े साहसी थे। अब जब तुम शिवलिंग देखते हो तो याद नह रहता कि यह एक लैंगिक प्रतीक है। हम भूल गए है। हमने चेष्टा पूर्वक इसे पूरी तरह भुला दिया है।
      प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जुंग ने अपनी आत्मनकथा में, अपने संस्म रणों में एक मजेदार घटना का उल्लेीख किया है। वह भारत आया और कोणार्क देखने को गया। कोणार्क के मंदिर में शिवलिंग है। जो पंडित उसे समझाता था उसने शिवलिंग के सिवाय सब कुछ समझाया। और वे इतने थे कि उनसे बचना मुश्किाल था। जुंग तो सब जानता था, लेकिन पंडित को सिर्फ चिढ़ाने के लिए पूछता रहा की ये क्या  है? तो पंडित ने आखिर जुंग के कान में कहा कि मुझे यहां मत पूछिये, मैं पीछे आपको बताऊंगा। यह गोपनीय है।
      जुंग मन ही मन हंसा होगा। ये है आज के हिंदू। फिरा बहार आकर पंडित ने कहा कि दूसरों के सामने आपका पूछना उचित न था। अब में बताता हूं। यह गुप्त  चीज है। और तब फिर उसने जुंग के कान में कहा ये हमारे गुप्तां ग है।
      जुंग जब यहां से वापस गया तो वहां वह एक महान विद्वान से मिला। पूर्वीय चिंतन मिथक और दर्शन के विद्वान, हेनरिख जिमर से। जुंग ने यह किस्सान जिमर को सुनाया। जिमर उन थोड़े से मनीषियों में था जिन्होंमने भारतीय चिंतन में डूबने की चेष्टा की थी। और वह भारत का उसकी विचारणा का, जीवन के प्रति उसके अतार्किक रहस्यउवादी दृष्टि वादी दृष्टि कोण का प्रेमी था। जब उसने जुंग से यह सूना तो वह हंसा और बोला, बदलाहट के लिए अच्छाक है। मैंने बुद्ध, कृष्ण , महावीर जैसे महान भारतीयों के बारे में सुना है। तुम तो सुना रहे हो वह किसी महान भारतीय के संबंध में नहीं, भारतीयों के संबंध में कुछ कहता है।
      शिव के लिए प्रेम महाद्वार है। और उनके लिए कामवासना निंदनीय नहीं है। उनके लिए काम बीज है और प्रेम उसका फूल है। और अगर तुम बीज की निंदा करते हो तो फूल की भी निंदा अपने आप हो जाती है। काम प्रेम बन सकता है। और अगर वह कभी प्रेम नहीं बनता है तो वह पंगु हो जाता है। पंगुता की निंदा करो, काम की नहीं। प्रेम को खिलना चाहिए। उसको प्रेम बनना चाहिए। और अगर यह नहीं होता है तो यह काम दोष नहीं है, यह दोष तुम्हामरा है।
      काम को काम नहीं रहना है। यहीं तंत्र की शिक्षा है। उसे प्रेम में रूपांतरित होना ही चाहिए। और प्रेम को भी प्रेम ही नहीं रहना है। उसे प्रकाश में , ध्यापन के अनुभव में अंतिम, परम रहस्य वादी शिखर में रूपांतरित होना चाहिए। प्रेम को रूपांतरित कैसे किया जाए?
            कृत्यह हो जाओ और कर्ता को भूल जाओ। प्रेम करते हुए प्रेम, महज प्रेम हो जाओ। तब यह तुम्हाकरा प्रेम मेरा प्रेम या किसी अन्यम का प्रेम नहीं है। तब यह मात्र प्रेम है, जब कि तुम नहीं हो, जब कि तुम परम स्त्रो त या धारा के हाथ में हो। तब कि तुम प्रेम में हो तुम प्रेम में नहीं हो, प्रेम न ही तुम्हेंब आत्म सात कर लिया है। तुम तो अंतर्धान हो गए हो। मात्र प्रवाहमान ऊर्जा बनकर रह गए हो।
      इस यूग का एक महान सृजनात्मजक मनीषी डी. एच. लॉरेंस, जाने अनजाने तत्र विद था। पश्चिसम में वि पूरी तरह निंदित हुआ। उसकी किताबें जब्तव हुई। उस पर अदालतों में अनेक मुकदमे चले, सिर्फ इसलिए कि उसने कहा कि काम ऊर्जा एक मात्र ऊर्जा है। और अगर तुम उसकी निंदा करते हो, दमन करते हो, तो तुम जगत के खिलाफ हो। और तब तुम कभी भी इस ऊर्जा की परम खिलावट को नहीं जान पाओगे। और दमित होने पर यह कुरूप हो जाती है। और यही दुस्चक्र है।
      पुरोहित, नीतिवादी, तथाकथित धार्मिक लोग, पोप, शंकराचार्य, और दूसरे लोग काम की सतत निंदा करते है। वे कहते है कि यह एक कुरूप चीज है। और तुम इसका दमन करते होत तो यह सचमुच कुरूप हो जाती है। तब वे कहते है कि देखो, जो हम कहते थे वह सच निकला। तुमने ही इसे सिद्ध कर दिया। तुम जो भी कर रहे हो वह कुरूप है, और तुम जानते हो कि वह कुरूप है।
      लेकिन काम स्वमयं में कुरूप नहीं है। पुरोहितों ने उसे कुरूप कर दिया है। और जब वे इसे कुरूप कर चूकते है तब वे सही साबित होते है। ओर जब वे सही साबित होते है तो तुम उसे कुरूप से कुरूप तर किए देते हो। काम तो निर्दोष ऊर्जा है। तुम में प्रवाहित होता जीवन है, जीवंत अस्ति त्व  है। उसे पंगु मत बनाओ। उसे उसके शिखरों की यात्रा करने दो। उसका अर्थ है कि काम को प्रेम बनना चाहिए। फर्क क्यार है?
      जब तुम्हाअरा मन कामुक होता है तो तुम दूसरे का शोषण कर रहे हो। दूसरा मात्र एक यंत्र होता है। जिसे इस्तेैमाल करके फेंक देना है। और जब काम प्रेम बनता है तब दूसरा यंत्र नहीं होता, दूसरे का शोषण नहीं किया जाता, दूसरा सच में दूसरा नहीं होता। तब तुम प्रेम करते हो तो यह स्वत-केंद्रित नहीं है। उस हालत में तो दूसरा ही महत्वहपूर्ण होता है। अनूठा होता है। तब तुम एक दूसरे का शोषण नहीं करते, तब दोनों एक गहरे अनुभव में सम्मिमलित हो जाते हो। साझीदार हो जाते हो। तुम शोषक और शोषित न होकर एक दूसरे को प्रेम की और ही दुनिया में यात्रा करने में सहायता करते हो। काम शोषण है, प्रेम एक भिन्नर जगत में यात्रा है।
      अगर यह यात्रा क्षणिक न रहे, अगर यह यात्रा ध्यासन पूर्ण हो जाए, अर्थात अगर तुम अपने को बिलकुल भूल जाओ और प्रेमी प्रेमिका विलीन हो जाएं और केवल प्रेम प्रवाहित होता रहे, तो शिव कहते है—‘’शाश्वलत जीवन तुम्हा रा है।‘’
 ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र

तंत्र-सूत्र—विधि-12

तंत्र-सूत्र—विधि-12


शिथिल होने की तीसरी विधि:
     जब किसी बिस्तिर या आसमान पर हो तो अपने को वजनशून्यक हो जाने दो—मन के पार।
     तुम यहां बैठे हो; बस भाव करो कि तुम वजनशून्यज हो गए हो। तुम्हाेरा वज़न न रहा। तुम्हें  पहले लगेगा कि कहीं यहां वज़न है। वजनशून्य‍ होने का भाव जारी रखो। वह आता है। एक क्षण आता है। जब तुम समझोगे कि तुम वज़न शून्या हो। वज़न नहीं है। और जब वज़न शून्यो नहीं रहा तो तुम शरीर नहीं रहे। क्यों।कि वज़न शरीर का है; तुम्हा रा नहीं, तुम तो वज़न शून्यो हो।
      इस संबंध में बहुत प्रयोग किए गये है। कोई मरता है तो संसार भर में अनेक वैज्ञानिकों ने मरते हुए व्यएक्तिम का वज़न लेने की कोशिश की है। अगर कुछ फर्क हुआ, अगर कुछ चीज शरीर के बहार निकली है, कोई आत्मा् या कुछ अब वहां नहीं है। क्यों कि विज्ञान के लिए कुछ भी बिना वज़न के नहीं है।
      सब पदार्थ के लिए वज़न बुनियादी है। सूर्य की किरणों का भी वज़न है। वह अत्यंात कम है, न्यूून है, उसको मापना भी कठिन है; लेकिन वैज्ञानिकों ने उसे भी मापा है। अगर तुम पाँच वर्ग मील के क्षेत्र पर फैली सब सूर्य किरणों को इकट्ठा कर सको तो उनका वज़न एक बाल के वज़न के बराबर होगा। सूर्य किरणों का भी वज़न है। वे तौली जा सकती है। विज्ञान के लिए कुछ भी वज़न के बिना नहीं है। और अगर कोई चीज वज़न के बिना है तो वह पदार्थ नहीं, उप पदार्थ। और विज्ञान पिछले बीस पच्चीास वर्षो तक विश्वा स करता था कि पदार्थ के अतिरिक्ती कुछ नहीं है। इसलिए जब कोई मरता है और कोई चीज शरीर से निकलती है तो वज़न में फर्क पड़ना चाहिए।
      लेकिन यह फर्क कभी न पडा, वज़न वही का वही रहा। कभी-कभी थोड़ा बढ़ा ही है। और वह समस्या, है। जिंदा आदमी का वज़न कम हुआ, मुर्दा का ज्यासदा। उसमे उलझने बढ़ी, क्योंहकि वैज्ञानिक तो यह पता लेने चले थे कि मरने पर वज़न घटता है। तभी तो वे कह सकते है कि कुछ चीज बाहर गई। लेकिन वहां तो लगता है। कि कुछ चीज अंदर ही आई। आखिर हुआ क्याे।
      वज़न पदार्थ का है, लेकिन तुम पदार्थ नहीं हो। अगर वजन शून्यता की हम विधि का प्रयोग करना है तो तुम्हेंु सोचना चाहिए। सोचना ही नहीं, भाव करना चाहिए कि तुम्हा‍रा शरीर वजनशून्य हो गया है। अगर तुम भाव करते ही गए। भाव करते ही गए। तो तुम वजनशून्य हो, तो एक क्षण आता है कि तुम अचानक अनुभव करते हो कि तुम वज़न शुन्यक हो गये। तुम वजनशून्य ही हो। इसलिए तुम किसी समय भी अनुभव कर सकते हो। सिर्फ एक स्थिजति पैदा करनी है। जिसमें तुम फिर अनुभव करो कि तुम वजनशून्य‍ हो। तुम्हेंु अपने को सम्मोेहन मुक्तर करना है।
      तुम्हाहरा सम्मोकहन क्याि है? सम्मोह न यह है कि तुमने विश्वा स किया है कि मैं शरीर हूं, और इसलिए वज़न अनुभव करते हो। अगर तुम फिर से भाव करों, विश्वा स करो कि मैं शरीर नहीं हूं, तो तुम वज़न अनुभव नहीं करोगे। यही सम्मोवहन मुक्ति  है कि जब तुम वज़न अनुभव नहीं करते तो तुम मन के पार चले गए।
      शिव कहते है: ‘’जब किसी बिस्तिर या आसन पर हो तो अपने को वजनशून्यन हो जाने दो—मन के पार।‘’ तब बात घटती है।
      मन का भी वज़न है। प्रत्ये’क आदमी के मन का वज़न है। एक समय कहा जाता था कि जितना वज़नी मस्तिेष्कद हो उतना बुद्धिमान होता है। और आमतौर से यह बात सही है। लेकिन हमेशा सही नहीं है। क्योंऔकि कभी-कभी छोटे मस्तिाष्कह के भी महान व्यहक्ति़ हुए है। और महा मूर्ख मस्तिौष्का भी वज़नी होते है।
      कुछ बातें। कभी-कभी मुर्दो का वज़न क्यों  बढ़ जाता है। ज्योंे ही चेतना शरीर को छोड़ती है कि शरीर असुरक्षित हो जाता है। बहुत सी चीजें उसमें प्रवेश कर जा सकती है। तुम्हाररे कारण वे प्रवेश नहीं कर सकती है। एक शिव में उनके तरंगें प्रवेश कर सकती है। तुममें नहीं कर सकती है। तुम यहां थे, शरीर जीवित था। वह अनेक चीजों से बचाव कर सकता था। यही कारण है कि तुम एक बार बीमार पड़े कि यह एक लंबा सिलसिला हो जाता है। एक के बाद दूसरी बीमारी आती चली जाती है। एक बार बीमार होकर तुम असुरक्षित हो जाते हो। हमले के प्रति खुल जाते हो। प्रतिरोध जाता रहता है। तब कुछ भी प्रवेश कर सकता है। तुम्हाेरी उपस्थिाति शरीर की रक्षा करती है। इसलिए कभी-कभी मृत शरीर का वज़न बढ़ सकता है। क्योंीकि जिस क्षण तुम उससे हटते हो, उसमे कुछ भी प्रवेश कर सकता है।
      दूसरी बात है कि जब तुम सुखी होते हो तो तुम वजनशून्यक अनुभव करते हो। और दुःखी होते हो तो वज़न अनुभव करते हो। लगता है कि कुछ तुम्हेंे नीचे को खींच रहा है। तब गुरुत्वाकर्षण बहुत बढ़ जाता है। दुःख की हालत में वज़न बढ़ जाता है। जब तुम सुखी होते हो तो हलके होते हो, तुम ऐसा अनुभव करते हो। क्यों ? क्योंककि जब तुम सुखी हो, जब तुम आनंद का क्षण अनुभव करते हो। तो तुम शरीर को बिलकुल भूल जाते हो। और जब उदास होते हो, दुःखी होते हो तब, शरीर के अति निकट आ जाते हो। उसे भूल नहीं पाते। उससे जूड़ जाते हो। तब तुम भार अनुभव करते हो। ये भार तुम्हाहरा नहीं है, तुम्हाारे शरीर से चिपकने का है, शरीर का है। वह तुम्हेंह नीचे की और खींच रहा है। जमीन की तरफ खींचता है, मानों तुम जमीन में गड़े जा रहे हो।  सुख में तुम निर्भार होते हो। शोक में, विषाद में वज़नी हो जाते हो।
      इसलिए गहरे ध्या न में, जब तुम अपने शरीर को बिलकुल भूल जाते हो, तुम जमीन से ऊपर हवा में उठ सकते हो। तुम्हाेरे साथ तुम्हाोरा शरीर भी ऊपर उठ सकता है। कई बार ऐसा होता है।
      बोलिविया में वैज्ञानिक एक स्त्री  का निरीक्षण कर रहे है। ध्या्न करते हुए वह जमीन से चार फीट ऊपर उठ जाती है। अब तो यह वैज्ञानिक निरीक्षण की बात है। उसके अनेक फोटो और फिल्मव लिए जा चुके हे। हजारों दर्शकों के सामने वह स्त्री  अचानक ऊपर उठ जाती है। उसके लिए गुरुत्वाकर्षण व्यसर्थ हो जाता है। अब तक इस बात की सही व्या ख्यार नहीं की जा सकी है कि क्योंक होता है। लेकिन वह स्त्री  गैर-ध्यायन की अवस्थाी में ऊपर नहीं उठ सकती। या अगर उसके ध्या न में बाधा हो जाए तो भी वह ऊपर से झट नीचे आ जाती है। क्याठ होता है?
            ध्याीन की गहराई में तुम अपने शरीर को बिलकुल भूल जाते हो। तादात्य््या टूट जाता है। शरीर बहुत छोटी चीज है और तुम बहुत बड़े हो। तुम्हा‍री शक्तिट अपरिसीम है। तुम्हा रे मुकाबले में शरीर तो कुछ भी नहीं है। यह तो ऐसा ही है कि जैसे एक सम्राट ने अपने गुलाम के साथ तादात्य् तो स्थासपित कर लिया है। इसलिए जैसे गुलाम भीख मांगता है। वैसे ही सम्राट भी भीख मांगता है। जैसे गुलाम रोता है। वैसे ही सम्राट भी रोता है। और जब गुलाम कहता है कि मैं ना कुछ हूं तो सम्राट भी कहता है। मैं ना कुछ हूं लेकिन एक बार सम्राट अपने अस्ति त्वक को पहचान ले, पहचान ले कि वह सम्राट है और गुलाम बस गुलाम है, से कुछ बदल जाएगा। अचानक बदल जाएगा।
      तुम वह अपरिसीम शक्तिु हो जो क्षुद्र शरीर से एकात्मा हो गई है। एक बार यह पहचान हो जाए, तुम अपने स्वु को जान लो, तो तुम्‍हारी वजन शून्यता बढ़ेगी। और शरीर का वज़न घटेगा। तब तुम हवा मैं उठ सकते हो, शरीर ऊपर जा सकता है।
      ऐसी अनेक घटनाएं है जो अभी साबित नहीं की जा सकती। लेकिन वे साबित होंगी। क्यों कि जब एक स्त्रीी चार फीट ऊपर उठ सकती है। तो फिर बाधा नहीं। दूसरा हजार फीट ऊपर उठ सकता है। तीसरा अनंत अंतरिक्ष में पूरी तरह जा सकता है। सैद्धांतिक रूप से यह काई समस्यात नहीं है। चार फीट ऊपर उठे कि चार सौ फीट कि चार हजार फीट, इससे क्याा फर्क पड़ता है।
      राम तथा कई अन्ये के बारे में कथाएं है कि वे शरीर विलीन हो गए थे। अनेक मृत शरीर इस धरती पर कहीं नहीं पाए गए। मोहम्मथद बिलकुल विलीन हो गए थे। शरीर ही नहीं आपने घोड़ के साथ। वे कहानियां असंभव मालूम पड़ती है। पौराणिक मालूम पड़ती है। लेकिन जरूरी नहीं है कि वे मिथक ही हों। एक बार तुम वज़न शून्ये शक्तिं को जान जाओ। तो तुम गुरुत्वाकर्षण के मालिक हो गए। तुम उसका  उपयोग भी कर सकते हो, यह तुम पर निर्भर करता हे। तुम सशरीर अंतरिक्ष में विलीन हो सकत हो।
      लेकिन हमारे लिए वज़न शून्य।ता समस्या  रहेगी। सिद्घासन की विधि है। जिस में बुद्ध बैठते है, वजनशून्यय होने की सर्वोतम विधि है। जमीन पर  बैठो, किसी कुर्सी या अन्यत आसन पर नहीं। मात्र जमीन पर बैठो। अच्छाे हो कि उस पर सीमेंट या कोई कृत्रिमता नहीं हो। जमीन पर बैठो कि तुम प्रकृति के निकटतम रहो। और अच्छात हो कि तुम नंगे बैठो। जमीन पर नंगे बैठो—बुद्धासन में, सिद्घासन में।
      वज़न शून्य  होने के लिए सिद्घासन सर्वश्रेष्ठघ आसन है। क्यों? क्योंयकि जब तुम्हा्रा शरीर इधर-उधर झुका होता है तो तुम ज्यांदा वज़न अनुभव करते हो। तब तुम्हासरे शरीर को गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होने के लिए ज्याभदा क्षेत्र है। यदि मैं इस कुर्सी पर बैठा हूं तो मेरे शरीर का बड़ा क्षेत्र गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होता है। जब तुम खड़े हो तो प्रभावित क्षेत्र कम हो जाता है। लेकिन बहुत देर तक खड़ा नहीं रहा जा सकता है। महावीर सदा खड़े-खड़े ध्यादन करते थे, क्योंतकि उस हालत में गुरुत्वाकर्षण का न्यूेनतम क्षेत्र घेरता है। तुम्हाेरे पैर भर जमीन को छूते है। जब पाँव पर खड़े हो तो गुरुत्वाकर्षण तुम पर न्यू नतम प्रभाव करता है। और गुरुत्वाकर्षण की वज़न है।
      पाँवों और हाथों को बांधकर सिद्घासन में बैठना ज्या।दा कारगर होता है। क्योंँकि तब तुम्हाकरी आंतरिक विद्युत एक वर्तुल बन जाती है। रीढ़ सीधी रखो। अब तुम समझ सकते हो कि सीधी रीढ़ रखने पर इतना जोर क्या  दिया जाता है। क्योंेकि सीधी रीढ़ से कम से कम जगह घेरी जाती है। तब गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव कम रहता है। आंखे बंद रखते हुए अपने को पूरी तरह संतुलित कर लो, अपने को केंद्रित कर लो। पहले दाई और झुककर गुरुत्वाकर्षण का अनुभव करो। फिर बाई और झुककर गुरुत्वाकर्षण का अनुभव करो। तब उस केंद्र को खोजों जहां गुरुत्वाकर्षण या वज़न कम से कम अनुभव होता है। और उस स्थिहति में थिर हो जाओ।
      और तब शरीर को भूल जाओ और भाव करो कि तुम वज़न नहीं हो। तुम वज़न शून्यक हो। फिर इस वज़न शून्यहता का अनुभव करते रहो। अचानक तुम वज़न शून्यज हो जाते हो। अचानक तुम शरीर नहीं रह जाते हो, अचानक तुम शरीर शून्य।ता के एक दूसरे ही संसार में होते हो।
      वज़न शून्य़ता शरीर शून्य ता है। तब तुम मन का भी अतिक्रमण कर जाते हो। मन भी शरीर का हिस्साय है, पदार्थ का हिस्सा  है। पदार्थ का वज़न होता है। तुम्हा रा कोई वज़न नहीं है। इस विधि का यही आधार है।
      किसी भी एक विधि को प्रयोग में लाओ। लेकिन कुछ दिनों तक उसमे लगे रहो। ताकि तुम्हेंो पता हो क वह तुम्हािरे लिए कारगर है या नहीं।
 ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र

Wednesday 19 October 2016

शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का भटकना

शरीर छोड़ने के बाद आत्मा का भटकना और दूसरे शरीर में प्रवेश करना

एक अंतिम प्रश्न और फिर हम ध्यान के लिए बैठेगें एक मित्र ने सुबह की चर्चा के बाद पूछा है कि क्या कुछ आत्माएं शरीर छोड़ने के बाद भटकती रह जाती हैं?

कुछ आत्माएं निश्चित ही शरीर छोड़ने के बाद एकदम से दूसरा शरीर ग्रहण नहीं कर पाती हैं। उसका कारण? उसका कारण है। और उसका कारण शायद आपने कभी न सोचा होगा कि यह कारण हो सकता है। दुनिया में अगर हम सारी आत्माओं को विभाजित करें, सारे व्यक्तित्वों को, तो वे तीन तरह के मालूम पड़ेंगे। एक तो अत्यंत निकृष्ट, अत्यंत हीन चित्त के लोग; एक अत्यंत उच्च, अत्यंत श्रेष्ठ, अत्यंत पवित्र किस्म के लोग; और फिर बीच की एक भीड़ जो दोनों का तालमेल है, जो बुरे और भले को मेल —मिलाकर चलती है। जैसे कि अगर डमरू हम देखें, तो डमरू दोनों तरफ चौड़ा है और बीच में पतला होता है। डमरू को उलटा कर लें। दोनों तरफ पतला और बीच में चौड़ा हो जाए तो हम दुनिया की स्थिति समझ लेंगे। दोनों तरफ छोर और बीच में मोटा—डमरू उलटा। इन छोरों पर थोड़ी—सी आत्माएं हैं।

निकृष्टतम आत्माओं को भी मुश्किल हो जाती है नया शरीर खोजने में और श्रेष्ठ आत्माओं को भी मुश्किल हो जाती है नया शरीर खोजने में। बीच की आत्माओं को जरा भी देर नहीं लगती। यहां, मरे नहीं, वहां, नई यात्रा शुरू हो गई। उसके कारण हैं। उसका कारण यह है कि साधारण, मीडियाकर मध्य की जो आत्माएं हैं, उनके योग्य गर्भ सदा उपलब्ध रहते हैं।

मैं आपको कहना चाहूंगा कि जैसे ही आदमी मरता है, मरते ही उसके सामने सैकड़ों लोग संभोग करते हुए, सैकड़ों जोड़े दिखाई पड़ते हैं, मरते ही। और जिस जोड़े के प्रति वह आकर्षित हो जाता है वहां, वह गर्भ में प्रवेश कर जाता है। लेकिन बहुत श्रेष्ठ आत्माएं साधारण गर्भ में प्रवेश नहीं कर सकतीं। उनके लिए असाधारण गर्भ की जरूरत है, जहॉं असाधारण संभावनाएं व्यक्तित्व की मिल सकें। तो श्रेष्ठ आत्माओं को रुक जाना पड़ता है। निकृष्ट आत्माओं को भी रुक जाना पडता है, क्योंकि उनके योग्य भी गर्भ नहीं मिलता। क्योंकि उनके योग्य मतलब अत्यंत अयोग्य गर्भ मिलना चाहिए वह भी साधारण नहीं।

श्रेष्ठ और निकृष्ट, दोनों को रुक जाना पड़ता है। साधारण जन एकदम जन्म ले लेता है, उसके लिए कोई कठिनाई नहीं है। उसके लिए निरंतर बाजार में गर्भ उपलब्ध हैं। वह तत्काल किसी गर्भ के प्रति आकर्षित हो जाता है।
सुबह मैंने बारदो की बात की थी। बारदो की प्रक्रिया में मरते हुए आदमी से यह भी कहा जाता है कि अभी तुझे सैकड़ों जोड़े भोग करते हुए, संभोग करते हुए दिखाई पड़ेंगे। तू जरा सोच कर, जरा रुक कर, जरा ठहर कर, गर्भ में प्रवेश करना। जल्दी मत करना, ठहर, थोड़ा ठहर! थोड़ा ठहर कर किसी गर्भ में जाना। एकदम मत चले जाना।

जैसे कोई आदमी बाजार में खरीदने गया है सामान। पहली दुकान पर ही प्रवेश कर जाता है। शो रूम में जो भी लटका हुआ दिखाई पड़ जाता है, वही आकर्षित कर लेता है। लेकिन बुद्धिमान ग्राहक दस दुकान भी देखता है। उलट—पुलट करता है, भाव—ताव करता है, खोज—बीन करता है, फिर निर्णय करता है। नासमझ जल्दी से पहले ही जो चीज उसकी आंख के सामने आ जाती है, वहीं चला जाता है।

तो बारदो की प्रक्रिया में मरते हुए आदमी से कहा जाता है कि सावधान! जल्दी मत करना। जल्दी मत करना। खोजना, सोचना, विचारना, जल्दी मत करना। क्योंकि सैकड़ों लोग निरंतर संभोग में रत हैँ। सैकड़ों जोड़े उसे स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। और जो जोड़ा उसे आकर्षित कर लेता है, और वही जोड़ा उसे आकर्षित करता है जो उसके योग्य गर्भ देने के लिए क्षमतावान होता है।

तो श्रेष्ठ और निकृष्ट आत्माएं रुक जाती हैं। उनको प्रतीक्षा करनी पड़ती है कि जब उनके योग्य गर्भ मिले। निकृष्ट आत्माओं को उतना निकृष्ट गर्भ दिखाई नहीं पड़ता, जहां, वे अपनी संभावनाएं पूरी कर सकें। श्रेष्ठ आत्मा को भी नहीं दिखाई पड़ता।

निकृष्ट आत्माएं जो रुक जाती हैं, उनको हम प्रेत कहते हैं। और श्रेष्ठ आत्माएं जो रुक जाती हैं, उनको हम देवता कहते हैं। देवता का अर्थ है, वे श्रेष्ठ आत्माएं जो रुक गईं। और प्रेत का अर्थ है, भूत का अर्थ है, वे आत्माएं जो निकृष्ट होने के कारण रुक गईं। साधारण जन के लिए निरंतर गर्भ उपलब्ध है। वह तत्काल मरा और प्रवेश कर जाता है। क्षण भर की भी देरी नहीं लगती। यहा समाप्त नहीं हुआ, और वहां, वह प्रवेश करने लगता है।

उन्होंने यह भी पूछा है कि ये जो आत्माएं रुक जाती हैं क्या वे किसी के शरीर में प्रवेश करके उसे परेशान भी कर सकती हैं?

इसकी भी संभावना है। क्योंकि वे आत्माएं, जिनको शरीर नहीं मिलता है, शरीर के बिना बहुत पीड़ित होने लगती हैं। निकृष्ट आत्माएं शरीर के बिना बहुत पीड़ित होने लगती हैं। श्रेष्ठ आत्माएं शरीर के बिना अत्यंत प्रफुल्लित हो जाती हैं। यह फर्क ध्यान में रखना चाहिए। क्योंकि श्रेष्ठ आत्मा शरीर को निरंतर ही किसी न किसी रूप में बंधन अनुभव करती है और चाहती है कि इतनी हलकी हो जाए कि शरीर का बोझ भी न रह जाए। अंततः वह शरीर से भी मुक्त हो जाना चाहती है, क्योंकि शरीर भी एक कारागृह मालूम होता है। अंततः उसे लगता है कि शरीर भी कुछ ऐसे काम करवा लेता है, जो न करने योग्य हैं। इसलिए वह शरीर के लिए बहुत मोहग्रस्त नहीं होता। निकृष्ट आत्मा शरीर के बिना एक क्षण भी नहीं जी सकती। क्योंकि उसका सारा रस, सारा सुख, शरीर से ही बंधा होता है।

शरीर के बिना कुछ आनंद लिये जा सकते हैं। जैसे समझें, एक विचारक है। तो विचारक का जो आनंद है, वह शरीर के बिना भी उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि विचार का शरीर से कोई संबंध नहीं है। तो अगर एक विचारक की आत्मा भटक जाए, शरीर न मिले, तो उस आत्मा को शरीर लेने की कोई तीव्रता नहीं होती, क्योंकि विचार का आनंद तब भी लिया जा सकता है। लेकिन समझो कि एक भोजन करने में रस लेने वाला आदमी है, तो शरीर के बिना भोजन करने का रस असंभव है। तो उसके प्राण बड़े छटपटाने लगते हैं कि वह कैसे प्रवेश कर जाए। और उसके योग्य गर्भ न मिलता हो, तो वह किसी कमजोर आत्मा में—कमजोर आत्मा से मतलब है ऐसी आत्मा, जो अपने शरीर की मालिक नहीं है—उस शरीर में वह प्रवेश कर सकता है, किसी कमजोर आत्मा की भय की स्थिति में।

और ध्यान रहे, भय का एक बहुत गहरा अर्थ है। भय का अर्थ है जो सिकोड़ दे। जब आप भयभीत होते हैं, तब आप सिकुड़ जाते हैं। जब आप प्रफुल्लित होते हैं, तो आप फैल जाते हैं। जब कोई व्यक्ति भयभीत होता है, तो उसकी आत्मा सिकुड जाती है और उसके शरीर में बहुत जगह छूट जाती है, जहां, कोई दूसरी आत्मा प्रवेश कर सकती है। एक नहीं, बहुत आत्माएं भी एकदम से प्रवेश कर सकती हैं। इसलिए भय की स्थिति में कोई आत्मा किसी शरीर में प्रवेश कर सकती है। और करने का कुल कारण इतना होता है कि उसके जो रस हैं, वे शरीर से बंधे हैं। वह दूसरे के शरीर में प्रवेश करके रस लेने की कोशिश करती है। इसकी पूरी संभावना है, इसके पूरे तथ्य हैं, इसकी पूरी वास्तविकता है। इसका यह मतलब हुआ कि एक तो भयभीत व्यक्ति हमेशा खतरे में है। जो भयभीत है, उसे खतरा हो सकता है। क्योंकि वह सिकुड़ी हुई हालत में होता है। वह अपने मकान में, अपने घर के एक कमरे में रहता है, बाकी कमरे उसके खाली पड़े रहते हैं। बाकी कमरों में दूसरे लोग मेहमान बन सकते हैं।

कभी—कभी श्रेष्ठ आत्माएं भी शरीर में प्रवेश करती हैं, कभी—कभी। लेकिन उनका प्रवेश बहुत दूसरे कारणों से होता है। कुछ कृत्य हैं करुणा के, जो शरीर के बिना नहीं किए जा सकते। जैसे समझें कि एक घर में आग लगी है और कोई उस घर को आग से बचाने को नहीं जा रहा है। भीड़ बाहर घिरी खड़ी है, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती कि आग में बढ़ जाए। और तब अचानक एक आदमी बढ़ जाता है और वह आदमी बाद में बताता है कि मुझे समझ में नहीं आया कि मैं किस ताकत के प्रभाव में बढ़ गया। मेरी तो हिम्मत न थी। वह बढ़ जाता है और आग बुझाने लगता है और आग बुझा लेता है। और किसी को बचा कर बाहर निकल आता है। और वह आदमी खुद कहता है कि ऐसा लगता है कि मेरे हाथ की बात नहीं है यह, किसी और ने मुझसे यह करवा लिया है। ऐसी किसी घडी में जहां, कि किसी शुभ कार्य के लिए आदमी हिम्मत न जुटा पाता हो, कोई श्रेष्ठ आत्मा भी प्रवेश कर सकती है। लेकिन ये घटनाएं कम होती हैं।

निकृष्ट आत्मा निरंतर शरीर के लिए आतुर रहती है। उसके सारे रस उनसे बंधे हैं। और यह बात भी ध्यान में रख लेनी चाहिए कि मध्य की आत्माओं के लिए कोई बाधा नहीं है, उनके लिए निरंतर गर्भ उपलब्ध हैं।
इसीलिए श्रेष्ठ आत्मायें कभी—कभी सैकड़ों वर्षों के बाद ही पैदा हो पाती हैं। और यह भी जानकर हैरानी होगी कि जब श्रेष्ठ आत्माएं पैदा होती हैं, तो करीब—करीब पूरी पृथ्वी पर श्रेष्ठ आत्माएं एक साथ पैदा हो जाती हैं। जैसे कि बुद्ध और महावीर भारत में पैदा हुए आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले। बुद्ध, महावीर दोनों बिहार में पैदा हुए। और उसी समय बिहार में छह और अदभुत विचारक थे। उनका नाम शेष नहीं रह सका, क्योंकि उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाए। और कोई कारण न था, वे बुद्ध और महावीर की ही हैसियत के लोग थे। लेकिन उन्होंने बड़े हिम्मत का प्रयोग किया। उन्होंने कोई अनुयायी नहीं बनाए। उनमें एक आदमी था प्रबुद्ध कात्यायन, एक आदमी था अजित केसकंबल, एक था संजय विलट्ठीपुत्र, एक था मक्सली गोशाल, और लोग थे। उस समय ठीक बिहार में एक साथ आठ आदमी एक ही प्रतिभा के, एक ही क्षमता के पैदा हो गए। और सिर्फ बिहार में, एक छोटे — से इलाके में सारी दुनिया के। ये आठों आत्माएं बहुत देर से प्रतीक्षारत थीं। और मौका मिल सका तो एकदम से भी मिल गया।

और अक्सर ऐसा होता है कि एक श्रृंखला होती है अच्छे की भी और बुरे की भी। उसी समय यूनान में सुकरात पैदा हुआ थोड़े समय के बाद, अरस्तू पैदा हुआ, प्लेटो पैदा हुआ। उसी समय चीन में कंक्यूशियस पैदा हुआ, लाओत्से पैदा हुआ, मेन्शियस पैदा हुआ, च्चांगत्से पैदा हुआ। उसी समय सारी दुनिया के कोने —कोने में कुछ अदभुत लोग एकदम से पैदा हुए। सारी पृथ्वी कुछ अदभुत लोगों से भर गई।

ऐसा प्रतीत होता है कि ये सारे लोग प्रतीक्षारत थे, प्रतीक्षारत थीं उनकी आत्माएं और एक मौका आया और गर्भ उपलब्ध हो सके। और जब गर्भ उपलब्ध होने का मौका आता है, तो बहुत से गर्भ एक साथ उपलब्ध हो जाते हैं। जैसे कि फूल खिलता है एक। फूल का मौसम आया है, एक फूल खिला और आप पाते हैं कि दूसरा खिला और तीसरा खिला। फूल प्रतीक्षा कर रहे थे और खिल गए। सुबह हुई, सूरज निकलने की प्रतीक्षा थी और कुछ फूल खिलने शुरू हुए। कलियां टूटी, इधर फूल खिला उधर फूल निकला। रात भर से फूल प्रतीक्षा कर रहे थे, सूरज निकला और फूल खिल गए।

ठीक ऐसा ही निकृष्ट आत्माओं के लिए भी होता है। जब पृथ्वी पर उनके लिए योग्य वातावरण मिलता है, तो एक साथ एक श्रृंखला में वे पैदा हो जाते हैं। जैसे हमारे इस युग में भी हिटलर और स्टैलिन और माओ जैसे लोग एकदम से पैदा हुए। एकदम से ऐसे खतरनाक लोग पैदा हुए, जिनको हजारों साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी होगी। क्योंकि स्टैलिन या हिटलर या माओ जैसे आदमियों को भी जल्दी पैदा नहीं किया जा सकता। अकेले स्टैलिन ने रूस में कोई साठ लाख लोगों की हत्या की—अकेले एक आदमी ने। और हिटलर ने —अकेले एक आदमी नें—कोई एक करोड़ लोगों की हत्या की।

हिटलर ने हत्या के ऐसे साधन ईजाद किए, जैसे पृथ्वी पर कभी किसी ने नहीं किए। हिटलर ने इतनी सामूहिक हत्या की, जैसी कभी किसी आदमी ने नहीं की। तैमूरलंग और चंगेजखां सब बचकाने सिद्ध हो गए। हिटलर ने गैस चेंबर्स बनाए। उसने कहा, एक—एक आदमी को मारना तो बहुत महंगा है। एक—एक आदमी को मारो, तो गोली बहुत महंगी पड़ती है। एक—एक आदमी को मारना महंगा है, एक—एक आदमी को कब्र में दफनाना महंगा है। एक—एक आदमी की लाश को उठाकर गांव के बाहर फेंकना बहुत महंगा है। तो कलेक्टिव मर्डर, सामूहिक हत्या कैसे की जाए! लेकिन सामूहिक हत्या भी करने के उपाय हैं। अभी अहमदाबाद में कर दी या कहीं और कर दी, लेकिन ये बहुत महंगे उपाय हैं। एक—एक आदमी को मारो, बहुत तकलीफ होती है, बहुत परेशानी होती है, और बहुत देर भी लगती है। ऐसे एक —एक को मारोगे, तो काम ही नहीं चल सकता। इधर एक मारो, उधर एक पैदा हो जाता है। ऐसे मारने से कोई फायदा नहीं होता।

हिटलर ने गैस चेंबर बनाए। एक—एक चेंबर में पांच—पांच हजार लोगों को इकट्ठा खड़ा करके बिजली का बटन दबाकर एकदम से वाष्पीभूत किया जा सकता है। बस, पांच हजार लोग खड़े किए, बटन दबा और वे गए। एकदम गए और इसके बाद हाल खाली। वे गैस बन गए। इतनी तेज चारों तरफ से बिजली गई कि वे गैस हो गए। न उनकी कब्र बनानी पड़ी, न उनको कहीं मार कर खून गिराना पड़ा।

खून—जून गिराने का हिटलर पर कोई नहीं लगा सकता जुर्म। अगर पुरानी किताबों से भगवान चलता होगा, तो हिटलर को बिलकुल निर्दोष पाएगा। उसने खून किसी का गिराया ही नहीं, किसी की छाती में उसने छुरा मारा नहीं, उसने ऐसी तरकीब निकाली जिसका कहीं वर्णन ही नहीं था। उसने बिलकुल नई तरकीब निकाली, गैस चेंबर। जिसमें आदमी को खड़ा करो, बिजली की गर्मी तेज करो, एकदम वाष्पीभूत हो जाए, एकदम हवा हो जाए, बात खतम हो गई। उस आदमी का फिर नामोल्लेख भी खोजना मुश्किल है, हड्डी खोजना भी मुश्किल है, उस आदमी की चमड़ी खोजना मुश्किल है। वह गया। पहली दफा हिटलर ने इस तरह आदमी उड़ाए जैसे पानी को गर्म करके भाप बनाया जाता है। पानी कहां, गया, पता लगाना मुश्किल है। ऐसे सब खो गए आदमी। ऐसे गैस चेंबर बनाकर उसने एक करोड़ आदमियों को अंदाजन गैस चेंबर में उड़ा दिया।

ऐसे आदमी को जल्दी गर्भ मिलना बड़ा मुश्किल है। और अच्छा ही है कि नहीं मिलता। नहीं तो बहुत कठिनाई हो जाए। अब हिटलर को बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ेगी फिर। बहुत समय लग सकता है हिटलर को दोबारा वापस लौटने के लिए। बहुत कठिन है मामला। क्योंकि इतना निकृष्ट गर्भ अब फिर से उपलब्ध हो। और गर्भ उपलब्ध होने का मतलब क्या है? गर्भ उपलब्ध होने का मतलब है, मां और पिता, उस मां और पिता की लंबी श्रृंखला दुष्टता का पोषण कर रही है—लंबी श्रृंखला। एकाध जीवन में कोई आदमी इतनी दुष्टता पैदा नहीं कर सकता है कि उसका गर्भ हिटलर के योग्य हो जाए। एक आदमी कितनी दुष्टता करेगा? एक आदमी कितनी हत्याएं करेगा? हिटलर जैसा बेटा पैदा करने के लिए, हिटलर जैसा बेटा किसी को अपना मां—बाप चुने इसके लिए सैकड़ों, हजारों, लाखों वर्षों की लंबी कठोरता की परंपरा ही कारगर हो सकती है। यानी सैकड़ों, हजारों वर्ष तक कोई आदमी बूचड़खाने में काम करते ही रहे हों, तब नस्ल इस योग्य हो पाएगी, वीर्याणु इस योग्य हो पाएगा कि हिटलर जैसा बेटा उसे पसंद करे और उसमें प्रवेश करे।

ठीक वैसा ही भली आत्मा के लिए भी है। लेकिन सामान्य आत्मा के लिए कोई कठिनाई नहीं है। उसके लिए रोज गर्भ उपलब्ध हैं। क्योंकि उसकी इतनी भीड़ है और उसके लिए चारों तरफ इतने गर्भ तैयार हैं और उसकी कोई विशेष मांगें भी नहीं हैं। उसकी मांगें बड़ी साधारण हैं। वही खाने की, पीने की, पैसा कमाने की, काम— भोग की, इज्जत की, आदर की, पद की, मिनिस्टर हो जाने की, इस तरह की सामान्य इच्छाएं हैं। इस तरह की इच्छाओं वाला गर्भ कहीं भी मिल सकता है, क्योंकि इतनी साधारण कामनाएं हैं कि सभी की हैं। हर मां —बाप ऐसे बेटे को चुनाव के लिए अवसर दे सकता है। लेकिन अब किसी आदमी को एक करोड़ आदमी मारने हैं, किसी आदमी को ऐसी पवित्रता से जीना है कि उसके पैर का दबाव भी पृथ्वी पर न पड़े, और किसी आदमी को इतने प्रेम से जीना है कि उसका प्रेम भी किसी को कष्ट न दे पाए, उसका प्रेम भी किसी के लिए बोझिल न हो जाए, तो फिर ऐसी आत्माओं के लिए तो प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है।
ओशो
मैं मृत्यु सिखाता हूँ
प्रवचन - 5

तंत्र विज्ञान

ये विधियां किसी धर्म की नहीं हैं। याद रखो, वे ठीक वैसे ही हिंदू नहीं हैं जैसे सापेक्षवाद का सिद्धांत आइंस्टीन के द्वारा प्रतिपादित होने के कारण यहूदी नहीं हो जाता, रेडियो और टेलीविजन ईसाई नहीं हैं। कोई नहीं कहता कि बिजली ईसाई है, क्योंकि ईसाई मस्तिष्क ने उसका आविष्कार किया था। विज्ञान किसी वर्ण या धर्म का नहीं है। और तंत्र विज्ञान है। इसलिए स्मरण रहे कि तंत्र हिंदू कतई नहीं है। ये विधियां हिंदुओं की ईजाद अवश्य हैं, लेकिन वे स्वयं हिंदू नहीं हैं। इसलिए इन विधियों में किसी धार्मिक अनुष्ठान का उल्लेख नहीं रहेगा। किसी मंदिर की जरूरत नहीं है। तुम स्वयं मंदिर हो। तुम ही प्रयोगशाला हो, तुम्हारे भीतर ही पूरा प्रयोग होने वाला है। और विश्वास की भी जरूरत नहीं है।
तंत्र धर्म नहीं, विज्ञान है, किसी विश्वास की जरूरत नहीं है। कुरान या वेद में, बुद्ध या महावीर में आस्था रखने की आवश्यकता नहीं है। नहीं, किसी विश्वास की आवश्यकता नहीं है। प्रयोग करने का महासाहस पर्याप्त है, प्रयोग करने की हिम्मत काफी है और यही इसका सौंदर्य है। एक मुसलमान प्रयोग कर सकता है और वह कुरान के गहरे अर्थों को उपलब्ध हो जाएगा। एक हिंदू अभ्यास कर सकता है और वह पहली दफा जानेगा कि वेद क्या है। वैसे ही एक जैन इस साधना में उतर सकता है, बौद्ध इस साधना में उतर सकता है। उन्हें अपने धर्म छोड़ने की जरूरत नहीं है। वे जहां हैं वहीं तंत्र उन्हें आप्तकाम करेगा। उनके अपने चुने हुए रास्ते जो भी हों, तंत्र सहयोगी होगा।


> तंत्र शुद्ध विज्ञान है। तुम हिंदू हो सकते हो, या मुसलमान, या पारसी, या कोई भी। तंत्र तुम्हारे धर्म को जरा भी नहीं छूता है। तंत्र का कहना है कि धर्म सामाजिक मामला है। किसी भी धर्म में रहो, यह अप्रासंगिक है। लेकिन तुम अपने को रूपांतरित कर सकते हो। और उस रूपांतरण के लिए वैज्ञानिक प्रणाली जरूरी है’। जब तुम बीमार पड़ते हो या तुम्हें तपेदिक या कुछ हो गया है, तब तुम्हारा हिंदू या मुसलमान होना कोई फर्क नहीं करता है। तपेदिक को तुम्हारे हिंदू इस्लाम या किसी भी राजनीतिक या सामाजिक विश्वास के साथ लेना—देना नहीं है। तपेदिक का इलाज वैज्ञानिक ढंग से किया जाना होगा। कोई हिंदू तपेदिक या मुसलमान तपेदिक नहीं होता।
तुम अज्ञान में हो, द्वंद्व में हो; तुम सोए हो। यह एक रोग है—आध्यात्मिक रोग। और इस रोग का इलाज तंत्र के द्वारा होना है। तुम इसमें अप्रासंगिक हो, तुम्हारा विश्वास अप्रासंगिक है। यह आकस्मिक है कि तुम कहीं पैदा हुए हो और कोई दूसरा और कहीं पैदा हुआ है। यह सांयोगिक है। तुम्हारा धर्म भी सांयोगिक है। इसलिए उससे चिपके मत रहो। और अपने को रूपांतरित करने के लिए वैज्ञानिक प्रणाली का उपयोग करो।
तंत्र बहुत माना—जाना नहीं है। यदि माना—जाना भी है तो बहुत गलत समझा गया है। और उसके कारण हैं। जो विज्ञान जितना ही ऊंचा और शुद्ध होगा, उतना ही कम जनसाधारण उसे जान—समझ सकेगा। हमने सापेक्षवाद के सिद्धांत का नाम सुना है। कहां जाता था कि आइंस्टीन के जीते—जी केवल बारह व्यक्ति उसे समझते थे। सारी जमीन पर सिर्फ बारह लोग उसे समझ सके। खुद अल्वर्ट आइंस्टीन के लिए उसे दूसरों को समझाना, उसे समझने के योग्य बनाना कठिन था। क्योंकि वह सिद्धांत ही इतना ऊंचा था। मानो वह तुम्हारे सिर के ऊपर से चला जाता था।
लेकिन उसे समझा जा सकता है। एक तकनीकी ज्ञान हो, गणित का ज्ञान हो, प्रशिक्षण हो, तो वह बिलकुल समझा जा सकता है। तंत्र उससे भी कठिन है, क्योंकि किसी प्रशिक्षण से काम नहीं चलेगा। केवल रूपांतरण मदद कर सकता है।
यही कारण है कि जनसाधारण के लिए तंत्र नहीं समझा गया। और सदा यह होता है कि जब तुम किसी चीज को नहीं समझते हो तो उसे गलत जरूर समझते हो; क्योंकि तब तुम्हें लगता है कि समझते जरूर हो। तुम रिक्त स्थान में बने रहने को राजी नहीं हो।
दूसरी बात कि जब तुम किसी चीज को नहीं समझते हो, तुम उसे गाली देने लगते हो। यह इसलिए कि यह तुम्हें अपमानजनक लगता है। तुम सोचते हो, मैं और नहीं समझूं यह असंभव है। इस चीज के साथ ही कुछ भूल होगी। और तब तुम गाली देने लगते हो। तब तुम ऊलजलूल बकने लगते हो। और कहते हो कि अब ठीक है।
इसलिए तंत्र को नहीं समझा गया, और तंत्र को गलत समझा गया। वह इतना गहरा और ऊंचा था कि यह होना स्वाभाविक था।
तीसरी बात कि चूंकि तंत्र द्वैत के पार जाता है इसलिए उसका दृष्टिकोण अति नैतिक है। कृपा कर इन शब्दों को समझो. नैतिक, अनैतिक, अति नैतिक। नैतिक क्या, हम समझते हैं, अनैतिक क्या है, वह भी हम समझते हैं। लेकिन जब कोई चीज अति नैतिक हो जाती है, नैतिक— अनैतिक दोनों के पार चली जाती है, तब उसे समझना कठिन हो जाता है।
तंत्र अति नैतिक है। इसे इस तरह देखो। औषधि, दवा अति नैतिक है, वह न नैतिक है और न अनैतिक। चोर को दवा दो तो उसे लाभ पहुंचाएगी। संत को दो, तो उसे भी लाभ पहुंचाएगी। वह चोर और संत में कोई भेद नहीं करेगी। दवा नहीं कह सकती कि यह चोर है इसलिए मैं उसे मारूंगी और वह साधु_ है उसकी मदद करूंगी। दवा वैज्ञानिक है। तुम्हारा चोर या संत होना उसके लिए अप्रासंगिक हैं।
तंत्र अति नैतिक है। तंत्र कहता है : कोई नैतिकता जरूरी नहीं है, कोई खास नैतिकता जरूरी नहीं है। सच तो यह है कि तुम अनैतिक हो, क्योंकि तुम्हारा चित्त अशात है। इसलिए तंत्र शर्त नहीं लगाता कि पहले तुम नैतिक बनो तब तंत्र की साधना कर सकते हो। तंत्र के लिए यह बात ही बेतुकी है। कोई बीमार है, बुखार में है और डाक्टर आकर कहता है : पहले अपना बुखार कम करो; पहले पूरा स्वस्थ हो लो और तभी मैं दवा दूंगा!
यही तो हो रहा है। एक चोर साधु के पास आता है और कहता है कि मैं चोर हूं मुझे ध्यान करना सिखाएं। साधु कहता है कि पहले चोरी छोड़ो, चोर रहते ध्यान कैसे करोगे! एक शराबी आकर कहता है, मैं शराबी हूं मुझे ध्यान बताएं। और साधु कहता है, पहली शर्त कि शराब छोड़ो और तब ध्यान कर सकोगे।
ये शर्तें ही आत्मघातक हो जाती हैं। वह मनुष्य शराबी है, या चोर है, या अनैतिक है; क्योंकि उसका चित्त अशांत है, रुग्ण है। ये तो रुग्ण चित्त के प्रभाव हैं, परिणाम हैं। और उसे कहां जाता है, पहले अच्छे हो लो तब ध्यान करना। लेकिन तब ध्यान की जरूरत किसको है? ध्यान औषधीय है; ध्यान औषधि है।

> उपदेशक उपदेश किए चले जाते हैं। वे लोगों से कहते हैं कि क्रोध मत करो और उसके लिए कोई उपाय नहीं बताते। और हमने यह उपदेश बहुत—बहुत समय से सुना है, लेकिन कभी नहीं पूछा : क्या कहते हो? मैं क्रोधी हूं और तुम कहते हो कि क्रोध मत करो। यह कैसे संभव है? जब मैं क्रोध में हूं तो उसका मतलब है कि मैं क्रोध ही हूं। और तुम सिर्फ कहते हो कि क्रोध मत करो। तो क्या मैं अपना दमन करूं? लेकिन दमन से तो और क्रोध पैदा होगा। उससे अपराध— भाव पैदा होगा। क्योंकि यदि मैं अपने को बदलने की कोशिश करूं और न बदल पाऊं तो मेरे भीतर हीनता पैदा होगी। उससे मुझ में अपराध— भाव पैदा होगा कि मैं निकम्मा हूं , मैं अपने क्रोध को नहीं जीत सकता।
वैसे क्रोध को कोई नहीं जीत सकता है। उसके लिए किसी उपाय की, किसी विधि की जरूरत है। क्यौंकि तुम्हारा क्रोध तुम्हारे अशात चित्त का लक्षण है। अशांत मन को बदलो और लक्षण बदल जाएगा। क्रोध इतना भर दिखा रहा है कि भीतर क्या है। भीतर को बदलो और बाहर बदल जाएगा।
यदि कोई मेरे पास आता है और मैं उससे कहता हूं कि पहले क्रोध छोड़ो, पहले काम छोड़ो, पहले यह छोड़ो वह छोड़ो तो मैं अमानुषिक हूं। जो मैं कहता हूं वह असंभव है। और इस असंभावना के कारण ही वह आदमी भीतर से क्षुद्रता का अनुभव करेगा। वह दीन—हीन अनुभव करेगा, अपनी ही आंखों में भीतर पतित मालूम पडेगा। यदि वह असंभव की चेष्टा करेगा तो हारेगा। और हार के कारण वह अपने को पापी मान बैठेगा।
उपदेशकों ने सारी दुनिया को समझा दिया है कि सब पापी हो। यह उनके लिए अच्छा है। जब तक तुम यह नहीं मानते कि तुम पापी हो, उनका धंधा नहीं चलेगा। तुम्हें पापी होना पड़ेगा; तभी गिरजे, मंदिर और मस्जिद फूलते—फलते रहेंगे। तुम्हारा पाप में होना ही उनकी कमाई का मौसम है। तुम्हारा पाप ऊंचे से ऊंचे मंदिर—मस्जिद की नींव है। तुम जितने पापी होओगे उतना ही ऊंचा उनका शिखर उठेगा। वे तुम्हारे अपराध पर, पाप पर, तुम्हारे हीनता के भाव पर ही खड़े किए जाते हैं। और इस तरह उन्होंने एक दीन—हीन मनुष्यता का निर्माण किया है।
एक बार तुम जान गए कि विधियों के द्वारा तुम पदार्थ को बदल सकते हो तो किसी दिन तुम यह भी जान ही लोगे कि विधियों के द्वारा मन को भी बदल सकते हो। क्योंकि मन सूक्ष्म पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
यही तंत्र की प्रस्तावना है कि मन सूक्ष्म पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और यह बदला जा सकता है। और मन बदला कि संसार बदल गया, क्योंकि तुम मन के द्वारा ही देखते हो। जो संसार तुम देखते हो उसे वैसा एक विशेष मन के कारण देखते हो। मन को बदलों और तब देखोगे कि एक भिन्न संसार ही तुम्हारे सामने होगा। और जब मन अ—मन हो जाए—वह तंत्र का आत्यंतिक लक्ष्य है कि एक ऐसी अवस्था आए जहां मन ही न रहे—तब संसार को बिना माध्यम के देखो। और जब माध्यम नहीं रहा तब तुम सत्य के बिलकुल आमने—सामने होते हो। क्योंकि अब तुम्हारे और सत्य के बीच में कोई भी न रहा। तब कुछ भी विरूप, विकृत नहीं किया जा सकेगा।
तंत्र कहता है कि उस अवस्था का नाम भैरव है जब मन नहीं रहता है—अ—मन की अवस्था। और तब पहली दफा तुम यथार्थत: उसको देखते हो जो है। जब तक मन है, तुम अपना ही संसार रचे जाते हो, तुम उसे आरोपित, प्रक्षेपित किए जाते हो। इसलिए पहले तो मन को बदलो

> ये एक सौ बारह विधियां तुम्हारे लिए चमत्कारिक अनुभव बन सकती हैं, या तुम उन्हें महज सुन सकते हो। यह तुम पर निर्भर है, मैं सभी संभव पहलुओं से प्रत्येक विधि की व्याख्या करूंगा। अगर तुम उसके साथ कुछ निकटता अनुभव करो तो तीन दिनों तक उससे खेलो और फिर छोड़ दो। अगर वह तुम्हें जंचे, तुम्हारे भीतर कोई तार बजा दे तो फिर तीन महीने उसके साथ प्रयोग करो।
जीवन चमत्कार है। अगर हमने उसके रहस्य को नहीं जाना है तो उससे यही जाहिर होता है कि तुम्हें उसके पास पहुंचने की विधि नहीं मालूम है।
शिव यहां एक सौ बारह विधियां प्रस्तावित कर रहे हैं। इसमें सभी संभव विधियां सम्मिलित हैं। यदि इनमें से कोई भी तुम्हारे भीतर नहीं ‘जंचती’ है, कोई भी तुम्हें यह भाव नहीं देती है कि वह तुम्हारे लिए है तो फिर कोई भी विधि तुम्हारे लिए नहीं बची। इसे ध्यान में रखो। तब अध्यात्म को भूल जाओ और खुश रहो। वह तब तुम्हारे लिए नहीं है।
लेकिन ये एक सौ बारह विधियां तो समस्त मानव—जाति के लिए हैं। और वे उन सभी युगों के लिए हैं जो गुजर गए हैं और आने वाले हैं। और किसी भी युग में एक भी ऐसा आदमी नहीं हुआ और न होने वाला ही है, जो कह सके कि ये सभी एक सौ बारह विधियां मेरे लिए व्यर्थ हैं। असंभव! यह असंभव है!

प्रत्येक ढंग के चित्त के लिए यहां गुंजाइश है। तंत्र में प्रत्येक किस्म के चित्त के लिए विधि है। कई विधियां हैं जिनके उपयुक्त मनुष्य अभी उपलब्ध नहीं हैं, वे भविष्य के लिए हैं। और ऐसी विधियां भी हैं जिनके उपयुक्त लोग रहे नहीं, वे अतीत के लिए हैं। लेकिन डर मत जाना। अनेक विधियां हैं जो तुम्हारे लिए ही हैं।

Tuesday 18 October 2016

बौद्धिक प्रश्न

यह महत्वपूर्ण है। अगर तुम कोई बौद्धिक प्रश्न पूछते हो तो तुम उसके हल के लिए निश्चित उत्तर चाहते हो। लेकिन देवी कहती हैं : ‘मेरे संशय निर्मूल करें। ‘वे वास्तव में कोई उत्तर नहीं चाहतीं, अपने मन का रूपांतरण चाहती हैं। क्योंकि जो उत्तर भी दिया जाए, संदेह तंत्र में प्रवेश करने वाला मन संदेह ही करता रहेगा।
इसे ध्यान में रख लो संदेह करने वाला मन संदेह ही करता रहेगा। उत्तर अप्रासंगिक है। मैं एक उत्तर दूं लेकिन अगर तुम्हारा मन संदेह करने वाला है तो तुम उस उत्तर पर भी संदेह करोगे। तुम्हारा मन ही संदेह करने वाला है। और संदेह से भरे मन का अर्थ है कि तुम किसी भी चीज पर प्रश्नचिह्न लगा दोगे।
इसलिए उत्तर व्यर्थ हैं। तुम मुझसे पूछते हो : किसने संसार को बनाया? और यदि मैं कहूं कि अ ने बनाया तो तुम निश्चित रूप से पूछोगे कि अ को किसने बनाया? इसलिए असली समस्या प्रश्नों के उत्तर देना नहीं है, असली समस्या है कि संदेह करने वाले मन को कैसे बदला जाए, उसे कैसे ऐसा बनाया जाए कि वह संदेह न करे, श्रद्धा करे।
इसलिए देवी कहती हैं ‘मेरे संशय निर्मूल करें। ‘
ओर जब तुम प्रश्न पूछते हो तो कई कारण से पूछ सकते हो। एक कारण हो सकता है कि तुम अपनी संपुष्टि के लिए पूछते हो। तुम्हें उत्तर पता है, उत्तर तुम्हारे पास है, तुम सिर्फ पक्का करना चाहते हो कि तुम्हारा उत्तर सही है। लेकिन तब तुम्हारा प्रश्न ही झूठा है, नकली है। वह प्रश्न ही नहीं है। तुम अपने को बदलने के इरादे से नहीं, सिर्फ कुतूहलवश पूछते हो।
मन पूछता ही जाता है। मन में प्रश्न वैसे ही आते हैं जैसे पेड में पत्ते लगते हैं। मन का स्वभाव ही है पूछना। वह पूछता ही चला जाता है। तुम क्या पूछते हो, यह महत्व का नहीं है, मन को जो भी मिले, वह उससे ही प्रश्न पैदा कर लेगा। मन प्रश्न गढ़ने की चक्की है। मन को कुछ भी दे दो, वह उसके टुकडे करके उससे अनेक प्रश्न बना लेगा। तुम एक प्रश्न का उत्तर दो, वह उसी एक उत्तर से अनेक प्रश्न गढ़ लेगा।
यही तो दर्शन का इतिहास रहा है। बर्ट्रेड रसेल ने अपने संस्मरण में कहां है कि मैं बच्चा था तो सोचता था कि एक दिन जब सारे दर्शन को समझने की प्रौढ़ता आएगी तब सभी प्रश्न हल हो जाएंगे। अब जब अस्सी का हो चुका हूं तो मैं कह सकता हूं कि मेरे बचपन के प्रश्न तो त्यों के त्यों खड़े ही हैं, दर्शन के इन सिद्धांतों के कारण बहुत—से दूसरे प्रश्न भी पैदा हो गए हैं। इसलिए रसेल ने कहां कि मैं युवा था तो कहता था कि दर्शन आत्यंतिक उत्तरों की खोज है, अब यह नहीं कह सकता। इसे तो अंतहीन प्रश्नों की खोज ही कहना उचित होगा। इसलिए एक प्रश्न अपने साथ एक उत्तर लाता है और साथ ही अनेक प्रश्न भी। संदेह करने वाला मन ही समस्या है।
(पार्वती कहती हैं : मेरे प्रश्नों की फिक्र न करें। मैंने अनेक प्रश्न पूछ लिए. ‘आपका सत्य रूप क्या है? यह आश्चर्य — भरा जगत क्या है? बीज कौन है? जागतिक चक्र की धुरी कहां है? आकार के परे जीवन क्या है? समय और स्थान से परे होकर हम उसमें पूरी तरह प्रवेश कैसे करें? लेकिन मेरे प्रश्नों की फिक्र न करें। मेरे संशय निर्मूल करें। ये प्रश्न तो मैं इसलिए पूछती हूं कि वे मेरे मन में उठते हैं। मैं आपको केवल अपना मन दिखाने के लिए ये प्रश्न पूछती हूं। उन पर बहुत ध्यान मत दें। उत्तरों से मेरा काम नहीं चलेगा। मेरी जरूरत तो है कि मेरे संशय निर्मूल हों।)
लेकिन संशय निर्मूल कैसे होंगे? किसी उत्तर से? क्या कोई उत्तर है जो कि मन के संशय दूर कर दे? मन ही तो संशय है। जब तक मन नहीं मिटता है, संशय निर्मूल कैसे होंगे?
शिव उत्तर देंगे। उनके उत्तर में सिर्फ विधियां हैं—सबसे पुरानी, सबसे प्राचीन विधियां। लेकिन तुम उन्हें अत्याधुनिक भी कह सकते हो, क्योंकि उनमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। वे पूर्ण हैं—एक सौ बारह विधियां। उनमें सभी संभावनाओं का समावेश है; मन को शुद्ध करने के, मन के अतिक्रमण के सभी उपाय उनमें समाए हैं। शिव की एक सौ बारह विधियों में एक और विधि नहीं जोड़ी जा सकती। और यह ग्रंथ, विज्ञान भैरव तंत्र, पांच हजार वर्ष पुराना है। उसमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता; कुछ जोड्ने की गुंजाइश ही नहीं है। यह सर्वांगीण है, संपूर्ण है, अंतिम है। यह सब से प्राचीन है और साथ ही सबसे आधुनिक, सबसे नवीन। पुराने पर्वतों की भांति ये तंत्र पुराने हैं, शाश्वत जैसे लगते हैं, और साथ ही सुबह के सूरज के सामने खड़े ओस—कण की भाति ये नए हैं, ये इतने ताजे हैं।ध्यान की इन एक सौ बारह विधियों से मन के रूपांतरण का पूरा विज्ञान निर्मित हुआ है।

(तुम बुद्धि को मात्र एक यंत्र की तरह काम में लाओ, मालिक की तरह नहीं। समझने के लिए यंत्र की तरह उसका उपयोग करो, लेकिन उसके जरिए नए व्यवधान मत पैदा करो। जिस समय हम इन विधियों की चर्चा करेंगे, तुम अपने पुराने ज्ञान को, पुरानी जानकारियों को .एक किनारे धर देना। उन्हें अलग ही कर देना, वे रास्ते की धूल भर हैं। तर्क को हटा देना। इस भ्रम में मत रहो कि विवाद करने वाला मन सावचेत मन है। वह नहीं है। क्योंकि जिस क्षण तुम विवाद में उतरते हो, उसी क्षण सजगता खो देते हो, सावचेत नहीं रहते हो। तुम तब यहां हो ही नहीं।)

अस्तित्व ही विश्व रूप

ध्यान में आकार मिट गया है, प्रेम में तुम दूसरे में स्वयं उसकी तरह प्रविष्ट होते हो। तुम एक हो जाते हो। और पहली दफा तुम एक अंतस को, निराकार उपस्थिति को जानते हो।
यही कारण है कि सदियों—सदियों तक हमने शिव की कोई प्रतिमा, कोई चित्र नहीं बनाया। हम सिर्फ शिवलिंग बनाते रहे, उनका प्रतीक बनाते रहे। शिवलिंग एक निराकार आकार है। जब तुम किसी को प्रेम करते हो, किसी में प्रवेश करते हो, तब वह मात्र एक ज्योति की उपस्थिति हो जाता है। शिवलिंग वही ज्योतित उपस्थिति है, प्रकाश का प्रभा—मंडल। इसीलिए अब देवी पूछती हैं :
आपका सत्य क्या है? यह विस्मय—भरा विश्व क्या है?
हम विश्व को जानते हैं, लेकिन नहीं जानते हैं कि यह आश्चर्य से भरा है। बच्चे जानते हैं, प्रेमी जानते हैं; कभी—कभी कवि और पागल भी जानते हैं। लेकिन हम नहीं जानते कि ब्रह्मांड आश्चर्य भरा है। हमारे लिए सब कुछ महज पुनरावृत्ति है; उसमें कोई आश्चर्य नहीं, कोई कविता नहीं। वह सपाट गद्य है हमारे लिए। तुम्हारे हृदय में वह कोई गीत नहीं पैदा करता, तुममें वह नृत्य नहीं उपजाता, तुम्हारे भीतर किसी कविता का जन्म नहीं बनता। सारा जगत यंत्रवत मालूम होता है।
बच्चे अवश्य उसे आश्चर्य— भरी आंखों से देखते हैं। और जब आंखें आश्चर्य— भरी होती हैं, तब सारा ब्रह्मांड आश्चर्य से भर जाता है। और जब तुम प्रेम में होते हो, तुम फिर बच्चों की भांति हो जाते हो। जीसस कहते हैं : केवल वे ही हमारे प्रभु के राज्य में प्रवेश करेंगे जो बच्चों की भांति हैं। क्यों? क्योंकि विश्व यदि आश्चर्यपूर्ण नहीं है तो तुम धार्मिक नहीं हो सकते। विश्व की व्याख्या हो सके, यह दृष्टि वैज्ञानिक है। तब जगत ज्ञात है या अज्ञात। लेकिन जो अज्ञात, वह किसी दिन ज्ञात हो सकता है। तब वह अज्ञय नहीं है। और जगत तभी अज्ञेय है, एक रहस्य है, जब आंखें विस्मय— भरी हों।
जब रूप विदा होता है तब प्रेमी विश्व बन जाता है—निराकार, अंतहीन। अचानक देवी को बोध होता है कि मैं शिव के बारे में नहीं पूछ रही हूं पूरे विश्व के बारे में पूछ रही हूं। अब शिव ही समस्त विश्व हो गए हैं। अब सब ग्रह—तारे उनके भीतर ही घूम रहे हैं; सारा आकाश, समस्त महाकाश उनसे घिरा है। अब वे सब से बड़ा घेरने वाला तत्व हैं—महा घेरनहार। जब तुम प्रेम में, प्रेम के घनिष्ठ सस्वर में प्रवेश करते हो, तब व्यक्ति का, रूप का लोप हो जाता है और प्रेमी विश्व का द्वार बनकर रह जाता है।
प्रेम में यदि आकार हो तो उसका अंत है। आकार को मिटा दो। जब चीजें अरूप हो जाती हैं—धुंधलकी, सीमाहीन हो जाती हैं, तब हर चीज दूसरी चीज में प्रवेश करती है, जब समस्त विश्व एकता में सिमट जाता है, तब—और तभी—यह विश्व विस्मय— भरा कलामय विश्व है।

(बहुत सही कहा है जब हम ध्यान के अंदर प्रवेश करते है उस परमात्मा के प्रेम में उतारते है तो सबसे पहले हमारा शरीर ही विदा होता है ओर तब ही हम आंतरिक जगत में प्रवेश करते है, ओर जेसे ही हम आंतरिक जगत में प्रवेश करते है तो सारा विश्व, पूरा ब्रमांड हमारे अन्दर समा जाता है या यु कहे की हमारा अस्तित्व ही विश्व रूप हो जाता है)