Thursday, 1 December 2016

तंत्र-सूत्र—विधि-08

तंत्र-सूत्र—विधि-08


आठवीं श्वा स विधि:
आत्यं तिक भक्तिि पूर्वक श्वायस के दो संधि-स्थालों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।
     इन विधियों के बीच जरा-जरा से है, तो भी तुम्हा-रे लिए वे भेद बहुत हो सकते है। एक अकेला शब्द  बहुत फर्क पैदा करता है।
      ‘’आत्यं तिक भक्तिफ पूर्वक श्वातस के दो संधि-स्थदलों पर केंद्रित होकर.....।‘’
      भीतर आने वाली श्वा स को एक संधि स्थ्ल है। जहां वह मुड़ती है। इन दो संधि-स्थ्लों—जिसकी चर्चा हम कर चुके है—के साथ यहां जरा सा भेद किया गया है। हालांकि यह भेद विधि में तो जरा सा ही है, लेकिन साधक के लिए बड़ा भेद हो सकता है। केवल एक शर्त जोड़ दी गई है—‘’आत्यं तिक भक्तिक पूर्वक’’, और पूरी विधि बदल गयी।

      इसके प्रथम रूप में भक्तिय का सवाल नहीं था। वह मात्र वैज्ञानिक विधि थी। तुम प्रयोग करो और वह काम करेगी। लेकिन लोग है जो ऐसी शुष्कत वैज्ञानिक विधियों पर काम नहीं करेंगे। इसलिए जो ह्रदय की और झुके है। जो भक्तिज  के जगत के है, उनके लिए जरा सा भेद किया गया है: आत्यं तिक भक्तिै पूर्वक श्वािस के दो संधि-स्थ लों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।‘’
      अगर तुम वैज्ञानिक रुझान के नहीं हो, अगर तुम्हालरा मन वैज्ञानिक नहीं है, तो तुम इस विधि को प्रयोग में लाओ।
      आत्यंुतिक भक्तिइ पूर्वक—प्रेम श्रद्धा के साथ—श्वाञस के दो संधि स्थ लों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।‘’
      यह कैसे संभव होगा।
      भक्तिस तो किसी के प्रति होती है। चाहे वे कृष्ण् हों या क्राइस्टा। लेकिन तुम्हाभरे स्वोयं के प्रति, श्वा्स के दो संधि-स्थललों के प्रति भक्ति  कैसी होगी। यह तत्वे तो गैर भक्तिर वाला है।  लेकिन व्यिक्ति्-व्यतक्तिि पर निर्भर है।
      तंत्र का कहना है कि शरीर मंदिर है। तुम्हािरा शरीर परमात्माक का मंदिर है, उसका निवास स्थादन है। इसलिए इसे मात्र अपना शरीर या एक वस्तुै न मानो। यह पवित्र है, धार्मिक है। जब तुम एक श्वायस भीतर ले रहे हो तब तुम ही श्वा्स नहीं ले रहे हो, तुम्हायरे भीतर परमात्मार भी श्वा स ले रहा है। तुम चलते फिरते हो—इसे इस तरह देखो—तुम नहीं, स्व यं परमात्माफ तुममें चल रहा है। तब सब चीजें पूरी तरह भक्ति  हो जाती है।
      अनेक संतों के बारे में कहा जाता है कि वे अपने शरीर को प्रेम करते थे, वे उसके साथ ऐसा व्यजवहार करते थे। मानो वे शरीर उनकी प्रेमिकाओं के रहे हों।
      तुम भी अपने शरीर को यह व्ययवहार दे सकते हो। उसके साथ यंत्रवत व्यकवहार भी कर सकते हो। वह भी एक रूझान है, एक दृष्टिज है। तुम इसे अपराधपूर्ण पाप भरा और गंदा भी मान सकते हो। और इसे चमत्काेर भी समझ सकते हो, परमात्माह का घर भी समझ सकते है, यह तुम पर निर्भर है।
      यदि तुम अपने शरीर को मंदिर मान सको तो यह विधि तुम्हातरे काम आ सकती है, ‘’आत्यं तिक भक्तिक पूर्वक....।‘’ इसका प्रयोग करो। जब तुम भोजन कर रहे हो तब इसका प्रयोग करो। यह न सोचो कि तुम भोजन कर रहे हो, सोचो कि परमात्मार तुममें भोजन कर रहा है। और तब परिवर्तन को देखो। तुम वही चीज खा रहे हो। लेकिन तुरंत सब कुछ बदल जाता है। अब तुम परमात्माख को भोजन दे रहे हो। तुम स्नाुन कर रहे हो। कितना मामूली सा काम है। लेकिन दृष्टि। बदल दो, अनुभव करो कि तुम अपने में परमात्मार को स्नाटन करा रहे हो, तब यह विधि आसान होगी।
      ‘’आत्यंबतिक भक्तिी पूर्वक श्वातस के दो संधि स्थ.लों पर केंद्रित होकर ज्ञाता को जान लो।
 ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र

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