Thursday, 11 August 2016

अंधा आदमी

अंधा आदमी
जैसे अंधा आदमी एक अंधेरे में खड़ा हो और दरवाजा उसे पता भी नहीं है कि किस दिशा में है। आरतें होतीं तो देख भी लेता। देख भी नहीं सकता। आंखे भी होतीं तो भी मुश्किल था, क्योंकि घना अंधेरा है। फिर यह भी पक्का नहीं है कि जहां खड़ा है, वहां दरवाजा है भी या नहीं। या सब तरफ कारागृह की दीवाल है। अंधा कहा से शुरू करेगा? अंधा टटोलना शुरू करेगा। सब तरफ टटोलेगा। टटोलने में बहुत भूल—चूक होगी। क्योंकि दरवाजे पर हाथ सीधा नहीं पड़ जाएगा। दीवाल पर पड़ेगा। बहुत बार दरवाजा चूक—चूक भी जा सकता है।

चिंतन टटोलना है। चिंतन का अर्थ है. हमें कुछ पता नहीं; टटोलते हैं। मन से सोचते हैं, विचारते हैं, प्रश्न उठाते हैं, हल खोजने की कोशिश करते हैं। सब टटोलना है। इसमें सौ में निन्यानबे मौके पर तो दीवाल पर हाथ पड़ेगा। एक ही मौके पर दरवाजे पर हाथ पड़ेगा। और डर यह है कि निन्यानबे दफा जब दीवाल पर हाथ पड़े, तो हाथ भी दीवाल का आदी हो जाएगा। हो सकता है कि दरवाजे पर भी जब हाथ पड़े, तब भी आपको भरोसा न आए कि दरवाजा है। निन्यानबे बार दीवाल मिली, शायद यह भी दीवाल ही हो! चिंतन सौ में से निन्यानबे बार नास्तिकता पर पहुंचेगा, एक बार ही आस्तिकता पर पहुंचता है। यह थोड़ा समझ लेने जैसा है।
जो लोग भी सोचना शुरू करेंगे, पहले नास्तिक हो जाएंगे। दीवाल पहले मिलेगी। दरवाजा तो बहुत छोटी—सी जगह होता है, दीवाल बड़ी है। हाथ दीवाल पर ही पड़ेगा। कभी संयोग की ही बात है, या बहुत जन्मों तक दीवाल टटोलकर जो चले हों, उनका हाथ किसी जन्म में सीधा दरवाजे पर पड़ जाए। अन्यथा नास्तिकता ही प्रारंभ होगी। चिंतनशील व्यक्ति पहले नास्तिक हो जाएगा।

और ध्यान रहे, जो नास्तिक होने से डरेगा, वह पहला कदम ही नहीं उठा पाएगा। इसलिए मैं नास्तिकता को आस्तिकता का विरोध नहीं मानता हूं आस्तिकता का प्राथमिक चरण मानता हूं। इसलिए नास्तिक की मेरे मन में जरा भी निंदा नहीं है, पूरी प्रशंसा है। क्योंकि जो नास्तिक ही नहीं हुआ, उसके आस्तिक होने का कोई भी उपाय नहीं। और अगर आप नास्तिक होने के पहले आस्तिक हो गए हैं, तो आपकी आस्तिकता नपुंसक होगी, झूठी होगी, सिर्फ अंधी होगी। ऐसी आस्तिकता के पास आंखे नहीं हो सकतीं।

क्योंकि जिसने नहीं कहने की हिम्मत नहीं जुटाई, उसके ही में कोई बल नहीं होता। उसकी ही निर्बल होती है। और जिसने कभी चिंतन की धारा को निखारा नहीं, पैना नहीं किया, और जिसने चिंतन की तलवार पर धार नहीं रखी, जो इसलिए डरता रहा कि कहीं इनकार न हो जाए, उसकी बोथली तलवार—आस्तिकता की भी—किसी काम की नहीं है।

इसलिए दुनिया में बड़ी अजीब घटना घटी है। वह घटना यह है कि कुछ हैं बड़ी संख्या में लोग, जो नास्तिक न हो जाएं इसलिए सोचते ही नहीं। सोचने से भयभीत हैं, विचार करने से डरे हुए हैं। लेकिन अगर आपकी आस्तिकता विचार करने से डरती है, तो दो कौड़ी की है। जो विचार को भी नहीं सह सकती, वह आस्तिकता कहां ले जाएगी!

विचार बड़ी कमजोर चीज है। जो विचार से ही टूट जाती है, उसका क्या मूल्य है। तर्क कोई बड़ी वजनी बात नहीं है, खेल है शब्दों का। और तर्क से ही जो आस्तिकता भयभीत होती है, उस आस्तिकता के नीचे कोई भूमि नहीं है, वह अधर में लटकी है। वह ताश का घर है, जरा सा तर्क का झोंका उसे गिरा देता है। क्या आप डरते हैं? क्या आपकी श्रद्धा कंपती है? तो आप जानना कि आप पहला कदम चूक गए हैं। आपने ठीक चिंतन नहीं किया।
तो सौ में से निन्यानबे लोग झूठे आस्तिक हैं। सौ में से कभी कोई एक आदमी नास्तिक होने की हिम्मत जुटाता है। नास्तिक होना हिम्मत है। हिम्मत इसलिए है कि आस्तिकता के साथ सारी व्यवस्था है; आस्तिकता का सारा विस्तार है; आस्तिकता के साथ हमारे जीवन के सब मूल्य जुड़े हैं। आस्तिकता के साथ हमारे स्वार्थ संयुक्त हैं। नास्तिकता असुरक्षा में डाल देती है। नास्तिक आदमी कहीं का नहीं रह जाता। उसकी कोई बिलागिग नहीं रह जाती। वह किसका है? किसका साथी? किसका मित्र? किस समाज का हिस्सेदार?

ओशो


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