यह महत्वपूर्ण है। अगर तुम
कोई बौद्धिक प्रश्न पूछते हो तो तुम उसके हल के लिए निश्चित उत्तर चाहते हो। लेकिन
देवी कहती हैं : ‘मेरे संशय निर्मूल करें। ‘वे वास्तव में कोई उत्तर नहीं चाहतीं,
अपने मन का रूपांतरण चाहती हैं। क्योंकि जो उत्तर भी दिया जाए, संदेह तंत्र में
प्रवेश करने वाला मन संदेह ही करता रहेगा।
इसे ध्यान में रख लो संदेह
करने वाला मन संदेह ही करता रहेगा। उत्तर अप्रासंगिक है। मैं एक उत्तर दूं लेकिन
अगर तुम्हारा मन संदेह करने वाला है तो तुम उस उत्तर पर भी संदेह करोगे। तुम्हारा
मन ही संदेह करने वाला है। और संदेह से भरे मन का अर्थ है कि तुम किसी भी चीज पर
प्रश्नचिह्न लगा दोगे।
इसलिए उत्तर व्यर्थ हैं।
तुम मुझसे पूछते हो : किसने संसार को बनाया? और यदि मैं कहूं कि अ ने बनाया तो तुम
निश्चित रूप से पूछोगे कि अ को किसने बनाया? इसलिए असली समस्या प्रश्नों के उत्तर
देना नहीं है, असली समस्या है कि संदेह करने वाले मन को कैसे बदला जाए, उसे कैसे
ऐसा बनाया जाए कि वह संदेह न करे, श्रद्धा करे।
इसलिए देवी कहती हैं ‘मेरे
संशय निर्मूल करें। ‘
ओर जब तुम प्रश्न पूछते हो
तो कई कारण से पूछ सकते हो। एक कारण हो सकता है कि तुम अपनी संपुष्टि के लिए पूछते
हो। तुम्हें उत्तर पता है, उत्तर तुम्हारे पास है, तुम सिर्फ पक्का करना चाहते हो
कि तुम्हारा उत्तर सही है। लेकिन तब तुम्हारा प्रश्न ही झूठा है, नकली है। वह
प्रश्न ही नहीं है। तुम अपने को बदलने के इरादे से नहीं, सिर्फ कुतूहलवश पूछते हो।
मन पूछता ही जाता है। मन
में प्रश्न वैसे ही आते हैं जैसे पेड में पत्ते लगते हैं। मन का स्वभाव ही है
पूछना। वह पूछता ही चला जाता है। तुम क्या पूछते हो, यह महत्व का नहीं है, मन को
जो भी मिले, वह उससे ही प्रश्न पैदा कर लेगा। मन प्रश्न गढ़ने की चक्की है। मन को
कुछ भी दे दो, वह उसके टुकडे करके उससे अनेक प्रश्न बना लेगा। तुम एक प्रश्न का
उत्तर दो, वह उसी एक उत्तर से अनेक प्रश्न गढ़ लेगा।
यही तो दर्शन का इतिहास रहा
है। बर्ट्रेड रसेल ने अपने संस्मरण में कहां है कि मैं बच्चा था तो सोचता था कि एक
दिन जब सारे दर्शन को समझने की प्रौढ़ता आएगी तब सभी प्रश्न हल हो जाएंगे। अब जब
अस्सी का हो चुका हूं तो मैं कह सकता हूं कि मेरे बचपन के प्रश्न तो त्यों के
त्यों खड़े ही हैं, दर्शन के इन सिद्धांतों के कारण बहुत—से दूसरे प्रश्न भी पैदा
हो गए हैं। इसलिए रसेल ने कहां कि मैं युवा था तो कहता था कि दर्शन आत्यंतिक
उत्तरों की खोज है, अब यह नहीं कह सकता। इसे तो अंतहीन प्रश्नों की खोज ही कहना
उचित होगा। इसलिए एक प्रश्न अपने साथ एक उत्तर लाता है और साथ ही अनेक प्रश्न भी।
संदेह करने वाला मन ही समस्या है।
(पार्वती कहती हैं : मेरे
प्रश्नों की फिक्र न करें। मैंने अनेक प्रश्न पूछ लिए. ‘आपका सत्य रूप क्या है? यह
आश्चर्य — भरा जगत क्या है? बीज कौन है? जागतिक चक्र की धुरी कहां है? आकार के परे
जीवन क्या है? समय और स्थान से परे होकर हम उसमें पूरी तरह प्रवेश कैसे करें?
लेकिन मेरे प्रश्नों की फिक्र न करें। मेरे संशय निर्मूल करें। ये प्रश्न तो मैं
इसलिए पूछती हूं कि वे मेरे मन में उठते हैं। मैं आपको केवल अपना मन दिखाने के लिए
ये प्रश्न पूछती हूं। उन पर बहुत ध्यान मत दें। उत्तरों से मेरा काम नहीं चलेगा।
मेरी जरूरत तो है कि मेरे संशय निर्मूल हों।)
लेकिन संशय निर्मूल कैसे
होंगे? किसी उत्तर से? क्या कोई उत्तर है जो कि मन के संशय दूर कर दे? मन ही तो
संशय है। जब तक मन नहीं मिटता है, संशय निर्मूल कैसे होंगे?
शिव उत्तर देंगे। उनके
उत्तर में सिर्फ विधियां हैं—सबसे पुरानी, सबसे प्राचीन विधियां। लेकिन तुम उन्हें
अत्याधुनिक भी कह सकते हो, क्योंकि उनमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता। वे पूर्ण
हैं—एक सौ बारह विधियां। उनमें सभी संभावनाओं का समावेश है; मन को शुद्ध करने के,
मन के अतिक्रमण के सभी उपाय उनमें समाए हैं। शिव की एक सौ बारह विधियों में एक और
विधि नहीं जोड़ी जा सकती। और यह ग्रंथ, विज्ञान भैरव तंत्र, पांच हजार वर्ष पुराना
है। उसमें कुछ भी जोड़ा नहीं जा सकता; कुछ जोड्ने की गुंजाइश ही नहीं है। यह
सर्वांगीण है, संपूर्ण है, अंतिम है। यह सब से प्राचीन है और साथ ही सबसे आधुनिक,
सबसे नवीन। पुराने पर्वतों की भांति ये तंत्र पुराने हैं, शाश्वत जैसे लगते हैं,
और साथ ही सुबह के सूरज के सामने खड़े ओस—कण की भाति ये नए हैं, ये इतने ताजे हैं।ध्यान
की इन एक सौ बारह विधियों से मन के रूपांतरण का पूरा विज्ञान निर्मित हुआ है।
(तुम बुद्धि को मात्र एक
यंत्र की तरह काम में लाओ, मालिक की तरह नहीं। समझने के लिए यंत्र की तरह उसका
उपयोग करो, लेकिन उसके जरिए नए व्यवधान मत पैदा करो। जिस समय हम इन विधियों की
चर्चा करेंगे, तुम अपने पुराने ज्ञान को, पुरानी जानकारियों को .एक किनारे धर
देना। उन्हें अलग ही कर देना, वे रास्ते की धूल भर हैं। तर्क को हटा देना। इस भ्रम
में मत रहो कि विवाद करने वाला मन सावचेत मन है। वह नहीं है। क्योंकि जिस क्षण तुम
विवाद में उतरते हो, उसी क्षण सजगता खो देते हो, सावचेत नहीं रहते हो। तुम तब यहां
हो ही नहीं।)
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