ये विधियां किसी धर्म की
नहीं हैं। याद रखो, वे ठीक वैसे ही हिंदू नहीं हैं जैसे सापेक्षवाद का सिद्धांत
आइंस्टीन के द्वारा प्रतिपादित होने के कारण यहूदी नहीं हो जाता, रेडियो और
टेलीविजन ईसाई नहीं हैं। कोई नहीं कहता कि बिजली ईसाई है, क्योंकि ईसाई मस्तिष्क ने
उसका आविष्कार किया था। विज्ञान किसी वर्ण या धर्म का नहीं है। और तंत्र विज्ञान
है। इसलिए स्मरण रहे कि तंत्र हिंदू कतई नहीं है। ये विधियां हिंदुओं की ईजाद
अवश्य हैं, लेकिन वे स्वयं हिंदू नहीं हैं। इसलिए इन विधियों में किसी धार्मिक
अनुष्ठान का उल्लेख नहीं रहेगा। किसी मंदिर की जरूरत नहीं है। तुम स्वयं मंदिर हो।
तुम ही प्रयोगशाला हो, तुम्हारे भीतर ही पूरा प्रयोग होने वाला है। और विश्वास की
भी जरूरत नहीं है।
तंत्र धर्म नहीं, विज्ञान
है, किसी विश्वास की जरूरत नहीं है। कुरान या वेद में, बुद्ध या महावीर में आस्था रखने
की आवश्यकता नहीं है। नहीं, किसी विश्वास की आवश्यकता नहीं है। प्रयोग करने का
महासाहस पर्याप्त है, प्रयोग करने की हिम्मत काफी है और यही इसका सौंदर्य है। एक
मुसलमान प्रयोग कर सकता है और वह कुरान के गहरे अर्थों को उपलब्ध हो जाएगा। एक
हिंदू अभ्यास कर सकता है और वह पहली दफा जानेगा कि वेद क्या है। वैसे ही एक जैन इस
साधना में उतर सकता है, बौद्ध इस साधना में उतर सकता है। उन्हें अपने धर्म छोड़ने
की जरूरत नहीं है। वे जहां हैं वहीं तंत्र उन्हें आप्तकाम करेगा। उनके अपने चुने
हुए रास्ते जो भी हों, तंत्र सहयोगी होगा।
> तंत्र शुद्ध विज्ञान
है। तुम हिंदू हो सकते हो, या मुसलमान, या पारसी, या कोई भी। तंत्र तुम्हारे धर्म
को जरा भी नहीं छूता है। तंत्र का कहना है कि धर्म सामाजिक मामला है। किसी भी धर्म
में रहो, यह अप्रासंगिक है। लेकिन तुम अपने को रूपांतरित कर सकते हो। और उस रूपांतरण
के लिए वैज्ञानिक प्रणाली जरूरी है’। जब तुम बीमार पड़ते हो या तुम्हें तपेदिक या
कुछ हो गया है, तब तुम्हारा हिंदू या मुसलमान होना कोई फर्क नहीं करता है। तपेदिक
को तुम्हारे हिंदू इस्लाम या किसी भी राजनीतिक या सामाजिक विश्वास के साथ
लेना—देना नहीं है। तपेदिक का इलाज वैज्ञानिक ढंग से किया जाना होगा। कोई हिंदू
तपेदिक या मुसलमान तपेदिक नहीं होता।
तुम अज्ञान में हो, द्वंद्व
में हो; तुम सोए हो। यह एक रोग है—आध्यात्मिक रोग। और इस रोग का इलाज तंत्र के
द्वारा होना है। तुम इसमें अप्रासंगिक हो, तुम्हारा विश्वास अप्रासंगिक है। यह
आकस्मिक है कि तुम कहीं पैदा हुए हो और कोई दूसरा और कहीं पैदा हुआ है। यह
सांयोगिक है। तुम्हारा धर्म भी सांयोगिक है। इसलिए उससे चिपके मत रहो। और अपने को
रूपांतरित करने के लिए वैज्ञानिक प्रणाली का उपयोग करो।
तंत्र बहुत माना—जाना नहीं
है। यदि माना—जाना भी है तो बहुत गलत समझा गया है। और उसके कारण हैं। जो विज्ञान
जितना ही ऊंचा और शुद्ध होगा, उतना ही कम जनसाधारण उसे जान—समझ सकेगा। हमने
सापेक्षवाद के सिद्धांत का नाम सुना है। कहां जाता था कि आइंस्टीन के जीते—जी केवल
बारह व्यक्ति उसे समझते थे। सारी जमीन पर सिर्फ बारह लोग उसे समझ सके। खुद अल्वर्ट
आइंस्टीन के लिए उसे दूसरों को समझाना, उसे समझने के योग्य बनाना कठिन था। क्योंकि
वह सिद्धांत ही इतना ऊंचा था। मानो वह तुम्हारे सिर के ऊपर से चला जाता था।
लेकिन उसे समझा जा सकता है।
एक तकनीकी ज्ञान हो, गणित का ज्ञान हो, प्रशिक्षण हो, तो वह बिलकुल समझा जा सकता
है। तंत्र उससे भी कठिन है, क्योंकि किसी प्रशिक्षण से काम नहीं चलेगा। केवल
रूपांतरण मदद कर सकता है।
यही कारण है कि जनसाधारण के
लिए तंत्र नहीं समझा गया। और सदा यह होता है कि जब तुम किसी चीज को नहीं समझते हो
तो उसे गलत जरूर समझते हो; क्योंकि तब तुम्हें लगता है कि समझते जरूर हो। तुम
रिक्त स्थान में बने रहने को राजी नहीं हो।
दूसरी बात कि जब तुम किसी
चीज को नहीं समझते हो, तुम उसे गाली देने लगते हो। यह इसलिए कि यह तुम्हें
अपमानजनक लगता है। तुम सोचते हो, मैं और नहीं समझूं यह असंभव है। इस चीज के साथ ही
कुछ भूल होगी। और तब तुम गाली देने लगते हो। तब तुम ऊलजलूल बकने लगते हो। और कहते
हो कि अब ठीक है।
इसलिए तंत्र को नहीं समझा
गया, और तंत्र को गलत समझा गया। वह इतना गहरा और ऊंचा था कि यह होना स्वाभाविक था।
तीसरी बात कि चूंकि तंत्र
द्वैत के पार जाता है इसलिए उसका दृष्टिकोण अति नैतिक है। कृपा कर इन शब्दों को
समझो. नैतिक, अनैतिक, अति नैतिक। नैतिक क्या, हम समझते हैं, अनैतिक क्या है, वह भी
हम समझते हैं। लेकिन जब कोई चीज अति नैतिक हो जाती है, नैतिक— अनैतिक दोनों के पार
चली जाती है, तब उसे समझना कठिन हो जाता है।
तंत्र अति नैतिक है। इसे इस
तरह देखो। औषधि, दवा अति नैतिक है, वह न नैतिक है और न अनैतिक। चोर को दवा दो तो
उसे लाभ पहुंचाएगी। संत को दो, तो उसे भी लाभ पहुंचाएगी। वह चोर और संत में कोई
भेद नहीं करेगी। दवा नहीं कह सकती कि यह चोर है इसलिए मैं उसे मारूंगी और वह साधु_
है उसकी मदद करूंगी। दवा वैज्ञानिक है। तुम्हारा चोर या संत होना उसके लिए
अप्रासंगिक हैं।
तंत्र अति नैतिक है। तंत्र
कहता है : कोई नैतिकता जरूरी नहीं है, कोई खास नैतिकता जरूरी नहीं है। सच तो यह है
कि तुम अनैतिक हो, क्योंकि तुम्हारा चित्त अशात है। इसलिए तंत्र शर्त नहीं लगाता
कि पहले तुम नैतिक बनो तब तंत्र की साधना कर सकते हो। तंत्र के लिए यह बात ही
बेतुकी है। कोई बीमार है, बुखार में है और डाक्टर आकर कहता है : पहले अपना बुखार
कम करो; पहले पूरा स्वस्थ हो लो और तभी मैं दवा दूंगा!
यही तो हो रहा है। एक चोर
साधु के पास आता है और कहता है कि मैं चोर हूं मुझे ध्यान करना सिखाएं। साधु कहता
है कि पहले चोरी छोड़ो, चोर रहते ध्यान कैसे करोगे! एक शराबी आकर कहता है, मैं
शराबी हूं मुझे ध्यान बताएं। और साधु कहता है, पहली शर्त कि शराब छोड़ो और तब ध्यान
कर सकोगे।
ये शर्तें ही आत्मघातक हो
जाती हैं। वह मनुष्य शराबी है, या चोर है, या अनैतिक है; क्योंकि उसका चित्त अशांत
है, रुग्ण है। ये तो रुग्ण चित्त के प्रभाव हैं, परिणाम हैं। और उसे कहां जाता है,
पहले अच्छे हो लो तब ध्यान करना। लेकिन तब ध्यान की जरूरत किसको है? ध्यान औषधीय
है; ध्यान औषधि है।
> उपदेशक उपदेश किए चले
जाते हैं। वे लोगों से कहते हैं कि क्रोध मत करो और उसके लिए कोई उपाय नहीं बताते।
और हमने यह उपदेश बहुत—बहुत समय से सुना है, लेकिन कभी नहीं पूछा : क्या कहते हो?
मैं क्रोधी हूं और तुम कहते हो कि क्रोध मत करो। यह कैसे संभव है? जब मैं क्रोध
में हूं तो उसका मतलब है कि मैं क्रोध ही हूं। और तुम सिर्फ कहते हो कि क्रोध मत
करो। तो क्या मैं अपना दमन करूं? लेकिन दमन से तो और क्रोध पैदा होगा। उससे अपराध—
भाव पैदा होगा। क्योंकि यदि मैं अपने को बदलने की कोशिश करूं और न बदल पाऊं तो
मेरे भीतर हीनता पैदा होगी। उससे मुझ में अपराध— भाव पैदा होगा कि मैं निकम्मा हूं
, मैं अपने क्रोध को नहीं जीत सकता।
वैसे क्रोध को कोई नहीं जीत
सकता है। उसके लिए किसी उपाय की, किसी विधि की जरूरत है। क्यौंकि तुम्हारा क्रोध
तुम्हारे अशात चित्त का लक्षण है। अशांत मन को बदलो और लक्षण बदल जाएगा। क्रोध
इतना भर दिखा रहा है कि भीतर क्या है। भीतर को बदलो और बाहर बदल जाएगा।
यदि कोई मेरे पास आता है और
मैं उससे कहता हूं कि पहले क्रोध छोड़ो, पहले काम छोड़ो, पहले यह छोड़ो वह छोड़ो तो
मैं अमानुषिक हूं। जो मैं कहता हूं वह असंभव है। और इस असंभावना के कारण ही वह
आदमी भीतर से क्षुद्रता का अनुभव करेगा। वह दीन—हीन अनुभव करेगा, अपनी ही आंखों में
भीतर पतित मालूम पडेगा। यदि वह असंभव की चेष्टा करेगा तो हारेगा। और हार के कारण
वह अपने को पापी मान बैठेगा।
उपदेशकों ने सारी दुनिया को
समझा दिया है कि सब पापी हो। यह उनके लिए अच्छा है। जब तक तुम यह नहीं मानते कि
तुम पापी हो, उनका धंधा नहीं चलेगा। तुम्हें पापी होना पड़ेगा; तभी गिरजे, मंदिर और
मस्जिद फूलते—फलते रहेंगे। तुम्हारा पाप में होना ही उनकी कमाई का मौसम है।
तुम्हारा पाप ऊंचे से ऊंचे मंदिर—मस्जिद की नींव है। तुम जितने पापी होओगे उतना ही
ऊंचा उनका शिखर उठेगा। वे तुम्हारे अपराध पर, पाप पर, तुम्हारे हीनता के भाव पर ही
खड़े किए जाते हैं। और इस तरह उन्होंने एक दीन—हीन मनुष्यता का निर्माण किया है।
एक बार तुम जान गए कि
विधियों के द्वारा तुम पदार्थ को बदल सकते हो तो किसी दिन तुम यह भी जान ही लोगे
कि विधियों के द्वारा मन को भी बदल सकते हो। क्योंकि मन सूक्ष्म पदार्थ के
अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
यही तंत्र की प्रस्तावना है
कि मन सूक्ष्म पदार्थ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और यह बदला जा सकता है। और मन
बदला कि संसार बदल गया, क्योंकि तुम मन के द्वारा ही देखते हो। जो संसार तुम देखते
हो उसे वैसा एक विशेष मन के कारण देखते हो। मन को बदलों और तब देखोगे कि एक भिन्न
संसार ही तुम्हारे सामने होगा। और जब मन अ—मन हो जाए—वह तंत्र का आत्यंतिक लक्ष्य
है कि एक ऐसी अवस्था आए जहां मन ही न रहे—तब संसार को बिना माध्यम के देखो। और जब
माध्यम नहीं रहा तब तुम सत्य के बिलकुल आमने—सामने होते हो। क्योंकि अब तुम्हारे
और सत्य के बीच में कोई भी न रहा। तब कुछ भी विरूप, विकृत नहीं किया जा सकेगा।
तंत्र कहता है कि उस अवस्था
का नाम भैरव है जब मन नहीं रहता है—अ—मन की अवस्था। और तब पहली दफा तुम यथार्थत:
उसको देखते हो जो है। जब तक मन है, तुम अपना ही संसार रचे जाते हो, तुम उसे
आरोपित, प्रक्षेपित किए जाते हो। इसलिए पहले तो मन को बदलो
> ये एक सौ बारह विधियां
तुम्हारे लिए चमत्कारिक अनुभव बन सकती हैं, या तुम उन्हें महज सुन सकते हो। यह तुम
पर निर्भर है, मैं सभी संभव पहलुओं से प्रत्येक विधि की व्याख्या करूंगा। अगर तुम
उसके साथ कुछ निकटता अनुभव करो तो तीन दिनों तक उससे खेलो और फिर छोड़ दो। अगर वह
तुम्हें जंचे, तुम्हारे भीतर कोई तार बजा दे तो फिर तीन महीने उसके साथ प्रयोग
करो।
जीवन चमत्कार है। अगर हमने
उसके रहस्य को नहीं जाना है तो उससे यही जाहिर होता है कि तुम्हें उसके पास
पहुंचने की विधि नहीं मालूम है।
शिव यहां एक सौ बारह
विधियां प्रस्तावित कर रहे हैं। इसमें सभी संभव विधियां सम्मिलित हैं। यदि इनमें
से कोई भी तुम्हारे भीतर नहीं ‘जंचती’ है, कोई भी तुम्हें यह भाव नहीं देती है कि
वह तुम्हारे लिए है तो फिर कोई भी विधि तुम्हारे लिए नहीं बची। इसे ध्यान में रखो।
तब अध्यात्म को भूल जाओ और खुश रहो। वह तब तुम्हारे लिए नहीं है।
लेकिन ये एक सौ बारह
विधियां तो समस्त मानव—जाति के लिए हैं। और वे उन सभी युगों के लिए हैं जो गुजर गए
हैं और आने वाले हैं। और किसी भी युग में एक भी ऐसा आदमी नहीं हुआ और न होने वाला
ही है, जो कह सके कि ये सभी एक सौ बारह विधियां मेरे लिए व्यर्थ हैं। असंभव! यह
असंभव है!
प्रत्येक ढंग के चित्त के
लिए यहां गुंजाइश है। तंत्र में प्रत्येक किस्म के चित्त के लिए विधि है। कई
विधियां हैं जिनके उपयुक्त मनुष्य अभी उपलब्ध नहीं हैं, वे भविष्य के लिए हैं। और
ऐसी विधियां भी हैं जिनके उपयुक्त लोग रहे नहीं, वे अतीत के लिए हैं। लेकिन डर मत
जाना। अनेक विधियां हैं जो तुम्हारे लिए ही हैं।
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