Wednesday 11 April 2018

संभोग से आनंद की ओर 21 – संभावनाऐं


संभोग से आनंद की ओर 21 – संभावनाऐं




सेक्स में जन्म लेना स्वाभाविक है, इसके लिये कोशिश नही करनी। लेकिन सेक्स में ही मृत्यु होना अस्वाभिक है। अपने बस मे है कि हम सैक्स मे मरे या नही। सेक्स से एक एक कर उच्चतम की ओर कदम उठना ही चाहिए। बीज से प्रारम्भ कर वक्ष तक की यात्रा ही विकास है। लेकिन अधिकतर मनुष्य सेक्स के दोरान दोहराने वाले चक्र में ही जीते हैं। वे एक ही दिनचर्या के साथ परिभ्रमण करते रहते हैं। बिना सजग हुए वही चीजें, जिनके बारे में उन्हें स्वयं यह होश नहीं कि वे एक ही चीज को नजाने कितनी अधिक बार कर चुके हैं, ओर उनसे कुछ भी नहीं मिला, वे उन्हें किए चले जा रहे हैं। वो यह नही जानते कि उन्हें क्या करना चाहिए बस उन्हीं चीजों को दोहराते चले जा रहे हैं। एक ही चक्राकार मार्ग पर घूमते हुए व्यस्त बने रहते हैं।
       वासना अपने आप में एक बीज की भांति है। उसमें पूरी सम्भावना है, वक्ष बनने की, वह ठीक मिट्टी, उचित मौसम और योग्य माली की प्रतीक्षा कर रही है, उसे उस कुशल मनुष्य की प्रतीक्षा है जो अंकुरित होने में उसकी सहायता करे। यह केवल एक सम्भावना है। उसके लिए वृक्ष बनने की कोई अनिवार्यता नहीं है। हो सकता है कि वह कभी कुछ बन ही न सके और पूरी तरह नष्ट ही हो जाए। सदियां गुजर सकती हैं और बीज अंकुरित नहीं होगा। जब बीज ठीक भूमि तक पहुंच जाता है और उसमें विलुप्त हो जाता है। तब बीज मिटता है, ओर तभी वृक्ष का जन्म होता है। जब ' तुम ' विसर्जित हो जाते हो, तभी आत्मा का जन्म होता है। जब आत्मा विलुप्त होती है तो परमात्मा का जन्म होता है ओर अन्नत आनंद का जन्म
         परमात्मा एक स्वप्न की भाँति मनुष्य की आत्मा में छिपा हुआ है। अगर मनुष्य की आत्मा को हम कली समझें, तो परमात्मा पुष्प है। लेकिन यह आदमी की अपनी जीवनरसधार पर ही निर्भर करेगा। वह कितने बलपूर्वक, कितने आग्रहपूर्वक, कितनी शक्ति से, कितनी तीव्रता से भीतर से प्यासा है, कितने जोर से पुकारा है उसने जीवन को, कितने जोर से उसने जीवन की प्राणसत्ता को अपनी तरफ खेचा है। कितने जोर से हम सलंग्न हुए हैं, कितने जोर से हम समर्पित हुए हैं। कितने एकाग्र भाव से हमने चेष्टा की है। इस सब पर निर्भर करेगा कि कली फूल बने कि नही बने। कली से फूल कैसे हो जाऊं, रास्ता तो बताया जा सकता है, लेकिन सब व्यर्थ होगा। क्योंकि रास्ते का सवाल उतना नहीं है, जितना चलने वाले की आंतरिक शक्ति का है। फिर भय कि मेरी जिदगी भी नष्ट न हो जाए, आदमी को धार्मिक नहीं होने देता। डर लगा ही रहता है कि जो है, कहीं वह न छूट जाएं। और जो नहीं है, वह मिलेगा या  नही क्या पता। इस अज्ञात में छलांग लगाने की हिम्मत जो करता है वही कुछ पा पाता है। मिटना तो पड़ेगा ओर  मिटने के बाद  ही आनंद है।

No comments:

Post a Comment