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Monday, 30 May 2016
संभोग से आनंद की ओर 11- मनुष्य जीवन की स्त्री से घनिष्ठा
संभोग से आनंद की ओर 11- मनुष्य जीवन की स्त्री से घनिष्ठा
https://www.youtube.com/watch?v=hb19IapJ5Zk
मनुष्य का सारा जीवन स्त्री के निकट ही घूमता रहता है। स्त्री ही सम्पूर्ण जीवन का केंद्र बिन्दु है, स्त्री से इसका जन्म होता हे, स्त्री इसका पालन करती है ओर बडे होने पर स्त्री का ही भोग करता है, इसलिये जब सम्पूर्ण जीवन ही स्त्री के साथ चलता हे तो क्यों न इसका प्रयोग कर हम अपने जीवन को उस सम्पूर्ण आनंद व शान्ति से भर दे जहाँ कोई तनाव बाकी न रहे स्त्री (पत्नी) हमें वो आनंद का स्रोत हे जो अनेक रुप से हमें शक्ति देती हैं ओर हमसे शक्ति प्राप्त करती हैं। यदि हम सेक्स के समय अतृप्त रह जाते है तो स्त्री परपुरुष गामिनी ओर पुरूष परस्त्रीगामी हो जाते हैं। ओर जब उससे भी तृप्ति नहीं होती तो फिर अगला पुरूष या स्त्री। यह बात दोनों पर ही लागू होती है ओर पुरुषों द्वारा किए जाने वाले बलात्कार भी इसी कारण होते हैं। वह दूसरी स्त्री मे उस तृप्ति को पाने की कोशिस करता हे ओर इस कदर यह दबाव मन पर पड़ता हे कि वह अपराध कर गुजरता हैं।
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इस प्रकार इस तरह के जितने भी यौन अपराध हे उनका संबंध चाहे वह बलात्कार के हो, छेड़छाड़ के हो या अनेक स्त्रियों से संबंध बनाने से हो वह सब हमारी सेक्स भावना की अतृप्ति से ही जाग्रत होते है ओर हम अपराध कर जाते हैं। सेक्स से हमे तृप्ति व आनंद नहीं मिला ब्लकि केवल शक्ति का ह्रास हुआ ओर हम निस्तेज हो गये ।
हमें इस संभोग को आनंद की उस चरम सीमा (तृप्ति) तक ले जाना हें कि फिर ओर कोई चाह न रहे तो अनेक अपराध रुक जायेगे, हमारे परिवार बिखरने से बच जायेगे, तलाक नामे होना खत्म हो जायेंगे, आपसी झगड़े मिट जायेंगे। एक दूसरे की कमियां भी जबहि दिखाई देती है जब हम अतृप्त होते हैं। जब हम तृप्त होते हे तो कमियां भी अच्छी लगती हैं। अतः तृप्ति कैसे हो समझे जाने ओर इसको अपनाये।
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Sunday, 8 May 2016
संभोग से आनंद की ओर 10- काम एक शक्ति है
संभोग से आनंद की ओर 10- काम एक शक्ति है
काम एक शक्ति हे जो मेथुन के समय प्रकट होकर दो
भागों मै बँट जाती है। इसका एक भाग बर्हिमुखी व दूसरा अंतमुर्खी है। एक भाग
प्रकृति की ओर ले जाता हे तो दूसरा निर्वृति की ओर, सेक्स का संयम जीवन को नियमित बनाने व पूर्ण आनंद के लक्ष्य
को प्राप्त करने मे सहायक हे इसलिए सेक्स व कामकीड़ा का ज्ञान स्त्री पुरुष दोनों
को ही होना जरुरी है तभी वह अंनन्त आनंद को भोग पाते हे, जिस प्रकार विधुत शक्ति मे आर्कषण व विर्कर्षण
दो शक्तियाँ विधमान हे परन्तु दोनों के मिलने से ही प्रकाश व गति का संचालन होता
है उसी प्रकार स्त्री व पुरुष के मिलने से सृष्टि का सृजन व आनंद की प्राप्ति होती
है।
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जहाँ शिव हे
वहाँ शक्ति हैं , शक्ति के बिना शिव
शव हैं, इसी प्रकार जहाँ पुरुष हे वहाँ स्त्री भी हे ओर
दोनों के होने पर ही वह पूर्ण है, नहीं तो अकेले एक
कुछ नहीं कर सकता । इस परासुक्ष्म जगत मे सव कुछ विधमान हे , लेकिन उसको सक्रिय करने व इच्छित रुप देने के
लिए ऊर्जा की जरूरत होती है, ओर ऊर्जा ही सारे
पदार्थ की जनक है। सूर्य की ऊर्जा से ही पृथ्वी पर जीवन हैं। ओर ऊर्जा ही सर्व
शक्ति मान परम परमेश्वर का रुप है। ओर मैथुन के द्वारा विभिन्न प्रकार से ऊर्जाओ
का उत्पादन किया जाता हैं। अनेक विज्ञानिक अब यह मानते हे कि सेक्स पावर एक एनर्जी
है तो फिर इसका प्रयोग क्यों नहीं कर सकते हैं।
एक - 2
रतिक्रिया ऊर्जा के नये नये स्रोतों का सृजन करती है। स्त्री (-) व पुरष (+)
शक्तियाँ हे ओर जब यह शक्तियाँ टकराती है, घर्षण होता हे, रगड़ लगती हे तो विधुत उत्पन्न होती हे ओर इसी कारण उस समय
शरीर गर्म हो जाते हे, पसीने छूटने लगते
हे, श्वास की गति असमान्य रुप से बड़ जाती है
परन्तु आनंद प्राप्ति के लिए इसमे स्खलन वर्जित है, क्योंकि इसका प्रयोग केवल सन्तान उत्पन्न करते समय ही करना
हे, वाकी तो केवल आनंद ओर ऊर्जा को प्राप्त करने के
लिए करें तो जीवन पूर्ण आनंदमय बन जायेगा।
संयम को
बढ़ाना हे ओर स्खलन पर नियन्त्रण रखते हुऐ ही यह ऊर्जा उत्पन्न करनी हे, संभोग करते रहना, ऊर्जा को बढ़ाते रहना ओर स्खलन न होना एक महान साधना है।
उत्तेजना की चरम सीमा पर पहुँचने के बाद भी स्खलन न कर ऊर्जा को बनायें रखना, मन पर नियन्त्रण रखना ओर उस समय घटित होती हुई
घटनाओं पर अन्दर की ओर ध्यान लगाते हुए उस पल का अनुभव करना जहाँ सिर्फ आनंद हे ओर
कुछ नहीं, न विचार न कार्य न कल की चिंता न तनाव बस इसी
पल रुकना है, अनुभव करना हे शरीर
मे घटित प्रत्येक पल की घटना को। इस प्रकार भोग से योग की ओर बढ़ेंगे , शरीर के रोग खत्म होगे, वह
ऊर्जा शरीर मे स्थित अनेक दूषित विषाणु कीटाणुओ का नास कर देगी, ओर आनंद की तरंग से रोम रोम को भर देगी। उस समय
उच्च स्तर की ऊर्जा, जाग्रत होती हे ओर मन पूर्ण रुप से एकाग्र होता हैं। ओर इस
अनन्त ऊर्जा का जैसे ही आप ध्यान लगाते हे तो आप परम आनंद स्वरूप आपने आप को पाते
हैं।
Saturday, 7 May 2016
संभोग से आनंद की ओर 9-प्रेम व सेक्स
संभोग से आनंद की ओर 9-प्रेम व सेक्स
इसके लिए
हमें इसके पहलुओ को समझना होगा।सेक्स मनुष्य की मूल भावना हैं। जिसे प्रेम कहा
जाता हैं । इसका जीवन मैं इतना महत्व हे कि इसके बिना सृष्टि की रचना संभव नहीं
है। हमारे चारों तरफ जितने भी क्रियाकलाप है वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से
काम के साथ जुड़े हुए हैं। हमारे ग्रन्थो मे भी जीवन के लक्ष्यों की प्राप्ति के
लिए धर्म , अर्थ, काम, ओर मोक्ष का वर्णन किया हैं। अर्थात सभी एक दूसरे से जुड़े
हुए हैं। धर्म के साथ अर्थ ,अर्थ के साथ काम, ओर काम के साथ मोक्ष जुड़ा हुआ है। ओर इसी काम
को दर्शाने के लिए कामदेव (पुरुष) व रति (स्त्री) देवता के प्रतीक भी बनाये गये
हैं। काम व रति के अभाव मैं मनुष्य का हदृय कुंठाओ से भर जाता हैं ओर मति भष्ट हो
जाती हैं। काम के बिना जन्म संभव नहीं है ओर शरीर के बिना मौक्ष संभव नहीं हैं। इसलिए
आनंद को लक्ष्य बनाकर काम साधना का उपयोग करना चाहिए । काम की उत्पत्ति सृष्टि के
आरंभ के साथ ही हुई हैं ओर जीवन के हर पल मे इसका पूरा पूरा महत्व हैं।
मनुष्य
आनंद चहाता हैं ओर वह उसे पाने के लिये लालायित होता है। जीवन मे संभोग आनंद की
पराकाष्ठा है क्योंकि उस समय उसके अन्दर कोई भी विचार नही होता है वह निर्विचार
सिर्फ वर्तमान मे क्रियाशील हो रहा होता है ओर बिन्दु का आनंद रूपी अमृत नीचे की
ओर आकर आनंद की तृप्ति देता है। इस प्रकार काम का उपयोग सीमा मे कर उसे आनंद का
साधन बनाना केवल संयम के अधीन ही संभव हैं।
Wednesday, 4 May 2016
संभोग से आनंद की ओर 8- प्राचिन काल मे नारी व संम्भोग
संभोग से आनंद की ओर 8- प्राचिन काल मे नारी व संम्भोग
सभ्यता के उदय काल में नारी को सम्मान जनक शब्दो से पुकारा
जाता था। उसे देवी, कल्याणी, नारायणी, आदि नामो से सम्बोधित किया गया। वहाँ नारी व पुरूष को
पूर्णतया समान आधिकार थें। नारी पूर्णतया स्वतंत्र जीवन यापन करती थी वह स्वेच्छा
से पुरूष का चयन कर जीवन व्यतीत करती थी तथा चयन के बाद भी उसके शासन मे रहने को बाध्य
नही थी। उसे पुरूष का परित्याग करने का भी अधिकार था। व्यक्तिगत संबंध केवल प्रेम
पूर्ण व्यवहार पर ही आधारित थे अन्यथा नही।
देव
किरात तथा असुर युग तक आते-आते वैवाहिक संस्था का विकास हुआ, परन्तु उस समय भी नारी अबला नही थी। वह युद्
किया करती थी। समान शिक्षा मिला करती थी और वह पुरूष के बराबर अधिकारो से सुज्जित
थी। वहाँ भी कोई जाति बंधन नही था व नारी अपनी इच्छा अनुरूप पुरूष के साथ संभोग
करती थी और अनेक पुरूषो से भी संबध बनाने की आजादी थी। उस समय की नारी पति द्वारा
पूजनीय हुआ करती थी वह अराधित थी पति के द्वारा, एवं देवता तुल्य मानी जाती थी उस समय स्त्रीयो का सम्मान
सबसे अधिक था।
सत्युग
तक परिस्थियाँ बदलने लगी चन्द्रमा नें बृहस्पति की पत्नी का हरण किया और भोगा। फिर
बृहस्पति को वापस कर दिया परन्तु उस समय नारी को उसके बाद भी पूर्ण सम्मान मिलता
था। अर्थात् पर पुरूष गामनि के बाद भी वह पूर्ण समान्नित होती थी।
मनु के समय
से नारी के अधिकारो मे बदलाव आना शुरू हुआ। वहाँ भी सैक्स को बुरा नही माना जाता
था। अप्सरा व गणिकाऐ हुआ करती थी जो पूर्ण संभोग का आनन्द दिया करती थी। वह
क्रीड़ा स्त्रीयाँ कहलायी जाती थी। स्त्रीयाँ उस समय बाजार में भी बिकती थी, तारामति का बिकना उसी काल का है। सत्युग मे
स्त्रियाँ स्वेच्छा से संभोग की याचना कर सकती थी। अर्थववेद यम यमी संबाद में यमी
अपने भाई यम से सन्तान उत्पति को कहती है। इस प्रकार सतयुग मे भी स्त्रीयाँ संभोग
व सन्तान उत्पति के लिये स्वतन्त्र थी। तथा वह पुरूष का चयन करने मे भी स्वतन्त्र
थी उस समय नारी कई बार विवाह करती थी
वैदिक युग के
बाद धीरे - धीरे ये स्वतन्त्रता खोने लगी पुराण युग मे स्त्रीयो की स्वतन्त्रता
खोने लगी। बाल विवाह शुरू हो गये। विधवाओ का विवाह निषेद कर दिया गया और स्त्री को
भोग विलास की वस्तु समझा जाने लगा। वहाँ से समाज मे सैक्स के प्रति कुविचार व भ्रम
फैलना शुरू हुआ। और सैक्स व स्त्री धार्मिक संर्कीण विचारधारा की शिकार होकर रह
गई। धर्म शास्त्र युग संहिताओ का युग माना गया। यहाँ नारी को अबला का दर्जा दिया
गया। वह पराधीन परतंत्र व निसहाय और निर्बल बनती चली गयी। वह केवल पति के अनुसार
ही चलती थी यहाँ से संभोग की दिशा व दृष्टि बदल गयी। जिसे खुलापन व स्वतन्त्रता थी
वह पाप और निन्दक बन गया। मनु स्मृति ने साफ लिखा कि स्त्री कभी भी स्वतन्त्र रहने
योग्य नही है। साथ ही उसे पति की सेविका बना दिया गया, उसकी शिक्षा भी बन्द कर दी गयी, स्त्री को मनु ने दोगला रिस्ता दिया, जहाँ वह माता गुरू के रूप मे पूजनीय मानी वही
पत्नी के रूप मे उसे अपमानित किया गया।
फिर
बहुपत्नी प्रथा आयी। मुस्लिम शासन ने आकर नारी को और अधिक प्रतिबंधित कर दिया।
सतयुग व रामायण युग मे नारी को दासी बना दिया वही द्वापरयुग मे कृष्ण ने एक बार
फिर बराबरी का दर्जा देने की कोशिश की फिर वही प्रेम धारा को बहाँ दिया। राधा व
गोपियो के साथ रास रचाया, मित्रवत संबंध
बनायें, यहाँ नारी को नर के बराबर का दर्जा दिया गया और
एक बार फिर वही आनन्द का खुलापन समाज मे आया। किन्तु फिर जल्द ही आगे बोद्धकाल मे
नारी को उपभोग की वस्तु बना दिया गया। सम्राट अशोक के काल मे भी नारी पर अत्याचार
हुऐं और मुगल काल मे नारियाँ पर्दे के पीछे चली गयी परन्तु फिर पच्छिमीकरण का आगमन
हुआ ब्रिटिशकाल आया और नारियो के लिऐ आन्दोलन शुरू हो गयें। बाल विवाह, सती प्रथा, कन्या वध, भूण हत्या, के खिलाफ आन्दोलन तो हुऐ पर सफल नही हुये ।
फिर
भारत आजाद हुआ परन्तु नारी को स्वतन्त्रता आज भी नही मिली। आज भी वो मानसिकता पैदा
नही हुई है। जहाँ नारी स्वयं अपना वर चुन सके या वह अपनी मर्जी से पुरूष से संबंध
बना सके। धर्म के ठेकेदार व सामाजिक व्यवस्था ऐसी बिगड़ी कि वह सुधारने की नाम ही
नही ले रही है। जिस समय सैक्स को पाप व निन्दक न समझा जाता था उस समय नारी यह
बलात्तकार व अत्याचार की शिकार नही होती थी। परन्तु आज के युग मे फिर क्रान्ति आ
रही है नारी व पुरूष समझ रहें है स्वन्तत्रता को, वह आजाद होना चाहते है। सैक्स के भय से अजाद होकर खुलकर बात
करना चाहते है। इसलिये जब भी मौका मिलता है वह खुलकर वार्तालाप करते है। और आज प्रत्येक
लडका प्रेमिका व लडकी प्रेमी की चाह रखते हैं। एक बार फिर वह समाज को बदल रहे है।
अपनी मर्जी से शादी कर रहे है, स्ंवय नारी पुरूष का
चयन कर रही है, चाहे लाख बंदिशे
क्यो न हो फिर भी सब कुछ घटित हो रहा है जो प्रेम की फिर वही परिभाषा लिखेगा जिसमे
सिर्फ आनन्द होगा और आनन्द होगा।
Monday, 2 May 2016
संभोग से आनंद की ओर 7- जीवन की उत्पत्ति
संभोग से आनंद की ओर 7- जीवन की उत्पत्ति
वृक्ष पर खिला फूल
फल बनने की तैयारी कर रहा है पक्षी, तितली, भौरे, मधुमक्खी फूल के पुकेंशर को उसके गर्भ बनने मे
सहायता दे रही है। बदले मे पराग रूपी आन्नद पा रही है। फल बीज की रक्षा कर रहा है
और बीज दूसरे पौधे को जन्म दे रहा है। पूरी सृष्टि काम-कृत्य है एक सुंन्दर सृजन
है सभी जीव अपनी जाति को बनाये रखने के लिऐ अपने काम कृत्य मे लगे हुऐ है । मनुष्य
भी नये जीवन को जन्म देने की क्रिया कर रहा है जिसे सैक्स कहाँ गया है मनुष्य की
चेतना के बढते विकास ने जहाँ अनेक सुविधाओ के साधन जुटाये है वही विनास के लिऐ
परमाणु बंमो का भी निर्माण कर दिया है। अनेको बार सृष्टि बदली है। डायनासोर जैसी
जातियाँ लुप्त हो गयी आज तीसरे विस्व युद के आसार बनते जा रहे है। जिससे एक बार
फिर बदलाव होगा क्योकि मनुष्य शक्ति का प्रतिदिन विकास करता जा रहा है। परन्तु धन
दौलत ताकत ओर ज्ञान के बाद भी भय, तनाव, घर्णा, तृष्णा, अशान्ति, क्रोध, मोह, लोभ, से भरता जा रहा है। और विनाश की डगर को मजबूत
करता जा रहा है। सत्य से दूर होकर जीवन का लम्बे समय तक चल पाना संभव ही नही है।
सत्य को
निन्दा का विषय बना दिया है। चेतना जो काम केन्द्र की चारो और चक्कर लगा रही है
उसे गुप्त रखा जाता है। हमारा जंन्म पूरा जीवन और सभी काम कृत्य का ही परिणाम है।
हमारे सारे क्रिया कलाप इसी के चारो ओर घूमते है परन्तु फिर भी सत्य को दमन करना
चाहाते है क्योकि यही हमारी सभ्यताओ व मान्यताओ ने बताया है। परन्तु सत्य उतनी ही
तेजी से बहार आता है। ये काम ऊर्जा या तो कोई अत्याचार करायेगी या किसी रोग का
कारण बन जायेगी। कितना हमने इसको दमन किया है इसका पता आप अन्तः मन से पूछे जब भी
कभी हमे इस बारे मे बात करने का मौका मिलता है तो हम सब कुछ अपने सामने वाले को
बता देते है। अकेले मे अपने मित्रो मे केवल हम सैक्स की ही चर्चा करते है।
आचार्य रजनीश के
शब्दो मे पृथ्वी उसी दिन सैक्स से मुक्त होगी जब हम इसको पूर्ण रूप से समझ लेगे।
मनुष्य ब्रहमचर्य का पालन, बिना सेक्स के समझे नही कर सकते है। जब हम इसको जान
लेगे समझ लेगे तो सेक्स से ऊपर उठकर आन्नद को पाने लगेगे।
संभोग से आनंद की ओर 6-जीवन अनमोल हैं।
संभोग से आनंद की ओर 6-जीवन अनमोल हैं।
प्रत्येक मनुष्य का जीवन अनमोल हैं। परन्तु वह इस सत्य को
जान ही नही पाता हैं। ज्ञान का सूर्य उदय नही होता है । जीवन के रहस्य, आनन्द व मुक्ति को जान ही नही पाते है। जीवन के
दूसरे सत्य मृत्यु में विलिन हो जाते हैं। विरले ही होते हे जो जीवन की खुशियों को,
वास्तविकता को जान पाते हैं। वरना हर कार्य जल्दी-जल्दी, न भोजन का आनन्द, न काम का न प्रेम का, शरीर कही तो मन कही, हमारें अन्दर तो यह मान्यताये समा चुकी है। कि जीवन कष्टो, चिन्ताओं तथा भय से भरा हुआ है। सभी धर्मो ने भी
यही सिखाया है। कि जीवन नस्वर है। यहाँ कष्ट ही कष्ट है। यह सब माया है। काम क्रोध
मोह लोभ अंहकार हमे नरक मे भेज देगे। मृत्यु के बाद ही ब्रंह सत्य है। संसार
मित्था है। यह शरीर धर्मशाला है। क्षणभंगूर है। अपनी इच्छाओ को खत्म कर दो तभी
ईश्वर (आनन्द) की प्राप्ति होंगी। अनेक इच्छाओ के वंशीभूत मनुष्य भटक रहा है। ऐसी
मान्ताऐं हमारे अवचेतन में कूट-कूट कर भर दी गयी है। जिससे जीवन रूपी आनन्द से हम
भटक गये है। सत्य को भूल गये है।
परन्तु जीवन सत्य है। इसे स्वीकार करना
ही होगा, अगर इसकी सत्यता को मान लिया तो आन्नद का रास्ता
खुल जायेंगा। अपने विचारो मे यदि जीवन को दुख रूप मान लिया तो यह दुख रूप बन
जायेंगा। वही अगर इसे आनन्द रूप मान लिया तो आनन्द दायक बन जायेगा। जीवन के बिना
आनन्द की कल्पना नही की जा सकती तो परमात्मा की कैसे ? जीवन की सत्यता को स्वीकार कर हर क्षण का आनन्द
लेते हुऐ साक्षी बन जीना ही मुक्ति हे, हर क्रिया कलाप मे खुशी खोजेंगें, हर पल आन्नद को खोजेंगें तो मुक्ति आनन्द
परमात्मा व प्रेम के द्वार खुल जायेंगे। परमात्मा हमसे दूर नही रहेगा, बल्कि पास खड़ा होगा।
परन्तु
मनुष्य भय के कारण मन्दिर जाता है। गुरू बनाता है। संसार के आगे झुकता हैं। ओर
संसार के आगे झुकता ही चला जाता है। परमात्मा ने अनमोल जीवन दिया जहाँ हमे आनन्द
लेना था परन्तु हमने अपनी बुधि से उसे विकृत कर तहस नहस कर दिया। वातावरण प्रदूषित
हो गया है। जीवन की दिन चर्या छिन्न-भिन्न हो गयी है। इसीलिऐ मनुष्य इतने घृणित, अपराध, अत्याचार, बलात्कार, विनास, युद्र दगें प्रसाद आदि कर गुजरता है , सुख पाने के लिऐ। परन्तु उस ऊर्जा को विनाश पथ
पर प्रयोग करने से वह और दुखी होता जाता है। यातनाऐं झेलता है। कष्ट पाता है।
क्योकि वह कष्ट ही बो रहा हैं।
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