Monday, 17 October 2016

विज्ञान भैरव तंत्र

विज्ञान भैरव तंत्र का जगत बौद्धिक नहीं है, वह दार्शनिक नहीं है। सिद्धांत इसके लिए अर्थ नहीं रखता। यह उपाय की, विधि की चिंता करता है, सिद्धांत की कतई नहीं। तंत्र शब्द का अर्थ ही है विधि, उपाय, मार्ग। इसलिए यह कोई मीमांसा नहीं है, इस बात को ध्यान में रख लें। बौद्धिक समस्याओं और उनके ऊहापोह से इसका कोई संबंध नहीं है। यह चीजों के ‘क्यों’ की चिंता नहीं लेता, उनके ‘कैसे’ की चिंता लेता है, सत्य क्या है इसकी नहीं, वरन इसकी कि सत्य को कैसे उपलब्ध हुआ जाए।
तंत्र का अर्थ विधि है। इसलिए यह एक विज्ञान—ग्रंथ है। विज्ञान ‘क्यों’ की नहीं, ‘कैसे’ की फिक्र करता है। दर्शन और विज्ञान में यही बुनियादी भेद है। दर्शन पूछता है. यह अस्तित्व क्यों है? विज्ञान पूछता है. यह अस्तित्व कैसे है? जब तुम कैसे का प्रश्न पूछते हो, तब उपाय, विधि महत्वपूर्ण हो जाती है। तब सिद्धांत व्यर्थ हो जाते हैं, अनुभव केंद्र बन जाता है। तंत्र विज्ञान है, तंत्र दर्शन नहीं है। दर्शन को समझना आसान है, क्योंकि उसके लिए सिर्फ मस्तिष्क की जरूरत पड़ती है। यदि तुम भाषा जानते हो, यदि तुम प्रत्यय समझते हो तो तुम दर्शन समझ सकते हो। उसके लिए तुमको बदलने की, संपरिवर्तित होने की कोई जरूरत नहीं है। तुम जैसे हो वैसे ही बने रहकर दर्शन को समझ सकते हो। लेकिन वैसे ही रहकर तंत्र को नहीं समझ सकते। तंत्र को समझने के लिए तुम्हारे बदलने की जरूरत रहेगी; बदलाहट की ही नहीं, आमूल बदलाहट की जरूरत होगी। जब तक तुम बिलकुल भिन्न नहीं हो जाते हो, तब तक तंत्र को नहीं समझा जा सकता। क्योंकि तंत्र कोई बौद्धिक प्रस्तावना नहीं है, वह एक अनुभव है। और जब तक तुम अनुभव के प्रति संवेदनशील, तैयार, खुले हुए नहीं होते, तब तक यह अनुभव तुम्हारे पास आने को नहीं है।

दर्शन की फिक्र तुम्हारे मन के साथ है। उसके लिए तुम्हारा मस्तिष्क काफी है, उसको तुम्हारी समग्रता नहीं चाहिए। तंत्र तुमको तुम्हारी समग्रता में मांगता है। यह बहुत गहरी चुनौती है, इसमें तुम पूरे और इकट्ठे होकर ही उतर सकते हो। तंत्र खंडित नहीं है। उसकी अगवानी के तरह के रुझान, तरह की यात्रा, और ही तरह के मन की जरूरत है।

No comments:

Post a Comment