9 विज्ञान
भैरव तंत्र का अर्थ ही है चेतना के भी पार जाने की विधि। विज्ञान का अर्थ चेतना
है, भैरव का अर्थ वह अवस्था है जो चेतना से भी परे है और तंत्र का अर्थ विधि है,
चेतना के पार जाने की विधि। यह परम धर्म—सिद्धांत है—सिद्धांत के बिना
धर्म—सिद्धांत।
यह मूर्च्छा— अमूर्च्छा का
खेल है। यदि तुम मूर्च्छा से अमूर्च्छा की यात्रा करते हो तो भी एक द्वैत की ही
यात्रा करते हो। तंत्र कहता है. दोनों के पार चलो। जब तक तुम दोनों के पार नहीं
जाते, तब तक परम को नहीं उपलब्ध हो सकते। इसलिए न अचेतन, न चेतन, दोनों के पार
चलो, मात्र हो जाओ। चेतन—अचेतन नहीं होना है, मात्र होना है। यह योग के भी पार है,
झेन के भी पार है, यह सभी धर्म—देशनाओं के पार है।
विज्ञान का, मतलब चेतना है।
और भैरव एक विशेष शब्द है, तांत्रिक शब्द, जो पारगामी कै लिए कहां गया है। इसलिए
शिव को भैरव कहते हैं और देवी को भैरवी—वे जो समस्त द्वैत के पार चले गए हैं।
हमारे अनुभव में प्रेम ही
उसकी थोड़ी झलक दे सकता है। यही कारण है कि तंत्र—विद्या सिखाने के लिए प्रेम उसका
बुनियादी उपाय बन जाता है। अपने अनुभव से हम कह सकते हैं कि प्रेम ही वह कुछ है जो
द्वैत के पार जाता है। जब दो व्यक्ति प्रेम में होते हैं, तब ज्यों—ज्यों वे उसकी
गहराई में उतरते हैं त्यों—त्यों दो कम और एक ही ज्यादा रहते हैं। और एक बिंदु आता
है, एक शिखर स्पर्श होता है जहां वे देखने में ही दो होते हैं, भीतर एक ही हो जाते
हैं। वहां द्वैत का अतिक्रमण हो जाता हैं।
‘परमात्मा प्रेम है’
अर्थपूर्ण हो जाता है; अन्यथा नहीं। हमारे अनुभव में प्रेम परमात्मा के सबसे निकट
है। परमात्मा प्रेम है—यह एक तांत्रिक वक्तव्य है। इसका अर्थ है कि हमारे अनुभव
में केवल प्रेम वह यथार्थ है जो परमात्मा के, भगवत्ता के निकटतम पड़ता है। क्योंकि
प्रेम में एकता का अनुभव होता है। शरीर दो रहते हैं, लेकिन शरीर से परे कुछ है जो
मिलकर एक हो जाता है।
10 यौन की भूख इतनी बड़ी है,
उसकी दौड़ भारी है। असली दौड़ तो इस एकता के पीछे है। लेकिन वह एकता यौन की, काम की
नहीं है। काम में दो शरीरों को एक होने का धोखा ही होता है, वे एक होते नहीं। वे
आलिंगन में बंधते हैं और एक क्षण के लिए दोनों एक—दूसरे में अपने को भूल जाते हैं,
और थोड़ी शारीरिक एकता अनुभव होती है। यह खोज बुरी नहीं है, लेकिन उस पर ही रुक
जाना खतरनाक है। यह खोज किसी गहरी एकता की खोज की खबर भर है।
प्रेम में किसी ऊंचे तल पर
कुछ आंतरिक गति करता है और एक—दूसरे में मिलकर एकता की अनुभूति होती है। उसमें
द्वैत मिट जाता है। और इसी द्वैतहीन प्रेम में हमें उसकी झलक मिल सकती है जिसे
भैरव की अवस्था कहते हैं। हम कह सकते हैं कि भैरवावस्था वह प्रेम है जिसमें से
लौटना नहीं होता है। प्रेम के शिखर से फिर नीचे आना नहीं है, शिखर पर ही बने रहना
है।
हमने कैलाश पर शिव का आवास
बनाया है। वह प्रतीक है कि कैलाश सबसे ऊंचा शिखर है, सबसे पवित्र शिखर है। वहीं
हमने शिव का आवास रखा है। हम वहां जा सकते हैं, लेकिन हमें वहा से नीचे उतर आना होगा।
वह हमारा आवास नहीं हो सकता है। हम तीर्थयात्रा के लिए वहा जा सकते हैं। वह तीर्थ
है, तीर्थयात्रा है। एक क्षण के लिए हम भी उस शिखर को छू सकते हैं, लेकिन फिर वापस
आना होगा।
प्रेम में यह पवित्र
तीर्थयात्रा घटित होती है, लेकिन सब के लिए नहीं। क्योंकि शायद ही कोई यौन के पार
जाता है। इसलिए हम घाटी में, अंधेरी घाटी में जीते चले जाते हैं। कभी—कभी विरला
कोई प्रेम के शिखर को उपलब्ध होता है, लेकिन वह भी नीचे उतर आता है, क्योंकि उस
ऊंचाई पर सिर चकराने लगता है। वह इतना ऊंचा है और तुम इतने निम्न, छोटे। और वहा
रहना भी कठिन है। जिन्होंने प्रेम किया है, वे जानते हैं कि प्रेम में सदा बने
रहना कितना कठिन है। बार—बार वापस आना पड़ता है। वह शिव का आवास है। वे वहां रहते
हैं, वह उनका घर ही है।
भैरव प्रेम में जीते हैं,
प्रेम उनका आवास है। जब मैं कहता हूं कि वह उनका आवास है, उसका अर्थ है कि अब
उन्हें प्रेम का भी बोध नहीं रहा। क्योंकि कैलाश पर ही रहने पर बोध भी जाता रहता
है कि यह कैलाश है, शिखर है। तब शिखर समतल भूमि बन जाता है। शिव को प्रेम का बोध
नहीं है। हमें प्रेम का बोध होता है, क्योंकि हम अप्रेम में जीते हैं; और इस
वैषम्य के कारण, विपरीतता के कारण हमें प्रेम का बोध होता है।
शिव प्रेम ही हैं। भैरव का
अर्थ होता है कि वह प्रेम ही हो गया है। यह नहीं कि वह प्रेमपूर्ण है, प्रेम करता
है, वह स्वय प्रेम हो गया है, वह शिखर पर है, शिखर ही उसका आवास है।
इस सर्वोच्च शिखर को संभव
कैसे बनाया जाए जो सब द्वैत के पार है, अचेतन के पार है, चेतन के पार है, शरीर और
आत्मा के पार है, संसार और मोक्ष के भी पार है? इस शिखर को उपलब्ध कैसे हुआ जाए?
यही है विज्ञानं भेरव तंत्र
देवी गहरे से गहरे प्रेम
में हैं। और जब कोई गहरे प्रेम में होता है तब पहली दफा उसे भीतर सत्य का
साक्षात्कार होता है। तब शिव आकार नहीं हैं, शरीर नहीं हैं। जब तुम प्रेम में होते
हो, तब प्रेमी का शरीर लुप्त हो जाता है। तब आकार मिट जाता है, निराकार प्रकट होता
है। तब तुम एक अतल गहराई के सामने होते हो। यही कारण है कि हम प्रेम से इतना डरते
हैं। हम एक शरीर का सामना कर सकते हैं; हम आकृति का, रूप का सामना कर सकते हैं;
लेकिन हम अगाध अतल का, महाशून्य का सामना नहीं कर सकते।
अगर तुम किसी को प्रेम करते
हो, सचमुच प्रेम करते हो तो उसका शरीर निश्चित रूप से विलुप्त हो जाने वाला है।
ऊंचाई के शिखर के किसी क्षण में आकार मिट जाएगा और प्रेमी के माध्यम से तुम
निराकार में प्रवेश कर जाओगे। यही वजह है कि हम डरते हैं। यह तो एक अतल समुद्र में
गिरना हो जाएगा।
11 देवी अवश्य ही आकार के
साथ प्रेम में पड़ गई होंगी। चीजें वैसे ही शुरू होती हैं। उन्होंने पहले आदमी के
रूप में इस आदमी को प्रेम किया होगा। और जब प्रेम वयस्क हुआ, प्रस्फुटित हुआ,
खिला, तब यह आदमी ही अंतर्धान हो गया। वह निराकार हो गया है। अब वह आदमी कहीं
दिखाई नहीं देता।
‘हे शिव, आपका सत्य क्या है?’
यह प्रेम के एक अत्यंत ही
गहन क्षण में पूछा गया प्रश्न है। और जब प्रश्न उठते हैं तब जिन मनों से वे उठते
हैं उनके अनुसार उनमें फर्क पड़ता है। इसलिए अपने—अपने मन में इस प्रश्न की
स्थिति, इसका माहौल पैदा करो। पार्वती भारी अड़चन में पड़ी होंगी; देवी कठिनाई में
पड़ी होंगी। शिव अंतर्धान हो गए हैं। जब प्रेम अपने शिखर पर होता है, तब प्रेमी
अंतर्धान हो जाता है। यह क्यों होता है?
यह होता है, क्योंकि वास्तव
में प्रत्येक व्यक्ति निराकार है। तुम शरीर नहीं हो। शरीर की तरह चलते हो, शरीर के
तल पर जीते हो, लेकिन शरीर नहीं हो। जब हम बाहर से किसी को देखते हैं तब वह शरीर
ही है। लेकिन प्रेम तो भीतर प्रवेश करता है। तब हम व्यक्ति को बाहर से नहीं देखते
हैं। प्रेम किसी को भी वैसे देख सकता है जैसे वह अपने को भीतर से देखता है। तब रूप
विदा हो जाता है।
झेन संत रिंझाई आत्मोपलब्ध
हुआ तो उसने पहला प्रश्न पूछा : मेरा शरीर कहां है? वह कहां चला गया? और वह खोजने
लगा। उसने अपने शिष्यों को बुलाया और कहां : जाओ और खोजो कि मेरा शरीर कहां गया?
मेरा शरीर खो गया है। वह निराकार में, अरूप में प्रवेश कर गया था।
यही कारण है कि
सदियों—सदियों तक हमने शिव की कोई प्रतिमा, कोई चित्र नहीं बनाया। हम सिर्फ
शिवलिंग बनाते रहे, उनका प्रतीक बनाते रहे। शिवलिंग एक निराकार आकार है। जब तुम
किसी को प्रेम करते हो, किसी में प्रवेश करते हो, तब वह मात्र एक ज्योतित उपस्थिति
हो जाता है। शिवलिंग वही ज्योतित उपस्थिति है, प्रकाश का प्रभा—मंडल।
आज की ध्यान बिधि -: तुम एक
निराकार अस्तित्व हो। लेकिन तुम अपने को प्रत्यक्ष नहीं, दूसरों की वजह से जानते
हो। तुम अपने को आईने के मार्फत जानते हो। तुम आईने में अपने को बिना पलक जपके लगातार
देखो ओर जब आंख दर्द करने लगे तुम खुद को न देख पाओ तो देखते हुए आंखें बंद कर लो
और तब ध्यान करो अगर आईना नहीं होता तो मैं अपना रूप कैसे पहचानता? एक ऐसी दुनिया
की सोचो जहां आईना नहीं हो। तुम अकेले हो, कोई आईना नहीं है, आईने का काम करती हुई
दूसरों की आंखें भी नहीं हैं। तब क्या तुम्हारा चेहरा होगा? या तुम्हारा शरीर
होगा?
नहीं, नहीं होगा। है भी
नहीं। हम अपने को दूसरों के द्वारा ही जानते हैं। और दूसरे केवल बाहरी रूप देखते
हैं। और यही कारण है कि हम उसके साथ तादात्म्य कर लेते हैं। इस विधि को रोजाना 15 से
30 मिनट करो फिर देखो क्या घटित होता है यह विज्ञानं का रहस्य है करके ही जाना जा सकता
है नहीं तो केवल वहस करते रहोगे या भटकते रहोगे
ॐ आज इतना ही सब खुश रहे |
No comments:
Post a Comment