Monday, 17 October 2016

प्रेम क्या है

अगर कोई पूछे, प्रेम क्या है? तो तुम उस प्रश्न का उत्तर बौद्धिक तल पर दे सकते हो, कोई सिद्धांत प्रस्तावित कर सकते हो, किसी विशेष परिकल्पना के लिए दलील दे सकते हो। तुम एक व्यवस्था, एक सिद्धांत, एक मतवाद खड़ा कर सकते हो। और हो सकता है कि प्रेम का तुमको बिलकुल पता न हो।
मतवाद गढ़ने के लिए अनुभव की जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि तुम जितना कम जानते हो उतना ही अच्छा। क्योंकि तब तुम बेहिचक व्यवस्था प्रस्तावित कर सकते हो। केवल अंधा आदमी आसानी के साथ प्रकाश की व्याख्या कर सकता है। जब तुम नहीं जानते हो, तब ढीठ होते हो। अज्ञान हमेशा ढीठ होता है, ज्ञान झिझकता है। जितना तुम जानते हो उतनी ही पांव के नीचे की जमीन खिसक नजर आती है। जितना तुम जानते हो उतना ही तुमको तुम्हारे अज्ञान का अनुभव होता है। और जो सच में ही ज्ञानी हैं, वे अज्ञानी हो जाते हैं। वे बच्चों की तरह या शो की तरह सरल हो जाते हैं।
इसलिए जितना कम जानते हो उतना बेहतर। मीमांसक होना, मतवादी होना, मूढ़ाग्रही होना सचमुच आसान है। किसी भी प्रश्न को बुद्धि के तल पर हल करना सरल है।

लेकिन किसी प्रश्न को अस्तित्वगत रूप से हल करना, उसे सोचना नहीं, उसे जीना, उसमें जीना और उसके द्वारा अपने को पूरी तरह बदल जाने देना कठिन है। उसका अर्थ हुआ कि प्रेम को जानने के लिए तुमको प्रेम में उतरना पड़ेगा। वह खतरनाक है। क्योंकि तब तुम वही न रहोगे जो थे। अनुभव तुमको बदल देगा। जिस क्षण तुम प्रेम में प्रवेश करते हो, तुम एक दूसरे व्यक्ति में प्रवेश करते हो। और तब जब तुम उसके बाहर निकलोगे, तब तुमको तुम्हारा पुराना चेहरा पहचानने को नहीं मिलेगा। वह चेहरा अब तुम्हारा रहा नहीं। एक विच्छिन्नता, एक टूट पैदा हो चुकेगी। अब एक अंतराल आ गया। पुराना आदमी मर चुका और उसकी जगह एक नया आदमी आ गया है। उसे ही पुनर्जन्म कहते हैं, द्विज कहते हैं।

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