Monday, 17 October 2016

तंत्र

तंत्र के लिए करना ही जानना, कोई जानना जानना नहीं। जब तक तुम कुछ करते नहीं, जब तक बदलते नहीं, जब तक बुद्धि के अतिरिक्त किसी अन्य ही आयाम में नहीं प्रवेश करते, तब तक कोई उत्तर नहीं है। उत्तर तो दिए जा सकते हैं, लेकिन वे सब के सब झूठे होंगे। सभी दर्शन झूठे हैं।
तुम एक प्रश्न पूछते हो और दर्शन एक उत्तर दे देता है, उससे तुम चाहे संतुष्ट होते हो या नहीं होते हो। यदि संतुष्ट हुए तो तुम उस दर्शन के अनुयायी हो जाते हो; लेकिन तुम वही के वही रहते हो। और यदि नहीं संतुष्ट हुए तो दूसरे दर्शन की खोज में निकल चलते हो जिनसे संतुष्टि मिल सके। लेकिन तुम वही के वही रहते हो, अछूते रहते हो, अपरिवर्तित रहते हो।
इसलिए तुम हिंदू हो कि मुसलमान हो कि ईसाई हो कि जैन हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। हिंदू मुसलमान या जैन के मुखौटे के पीछे जो असली व्यक्ति है, वह वही रहता है। सिर्फ शब्दों का या वस्त्रों का भेद है। चाहे वह चर्च जाता हो कि मंदिर जाता हो कि मस्जिद जाता हो, वह वही रहता है। सिर्फ चेहरों का फर्क है। और वे चेहरे झूठे हैं, वे मुखौटे भर हैं। और मुखौटों के पीछे वही आदमी है—वही क्रोध, वही आक्रामकता, वही हिंसा, वही लोभ, वही लिप्सा—सब कुछ वही का वही है। क्या मुस्लिम कामुकता हिंदू कामुकता से भिन्न है? क्या ईसाई हिंसा और हिंदू हिंसा में फर्क है? वह एक ही है। हकीकत एक है; सिर्फ वस्त्र भिन्न हैं।


6 तंत्र को तुम्हारे वस्त्रों से कुछ लेना—देना नहीं है; उसे सीधे तुमसे लेना—देना है। अगर तुम प्रश्न पूछते हो तो उससे इतना ही पता चलता है कि तुम कहां हो। और उससे यह भी पता चलता है कि तुम जहां भी हो, तुमको दिखाई नहीं पड़ता है। एक अंधा आदमी पूछता है. प्रकाश क्या है? और दर्शन बताना शुरू कर देगा कि प्रकाश क्या है। मगर तंत्र केवल यह निष्पत्ति निकालेगा कि प्रकाश के बारे में प्रश्न पूछने वाला महज आख का अंधा है। और तब तंत्र उस आदमी का उपचार शुरू करेगा, उसे बदलने का उपाय करेगा कि उसकी आंखें देख सकें। तंत्र यह नहीं बताएगा कि प्रकाश क्या है, तंत्र सिर्फ यह बताएगा कि तुम किस तरह आख को, दृष्टि को, देखने को उपलब्ध हो सकते हो। और दृष्टि की उपलब्धि के साथ ही उत्तर उपलब्ध हो जाएगा।
इसलिए तंत्र समाधान नहीं देता है, समाधान को उपलब्ध होने की विधि देता है। अब यह समाधान बौद्धिक नहीं होगा। अगर तुम अंधे आदमी को प्रकाश के बारे में कुछ कहोगे तो वह कहना बौद्धिक होगा। और अगर अंधा स्वयं देखने में सक्षम हो जाता है तो वह अस्तित्वगत बात होगी। जब मैं कहता हूं कि तंत्र अस्तित्वगत है तो उसका यही मतलब है।


7  तंत्र के सभी ग्रंथ शिव और देवी के बीच संवाद हैं। देवी पूछती हैं और शिव जवाब देते हैं। सभी तंत्र—ग्रंथ ऐसे ही शुरू होते हैं। क्यों? यह ढंग क्यों?
यह बहुत अर्थपूर्ण है। यह संवाद किन्हीं गुरु और शिष्य के बीच संवाद नहीं है, यह संवाद घटित होता है दो प्रेमियों के बीच। और तंत्र इसके द्वारा एक बहुत अर्थपूर्ण बात की खबर देता है. यह कि गहराई की शिक्षा तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक कि दोनों के, शिष्य और गुरु के बीच प्रेम का संबंध न हो। शिष्य और गुरु को गहरे प्रेमी होना होगा। तब—और तभी—ऊँचाई को, पार को अभिव्यक्त किया जा सकता, प्रकट किया जा सकता।
इसलिए यह प्रेम की भाषा है। शिष्य के लिए प्रेम के भाव में होना जरूरी है। लेकिन इतना काफी नहीं है। दो मित्र भी प्रेम में हो सकते हैं। तंत्र कहता है, शिष्य में प्रेम के अतिरिक्त ग्राहकता होनी चाहिए। तभी कुछ संभव है। शिष्य होने के लिए स्त्री होना जरूरी नहीं है; लेकिन उसके लिए स्त्रैण ग्राहकता का भाव अनिवार्य है। यहां देवी पूछती हैं, स्त्रैण भाव पर यह जोर क्यों?
पुरुष और स्त्री में शारीरिक फर्क ही नहीं है, मानसिक फर्क भी है। यौन शरीर के तल पर ही नहीं, मन के तल पर भी बड़ा फर्क लाता है। स्त्रैण मन का अर्थ है ग्राहकता—समग्र ग्राहकता, समर्पण, प्रेम। शिष्य को उसी स्त्रैण मन की आवश्यकता है, अन्यथा वह नहीं सीख पाएगा। तुम पूछ तो सकते हो, लेकिन अगर खुले नहीं हो, तो उत्तर तुमको नहीं मिल सकता। प्रश्न पूछकर भी तुम बंद रह सकते हो। उस हालत में उत्तर तुम में प्रवेश नहीं करेगा। तुम्हारे द्वार—दरवाजे बंद हैं, तुम मृत हो। तुम खुले जो नहीं हो।
स्त्रैण ग्राहकता का अर्थ है. गहरे में गर्भ जैसी ग्राहकता, ताकि तुम ग्रहण कर सको, ले सको। उतना ही नहीं, उससे भी ज्यादा की जरूरत है। स्त्री कोई चीज ग्रहण ही नहीं करती है, जिस क्षण ग्रहण करती है उसी क्षण वह चीज उसके शरीर का भाग बन जाती है। बच्चा ग्रहीत हुआ। स्त्री गर्भ धारण करती है और गर्भाधान के साथ बच्चा स्त्री के शरीर का अंश बन जाता है। वह विजातीय नहीं रहा, विदेशी नहीं रहा। वह आत्मसात कर लिया गया। अब वह बच्चा कुछ ऐसा नहीं रहा जो कि मां से जुड़ा भर रहेगा, अब वह मां के अंश की तरह, मां की तरह ही जीएगा। बच्चा ग्रहीत ही नहीं होता है, स्त्रैण शरीर सृजनात्मक हो जाता है और बच्चा बढ़ने भी लगता है।
शिष्य को गर्भ जैसी ग्राहकता की जरूरत है। जो कुछ भी ग्रहण किया जाए, उसे मृत ज्ञान की तरह इकट्ठा नहीं करना है; उसे तुम्हारे भीतर बढ़ना चाहिए, उसे तुम्हारा रक्त, हड्डी ही बन जाना चाहिए। अब उसे तुम्हारा हिस्सा बन जाना पड़ेगा। उसे बढ़ने देना है, वृद्धि देनी है। और यही वृद्धि तुमको, ग्राहक को बदलेगी, रूपांतरित करेगी।
यही कारण है कि तंत्र इस उपाय को काम में लाता है। हर ग्रंथ देवी के प्रश्न से शुरू होता है और शिव उसका उत्तर देते हैं। देवी शिव की प्रिया हैं—उनका स्त्रैण अंश।


8 अब आधुनिक मनोविज्ञान, खासकर गहराई का मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य पुरुष और स्त्री दोनों है। कोई भी व्यक्ति न मात्र पुरुष है और न मात्र स्त्री है। प्रत्येक उभयलिंगी है, उसमें दोनों यौन मौजूद हैं। पश्चिम में यह खोज हाल की घटना है, लेकिन तंत्र के लिए हजारों साल से उसकी एक बुनियादी धारणा रही है। तुमने शिव के कुछ चित्र देखे होंगे जिनमें वे अर्धनारीश्वर हैं, आधा पुरुष और आधी नारी। मनुष्य के पूरे इतिहास में यह अपनी तरह की अकेली धारणा है। शिव को उसमें आधे पुरुष और आधी स्त्री की तरह चित्रित किया गया है।
इसलिए देवी प्रिया ही नहीं हैं, शिव की अर्धांगिनी हैं। और जब तक शिष्य गुरु का दूसरा अर्धांग नहीं बन जाता, ऊंचाई की शिक्षा, गुह्य विधियों की शिक्षा नहीं दी जा सकती। जब तुम ऐसे हो जाओगे तो संदेह नहीं बचेगा। जब तुम गुरु के साथ ऐसे एक हो जाओगे—समग्र रूपेण, गहन रूपेण—कि कुछ न रहा, बुद्धि न बची, तब तुम ग्रहण करते हो, तब तुम गर्भ बन जाते हो। और तब गुरु की शिक्षा तुममें वृद्धि पाती है, तुमको बदलने लगती है। यही कारण है कि तंत्र प्रेम की भाषा में लिखा गया।
प्रेम पर, प्रेम की भाषा पर इतना जोर क्यों है? इसलिए कि अगर तुम अपने गुरु के साथ प्रेम में हो तो सारा गेस्टाल्ट बदल जाता है, समूचा दर्शन, समूचा परिदृश्य दूसरा ही हो जाता है। तब बात ही कुछ और है। तब तुम गुरु के शब्द नहीं सुनते हो, तब तुम गुरु को पीते हो। तब शब्द अप्रासंगिक हो जाते हैं; तब शब्दों के बीच का मौन महिमावान हो उठता है। गुरु जो कुछ कहता है, वह अर्थपूर्ण हो सकता है, नहीं भी हो सकता है; उसमें असली चीज उसकी दृष्टि है, मुद्रा है, असली चीज उसकी करुणा है, प्रेम है।

जब तुम गहरे प्रेम में होते हो, तब तुम्हारा मन विसर्जित हो जाता है, नहीं हो जाता है। तब कोई अतीत नहीं रहता है, वर्तमान का क्षण ही सब कुछ हो जाता है। जब तुम प्रेम में होते हो, तब वर्तमान ही मात्र समय होता है। वर्तमान ही सब कुछ है—न अतीत, न भविष्य।

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