|| योन-उर्जा के उर्ध्वगमन में आहार का महत्व ||
आचार्य श्री, यौन-ऊर्जा के संचय और ऊर्ध्वीकरण के संबंध में आहार रसायन, डाइट केमिस्ट्री पर भी कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें।
आहार शब्द बहुत बड़ा है। डाइट से बहुत बड़ा है। पहले आहार शब्द को समझ लें, फिर हम थोड़ी-सी बात करें।
आहार का मतलब है, जो भी हम बाहर से भीतर लेते हैं वह सब आहार है। आंख से देखते हैं एक सुंदर फूल को, तो आहार हो रहा है। आंख सौंदर्य का आहार कर रही है। कान से सुनते हैं एक संगीत को, तो संगीत का आहार हो रहा है। कान ध्वनियों का आहार कर रहा है। किसी के शरीर को स्पर्श करते हैं, हाथ आहार ले रहा है। किसी की सुगंध नासापुटों को छू लेती है, नाक आहार कर रही है। पूरा शरीर आहार कर रहा है, रोआं-रोआं श्वास ले रहा है, रोआं-रोआं स्पर्श ले रहा है। पूरा शरीर ही हमारा आहार यंत्र है। हमारी सारी इंद्रियां बाहर के जगत को भीतर ले जा रही हैं। लेकिन हम सिर्फ भोजन को आहार समझते हैं, उससे भूल होती है।
काम-ऊर्जा के ऊर्ध्वीकरण के लिए समस्त आहार को समझना जरूरी है। क्योंकि हो सकता है, भोजन आपने बिलकुल ऐसा लिया हो जो काम-ऊर्जा को नीचे न ले जाकर ऊपर ले जाने में सहयोगी हो। लेकिन आंख ने ऐसे दृश्य देखे हों कि काम-ऊर्जा को नीचे ले जायें, और कान ने ऐसी ध्वनियां सुनी हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें, और शरीर ने ऐसे स्पर्श किए हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें। तो आहार के पूरे पर्सपेक्टिव को देख लेना जरूरी है।
आंख से भी हम भोजन ले रहे हैं, कान से भी हम भोजन ले रहे हैं, नाक से भी हम भोजन ले रहे हैं, मुंह से भी हम भोजन ले रहे हैं, रोयें-रोयें के स्पर्श से भी हम भोजन ले रहे हैं। चौबीस घंटे हम भोजन कर रहे हैं। बाहर के जगत से बहुत कुछ हममें प्रविष्ट हो रहा है। यह जो प्रवेश हममें हो रहा है, इसके परिणाम होंगे।
स्वभावतः हम जो भी इकट्ठा कर रहे हैं, शरीर में वह कुछ काम करेगा। अगर एक आदमी ने शराब पी ली है तो उसका सारा व्यक्तित्व दूसरा होगा, उसके सारे व्यक्तित्व में मूर्च्छा छा जाएगी। वह वही काम करने लगेगा जो मूर्च्छा में संभव हैं। एक आदमी ने शराब नहीं पी है तो वह वे काम नहीं कर सकेगा, जो मूर्च्छा में ही हो सकते हैं। हम जो भी भोजन ले रहे हैं वह सब परिणाम लाएगा। उसके परिणाम आते ही रहेंगे।
मुसोलिनी से एक भारतीय संगीतज्ञ पं. ओंकार नाथ मिलने गए थे। मुसोलिनी ने आमंत्रण दिया था। संगीतज्ञ इटली गया था, तो उसने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया। तब मुसोलिनी ताकत में था। उसने पं. ओंकार नाथ से भोजन करते समय यह कहा कि मैंने सुना है कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे तो लोग दीवाने होकर उनके आसपास इकट्ठे हो जाते थे! ठीक जाने दें लोगों को, हो जाते होंगे, लेकिन यह विश्वास नहीं होता कि हरिण भी दौड़ आते थे! मोर भी नाचने लगते थे! यह कैसे हो सकता है? पं. ओंकार नाथ ने कहा कि मैं कृष्ण तो नहीं हूं, इसलिए वैसी बांसुरी नहीं बजा सकता, लेकिन थोड़ा-सा क ख ग मैं भी जानता हूं, वह मैं आपको प्रयोग करके ही बताऊं। मुसोलिनी ने कहा, इससे बेहतर क्या होगा।
लेकिन वहां कोई वाद्यऱ्यंत्र भी न था, वहां तो चम्मच-कांटे थे। खाने की मेज पर बैठ कर ये बातें हो रही थीं। तो ओंकार नाथ ने चम्मच और कांटे को उठाकर और चीनी के बर्तनों पर बजाना शुरू कर दिया।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं थोड़ी ही देर में बेहोश हो गया। और मेरा सिर झुक-झुक कर टेबुल से लगने लगा और वह इतने जोर से चम्मच-कांटे पटकने लगे कि मेरा सिर उसकी ताल में टेबुल पर गिरे और उठे। फिर मेरा सिर लहूलुहान हो गया और मैंने चिल्लाकर कहा कि बंद करो यह वाद्य, अन्यथा मैं सिर को कैसे रोकूं! तब उस संगीतज्ञ ने बंद किया। सिर पर खून की बूंदें आ गयीं, सारा सिर छिल गया।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने कहा, मुझे माफ करना, मुझे पता नहीं था कि संगीत का ऐसा परिणाम भीतर हो सकता है कि मैं रोक ही नहीं पा रहा था। शरीर अवश हो गया, सिर मेरे हाथ के बाहर हो गया और मुझे ऐसा लगा कि अब तो मैं मर जाऊंगा। क्योंकि मैं कोशिश करूं! और कोई उपाय नहीं…जितना ही कोशिश करूं, सिर उतना ही और जोर से जाकर टेबुल से टकराने लगा। और ओंकार नाथ ने कहा कि मेरी कोई हैसियत नहीं। कृष्ण के बाबत मैं कोई वक्तव्य दूं, यह ठीक नहीं। लेकिन इतना हो सकता है, तो उतना भी हो सकता है।
इस्लाम ने संगीत को वर्जित किया, इसलिए नहीं कि संगीत अनिवार्य रूप से काम-ऊर्जा को नीचे ले जाता है। लेकिन संगीत के जितने प्रकार प्रचलित हैं, उनमें से निन्यान्बे प्रतिशत काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ ले जानेवाले हैं। शायद एक प्रतिशत संगीत मुश्किल से जगत में बचा है जो ऊर्जा को ऊपर ले जाये। वह भी खोता जा रहा है, उसका भी कोई उपाय बचाने का नहीं दिखायी पड़ता। ऐसे सूफी फकीरों के नृत्य हैं, जिनको देखते- देखते देखनेवाले ध्यानस्थ हो जायें।
गुरजिएफ सूफी फकीरों के दरवेश नृत्य की एक टोली बनाकर सारे यूरोप और अमरीका में घूमता रहा और उसने कहा, सिर्फ देखो और कुछ मत करो। तीस लोगों की टोली है। वे नाचना शुरू करते हैं। फकीरों का नाच है। और जितने लोग बैठे हैं वे थोड़ी देर में ध्यानस्थ हो जाएंगे। वे सिर्फ देखेंगे मूवमेंट्स, वे मूवमेंट्स उनके प्राणों में उतर जाएंगे और उनके भीतर भी करस्पांडिंग मूवमेंट पैदा होंगे। जो बाहर हो रहा है, वही आकृति उनके भीतर भी डोलने लगेगी। बाहर वह जो फकीर नाच रहे हैं, उनके नाचने की जो रिदम और गति है और लय है, वह धीरे-धीरे उनके हृदय की गति और लय बन जाएगी। और उनके भीतर भी कोई नृत्य शुरू हो जाएगा और उनकी ऊर्जा में रूपांतरण हो जाएगा।
आंख से जो हम देखते हैं, कान से जो हम सुनते हैं, ओंठ से जो हम स्वाद लेते हैं, नाक से जो हम गंध लेते हैं, उन सबके संबंध हैं। मंदिरों में घंटे हमने कभी लटकाये थे। हर कोई घंटा मतलब का नहीं है। कुछ विशेष घंटे ही काम के हो सकते हैं।
तिब्बतियों के पास एक विशेष घंटा होता है, शायद आपमें से किसी ने देखा हो। वह घंटा ऐसा लटकाने वाला नहीं होता। बर्तन की तरह बड़ा होता है, और बजाने को उसके अंदर एक गोल डंडा घुमाकर चोट करनी पड़ती है। जैसे एक बाल्टी रखी हो, उसके अंदर गोल घुमाकर डंडे से चोट करनी पड़ती है। उस डंडे और घंटे के बीच चोट का एक विशेष क्रम है। उस चोट करने से, घंटे से जोर की आवाज निकलती है–ॐ मणि पद्मे हुं–यह पूरा सूत्र तिब्बत का उससे निकलता है। और यह सूत्र बार-बार मंदिर में गूंजता रहता है। और इस सूत्र के कुछ उपाय हैं। ये सूत्र हमारे भीतर जाकर कुछ चक्रों पर चोट करना शुरू कर देते हैं और उन चक्रों की शक्ति ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाती है।
ओम का उपयोग भीतर, उसकी गूंज, शक्ति को ऊपर ले जाने के लिए थी। अकेले ओम का ही नहीं, मुसलमान कहते हैं आमीन, वह ओम का ही रूप है। क्रिश्चियन भी कहते हैं, आमीन, वह ओम का ही रूप है। अंग्रेजी में शब्द हैं: ओमनीसाइंट, ओमनीपोटेंट, ओमनीप्रेजेंट, वह सब ओम से ही बने हुए शब्द हैं। ओमनीसाइंट का मतलब है, जिसने ओम को देख लिया। ओम का मतलब है, विराट ब्रह्म। ओमनीप्र्रेजेंट का अर्थ है, जो ओम के साथ मौजूद हो गया। ओमनीपोटेंट का अर्थ है, जो ओम की तरह शक्तिशाली हो गया। जो परमात्मा के बराबर शक्ति-बीज से भर गया।
अब यह जो ओम शब्द है उसमें ए यू एम, अ ऊ म मूल ध्वनियां हैं। ये ध्वनियां अगर व्यवस्था से गुंजायी जायें तो ऊर्जा को ऊपर ले जाने लगती हैं। इससे उलटी ध्वनियां भी हैं, जो चोट की जायें तो ऊर्जा नीचे जाने लगती है।
आज अमरीका में जाज है, टि्वस्ट है, शेक है, और जमाने भर के नृत्य हैं। उन सबकी ध्वनि-लहरी, उन सबके रिदम, सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ ले जानेवाली हैं। इसलिए अगर आप टि्वस्ट देख रहे हों तो थोड़ी देर में आप पायेंगे कि आपके भीतर टि्वस्ट होना शुरू हो गया। आपके भीतर कोई शक्ति डावांडोल होने लगी। आधुनिक जगत में विकसित सभी नृत्य और सभी संगीत की व्यवस्थाएं मनुष्य के काम का शोषण हैं।
इसलिए आहार का मतलब बड़ा है। इसलिए जो भोजन हम ले रहे हैं उसके परिणाम होंगे ही, उसके परिणाम से हम बच नहीं सकते। क्योंकि हमारा पूरा का पूरा जो जीवनऱ्यंत्र है वह साइको केमिकल है। उसमें पीछे मन है, तो नीचे रसायन है। वह रसायन पूरे वक्त काम कर रहा है। केमिस्ट्री हमारे पूरे शरीर में पूरे वक्त काम कर रही है। हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, उसके परिणाम होंगे। ऐसे भी भोजन हैं जो मनुष्य को ज्यादा कामुक बनाते हैं।
मधुमक्खियों के छत्ते में एक खास तरह की जैली होती है। मधुमक्खियों के बाबत आपको शायद थोड़ा पता हो कि मधुमक्खियों में एक ही रानी मक्खी होती है जो बच्चे पैदा करती है। और बाकी सारी मधुमक्खियां, मादा स्त्री मधुमक्खी जो सिर्फ मजदूर का काम करती हैं, उनकी जिंदगी में सेक्स जैसी कोई चीज नहीं होती। फेवरे, जिसने इन मधुमक्खियों का विराट गहन अध्ययन किया है, वह बड़ी हैरानी में पड़ा कि लाखों मधुमक्खियों की जिंदगी में कोई सेक्स क्यों नहीं होता! आखिर वे भी मादा हैं, उनकी जिंदगी में भी सेक्स का यंत्र पूरा है, लेकिन फिर भी सेक्स नहीं है। बात क्या है? तो उसे बड़ी हैरानी का जो नतीजा निकला वह यह कि मधुमक्खियां खास तरह की जैली इकट्ठी करती हैं जो सिर्फ मादा रानी ही खाती है। बाकी सब मधुमक्खियों को सिर्फ तीन दिन के लिए, जन्म के बाद, वह खाने को मिलती है, उसके बाद खाने को नहीं मिलती। उस जैली में ही सारा राज है।
इसलिए उस जैली को रिजुवीनेशन के लिए कई पागलों ने प्रयोग किया…आदमी को उसकी गोली बनाकर खिला दी जाये तो शायद बूढ़ा आदमी जवान हो जाये। उस जैली से बहुत-सी क्रीम भी लोगों ने बनाई और लाखों स्त्रियों के चेहरे पर पोती कि शायद उस जैली से सौंदर्य प्रगट हो जाये। वह जैली विशेष विटामिन्स लिए हुए है, जो अति-कामुकता पैदा कर देती है।
तो वह जो रानी मधुमक्खी है उसकी कामुकता का हिसाब लगाना मुश्किल है। वह दो हजार अंडे रोज देती है और देती ही चली जाती है। वह करोड़ों अंडे एक ही मादा पैदा कर देती है, इतनी सेक्स ऐक्टीविटी उसके भीतर पैदा हो जाती है।
और अब तो हम जानते हैं कि हारमोन्स की खोज ने बड़ा स्पष्ट कर दिया है कि अगर एक पुरुष को भी स्त्री हारमोन्स के इंजेक्शन दे दिए जायें तो उसका शरीर पुरुष का न रहकर थोड़े दिनों में स्त्री का हो जाएगा। अगर एक स्त्री शरीर को पुरुष-इंजेक्शन दे दिये जायें तो उसका शरीर थोड़े दिनों में स्त्री का न रहकर पुरुष का हो जाएगा। पैंतालीस से पचास साल के बाद आमतौर से कुछ स्त्रियों को मूंछ आनी शुरू हो जाती है। उसका कुल कारण इतना ही है कि स्त्री हारमोन्स कम हो गए और शरीर में पड़े हुए पुरुष हारमोन प्रभावी होने लगे, इसलिए मूंछ आनी शुरू हो जायेगी। स्त्रियों की आवाज पचास साल के बाद पुरुषों से मेल खाने लगेगी। उसका कुल कारण यही है कि पुरुष हारमोन और स्त्री हारमोन का अनुपात टूट गया। स्त्री हारमोन कम हो गए, पुरुष हारमोन अनुपात में ज्यादा हो गए, तो आवाज में बदलाहट हो जाएगी। ये सारे केमिकल मामले हैं।
हम जो भोजन ले रहे हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर है। हम कैसा भोजन ले रहे हैं, इस भोजन में यदि मादक तत्व हैं, इस भोजन में यदि मूर्च्छा लानेवाले तत्व हैं, तो वे शरीर-ऊर्जा को, काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। इस भोजन में अगर उत्तेजक स्टिमुलेंट हैं, एक्टीवाइजर्स हैं, तो वे शरीर की काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। अगर इस भोजन में ट्रैंकोलाइजर्स हैं, और शामक तत्व हैं जो कि मन को शांत करते हैं, उत्तेजित नहीं करते हैं, तो वे ऊर्जा को ऊपर की तरफ ले जाने में सहयोगी होंगे।
यह तो बहुत बड़ी बात है, लेकिन सिद्धांत की बात खयाल में लाई जा सकती है। जो तत्व उत्तेजना देते हों, जो तत्व मूर्च्छा देते हों, मादकता देते हों, जो तत्व शरीर को भारी कर देते हों, मन को बोझिल कर देते हों, उस तरह के भोजन से निरंतर बचना चाहिए। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को भारी न कर जाये। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को उत्तेजित न कर जाये। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को मादकता न दे, मूर्च्छा न दे, तंद्रा और निद्रा लानेवाला न बने। तो ऐसा भोजन साधक के लिए सहयोगी होता है। और उसके ऊपर की यात्रा का रास्ता बन जाता है।
अगर इसके विपरीत भोजन है, तो साधक की यात्रा कठिन हो जाती है। ऐसा नहीं है कि नहीं हो सकती है, हो सकती है, लेकिन व्यर्थ की कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं। गलत भोजन करके भी साधक ऊपर की तरफ जा सकता है, लेकिन व्यर्थ की कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं।
और जब मैंने आहार की पूरी बात कही तो इसको भी ध्यान में ले लेना जरूरी है। जो साधक है, जो अपनी काम-ऊर्जा को ऊपर ले जाना चाहता है, वह सभी कुछ नहीं पढ़ेगा, वह सभी कुछ नहीं देखेगा, वह सभी कुछ नहीं सुनेगा। वह इस बात का विचार करके सुनेगा कि जो संगीत उत्तेजित करता है, वह व्यर्थ है। जो संगीत शांत करता है, वह सार्थक है। वह ऐसे दृश्य नहीं देखेगा जो उत्तेजना से भर देते हैं।
अब आपने देखा होगा…फिल्म भी अगर आप देख रहे हैं तो अक्सर वैसी ही फिल्म ज्यादा देखी जाती हैं जो थ्रीलिंग हैं, जो उत्तेजक हैं, जिनमें आपके रोयें-रोयें खड़े हो जायें और रोंगटे खड़े हो जायें। जो रोमांचकारी हैं। इसलिए फिल्म का एडवरटाइज करने वाला अपनी फिल्म के एडवरटाइज के लिए लिखेगा कि ऐसी रोमांचक फिल्म कभी नहीं बनी, आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। लेकिन जिस फिल्म में आपके रोंगटे खड़े हो रहे हैं, आप गलत आहार कर रहे हैं। वह उत्तेजक है, डिटेक्टिव है, हत्या है, खून है, वह सब का सब आपको उत्तेजना से भर रहा है।
अगर फिल्म को देखते वक्त आप किसी दिन फिल्म न देखें, कोने में खड़े हो जायें और लोगों को देखें, फिल्म मत देखें। तो आपको पता चल जाएगा कि कौन सी चीज उत्तेजित करती है। जब उत्तेजना का चित्र आएगा तो सारे लोग अपनी कुर्सियां छोड़कर रीढ़ को सीधा कर लेंगे, सांसें उनकी ठहर जाएंगी, कि पता नहीं सांस के लेने में कोई चीज चूक न जाये। बिलकुल वे थिर हो जाएंगे। जब उत्तेजक चित्र चला जाएगा, फिर वे अपनी कुर्सी पर वापस टिक जायेंगे, फिर वे आराम से देखने लगेंगे। जितनी बार किसी फिल्म में आदमी कुर्सी छोड़कर बैठ जाता है, उतनी ही उसकी सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ जाने में सुविधा बनेगी।
लेकिन हम रास्ते पर भी सब कुछ देख रहे हैं, बिना फिक्र किए कि सब कुछ देखना अनिवार्य नहीं है, न उचित है। न सब कुछ देखना-पढ़ना अनिवार्य है, न उचित है। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। वह वही भीतर ले जाये जो उसकी जिंदगी को ऊपर ले जानेवाला है। और अगर उसे जिंदगी को नीचे ही ले जाना है तो भी सोच समझ कर ले जाये। फिर वही ले जाये जो नीचे ले जाने वाला है।
लेकिन हमें कुछ पता नहीं है। हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं, एक हाथ नीचे भी मारते हैं। सुबह चर्च भी हो आते हैं, सांझ फिल्म भी देख आते हैं। चर्च में चर्च की घंटी भी सुन लेते हैं, होटल में जाकर नृत्य भी देख आते हैं। हम इस तरह से अपनी जिंदगी को अपने हाथों से काटते रहते हैं। इस तरह हम अपनी जिंदगी को दोनों तरफ फैलाये रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते।
निर्णय चाहिए। नीचे जाना है तो जायें और पूरा नर्क तक छू कर लौटें। लेकिन तब भी व्यवस्था चाहिए, तब भी साधना चाहिए। तब फिर ऊपर की बातों को छोड़ दें। फिर चर्च की तरफ भूलकर मत देखें, फिर मंदिर की तरफ मुड़कर भी न जायें, फिर कभी गीता से कोई संबंध न बनायें, फिर साधु से बचें, फिर इनको भूल जायें कि ये दुनिया में हैं, फिर ये बुद्ध, महावीर, कृष्ण, इनके नाम भी न लें। क्योंकि ये ठीक लोग नहीं हैं, आपकी यात्रा में बाधा बनेंगे। आपको नर्क जाना है, अपनी गाड़ी पकड़ें और अपनी गाड़ी पर मजबूती से रुके रहें।
लेकिन आदमी अजीब है, एक पांव नर्क की गाड़ी पर रखे रहता है, एक पांव स्वर्ग की गाड़ी पर रखे रहता है। कहीं भी नहीं पहुंच पाता। यह सारी जिंदगी एक घसीटन बन जाती है। वह यहां से वहां तक घसीटता रहता है। आदमी ऐसी बैलगाड़ी है जिसमें दोनों तरफ बैल जोत दिए हैं। वे दोनों तरफ खींचते रहते हैं। कभी यह बैल थोड़ा खींच लेता है, फिर मन पछताता है कि नर्क चूक गया, थोड़ा इस तरफ चलें। फिर थोड़ा नर्क की तरफ गए कि फिर मन पछताता है, कहीं स्वर्ग न चूक जाये, थोड़ा उस तरफ चलें। और सारी जिंदगी ऐसे ही बीत जाती है, बैलगाड़ी कहीं पहुंच नहीं पाती। अस्थिपंजर ढीले हो जाते हैं और बैल मर जाते हैं। फिर नई दुनिया, फिर नई जिंदगी, फिर वही काम हम पुरानी आदत से शुरू करते हैं।
यह निर्णय करें कि कहां जाना है, निर्णय करें क्या होना है, निर्णय करें क्या पाना है, निर्णय करें क्या लक्ष्य है, क्या दिशा है, क्या आयाम है। फिर उस निर्णय के अनुसार चलना शुरू करें, उस निर्णय के अनुसार जिंदगी में सब बदलें। आंख, कान, मुंह, हाथ सब को बदलें। फिर वही स्पर्श करें जो परमात्मा की तरफ ले जानेवाला हो। फिर वही सुनें जिसकी झंकार प्राणों को छुए और वह ऊपर उठ आये। फिर वही खायें जो जीवन को ऊंचा उठाता है और हल्का करता है। फिर वही देखें जो आंखों में दीया बन जाता है और अंधेरे को दूर करता है। और फिर सब कुछ बदल दें।
मंदिर में भी एक सुगंध है। मुसलमान फकीरों ने कुछ सुगंधें चुनी थीं। इस मुल्क में हिंदू संन्यासियों ने भी कुछ सुगंधें चुनी थीं। उन सुगंधों का कुछ आधार है। उनका कुछ कारण है। जब आदमी किसी गहरे ध्यान में पहुंचता है तो अक्सर जैसी चंदन की गंध होती है, वैसी गंध से भर जाता है। इसलिए तो मंदिर में हमने चंदन को जलाना शुरू किया कि शायद यह गंध किसी के भीतर की गंध को चोट करे और स्मरण दिला दे। जब कोई आदमी ध्यान की किसी स्थिति में पहुंच जाता है तो ऐसी गंध से भर जाता है जैसे लोभान की गंध होती है। इसलिए मुसलमान फकीरों ने लोभान को चुना कि शाायद लोभान की गंध किसी के भीतर सोयी हुई गंध को चोट मार दे और उठा दे। यह सब कुछ चुनाव है, यह सब अकारण नहीं है। इस सबके पीछे कारण है।
एक छोटी-सी बात फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। मुझे कल किसी मित्र ने पूछा कि आपने गैरिक वस्त्र क्यों संन्यास के लिए चुना?
कारण है उसका। जैसे-जैसे चित्त शांत होता है भीतर, वैसे-वैसे सूर्योदय का प्रकाश भीतर फैलना शुरू हो जाता है। वह गैरिक होता है। वह गेरुवे वस्त्र बाहर से उस भीतर के रंग को चोट करते रहें, यही गैरिक वस्त्रों के चुनाव का अर्थ है। रोज-रोज देखता रहे, उठाये, पहने, सोये, उठे, देखता रहे तो शायद उसके भीतर जो सोया हुआ रंग है, एक नये सूर्योदय का। वह जो ध्यान में कभी प्रकट होता है। जैसे अभी सूरज नहीं जगा और सुबह की लालिमा फैल गई, सारी प्राची लाल हो गई है। अभी सूरज नहीं आया है सिर्फ प्राची लाल हो गयी है और पक्षी गीत गाने लगे हैं, और सुबह की ठंडी हवाएं बाहर फैल गई हैं, ठीक वैसा ही कभी ध्यान के किसी क्षण में भीतर भी होता है। उस रंग को देखकर ही इस बाहर के रंग को किसी ने चुन लिया था।
दूसरे रंग भी चुने गए हैं, वे भी भीतर देखे गए रंग हैं। उनके चुनाव के भी कारण हैं। मुसलमान फकीरों ने हरा रंग चुन लिया था क्योंकि भीतर वह रंग भी देखा जाता है। बुद्ध के साधकों ने पीला रंग चुन लिया था। वह रंग भी भीतर देखा जाता है। थियोसाफिकल सोसाइटी ने कभी एक रंग के लिए सारी दुनिया के बाजारों में खोज की थी–एक नीले रंग के लिए। कर्नल अल्काट को एक रंग ध्यान में दिखायी पड़ा और उस रंग को सारी दुनिया के बाजारों में खोजने के लिए आदमी भेजे गए। क्योंकि अल्काट का कहना था, उसी रंग का उपयोग साधक के लिए करना है। बड़ी मुश्किल हुई, वर्षों खोज हुई, ठीक रंग नहीं मिलता था। नीले के बहुत शेड मिलते थे, लेकिन अल्काट कह देता कि यह वह रंग नहीं है। आखिर दोत्तीन साल के बाद इटली के एक बाजार में कहीं वह रंग मिला और तब अल्काट ने कहा कि ठीक है, अब वह रंग मिल गया जो मैंने देखा था। यह रंग काम करेगा। उस रंग को देखने से, जो अल्काट ने रंग देखा था, दूसरे व्यक्ति के भीतर भी झंकार पैदा हो सकती है। वह रंग जगा सकता है।
गैरिक रंग सूर्योदय का रंग है। और भीतर जब प्राणों का उदय होता है तो वैसा रंग फैल जाता है।
रंग भी, ध्वनि भी, गंध भी, स्वाद भी, स्पर्श भी, सबका चुनाव करना होगा, तब ऊपर की यात्रा शुरू होती है। और हम सब कंफ्यूज्ड हैं, क्योंकि हम सब अनर्गल, असंगत चुनाव करते रहते हैं। अनेक तरह की नाव पर सवार हो जाते हैं। फिर जीवन टूटता है, जीवन नष्ट होता है और हम कहीं पहुंच नहीं पाते हैं।
ओशो,
ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया
आचार्य श्री, यौन-ऊर्जा के संचय और ऊर्ध्वीकरण के संबंध में आहार रसायन, डाइट केमिस्ट्री पर भी कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें।
आहार शब्द बहुत बड़ा है। डाइट से बहुत बड़ा है। पहले आहार शब्द को समझ लें, फिर हम थोड़ी-सी बात करें।
आहार का मतलब है, जो भी हम बाहर से भीतर लेते हैं वह सब आहार है। आंख से देखते हैं एक सुंदर फूल को, तो आहार हो रहा है। आंख सौंदर्य का आहार कर रही है। कान से सुनते हैं एक संगीत को, तो संगीत का आहार हो रहा है। कान ध्वनियों का आहार कर रहा है। किसी के शरीर को स्पर्श करते हैं, हाथ आहार ले रहा है। किसी की सुगंध नासापुटों को छू लेती है, नाक आहार कर रही है। पूरा शरीर आहार कर रहा है, रोआं-रोआं श्वास ले रहा है, रोआं-रोआं स्पर्श ले रहा है। पूरा शरीर ही हमारा आहार यंत्र है। हमारी सारी इंद्रियां बाहर के जगत को भीतर ले जा रही हैं। लेकिन हम सिर्फ भोजन को आहार समझते हैं, उससे भूल होती है।
काम-ऊर्जा के ऊर्ध्वीकरण के लिए समस्त आहार को समझना जरूरी है। क्योंकि हो सकता है, भोजन आपने बिलकुल ऐसा लिया हो जो काम-ऊर्जा को नीचे न ले जाकर ऊपर ले जाने में सहयोगी हो। लेकिन आंख ने ऐसे दृश्य देखे हों कि काम-ऊर्जा को नीचे ले जायें, और कान ने ऐसी ध्वनियां सुनी हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें, और शरीर ने ऐसे स्पर्श किए हों जो ऊर्जा को नीचे ले जायें। तो आहार के पूरे पर्सपेक्टिव को देख लेना जरूरी है।
आंख से भी हम भोजन ले रहे हैं, कान से भी हम भोजन ले रहे हैं, नाक से भी हम भोजन ले रहे हैं, मुंह से भी हम भोजन ले रहे हैं, रोयें-रोयें के स्पर्श से भी हम भोजन ले रहे हैं। चौबीस घंटे हम भोजन कर रहे हैं। बाहर के जगत से बहुत कुछ हममें प्रविष्ट हो रहा है। यह जो प्रवेश हममें हो रहा है, इसके परिणाम होंगे।
स्वभावतः हम जो भी इकट्ठा कर रहे हैं, शरीर में वह कुछ काम करेगा। अगर एक आदमी ने शराब पी ली है तो उसका सारा व्यक्तित्व दूसरा होगा, उसके सारे व्यक्तित्व में मूर्च्छा छा जाएगी। वह वही काम करने लगेगा जो मूर्च्छा में संभव हैं। एक आदमी ने शराब नहीं पी है तो वह वे काम नहीं कर सकेगा, जो मूर्च्छा में ही हो सकते हैं। हम जो भी भोजन ले रहे हैं वह सब परिणाम लाएगा। उसके परिणाम आते ही रहेंगे।
मुसोलिनी से एक भारतीय संगीतज्ञ पं. ओंकार नाथ मिलने गए थे। मुसोलिनी ने आमंत्रण दिया था। संगीतज्ञ इटली गया था, तो उसने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया। तब मुसोलिनी ताकत में था। उसने पं. ओंकार नाथ से भोजन करते समय यह कहा कि मैंने सुना है कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे तो लोग दीवाने होकर उनके आसपास इकट्ठे हो जाते थे! ठीक जाने दें लोगों को, हो जाते होंगे, लेकिन यह विश्वास नहीं होता कि हरिण भी दौड़ आते थे! मोर भी नाचने लगते थे! यह कैसे हो सकता है? पं. ओंकार नाथ ने कहा कि मैं कृष्ण तो नहीं हूं, इसलिए वैसी बांसुरी नहीं बजा सकता, लेकिन थोड़ा-सा क ख ग मैं भी जानता हूं, वह मैं आपको प्रयोग करके ही बताऊं। मुसोलिनी ने कहा, इससे बेहतर क्या होगा।
लेकिन वहां कोई वाद्यऱ्यंत्र भी न था, वहां तो चम्मच-कांटे थे। खाने की मेज पर बैठ कर ये बातें हो रही थीं। तो ओंकार नाथ ने चम्मच और कांटे को उठाकर और चीनी के बर्तनों पर बजाना शुरू कर दिया।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैं थोड़ी ही देर में बेहोश हो गया। और मेरा सिर झुक-झुक कर टेबुल से लगने लगा और वह इतने जोर से चम्मच-कांटे पटकने लगे कि मेरा सिर उसकी ताल में टेबुल पर गिरे और उठे। फिर मेरा सिर लहूलुहान हो गया और मैंने चिल्लाकर कहा कि बंद करो यह वाद्य, अन्यथा मैं सिर को कैसे रोकूं! तब उस संगीतज्ञ ने बंद किया। सिर पर खून की बूंदें आ गयीं, सारा सिर छिल गया।
मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने कहा, मुझे माफ करना, मुझे पता नहीं था कि संगीत का ऐसा परिणाम भीतर हो सकता है कि मैं रोक ही नहीं पा रहा था। शरीर अवश हो गया, सिर मेरे हाथ के बाहर हो गया और मुझे ऐसा लगा कि अब तो मैं मर जाऊंगा। क्योंकि मैं कोशिश करूं! और कोई उपाय नहीं…जितना ही कोशिश करूं, सिर उतना ही और जोर से जाकर टेबुल से टकराने लगा। और ओंकार नाथ ने कहा कि मेरी कोई हैसियत नहीं। कृष्ण के बाबत मैं कोई वक्तव्य दूं, यह ठीक नहीं। लेकिन इतना हो सकता है, तो उतना भी हो सकता है।
इस्लाम ने संगीत को वर्जित किया, इसलिए नहीं कि संगीत अनिवार्य रूप से काम-ऊर्जा को नीचे ले जाता है। लेकिन संगीत के जितने प्रकार प्रचलित हैं, उनमें से निन्यान्बे प्रतिशत काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ ले जानेवाले हैं। शायद एक प्रतिशत संगीत मुश्किल से जगत में बचा है जो ऊर्जा को ऊपर ले जाये। वह भी खोता जा रहा है, उसका भी कोई उपाय बचाने का नहीं दिखायी पड़ता। ऐसे सूफी फकीरों के नृत्य हैं, जिनको देखते- देखते देखनेवाले ध्यानस्थ हो जायें।
गुरजिएफ सूफी फकीरों के दरवेश नृत्य की एक टोली बनाकर सारे यूरोप और अमरीका में घूमता रहा और उसने कहा, सिर्फ देखो और कुछ मत करो। तीस लोगों की टोली है। वे नाचना शुरू करते हैं। फकीरों का नाच है। और जितने लोग बैठे हैं वे थोड़ी देर में ध्यानस्थ हो जाएंगे। वे सिर्फ देखेंगे मूवमेंट्स, वे मूवमेंट्स उनके प्राणों में उतर जाएंगे और उनके भीतर भी करस्पांडिंग मूवमेंट पैदा होंगे। जो बाहर हो रहा है, वही आकृति उनके भीतर भी डोलने लगेगी। बाहर वह जो फकीर नाच रहे हैं, उनके नाचने की जो रिदम और गति है और लय है, वह धीरे-धीरे उनके हृदय की गति और लय बन जाएगी। और उनके भीतर भी कोई नृत्य शुरू हो जाएगा और उनकी ऊर्जा में रूपांतरण हो जाएगा।
आंख से जो हम देखते हैं, कान से जो हम सुनते हैं, ओंठ से जो हम स्वाद लेते हैं, नाक से जो हम गंध लेते हैं, उन सबके संबंध हैं। मंदिरों में घंटे हमने कभी लटकाये थे। हर कोई घंटा मतलब का नहीं है। कुछ विशेष घंटे ही काम के हो सकते हैं।
तिब्बतियों के पास एक विशेष घंटा होता है, शायद आपमें से किसी ने देखा हो। वह घंटा ऐसा लटकाने वाला नहीं होता। बर्तन की तरह बड़ा होता है, और बजाने को उसके अंदर एक गोल डंडा घुमाकर चोट करनी पड़ती है। जैसे एक बाल्टी रखी हो, उसके अंदर गोल घुमाकर डंडे से चोट करनी पड़ती है। उस डंडे और घंटे के बीच चोट का एक विशेष क्रम है। उस चोट करने से, घंटे से जोर की आवाज निकलती है–ॐ मणि पद्मे हुं–यह पूरा सूत्र तिब्बत का उससे निकलता है। और यह सूत्र बार-बार मंदिर में गूंजता रहता है। और इस सूत्र के कुछ उपाय हैं। ये सूत्र हमारे भीतर जाकर कुछ चक्रों पर चोट करना शुरू कर देते हैं और उन चक्रों की शक्ति ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाती है।
ओम का उपयोग भीतर, उसकी गूंज, शक्ति को ऊपर ले जाने के लिए थी। अकेले ओम का ही नहीं, मुसलमान कहते हैं आमीन, वह ओम का ही रूप है। क्रिश्चियन भी कहते हैं, आमीन, वह ओम का ही रूप है। अंग्रेजी में शब्द हैं: ओमनीसाइंट, ओमनीपोटेंट, ओमनीप्रेजेंट, वह सब ओम से ही बने हुए शब्द हैं। ओमनीसाइंट का मतलब है, जिसने ओम को देख लिया। ओम का मतलब है, विराट ब्रह्म। ओमनीप्र्रेजेंट का अर्थ है, जो ओम के साथ मौजूद हो गया। ओमनीपोटेंट का अर्थ है, जो ओम की तरह शक्तिशाली हो गया। जो परमात्मा के बराबर शक्ति-बीज से भर गया।
अब यह जो ओम शब्द है उसमें ए यू एम, अ ऊ म मूल ध्वनियां हैं। ये ध्वनियां अगर व्यवस्था से गुंजायी जायें तो ऊर्जा को ऊपर ले जाने लगती हैं। इससे उलटी ध्वनियां भी हैं, जो चोट की जायें तो ऊर्जा नीचे जाने लगती है।
आज अमरीका में जाज है, टि्वस्ट है, शेक है, और जमाने भर के नृत्य हैं। उन सबकी ध्वनि-लहरी, उन सबके रिदम, सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ ले जानेवाली हैं। इसलिए अगर आप टि्वस्ट देख रहे हों तो थोड़ी देर में आप पायेंगे कि आपके भीतर टि्वस्ट होना शुरू हो गया। आपके भीतर कोई शक्ति डावांडोल होने लगी। आधुनिक जगत में विकसित सभी नृत्य और सभी संगीत की व्यवस्थाएं मनुष्य के काम का शोषण हैं।
इसलिए आहार का मतलब बड़ा है। इसलिए जो भोजन हम ले रहे हैं उसके परिणाम होंगे ही, उसके परिणाम से हम बच नहीं सकते। क्योंकि हमारा पूरा का पूरा जो जीवनऱ्यंत्र है वह साइको केमिकल है। उसमें पीछे मन है, तो नीचे रसायन है। वह रसायन पूरे वक्त काम कर रहा है। केमिस्ट्री हमारे पूरे शरीर में पूरे वक्त काम कर रही है। हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, उसके परिणाम होंगे। ऐसे भी भोजन हैं जो मनुष्य को ज्यादा कामुक बनाते हैं।
मधुमक्खियों के छत्ते में एक खास तरह की जैली होती है। मधुमक्खियों के बाबत आपको शायद थोड़ा पता हो कि मधुमक्खियों में एक ही रानी मक्खी होती है जो बच्चे पैदा करती है। और बाकी सारी मधुमक्खियां, मादा स्त्री मधुमक्खी जो सिर्फ मजदूर का काम करती हैं, उनकी जिंदगी में सेक्स जैसी कोई चीज नहीं होती। फेवरे, जिसने इन मधुमक्खियों का विराट गहन अध्ययन किया है, वह बड़ी हैरानी में पड़ा कि लाखों मधुमक्खियों की जिंदगी में कोई सेक्स क्यों नहीं होता! आखिर वे भी मादा हैं, उनकी जिंदगी में भी सेक्स का यंत्र पूरा है, लेकिन फिर भी सेक्स नहीं है। बात क्या है? तो उसे बड़ी हैरानी का जो नतीजा निकला वह यह कि मधुमक्खियां खास तरह की जैली इकट्ठी करती हैं जो सिर्फ मादा रानी ही खाती है। बाकी सब मधुमक्खियों को सिर्फ तीन दिन के लिए, जन्म के बाद, वह खाने को मिलती है, उसके बाद खाने को नहीं मिलती। उस जैली में ही सारा राज है।
इसलिए उस जैली को रिजुवीनेशन के लिए कई पागलों ने प्रयोग किया…आदमी को उसकी गोली बनाकर खिला दी जाये तो शायद बूढ़ा आदमी जवान हो जाये। उस जैली से बहुत-सी क्रीम भी लोगों ने बनाई और लाखों स्त्रियों के चेहरे पर पोती कि शायद उस जैली से सौंदर्य प्रगट हो जाये। वह जैली विशेष विटामिन्स लिए हुए है, जो अति-कामुकता पैदा कर देती है।
तो वह जो रानी मधुमक्खी है उसकी कामुकता का हिसाब लगाना मुश्किल है। वह दो हजार अंडे रोज देती है और देती ही चली जाती है। वह करोड़ों अंडे एक ही मादा पैदा कर देती है, इतनी सेक्स ऐक्टीविटी उसके भीतर पैदा हो जाती है।
और अब तो हम जानते हैं कि हारमोन्स की खोज ने बड़ा स्पष्ट कर दिया है कि अगर एक पुरुष को भी स्त्री हारमोन्स के इंजेक्शन दे दिए जायें तो उसका शरीर पुरुष का न रहकर थोड़े दिनों में स्त्री का हो जाएगा। अगर एक स्त्री शरीर को पुरुष-इंजेक्शन दे दिये जायें तो उसका शरीर थोड़े दिनों में स्त्री का न रहकर पुरुष का हो जाएगा। पैंतालीस से पचास साल के बाद आमतौर से कुछ स्त्रियों को मूंछ आनी शुरू हो जाती है। उसका कुल कारण इतना ही है कि स्त्री हारमोन्स कम हो गए और शरीर में पड़े हुए पुरुष हारमोन प्रभावी होने लगे, इसलिए मूंछ आनी शुरू हो जायेगी। स्त्रियों की आवाज पचास साल के बाद पुरुषों से मेल खाने लगेगी। उसका कुल कारण यही है कि पुरुष हारमोन और स्त्री हारमोन का अनुपात टूट गया। स्त्री हारमोन कम हो गए, पुरुष हारमोन अनुपात में ज्यादा हो गए, तो आवाज में बदलाहट हो जाएगी। ये सारे केमिकल मामले हैं।
हम जो भोजन ले रहे हैं उस पर बहुत कुछ निर्भर है। हम कैसा भोजन ले रहे हैं, इस भोजन में यदि मादक तत्व हैं, इस भोजन में यदि मूर्च्छा लानेवाले तत्व हैं, तो वे शरीर-ऊर्जा को, काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। इस भोजन में अगर उत्तेजक स्टिमुलेंट हैं, एक्टीवाइजर्स हैं, तो वे शरीर की काम-ऊर्जा को नीचे की तरफ प्रवाहित करेंगे। अगर इस भोजन में ट्रैंकोलाइजर्स हैं, और शामक तत्व हैं जो कि मन को शांत करते हैं, उत्तेजित नहीं करते हैं, तो वे ऊर्जा को ऊपर की तरफ ले जाने में सहयोगी होंगे।
यह तो बहुत बड़ी बात है, लेकिन सिद्धांत की बात खयाल में लाई जा सकती है। जो तत्व उत्तेजना देते हों, जो तत्व मूर्च्छा देते हों, मादकता देते हों, जो तत्व शरीर को भारी कर देते हों, मन को बोझिल कर देते हों, उस तरह के भोजन से निरंतर बचना चाहिए। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को भारी न कर जाये। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को उत्तेजित न कर जाये। भोजन ऐसा होना चाहिए जो शरीर को मादकता न दे, मूर्च्छा न दे, तंद्रा और निद्रा लानेवाला न बने। तो ऐसा भोजन साधक के लिए सहयोगी होता है। और उसके ऊपर की यात्रा का रास्ता बन जाता है।
अगर इसके विपरीत भोजन है, तो साधक की यात्रा कठिन हो जाती है। ऐसा नहीं है कि नहीं हो सकती है, हो सकती है, लेकिन व्यर्थ की कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं। गलत भोजन करके भी साधक ऊपर की तरफ जा सकता है, लेकिन व्यर्थ की कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं।
और जब मैंने आहार की पूरी बात कही तो इसको भी ध्यान में ले लेना जरूरी है। जो साधक है, जो अपनी काम-ऊर्जा को ऊपर ले जाना चाहता है, वह सभी कुछ नहीं पढ़ेगा, वह सभी कुछ नहीं देखेगा, वह सभी कुछ नहीं सुनेगा। वह इस बात का विचार करके सुनेगा कि जो संगीत उत्तेजित करता है, वह व्यर्थ है। जो संगीत शांत करता है, वह सार्थक है। वह ऐसे दृश्य नहीं देखेगा जो उत्तेजना से भर देते हैं।
अब आपने देखा होगा…फिल्म भी अगर आप देख रहे हैं तो अक्सर वैसी ही फिल्म ज्यादा देखी जाती हैं जो थ्रीलिंग हैं, जो उत्तेजक हैं, जिनमें आपके रोयें-रोयें खड़े हो जायें और रोंगटे खड़े हो जायें। जो रोमांचकारी हैं। इसलिए फिल्म का एडवरटाइज करने वाला अपनी फिल्म के एडवरटाइज के लिए लिखेगा कि ऐसी रोमांचक फिल्म कभी नहीं बनी, आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे। लेकिन जिस फिल्म में आपके रोंगटे खड़े हो रहे हैं, आप गलत आहार कर रहे हैं। वह उत्तेजक है, डिटेक्टिव है, हत्या है, खून है, वह सब का सब आपको उत्तेजना से भर रहा है।
अगर फिल्म को देखते वक्त आप किसी दिन फिल्म न देखें, कोने में खड़े हो जायें और लोगों को देखें, फिल्म मत देखें। तो आपको पता चल जाएगा कि कौन सी चीज उत्तेजित करती है। जब उत्तेजना का चित्र आएगा तो सारे लोग अपनी कुर्सियां छोड़कर रीढ़ को सीधा कर लेंगे, सांसें उनकी ठहर जाएंगी, कि पता नहीं सांस के लेने में कोई चीज चूक न जाये। बिलकुल वे थिर हो जाएंगे। जब उत्तेजक चित्र चला जाएगा, फिर वे अपनी कुर्सी पर वापस टिक जायेंगे, फिर वे आराम से देखने लगेंगे। जितनी बार किसी फिल्म में आदमी कुर्सी छोड़कर बैठ जाता है, उतनी ही उसकी सेक्स-ऊर्जा को नीचे की तरफ जाने में सुविधा बनेगी।
लेकिन हम रास्ते पर भी सब कुछ देख रहे हैं, बिना फिक्र किए कि सब कुछ देखना अनिवार्य नहीं है, न उचित है। न सब कुछ देखना-पढ़ना अनिवार्य है, न उचित है। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। वह वही भीतर ले जाये जो उसकी जिंदगी को ऊपर ले जानेवाला है। और अगर उसे जिंदगी को नीचे ही ले जाना है तो भी सोच समझ कर ले जाये। फिर वही ले जाये जो नीचे ले जाने वाला है।
लेकिन हमें कुछ पता नहीं है। हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं, एक हाथ नीचे भी मारते हैं। सुबह चर्च भी हो आते हैं, सांझ फिल्म भी देख आते हैं। चर्च में चर्च की घंटी भी सुन लेते हैं, होटल में जाकर नृत्य भी देख आते हैं। हम इस तरह से अपनी जिंदगी को अपने हाथों से काटते रहते हैं। इस तरह हम अपनी जिंदगी को दोनों तरफ फैलाये रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते।
निर्णय चाहिए। नीचे जाना है तो जायें और पूरा नर्क तक छू कर लौटें। लेकिन तब भी व्यवस्था चाहिए, तब भी साधना चाहिए। तब फिर ऊपर की बातों को छोड़ दें। फिर चर्च की तरफ भूलकर मत देखें, फिर मंदिर की तरफ मुड़कर भी न जायें, फिर कभी गीता से कोई संबंध न बनायें, फिर साधु से बचें, फिर इनको भूल जायें कि ये दुनिया में हैं, फिर ये बुद्ध, महावीर, कृष्ण, इनके नाम भी न लें। क्योंकि ये ठीक लोग नहीं हैं, आपकी यात्रा में बाधा बनेंगे। आपको नर्क जाना है, अपनी गाड़ी पकड़ें और अपनी गाड़ी पर मजबूती से रुके रहें।
लेकिन आदमी अजीब है, एक पांव नर्क की गाड़ी पर रखे रहता है, एक पांव स्वर्ग की गाड़ी पर रखे रहता है। कहीं भी नहीं पहुंच पाता। यह सारी जिंदगी एक घसीटन बन जाती है। वह यहां से वहां तक घसीटता रहता है। आदमी ऐसी बैलगाड़ी है जिसमें दोनों तरफ बैल जोत दिए हैं। वे दोनों तरफ खींचते रहते हैं। कभी यह बैल थोड़ा खींच लेता है, फिर मन पछताता है कि नर्क चूक गया, थोड़ा इस तरफ चलें। फिर थोड़ा नर्क की तरफ गए कि फिर मन पछताता है, कहीं स्वर्ग न चूक जाये, थोड़ा उस तरफ चलें। और सारी जिंदगी ऐसे ही बीत जाती है, बैलगाड़ी कहीं पहुंच नहीं पाती। अस्थिपंजर ढीले हो जाते हैं और बैल मर जाते हैं। फिर नई दुनिया, फिर नई जिंदगी, फिर वही काम हम पुरानी आदत से शुरू करते हैं।
यह निर्णय करें कि कहां जाना है, निर्णय करें क्या होना है, निर्णय करें क्या पाना है, निर्णय करें क्या लक्ष्य है, क्या दिशा है, क्या आयाम है। फिर उस निर्णय के अनुसार चलना शुरू करें, उस निर्णय के अनुसार जिंदगी में सब बदलें। आंख, कान, मुंह, हाथ सब को बदलें। फिर वही स्पर्श करें जो परमात्मा की तरफ ले जानेवाला हो। फिर वही सुनें जिसकी झंकार प्राणों को छुए और वह ऊपर उठ आये। फिर वही खायें जो जीवन को ऊंचा उठाता है और हल्का करता है। फिर वही देखें जो आंखों में दीया बन जाता है और अंधेरे को दूर करता है। और फिर सब कुछ बदल दें।
मंदिर में भी एक सुगंध है। मुसलमान फकीरों ने कुछ सुगंधें चुनी थीं। इस मुल्क में हिंदू संन्यासियों ने भी कुछ सुगंधें चुनी थीं। उन सुगंधों का कुछ आधार है। उनका कुछ कारण है। जब आदमी किसी गहरे ध्यान में पहुंचता है तो अक्सर जैसी चंदन की गंध होती है, वैसी गंध से भर जाता है। इसलिए तो मंदिर में हमने चंदन को जलाना शुरू किया कि शायद यह गंध किसी के भीतर की गंध को चोट करे और स्मरण दिला दे। जब कोई आदमी ध्यान की किसी स्थिति में पहुंच जाता है तो ऐसी गंध से भर जाता है जैसे लोभान की गंध होती है। इसलिए मुसलमान फकीरों ने लोभान को चुना कि शाायद लोभान की गंध किसी के भीतर सोयी हुई गंध को चोट मार दे और उठा दे। यह सब कुछ चुनाव है, यह सब अकारण नहीं है। इस सबके पीछे कारण है।
एक छोटी-सी बात फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। मुझे कल किसी मित्र ने पूछा कि आपने गैरिक वस्त्र क्यों संन्यास के लिए चुना?
कारण है उसका। जैसे-जैसे चित्त शांत होता है भीतर, वैसे-वैसे सूर्योदय का प्रकाश भीतर फैलना शुरू हो जाता है। वह गैरिक होता है। वह गेरुवे वस्त्र बाहर से उस भीतर के रंग को चोट करते रहें, यही गैरिक वस्त्रों के चुनाव का अर्थ है। रोज-रोज देखता रहे, उठाये, पहने, सोये, उठे, देखता रहे तो शायद उसके भीतर जो सोया हुआ रंग है, एक नये सूर्योदय का। वह जो ध्यान में कभी प्रकट होता है। जैसे अभी सूरज नहीं जगा और सुबह की लालिमा फैल गई, सारी प्राची लाल हो गई है। अभी सूरज नहीं आया है सिर्फ प्राची लाल हो गयी है और पक्षी गीत गाने लगे हैं, और सुबह की ठंडी हवाएं बाहर फैल गई हैं, ठीक वैसा ही कभी ध्यान के किसी क्षण में भीतर भी होता है। उस रंग को देखकर ही इस बाहर के रंग को किसी ने चुन लिया था।
दूसरे रंग भी चुने गए हैं, वे भी भीतर देखे गए रंग हैं। उनके चुनाव के भी कारण हैं। मुसलमान फकीरों ने हरा रंग चुन लिया था क्योंकि भीतर वह रंग भी देखा जाता है। बुद्ध के साधकों ने पीला रंग चुन लिया था। वह रंग भी भीतर देखा जाता है। थियोसाफिकल सोसाइटी ने कभी एक रंग के लिए सारी दुनिया के बाजारों में खोज की थी–एक नीले रंग के लिए। कर्नल अल्काट को एक रंग ध्यान में दिखायी पड़ा और उस रंग को सारी दुनिया के बाजारों में खोजने के लिए आदमी भेजे गए। क्योंकि अल्काट का कहना था, उसी रंग का उपयोग साधक के लिए करना है। बड़ी मुश्किल हुई, वर्षों खोज हुई, ठीक रंग नहीं मिलता था। नीले के बहुत शेड मिलते थे, लेकिन अल्काट कह देता कि यह वह रंग नहीं है। आखिर दोत्तीन साल के बाद इटली के एक बाजार में कहीं वह रंग मिला और तब अल्काट ने कहा कि ठीक है, अब वह रंग मिल गया जो मैंने देखा था। यह रंग काम करेगा। उस रंग को देखने से, जो अल्काट ने रंग देखा था, दूसरे व्यक्ति के भीतर भी झंकार पैदा हो सकती है। वह रंग जगा सकता है।
गैरिक रंग सूर्योदय का रंग है। और भीतर जब प्राणों का उदय होता है तो वैसा रंग फैल जाता है।
रंग भी, ध्वनि भी, गंध भी, स्वाद भी, स्पर्श भी, सबका चुनाव करना होगा, तब ऊपर की यात्रा शुरू होती है। और हम सब कंफ्यूज्ड हैं, क्योंकि हम सब अनर्गल, असंगत चुनाव करते रहते हैं। अनेक तरह की नाव पर सवार हो जाते हैं। फिर जीवन टूटता है, जीवन नष्ट होता है और हम कहीं पहुंच नहीं पाते हैं।
ओशो,
ज्यों की त्यों धर दीन्हीं चदरिया
No comments:
Post a Comment