Thursday 8 February 2018

संभोग : परमात्‍मा की सृजन उर्जा—3

संभोग से समाधि की और—3

संभोग : परमात्‍मा की सृजन उर्जा—3

     रामानुज एक गांव से गुजर रहे थे। एक आदमी ने आकर कहा कि मुझे परमात्‍मा को पाना है। तो उन्‍होंने कहां कि तूने कभी किसी से प्रेम किया है? उस आदमी ने कहा की इस झंझट में कभी पडा ही नहीं। प्रेम वगैरह की झंझट में नहीं पडा। मुझे तो परमात्‍मा का खोजना है।
      रामानुज ने कहा: तूने झंझट ही नहीं की प्रेम की? उसने कहा, मैं बिलकुल सच कहता हूं आपसे।
      वह बेचारा ठीक ही कहा रहा था। क्‍योंकि धर्म की दुनिया में प्रेम एक डिस्‍कवालिफिकेशन है। एक अयोग्‍यता है।
      तो उसने सोचा की मैं कहूं कि किसी को प्रेम किया था, तो शायद वे कहेंगे कि अभी प्रेम-व्रेम छोड़, वह राग-वाग छोड़,पहले इन सबको छोड़ कर आ, तब इधर आना। तो उस बेचारे ने किया भी हो तो वह कहता गया  कि मैंने नहीं किया है। ऐसा कौन आदमी होगा,जिसने थोड़ा बहुत प्रेम नहीं किया हो?
      रामानुज ने तीसरी बार पूछा कि तू कुछ तो बता, थोड़ा बहुत भी, कभी किसी को? उसने कहा, माफ करिए आप क्‍यों बार-बार वही बातें पूछे चले जा रहे है? मैंने प्रेम की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा। मुझे तो परमात्‍मा को खोजना है।
      तो रामानुज ने कहा: मुझे क्षमा कर, तू कहीं और खोज। क्‍योंकि मेरा अनुभव यह है कि अगर तूने किसी को प्रेम किया हो तो उस प्रेम को फिर इतना बड़ा जरूर किया जा सकता है कि वह परमात्‍मा तक पहुंच जाए। लेकिन अगर तूने प्रेम ही नहीं किया है तो तेरे पास कुछ है नहीं जिसको बड़ा किया जा सके। बीज ही नहीं है तेरे पास जो वृक्ष बन सके। तो तू जा कहीं और पूछ।
      और जब पति और पत्‍नी में प्रेम न हो, जिस पत्‍नी ने अपने पति को प्रेम न किया हो और जिस पति ने अपनी पत्‍नी को प्रेम न किया हो, वे बेटों को, बच्‍चों को प्रेम कर सकते है। तो आप गलत सोच रहे है। पत्‍नी उसी मात्रा में बेटे को प्रेम करेगी, जिस मात्रा में उसने अपने पति को प्रेम किया है। क्‍योंकि यह बेटा पति का फल है: उसका ही प्रति फलन है, उसका ही रीफ्लैक्शन है। यह एक बेटे के प्रति जो प्रेम होने वाला है, वह उतना ही होगा,जितना उसके पति को चहा और प्रेम किया है। यह पति की मूर्ति है, जो फिर से नई होकर वापस लौट आयी है। अगर पति के प्रति प्रेम नहीं है, तो बेटे के प्रति प्रेम सच्‍चा कभी भी नहीं हो सकता है। और अगर बेटे को प्रेम नहीं किया गया—पालन पोसना और बड़ा कर देना प्रेम नहीं है—तो बेटा मां को कैसे कर सकता है। बाप को कैसे कर सकता है।
      यह जो यूनिट है जीवन का—परिवा, वह विषाक्‍त हो गया है। सेक्‍स को दूषित कहने से, कण्‍डेम करने से, निन्‍दित करने से।
      और परिवार ही फैल कर पुरा जगत है विश्‍व है।
      और फिर हम कहते है कि प्रेम बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता है। प्रेम कैसे दिखाई पड़ेगा? हालांकि हर आदमी कहता है कि मैं प्रेम करता हूं। मां कहती है, पत्‍नी कहती है, बाप कहता है, भाई कहता है। बहन कहती है। मित्र कहते है। कि हम प्रेम करते है। सारी दुनिया में हर आदमी कहता है कि हम प्रेम करते है। दुनिया में इकट्ठा देखो तो प्रेम कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता। इतने लोग अगर प्रेम करते है। तो दुनिया में प्रेम की वर्षा हो जानी चाहिए, प्रेम की बाढ़ आ जानी चाहिए, प्रेम के फूल खिल जाने चाहिए थे। प्रेम के दिये ही दिये जल जाते। घर-घर प्रेम का दीया होता तो दूनिया में इकट्ठी इतनी प्रेम की रोशनी होती की मार्ग आनंद उत्‍सव से भरे होते।
      लेकिन वहां तो घृणा की रोशनी दिखाई पड़ती है। क्रोध की रोशनी दिखाई पड़ती है। युद्धों की रोशनी दिखाई पड़ती है। प्रेम का तो कोई पता नहीं चलता। झूठी है यह बात और यह झूठ जब तक हम मानते चले जायेंगे,जब तक सत्‍य की दिशा में खोज भी नहीं हो सकती। कोई किसी को प्रेम नहीं कर रहा।
      और जब तक काम के निसर्ग को परिपूर्ण आत्‍मा से स्‍वीकृति नहीं मिल जाती है, तब तक कोई किसी को प्रेम कर ही नहीं सकता। मैं आपसे कहाना चाहता हूं कि काम दिव्‍य है, डिवाइन है।
      सेक्‍स की शक्‍ति परमात्‍मा की शक्‍ति है, ईश्‍वर की शक्‍ति है।
      और इसलिए तो उससे ऊर्जा पैदा होती है। और नये जीवन विकसित होते है। वही तो सबसे रहस्‍यपूर्ण शक्‍ति है, वहीं तो सबसे ज्‍यादा मिस्‍टीरियस फोर्स है। उससे दुश्‍मनी छोड़ दें। अगर आप चाहते है कि कभी आपके जीवन में प्रेम की वर्षा हो जाये तो उससे दुश्‍मनी छोड़ दे। उसे आनंद से स्‍वीकार करें। उसकी पवित्रता को स्‍वीकार करें, उसकी धन्‍यता को स्‍वीकार करें। और खोजें उसमें और गहरे और गहरे—तो आप हैरान हो जायेंगे। जितनी पवित्रता से काम की स्‍वीकृति होगी, उतना ही काम पवित्र होता हुआ चला जायेगा। और जितना अपवित्रता और पाप की दृष्‍टि से काम का विरोध होगा, काम उतना ही पाप-पूर्ण और कुरूप होता चला जायेगा।
       जब कोई अपनी पत्‍नी के पास ऐसे जाये जैसे कोई मंदिर के पास जा रहा है। जब कोई पत्‍नी अपने पति के पास ऐसे जाये जैसे सच में कोई परमात्‍मा के पास जा रहा हो। क्‍योंकि जब दो प्रेमी काम से निकट आते है जब वे संभोग से गुजरते है तब सच में ही वे परमात्‍मा के मंदिर के निकट से गुजर रह है। वहीं परमात्‍मा काम कर रहा है, उनकी उस निकटता में। वही परमात्‍मा की सृजन-शक्‍ति काम कर रही है।
      और मेरी अपनी दृष्‍टि यह है कि मनुष्‍य को समाधि का, ध्‍यान का जो पहला अनुभव मिला है कभी भी इतिहास में,तो वह संभोग के क्षण में मिला है और कभी नहीं। संभोग के क्षण में ही पहली बार यह स्‍मरण आया है आदमी को कि इतने आनंद की वर्षा हो सकती है।
      और जिन्‍होंने सोचा, जिन्‍होंने मेडिटेट किया, जिन लोगों ने काम के संबंध पर और मैथुन पर चिंतन किया और ध्‍यान किया, उन्‍हें यह दिखाई पडा कि काम के क्षण में, मैथुन के क्षण में मन विचारों से शून्‍य हो जाता है। एक क्षण को मन के सारे विचार रूक जाते है। और वह विचारों का रूक जाना और वह मन का ठहर जाना ही आनंद की वर्षा का कारण होता है।
      तब उन्‍हें सीक्रेट मिल गया, राज मिल गया कि अगर मन को विचारों से मुक्‍त किया जा सके किसी और विधि से तो भी इतना ही आनंद मिल सकता है। और तब समाधि और योग की सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। जिनमें ध्‍यान और सामायिक और मेडिटेशन और प्रेयर (प्रार्थना) इनकी सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। इन सबके मूल में संभोग का अनुभव है। और फिर मनुष्‍य को अनुभव हुआ कि बिना संभोग में जाये भी चित शून्‍य हो सकता है। और जा रस की अनुभूति संभोग में हुई थी। वह बिना संभोग के भी बरस सकती है। फिर संभोग क्षणिक हो सकता है। क्‍योंकि शक्‍ति और उर्जा का वहाँ बहाव और निकास है। लेकिन ध्‍यान सतत हो सकता है।
      तो मैं आपसे कहना चाहता हूं, कि एक युगल संभोग के क्षण में जिस आनंद को अनुभव करता है, उस आनंद को एक योगी चौबीस घंटे अनुभव कर सकता है। लेकिन इन दोनों आनंद में बुनियादी विरोध नहीं है। और इसलिए जिन्‍होंने कहा कि विषया नंद और ब्रह्मानंद भाई-भाई है। उन्‍होंने जरूर सत्‍य कहा है। वह सहोदर है, एक ही उदर से पैदा हुए है, एक ही अनुभव से विकसित हुए है। उन्‍होंने निश्‍चित ही सत्‍य कहां है।
      तो पहला सूत्र आपसे कहना चाहता हूं। अगर चाहते है कि पता चले कि प्रेम क्‍या है—तो पहला सूत्र है काम की पवित्रता,दिव्‍यता, उसकी ईश्वरीय अनुभूति की स्‍वीकृति होगी। उतने ही आप काम से मुक्त होते चले जायेगे। जितना अस्‍वीकार होता है,उतना ही हम बँधते है। जैसा वह फकीर कपड़ों से बंध गया था।
      जितना स्‍वीकार होता है उतने हम मुक्‍त होते है।
      अगर परिपूर्ण स्‍वीकार है, टोटल एक्‍सेप्‍टेबिलिटी है जीवन की, जो निसर्ग है उसकी तो आप पाएंगे.....वह परिपूर्ण स्‍वीकृति को मैं आस्‍तिकता व्‍यक्‍ति को मुक्‍त करती है।
      नास्‍तिक मैं उनको कहता हूं, जो जीवन के निसर्ग को अस्‍वीकार करते है, निषेध करते है। यह बुरा है, पाप है, यह विष है, यह छोड़ो , वह छोड़ो। जो छोड़ने की बातें कर रहे है, वह ही नास्‍तिक है।
      जीवन जैसा है, उसे स्‍वीकार करो और जीओं उसकी परिपूर्णता में। वही परिपूर्णता रोज-रोज सीढ़ियां ऊपर उठती जाती है। वही स्‍वीकृति मनुष्‍य को ऊपर ले जाती है। और एक दिन उसके दर्शन होते है,जिसका काम में पता भी नहीं चलता था। काम अगर कोयला था तो एक दिन हीरा भी प्रकट होता है प्रेम का। तो पहला सूत्र यह है।
      दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं, और वह दूसरा सूत्र संस्‍कृति ने, आज तक की सभ्‍यता ने और धर्मों ने हमारे भीतर मजबूत किया है। दूसरा सूत्र भी स्‍मरणीय है, क्‍योंकि पहला सूत्र तो काम की ऊर्जा को प्रेम बना देगा। और दूसरा सूत्र द्वार की तरह रोके हुए है उस ऊर्जा को बहने से—वह बह नहीं पायेगी। (क्रमश: अगल अंक में पढ़े.......)

--ओशो
संभोग से समाधि की और
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499 

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