Friday 9 February 2018

आत्‍म—स्‍मरण और विधायक दृष्‍टि

तंत्र--सूत्र--(भाग--3)--प्रवचन--36

आत्‍म—स्‍मरण और विधायक दृष्‍टि—(प्रवचन—छत्‍तीसवां)

प्रश्‍न—सार:

1—आत्‍म--स्‍मरणमानव मन को कैसे रूपांतरित करता है?
2—विधायक पर जोर क्‍या समग्र स्‍वीकार के विपरीत नहीं है?
3—इस मायावी जगत में गुरु की क्‍या भूमिका और सार्थकता है?



पहला प्रश्न :

आत्म—सरण अल्प— स्मरण की साधना मनुष्य के मन को कैसे रूपांतरित कर सकती है?

नुष्‍य अपने में केंद्रित नहीं हैवह अपने केंद्र पर नहीं है। वह जन्म तो लेता है केंद्रित की तरहलेकिन समाज,परिवारसंस्कृतिसब उसे केंद्र से च्युत कर देते हैंबाहर कर देते हैं। वे यह काम जाने— अनजाने बहुत तरकीब से करते हैं। और इस तरह हरेक आदमी केंद्र से च्युत हो जाता हैभटक जाता है। इसके कारण हैं और वे कारण मनुष्य के जीवन—संघर्ष से संबंधित हैं। बच्चा जब जन्म लेता है तो उसे एक अनुशासन देना पड़ता हैउसे स्वतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता। अगर उसे पूरी स्वतंत्रता दे दी जाए तो वह स्व—केंद्रित रहेगासहज स्वभाव से जीएगानैसर्गिक होकर जीएगा। तब वह मौलिक होगाजैसा है वैसा ही होगाप्रामाणिक होगा। और तब आत्म—स्मरण साधने की जरूरत नहीं होगीक्योंकि वह कभी केंद्र से च्‍युत नहीं होगा। वह केंद्रित होगाआत्म—स्थित होगा।
लेकिन यह अब तक संभव नहीं हुआ है। इसलिए ध्यान की जरूरत होती है। ध्यान औषधि है। समाज रोग निर्मित करता है और फिर रोग का इलाज करना पड़ता है। धर्म औषधि है। अगर सचमुच एक ऐसा मानव—समाज विकसित हो जो स्वतंत्रता पर आधारित हो तो धर्म की कोई जरूरत न रहे। लेकिन क्योंकि हम बीमार हैंहमें औषधि की जरूरत पड़ती है। और क्योंकि हम केंद्र से च्युत हैंहमारे लिए केंद्रित होने के उपाय जरूरी हो जाते हैं। अगर किसी दिन धरती पर एक स्वस्थ समाजआंतरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से स्वस्थ समाज बनाना संभव हो जाए तो धर्म नहीं रहेगा।
लेकिन ऐसा समाज बनाना कठिन मालूम पड़ता है। बच्चे को अनुशासन देना जरूरी है। लेकिन जब तुम बच्चे को अनुशासित करते हो तो क्या करते होतुम उस पर कुछ थोपते हो जो उसके अनुकूल नहीं हैजो उसके लिए स्वाभाविक नहीं है। तुम उससे कुछ ऐसी मल करते हो जिसे वह सहज भाव से कभी नहीं पूरा कर सकेगा। फिर तुम उसे दंडित करोगे, उसकी सराहना करोगेउसे रिश्वत दोगे—तुम उसे सामाजिक बनाने के लिए सब कुछ करोगेतुम उसे उसके प्राकृतिक जीवन से च्‍युत कर दोगे। तुम उसके चित्त में एक नया केंद्र निर्मित कर दोगे जो वहा कभी नहीं था। और यह केंद्र बढ़ेगाबड़ा होगा और प्राकृतिक केंद्र विस्मृत हो जाएगाअचेतन में दब जाएगा। तुम्‍हारा प्राकृतिक केंद्र अचेतन में, अंधकार में दब जाएगा और तुम्हारा अप्राकृतिक केंद्र तुम्हारा चेतन बन जाएगा।
वास्तव में अचेतन और चेतन के बीच कोई विभाजन नहीं हैविभाजन निर्मित किया गया है। तुम अखंड चेतना हो। यह विभाजन हो गया हैक्योंकि तुम्हारा अपना केंद्र किसी अंधेरे तलघर में दब गया है। तुम अभी अपने केंद्र के संपर्क में नहीं हो,तुम्हें भी उससे संपर्क करने की स्वीकृति नहीं है। तुम खुद भूल गए हो कि मेरा कोई केंद्र है। और तुम वैसे जीते हो जैसे समाज नेसंस्कृति नेपरिवार ने तुम्हें जीना सिखा दिया है। तुम एक झूठा जीवन जीते हो।
इस झूठे जीवन के लिए एक झूठे केंद्र की जरूरत है। तुम्हारा अहंकार वही झूठा केंद्र हैतुम्हारा चेतन मन वह झूठा केंद्र है। यही कारण है कि तुम कुछ भी करोतुम आनंदित नहीं हो सकते हो। आनंदित होने के लिए सच्चा केंद्र चाहिएसच्चा केंद्र ही विस्फोट को उपलब्ध हो सकता है। सच्चा केंद्र ही आनंद की परम संभावना कोउसके शिखर को उपलब्ध हो सकता है। झूठा केंद्र तो धूप—छाया का खेल है। तुम इससे मन को बहला सकते होतुम इससे आशा बांध सकते होलेकिन अंततः इससे निराशा के अतिरिक्‍त कुछ हाथ नहीं आता है। झूठे केंद्र के साथ यही हो सकता है।
एक ढंग से सब कुछ तुम्हें स्वयं न होने के लिए बाध्य कर रहा है। और सिर्फ इतना कहकर इसे नहीं बदला जा सकता कि यह गलत हैक्योंकि समाज की अपनी जरूरतें हैं।
एक बच्चा जब जन्म लेता है तो वह ठीक एक पशु की भांति होता है—सहजकेंद्रितआधारित लेकिन बिलकुल स्वतंत्र। वह किसी संगठन का अंग नहीं बन सकता है। वह अभी उपद्रवी है। उसे दबाना— धमकाना होगाउसे प्रशिक्षित करना होगाउसे संस्कारित करना होगाउसे बदलना होगा। और इस प्रयत्न में उसे उसके केंद्र से हटाना जरूरी होगा।
हम परिधि पर जीते हैं और हम उतना ही जीते हैं जितना जीने की समाज इजाजत देता है। हमारी स्वतंत्रता भी झूठी है। क्योंकि ये खेल के नियमसामाजिक खेल के नियम तुममें इतनी गहरी जड़ जमाए हैं कि तुम्हें ऐसा लग सकता है कि तुम चुनाव कर रहे होलेकिन दरअसल तुम चुनाव नहीं कर रहे हो। यह चुनाव तुम्हारे संस्कारित मन से आता हैऔर यह बिलकुल यांत्रिक ढंग से चलता रहता है।
मुझे एक व्यक्ति का स्मरण आता है जिसने अपने जीवन में आठ स्त्रियों से विवाह किया। पहले उसने एक स्त्री से विवाह किया और उसे तलाक दे दिया। फिर उसने बहुत—बहुत सोच—समझकरबहुत सजगता से देख—सुनकर दूसरी स्त्री से विवाह किया। उसने सब भांति हिसाब लगाया कि पुराने फंदे में फिर न पड़े। और वह सोचता था कि नयी स्त्री पहली स्त्री से बिलकुल भिन्न होगी। लेकिन कुछ ही दिनों के अंदरअभी जब कि हनीमून के दिन भी नहीं बीते थेनयी स्त्री पुरानी स्त्रीपहली स्त्री जैसा ही व्यवहार करने लगी। और छह महीनों के भीतर यह विवाह भी खतम हो गया। फिर उसने तीसरी स्त्री से विवाह किया और इस बार उसने और भी अधिक सावधानी बरती। लेकिन फिर वही बात हुई।
इस तरह उसने आठ विवाह किए और हर बार स्त्री वही की वही निकली जैसी पहली थी। क्या हुआचुनाव तो वह बहुत—बहुत सावधानी सेबहुत सोच—विचार कर करता था।
फिर क्या होता थाजो चुनाव करने वाला था वह मूर्च्छित थाबेहोश था। वह चुनाव करने वाले को नहीं बदल सकाचुनाव करने वाला सदा वही का वही रहा। इसलिए चुनाव भी वही का वही रहता था। और चुनाव करने वाला सदा बेहोशी में काम करता है।
दृष्टि तुम यह—वह किए जाते होतुम बाहरी वस्तुओं को बदलते रहते हो। लेकिन तुम खुद वही के वही बने रहते हो। तुम केंद्र से स्मृत रहते होविच्छिन्न रहते हो। फलत: तुम जो भी करते हो वह बाहर से भिन्न दिखाई पड़ने पर भी वही का वही रहता है। नतीजे सदा वही के वही आते हैं। परिणाम सदा वही के वही आते हैं। जब तुम्हें लगता है कि मैं स्वतंत्र हूं और मैं खुद चुनाव करता हूं तब भी तुम स्वतंत्र नहीं हो और चुनाव भी नहीं कर रहे हो।
चुनाव भी एक यांत्रिक चीज है। वैज्ञानिकखासकर जीव—वैज्ञानिककहते हैं कि मनुष्य के मन पर छाप पड़ जाती है और बहुत कम उम्र में यह छाप पड़ जाती है। जीवन के आरंभिक दो—तीन वर्ष का समय ही वह समय हैजब चीजें मन में गहरे बैठ जाती हैं। फिर तुम वही की वही चीजें किए जाते होयांत्रिक ढंग से उन्हें दोहराए चले जाते हो। फिर तुम एक दुष्ट—चक्र में घूमते रहते हो।
बच्चे को केंद्र से च्युत होने के लिए मजबूर किया जाता है। उसे अनुशासित किया जाता हैउसे आज्ञाकारी बनाया जाता है। यही कारण है कि हम आज्ञापालन को इतना मूल्य देते हैं। और आज्ञापालन व्यक्ति को नष्ट कर देता है। क्योंकि आज्ञापालन का अर्थ है कि तुम केंद्र न रहेदूसरा केंद्र है और तुम्हें उसका अनुसरण करना है। जीने के लिए शिक्षा जरूरी हैलेकिन हम इस जीने की जरूरत को सबको झुकाने का बहाना बना लेते हैं। हम सबको बाध्य करते हैं कि आज्ञा के अनुसार चलें। इसका क्या अर्थ हैकिसकी आज्ञा के अनुसार चलेंसदा किसी दूसरे की—माता कीपिता की। सदा कोई दूसरा है जिसकी आज्ञा माननी है।
लेकिन आज्ञापालन पर इतना जोर क्यों दिया जाता हैक्योंकि तुम्हारे पिता को भी उनके बचपन में आज्ञापालन के लिए मजबूर किया गया था। वैसे ही तुम्हारी मां को भीजब वह बच्ची थीआज्ञापालन के लिए मजबूर किया गया था। उन्हें अपने—अपने केंद्रों से हटा दिया गया था। अब वे लोग वही कर रहे हैंवे लोग वही अपने बच्चों के साथ कर रहे हैं। और ये बच्चे भी फिर वही दोहराएंगे। ऐसे यह दुष्ट—चक्र चलता रहता है।
स्वतंत्रता की हत्या हो जाती है। और स्वतंत्रता के साथ—साथ तुम अपना केंद्र भी खो देते हो। ऐसा नहीं कि केंद्र नष्ट हो जाता हैमिट जाता हैतुम जब तक जीवित होवह नष्ट नहीं हो सकता। अच्छा होता कि यह नष्ट हो जातातब तुम अपने साथ ज्यादा चैन में होते। अगर तुम समग्रत: झूठे हो जाते और तुम्हारे भीतर सच्चा केंद्र नहीं बचा रहता तो तुम बड़े चैन में होते। तब कोई द्वंद्व नहीं रहताकोई चिंता नहीं रहतीकोई संघर्ष नहीं रहता। द्वंद्व तो इसीलिए पैदा होता है क्योंकि असली जीवित रहता है। केंद्र पर तो वही रहता हैलेकिन परिधि पर एक झूठा केंद्र खडा हो जाता है। और तब इन दो केंद्रों के बीच सतत संघर्षसतत चिंतासतत तनाव निर्मित होता रहता है।
इसे बदलना होगा। और इसे बदलने का एक ही उपाय है कि झूठे केंद्र को विदा किया जाए और सच्चे केंद्र को उसकी जगह दी जाए। तुम्हें फिर से अपने केंद्र मेंअपने होने में प्रतिष्ठित किया जाए। अन्यथा तुम सदा दुख में रहोगे।
झूठे केंद्र को विदा किया जा सकता हैलेकिन सच्चे केंद्र को तुम्हारे मरने के पहले नहीं विदा जा सकता। तुम जब तक जीवित हो, सच्‍चा केंद्र रहेगा। समाज एक ही काम कर सकता हैवह सच्चे केंद्र को नीचे दबा दे सकता है और एक ऐसा अवरोध निर्मित कर सकता है कि तुम्हें भी उस केंद्र का बोध न रहे। क्या तुम्हें अपने जीवन का ऐसा कोई भी क्षण स्मरण है जब तुम सहज और स्वाभाविक थे—जब तुम क्षण में जीते थेजब तुम अपना जीवन जीते थेजब तुम किसी का अनुगमन नहीं करते थे?
मैं एक कवि का संस्मरण पढ़ रहा था। उसके पिता की मृत्यु हो गई थी और शव को ताबूत में रख दिया गया था। वह कवि रो रहा थाशोक मना रहा था कि अचानक उसने उठकर अपने मृत पिता के सिर को चूमा और कहा : अब जब कि आप मृत हैंमैं यह कर सकता हूं। मैं सदा ही आपको आपके सिर पर चूमना चाहता थालेकिन आपके जीते जी यह असंभव था। मैं आपसे इतना डरता था।
तुम सिर्फ मृत पिता को चूम सकते हो। और यदि कोई जीवित पिता चूमने भी दे तो वह चुंबन झूठा होगावह सहज नहीं हो सकता। एक युवा बेटा अपनी मां को भी सहजता से नहीं चूम सकताक्योंकि सदा कामवासना का भय है। तुम्हारे शरीर स्पर्श नहीं करने चाहिए—मां के साथ भी!
इस तरह सब कुछ झूठा हो जाता है। हर चीज में भय है और आडंबर हैकहीं स्वतंत्रता नहीं हैसहजता नहीं है। और जो सच्चा केंद्र है वह तभी सक्रिय हो सकता है जब तुम सहज और स्वतंत्र हो।
अब तुम इस प्रश्न के प्रति मेरी दृष्टि समझ सकते हो : 'आत्म—स्मरण की साधना मनुष्य के मन को कैसे रूपांतरित कर सकती है?'
यह साधना तुम्हें फिर से अपने में प्रतिष्ठित कर देगीयह तुम्हें तुम्हारे केंद्र में फिर से प्रतिष्ठित कर देगी। आत्म—स्मरण के द्वारा तुम अपने अतिरिक्‍त सब कुछ भूल जाते होजो तुम्हारे चारों ओर विक्षिप्त संसार हैजो तुम्हारा परिवार हैनाते—रिश्ते हैंतुम सबको भूल जाते हो। तुम्हें सिर्फ यह स्मरण रहता है कि मैं हूं। यह स्मरण तुम्हें समाज से नहीं मिलता है। यह आत्म—स्मरण तुम्हें उस सबसे अलग कर देगा जो परिधिगत है। और अगर तुम यह स्मरण रख सके तो तुम स्वयं पर लौट आओगे,अपने केंद्र पर प्रतिष्ठित हो जाओगे। अब अहंकार मात्र परिधि पर रहेगा और तुम उसका भी निरीक्षण कर सकोगे। और जब तुम अपने अहंकार कोझूठे केंद्र को देख लोगे तो फिर तुम कभी झूठे नहीं होगे।
तुम्हें इस झूठे केंद्र की जरूरत पड़ सकती हैक्योंकि तुम्हें ऐसे समाज में रहना है जो झूठा है। अब तुम इसका उपयोग तो कर सकोगेलेकिन तुम इससे तादात्म्य नहीं करोगे। अब यह केंद्र मात्र एक उपकरण होगातुम खुद अपने असली केंद्र पर जीओगे। तुम अब झूठे केंद्र का उपयोग सामाजिक सुविधा के लिए करोगेलेकिन तुम उससे एकात्म नहीं होगे। अब तुम जानते हो कि मैं सहज और स्वतंत्र हो सकता हूं।
आत्म—स्मरण तुम्हें रूपांतरित करता हैक्योंकि वह तुम्हें फिर से स्वयं होने का अवसर देता है। और स्वयं होना आत्यंतिक हैपरम है।
समस्त संभावनाओं कासमस्त अंतर्निहित क्षमताओं का शिखर परमात्मा है—या तुम उसे जो भी नाम देना चाहो। परमात्मा कहीं अतीत में नहीं हैवह तुम्हारा भविध्‍न है। तुमने बहुत बार लोगों को कहते सुना होगा कि परमात्मा पिता है। लेकिन ज्यादा अर्थपूर्ण यह कहना होगा कि परमात्मा तुम्हारा पिता नहींपुत्र है। क्योंकि वह तुमसे आने वाला हैवह तुम्हारा विकास होगा। मैं कहूंगा कि परमात्मा पुत्र हैक्योंकि पिता अतीत में है और पुत्र भविध्‍न में। तुम परमात्मा हो सकते हो,परमात्मा तुमसे जन्म ले सकता है। और अगर तुम प्रामाणिक रूप से स्वयं हो तो तुमने बुनियादी कदम उठा लिया। तुम भगवत्ता की तरफ बढ़ रहे होतुम समग्र स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ा रहे हो।
गुलाम की भांति तुम उधर गति नहीं कर सकते। गुलाम के लिए झूठे व्यक्तित्व के लिए परमात्मा की ओरतुम्हारी परम संभावना की ओरतुम्हारी परम आत्मोपलब्धि की ओरपरम खिलावट की ओर जाने का मार्ग ही नहीं है। पहले तुम्हें अपने अस्तित्व में केंद्रित होना होगा। आत्म—स्मरण इसमें सहयोगी हैकेवल आत्म—स्मरण सहयोगी है। कोई दूसरी चीज तुम्हें रूपांतरित नहीं कर सकती है। झूठे केंद्र के साथ विकास संभव नहीं हैकेवल संग्रह संभव है। विकास और संग्रह के इस भेद को स्मरण में रख लो।
झूठे केंद्र के द्वारा तुम चीजें इकट्ठी कर सकते होतुम धन इकट्ठा कर सकते होज्ञान इकट्ठा कर सकते होकुछ भी इकट्ठा कर सकते हो। लेकिन इससे कोई विकास संभव नहीं है। विकास तो सच्चे केंद्र से ही घटित होता है। और विकास संग्रह नहीं हैविकास तुम्हें बोझिल नहीं करता है। संग्रह बोझ है।
तुम बिना कुछ जाने बहुत सी चीजों को जान सकते हो। तुम प्रेम को जाने बिना प्रेम के संबंध में बहुत कुछ जान सकते हो। तब वह संग्रह है। और अगर तुम प्रेम जानते हो तो वह विकास है। झूठे केंद्र से तुम प्रेम के संबंध में बहुत कुछ जान सकते होलेकिन प्रेम के लिए सच्चा केंद्र जरूरी है। तुम सच्चे केंद्र से ही प्रेम कर सकते हो। सच्चा केंद्र ही विकसित हो सकता है,झूठा केंद्र बिना किसी विकास के बस बड़ा होता जाता है। झूठा केंद्र कैंसर की तरह फैलता जाता है और रोग की तरह तुम्हें बोझिल बना देता है।
लेकिन तुम एक काम कर सकते होतुम समग्ररूपेण अपनी दृष्टि बदल ले सकते हो। तुम अपनी दृष्टि झूठे से हटाकर सच्चे केंद्र पर लगा सकते हो। आत्म—स्मरण का यही अर्थ है। तुम जो कुछ भी कर रहे होउसमें अपने को स्मरण रखोस्मरण रखो कि मैं हूं। उसे भूलो मत। तुम जो भी करोगे उसे यह स्मरण एक प्रामाणिकताएक यथार्थता प्रदान करेगा।
अगर तुम प्रेम कर रहे हो तो पहले स्मरण करो कि मैं हूं। अन्यथा तुम झूठे केंद्र से प्रेम करोगे और झूठे केंद्र से तुम सिर्फ प्रेम का अभिनय कर सकते होप्रेम नहीं। अगर तुम प्रार्थना कर रहे हो तो पहले स्मरण करो कि मैं हूं। अन्यथा तुम्हारी प्रार्थना महज मूढ़ता होगीधोखा होगी। और तुम यह धोखा किसी दूसरे के प्रति नहींखुद अपने प्रति करोगे।
तो पहले स्मरण करो कि मैं हूं। और यह स्मरण इतना आधारभूत हो जाए कि तुम्हारी छाया की तरह तुम्हारे साथ रहे। तब यह स्मरण तुम्हारी नींद में भी प्रवेश कर जाएगा और नींद में भी तुम्हें स्मरण रहेगा।
अगर सारा दिन यह स्मरण बना रह सके तो धीरे—धीरे वह तुम्हारे स्‍वप्‍न में भीतुम्हारी पै नींद में भी प्रविष्ट हो जाएगा और तुम वहां भी जानोगे कि मैं हूं। और जिस दिन तुम अपनी
नींद में भी जान लोगे कि मैं हूं उस दिन तुम अपने केंद्र में प्रतिष्ठित हो गए। अब झूठा केंद्र समाप्त गयावह तुम पर बोझ नहीं रहा। और अब तुम झूठे केंद्र का उपयोग कर सकते हो, अब वह एक यंत्र भर है। अब तुम उसके गुलाम न रहेमालिक हो गए।
कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब सब लोग सोते हैं तो योगी नहीं सोतावह जागता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि योगी नींद के बिना रहता हैनींद तो एक जैविक जरूरत है। उसका अर्थ यह है कि उसे नींद में भी स्मरण रहता है कि मैं हूं। नींद सिर्फ परिधि पर हैकेंद्र पर आत्म—स्मरण है।
योगी को नींद में भी अपना स्मरण रहता है और तुम्हें जागते हुए भी अपना स्मरण नहीं रहता। तुम रास्ते पर चल रहे हो और तुम्हें नहीं स्मरण है कि तुम हो।
प्रयोग करके देखो और तुम्हें तुम्हारी गुणवत्ता में बदलाहट महसूस होगी। यह स्मरण रखो कि मैं हूं और अचानक एक नया हलकापन तुम्हें घेर लेता है 1 भारीपन विलीन हो जाता हैतुम निर्भार हो जाते हो। तुम झूठे केंद्र से हटकर फिर सच्चे केंद्र पर प्रतिष्ठित हो जाते हो। लेकिन यह कठिन हैश्रमसाध्य हैक्योंकि हम झूठे केंद्र से इतने बंधे हैंग्रस्त हैं। आत्म—स्मरण समय लेगा। लेकिन जब तक वह तुम्हारे लिए सहज नहीं होताबिना प्रयास के नहीं होतातब तक रूपांतरण संभव नहीं है। तुम तो अपना स्मरण रखना शुरू करोअन्यथा कोई रूपांतरण संभव नहीं है।

 दूसरा प्रश्न :

कल रात आपने कहा कि जीवन को सदा उसके विधायक आयामों में देखना चाहिए और उसके नकारात्‍मक पक्ष जोर देना ठीक नहीं है। लेकिन क्या यह चुनाव नहीं हैऔर क्या यह समग्र सत्‍य के, जो है उसके साक्षात्‍कार के विरोध में नहीं जाता है?
ह चुनाव है। लेकिन जो व्यक्ति नकारात्मक है वह अचुनाव में छलांग नहीं ले सकता। यदि यह हो सकता होता तो अच्छा होतालेकिन यह असंभव है। नकार से अचुनाव में गति असंभव है। क्योंकि नकारात्मक मन का अर्थ है कि तुम केवल कुरूप को देख सकते होकेवल मृत्यु को देख सकते होकेवल दुख को देख सकते होतुम जीवन के विधायक तत्वों को नहीं देख सकते। और स्मरण रहेदुख को छोड़ना बड़ा कठिन है।
यह कहना अजीब मालूम पड़ता हैलेकिन मैं कहता हूं कि दुख से छलांग लेना कठिन हैसुख से छलांग लेना आसान है। जब तुम सुखी हो तो छलांग लगाना आसान हैक्योंकि सुख के साथ साहस आता हैसुख के साथ आनंद की बड़ी संभावना का द्वार खुलता है। सुख के साथ सारा जगत अपना घर मालूम पड़ता है। दुख में संसार नर्क मालूम पड़ता है। उसमें आशा नहींचारों तरफ निराशा ही निराशा नजर आती है। उस स्थिति में तुम छलांग नहीं ले सकते हो। दुख में आदमी कायर हो जाता है और वह दुख से चिपककर रहना चाहता हैक्योंकि यह दुख जाना—माना है।
दुख में तुम किसी साहसिक अभियान पर नहीं निकल सकतेउसके लिए एक सूक्ष्म सुख जरूरी है। तभी तुम ज्ञात को छोड़ सकते हो। तुम इतने सुखी हो कि अज्ञात से कोई डर न
रहा। और सुख ऐसा गहन है कि तुम जानते हो कि मैं जहां भी रहूंगा सुखी रहूंगा। विधायक चित्त के लिए कोई नर्क नहीं हैतुम जहां होगे वहीं स्वर्ग होगा। तुम अज्ञात में प्रवेश कर सकते होक्योंकि अब तुम जानते हो कि स्वर्ग मेरे साथ—साथ चलता है।
तुमने सुना है कि लोग स्वर्ग या नर्क जाते हैं। यह मूढ़ता—भरी बात है। कोई न स्वर्ग जाता है और न कोई नर्क जाता है। तुम अपना स्वर्ग—नर्क अपने साथ लिए चलते होतुम जहां जाते हो वहा अपने स्वर्ग—नर्क के साथ जाते हो। स्वर्ग और नर्क कोई द्वार नहीं हैंवे तुम्हारे भार हैं जिन्हें तुम साथ लिए चलते हो।
केवल नृत्यमग्न हृदय के साथ ही तुम अज्ञात—अनजान के सागर में उतर सकते हो। यही वजह है कि मैं कहता हूं कि नकार से तुम चुनावरहित नहीं हो सकते। तुम अपने दुख से बंधे होवह जाना—माना है। तुम दुख से परिचित होतुम दुख से जुड़े हो। और अज्ञात की बजाय जाने—माने दुख में रहना बेहतर है। तुम कम से कम दुख से अभ्यस्त हो गए होतुम्हें उसके ढंग—ढांचे पता हैं। और तुमने अपने चारों ओर इस दुख से सुरक्षा की व्यवस्था कर रखी हैतुमने एक कवच लगा रखा है। अज्ञात दुख के लिए नयी सुरक्षा व्यवस्था चाहिएइसलिए सदा अज्ञात दुख से ज्ञात दुख बेहतर है।
सुख के साथ बात बिलकुल बदल जाती है। सुखी आदमी ज्ञात सुख से अज्ञात सुख में जाना चाहता हैक्योंकि ज्ञात सुख उबाने वाला है। ज्ञात दुख से तुम कभी नहीं ऊबतेतुम उसमें रस लेते हो। लोग अपने दुखों का बखान कितना रस लेकर करते हैं। वे अपने दुखों को बढ़ा—चढ़ाकर कहते हैंउससे उन्हें सूक्ष्म सुख मिलता है। सुख से तुम ऊब जाते होइसलिए उससे अज्ञात में गति आसान है।
अज्ञात में आकर्षण है। और अचुनाव अज्ञात का द्वार है। इसलिए नकार से विधायक की ओर और फिर विधायक सेअचुनाव में यात्रा करनी है। पहले अपने चित्त को विधायक बनाओनर्क से स्वर्ग में गति करो। और तब स्वर्ग से मोक्ष मेंपरम में गति कर सकते हो। मोक्ष दोनों में से कुछ भी नहीं हैवह न सुख है न दुख हैवह दोनों के पार है। दुख से सुख में गति करो और तब तुम आत्यंतिक में गति कर सकते हो जो दोनों के पार है।
यही कारण है कि सूत्र में 'कहा गया कि पहले अपने चित्त को नकार से विधायक में बदलों। और यह बदलाहट मात्र दृष्टि की बदलाहट है। जीवन दोनों हैया दोनों नहीं है। वह दोनों हैया दोनों में से कुछ भी नहीं है। यह तुम पर निर्भर हैतुम्हारी दृष्टि पर निर्भर है। तुम उसे नकारात्मक मन से देख सकते हो और तब वह नर्क जैसा मालूम पड़ेगा। वह नर्क नहीं हैयह सिर्फ तुम्हारी व्याख्या है। तुम अपनी दृष्टि बदलोंविधायक दृष्टि से देखो।
इसे ही नास्तिक और आस्तिक की दृष्टि समझना चाहिए। मैं किसी व्यक्ति को नास्तिक या आस्तिक इसलिए नहीं कहता हूं कि वह ईश्वर में विश्वास करता है या नहीं करता है। मैं उसे आस्तिक कहता हूं जिसकी दृष्टि विधायक है। और जिसकी दृष्टि नकारात्मक है उसे मैं नास्तिक कहता हूं। ईश्वर को इनकार करना नास्तिकता नहीं हैजीवन को इनकार करना नास्तिकता है। आस्तिक वह है जो कि हा कहना जानता है और विधायक दृष्टि से जीवन को देखता है। तब सब कुछ बिलकुल बदल जाता है।
यदि नकारात्मक दृष्टि का व्यक्ति गुलाब के बगीचे में आए जहां अनेक गुलाब होतो वहा भी वह कांटे ही गिनेगा। नकारात्मक चित्त के लिए पहली चीज काटा हैवही उसके लिए महत्‍वपूर्ण है। फूल उसके लिए भ्रामक होंगे, कांटे यथार्थ होंगे। वह कांटे गिनेगा। और सच है कि फूल एक और कांटे हजार होते हैं। और जब वह हजार काटे गिन लेगा तो उसे उस एक फूल पर भरोसा भी नहीं होगा। वह कहेगा कि यह फूल भ्रम है। इन कुरूपहिंसक कांटों के बीच ऐसा सुंदर फूल कैसे हो सकता है! यह असंभव हैयह अविश्वसनीय है। और अगर वह है भी तो उसका अब कोई मतलब नहीं है। एक हजार कांटे गिनने में फूल खो ही जाता है।
विधायक चित्त गुलाब सेफूल से आरंभ करेगा। और एक बार तुमने गुलाब के साथ अपना संवाद बना लियाएक बार तुमने उसके सौंदर्य कोउसके जीवन कोउसकी अपार्थिव खिलावट को जान लिया तो फिर कांटे भूल जाते हैं। और जिसने गुलाब को उसके सौंदर्य के साथउसकी सर्वोच्च संभावना के साथ जान लियाजिसने उसे उसकी गहराई में देख लियाउसे अब काटे भी कांटे नहीं मालूम होंगे। गुलाब से भरी आंखें अब और ही हो जाएंगीअब उसे काटे फूल की सुरक्षा की तरह दिखाई पड़ेंगे। वे अब शत्रु जैसे नहीं मालूम होंगेवे फूल के हिस्से हो जाएंगे। अब यह चित्त जानेगा कि फूल के होने के लिए काटे जरूरी हैंकांटे उसकी सुरक्षा करते हैं। वह जानेगा कि इन्हीं कीटों के कारण वह फूल हो सका है। यह विधायक चित्त काटो के प्रति भी अनुगृहीत अनुभव करेगा। और यह दृष्टि यदि और गहरे प्रवेश करती है तो एक क्षण आता है जब कांटे फूल बन जाते हैं। पहली दृष्टि में,नकारात्मक दृष्टि में फूल विदा हो जाते हैंया फूल काटे बन जाते हैं।
केवल विधायक चित्त से ही तनाव—शून्य चित्त उपलब्ध होता है। नकारात्मक चित्त से तुम तनावग्रस्त बने रहोगेतुम्हें चारों ओर से दुख ही दुख घेरे रहेंगे। ऐसा नकारात्मक चित्तक्षिद्रान्वेषक चित्तदुख ही दुख और नर्क ही नर्क का उदघाटन किए जाता है।
बुद्ध के समय में एक अति प्रसिद्ध गुरु थाजिसका नाम संजय वेलट्ठिपुत्त था। वह परिपूर्ण रूप से नकारात्मक चिंतक था। बुद्ध ने सात नर्कों की बात कही थी। कोई व्यक्ति संजय वेलट्ठिपुत्त के पास आया और उससे कहा कि बुद्ध कहते हैं कि सात नर्क हैं। वेलट्ठिपुत्त ने कहा कि जाकर अपने बुद्ध से कहो कि वे कुछ नहीं जानते हैंदरअसल सात सौ नर्क हैं! बुद्ध कुछ नहीं जानते हैं। सात हीसात सौ नर्क हैं और मैं उन्हें गिन चुका हूं।
अगर तुम्हारा चित्त नकारात्मक है तो सात सौ भी ज्यादा नहीं हैं। तुम और ज्यादा खोज लोगेउनका कोई अंत नहीं है।
विधायक चित्त तनावमुक्‍त हो सकता है। सच तो यह है कि अगर तुम विधायक हो तो तनावग्रस्त नहीं हो सकते और अगर नकारात्मक हो तो तनावमुक्‍त नहीं हो सकते। नकारात्मक चित्त का संबंध ध्यान के साथ नहीं बन सकतावैसा चित्त ध्यान—विरोधी होता है। वह ध्यान नहीं कर सकताएक मच्छर भी उसके ध्यान को नष्ट करने के लिए काफी है। नकारात्मक चित्त के लिए शांति कामौन का द्वार बंद हो जाता है। वह दुख के सृजन के द्वारा अपने को बनाए रखता है। वह अचुनाव की ओर कैसे गति कर सकता है?
कृष्णमूर्ति अचुनाव की बात किए जाते हैं और उनके जो श्रोता हैं वे सब नकारात्मक चित्त के लगि हैं। वे उन्हें सुनते हैं,लेकिन वे उन्हें समझते बिलकुल नहीं। और जब वे नहीं समझते हैं तो कृष्णमूर्ति सिर ठोंक लेते हैं कि वे समझते क्यों नहीं।
विधायक चित्त ही उसे समझ सकता है जो वे कहते हैं। लेकिन विधायक चित्त को कहीं जाने की जरूरत नहीं है—न कृष्णमूर्ति के पास और न रजनीश के पास। सिर्फ नकारात्मक चित्त गुरु की खोज करता है। और नकारात्मक चित्त से अचुनावकीद्वैत के पार जाने की, नकारात्मक और विधायक दोनों को जीने की बात करना व्यर्थ है। ऐसा नहीं है कि यह सत्य नहीं है,यह सत्य हैलेकिन उसकी बात करना व्यर्थ है। जो सुन रहा है उसका खयाल करना जरूरी हैवह बोलने वाले से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
जैसा मैं देखता हूं तुम नकारात्मक हो। इसलिए पहले तुम्हें विधायक में रूपांतरित करने की जरूरत है। तुम्हें नहीं कहने वाले से ही कहने वाला बनाना है। तुम्हें जीवन को ही की दृष्टि से देखना चाहिए। और हा की दृष्टि के साथ ही यह धरती समग्रत रूपांतरित हो जाती है। और जब तुम्हें विधायक दृष्टि मिल जाए तभी तुम अचुनाव में छलांग लगा सकते हो। और तब वह आसान होगाबहुत आसान होगा।
दुख का त्याग नहीं हो सकतावह कठिन है। दुख से तुम्हारा लगाव है। सिर्फ सुख का त्याग हो सकता है। क्योंकि अब तुम जानते हो कि जब मैं नकार का त्याग करता हूं तो मुझे विधायक मिलता हैविधायक सुख प्राप्त होता है। तुम जानते हो कि नकार का त्याग करने से मुझे सुख मिलता हैइसलिए अगर मैं सुख का भी त्याग कर दूं विधायक मन का भी त्याग कर दूं तो मेरे लिए अनंत का द्वार खुल जाएगा। लेकिन सबसे पहले तुम्हें विधायक की प्रतीति जरूरी है। तभीऔर केवल तभीतुम छलांग ले सकते हो।

 तीसरा प्रश्न :

अंतिम विधि के प्रसंग में कल आपने बताया कि माया के इस जगत में साधक का आंतरिक चैतन्‍य ही उसका एकमात्र केंद्र है। इस संदर्भ में कृपया समझाएं कि इस माया के जगत में गुरु का महत्व क्या हैउसका काम क्या है?

ह माया का जगत तुम्हारे लिए माया नहीं हैतुम्हारे लिए यह बहुत यथार्थ हैसच्चा है। और गुरु का काम तुम्हें यह बताना है कि यह सत्य नहीं है। अभी यह जगत तुम्हारे लिए सत्य है। तुम कैसे सोच सकते हो कि यह माया हैतुम मिथ्या को मिथ्या की तरह तभी जानोगे जब तुम्हें सत्य की झलक मिल जाएतभी तुलना का उपाय है। तुम्हारे लिए यह जगत माया नहीं है। तुमने सुना हैतुमने पढ़ा है कि यह जगत माया है और तुमने तोते की तरह इसे रट लिया हैऔर इसलिए तुम भी कहते रहते हो कि जगत माया है।
हर रोज कोई न कोई मेरे पास आता है और कहता है कि जगत माया है। और फिर कहता है कि मेरा मन बहुत चिंताग्रस्त हैतनावग्रस्त हैशात होने का उपाय बताएं। और वह यह भी कहता है कि जगत माया है। अगर जगत माया है तो तुम्हारा मन तनावग्रस्त कैसे हो सकता हैअगर तुमने जान लिया कि जगत माया है तो जगत विदा हो जाएगा और जगत के साथ—साथ उसके सब दुख—संताप विदा हो जाएंगे।
लेकिन तुम्हारे लिए संसार है। तुम नहीं जानते कि संसार माया है। सुबह जब नींद विदा हो जाती है और उसके साथ ही स्‍वप्‍न भी तो क्या तुम स्वप्नों की चिंता लेते होक्या तुम परेशान होते हो कि सपने में मैं बीमार था या मर गया थाजब तक स्‍वप्‍न थातुम परेशान थे कि बीमार हूं,कि मुझे दवा चाहिए, कि मेरे लिए डाक्‍टर को बुला दो। लेकिन सुबह जैसे ही तुम्हारी नींद खुली और सपने विदा हो गए तुम परेशान नहीं हो। अब तुम जानते हो कि यह सपना था और मैं बीमार नहीं हूं।
अगर कोई आकर मुझे कहे कि मैं जानता हूं कि यह सपना था कि मैं बीमार हूं लेकिन मुझे बताएं कि बीमारी से छुटकारे के लिए दवा कहा प्राप्त करूंतो उसका क्या मतलब होगाउसका मतलब होगा कि वह अभी भी सोया हैकि वह अभी भी सपने देख रहा है। इसका अर्थ है कि सपना अभी जारी है।
भारत में यह तोता—रटंत कि सारा संसार माया हैलोगों के मन में बहुत गहराई तक प्रवेश कर गई है। लेकिन यह प्रवेश झूठे केंद्र में हुआ हैयह विकास नहीं है। हमने सुना हैउपनिषदवेद और ऋषि—मुनि सदियों से कहते आ रहे हैं कि संसार माया है। उन्होंने इस धारणा को इतने जोर से प्रसारित—प्रचारित किया है कि जो सोए हैंजो सपने देख रहे हैंउन्हें भी लगता है कि हम जागे हुए हैं। लेकिन सारा संसार सोया हुआ है और उनका दुख बताता है कि उनके लिए संसार यथार्थ हैउनका संताप कहता है कि संसार सत्य है।
गुरु का काम है कि तुम्हें सत्य की एक झलक दे। उसका काम तुम्हें सिखाना नहींजगाना है। गुरु शिक्षक नहीं हैजगाने वाला है। गुरु तुम्हें सिद्धांत नहीं देता है। अगर वह कोई सिद्धांत देता है तो वह दार्शनिक है। अगर वह संसार को माया कहता है और तर्क—वितर्क करता हैप्रमाणित करता है कि संसार माया हैअगर वह तुम्हें कोई बौद्धिक सिद्धांत देता हैतो वह गुरु नहीं है। वह शिक्षक हो सकता हैकिसी विशेष विचारधारा का शिक्षकलेकिन वह गुरु कतई नहीं है। गुरु सिद्धांत नहीं देता हैवह विधि देता हैउपाय देता हैताकि तुम नींद से बाहर आ सको।
यही कारण है कि गुरु सदा तुम्हारे सपनों के लिए बाधा बन जाता है और गुरु के साथ रहना कठिन हो जाता है। शिक्षक के साथ रहना बहुत आसान हैवह कभी तुम्हारी नींद में बाधा नहीं डालता। सच तो यह है कि वह तुम्हारे ज्ञान—संग्रह को बढ़ाता हैवह तुम्हारे अहंकार को बढ़ाता है। शिक्षक तुम्हें पंडित बनने में सहायता देता है। उससे तुम्हारा अहंकार तृप्त होता है। अब तुम ज्यादा जानते होअब तुम ज्यादा तर्क—वितर्क कर सकते होतुम दूसरों को शिक्षा दे सकते हो। लेकिन गुरु सदा उपद्रवी होता हैवह तुम्हारी नींद मेंतुम्हारी स्‍वप्‍न—तंद्रा में बाधा बन जाता है। हो सकता हैतुम बहुत सुंदर सपने देख रहे थे,तुम किसी यात्रा पर थेसुंदर यात्रा पर। गुरु उसमें बाधा डालेगा और तुम नाराज होओगे।
इसलिए गुरु को सदा अपने शिष्यों से खतरारहता है। शिष्य किसी भी क्षण उसकी हत्या कर सकते हैंक्योंकि वह विध्‍न डालेगा ही। वही तो उसका काम है। वह तुम्हें वैसे ही नहीं रहने दे सकता जैसे तुम हो। क्योंकि तुम गलत होझूठे हो। वह तुम्हारे झूठे व्यक्तित्व को मिटाएगा। और यह काम पीड़ादायी है।
यही कारण है कि यदि गहन प्रेम न हो तो यह काम असंभव है। अति घनिष्ठत की, अंतरंगता की जरूरत हैअन्यथा घृणा बीच में आ जाएगी। गुरु तुम्हें अपने निकट नहीं आने देगायदि तुमने समर्पण नहीं किया है। अन्यथा तुम शत्रु बनने वाले हो। तुम्हारे पूरी तरह समर्पण करने पर ही गुरु काम कर सकता है। क्योंकि उसका काम आध्यात्मिक सर्जरी है। और शिष्य को बहुत पीड़ा से गुजरना होगा। तो अगर उसका गुरु के साथ गहन आत्मीयता का संबंध नहीं है तो यह काम असंभव है। वह इतनी पीड़ा झेलने को राजी नहीं होगा। वह आनंद की खोज में आया था और गुरु उसे पीड़ा में डालता है! वह सुख का अनुभव लेने आया था और गुरु उसके लिए नर्क निर्मित करता है!
शुरू में तो नर्क ही होगाक्योंकि तुम्हारी अपनी इमेज चूर—चूर हो जाएगीतुम्हारी अपेक्षाएं चूर—चूर हो जाएंगी। तुमने जो भी जाना हैउसे तुम्हें फेंक देना होगा। तुम जो भी होगुरु उसे मिटाएगा। सच ही तुम्हें मृत्यु से गुजरना है।
भारत में प्राचीन दिनों में हम कहते थे : आचार्यो मृत्यु:। गुरु मृत्यु है। वह है। और जब तक तुम्हारी श्रद्धा समग्र नहीं है,यह सर्जरी असंभव है। क्योंकि आरंभ में तो पीड़ा होगीतुम्हारे दुख—दर्द उभरेंगेतुम्हारे दमित नर्क ऊपर आएंगे। अगर गुरु में तुम्हें भरोसा हैगहन श्रद्धा हैतो ही तुम उसके साथ बने रह सकते हो। अन्यथा तुम भाग जाओगेक्योंकि यह आदमी तुम्हें पूरी तरह अस्तव्यस्त कर रहा हैउपद्रव में डाल रहा है।
तो स्मरण रहेगुरु का काम है तुम्हें तुम्हारे झूठे केंद्र का बोध कराना। तुम्हारे झूठे केंद्र के कारण तुम्हारा संसार ही झूठा हो गया है। संसार दरअसल माया नहीं हैवह तुम्हारी भ्रांत दृष्टि के कारण माया है। तुम्हारी आंखें सपनों से भरी हैं और तुम चारों ओर अपने सपनों को प्रक्षेपित कर रहे हो। और उससे ही सत्य असत्य हो जाता है। जब तुम्हारी आंखें शुद्ध होंगीसत्य होंगीतो यही संसार सत्य हो उठेगा। जब तुम्हारा झूठा केंद्र मिट जाएगा और तुम अपने सच्चे केंद्र परअपनी आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाओगेतो यही संसार निर्वाण हो जाएगा।
झेन गुरु निरंतर कहते हैं कि यह संसार ही निर्वाण हैयह संसार ही मोक्ष है।
सब दृष्टि की बात है। झूठी आंखों से सब कुछ झूठा हो जाता हैसच्ची आंखों से सब कुछ सत्य हो जाता है। तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व तुम्हारे चारों ओर झूठा संसार निर्मित कर देता है। और यह मत सोचो कि सब लोग एक ही संसार में रहते हैं। ऐसा नहीं हैप्रत्येक व्यक्ति अपने ही संसार में रहता है। उतने ही संसार हैं जितने मन हैंक्योंकि प्रत्येक मन अपनी दुनिया बना लेता है। अगर तुम परिवार में भी रहते हो तो पति अपनी दुनिया में रहता है और पत्नी अपनी दुनिया में रहती है। और रोज—रोज इन दुनियाओं के बीच टकराहट होती रहती है। वे कभी मिलती नहींवे बस टकराती हैं। मिलन असंभव है। मनों का मिलन नहीं हो सकतासिर्फ टकराहटसिर्फ संघर्ष होता है। जब मन नहीं है तब मिलन हो सकता है।
पत्नी अपनी ही दुनिया में रहती हैअपनी ही अपेक्षाओं में जीती है। उसके लिए वह असली पति नहीं है जो वस्तुत: संसार में हैवह पति की अपनी ही एक इमेज रखती है। पति भी अपनी दुनिया में रहता है और असली पत्नी उसकी पत्नी नहीं है। उसके पास भी पत्नी की एक इमेज है और जब कभी यह पत्नी इस इमेज से कम पड़ती हैद्वंद्व और संघर्ष काक्रोध और घृणा का दौर शुरू हो जाता है। पति पत्नी की अपनी इमेज को प्रेम करता हैपत्नी पति की अपनी इमेज को प्रेम करती है। और वे दोनों इमेज काल्पनिक हैंझूठी हैंवे कहीं भी नहीं हैं। असली पति भी मौजूद हैअसली पत्नी भी मौजूद हैलेकिन उनका मिलना कहीं नहीं हो सकता। क्योंकि इन दो असली व्यक्तियों के बीच में कल्पना के पति—पत्नी आ जाते हैं। वे सदा हैं। और वे असली कोवास्तविक को नहीं मिलने देते हैं।
प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति अपने ही संसार में रहता हैवह अपने ही सपनों मेंअपेक्षाओं मेंप्रक्षेपणों में जीता है। तो जितने मन हैं उतने ही संसार हैंऔर वे सब संसार माया हैं। जब तुम्हारा झूठा केंद्र विलीन होता हैपूरा जगत बदल जाता है। तब जो संसार हैवह सत्य है। तब तुम पहली दफा चीजों को वैसी देखते हो जैसी वे हैं। फिर कोई दुख नहीं रहताक्योंकि माया के साथ अपेक्षाएं भी जाती रहती हैं। और सत्य में दुख नहीं होता है। तब व्यक्ति स्पष्ट देखता है कि ऐसा हैऐसा तथ्य है। सिर्फ झूठ के साथ समस्याएं खडी होती हैं। और झूठ तुम्हें तथ्यों को कभी नहीं जानने देते हैं। मन के ये झूठ ही माया हैं।
गुरु का काम इतना है कि वह तुम्हारे झूठों को चकनाचूर कर देताकि तथ्य तुम्हें उपलब्ध हो जाए और तुम तथ्य को उपलब्ध हो जाओ। यह तथ्यता हीयह तथाता ही सत्य है। और जब तुम तथाता को जान लोगे तो गुरु भी वही नहीं रह जाएगा।
अभी यदि तुम गुरु के पास भी आते हो तो तुम गुरु की अपनी ही इमेज लेकर आते हो। कोई मेरे पास आता है तो वह मेरी एक इमेज लेकर आता है। और जब मैं उसकी अपेक्षा से मेल नहीं खाता तो वह कठिनाई में पड़ता है। लेकिन मैं उसकी अपेक्षाओं को कैसे पूरी कर सकता हूंऔर अगर मैं सबकी अपेक्षाएं पूरी करने की चेष्टा करूं तो मैं उपद्रव में पडूंगा। हरेक शिष्य सोचता है कि मुझे ऐसा—होना चाहिएवैसा होना चाहिए उसकी गुरु की अपनी ही धारणा है। अगर मैं उसकी धारणाओं की पूर्ति नहीं करता हूं तो वह निराश होता है। लेकिन ऐसा होना अनिवार्य है। शिष्य मन लेकर आता हैऔर यही समस्या है। मुझे उसके मन को बदलना हैपोंछ देना है। शिष्य मन लेकर आता है और उसी मन से मुझे देखता है।
मैं एक परिवार के साथ ठहरा हुआ था। जैन परिवार थावे लोग रात में भोजन नहीं करते थे। उस परिवार के जो वयोवृद्ध थेपितामह थेवे मेरी पुस्तकों के प्रेमी थे। मुझे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा थाऔर किताब से प्रेम करना आसान हैकिताब मुर्दा चीज है। वे मुझे मिलने आए। वे इतने वृद्ध थे कि अपने कमरे से उठकर आना भी उनके लिए कठिन था। वे बानबे वर्ष के थे। और वे मुझे मिलने आए। मैंने उनसे कहा कि मैं ही आपके कमरे में आ जाऊंगालेकिन उन्होंने कहा कि नहींमैं आपका बहुत आदर करता हूं मैं ही आऊंगा
वे आए और उन्होंने मेरी भूरि— भूरि प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि आप बिलकुल तीर्थंकर जैसे हैंजैनियों के सर्वोच्च तीर्थंकर महावीर जैसे हैं। जैनियों के सवोंच्च गुरु तीर्थंकर कहलाते हैं। तो उन्होंने कहा कि आप तीर्थंकर जैसे हैं। वे मेरी प्रशंसा ही प्रशंसा करते रहे।
इसी बीच सांझ उतर आयी और अंधेरा छाने लगा। घर के अंदर से कोई आया और मुझसे बोला कि देर हो रही हैआप जाकर भोजन कर लें। मैंने उससे कहा कि जरा रुकोइन वृद्ध सज्जन को अपनी बात पूरी कर लेने दोफिर मैं भोजन कर लूंगा। उन वृद्ध ने कहा : आप क्या कह रहे हैंक्या आप रात होने पर भोजन करेंगेमैंने कहा कि मेरे लिए सब ठीक है। तो उन वृद्ध सज्जन ने कहा कि मैं अपने वचन वापस लेता हूं आप तीर्थंकर नहीं हैं। जो व्यक्ति इतना भी नहीं जानता कि रात में खाना महापाप हैवह और क्या जानेगा!
अब मेरे साथ इस व्यक्ति का मिलन नहीं हो सकतावह असंभव है। यदि मैं रात में भोजन नहीं लेता तो मैं तीर्थंकर था। मैंने अभी भोजन लिया भी नहीं थामैंने कहा भर था कि मैं रात में भोजन लूंगा और एकाएक मैं तीर्थंकर न रहा। उन वृद्ध सज्जन ने मुझे कहा कि मैं आपसे कुछ सीखने आया थालेकिन अब वह असंभव है। अब मुझे लगता है कि मैं ही आपको कुछसिखाऊं
जब यह संसार माया हो जाता है तो तुम्हारा गुरु भी उसका एक हिस्सा होगा और वह दृष्टि भी विलीन होगा। इसलिए जब शिष्य जागता है तो गुरु नहीं रहता है। यह बात परस्पर विरोधी मालूम पड़ेगी। जब शिष्य सच में ही बोध को उपलब्ध होता है तो गुरु नहीं रहता।
बौद्ध संत सरहा के अनेक सुंदर गीत हैंवह प्रत्येक गीत के अंत में कहता है : और सरहा विलीन हो गया। वह कुछ उपदेश करता हैकुछ समझता है। वह कहता है. न संसार है और न निर्वाण हैन शुभ है और न अशुभ है। पार जाओऔर सरहा विलीन होता है।
अब तक यह पहेली रही है कि सरहा क्यों बार—बार कहता है कि सरहा विलीन होता है। अगर तुम सच ही सरहा के इस गीत कोउसके इस उपदेश को उपलब्ध हो जाओ कि न शुभ है न अशुभन संसार है न निर्वाणअगर शिष्य सचमुच इस सत्य के प्रति जाग जाए तो सरहा विलीन हो जाएगा। गुरु कहां रहेगागुरु तो शिष्य के संसार का हिस्सा था। अब न कोई गुरु होगा और न कोई शिष्य। वे एक हो जाएंगे। जब शिष्य जागता है तो वह गुरु हो जाता है और सरहा विलीन हो जाता है। तब गुरु कहांगुरु भी तुम्हारे स्‍वप्‍न कामाया—जगत का हिस्सा है।
लेकिन इसके कारण अनेक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। कृष्णमूर्ति कहे जाते हैं कि कोई गुरु नहीं है। और वे सही हैं। यह परम सत्य है। जब तुम बुद्ध हो गए तो तुम ही गुरु होकोई दूसरा गुरु नहीं है। लेकिन यह तो परम सत्य है और इस सत्य के घटित होने के पूर्व गुरु है क्योंकि शिष्य है। शिष्य ही गुरु को निर्मित करता हैवह शिष्य की जरूरत है।
तो स्मरण रहेअगर तुम्हें मिथ्या गुरु मिलता है तो उसका अर्थ है कि तुम्हें मिथ्या गुरु की ही पात्रता थी। मिथ्या शिष्य सही गुरु को नहीं पा सकता है। तुम अपना गुरु आप निर्मित करते हो। गुरु छोटा है या बड़ा हैयह भी तुम पर निर्भर करता है। तुम्हें तुम्हारी पात्रता के मुताबिक ही गुरु मिलता है। अगर तुम्हें गलत व्यक्ति मिल जाता है तो उसका कारण तुम हो। उसके लिए वह गलत व्यक्ति नहींतुम ही जिम्मेवार हो।
गुरु भी तुम्हारे मन का हिस्सा हैवह तुम्हारे स्‍वप्‍न—जगत का अंग है। लेकिन जब तक तुम बुद्ध नहीं होतेतुम्हें कोई चाहिए जो तुम्हें हिलाए—डुलाएजो तुम्हारी सहायता करे। गुरु वह है जो तुम्हें विधियां देता हैउपाय बताता है। और वह सिर्फ शिक्षक है जो तुम्हें सिद्धांत देता हैशिक्षा देता है। लेकिन हो सकता हैअभी वही तुम्हारी जरूरत हो।
इसे इस भांति सोचो। सपने में भी कुछ है जो तुम्हें सपने से बाहर आने में मदद कर सकता है। सपने में भी कुछ तुम्हें उससे बाहर निकलने में सहयोगी हो सकता है। तुम नींद में उतरते समय इसका प्रयोग कर सकते हो। अपने मन में यह बात बार—बार दोहराओ कि जब भी कोई स्वप्न आएगामेरी आंखें खुल जाएंगी। लगातार तीन सप्ताह तक नींद में उतरते समय यह बात दोहराते रहो : जब भी स्‍वप्‍न आएगामेरी आंखें खुल जाएंगीअचानक मैं जाग जाऊंगा। और तुम जाग जाओगे।
स्वप्न से भी तुम किसी विधि के जरिए जाग सकते हो। ठीक नींद में उतरते हुए अपने
से कहो : राम—अगर तुम्हारा नाम राम है—मुझे पांच बजे सुबह जगा देना। .इसे दो बार कहो और फिर चुपचाप सो जाओ। ठीक पाँच बजे कोई तुम्‍हें जगा देगा। सपने में भी, नींद में भी जगाने के उपाय काम में लाए जा सकते हैं।
और वही बात आध्यात्मिक नींद के साथ भी लागू होती है। गुरु तुम्हें विधि दे सकता है जो इसमें सहयोगी हो सकती है। तब जब भी तुम स्‍वप्‍न में उतरने लगोगे तो वह विधि या तो उतरने नहीं देगीया उतर जाने पर उससे अचानक जगा देगी। और जब यह जागरण तुम्हारे लिए स्वाभाविक हो जाता है तो फिर गुरु की जरूरत नहीं रही। जब तुम जाग गए तो गुरु विदा हो जाता है। लेकिन तुम तब भी गुरु के प्रति अनुगृहीत अनुभव करोगेक्योंकि उसने सहायता की। सारिपुत्त बुद्ध के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में था। वह स्वयं ज्ञान को उपलब्ध हुआवह स्वयं बुद्ध हो गया। तब बुद्ध ने सारिपुत्त से कहा : अब तुम परिभ्रमण पर निकल सकते होअब तुम्हें मेरी सन्निधि की जरूरत न रही। तुम खुद ही गुरु हो गए होइसलिए जाओ और दूसरों को नींद से बाहर आने में सहायता पहुंचाओ।
सारिपुत्त ने बुद्ध से विदा लेते हुए उनके चरण छुए। किसी ने उससे पूछा कि तुम तो खुद बुद्धत्व को उपलब्ध हो गएफिर बुद्ध के चरण क्यों छूते होसारिपुत्त ने कहा कि बुद्ध के चरण छूने की जरूरत तो अब नहीं हैलेकिन यह उपलब्धि उनके कारण ही घटित हुई। अब जरूरत तो नहीं रहीलेकिन यह स्थिति उनके कारण ही संभव हो सकी।
सारिपुत्त भ्रमण पर निकल गयालेकिन वह जहां भी होता वहां रोज सुबह वह उस दिशा में साष्टांग लेटकर नमस्कार करता जिस दिशा में बुद्ध होतेसंध्या भी वह बुद्ध को ऐसे ही साष्टांग नमस्कार करता। लोग सारिपुत्त से पूछते कि यह तुम क्या कर रहे होतुम किसे दंडवत करते होक्योंकि बुद्ध तो यहां से बहुत दूर हैं। सारिपुत्त कहता : मैं अपने उन गुरु को दंडवत कर रहा हूं जो विलीन हो गए हैं। अब मैं खुद गुरु हो गया हूं लेकिन उनके बिना यह संभव नहीं होतायह उनके करण ही संभव हुआ है।
तो जब गुरु विलीन भी हो जाता है तब भी शिष्य उसके प्रति कृतज्ञता अनुभव करता है—आत्यतिक कृतज्ञता जो संभव है। जब तुम सोए हुए हो तो कोई चाहिए जो तुम्हें हिलाएतुम्हें जगाए। और अगर तुम ऐसा करने देते हो तो वही समर्पण है। अगर तुम कहते हो कि ठीक हैमैं तैयार हूं कि तुम मेरी नींद अस्तव्यस्त करो—तो यही समर्पण हैश्रद्धा है। श्रद्धा का अर्थ है कि अब यदि यह व्यक्ति गड्डे में भी ले जाएगा तो मैं जाने के लिए तैयार हूं। अब तुम उस पर कोई आपत्ति नहीं उठाओगे। वह तुम्हें जहां भी ले जाएतुम उस पर भरोसा करोगे कि वह तुम्हारा कुछ नुकसान नहीं करेगा।
और अगर तुम्हें भरोसा नहीं है तो कोई यात्रा संभव नहीं हैक्योंकि तुम्हें डर है कि यह व्यक्ति नुकसान पहुंचा सकता है। तुम अपने ढंग से सोचते हो कि यह व्यक्ति कई तरह से मुझे नुकसान पहुंचा सकता है। और अगर तुम सोचते हो कि मुझे अपनी सुरक्षा करनी चाहिए तो कोई विकास संभव नहीं है। अगर तुम्हें अपने सर्जन पर भरोसा नहीं है तो तुम उसे अपने को बेहोश नहीं करने दोगे। तुम नहीं जानते कि वह क्या करने वाला है! और तुम कहोगे कि आप आपरेशन तो करेंलेकिन मुझे होश में रहने देंताकि मैं देखता रहूं कि आप क्या कर रहे हैं। मैं आप पर भरोसा नहीं कर सकता।
लेकिन तुम अपने सर्जन पर भरोसा करते हो। वह तुम्हें बेहोश कर देता हैक्योंकि बात ही ऐसी है कि होश में सर्जरी असंभव हैतुम्हारा होश उसमें बाधा डालेगा। इसीलिए कहते हैंश्रद्धा अंधी है। उसका अर्थ है कि तुम बेहोश होने को भीअंधे होने के भी राजी हो। गुरु तुम्हें जहां ले जाना चाहेतुम वहां जाने को तैयार हो। तो ही गहरीआंतरिक सर्जरी संभव होती है। और यह न केवल शारीरिक सर्जरी हैयह सर्जरी मानसिक हैमनोवैज्ञानिक है। बहुत पीडा होगीबहुत संताप होगाक्योंकि बहुत रेचन की जरूरत है। तुम्हें तुम्हारे उस केंद्र पर फिर से वापस लाना हैजिसे तुम बिलकुल भूल गए हो। तुम्हें तुम्हारी उन जड़ों से फिर से जोड़ना है जिनसे तुम मीलों दूर निकल आए हो। यह काम श्रमसाध्य हैयह काम कठिन है। इसमें वर्षों भी लग सकते हैं। लेकिन यदि शिष्य समर्पण करने को तैयार है तो यह क्षणों में भी घटित हो सकता है। यह समर्पण की गहराई पर निर्भर है।
बहुत समय व्यर्थ चला जाता है जो कि आवश्यक नहीं है। गुरु को धीरे— धीरे चलना पड़ता हैताकि तुम्हें ज्यादा भरोसे के लिए तैयार किया जा सके। और उसे सिर्फ श्रद्धा निर्मित करने के लिए अनेक अनावश्यक काम करने पड़ते हैं। सर्जरी करने के लिए गुरु को अनेक गैर—जरूरी काम करने पड़ते हैं जिन्हें छोड़ा जा सकता है। उन पर समय और श्रम बेकार करने की कोई जरूरत नहीं हैलेकिन सिर्फ श्रद्धा पैदा करने के लिए वे जरूरी हो जाते हैं।
मैंने सरहा की बात की। सरहा बौद्ध परंपरा के चौरासी सिद्धों में से एक है। सरहा उन शिष्यों से बोल रहा है जो गुरु हो गए हैं। वह कहता है. इस ढंग से आचरण करो कि दूसरे तुम पर श्रद्धा कर सकें। मैं जानता हूं कि अब तुम्हें नीति—नियम की जरूरत नहीं रहीतुम उनके पार जा चुके हो। तुम अब जो चाहो कर सकते हो। तुम अब जो चाहो हो सकते हो। अब तुम्हारे लिए न किसी व्यवस्था की जरूरत है और न किसी नैतिकता की। लेकिन तो भी इस ढंग से व्यवहार करो कि लोग तुम पर भरोसा कर सकें।
इसीलिए महान गुरुओं ने समाज—स्वीकृत आचरण अपनाए हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें उसकी जरूरत थीवह केवल एक अनावश्यक काम है जो श्रद्धा पैदा करने के लिए किया जाता है। तो अगर महावीर जैनों की बनायी व्यवस्था के अनुसार आचरण करते हैं तो वह इसलिए नहीं कि उसकी कोई आंतरिक जरूरत है। वे वैसा केवल इसलिए करते हैं ताकि जैन उनका अनुसरण कर सकेंउनके शिष्य बन सकेंउन पर श्रद्धा कर सकें।
इसीलिए जब कोई गुरु नए ढंग का आचरण करने लगता है तो समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। जीसस ने नए ढंग का आचरण किया जो कि यहूदी जाति के लिए अनजान था। उसमें कुछ गलत नहीं थालेकिन वह समस्या बन गयायहूदी उन पर भरोसा नहीं कर सके। उनके अतीत के गुरुओं का आचरण भिन्न था और जीसस का आचरण बिलकुल भिन्न था। उन्होंने खेल के नियमों का पालन नहीं कियाफलत: यहूदी उन पर श्रद्धा नहीं कर सके। उन्होंने उन्हें सूली पर चढ़ा दिया।
लेकिन जीसस ने ऐसा व्यवहार क्यों कियाभारत इसका कारण था। जेरुसलम में प्रकट होने के पहले जीसस वर्षों भारत में रहे थे। उनकी शिक्षा—दीक्षा यहां एक बौद्ध मठ में हुई थी। और जहां बौद्ध समाज नहीं थावहां भी उन्होंने बौद्ध आचार बरतने करने की चेष्टा की। यहूदी समाज में वे ऐसे व्यवहार करते थे जैसे किसी बौद्ध समाज में करते! और उससे सब
समस्या उठ खड़ी हुई। वे गलत समझे गए और उनकी हत्या कर दी गई। और कारण सिर्फ इतना था कि यहूदी उन पर भरोसा नहीं कर सके।
गुरु को नाहक ही अपने चारों ओर बहुत सी चीजें खड़ी करनी पड़ती हैंबहुत से व्यर्थ के काम करने पड़ते हैंसिर्फ इसलिए कि शिष्यों में भरोसा पैदा हो। उसके बावजूद समस्याएं खड़ी होती हैंक्योंकि हरेक शिष्य अपनी अपेक्षाएं लेकर आता है कि गुरु को ऐसा होना चाहिएवैसा होना चाहिए।
समर्पण का अर्थ है कि तुम अपनी अपेक्षाएं छोड़ देते हो और गुरु को वह होने देते हो जो वह होना चाहता हैगुरु को वह करने देते हो जो वह करना चाहता है। अगर उससे पीड़ा होती है तो तुम उसके लिए राजी हो। अगर वह तुम्हें मार डाले तो तुम उसके लिए भी तैयार हो। क्योंकि अंततः वह तुम्हें गहन मृत्यु में ही ले जाने वाला है। इसके बाद ही तुम्हारा पुनर्जन्म संभव है,तुम द्विज हो सकते हो। पुराने व्यक्तित्व के सूली पर चढ़ने के बाद ही पुनर्जन्म संभव हैनवजीवन संभव है।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

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