Monday, 19 February 2018

युवक और यौन

संभोग से समाधि की और—24

युवक और यौन—
     एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
      एक बहुत अद्भुत व्‍यक्‍ति हुआ है। उस व्‍यक्‍ति का नाम था नसीरुद्दीन एक दिन सांझ वह अपने घर से बाहर निकलता था मित्रों से मिलने के लिए। तभी द्वार पर एक बचपन का बिछुड़ा मित्र घोड़े से उतरा। बीस बरस बाद वह मित्र उससे मिलने आया था। लेकिन नसीरुद्दीन ने कहा कि तुम ठहरो घड़ी भर मैंने किसी को बचन दिया है। उनसे मिलकर अभी लौटकर आता हूं। दुर्भाग्‍य कि वर्षो बाद तुम आये हो और मुझे घर से अभी जाना पड़ रहा है।, लेकिन मैं जल्‍दी ही लौट आऊँगा।
      उस मित्र ने कहां, तुम्‍हें छोड़ने का मेरा मन नहीं है, वर्षो बाद हम मिले है। उचित होगा कि मैं भी तुम्‍हारे साथ चलू। रास्‍ते में तुम्‍हें देखूँगा भी, तुमसे बात भी कर लुंगा। लेकिन मेरे सब कपड़े धूल में हो गये है। अच्‍छा होगा, यदि तुम्‍हारे पास दूसरे कपड़े हों तो मुझे दे दो।
      वह फकीर कपड़े की एक जोड़ी जिसे बादशाह ने उसे भेट की थी—सुंदर कोट था, पगड़ी थी, जूते थे। वह अपने मित्र के लिए निकाल लाया। उसने उसे कभी पहना नहीं था। सोचा था; कभी जरूरत पड़ेगी तो पहनूंगा। फिर वह फकीर था। वे कपड़े बादशाही थे। हिम्‍मत भी उसकी पहनने की नहीं पड़ी थी।
      मित्र ने जल्‍दी से वे कपड़े पहन लिए। जब मित्र कपड़े पहन रहा था, तभी नसीरुद्दीन को लगा कि यह तो भूल हो गयी। इतने सुंदर कपड़े पहनकर वह मित्र तो एक सम्राट मालूम पड़ने लगा। और नसरूदीन उसके सामने एक फकीर, एक भिखारी मालूम पड़ने लगा। सोचा रास्‍ते पर लोग मित्र की तरफ ही देखेंगे,जिसके कपड़े अच्‍छे है। लोग तो सिर्फ कपड़ों की तरफ देखते है और तो कुछ दिखायी नहीं पड़ता है। जिनके घर ले जाऊँगा वह भी मित्र को ही देखेंगे, क्‍योंकि हमारी आंखे इतनी अंधी है। कि सिवाय कपड़ों के और कुछ भी नहीं देखती। उसके मन में बहुत पीड़ा होने लगी। कि यह कपड़े पहनाकर मैंने एक भूल कर ली।
      लेकिन फिर उसे ख्‍याल आया कि मेरा प्‍यारा मित्र है, वर्षों बाद मिला है। क्‍या अपने कपड़े भी मैं उसको नहीं दे सकता। इतनी नीच इतनी क्षुद्र मेरी वृति है। क्‍या रखा है कपड़ों में। यही सब अपने को समझाता हुआ वह चला, रास्‍ते पर नजरें उसके मित्र के कपड़ों पर अटकी रही। जिसने भी देखा, वहीं गोर से देखने लगा। वह मित्र बड़ा सुंदर मालूम पड़ रहा था। जब भी कोई उसके मित्र को देखता, नसरूदीन के मन में चोट लगती कि कपड़े मेरे है और देखा मित्र जा रहा है। फिर अपने को समझाता कि कपड़े क्‍या किसी के होते है, में तो शरीर तक को अपना नहीं मानता तो कपड़े को अपना क्‍या मानना है, इसमें क्‍या हर्ज हो गया है।
      समझाता-बुझाता अपने मित्र के घर पहुंचा। भीतर जाकर जैसे ही अन्‍दर गया, परिवार के लोगों की नजरें उसके मित्र के कपड़ों पर अटक गई। फिर उसे चोट लगी, ईर्ष्‍या मालूम हुई कि मेरे ही कपड़े और मैं ही उसके सामने दीन हीन लग रहा हूं। बड़ी भूल हो गई। फिर अपने को समझाया फिर अपने मन को दबाया।
      घर के लोगों ने पूछा की ये कौन है, नसरूदीन ने परिचय दिया। कहा, मेरे मित्र है बचपन के बहुत अद्भुत व्‍यक्‍ति है। जमाल इनका नाम है। रह गये कपड़े, सो मेरे है।
      घर के लोग बहुत हैरान हुए। मित्र भी हैरान हुआ। नसरूदीन भी कहकर हैरान हुआ। सोचा भी नहीं था कि ये शब्‍द मुहँ से निकल जायेंगे।
      लेकिन जो दबाया जाता है, वह निकल जाता है। जो दबाओ, वह निकलता है; जो सप्रेम करो, वह प्रकट होगा। इसलिए भूल कर भी गलत चीज न दबाना। अन्‍यथा सारा जीवन गलत चीज की अभिव्‍यक्‍ति बन जाता है।
      वह बहुत घबरा गया। सोचा भी नहीं था कि ऐसा मुंह से निकल जाएगा। मित्र भी बहुत हतप्रभ रह गया। घर के लोग भी सोचने लगे। यह क्‍या बात कही। बाहर निकल कर मित्र ने कहा, अब मैं तुम्‍हारे साथ दूसरे घर न जाऊँगा। यह तुमने क्‍या बात कहीं।
      नसरूदीन की आंखों में आंसू आ गये। क्षमा मांगने लगा। कहने लगा भूल हो गई। जबान पलट गई। लेकिन जबान कभी नहीं पलटती है।
      ध्‍यान रखना, जो भी तर दबा हो वह कभी भी जबान से निकल जाता है। जबान पलटती कभी नहीं।
      तो वह कहने लगा क्षमा कर दो, अब ऐसी भूल न होगी। कपड़े में क्‍या रखा है। लेकिन कैसे निकल गई ये बात,मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि कपड़े किसके है।      
      लेकिन आदमी वहीं नहीं कहता, जो सोचता है, कहता कुछ और है सोचता कुछ और है।
      कहता था मैंने तो कुछ सोचा भी नहीं, कपड़े का तो मुझ ख्‍याल भी नहीं आया। यह बात कैसे निकल गई। जब कि घर से चलने में और घर तक आने में सिवाय कपड़े के उसको कुछ भी ख्‍याल नहीं आया था।
      आदमी बहुत बेईमान हे। जो उसके भीतर ख्‍याल आता है।  कभी कहता भी नहीं। और जो बहार बताता है, वह भीतर बिलकुल नहीं होता है। आदमी सरासर झूठ है।
      मित्र ने कहां—मैं चलता हूं तुम्‍हारे साथ लेकिन अब कपड़े की बात न उठाना। नसरूदीन ने कहा, कपड़े तुम्‍हारे ही हो गये। अब मैं वापस पहनूंगा भी नहीं। कपड़े में क्‍या रखा है।
      कह तो वह रहा था कि कपड़े में क्‍या रखा है, लेकिन दिखाई पड़ रहा था कि कपड़े में ही सब कुछ रखा है। वे कपड़े बहुत सुंदर थे। वे मित्र बहुत अद्भुत मालूम पड़ रहा था। फिर चले रास्‍ते पर। और नसरूदीन फिर अपने को समझाने लगा की कपड़े दे ही दूँगा मित्र को। लेकिन जितना समझता था, उतना ही मन कहता था कि एक बार भी तो पहने नहीं। दूसरे घर तक पहुंचे,संभलकर संयम से।
      संयमी आदमी हमेशा खतरनाक होता हे। क्‍योंकि संयमी का मतलब होता है कि उसने कुछ भीतर दबा रखा है। सच्‍चा आदमी सिर्फ सच्‍चा आदमी होता है। उसके भीतर कुछ भी दबा नहीं रहता है। संयमी आदमी के भीतर हमेशा कुछ दबा होता है। जो ऊपर से दिखाई देता है। ठीक उलटा उसके भीतर दिखाई दबा होता है। उसी को दबाने की कोशिश में वह संयमी हो जाता है। संयमी के भीतर हमेशा बारूद है, जिसमें कभी भी आग लग जाये तो बहुत खतरनाक है। और चौबीस घंटे दबाना पड़ता है उसे,जो दबाया गया है। उसे एक क्षण को भी फुरसत दी, छुट्टी की वह बहार आ जायेगा। इस लिए संयमी आदमी को अवकाश कभी नहीं होता। चौबीस घंटे जब तक जागता है। नींद में बहुत गड़बड़ हो जाती हे। सपने में सब बदल जाता है। और जिसको दबाया है वह नींद में प्रकट होने लगता है। क्‍योंकि नींद में संयम नहीं चलता। इसीलिए संयमी आदमी नींद में डरता है। आपको पता है,संयमी आदमी कहता है क्‍या सोना। इसके अलावा उसका कोई कारण नहीं है। नींद तो परमात्मा का अद्भुत आशीर्वाद है। लेकिन संयमी आदमी नींद से डरता है। क्‍योंकि जो दबाया है, वह नींद में धक्‍के मारता है। सपने बनकर आता है।
      किसी तरह संयम साधना करके, बेचारा नसरूदीन उसी दूसरे मित्र के घर में घूसा। दबाये हुए मन को। सोच रहा है कि कपड़े मेरे नहीं है। मित्र के ही है। लेकिन जितना वह कह रहा है कि मेरे नहीं है, मित्र के ही है। उतने ही कपड़े उसे अपने मालुम पड़ रहे है।
      इनकार बुलावा है। मन में भीतर ना का मतलब है, हां होता है। जिस बात को तुमने कहा नहीं मन कहेगा हां यही।
      मन कहने लगा कौन कहता है, कौन कहता है कि कपड़े मेरे नहीं है? और नसरूदीन की ऊपर की बुद्धि समझाने लगी कि नहीं, कपड़े तो मैंने दे दिये मित्र को। जब वे भीतर घर में गये, तब नसरूदीन को देखकर कोई समझ भी नहीं सकता था। वह भीतर कपड़े से लड़ रहा है। घर में मित्र मौजूद था, उसकी सुंदर पत्‍नी मिली। उसकी आंखें एक दम अटक गई मित्र के उपर। नसरूदीन को फिर धक्‍का लगा। उस सुंदर स्‍त्री ने उसे भी कभी इतने प्‍यार से नहीं देखा था। पूछने लगी ये कौन है, कभी देखा नहीं इन्‍हें। नसरूदीन ने सोचा, इस दुष्‍ट को कहां से साथ ले आया। जो देखो इसको देखता है। और पुरूषों के देखने तक तो गनीमत थी। लेकिन सुंदर स्‍त्रियां भी उसी को देख रही है। फिर तो और भी अधिक मुसीबत हो गई नसरूदीन के मन में। प्रकट में कहा, मेरे मित्र है, बचपन के साथी है। बहुत अच्‍छे आदमी है। रह गये कपड़े सो उन्‍हीं के है, मेरे नहीं है।
      लेकिन कपड़े उन्‍हीं के थे तो कहने की जरूरत क्‍या थी। कह गया तब पता चला कि भूल हो गई।
      भूल का नियम है कि वह हमेशा अतियों पर होती है। एक्‍सट्रीम से बचो तो दूसरे एक्‍सट्रीम पर हो जाती है। भूल घड़ी के पैंडुलम की तरह चलती है। एक कोने से दूसरे कोने पर जाती है। बीच में नहीं रुकती। भोग से जायेगी तो एकदम त्‍याग पर चली जायेगी। एक बेवकूफी से छूटी दूसरी बेवकूफी पर पहुंच जायेगी। जो ज्‍यादा भोजन से बचेगा, वह उपवास करेगा। और उपवास ज्‍यादा भोजन से भी बदतर हे। क्‍योंकि ज्‍यादा भोजन भी आदमी दो एक बार कर सकता है। लेकिन उपवास करने वाला आदमी दिन भर मन ही मन भोजन करता है। वह चौबीस घंटे भोजन करता रहता है।
      एक भूल से आदमी का मन बचता है तो दूसरी भूल पर चला जाता है। अतियों पर वह डोलता है। एक भूल की थी कि कपड़े मेरे है। अब दूसरी भूल हो गई कि कपड़े उसी के है, तो साफ हो जाता है कि कपड़े उसके बिलकुल नहीं है।
      और बड़े मजे की बात है कि जोर से हमें वही बात कहनी पड़ती है, जो सच्‍ची नहीं होती  है। अगर तुम कहो कि मैं बहुत बहादुर आदमी हूं तो समझ लेना कि तुम पक्‍के नंबर के कायर हो।
      अभी हिंदुस्‍तान पर चीन का हमला हुआ। सारे देश में कवि हो गये, जैसे बरसात में मेंढक पैदा हो जाते है। हम सोये हुए शेर है, हमें  मत छेड़ों। कभी सोये हुए शेर ने कविता की है कि हमको मत छेड़ों, कभी सोये हुऐ शेर को छेड़ कर देखो तो पता चल जाएगा। कि छेड़ने का क्‍या मतलब होता है। लेकिन हमारा पूरा मुल्‍क कहने ला कि हम सोये हुऐ शेर है। हम ऐसा कर देंगे,वैसा कर देंगे। चीन लाखों मील दबा कर बैठ गया है और हमारे सोये शेर फिर से सो गये है। कविता बंद हो गई है। यह शेर होने का ख्‍याल शेरों को पैदा नहीं होता। वह कायरों को पैदा होता है। शेर-शेर होता है। चिल्‍ला चिल्‍लाकर कहने की उसे जरूरत नहीं होती।
      कह तो दिया नसरूदीन ने कि कपड़े—कपड़े इन्‍हीं के है। लेकिन सुन कर वह स्‍त्री तो हैरान हुई। मित्र भी हैरान हुआ कि फिर वही बात।
      बाहर निकल कर उसे मित्र ने कहा कि क्षमा करो, अब मैं लौट जाता हूं। गलती हो गई है कि तुम्‍हारे साथ आया। क्‍या तुम्‍हें कपड़े ही दिखाई पड़ रहे है।
      नसरूदीन ने कहा, मैं खुद भी नहीं समझ पाता। आज तक जिंदगी में कपड़े मुझे दिखाई नहीं पड़े। यह पहला ही मौका है। क्‍या हो गया मुझे। मेरे दिमाग में क्‍या गड़बड़ हो गई। पहले एक भूल हो गई थी। अब उससे उलटी भूल हो गई। अब मैं कपड़ों की बात ही नहीं करूंगा। बस एक मित्र के घर और मिलना है फिर घर चल कर आराम से बैठे गे। और एक मौका मुझे दे दो। नहीं तो जिंदगी भी लिए अपराध मन में रहेगा कि मैंने मित्र के साथ कैसा दुर्व्‍यवहार किया।
      मित्र साथ जाने को राज़ी हो गया। सोचा था अब और क्‍या करेगा भूल। बात तो खत्‍म हो ही गई हे। दो ही बातें हो सकती थी। और दोनों बातें हो गई है। लेकिन उसे पता न था भूल करने वाले बड़े इनवैटिव होते है। नयी भूल ईजाद कर लेते है। शायद आपको भी पता न हो।
      वे तीसरे मित्र के घर गये। अब की बार तो नसरूदीन अपनी छाती को दबाये बैठा है कि कुछ भी हो जाये, लेकिन कपड़ों की बात न निकालूंगा।
      जितने जोर से किसी चीज को दबाओ, उतने जोर से वह पैदा होनी शुरू होती है। किसी चीज को दबाना उसे शक्‍ति देने का दूसरा नाम है। दबाओ तो और शक्‍ति मिलती है उसे। जितने जोर से आप दबाते है उस जोर में जो ताकत आपकी लगती है वह उसी में चली जाती है। जिस को आप दबाते हो। ताकत मिल गई उसे।
      अब वह दबा रहा है और पूरे वक्‍त पा रहा है कि मैं कमजोर पड़ता जा रहा हूं। कपड़े मजबूत होते जा रहे है। कपड़े जैसी फिजूल चीज भी इतनी मजबूत हो सकती है। कि नसरूदीन जैसा ताकतवर आदमी हारे जा रहा है उसके सामने। जो किसी चीज से न हारा था, आज उसे साधारण से कपड़े हराये डालते है। वह अपनी पूरी ताकत लगा रहा है। लेकिन उसे पता नहीं है कि पूरी ताकत हम उसके खिलाफ लगाते है, जिससे हम भयभीत हो जाते है। जिससे हार जाते है, उससे हम कभी नहीं जीत सकते।
      ताकत से नहीं जीतना है, अभय से जीतना है, फियरालेसनेस से जीतना है। बड़े से बड़ा ताकतवर हार जायेगा। अगर भीतर भय हो तो। ध्‍यान रहे हम दूसरे से कभी नहीं हारते, अपने ही भय से हारते है। कम से कम मानसिक जगत में तो यह पक्‍का है कि दूसरा हमें कभी नहीं हरा सकता,हम हमारा भय ही हराता है।
      नसरूदीन जितना भयभीत हो रहा है, उतनी ही ताकत लगा रहा है। और वह जितनी ताकत लगा रहा है, उतना भयभीत हुआ जा रहा है। क्‍योंकि कपड़े छूटते ही नहीं। वे मन में बहुत चक्‍कर काट रहे है। तीसरे मकान के भीतर घुसा है। लगता है वह होश में नहीं है। बेहोश है। उसे न दीवालें दिख रही है, न घर के लोग दिखायी पड़ रहे हे। उसे केवल वहीं कोट पगड़ी दिखाई पड़ रही है। मित्र भी खो गया है। बस कपड़े है और वह हे। हालांकि ऊपर से किसी को पता नहीं चलता है। जिस घर में गया, फिर आँख टिक गयीं उसके मित्र के कपड़ों पर। पूछा गया ये कौन है? लेकिन नसरूदीन जैसे बुखार में है। वह होश में नहीं है।
      दमन करने वाले लोग हमेशा बुखार में जीते है। कभी स्‍वस्‍थ नहीं होते। सप्रेशन जो है, वह मेंटल फिवर है। दमन जो है। वह मानसिक बुखार है।
      दबा लिया है और बुखार पकड़ा हुआ है। हाथ पैर कांप रहे है उसके। वह अपने हाथ पैर रोकने की बेकार कोशिश कर रहा है। जितना रोकता है वह उतने कांपते जा रहे है। कौन है यह?....यह तो अब उसे खुद भी याद नहीं आ रहा है। कौन है यह,शायद कपड़े है, सिर्फ कपड़े। साफ मालूम पड़ रहा है। कि कपड़े है लेकिन यह कहना नहीं है। लगा जैसे बहुत मुश्‍किल में पड़ गया है। उसे याद नहीं आ रहा कि क्‍या कहना है। फिर बहुत मुश्‍किल से कहां मेरे बचपन का मित्र है, नाम है फला। और रह गये कपड़े, सो कपड़े की तो बात ही नहीं करना है। वे किसी के भी हो, उनकी बात नहीं उठानी है।
      लेकिन बात उठ गई, जिसकी बात न उठानी हो उसी की बात ज्‍यादा उठती है।
      ये छोटी सी कहानी क्‍यों कहीं मैंने? सेक्‍स की बात नहीं उठानी है और उसकी ही बात चौबीस घंटे उठती है। नहीं किसी से बात करना है जो फिर अपने से ही बात चलती है। न करें दूसरे से तो खुद ही करनी पड़ेगी बात अपने आप से। और दूसरे से बात करने में राहत भी मिल सकती है। खुद से बात करने में कोई राहत भी नहीं है। कोल्‍हू के बैल की तरह अपने भीतर ही घूमते रहो। सेक्‍स की बात नहीं करना है, उसकी बात ही नहीं उठानी है। मां अपनी बेटी के सामने नहीं उठाती। बेटा आपने बाप के सामने नहीं उठाता। मित्र-मित्र के सामने नहीं उठाते। क्‍योंकि उठानी ही नहीं है बात। जो उठाते है वे अशिष्‍ट है। जबकि चौबीस घंटे सबके मन में ही बात चलती है।
      सेक्‍स उतना महत्‍वपूर्ण नहीं है जितना कि बात न उठाने से महत्‍वपूर्ण हो गया है। सेक्‍स उतना महत्‍वपूर्ण बिल्‍कुल नहीं है जितना कि हम समझ रहे है उसे।
      लेकिन किसी भी व्‍यर्थ की बात को उठाना बंद कर दो उसे तो वह बहुत महत्‍वपूर्ण हो जाती है। इस दरवाजे पर एक तख्‍ती लगा दें कि यहां झांकना मना है। और यहां झांकना बड़ा महत्‍वपूर्ण हो जायेगा। फिर चाहे आपको यूनिवर्सिटी में कुछ भी हो रहा हो, भले ही आइंस्‍टीन गणित पर भाषण दे रहा हो। बह सब बेकार है, यह तख्‍ती महत्‍वपूर्ण हो जायेगी। यहीं झांकने को बार-बार मन करेगा। हर विद्यार्थी यहीं चक्‍कर लगाने लगेगा। लड़के जरा जोर से लगायेंगे, लड़कियां जरा धीरे से।
कोई बुनियादी फर्क नहीं है आदमी-आदमी में।
      मन में भी होगा कि क्‍या है इस तख्‍ती के भीतर,यह तख्‍ती एकदम अर्थ ले लगी। हां कुछ जो अच्‍छे लड़के-लड़कियां नहीं है, वे आकर सीधा झांकने लगेंगे। वही बदनामी उठायेगे कि ये अच्छे लोग नहीं है। तख्‍ती जहां लगी थी कि नहीं झांकना है वहीं झांक रहे हे। जो भद्र जन है, सज्‍जन है, अच्‍छे घर के या इस तरह के वहम जिनके दिमाग में है, वह उधर से तिरछी आंखें किए हुए निकल जायेगे, और तिरछी आंखें से देखते ही रहेगें तख्‍ती को। और तिरछी आँख से जो चीज दिखाई पड़ती है, वह खतरनाक हो जाती है।
      फिर पीडित जन जो वहां से तिरछी आंखें किए हुए निकल जायेंगे वह इसके बदला लेंगे। किससे, जो झांक रहे थे उनसे। गालियां देंगे उनको कि बुरे लोग है। अशिष्‍ट है, सज्‍जन नहीं है, साधु नहीं है। और इस तरह मन में सांत्वना कंसोलेशन जुटायेंगे कि हम अच्‍छे आदमी है, इसलिए हमने झाँकर नहीं देखा। लेकिन झाँकर देखना तो जरूर था, यह मन कहे चला जायेगा। फिर सांझ होते-होते अँधेरा घिरते-घिरते वे आयेंगे। क्‍लास में बैठकर पढ़ेंगे,तब भी तख्‍ती दिखाई पड़ेगी, किताब नहीं। लेबोरेटरी में ऐक्सपैरिमैंट करते होंगे और तख्ती बीच-बीच में आ जायेगी। सांझ तक वह आ जायेगी देखना। आना ही पड़ेगा


आदमी के मन का नियम उलटा है। इस नियमों का उलटा नहीं हो सकता है। हां कुछ जो बहुत ही कमजोर होंगे, वह शायद नहीं आ पायेंगे तो रात सपने में उनको भी वहां आना पड़ेगा। मन में उपवाद नहीं मानते है। जगत के किसी नियम में कोई अपवाद नहीं होता। जगत के नियम अत्‍यंत वैज्ञानिक है। मन के नियम भी उतने ही वैज्ञानिक हे।
      यह जो सेक्‍स इतना महत्‍वपूर्ण हो गया है वर्जना के कारण। वर्जना की तख्‍ती लगी है। उस वर्जना के कारण यह इतना महत्‍वपूर्ण हो गया है। इसने सारे मन को घेर लिया है। सारा मन सेक्‍स के इर्द-गिर्द घूमने लगाता है।
      फ्रायड ठीक कहता है कि मनुष्‍य का मन सेक्‍स के आस पास ही घूमता है। लेकिन वह यह गलत कहता है कि सेक्‍स महत्‍वपूर्ण है, इसलिए घूमता है।
      नहीं, घूमने का कारण है, वर्जना इनकार, विरोध, निषेध। घूमने का कारण है हजारों साल की परम्‍परा। सेक्‍स को वर्जिन,गर्हित,निंदित सिद्ध करने वाली परम्‍परा इसके लिए जिम्‍मेदार है। सेक्‍स को इतना महत्‍वपूर्ण बनाने वालों में साधु, महात्‍माओं का हाथ है। जिन्‍होंने तख्‍ती लटकाई है वर्जना की।
      यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा। लेकिन यह सत्‍य है। और कहना जरूरी हे कि मनुष्‍यजाति को सेक्सुअलिटी की, कामुकता की तरफ ले जाने का काम महात्‍माओं ने ही किया है। जितने जोर से वर्जना लगाई है उन्‍होंने, आदमी उतने जोर से आतुर होकर भागने लगा है। इधर वर्जना लगा दी। उधर उसका परिणाम यह हुआ कि सेक्‍स आदमी की रग-रग से फूट कर निकल पड़ा है। थोड़ी खोजबीन करो, उपर की राख हटाओं, भीतर सेक्‍स मिलेगा। उपन्‍यास, कहानी, महान से महान साहित्‍यकार की जरा राख झाड़ों। भीतर सेक्‍स मिलेगा। चित्र देखो मूर्ति देखो सिनेमा देखो, सब वही।
      और साधु संत इस वक्‍त सिनेमा के बहुत खिलाफ है। शायद उन्‍हें पता नहीं कि सिनेमा नहीं था तो भी आदमी यही सब करता था। कालिदास के ग्रंथ पढ़ो,कोई फिल्‍म इतनी अश्‍लील नहीं बन सकती। जितने कालिदास के वचन है। उठाकर देखें पुराने साहित्‍य को, पुरानी मूर्तियों को, पुराने मंदिरों को। जो फिल्‍म में है। वह पत्‍थरों में खुदा मिलेगा। लेकिन उनसे आंखे नहीं खुलती हमारी। हम अंधे की तरह पीछे चले जाते है। उन्‍हीं लकीरों पर।
      सेक्‍स जब तक दमन किया जायेगा और जब तक स्‍वस्‍थ खुले आकाश में उसकी बात न होगी और जबतक एक-एक बच्‍चे के मन में वर्जना की तख्‍ती नही हटेगी। तब तक दुनिया सेक्‍स के औब्सैशन से मुक्‍त नहीं हो सकती। तब तक सेक्‍स एक रोग की तरह आदमी को पकड़े रहेगा। वह कपड़े पहनेगा तो नजर सेक्‍स पर होगी। खाना खायेगा तो नजर सेक्‍स पर होगी। किताब पढ़ेगा तो नजर सेक्‍स पर होगी। गीत गायेगा तो नजर सेक्‍स पर होगी। संगीत सुनेगा तो नजर सेक्‍स पर होगी। नाच देखेगा तो नजर सेक्‍स पर होगी। सारी जिंदगी उसकी सेक्‍स के आसपास घूमेगा।
      अनातोली फ्रांस मर रहा था। मरते वक्‍त एक मित्र उसके पास गया और अनातोली जैसे अदभुत साहित्‍यकार से उसने पूछा कि मरते वक्‍त तुमसे पूछता हूं, अनातोली जिंदगी में सबसे महत्‍वपूर्ण क्‍या है? अनातोली ने कहा, जरा पास आ जाओ, कान में ही बता सकता हूं। आस पास और भी लोग बैठे थे। मित्र पास आ गया। वह हैरान हुआ कि अनातोली जैसा आदमी, जो मकानों की चोटियों पर चढ़कर चिल्‍लाने का आदमी है। जो उसे ठीक लगा हमेशा कहता रहा। वह आज भी मरते वक्‍त इतना कमजोर हो गया है कि जीवन की सबसे महत्‍वपूर्ण बात बताने को कहता है कि पास आ जाओ। कान में कहूंगा। सुनो धीरे से कान में, मित्र पास सरक आया। अनातोली कान के पास होंठ ले गया। लेकिन कुछ बोला नहीं। मित्र ने कहा, बोलते क्‍यों नहीं? अनातोली कहां तुम समझ गये। अब बोलने की कोई जरूरत नहीं है।
      ऐसा मजा है। और मित्र समझ गये और तुम भी समझ गये होगें। लेकिन हंसने की बात नहीं है। क्‍या ये पागल पन है?ये कैसे मनुष्‍य को पागलपन की और ले जा रहा है। दुनियां को पागलखाना बनाने की कोशिश की जा रही है।
       इसका बुनियादी कारण यह है कि सेक्‍स को आज तक स्‍वीकार नहीं किया गया है। जिससे जीवन का जन्‍म होता है,जिससे जीवन के बीज फूटते है। जिससे जीवन में फूल आते है। जिससे जीवन की सारी सुगंध है, सारा रंग है। जिससे जीवन का सारा नृत्‍य है, जिसके आधार पर जीवन का पहिया घूमता है। उसको स्‍वीकार नहीं किया गया। जीवन के मौलिक आधार को अस्‍वीकार किया गया है। जीवन में जो केंद्रीय है परमात्‍मा जिसको सृष्‍टि का आधार बनाये हुए है—चाहे फूल हो, चाहे पक्षी हो,चाहे बीज हो, चाहे पौधे हो, चाहे मनुष्‍य हो—सेक्‍स जो कि जीवन के जीवन के जन्‍म का मार्ग है, उसको ही अस्‍वीकार कर दिया गया है।
      उस अस्‍वीकृति को दो परिणाम हुए। अस्‍वीकार करते ही वह सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण हो गया। अस्‍वीकार करते ही वह सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण हो गया और मनुष्‍य के चित को उसने सब तरफ से पकड़ लिया है। अस्‍वीकार करते ही उसे सीधा जानने का कोई उपाय नहीं रहा। इसलिए तिरछे जानने के उपाय खोजने पड़े, जिनसे मनुष्‍य का चित विकृत और बीमार हो गया है। जिस चीज को सीधा जानने के उपाय न रह जायें और मन जानना चाहता हो,तो वह फिर गलत उपाय खोजने लग जाता है।
      मनुष्‍य को अनैतिक बनाने में तथा कथित नैतिक लोगों का हाथ है। जिन लोगों ने आदमी को नैतिक बनाने की चेष्‍टा की है, दमन के द्वारा,वर्जना के द्वारा, उन लोगों ने सारी मनुष्‍य जाति को अनैतिक बना दिया है।
      और जितना आदमी अनैतिक होता जा रहा है। उतनी ही वर्जना सख्‍त होती चली जाती है। वे कहते है। कि फिल्‍मों में नंगी तस्‍वीरें नहीं होनी चाहिए। वे कहते है, पोस्‍टरों पर नंगी तस्‍वीरे नहीं होनी चाहिए। वे कहते है किताब ऐसी होनी चाहिए। वे कहते है फिल्‍म में चुंबन लेते वक्‍त कितने इंच का फासला होना चाहिए। यह भी गवर्नमेंट तय करें। वे यह सब कहते है। बड़े अच्‍छे लोग हैं वे, इसलिए वे कहते है कि आदमी अनैतिक न हो जाये।
      और उनकी ये सब चेष्‍टायें फिल्‍मों को और गंदा करती चली जाती है। पोस्‍टर और अश्‍लील होते चले जाते है। किताबें और गंदी होती चली जा रही है। हां, एक फर्क पड़ता है। किताब के भीतर कुछ रहता है, उपर कवर पर कुछ और रहता है। और अगर ऐसा नहीं रहता तो लड़का गीता खोल लेता है और गीता के अंदर दूसरी किताब रख लेता है। उसको पढ़ता है। बाइबिल पढ़ता है,अगर बाइबिल पढ़ता हो तो समझना भीतर कोई दूसरी किताब है। यह सब धोखा यह डिसेप्‍शन पैदा होता है वर्जना से।
      विनोबा कहते है, तुलसी कहते है, अश्‍लील पोस्‍टर नहीं चाहिए। पुरूषोतम दास टंडन तो यहां तक कहते थे कि खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों पर मिट्टी पोतकर उनकी प्रतिमाओं को ढंक देना चाहिए। कहीं आदमी इनको देखकर गंदा न हो जाये। और बड़े मजे की बात यह है कि तुम ढँकते चले जाओ इनको,हजार साल से ढाँक ही रहे हो। लेकिन इनसे आदमी गंदगी से मुक्‍त नहीं होता। गंदगी रोज-रोज बढ़ती चली जाती है।
      मैं यह पूछना चाहता हूं, कि अश्‍लील किताब, अश्‍लील सिनेमा के कारण आदमी कामुक होता है या कि आदमी कामुक है,इसलिए अश्‍लील तस्‍वीर और पोस्‍टर चिपकाये जा रहा है। कौन है बुनियादी?
      बुनियाद में आदमी की मांग है, अश्‍लील पोस्‍टर के लिए, इसलिए अश्‍लील पोस्‍टर लगता है और देखा जाता है। साधु संन्‍यासी भी देखते है। लेकिन देखने  में एक फर्क रहता है। आप उसको देखते है और अगर आप पकड़ लिए जायेंगे देखते हुए तो समझा जायेगा कि यह आदमी गंदा है। और अगर कोई साधु संन्‍यासी मिल जाये, और आप उससे कहें कह आप क्‍यों देख रहे है। तो वह कहेगा कि हम तो निरीक्षण कर रहे है, स्‍टडी कर रहे है, कि किस तरह लोगों को अनैतिकता से बचाया जाये। इसलिए अध्‍यन कर रहे है। इतना फर्क पड़ेगा। बाकी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बल्‍कि आप बिना देखे निकल भी जायें। साधु संन्‍यासी बिना देखे कभी नहीं निकल सकते थे। क्‍योंकि उनकी वर्जना और भी ज्‍यादा है, उनका चित और भी वर्जित है।
      एक संन्‍यासी मेरे पास आये। वे नौ वर्ष के थे, तब दुष्‍टों ने उनको दीक्षा दे दी। नौ वर्ष के बच्‍चे को दीक्षा देना कोई भले आदमी का काम हो सकता है। नौ वर्ष का बच्‍चा, बाप मर गया है उसका। संन्‍यासी को मौका मिल गया। उन्‍होंने उसको दीक्षा दे दी। अनाथ बच्‍चे के साथ कोई भी दुर्व्‍यवहार किया जा सकता था। उनको दीक्षा दे दी गई। वह आदमी नौ वर्ष की उम्र से बेचारा संन्‍यासी है। अब उनकी उम्र कोई पचास साल है। वह मेरे पास रुके थे। मेरी बात सुन कर उनकी हिम्‍मत जगी कि मुझे सच्‍ची बात कही जा सकती है। इस मुल्‍क में सच्‍ची बातें किसी से भी नहीं कहीं जा सकती है। सच्‍ची बातें कहना मत, नहीं तो फंस जाओगे। उन्‍होंने एक रात मुझसे कहा कि मैं बहुत परेशान हूं,सिनेमा के पास से निकलता हूं तो मुझे लगता है, अंदर पता नहीं क्‍या होता होगा? इतने लोग तो अंदर जाते है। इतनी क्‍यू लगाये खड़े रहते है। जरूर कुछ न कुछ बात तो होगी ही। हालांकि मंदिर में जब मैं बोलता हूं तो मैं कहता हूं कि सिनेमा जाने वाले नर्क में जायेंगे। लेकिन जिनको मैं कहता हूं नर्क जाओगे,वे नर्क की धमकी से भी नहीं डरते। और सिनेमा जाते है। मुझे लगता है जरूर कुछ बात होगी।
      नौ साल का बच्‍चा था, तब साधु हो गया। नौ साल के बाद ही उनकी बुद्धि अटकी रह गयी। उसके आगे विकसित नहीं हुई। क्‍योंकि जीवन के अनुभव से उन्‍हें तोड़ दिया गया था। नौ साल के बच्‍चे के भीतर जैसे भाव उठे कि सिनेमा के भीतर क्‍या हो रहा है। ऐसा उनके मन में उठता है लेकिन किससे कहें? मुझसे कहा, तो मैंने उनसे कहा कि सिनेमा दिखला दूँ आपको? वे बोले कि अगर दिखला दें तो बड़ी कृपा होगी। झंझट छूट जाये,यह प्रश्‍न मिट जाये। कि क्‍या होता है? एक मित्र को मैंने बुलवाया कि इनको ले जाओ। वह मित्र बोले कि मैं झंझट में नहीं पड़ता। कोई देख ले कि साधु को लाया हूं तो मैं झंझट में पड़ जाऊँगा। अंग्रेजी फिल्‍म दिखाने जरूर ले जा सकता हूं इनको। क्‍योंकि वह मिलिट्री एरिया में है। और उधर साधुओं को मानने वाले भक्‍त भी न होंगे। वहां मैं इनको ले जा सकता हूं। पर वे साधु अंग्रेजी नहीं जानते थे। फिर भी कहने लगे, कि कोई हर्ज नहीं कम से कम देख तो लेंगे कि क्‍या मामला है।
      यह चित है और यहीं चित वहां गाली देगा। मंदिर में बैठकर कि नर्क जाओगे। अगर अश्‍लील पोस्‍टर देखोगें। यह बदला ले रहा है। वह तिरछा देखकर निकल गया आदमी बदला ले रहा है। जिसने सीधा देखा उनसे बदला ले रहा है। लेकिन सीधा देखने वाले मुक्‍त भी हो सकते है। तिरछा देखने वाले मुक्‍त कभी नहीं होते। अश्‍लील पोस्‍टर इस लिए लग रहे है। अश्‍लील किताबें इसलिए छप रही है। लड़के-बूढे-नौजवान अशलील गालियां बक रहे है। अशलील कपड़े इसलिए पहने जा रहे है। क्‍योंकि तुमने जो मौलिक था और स्‍वाभाविक था उसे अस्‍वीकार कर दिया है। उसकी अस्‍वीकृति के परिणाम में यह सब गलत रास्‍ते खोज जा रहे है।


जिस दिन दुनिया में सेक्‍स स्‍वीकृत होगा, जैसा कि भोजन, स्‍नान स्‍वीकृत है। उस दिन दुनिया में अश्‍लील पोस्‍टर नहीं लगेंगे। अश्‍लील किताबें नहीं छपेगी। अश्‍लील मंदिर नहीं बनेंगे। क्‍योंकि जैसे-जैसे वह स्‍वीकृति होता जाएगा। अश्‍लील पोस्‍टरों को बनाने की कोई जरूरत नहीं रहेगी।
      अगर किसी समाज में भोजन वर्जित कर दिया जाये, की भोजन छिपकर खाना। कोई देख न ले। अगर किसी समाज में यह हो कि भोजन करना पाप है, तो भोजन के पोस्‍टर सड़कों पर लगने लगेंगे फौरन। क्‍योंकि आदमी तब पोस्‍टरों से भी तृप्‍ति पाने की कोशिश करेगा। पोस्‍टर से तृप्‍ति तभी पायी जाती है। जब जिंदगी तृप्‍ति देना बंद कर देती है। और जिंदगी में तृप्‍ति पाने का द्वार बंद हो जाता है।
      वह जो इतनी अश्‍लीलता और कामुकता और सेक्सुअलिटी है, वह सारी की सारी वर्जना का अंतिम परिणाम है।
      मैं युवकों से कहना चाहूंगा कि तुम जिस दुनिया को बनाने में संलग्न हो, उसमें सेक्‍स को वर्जित मत करना। अन्‍यथा आदमी और भी कामुक से कामुक होता चला जाएगा। मेरी यह बात देखने में बड़ी उलटी लगेगी। अख़बार वाले और नेतागण चिल्‍ला-चिल्‍ला कर घोषणा करते है कि मैं लोगों में काम का प्रचार कर रहा हूं। सच्‍चाई उलटी है के मैं लोगों को काम से मुक्‍त करना चाहता हूं। और प्रचार वे कर रहे है। लेकिन उनका प्रचार दिखाई नहीं पड़ता। क्‍योंकि हजारों साल की परंपरा से उनकी बातें सुन-सुन कर हम अंधे और बहरे हो गये है। हमें ख्‍याल ही रहा कि वे क्‍या कह रहे है। मन के सूत्रों का, मन के विज्ञान का कोई बोध ही नहीं रहा। कि वे क्‍या कर रहे है। वे क्‍या करवा रहे है। इसलिए आज जितना कामुक आदमी भारत में है। उतना कामुक आदमी पृथ्‍वी के किसी कोने में नहीं है।
       मेरे एक डाक्‍टर मित्र इंग्‍लैण्‍ड के एक मेडिकल कांफ्रेंस में भाग लेने गये थे। व्‍हाइट पार्क में उनकी सभा होती थी। कोई पाँच सौ डाक्‍टर इकट्ठे थे। बातचीत चलती थी। खाना पीना चलता था। लेकिन पास की बेंच पर एक युवक और युवती गले में हाथ डाले अत्‍यंत प्रेम में लीन आंखे बंद किये बैठे थे। उन मित्र के प्राणों में बेचैनी होने लगी। भारतीय प्राण में चारों तरफ झांकने का मन होता है। अब खाने में उनका मन न रहा। अब चर्चा में उनका रस न रहा। वे बार-बार लौटकर उस बेंच कीओर देखने लगे। पुलिस क्‍या कर रही है। वह बंद क्‍यों नहीं करती ये सब। ये कैसा अश्‍लील देश है। यह लड़के और लड़की आँख बंद किये हुए चुपचाप पाँच सौ लोगों की भीड़ के पास ही बेंच पर बैठे हुए प्रेम प्रकट कर रहे है। कैसे लोग है यह क्‍या हो रहा है। यह बर्दाश्‍त के बाहर है। पुलिस क्‍या कर रही है। बार-बार वहां देखते।
      पड़ोस के एक आस्‍ट्रेलियन डाक्‍टर ने उनको हाथ के इशारा किया ओर कहा, बार-बार मत देखिए, नहीं तो पुलिसवाला आपको यहां से उठा कर ले जायेगा। वह अनैतिकता का सबूत है। यह दो व्‍यक्‍तियों की निजी जिंदगी की बात है। और वे दोनों व्‍यक्‍ति इसलिए पाँच सौ लोगों की भीड़ के पास भी शांति से बैठे है, क्‍योंकि वे जानते है कि यहां सज्‍जन लोग इकट्ठे है, कोई देखेगा नहीं। किसी को प्रयोजन भी क्‍या है। आपका यह देखना बहुत गर्हित है, बहुत अशोभन है, बहुत अशिष्‍ट है। यह अच्‍छे आदमी का सबूत नहीं है। आप पाँच सौ लोगों को देख रहे है कोई भी फिक्र नहीं कर रहा। क्‍या प्रयोजन है किसी से। यह उनकी अपनी बात है। और दो व्‍यक्‍ति इस उम्र में प्रेम करें तो पाप क्‍या है? और प्रेम में वह आँख बंद करके पास-पास बैठे हों तो हर्ज क्‍या है? आप परेशान हो रहे है। न तो कोई आपके गले में हाथ डाले हुए है, न कोई आपसे प्रेम कर रहा है।
      वह मित्र मुझसे लौटकर कहने लगे कि मैं इतना घबरा गया किये कैसे लोग है। लेकिन धीरे-धीरे उनकी समझ में यह बात पड़ी की गलत वे ही थे।
      हमारा पूरा मुल्‍क ही एक दूसरे घर में दरवाजे के होल बना कर झाँकता रहता है। कहां क्‍या हो रहा है। कौन क्‍या कर रहा है? कौन जा रहा है? कौन किसके साथ है? कौन किसके गले में हाथ डाले है? कौन किसका हाथ-हाथ्‍ में लिए है? क्‍या बदतमीजी है, कैसी संस्‍कारहीनता है। यह सब क्‍या है? यह क्‍यों हो रहा है? यह हो रह है इसलिए कि भीतर वह जिसको दबाता है, वह सब तरफ से दिखाई पड़ रहा है। वही दिखाई पड़ रहा है।
      युवकों से मैं कहना चाहता हूं कि तुम्‍हारे मां बाप, तुम्‍हारे पुरखे,तुम्‍हारी हजारों साल की पीढ़ियाँ सेक्‍स से भयभीत रही है। तुम भयभीत मत रहना। तुम समझने की कोशिश करना उसे। तुम पहचानने की कोशिश करना। तुम बात करना। तुम सेक्‍स के संबंध में आधुनिक जो नई खोज हुई है उनको पढ़ना, चर्चा करना और समझने की कोशिश करना कि सेक्‍स क्‍या है। क्‍या है सेक्‍स का मैकेनिज्म? उसका यंत्र क्‍या है? उसका यंत्र क्‍या है? क्‍या है उसकी आकांक्षा? क्‍या है उसकी प्‍यास? क्‍या है प्राणों के भीतर छिपा हुआ राज? इसको समझना। इसकी सारी की सारी वैज्ञानिकता को पहचाना। उससे भागना, एस्‍केप मत करना। आँख बंद मत करना। और तुम हैरान हो जाओगे कि तुम जितना समझोगे, उतने ही मुक्‍त हो जाओगे। तुम जितना समझोगे,उतने ही स्‍वस्‍थ हो जाओगे। तुम जितना सेक्‍स के फैक्‍ट को समझ लोगे, उतना ही सेक्स के फिक्‍शन से तुम्‍हारा छुटकारा हो जायेगा।
      तथ्‍य को समझते ही आदमी कहानियों से मुक्‍त हो जाता है। और जो तथ्‍य से बचता है, वह कहानियों में भटक जाता है।
      कितनी सेक्‍स की कहानियां चलती हे। और कोई मजाक ही नहीं है हमारे पास, बस एक ही मजाक है कि सेक्‍स की तरफ इशारा करें और हंसे। हद हो गई। तो जो आदमी सेक्‍स की तरफ इशारा करके हंसता है, वह आदमी बहुत ही क्षुद्र है। सेक्‍स की तरफ इशारा करके हंसने का क्‍या मतलब है? उसका एक ही मतलब है कि आप समझते ही नहीं।
      बच्‍चे तो बहुत तकलीफ में है कि उन्‍हें कौन समझायें,किससे वे बातें करें कौन सारे तथ्‍यों को सामने रखे। उनके प्राणों में जिज्ञासा है, खोज है, लेकिन उसको दबाये चले जाते हे। रोके चले जाते है। उसके दुष्‍परिणाम होते है। जितना रोकते है, उतना मन वहां दौड़ने लगता है और उस रोकने और दौड़ने में सारी शक्‍ति और ऊर्जा नष्‍ट हो जाती है।
      यह मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जिस देश में भी सेक्‍स की स्‍वस्‍थ रूपा से स्‍वीकृति नहीं होती, उस देश की प्रतिभा का जन्‍म नहीं होता।
      पश्‍चिम में तीन वर्षो में जो जीनियस पैदा हुआ है, जो प्रतिभा पैदा हुई है। वह सेक्‍स के तथ्‍य की स्‍वीकृति से पैदा हुई है।
      जैसे ही सेक्‍स स्‍वीकृत हो जाता है। वैसे ही जो शक्‍ति हमारी लड़ने में नष्‍ट होती है, वह शक्‍ति मुक्‍त हो जाती है। वह रिलीज हो जाती है। और उस दिन शक्‍ति को फिर हम रूपांतरित करते है—पढ़ने में खोज में, आविष्‍कार में, कला में, संगीत में,साहित्‍य में।
      और अगर वह शक्‍ति सेक्‍स में ही उलझी रह जाये जैसा कि सोच लें कि वह आदमी जो कपड़े में उलझ गया है—नसरूदीन, वह कोई विज्ञान के प्रयोग कर सकता था बेचारा। कि वह कोई सत्‍य का सृजन कर सकता था? कि वह कोई मूर्ति का निर्माण कर सकता था। वह कुछ भी कर सकता था। वह कपड़े ही उसके चारों और घूमते रहते है ओर वह कुछ भी नहीं कर
पाता है।
      भारत के युवक के चारों तरफ सेक्‍स घूमता रहता है पूरे वक्‍त। और इस घूमने के कारण उसकी सारी शक्‍ति इसी में लीन और नष्‍ट हो जाती है। जब तक भारत के युवक की सेक्‍स के इस रोग से मुक्‍ति नहीं होती, तब तक भारत के युवक की प्रतिभा का जन्‍म नहीं हो सकता। प्रतिभा का जन्‍म तो उसी दिन होगा, जिस दिन इस देश में सेक्‍स की सहज स्‍वीकृति हो जायेगी। हम उसे जीवन के एक तथ्‍य की तरह अंगीकार कर लेंगे—प्रेम से, आनंद से—निंदा से नहीं। और निंदा और घृणा का कोई कारण भी नहीं है।
      सेक्‍स जीवन का अद्भुत रहस्‍य है। वह जीवन की अद्भुत मिस्ट्रि हे। उससे कोई घबरानें की,भागने की जरूरत नहीं है। जिस दिन हम इसे स्‍वीकार कर लेंगे, उस दिन इतनी बड़ी उर्जा मुक्‍त होगी भारत में कि हम न्‍यूटन पैदा कर सकेंगे,हम आइंस्‍टीन पैदा कर सकेंगे। उस दिन हम चाँद-तारों की यात्रा करेंगे। लेकिन अभी नहीं। अभी तो हमारे लड़कों को लड़कियों के स्‍कर्ट के आस पास परिभ्रमण करने से ही फुरसत नहीं है। चाँद तारों का परिभ्रमण कौन करेगा। लड़कियां चौबीस घंटे अपने कपड़ों को चुस्‍त करने की कोशिश करें या कि चाँद तारों का विचार करें। यह नहीं हो सकता। यह सब सेक्सुअलिटी का रूप है।
      हम शरीर को नंगा देखना और दिखाना चाहते है। इसलिए कपड़े चुस्‍त होते चले जाते है।
      सौंदर्य की बात नहीं है यह, क्‍योंकि कई बार चुस्‍त कपड़े शरीर को बहुत बेहूदा और भोंडा बना देते है। हां किसी शरीर पर चुस्‍त कपड़े सुंदर भी हो सकते है। किसी शरीर पर ढीले कपड़े सुंदर हो सकते है। और ढीले कपड़े की शान ही और है। ढीले कपड़ों की गरिमा और है। ढीले कपड़ों की पवित्रता और है।
      लेकिन वह हमारे ख्‍याल में नहीं आयेगा। हम समझेंगे यह फैशन है, यह कला है, अभिरूचि है, टेस्‍ट है। नहीं ‘’टेस्‍ट’’ नहीं है। अभी रूचि नहीं है। वह जो जिसको हम छिपा रहे है भीतर दूसरे रास्‍तों से प्रकट होने की कोशिश कर रहा है। लड़के लड़कियों का चक्‍कर काट रहे है। लड़कियां लड़कों के चक्र काट रही है। तो चाँद तारों का चक्‍कर कौन काटेगा। कौन जायेगा वहां? और प्रोफेसर? वे बेचारे तो बीच में पहरेदार बने हुए खड़े है। ताकि लड़के लड़कियां एक दूसरे के चक्‍कर न काट सकें। कुछ और उनके पास काम है भी नहीं। जीवन के और सत्‍य की खोज में उन्‍हें इन बच्‍चों को नहीं लगाना है। बस, ये सेक्‍स से बचे जायें,इतना ही काम कर दें तो उन्‍हें लगता है कि उनका काम पूरा हो गया।
      यह सब कैसा रोग है, यह कैसा डिसीज्‍ड माइंड, विकृत दिमाग है हमारा। हम सेक्‍स के तथ्‍यों की सीधी स्‍वीकृति के बिना इस रोग से मुक्‍त नहीं हो सकते। यह महान रोग है।
      इस पूरी चर्चा में मैंने यह कहने की कोशिश की है कि मनुष्‍य को क्षुद्रता से उपर उठना है। जीवन के सारे साधारण तथ्‍यों से जीवन के बहुत ऊंचे तथ्‍यों की खोज करनी है। सेक्‍स सब कुछ नहीं है। परमात्‍मा भी है दुनिया में। लेकिन उसकी खोज कौन करेगा। सेक्‍स सब कुछ नहीं है इस दुनिया में सत्‍य भी है। उसकी खोज कौन करेगा। यहीं जमीन से अटके अगर हम रह जायेंगे तो आकाश की खोज कौन करेगा। पृथ्‍वी के कंकड़ पत्‍थरों को हम खोजते रहेंगे तो चाँद तारों की तरफ आंखे उठायेगा कौन?
      पता भी नहीं होगा उनको जिन्‍होंने पृथ्‍वी की ही तरफ आँख लगाकर जिंदगी गुजार दी। उन्‍हें पता नहीं चलेगा कि आकाश में तारे भी हैं, आकाश गंगा भी है। रात्रि के सन्‍नाटे में मौन सन्‍नाटा भी है आकाश का। बेचारे कंकड़ पत्‍थर बीनने वाले लोग,उन्‍हें पात भी कैसे चलेगा कि और आकाश भी है। और अगर कभी कोई कहेगा कि आकाश भी है, चमकते हुए तारे भी है। तो वे कहेंगे सब झूठी बातचीत है, कोरी कल्‍पना है। सच में तो केवल पत्‍थर ही पत्‍थर है। हां कहीं रंगीन पत्‍थर भी होते है। बस इतनी ही जिंदगी है।
      नहीं,  मैं कहता हूं इस पृथ्‍वी से मुक्‍त होना है,ताकि आकाश दिखाई पड़ सके। शरीर से मुक्‍त होना है। ताकि आत्‍मा दिखाई पड़ सके। और सेक्‍स से मुक्‍त होना है, ताकि समाधि तक मनुष्‍य पहुंच सके। लेकिन उस तक हम नहीं पहुंच सकेंगे। अगर हम सेक्‍स से बंधे रह जाते है तो। और सेक्‍स से हम बंध गये है। क्‍योंकि हम सेक्‍स से लड़ रहे है।
      लड़ाई बाँध देती है। समझ मुक्‍त कर देती है। अंडरस्टैंडिंग चाहिए समझ चाहिए।
      सेक्‍स के पूरे रहस्‍य को समझो बात करो विचार करो। मुल्‍क में हवा पैदा करो कि हम इसे छिपायेंगा नहीं। समझेंगे। अपने पिता से बात करो,अपनी मां से बात करो। वैसे वे बहुत घबराये गे। अपने प्रोफेसर से बात करो। अपने कुलपति को पकड़ो और कहो कि हमें समझाओ। जिंदगी के सवाल है ये। वे भागेगे। वे डरे हुए लोग है। डरी हुई पीढ़ी से आयें है। उनको पता भी नहीं है। जिंदगी बदल गयी है। अब डर से काम नहीं चलेगा। जिंदगी का एन काउंटर चाहिए मुकाबला चाहिए। जिंदगी से लड़ने और समझने की तैयारी करो। मित्रों का सहयोग लो, शिक्षकों का सहयोग लो, मां-बाप का सहयोग लो।
      वह मां गलत है, जो अपनी बेटी को और अपने बेटे को वे सारे राज नहीं बात जाती,जो उसने जाने। क्‍योंकि उसके बताने से बेटा और उसकी बेटी भूलों से बच सकती है। उसके न बताने उनसे भी उन्‍हीं भूलों को दोहराने की संभावना है। जो उसने खुद की होगी। बाप गलत है, जो अपने बेटे को अपनी प्रेम की और अपनी सेक्‍स की जिंदगी की सारी बातें नहीं बता देता। क्‍योंकि बता देने से बेटा उन भूलों से बच जायेगा। शायद बैटा ज्‍यादा स्‍वस्‍थ हो सकेगा। लेकिन वही बात इस तरह जीयेगा कि बेटे को पता चले कि उसने प्रेम ही नहीं किया। वह इस तरह खड़ा रहेगा। आंखे पत्‍थर की बनाकर कि उसकी जिंदगी में कभी कोई औरत इसे अच्‍छी लगी ही नहीं थी।
      यह सब झूठ है। यह सरासर झूठ है। तुम्‍हारे बाप न भी प्रेम किया है। उनके बाप ने भी प्रेम किया है। सब बाप प्रेम करते रहे है। लेकिन सब बाप धोखा देते रहे है। तुम भी प्रेम करोगे। और बाप बनकर धोखा दोगे। यह धोखे की दुनिया अच्‍छी नहीं है। दुनिया साफ सीधी होनी चाहिए। जो बाप ने अनुभव किया है  वह बेटे को दे जाये। जो मां ने अनुभव किया, वह बेटी को दे जाये। जो ईष्‍र्या उसने अनुभव कि है। जो प्रेम के अनुभव किये है। जो गलतियां उसने की है। जिन गलत रास्‍तों पर वह भटकी है और भ्रमि है। उस सबकी कथा को अपनी बेटी को दे जाये। जो नहीं दे जाते है, वे बच्‍चे का हित नहीं करते है। अगर हम ऐसा कर सके तो दुनिया ज्‍यादा साफ होगी।
      हम दूसरी चीजों के संबंध में साफ हो गये है। शायद केमेस्‍ट्री के संबंध में कोई बात जाननी हो तो सब साफ है। फ़िज़िक्स के संबंध में कोई बात जाननी है तो सब साफ है। भूगोल के बाबत जाननी हो तो सब साफ है। नक्‍शे बने हुए है। लेकिन आदमी के बाबत साफ नहीं है। कहीं कोई नक्‍शा नहीं है। आदमी के बाबत सब झूठ है। दुनिया सब तरफ से विकसित हो रही है। सिर्फ आदमी विकसित नहीं हो रहा। आदमी के संबंध में भी जिस दिन चीजें साफ-साफ देखने की हिम्‍मत हम जुटा लेंगे। उस दिन आदमी का विकास निश्‍चित है।
      यह थोड़ी बातें मैंने कहीं। मेरी बातों को सोचना। मान लेने की कोई जरूरत नहीं क्‍योंकि हो सकता है कि जो मैं कहूं बिलकुल गलत हो। सोचना, समझना, कोशिश करना। हो सकता है कोई सत्‍य तुम्‍हें दिखाई पड़े। जो सत्‍य तुम्‍हें दिखाई पड़ जायेंगा। वही तुम्‍हारे जीवन में प्रकार का दिया बन जायेगा।
 ओशो
युवक और यौन,
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

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