Monday, 19 February 2018

संभोग : परमात्‍मा की सृजन-ऊर्जा

संभोग से समाधि की और—1

संभोग : परमात्‍मा की सृजन-ऊर्जा—(1)

      मेरे प्रिय आत्‍मन,
प्रेम क्‍या है?
      जीना और जानना तो आसान है, लेकिन कहना बहुत कठिन है। जैसे कोई मछली से पूछे कि सागर क्‍या है? तो मछली कह सकती है, यह है सागर, यह रहा चारों और , वही है। लेकिन कोई पूछे कि कहो क्‍या है, बताओ मत, तो बहुत कठिन हो जायेगा मछली को। आदमी के जीवन में जो भी श्रेष्‍ठ है, सुन्‍दर है, और सत्‍य है; उसे जिया जा सकता है, जाना जा सकता है। हुआ जा सकता है। लेकिन कहना बहुत कठिन बहुत मुश्‍किल है।
      और दुर्घटना और दुर्भाग्‍य यह है कि जिसमें जिया जाना चाहिए, जिसमें हुआ जाना चाहिए, उसके संबंध में मनुष्‍य जाति पाँच छह हजार साल से केवल बातें कर रही है। प्रेम की बात चल रही है, प्रेम के गीत गाये जा रहे है। प्रेम के भजन गाये जा रहे है। और प्रेम मनुष्‍य के जीवन में कोई स्‍थान नहीं है।
      अगर आदमी के भीतर खोजने जायें तो प्रेम से ज्‍यादा असत्‍य शब्‍द दूसरा नहीं मिलेगा। और जिन लोगों ने प्रेम को असत्‍य सिद्ध कर दिया है और जिन्‍होंने प्रेम की समस्‍त धाराओं को अवरूद्ध कर दिया है.....ओर बड़ा दुर्भाग्‍य यह है कि लोग समझते है कि वे ही प्रेम के जन्‍मदाता है।
      धर्म-प्रेम की बातें करता है, लेकिन आज तक जिस प्रकार का धर्म मनुष्‍य जाति के ऊपर दुर्भाग्‍य की भांति छाया हुआ है। उस धर्म ने मनुष्‍य के जीवन से प्रेम के सारे द्वार बंद कर दिये है। और न उस संबंध में पूरब और पश्‍चिम में फर्क है न हिन्‍दुस्‍तान और न अमरीका में कोई फर्क है।
      मनुष्‍य के जीवन में प्रेम की धारा प्रकट ही पायी। और नहीं हो पायी तो हम दोष देते है कि मनुष्‍य ही बुरा है, इसलिए नहीं प्रकट हो पाया। हम दोष देते है कि यह मन ही जहर है, इसलिए प्रकट नहीं हो पायी। मन जहर नहीं है। और जो लोग मन को जहर कहते रहे है, उन्‍होंने ही प्रेम को जहरीला कर दिया,प्रेम को प्रकट नहीं होने दिया है।
      मन जहर हो कैसे सकता है? इस जगत में कुछ भी जहर नहीं है। परमात्‍मा के इस सारे उपक्रम में कुछ भी विष नहीं है,सब अमृत है। लेकिन आदमी ने सारे अमृत को जहर कर लिया है और इस जहर करेने में शिक्षक, साधु, संत और तथाकथित धार्मिक लोगों का सबसे ज्‍यादा हाथ है।
      इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्‍योंकि अगर यह बात दिखाई न पड़े तो मनुष्‍य के जीवन में कभी भी प्रेम...भविष्‍य में भी नहीं हो सकेगा। क्‍योंकि जिन कारणों से प्रेम नहीं पैदा हो सका है, उन्‍ही कारणों को हम प्रेम प्रकट करने के आधार ओर कारण बना रहे है।
      हालतें ऐसी है कि गलत सिद्धांतों को अगर हजार वर्षों तक दोहराया जाये तो फिर यह भूल ही जाते है कि सिद्धांत गलत है। और दिखाई पड़ने लगता है कि आदमी गलत है। क्‍योंकि वह उन सिद्धांतों को पूरा नहीं कर पा रहा है।
      मैंने सुना है, एक सम्राट के महल के नीचे से एक पंखा बेचने वाला गुजरता था। और जोर से चिल्‍ला रहा था कि अनूठे और अद्भुत पंखे मैंने निर्मित किये है। ऐसे पंखे कभी नहीं बनाये गये। ये पंखे कभी देखे भी नहीं गये है। सम्राट ने खिड़की से झांक कर देखा कि कौन है। जो अनूठे पंखे ले आया है। सम्राट के पास सब तरह के पंखे थे—दुनिया के कोने-कोने में जो मिल सकते थे। और नीचे देखा, गलियारे में खड़ा हुआ एक आदमी है, साधारण दो-दो पैसे के पंखे होंगे और चिल्‍ला रहा है—अनूठे,अद्वितीय।
      उस आदमी को ऊपर बुलाया गया और पूछा गया, इन पंखों में ऐसी क्‍या खूबी है? दाम क्‍या है इन पंखों के? उस पंखे वाले ने कहा कि महाराज, दाम ज्‍यादा नहीं है। पंखे को देखते हुए दाम कुछ भी नहीं है। सिर्फ सौ रूपये का पंखा है।
      सम्राट ने कहा, सौ रूपये का, यह दो पैसे का पंखा, जो बजार में जगह-जगह मिलता है, और सौ रूपये दाम। क्‍या है इसकी खूबी?
      उस आदमी ने कहां ये पंखा सौ वर्ष चलता है सौ वर्ष के लिए गारंटी है। सौ वर्ष से कम में खराब नहीं होता हे।
      सम्राट ने कहा, इसको देख कर तो ऐसा नहीं लगता है, कि सप्‍ताह भी चल जाये पूरा तो मुश्‍किल है। धोखा देने की कोशिश कर रहे हो? सरासर बेईमानी और वह भी सम्राट के सामने।
      उस आदमी ने कहा,आप मुझे भली भांति जानते है। इसी गलियारे में रोज पंखे बेचता हूं। सौ रूपये दाम है इसके और सौ वर्ष न चले तो जिम्‍मेदार मै हूं। रोज तो नीचे मौजूद होता हूं। फिर आप सम्राट है, आपको धोखा देकर जाऊँगा कहां?
      वह पंखा खरीद लिया गया। सम्राट को विश्र्वास तो न था। लेकिन आश्‍चर्य भी था कि यह आदमी सरासर झूठ बोल रहा है, किस बल पर बोल रहा है। पंखा सौ रूपये में खरीद लिया गया और उससे कहा गया कि सातवें दिन तुम उपस्‍थित हो जाना।     
      दो चार दिन में पंखे की डंडी बहार निकल गई। सातवें दिन तो वह बिलकुल मुर्दा हो गया। लेकिन सम्राट ने सोचा शायद पंखे वाला आयेगा नहीं।
      लेकिन ठीक सातवें दिन वह पंखे वाला हाजिर हो गया और उसने कहा: कहो महाराज, उन्‍होंने कहा: कहना नहीं है,यह पंखा पडा हुआ है टूटा हुआ। यह सात दिन में ही यह गति हो गयी। तुम कहते थे, सौ साल चलेगा। पागल हो या धोखेबाज? क्‍या हो?
      उस आदमी ने कहा कि मालूम होत है आपको पंखा झलना नहीं आता। पंखा तो सौ साल चलता ही। पंखा तो गारन्‍टीड है। आप पंखा झलते कैसे थे?
      सम्राट ने कहा, और भी सुनो,अब मुझे यह भी सीखना पड़ेगा कि पंखा कैसे किया जाता है।
      उस आदमी ने कहां की कृपा कर के बतलाईये की इस पंखे की ऐसी गति सात दिन में ऐसी कैसे बना दी आपने? किस भांति पंखा किया है?
      सम्राट ने पंखा उठाकर करके दिखाया कि इस भांति मैंने पंखा किया है।
      तो उस आदमी ने कहा कि समझ गया भूल। इस तरह नहीं किया जाता पंखा।
      सम्राट ने कहा तो किस तरह किया जाता है। और क्‍या तरिका है पंखा झलने का?
      उस आदमी ने कहां कि पंखा पकड़ी ये सामने और सिर को हिलाइयें। पंखा सौ वर्ष चलेगा। आप समाप्‍त हो जायेंगे,लेकिन पंखा बचेगा। पंखा गलत नहीं है। आपके झलने का ढंग गलत है।
      यह आदमी पैदा हुआ है—पाँच छह जार, दस हजार वर्ष की संस्‍कृति का यह आदमी फल है। लेकिन संस्कृति गलत नहीं है, यह आदमी गलत है। आदमी मरता जा रहा है रोज और संस्‍कृति की दुहाई चलती चली जाती है। कि महान संस्‍कृति महान धर्म, महान सब कुछ। और उसका यह फल है आदमी। और उसी संस्‍कृति से गुजरा है और परिणाम है उसका लेकिन नहीं आदमी गलत है और आदमी को बदलना चाहिए अपने को।
      और कोई कहने की हिम्‍मत नहीं उठाता कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि दस हजार वर्षो में जो संस्‍कृति और धर्म आदमी को प्रेम से नहीं भर पाय, वह संस्‍कृति और धर्म गलत तो नहीं है। और अगर  दस हजार वर्षों में आदमी प्रेम से नहीं भर पाया तो आगे कोई संभावना है, इस धर्म और इसी संस्‍कृति के आधार पर की आदमी कभी प्रेम से भा जाए?
      दस हजार साल में जो नहीं हो पाय, वह आगे भी दस हजार वर्षों में होने वाला नहीं है। क्‍योंकि आदमी यही है, कल भी यही होगा आदमी हमेशा से यही है, और हमेशा यही होगा। और संस्‍कृति और धर्म जिनके हम नारे दिये चले जा रहे है, और संत और महात्‍मा जिनकी दुहाइयां दिये चले जा रहे है। सोचने के लिए भी तैयार नहीं है कि कहीं बुनियादी चिंतन की दिशा ही तो गलत नहीं है?
      मैं कहना चाहता हूं कि वह गलत है। और गलत—सबूत है यह आदमी। और क्‍या सबूत होता है गलत का?
      एक बीज को हम बोये और फल ज़हरीले और कड़वे हो तो क्‍या सिद्ध होता है? सिद्ध होता है कि वह बीज जहरीला और कड़वा रहा होगा। हालांकि बीज में पता लगाना मुश्‍किल है कि उससे जो फल पैदा होगें,वे कड़वे पैदा होंगे। बीज में कुछ खोजबीन नहीं की जा सकती। बीज को तोड़ो-फोड़ो कोई पता नहीं चल सकता है कि इससे जो फल पैदा होते होंगे। वे कड़वे होंगे। बीज को बोओ,सौ वर्ष लग जायेंगे—वृक्ष होगा, बड़ा होगा,आकाश में फैलेगा, तब फल आयेंगे और तब पता चलेगा कि वे कड़वे है।
      दस हजार वर्ष में संस्‍कृति और धर्म के जो बीज बोये गये है, वह आदमी उसका फल है। और यह कड़वा है। और घृणा से भरा हुआ है। लेकिन उसी की दुहाई दिये चले जाते है हम और सोचते है उसमे प्रेम हो जायगा। मैं आपसे कहना चाहता हूं,उससे प्रेम नहीं हो सकता है। क्‍योंकि प्रेम के पैदा होने की जो बुनियादी संभावना है, धर्मों ने उसकी ही हत्‍या कर दी है। और उसमें जहर घोल दिया है।
      मनुष्‍य से भी ज्‍यादा प्रेम पशु और पक्षियों और पौधों में दिखाई पड़ता है; जिनके पास न कोई संस्‍कृति है, न कोई धर्म है, संस्‍कृत और संस्‍कृति और सभ्‍य मनुष्‍यों की बजाय असभ्‍य और जंगल के आदमी में ज्‍यादा प्रेम दिखाई पड़ता है। जिसके पास न कोई विकसित धर्म है, न कोई सभ्‍यता है, न कोई संस्‍कृति है। जितना आदमी सभ्‍य, सुसंस्‍कृत और तथा कथित धर्मों के प्रभाव में मन्दिर ओर चर्च में पार्थना करने लगता है, उतना ही प्रेम से शून्‍य क्‍यों होता चला जाता है।
      जरूर कुछ कारण है। और दो कारणों पर मैं विचार करना चाहता हूं। अगर वे ख्‍याल में आ जाएं तो प्रेम के अवरूद्ध स्‍त्रोत फूट सकते है। और प्रेम की गंगा बह सकती है। वह हर आदमी के भीतर है उसे कहीं से लाना नहीं है।
      प्रेम कोई ऐसी बात नहीं है कि कहीं खोजने जाना है उसे। वह प्राणों की प्‍यास है प्रत्‍येक के भीतर, वह प्राणों की सुगंध है प्रत्‍येक के भीतर। लेकिन चारों तरफ परकोटा है उसके और वह प्रकट नहीं हो पाता। सब तरफ पत्‍थर की दीवाल है और वह झरने नहीं फूट पाते। तो प्रेम की खोज और प्रेम की साधना कोई पाजीटिव, कोई विधायक खोज और साधना नहीं है कि हम जायें और कही प्रेम सीख लें।
      एक मूर्तिकार एक पत्‍थर को तोड़ रहा था। कोई देखने गया थ कि मूर्ति कैसे बनायी जाती है। उसने देखा कि मूर्ति तो बिलकुल नहीं बनायी जा रही है। सिर्फ छैनी और हथौड़े से पत्‍थर तोड़ा जा रहा था। उस आदमी ने पूछा ‘’यह क्‍या कर रहे हो,मूर्ति नहीं बनाओगे, मैं तो मूर्ति बनाते देखने के लिया आया था, आप तो केवल पत्‍थर तोड़ रहे है।‘’
      और उस मूर्ति कार ने कहा कि मूर्ति तो पत्‍थर के भीतर छिपी है, उसे बनाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ उसके ऊपर जो व्‍यर्थ पत्‍थर जुड़ा है उसे अलग कर देने की जरूरत है और मूर्ति प्रकट हो जायेगी। मूर्ति बनायी नही जाती है मूर्ति सिर्फ आविष्‍कृत होती है। डिस्क वर होती है। अनावृत होती है, उघाड़ी जाती है।
      मनुष्‍य के भीतर प्रेम छिपा है, सिर्फ उघाड़ने की बात है। उसे पैदा करने का सवाल नहीं है। अनावृत करने की बात है। कुछ है, जो हमने ऊपर ओढा हुआ है। जो उसे प्रकट नहीं होने देता?
      एक चिकित्‍सक से जाकर आप पूछे कि स्‍वास्‍थ क्‍या है? और दुनियां का कोई चिकित्‍सक नहीं बता सकता है कि स्‍वास्‍थ क्‍या है। बड़े आश्‍चर्य कि बात है। स्‍वास्‍थ  पर ही तो सारा चिकित्‍सा शास्‍त्र खड़ा है। सारी मेडिकल साइंस खड़ी है। और कोई नहीं बात सकता है कि स्‍वास्‍थ क्‍या है। लेकिन चिकित्‍सक से पूछो कि स्‍वास्‍थ क्‍या है। तो वह कहेगा, बीमारियों के बाबत हम बात सकते है कि बीमारियां क्‍या है, उनके लक्षण हमें पता है। एक-एक बीमारी की अलग-अलग परिभाषा हमें पता है। स्‍वास्‍थ?स्‍वास्‍थ का हमें कोई भी पता नहीं है। इतना हम कहा सकते है कि जब कोई बीमारी नहीं होती है। वह स्‍वास्‍थ्‍य है। स्‍वास्‍थ्‍य तो मनुष्‍य के भीतर छिपा है। इसलिए मनुष्‍य की परिभाषा के बाहर है। बीमारी बहार से आती है। इसलिए बाहर से परिभाषा की जा सकती है। स्‍वास्‍थ्‍य भीतर से आता है। कोई भी परिभाषा नहीं की जा सकती है। इतना ही हम कह सकते है कि बीमारियों का अभाव स्‍वास्‍थ्‍य है। लेकिन यह क्‍या स्‍वास्‍थ्‍य कि परिभाषा हुई? स्‍वास्‍थ्‍य के संबंध में तो हमने कुछ भी नहीं कहा। कहा है बीमारियां नहीं है। तो बीमारियों के संबंध में कहा। सच यह है कि स्‍वास्‍थ्‍य पैदा नहीं करना होता हे। यह तो छिप जाता है बीमारियों में या हट जात है तो प्रकट हो जाता है। स्‍वास्‍थ्‍य हममें हे।
      स्‍वास्‍थ्‍य हमारा स्‍वभाव है।
      प्रेम हममें है, प्रेम हमारा स्‍वभाव है।
      इसलिए यह बात गलत है कि मनुष्‍य को समझाया जाए कि तुम प्रेम पैदा करो। सोचना यह है कि प्रेम पैदा क्‍यों नहीं हो पा रहा है। क्‍या बाधा है, अड़चन क्‍या है, रूकावट कहां डाल दी गई है। अगर कोई भी रूकावट न हो तो प्रेम प्रगट होता ही, उसे सिखाने की और समझाने की कोई भी जरूरत नहीं है।
      अगर मनुष्‍य के ऊपर गलत संस्‍कृति और गलत संस्‍कार की धाराएं और बाधाएं न हों, तो हर आदमी प्रेम को उपलब्‍ध होगा ही। यह अनिवार्यता है। प्रेम से कोई बच ही नहीं सकता। प्रेम स्‍वभाव है।
      गंगा बहती है हिमालय से। बहेगी गंगा, उसके प्राण है। उसके पास जल है। वह बहेगी और सागर को खोज ही लेगी। न किसी पुलिस वाले से पूछेगी, न किसी पुरोहित से पूछेगी कि सागर कहां है। देखा किसी गंगा को चौरास्‍ते पर खड़े होकर पुलिस वाले से पूछते कि सागर कहां है? उसके प्राणों में ही छिपी है सागर की खोज। और ऊर्जा है तो पहाड़ तोड़गी, मैदान तोड़गी, और पहुंच जायेगी सागर तक।  सागर कितना ही दूर हो, कितना ही छिपा हो, खोज ही लेगी। और कोई रास्‍ता नहीं है। कोई गाईड़ बुक नहीं है। कि जिससे पता लगा ले कि कहां से जान है। लेकिन पहुंच जाती है।
      लेकिन बाँध बना दिये जाएं,चारों और परकोटे उठा दिये जाएं? प्रकृति की बाधाओं को तो तोड़कर गंगा सागर तक पहुंच जाती है। लेकिन आदमी की इंजीनियरिंग की बाधाएं खड़ी कर दी जाएं तो हो सकता है कि गंगा सागर तक न पहुंच पाए यह भेद समझ लेना जरूरी है।
      प्रकृति की कोई भी बाधा असल में बाधा नहीं है, इसलिए गंगा सागर तक पहुंच जाती है। हिमालय को काटकर पहुंच जाती है। लेकिन अगर आदमी ईजाद करे,इंतजाम करे,तो गंगा को सागर तक नहीं भी पहुंचने दे सकता है।
      प्रकृति को तो एक सहयोग है, प्रकृति तो एक हार्मनी हे। वहां जो बाधा भी दिखाई पड़ती है, वह भी शायद शक्‍ति को जगाने के लिए चुनौती है। वह जो विरोध भी दिखाई पड़ता है, वह भी शायद भीतर प्राणों में जो छिपा है, उसे प्रकट करने के लिए बुलावा है। वहां हम बीज को दबाते हैं जमीन में। दिखाई पड़ता है कि जमीन की एक पर्त बीज के ऊपर पड़ी है, बाधा दे रही है। अगर वह पर्त न हो ती तो बीज अंकुरित भी नहीं हो पाएगा। ऐसा दिखाई पड़ता है कि एक पर्त जमीन की बीज को नीचे दबा रही है। लेकिन वह पर्त दबा इसलिए रही है। ताकि बीज दबे, गले और टूट जाये और अंकुरित हो जाये। ऊपर से दिखायी पड़ता है कि वह जमीन बाधा दे रही है। लेकिन वह जमीन मित्र है और सहयोग कर रही है बीज को प्रकट करने में।
      प्रकृति तो एक हार्मनी है, एक संगीत पूर्ण लयबद्धता है।

लेकिन आदमी ने जो-जो निसर्ग के ऊपर इंजीनियरिंग की है, जो-जो उसने अपने अपनी यांत्रिक धारणाओं को ठोकने की और बिठाने की कोशिश की है, उससे गंगाए रूक  गयी है। जगह-जगह अवरूद्ध हो गयी है। और फिर आदमी को दोष दिया जा रहा है। किसी बीज को दोष देने की जरूरत नहीं है। अगर वह पौधा न बन पाया, तो हम कहेंगे कि जमीन नहीं मिली होगी ठीक से, पानी नहीं मिला होगा ठीक से। सूरज की रोशनी नहीं मिली होगी ठीक से।
      लेकिन आदमी के जीवन में खिल न पाये फूल प्रेम का तो हम कहते है कि तुम हो जिम्‍मेदार। और कोई नहीं कहता कि भूमि नहीं मिली होगी,पानी नहीं मिला होगा ठीक से, सूरज की रोशनी नहीं मिली होगी ठीक से। इस लिए वह आदमी का पौधा अवरूद्ध हो गया, विकसित नहीं हो पाया,फूल तक नहीं पहुंच पाया।
      मैं आपसे कहना चाहता हूं कि बुनियादी बाधाएं आदमी ने खड़ी की है। प्रेम की गंगा तो बह सकती है और परमात्‍मा के सागर तक पहुंच सकती है। आदमी बना इसलिए है कि वह बहे और प्रेम बढ़े और परमात्‍मा तक पहुंच जाये। लेकिन हमने कौन सी बाधाएं खड़ी कर ली?
      पहली बात, आज तक मनुष्‍य की सारी संस्कृति यों ने सेक्‍स का, काम का, वासना का विरोध किया है। इस विरोध ने मनुष्‍य के भीतर प्रेम के जन्‍म की संभावना तोड़ दी, नष्‍ट कर दी। इस निषेध ने....क्‍योंकि सचाई यह है कि प्रेम की सारी यात्रा का प्राथमिक बिन्‍दु काम है, सेक्‍स है।
      प्रेम की यात्रा का जन्‍म, गंगो त्री—जहां से गंगा पैदा होगी प्रेम की—वह सेक्‍स है, वह काम है।
      और उसके सब दुश्‍मन है। सारी संस्‍कृतियां,और सारे धर्म, और सारे गुरु और सारे महात्‍मा–तो गंगो त्री पर ही चोट कर दी। वहां रोक दिया। पाप है काम, जहर है काम, अधम है काम। और हमने सोचा भी नहीं कि काम की ऊर्जा ही, सेक्‍स एनर्जी ही, अंतत: प्रेम में परिवर्तित होती है और रूपांतरित होती है।
      प्रेम का जो विकास है, वह काम की शक्‍ति का ही ट्रांसफॉमेंशन है। वह उसी का रूपांतरण है।
      एक कोयला पडा हो और आपको ख्‍याल भी नहीं आयेगा कि कोयला ही रूपांतरित होकर हीरा बन जाता है। हीरे और कोयले में बुनियादी रूप से कोई फर्क नहीं है। हीरे में भी वे ही तत्‍व है, जो कोयले में है। और कोयला ही हजारों साल की प्रक्रिया से गुजर कर हीरा बन जाता है। लेकिन कोयले की कोई कीमत नहीं है, उसे कोई घर में रखता भी है तो ऐसी जगह जहां कि दिखाई न पड़े। और हीरे को लोग छातियों पर लटकाकर घूमते है। जिससे की वह दिखाई पड़े। और हीरा और कोयला एक ही है,लेकिन कोई दिखाई नहीं पड़ता है कि इन दोनों के बीच अंतर-संबंध है, एक यात्रा है। कोयले की शक्‍ति ही हीरा बनती है। अगर आप कोयले के दुश्‍मन हो गये—जो कि हो जाना बिलकुल आसान है। क्‍योंकि कोयले में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है—तो हीरे के पैदा होने की संभावना भी समाप्‍त हो गयी, क्‍योंकि कोयला ही हीरा बन सकता है।
      सेक्‍स की शक्‍ति ही, काम की शक्‍ति ही प्रेम बनती है।
      लेकिन उसके विरोध में—सारे दुश्‍मन है उसके, अच्‍छे आदमी उसके दुश्‍मन है। और उसके विरोध में प्रेम के अंकुर भी नहीं फूटने दिये है। और जमीन से, प्रथम से, पहली सीढ़ी से नष्‍ट कर दिया भवन को। फिर वह हीरा नहीं पाता कोयला, क्‍योंकि उसके बनने के लिए जो स्‍वीकृति चाहिए,जो उसका विकास चाहिए जो उसको रूपांतरित करने की प्रक्रिया चाहिए, उसका सवाल ही नहीं उठता। जिसके हम दुश्‍मन हो गये, जिसके हम शत्रु हो गये, जिससे हमारी द्वंद्व की स्‍थिति बन गयी हो और जिससे हम निरंतर लड़ने लगे—अपनी ही शक्‍ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। सेक्‍स की शक्‍ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। और शिक्षाऐं दी जाती है कि द्वंद्व छोड़ना चाहिए, कानफ्लिक्‍ट्स छोड़नी चाहिए, लड़ना नहीं चाहिए। और सारी शिक्षाऐं बुनियाद में सिखा रही है कि लड़ों।
      मन जहर है तो मन से लड़ों। जहर से तो लड़ना पड़ेगा। सेक्‍स पाप है तो उससे लड़ों। और ऊपर से कहा जा रहा है कि द्वंद्व छोड़ो। जिन शिक्षाओं के आधार पर मनुष्‍य द्वंद्व से भर रहा है। वे ही शिक्षाऐं दूसरी तरफ कह रही है कि द्वंद्व छोड़ो। एक तरफ आदमी को पागल बनाओ और दूसरी तरफ पागलख़ाने खोलों कि बीमारियों का इलाज यहां किया जाता है। एक बात समझ लेना जरूरी है इस संबंध।
      मनुष्‍य कभी भी काम से मुक्‍त नहीं हो सकता। काम उसके जीवन का प्राथमिक बिन्‍दु है। उसी से जन्‍म होता है। परमात्‍मा ने काम की शक्‍ति को ही, सेक्‍स को ही सृष्‍टि का मूल बिंदू स्‍वीकार किया है। और परमात्‍मा जिसे पाप नहीं समझ रहा है, महात्‍मा उसे पाप बात रहे है। अगर परमात्‍मा उसे पाप समझता है तो परमात्‍मा से बड़ा पापी इस पृथ्‍वी पर, इस जगत में इस विश्‍व में कोई नहीं है।
      फूल खिला हुआ दिखाई पड़ रहा है। कभी सोचा है कि फूल का खिल जाना भी सेक्‍सुअल ऐक्‍ट है, फूल का खिल जाना भी काम की एक घटना है, वासना की एक घटना है। फूल में है क्‍या—उसके खिल जाने मेंउसके खिल जाने में कुछ भी नहीं है। वे बिंदु है पराग के, वीर्य के कण है जिन्‍हें तितलियों उड़ा कर दूसरे फूलों पर ले जाएंगी और नया जन्‍म देगी।
      एक मोर नाच रहा है—और कवि गीत गा रहा है। और संत भी देख कर प्रसन्‍न हो रहा हे—लेकिन उन्‍हें ख्‍याल नहीं कि नृत्‍य एक सेक्‍सुअल ऐक्‍ट है। मोर पुकार रहा है अपनी प्रेयसी को या अपने प्रेमी को। वह नृत्‍य किसी को रिझाने के लिए है?पपीहा गीत गा रहा है, कोयल बोल रही है, एक आदमी जवान हो गया है, एक युवती सुन्‍दर होकर विकसित हो गयी है। ये सब की सब सेक्सुअल एनर्जी की अभिव्‍यंजना है। यह सब का सब काम का ही रूपांतरण है। यह सब का सब काम की ही अभिव्‍यक्‍त,काम की ही अभिव्‍यंजना है।
      सारा जीवन, सारी अभिव्‍यक्‍ति सारी फ्लावरिगं काम की है।
      और उस काम के खिलाफ संस्‍कृति और धर्म आदमी के मन में जहर डाल रहे है। उससे लड़ाने की कोशिश कर रहे है। मौलिक शक्‍ति से मनुष्‍य को उलझा दिया है। लड़ने के लिए, इसलिए मनुष्‍य दीन-हीन, प्रेम से रिक्‍त और खोटा और ना-कुछ हो गया है।
      काम से लड़ना नहीं है, काम के साथ मैत्री स्‍थापित करनी है और काम की धारा को और ऊचाई यों तक ले जाना है।
      किसी ऋषि ने किसी बधू को नव वर और वधू को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि तेरे दस पुत्र  पैदा हो और अंतत: तेरा पति ग्यारहवां पुत्र बन जाये।
      वासना रूपांतरित हो तो पत्‍नी मां बन सकती है।
      वासना रूपांतरित हो तो काम प्रेम बन सकता है।
      लेकिन काम ही प्रेम बनता है, काम की ऊर्जा ही प्रेम की ऊर्जा में विकसित होती है।
      लेकिन हमने मनुष्‍य को भर दिया है, काम के विरोध में। इसका परिणाम यह हुआ है कि प्रेम तो पैदा नहीं हो सका,क्‍योंकि वह तो आगे का विकास था, काम की स्‍वीकृति से आता है। प्रेम तो विकसित नहीं हुआ और काम के विरोध में खड़े होने के कारण मनुष्‍य का चित ज्‍यादा कामुक हो गया, और सेक्‍सुअल होता चला गया। हमारे सारे गीत हमारी सारी कविताएं हमारे चित्र, हमारी पेंटिंग, हमारे मंदिर, हमारी मूर्तियां सब घूम फिर कर सेक्‍स के आस पास केंद्रित हो गयी है। हमार मन ही सेक्‍स के आसपास केंद्रित हो गया है। इस जगत में कोई भी पशु मनुष्‍य की भांति सेक्‍सुअल नही है। मनुष्‍य चौबीस घंटे सेक्‍सुअल हो गया है। उठते-बैठते, सोते जागते,सेक्‍स ही सब कुछ हो गया है। उसके प्राण में एक घाव हो गया है—विरोध के कारण, दुश्‍मनी के कारण, शत्रुता के कारण। जो जीवन का मूल था, उससे मुक्‍त तो हुआ नहीं जा सकता था। लेकिन उससे लड़ने की चेष्‍टा में सारा जीवन रूग्‍ण जरूर हो सकता था, वह रूग्‍ण हो गया है।
      और यह जो मनुष्‍य जाति इतनी कामुक दिखाई पड़ रही है, इसके पीछे तथाकथित धर्मों और संस्‍कृति का बुनियादी हाथ है। इसके पीछे बुरे लोगों का नहीं, सज्‍जनों और संतों का हाथ है। और जब तक मनुष्‍य जाति सज्‍जनों और संतों के अनाचार से मुक्‍त नहीं होगी तब तक प्रेम के विकास की कोई संभावना नहीं है।
      मुझे एक घटना याद आती है। एक फकीर अपने घर से निकला था। किसी मित्र के पास मिलने जा रहा था। निकला है घोड़े पर चढ़ा हुआ है, अचानक उसके बचपन का एक  दोस्‍त घर आकर सामने खड़ा हो गया है। उसने कहा कि दोस्‍त, तुम घर पर रुको, बरसों से प्रतीक्षा करता था कि तुम आओगे तो बैठेंगे और बात करेंगे। और दुर्भाग्‍य कि मुझे किसी मित्र से मिलने जाना है। मैं वचन दे चुका हूं। वो वहां मेरी राह ताकता होगा। मुझे वहां जाना ही होगा। घण्‍टे भर में जल्‍दी से जल्‍दी लोट कर आने की कोशिश करूंगा। तुम तब तक थोड़ा विश्राम कर लो।
      उसके मित्र ने कहा मुझे तो चैन नहीं है, अच्‍छा होगा कि मैं तुम्‍हारे साथ ही चला चलू। लेकिन उसने कहा कि मेरे कपड़े गंदे हो गये है। रास्‍ते की धूल के कारण, अगर तुम्‍हारे पास कुछ अच्‍छे कपड़े हो तो दे दो मैं पहन लूं। और साथ हो जाऊँ।
      निश्‍चित था उस फकीर के पास। किसी सम्राट ने उसे एक बहुमूल्‍य कोट, एक पगड़ी और एक धोती भेंट की थी। उसने संभाल कर रखी थी कि कभी जरूरत पड़ेगी तो पहनूंगा। वह जरूरत नहीं आयी। निकाल कर ले आया खुशी में।
      मित्र ने जब पहन लिए तब उसे थोड़ी ईर्ष्‍या पैदा हुई। मित्र ने पहनी तो मित्र सम्राट मालूम होने लगा। बहुमूल्‍य कोट था,पगड़ी थी, धोती थी, शानदार जूते थे। और उसके सामने ही वह फकीर बिलकुल नौकर-चाकर दीन-हीन दिखाई पड़ने लगा। और उसने सोचा कि यह तो बड़ी मुशिकल हो गई, यह तो गलत हो गया। जिनके घर मैं जा रहा हूं,उन सब का ध्‍यान इसी पर जायेगा। मेरी तरह तो कोई देखेगा भी नहीं। अपने ही कपड़े....ओर आज अपने ही कपड़ों के कारण मैं दीन-हीन हो जाऊँगा। लेकिन बार-बार मन को समझाता कि मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए मैं तो एक फकीर हूं—आत्‍मा परमात्‍मा की बातें करने वाला। क्‍या रखा है कोट में,पगड़ी में,पगड़ी में छोड़ो। पहने रहने दो। कितना फर्क पड़ता है। लेकिन जितना समझाने की कोशिश की,कोट-पगड़ी, में क्‍या रखा है—कोट,पगड़ी,कोट पगड़ी ही उसके मन में घूमने लगी।
      मित्र दूसरी बात करने लगा। लेकिन वह भीतर तो....ऊपर कुछ और दूसरी बातें कर रहा है,लेकिन वहां उसका मन नहीं है। भीतर उसके बस कोट और पगड़ी। रास्‍ते पर जो भी आदमी देखता, उसको कोई नहीं देखता। मित्र की तरफ सबकी आंखें जाती। वह बड़ी मुश्‍किल में पड़ गया यह तो आज भूल कर ली—अपने हाथों से भूल कर ली।
      जिनके घर जाना था, वहां पहुंचा। जाकर परिचय दिया कि मेरे मित्र है जमाल, बचपन के हम दोस्‍त हे, बहुत प्‍यारे आदमी है। और फिर अचानक अनजाने मुंह से निकल गया कि रह गये कपड़े मेरे है। क्‍योंकि मित्र भी, जिनके घर गये थे, वह भी उसके कपड़ों को देख रहा था। और भीतर उसके चल रहा था कोट-पगड़ी,मेरी कोट-पगड़ी। और उन्‍हीं की वजह से मैं परेशान हो रहा हूं। निकल गया मुंह से की रह गये कपड़े, कपड़े मेरे है।
      मित्र भी हैरान हुआ। घर के लोग भी हैरान हुए कि यह क्‍या पागलपन की बात है। ख्‍याल उसको भी आया बोल जाने के बाद। तब पछताया कि ये तो भूल हो गई। पछताया तो और दबाया अपने मन को। बाहर निकल कर क्षमा मांगने लगा कि क्षमा कर दो, गलती हो गयी। मित्र ने कहा, कि मैं तो हैरान हुआ कि तुमसे निकल कैसे गया। उसने कहा कुछ नहीं, सिर्फ जूबान थी चुक गई। हालांकि की जबान की चूक कभी भी नहीं होती। भीतर कुछ चलता होता है, तो कभी-कभी बेमौके जबान से निकल जाता है। चुक कभी नहीं होती है, माफ कर दो, भूल हो गई। कैसे यह क्‍या ख्‍याल आ गया, कुछ समझ में नहीं आता है। हालांकि पूरी तरह समझ में आ रहा था ख्‍याल कैसे आया है।
      दूसरे मित्र के घर गये। अब वह तय करता है रास्‍ते में कि अब चाहे कुछ भी हो जाये, यह नहीं कहना है कि कपड़े मेरे है। पक्‍का कर लेता है अपने मन को। घर के द्वार पर उसने जाकर बिल्‍कुल दृढ़ संकल्‍प कर लिया कि यह बात नहीं उठानी है कि कपड़े मेरे है। लेकिन उस पागल को पता नहीं कि वह जितना ही दृढ़ संकल्‍प कर रहा है इस बात का, वह दृढ़ संकल्‍प बता रहा है, इस बात को कि उतने ही जोर से उसके भीतर यह भावना घर कर रही है कि ये कपड़े मेरे है।
      आखिर दृढ़ संकल्‍प किया क्‍यों जाता है?
      एक आदमी कहता है कि मैं ब्रह्मचर्य का दृढ़ व्रत लेता हूं, उसका मतलब है कि उसके भीतर कामुकता दृढता से धक्‍के मार रही है। नहीं तो और कारण क्‍या है? एक आदमी कहता है कि मैं कसम खाता हूं कि आज से कम खाना खाऊंगा। उसका मतलब है कि कसम खानी पड़ रही है। ज्‍यादा खानें का मन है उसका। और तब अनिवार्य रूपेण द्वंद्व पैदा होता है। जिससे हम लड़ना चाहते है, वहीं हमारी कमजोरी है। और तब द्वंद्व पैदा हो जाना स्‍वाभाविक है।
      वह लड़ता हुआ दरवाजे के भीतर गया, संभल-संभल कर बोला कि मेरे मित्र है। लेकिन जब वह बोल रहा है, तब उसको कोई भी नहीं देख रहा है। उसके मित्र को उस धर के लोग देख रहे है। तब फिर उसे ख्‍याल आया—मेरा कोट, मेरी पगड़ी। उसने कहा कि दृढ़ता से कसम खायी है। इसकी बात ही नहीं उठानी है। मेरा क्‍या है—कपड़ा-लत्‍ता। कपड़े लत्‍ते किसी के होत है। यह तो सब संसार है, सब तो माया है। लेकिन यह सब समझ रहा है। लेकिन असलियत तो बाहर से भीतर,भीतर से बाहर हो रही है। समझाया कि मेरे मित्र है, बचपन के दोस्‍त है, बहुत प्‍यारे आदमी है। रह गये कपड़े उन्‍ही के है, मेरे नहीं है। पर घर के लोगो को ख्‍याल आया कि ये क्‍या–-‘’कपड़े उन्‍हीं के है, मेरे नहीं है’’ —आज तक ऐसा परिचय कभी देखा नही गया था।
      बाहर निकल कर माफ़ी मांगने लगा कि बड़ी भूल हुई जो रही है, मैं क्‍या करूं, क्‍या न करूं, यह क्‍या हो गया है मुझे। आज तक मेरी जिंदगी में कपड़ों ने इस तरह से मुझे पकड़ लिया है। पहले तो ऐसे कभी नहीं पकड़ा था। लेकिन अगर तरकीब उपयोग में करें तो कपड़े भी पकड़ सकते है। मित्र ने कहा, मैं जाता नहीं तुम्‍हारे साथ। पर वह हाथ जोड़ने लगा कि नहीं ऐसा मत करो। जीवन भर के लिए दुःख रह जायेगा की मैंने क्‍या दुर्व्‍यवहार किया। अब मैं कसम खाता हूं की कपड़े की बात ही नहीं उठाऊंगा। मैं बिलकुल भगवान की कसम खाता हूं। कपड़ों की बात ही नहीं उठानी।
      आकर कसम खाने वालों से हमेशा सावधान रहना जरूरी है, क्‍योंकि जो भी कसम खाता है, उसके भीतर उस कसम से भी मजबूत कोई बैठा है। जिसके खिलाफ वह कसम खा रहा है। और वह जो भीतर बैठा है, वह ज्‍यादा भीतर है। कसम ऊपर है और बाहर है। कसम चेतन मन से खायी गयी है। ओ जो भीतर बैठा है हव अचेतन की परतों तक समाया हुआ है। अगर मन के दस हिस्‍से कर दें तो कसम एक हिस्‍से ने खाई है। नौ हिस्‍सा उलटा भीतर खड़ा हुआ है। ब्रह्मचर्य की कसमें एक हिस्‍सा खा रहा है मन का और नौ हिस्‍सा परमात्‍मा की दुहाई दे रहा है। वह जो परमात्‍मा ने बनाया है, वह उसके लिए ही कहे चले जा रहा है।
      गये तीसरे मित्र के घर। अब उसने बिलकुल ही अपनी सांसों तक का संयम कर रखा है।
      संयम आदमी बड़े खतरनाक होते है। क्‍योंकि उनके भीतर ज्‍वालामुखी उबल रहा है, ऊपर से वह संयम साधे हुए है।
      और इस बात को स्‍मरण रखना कि जिस चीज को साधना पड़ता है—साधने में इतना श्रम लग जाता है कि साधना पूरे वक्‍त हो नहीं सकती। फिर शिथिल होना पड़ेगा, विश्राम करना पड़ेगा। अगर मैं जोर से मुट्ठी बाँध लूं तो कितनी देर बाँधे रह सकता हूं। चौबीस घंटे, जितनी जोर से बाधूंगा उतना ही जल्‍दी थक जाऊँगा और  मुट्ठी खुल जायेगी। जिस चीज में भी श्रम करना पड़ता है जितना ज्‍यादा श्रम करना पड़ता है उतनी जल्‍दी थकान आ जाती है। शक्‍ति खत्‍म हो जाती है। और उल्‍टा होना शुरू हो जाता है। मुट्ठी बांधी जितनी जोर से , उतनी ही जल्‍दी मुट्ठी खुल जायेगी। मुट्ठी खुली रखी जा सकती है। लेकिन बाँध कर नहीं रखी जा सकती है। जिस काम में श्रम पड़ता है उस काम को आप जीवन नहीं बना सकते। कभी सहज नहीं हो सकता है वह काम। श्रम पड़ेगा तो फिर विश्राम का वक्‍त आयेगा ही।
      इसलिए जितना सधा संत है उतना ही खतरनाक आदमी होता है। क्‍योंकि उसके विश्राम का वक्‍त आयेगा। चौबीस घंटे भी तो उसे शिथिल होना ही पड़ेगा। उसी बीच दुनिया भी के पाप उसके भीतर खड़े हो जायेंगे। नर्क सामने आ जायेगा।
      तो उसने बिलकुल ही अपने को सांस-सांस रोक लिया और कहा कि अब कसम खाता हूं इन कपड़ों की बात ही नहीं करनी।
      लेकिन आप सोच लें उसकी हालत, अगर आप थोड़े बहुत भी धार्मिक आदमी होंगे, तो आपको अपने अनुभव से भी पता चल सकता है। उसकी क्‍या हालत हुई होगी। अगर आपने कसम खायी हो, व्रत लिए हों संकल्‍प साधे हों तो आपको भली भांति पता होगा कि भीतर क्‍या हालत हो जाती है।
      भीतर गया। उसके माथे से पसीना चूँ रहा था। इतना श्रम पड़ रहा है। मित्र डरा हुआ है उसके पसीने को देखकर। उसकी सब नसें खिंची हुई है। वह बाल रहा है एक-एक शब्‍द कि मेरे मित्र है, बड़े पुराने दोस्‍त है। बहुत अच्‍छे आदमी है। और एक क्षण को वह रुका। जैसे भीतर से कोई जोर का धक्‍का आया हो और सब बह गया। बाढ़ आ गयी हो और सब बह गया हो। और उसने कहा कि रह गयी कपड़ों की बात, तो मैंने कसम खा ली है कि कपड़ों की बात ही नहीं करनी है।
      तो यह जो आदमी के साथ हुआ है वह पूरी मनुष्‍य जाति के साथ सेक्‍स के संबंध में हो गया है। सेक्‍स को औब्सैशन बना दिया है। सेक्‍स को रोग बना दिया है, धाव बना दिया है और सब विषाक्‍त कर दिया है।
      छोटे-छोटे बच्‍चों को समझाया जा रहा है कि सेक्‍स पाप है। लड़कियों को समझाया जा रहा है, लड़कों को समझाया जो रहा के सेक्‍स पाप है। फिर वह लड़की जवान होती है। इसकी शादी होती है, सेक्‍स की दुनिया  शुरू होती है। और इन दोनों के भीतर यह भाव है कि यह पाप है। और फिर कहा जायेगा स्‍त्री को कि पति को परमात्‍मा मानों। जो पाप में ले जा रहा है। उसे परमात्‍मा कैसे माना जा सकता है। यह कैसे संभव है कि जो पाप में घसीट रहा है वह परमात्‍मा है। और उस लड़के से कहा जायेगा उस युवक को कहा जायेगा कि तेरी पत्‍नी है, तेरी साथिन है, तेरी संगिनी है। लेकिन वह नर्क में ले जा रही है। शास्‍त्रों में लिखा है कि स्‍त्री नर्क का द्वार है। यह नर्क का द्वार संगी और साथिनी, यह मेरा आधा अंग—यह नर्क का द्वार। मुझे उसे में धकेल रहा है। मेरा आधा अंग। इस के साथ कौन सा सामंजस्‍य बन सकता है।
      सारी दुनिया का दाम्‍पत्‍य जीवन नष्‍ट किया है इस शिक्षा ने। और जब दम्‍पति का जीवन नष्‍ट हो जाये तो प्रेम की कोई संभावना नहीं है। क्‍योंकि वह पति और पत्‍नी प्रेम न करें सकें एक दूसरे को जो कि अत्‍यन्‍त सहज और नैसर्गिक प्रेम है। तो फिर कौन और किसको प्रेम कर सकेगा। इस प्रेम को बढ़ाया जा सकता है। कि पत्‍नी और पति का प्रेम इतना विकसित हो,इतना उदित हो इतना ऊंचा बने कि धीरे-धीरे बाँध तोड़ दे और दूसरों तक फैल जाये। यह हो सकता है। लेकिन इसको समाप्‍त ही कर दिया जाये,तोड़ ही दिया जाये, विषाक्‍त कर दिया जाये तो फैलेगा क्‍या, बढ़ेगा क्‍या?

रामानुज एक गांव से गुजर रहे थे। एक आदमी ने आकर कहा कि मुझे परमात्‍मा को पाना है। तो उन्‍होंने कहां कि तूने कभी किसी से प्रेम किया है? उस आदमी ने कहा की इस झंझट में कभी पडा ही नहीं। प्रेम वगैरह की झंझट में नहीं पडा। मुझे तो परमात्‍मा का खोजना है।
      रामानुज ने कहा: तूने झंझट ही नहीं की प्रेम की? उसने कहा, मैं बिलकुल सच कहता हूं आपसे।
      वह बेचारा ठीक ही कहा रहा था। क्‍योंकि धर्म की दुनिया में प्रेम एक डिस्‍कवालिफिकेशन है। एक अयोग्‍यता है।
      तो उसने सोचा की मैं कहूं कि किसी को प्रेम किया था, तो शायद वे कहेंगे कि अभी प्रेम-व्रेम छोड़, वह राग-वाग छोड़,पहले इन सबको छोड़ कर आ, तब इधर आना। तो उस बेचारे ने किया भी हो तो वह कहता गया  कि मैंने नहीं किया है। ऐसा कौन आदमी होगा,जिसने थोड़ा बहुत प्रेम नहीं किया हो?
      रामानुज ने तीसरी बार पूछा कि तू कुछ तो बता, थोड़ा बहुत भी, कभी किसी को? उसने कहा, माफ करिए आप क्‍यों बार-बार वही बातें पूछे चले जा रहे है? मैंने प्रेम की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा। मुझे तो परमात्‍मा को खोजना है।
      तो रामानुज ने कहा: मुझे क्षमा कर, तू कहीं और खोज। क्‍योंकि मेरा अनुभव यह है कि अगर तूने किसी को प्रेम किया हो तो उस प्रेम को फिर इतना बड़ा जरूर किया जा सकता है कि वह परमात्‍मा तक पहुंच जाए। लेकिन अगर तूने प्रेम ही नहीं किया है तो तेरे पास कुछ है नहीं जिसको बड़ा किया जा सके। बीज ही नहीं है तेरे पास जो वृक्ष बन सके। तो तू जा कहीं और पूछ।
      और जब पति और पत्‍नी में प्रेम न हो, जिस पत्‍नी ने अपने पति को प्रेम न किया हो और जिस पति ने अपनी पत्‍नी को प्रेम न किया हो, वे बेटों को, बच्‍चों को प्रेम कर सकते है। तो आप गलत सोच रहे है। पत्‍नी उसी मात्रा में बेटे को प्रेम करेगी, जिस मात्रा में उसने अपने पति को प्रेम किया है। क्‍योंकि यह बेटा पति का फल है: उसका ही प्रति फलन है, उसका ही रीफ्लैक्शन है। यह एक बेटे के प्रति जो प्रेम होने वाला है, वह उतना ही होगा,जितना उसके पति को चहा और प्रेम किया है। यह पति की मूर्ति है, जो फिर से नई होकर वापस लौट आयी है। अगर पति के प्रति प्रेम नहीं है, तो बेटे के प्रति प्रेम सच्‍चा कभी भी नहीं हो सकता है। और अगर बेटे को प्रेम नहीं किया गया—पालन पोसना और बड़ा कर देना प्रेम नहीं है—तो बेटा मां को कैसे कर सकता है। बाप को कैसे कर सकता है।
      यह जो यूनिट है जीवन का—परिवा, वह विषाक्‍त हो गया है। सेक्‍स को दूषित कहने से, कण्‍डेम करने से, निन्‍दित करने से।
      और परिवार ही फैल कर पुरा जगत है विश्‍व है।
      और फिर हम कहते है कि प्रेम बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता है। प्रेम कैसे दिखाई पड़ेगा? हालांकि हर आदमी कहता है कि मैं प्रेम करता हूं। मां कहती है, पत्‍नी कहती है, बाप कहता है, भाई कहता है। बहन कहती है। मित्र कहते है। कि हम प्रेम करते है। सारी दुनिया में हर आदमी कहता है कि हम प्रेम करते है। दुनिया में इकट्ठा देखो तो प्रेम कहीं दिखाई ही नहीं पड़ता। इतने लोग अगर प्रेम करते है। तो दुनिया में प्रेम की वर्षा हो जानी चाहिए, प्रेम की बाढ़ आ जानी चाहिए, प्रेम के फूल खिल जाने चाहिए थे। प्रेम के दिये ही दिये जल जाते। घर-घर प्रेम का दीया होता तो दूनिया में इकट्ठी इतनी प्रेम की रोशनी होती की मार्ग आनंद उत्‍सव से भरे होते।
      लेकिन वहां तो घृणा की रोशनी दिखाई पड़ती है। क्रोध की रोशनी दिखाई पड़ती है। युद्धों की रोशनी दिखाई पड़ती है। प्रेम का तो कोई पता नहीं चलता। झूठी है यह बात और यह झूठ जब तक हम मानते चले जायेंगे,जब तक सत्‍य की दिशा में खोज भी नहीं हो सकती। कोई किसी को प्रेम नहीं कर रहा।
      और जब तक काम के निसर्ग को परिपूर्ण आत्‍मा से स्‍वीकृति नहीं मिल जाती है, तब तक कोई किसी को प्रेम कर ही नहीं सकता। मैं आपसे कहाना चाहता हूं कि काम दिव्‍य है, डिवाइन है।
      सेक्‍स की शक्‍ति परमात्‍मा की शक्‍ति है, ईश्‍वर की शक्‍ति है।
      और इसलिए तो उससे ऊर्जा पैदा होती है। और नये जीवन विकसित होते है। वही तो सबसे रहस्‍यपूर्ण शक्‍ति है, वहीं तो सबसे ज्‍यादा मिस्‍टीरियस फोर्स है। उससे दुश्‍मनी छोड़ दें। अगर आप चाहते है कि कभी आपके जीवन में प्रेम की वर्षा हो जाये तो उससे दुश्‍मनी छोड़ दे। उसे आनंद से स्‍वीकार करें। उसकी पवित्रता को स्‍वीकार करें, उसकी धन्‍यता को स्‍वीकार करें। और खोजें उसमें और गहरे और गहरे—तो आप हैरान हो जायेंगे। जितनी पवित्रता से काम की स्‍वीकृति होगी, उतना ही काम पवित्र होता हुआ चला जायेगा। और जितना अपवित्रता और पाप की दृष्‍टि से काम का विरोध होगा, काम उतना ही पाप-पूर्ण और कुरूप होता चला जायेगा।
       जब कोई अपनी पत्‍नी के पास ऐसे जाये जैसे कोई मंदिर के पास जा रहा है। जब कोई पत्‍नी अपने पति के पास ऐसे जाये जैसे सच में कोई परमात्‍मा के पास जा रहा हो। क्‍योंकि जब दो प्रेमी काम से निकट आते है जब वे संभोग से गुजरते है तब सच में ही वे परमात्‍मा के मंदिर के निकट से गुजर रह है। वहीं परमात्‍मा काम कर रहा है, उनकी उस निकटता में। वही परमात्‍मा की सृजन-शक्‍ति काम कर रही है।
      और मेरी अपनी दृष्‍टि यह है कि मनुष्‍य को समाधि का, ध्‍यान का जो पहला अनुभव मिला है कभी भी इतिहास में,तो वह संभोग के क्षण में मिला है और कभी नहीं। संभोग के क्षण में ही पहली बार यह स्‍मरण आया है आदमी को कि इतने आनंद की वर्षा हो सकती है।
      और जिन्‍होंने सोचा, जिन्‍होंने मेडिटेट किया, जिन लोगों ने काम के संबंध पर और मैथुन पर चिंतन किया और ध्‍यान किया, उन्‍हें यह दिखाई पडा कि काम के क्षण में, मैथुन के क्षण में मन विचारों से शून्‍य हो जाता है। एक क्षण को मन के सारे विचार रूक जाते है। और वह विचारों का रूक जाना और वह मन का ठहर जाना ही आनंद की वर्षा का कारण होता है।
      तब उन्‍हें सीक्रेट मिल गया, राज मिल गया कि अगर मन को विचारों से मुक्‍त किया जा सके किसी और विधि से तो भी इतना ही आनंद मिल सकता है। और तब समाधि और योग की सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। जिनमें ध्‍यान और सामायिक और मेडिटेशन और प्रेयर (प्रार्थना) इनकी सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। इन सबके मूल में संभोग का अनुभव है। और फिर मनुष्‍य को अनुभव हुआ कि बिना संभोग में जाये भी चित शून्‍य हो सकता है। और जा रस की अनुभूति संभोग में हुई थी। वह बिना संभोग के भी बरस सकती है। फिर संभोग क्षणिक हो सकता है। क्‍योंकि शक्‍ति और उर्जा का वहाँ बहाव और निकास है। लेकिन ध्‍यान सतत हो सकता है।
      तो मैं आपसे कहना चाहता हूं, कि एक युगल संभोग के क्षण में जिस आनंद को अनुभव करता है, उस आनंद को एक योगी चौबीस घंटे अनुभव कर सकता है। लेकिन इन दोनों आनंद में बुनियादी विरोध नहीं है। और इसलिए जिन्‍होंने कहा कि विषया नंद और ब्रह्मानंद भाई-भाई है। उन्‍होंने जरूर सत्‍य कहा है। वह सहोदर है, एक ही उदर से पैदा हुए है, एक ही अनुभव से विकसित हुए है। उन्‍होंने निश्‍चित ही सत्‍य कहां है।
      तो पहला सूत्र आपसे कहना चाहता हूं। अगर चाहते है कि पता चले कि प्रेम क्‍या है—तो पहला सूत्र है काम की पवित्रता,दिव्‍यता, उसकी ईश्वरीय अनुभूति की स्‍वीकृति होगी। उतने ही आप काम से मुक्त होते चले जायेगे। जितना अस्‍वीकार होता है,उतना ही हम बँधते है। जैसा वह फकीर कपड़ों से बंध गया था।
      जितना स्‍वीकार होता है उतने हम मुक्‍त होते है।
      अगर परिपूर्ण स्‍वीकार है, टोटल एक्‍सेप्‍टेबिलिटी है जीवन की, जो निसर्ग है उसकी तो आप पाएंगे.....वह परिपूर्ण स्‍वीकृति को मैं आस्‍तिकता व्‍यक्‍ति को मुक्‍त करती है।
      नास्‍तिक मैं उनको कहता हूं, जो जीवन के निसर्ग को अस्‍वीकार करते है, निषेध करते है। यह बुरा है, पाप है, यह विष है, यह छोड़ो , वह छोड़ो। जो छोड़ने की बातें कर रहे है, वह ही नास्‍तिक है।
      जीवन जैसा है, उसे स्‍वीकार करो और जीओं उसकी परिपूर्णता में। वही परिपूर्णता रोज-रोज सीढ़ियां ऊपर उठती जाती है। वही स्‍वीकृति मनुष्‍य को ऊपर ले जाती है। और एक दिन उसके दर्शन होते है,जिसका काम में पता भी नहीं चलता था। काम अगर कोयला था तो एक दिन हीरा भी प्रकट होता है प्रेम का। तो पहला सूत्र यह है।
      दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं, और वह दूसरा सूत्र संस्‍कृति ने, आज तक की सभ्‍यता ने और धर्मों ने हमारे भीतर मजबूत किया है। दूसरा सूत्र भी स्‍मरणीय है, क्‍योंकि पहला सूत्र तो काम की ऊर्जा को प्रेम बना देगा। और दूसरा सूत्र द्वार की तरह रोके हुए है उस ऊर्जा को बहने से—वह बह नहीं पायेगी

वह दूसरा सूत्र है मनुष्‍य का यह भाव कि मैं हूं’, ‘’ईगो’’, उसका अहंकार, कि मैं हूं। बुरे लोग तो कहते है कि मैं हूं। अच्‍छे लोग और जोर से कहते है ‘’मैं हूं’’—और मुझे स्‍वर्ग जाना है और मोक्ष जाना है और मुझे यह करना है और मुझे वह करना है। कि मैं हूं—वह ‘’मैं’’ खड़ा है वहां भीतर।
      और जिस आदमी का ‘’मैं’’ जितना मजबूत होगा, उतनी ही उस आदमी की सामर्थ्‍य दूसरे से संयुक्त हो जाने की कम होती है। क्‍योंकि ‘’मैं’’एक दीवान है, एक घोषणा है कि ‘’मैं हूं’’। मैं की घोषणा कह देती है; तुम-तुम हो, मैं-मैं हूं। दोनों के बीच फासला है। फिर मैं कितना ही प्रेम करूं और आपको अपनी छाती से लगा लूं, लेकिन फिर भी  हम दो है। छातियां कितनी ही निकट आ जायें। फिर भी बीच मैं फासला है—मैं से तुम तक का। तुम-तुम हो मैं-मैं ही हूं। इसलिए निकटता अनुभव भी निकट नहीं ला पाते। शरीर पास बैठ जाते है। आदमी दूर बने रहते है। जब तक भीतर‘’मैं’’ बैठा हुआ है, तब तक ‘’दूसरे’’ का भाव नष्‍ट नहीं होता।
      सार्त्र ने कहीं एक अद्भुत वचन कहा है। कहा है कि ‘’दि अदर इज़ हेल’’ वह जो दूसरा है वह नर्क है। लेकिन सार्त्र ने यह नहीं कहा कि ‘’व्‍हाई दी अदर इज़ अदर’’ वह दूसरा-दूसरा क्‍यों है। वह दूसरा-दूसरा इसलिए है के मैं-मैं हूं। और जब मैं ‘’मैं’’ हूं दूनिया में हर चीज दूसरी है, भिन्‍न है। और जब तक भिन्‍नता है, तब तक प्रेम का अनुभव नहीं हो सकता।      
      प्रेम है एकात्‍म का अनुभव।
      प्रेम है इस बात का अनुभव कि गिर गयी दीवाल और दो ऊर्जाऐं मिल गयीं और संयुक्‍त हो गयी।
      जब यही अनुभव एक व्‍यक्‍ति और समस्‍त के बीच फलित होता है। तो उस अनुभव को मैं कहता हूं—परमात्‍मा। और जब दो व्‍यक्‍ति के बीच फलित होता है तो मैं उसे कहता हूं—प्रेम।
      अगर मेरे और किसी दूसरे व्‍यक्‍ति के बीच यह अनुभव फलित हो जाये कि हमारी दीवालें गिर जायें, हम किसी भीतर के तल पर एक हो जायें; एक संगीत, एक धारा एक प्राण, तो यह अनुभव है प्रेम।
      और ऐसा ही अनुभव मेरे और समस्‍त के बीच घटित हो जाये कि मैं विलीन हो जाऊँ और सब और मैं एक हो जाऊँ तो यह अनुभव है परमात्‍मा।
      इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम है सीढ़ी और परमात्‍मा है उस यात्रा की अंतिम मंजिल। यह कैसे संभव है कि दूसरा मिट जाए, जब तक मैं न मिटू? जब तक दूसरा कैसे मिट सकता है? वह दूसरा पैदा किया है मेरे ‘’मैं’’ की प्रतिध्‍वनि ने। जितना जोर से मैं चिल्‍लाता हूं के मैं, उतने ही जोर से वह दूसरा पैदा हो जाता है। वह दूसरा प्रतिध्‍वनि है, उस तरफ इको हो रह है मेरे ‘’मैं’’ की। और यह अंहकार,यह ‘’ईगो’’ द्वार पर दीवाल बनकर खड़ी है।
      और मैं है क्‍या? कभी सोचा आपने यह मैं है क्‍या? आपका हाथ है; ‘’मैं’’,  आपका पैर है, आपका मस्‍तिष्‍क है,आपका ह्रदय है, क्‍या है आपका मैं?
      अगर आप एक क्षण भी शांत होकर भीतर खोजने जायेंगे कि कहां है ‘’मैं’’ कौन सी चीज है मैं, तो आप एक दम हैरान रह जायेगे कि भीतर कोई ‘’मैं’’ खोज से मिलने का नहीं है। जितना गहरा खोजते जाओगे, उतना ही पाओगे, कि भीतर एक सन्‍नाटा और शून्‍य है, वहां कोई मैं नहीं है, वहां कोई ‘’आई’’ वहां कोई ‘’ईगो’’ नहीं है।
      एक भिक्षु हुआ नाग सेन उसे एक दिन सम्राट मिलिन्‍द ने निमंत्रण दिया था कि तुम आओ दरबार में। जो राजदूत गया था निमंत्रण देने, उसने नाग सेन को कहा कि भिक्षु नाग सेन, आपको बुलाया है सम्राट मिलिन्‍द ने। मैं निमंत्रण देने आया हूं। तो नाग सेन कहने लगा, मैं चलूंगा जरूर; लेकिन एक बात विनय कर दूँ; पहले ही कह दूँ कि भिक्षु नाग सेन जैसा कोई है नहीं। यह केवल एक नाम है, कामचलाऊ नाम। आप कहते है तो मैं चलूंगा जरूर,लेकिन ऐसा कोई आदमी कहीं है नहीं।
      राज दूत ने जाकर सम्राट को कहा की बड़ा अजीब आदमी है वह। वह कहने लगा कि मैं चलूंगा जरूर,लेकिन ध्‍यान रहे कि भिक्षु नाग सेन जैसा कहीं कोई है नहीं, यह केवल एक कामचलाऊ नाम है। सम्राट ने कहा, अजीब सी बात है, जब वह कहता है, मैं चलूंगा। आयेगा वह।
      वह आया भी रथ र बैठकर। सम्राट ने द्वार पर स्‍वागत किया और कहा भिक्षु नाग सेन, हम स्‍वागत करते है आपका।
      वह हंसने लगा। उसने कहा,स्‍वागत स्‍वीकार करता हूं। लेकिन स्‍मरण रहे भिक्षु नाग सेन जैसा कोई आदमी नहीं है।
      सम्राट कहने लगा बड़ी अजीब पहली है। आगर आप-आप नहीं है तो कौन है?  कौन आया है इस रथ पर बैठ कर, कौन स्‍वागत स्‍वीकार रहा है, कौन दे रहा है उत्‍तर?
      नाग सेन मुड़ा और उसने कहा, देखते है, सम्राट मिलिन्‍द, यह रथ खड़ा है जिस पर मैं बैठ कर आय हूं। सम्राट ने कहां,हाँ यह रथ है। तो भिक्षु ने कहां की घोड़ों को निकला कर अलग कर दिया जाये, घोड़े अलग कर दिये, तब भिक्षु नाग सेन ने सम्राट से पूछा की क्‍या ये घोड़ रथ है?
      सम्राट ने कहां, घोड़े रथ कैसे हो सकते है? घोड़े अलग कर दिये गये, सामने के डंडे जिनसे घोड़े बंधे थे, खिंचवा लिए गये।
      उसने पूछा क्‍या ये रथ है?
      सिर्फ दो डंडे रथ कैसे हो सकते है? डंडे अलग कर दिये गये, चाक निकलवा दिये गये, और एक-एक अंग रथ का निकलता चला गया। और एक-एक अंग पर सम्राट को कहना पडा कि नहीं, ये रथ नहीं है। फिर आखिर पीछे शून्‍य बच गया,वहां कुछ भी नहीं बचा।
      भिक्षु नाग सेन पूछने लगा, रथ कहां है अब? रथ कहा है अब, और जितनी चीजें मैंने निकालीं, तुमने कहा ये भी रथ नहीं, ये भी रथ नहीं, ये रथ गया कहां, अब ये रथ कहां है?
      तो सम्राट चौक कर खड़ा हो गया—रथ एक जोड़ था। रथ कुछ चीजों का संग्रह-मात्र था। रथ का अपना होना नही है, कोई‘’ईगो’’ नहीं है। रथ एक जोड़ है।
      आप खोजें कहां है आपका ‘’मैं’’ और आप पायेंगे कि अनंत शक्‍तियों के एक जोड़ है; मैं कहीं भी नहीं है। और एक-एक अंग आप सोचते चले जायें तो एक-एक अंग समाप्‍त होता चला जाता है, फिर पीछे शून्‍य रह जाता है। उसी शून्‍य से प्रेम का जन्‍म होता है। क्‍योंकि वह शून्‍य आप नहीं है वह शून्‍य परमात्‍मा है।
      एक आदमी ने गांव में एक मछलियों की दूकान खोली थी। बड़ी दुकान थी। उस गांव में पहली दुकान थी। तो उसने एक बहुत खूबसूरत तख्‍ती बनवायी और उस पर लिखवाया--''फ्रेश फिश सोल्‍ड हियर''—यहां ताजी मछलियाँ बेची जाती है।
      पहले ही दिन दुकान खुला और एक आदमी आया ओर कहने लगा, ''फ्रेश फिश सोल्‍ड हियर''? ताजी मछलियाँ? कहीं बासी मछलियाँ भी बेची जाती है? ताजा लिखने की क्‍या जरूरत है?
      दुकानदार ने सोचा कि बात तो ठीक है। इससे और व्‍यर्थ बातों का ख्‍याल पैदा होता है। उसने ''फ्रेश'' अलग कर दिया,ताजा अलग कर दिया। तख्‍ती रह गयी ''फिश सोल्‍ड हियर'' मछलियाँ बेची जाती है। मछलियाँ यहां बेची जाती है।
      दूसरे दिन एक बूढ़ी औरत आयी और उसने कहां कि मछलियाँ यहां बेची जाती है--''फिश सोल्ड हियर'' कहीं और भी बेची जाती है।
      तो उस आदमी ने कहा की यह ''हियर'' बिलकुल फिजूल है, उसने तख्‍ती पर से एक शब्‍द और अलग कर दिया। रह गया''फिश सोल्‍ड''
      तीसरे दिन एक आदमी आया और कहने लगा ''फिश सोल्‍ड'' मछलियाँ बेची जाती है? मुफ्त में देते हो क्‍या?
      आदमी ने कहा, यह ''सोल्‍ड'' भी खराब है, उसने सोल्ड को भी अलग कर दिया। अब रह गई ''फिश''
      अगले दिन एक बूढ़ा आदमी आया और कहने लगा, ''फिश''? अंधे को भी मीलों दूर से पता चल जाता है, कि यहां मछलियाँ  मिलती है। ये तख्‍ती काहे को लटका रखी है ?
      ‘’फिश’’ भी चली गयी। खाली तख्‍ती रह गई।
      अगले दिन एक आदमी आया, वह कहने लगा, यह तख्‍ती किस लिए लगी है? दूर से देखने में पता नहीं चलता की यहां दुकान भी है। यह तख्‍ती दुकान की आड़ करती है। उस दिन वह  तख्‍ती भी चली गई। वहां अब कुछ भी नहीं रहा। इलीमिनेशन होता  गया। एक-एक चीज हटती चली गयी। पीछे जो शेष रह गया वह है, शुन्‍य।
      उस शुन्‍य से प्रेम का जन्‍म होता है, क्‍योंकि उस शून्‍य में दूसरे के शून्‍य से मिलने की क्षमता है। सिर्फ शून्‍य ही शून्‍य से मिल सकता है, और कोई नहीं। दो शून्‍य मिल सकते है। दो व्‍यक्‍ति नहीं। दो इन्‍डीवीज्‍युल नहीं मिल सकते; दो वैक्यूम, दो एमप्‍टीनेसेस मिल सकते है; क्‍योंकि बाधा अब कोई नहीं है। शून्‍य की कोई दीवाल नहीं होती और हर चीज की दीवाल होती है।
      तो दूसरी बात स्‍मरणीय है कि व्‍यक्‍ति जब मिटता है, नहीं रह जाता,पाता है कि ‘’हूं’’ है ही नहीं। तो है, वह ‘’मैं नहीं है,जो है वह ‘’सब’’ है। तब द्वार गिरता है, दीवाल टूटती है,है,ब वह गंगा बहती है, जो भीतर छिपी है और तैयार है। वह शून्‍य की प्रतीक्षा कर रही है। कि कोई शून्‍य हो जाये तो उससे बह उठूं।
      हम एक कुआं खोदते है, पानी भीतर है। पानी कहीं से लाना नहीं होता है। लेकिन बीच में मिट्टी-पत्‍थर पड़े है। उनको निकलना है, करते क्‍या है हम? करते है हम—एक शून्‍य बनाते है, एक खाली जगह बनाते है। एक एमप्‍टीनेस बनाते है। कुआं खोदने का मतलब है: खाली जगह  बनाना, ताकि खाली जगह में जो भीतर छीपा हुआ है, पानी, वह प्रकट हो जाये, स्‍पेस पा जाये। वह भीतर है, उसको जगह चाहिए प्रकट होने को । जगह नहीं मिल रही है। भरा हुआ है कुआं मिट्टी पत्‍थर हमने अलग कर दिये, वह पानी उबल कर बाहर आ गया।
      आदमी के भीतर प्रेम भरा हुआ है, स्‍पेस चाहिए,जगह चाहिए, जहां वह प्रकट हो जाये।
      और हम भरे हुए है अपने को ‘’मैं’’ से। और आदमी चिल्‍लाये चला जा रहा है ‘’मैं’’। और स्‍मरण रखें जब आपकी आत्‍मा चिल्‍लाती है मैं, तब तक आप मिट्टी-पत्‍थर से भरे हुए कुएं है। आप के कुएं में प्रेम के झरने कभी नहीं दिखाई देते। नहीं फूटते, नहीं फूट सकते।
      मैंने सूना है एक बहुत पुराना वृक्ष था। आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे। उस पर फल आते थे तो दूर-दूर से पक्षी सुगंध लेते आते थे। उस पर फूल लगते थे तो तितलियां उड़ती चली आती थी। उसकी छाया, उसके फैले हाथ, हवाओं में उसका वह खड़ा रूप आकाश में बड़ा सुन्‍दर लगता था। एक छोटा सा बच्‍चा उसकी छाया में रोज खेलने आता था। उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्‍चे से  प्रेम हो गया।
      बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है। अगर बड़ों को पता न हो कि हम बड़े है। वृक्ष को कोई पता नहीं था कि मैं बड़ा हूं,वह पता सिर्फ आदमियों को होता है। इसलिए उसका प्रेम मर गया है, और वृक्ष अभी निर्दोष है निष्कलुष है उन्‍हें नहीं पता की मैं बड़ा हूं।
      अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से प्रेम करने की कोशिश करता है। अहंकार हमेशा अपनों से बड़ों से संबंध जोड़ता है। प्रेम के लिए कोई बड़ा छोटा नहीं है। जो आ जाएं, उसी से संबंध जूड़ जाता है।
      वह एक छोटा सा बच्‍चा खेलने आता था, उस वृक्ष के पास। उस वृक्ष का उससे प्रेम हो गया। लेकिन वृक्ष की शाखाएं ऊपर थीं। बच्‍चा छोटा था तो वृक्ष अपनी शाखाएं उसके लिए नीचे झुकाता, ताकि वह फल तोड़ सके, फूल तोड़ सके।
      प्रेम हमेशा झुकने को राज़ी है, अहंकार कभी भी नहीं झुकने को राज़ी होता है।
      अहंकार के पास जायेंगे तो अहंकार के हाथ और ऊपर उठ जायेंगे। ताकि आप उन्‍हें छू न सकें। क्‍योंकि जिसे छू लिया जाये। वह छोटा आदमी है। जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्‍ली में हो, वह आदमी बड़ा आदमी है।
      उस वृक्ष की शाखाएं नीचे झुक आती थी, जब वह बच्‍चा खेलता हुआ आता उस वृक्ष के पास, और वह जब उसका फूल तोड़ता, तब वह वृक्ष अंदर तक सिहर जाता, प्रेम की छुअन से सराबोर हो जाता। और खुशी के मारे उसकी शाखाएं नाचने झूमने लगती। उसके प्राण आनंद से भर जाते।
      प्रेम जब भी कुछ दे पाता है तो खुश हो जाता है।
      अहंकार जब भी कुछ ले पाता है, तभी खुश होता है।
      फिर वह बच्‍चा बड़ा होने लगा। वह कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बनाकर पहनता, वृक्ष उसे जंगल के सम्राट के रूप में देख कर गद्द गद हो जोता।
      प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसतें हैं, वही सम्राट हो जाता है, वृक्ष के प्राण आनंद से भर जाते, उसकी छूआन उसे अन्‍दर तक गुदगुदा जाती। हवा जब उसके पता को छूती तो उससे मधुर गान निकलता। नये-नये गीत फूटते उस बच्‍चे के संग।
      वह लड़का कुछ और बड़ा हुआ। वह वृक्ष के उपर चढ़ने लगा। उसकी शाखाओं से झुलने लगा। वह उस की विशाल शाखाओं पर लेट कर विश्राम करता। वृक्ष आनंदित हो उठता। प्रेम आनंदित होता है जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है।
      अहंकार आनंदित होता है जब किसी की छाया छीन लेता है।
      लड़का धीरे-धीरे बड़ा होता चला गया। दिन पर दिन बीतते ही चले गये, मानों समय को पंख लग गये। ऋतु पर ऋतु बदलती चली गयी। वृक्ष को पता ही नहीं चला उस समय का। जब हम आनंद में होते है तो समय की गति तेज हो जाती है। मानों उसके पंख लग गये हो। तब लड़का बड़ा हो गया तो उसे और दूसरे काम भी उसकी दुनियां में आ गये। महत्‍वकांक्षाएं आ गई। उसे परीक्षाए पास करनी थी। उसे मित्रों के साथ भी खेलना था। पढ़ाई में सब को पछाड़ कर अव्वल आना था। धीरे-धीरे उसका आना कम से कमतर होता चला गया। कभी आता कभी नहीं आता। लेकिन वृक्ष तो हमेशा उसकी राह ताकता रहता। की वह कब आये और उसके उपर चढ़े उसकी टहनीयों से खोले, उसके फूल तोड़े। उसके फल खाये। लेकिन वह हफ्तों महीनों बाद कभी आता। वृक्ष उसकी प्रतीक्षा करता कि वह आये। वह आये। उसके सारे प्राण पुकारते कि आओ-आओ।
      प्रेम निरंतर प्रतीक्षा करता है कि आओ-आओ।
      प्रेम एक प्रतीक्षा है, एक अवेटिंग है।
      लेकिन वह कभी आता, कभी नहीं आता, तो वृक्ष उदास रहने लगा।
      प्रेम की एक ही उदासी है जब वह बांट नहीं सकता। तब वह उदास हो जाता है। जब वह दे नहीं पाता, तो उदास हो जाता है।
      और प्रेम की एक ही धन्‍यता है कि जब वह बांट देता है, लुटा देता है तो आनंदित हो जाता है।
      फिर लड़का और बड़ा होता चला गया। और वृक्ष के पास आने के दिन कम होत चले गये।
      जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है महत्‍वाकांक्षा के जगत में, प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है। उस लड़के की महत्‍वाकांक्षा बढ़ रही थी। कहां अब वृक्ष के पास जाना।
      फिर एक दिन वह वहां से निकला जा रहा था, तो उस वृक्ष ने उसे पुकार की सुनो। हवाओं ने पत्‍तों ने उसकी आवाज को गुंजायमान किया। तुम आते नहीं, मैं प्रतीक्षा करता हूं, मैं रोज तुम्‍हारी राह देखता हूं, कि तुम इधर आओ, मेरी आंखें थक जाती है। पर तुम अब इधर नहीं आते क्‍यों?
      उस लड़के ने एक बार घुर कर देखा उस वृक्ष को और कहां की क्‍या है तुम्‍हारे पास। जो मैं आऊं,मुझे तो रूपये चाहिए।  
      हमेशा अहंकार पूछता है, कि क्‍या हे तुम्‍हारे पास, जो मैं आऊं। अहंकार मांगता है कि कुछ हो तो मैं आऊं। न कुछ हो तो आने की जरूरत नहीं है।
      अहंकार एक प्रयोजन है, एक परपज़ है। प्रयोजन पूरा होता है तो मैं आऊं। अगर कोई प्रयोजन न हो तो आने की जरूरत क्‍या है।
      और प्रेम निष्‍प्रयोजन है। प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं। प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है, वह बिलकुल पर्पजलेस है।
      वृक्ष तो चौंक गया। उसने कहा, तुम तभी आओगे, जब मैं तुम्‍हें कुछ दूँ। मैं तुम्‍हें सब दे सकता हूं। क्‍योंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता। जो रो ले वह प्रेम नहीं है। अहंकार रोकता है। प्रेम तो बेशर्त देता है। लेकिन ये रूपये तो मेरे पास नहीं है। ये रूपये तो आदमी की ईजाद है। उसी का रोग है अभी हमे नहीं लगा। हम बचे है अभी।
      उस वृक्ष ने कहां, इस लिए तो देखो हम इतने आनंदित है। पर मनुष्‍य के संग साथ रह कर हम उसके रोक को पाल लेते है। वरना तो हमारे उत्‍सव को देखो इन खीलें फूलों को देखो, इतने विशाल तने, इनकी छाया। इनपर पक्षियों का चहकना। अपने घर बनाना। खेलना  नाचना। कलरव करना। देखो हम कितने नाचते है आकाश में , कितने गीत गाते है। क्‍योंकि हमारे पास पैसा नहीं है। हम आदमी की तरह दीन-हीन मंदिरों में बैठ कर, शांति की कामना करते है। कि कैसे पाई जाये। सर टरकाते है उसके चरणों में कि हमें कुछ तो दो हम पड़े है तेरे द्वार...पर हमारे पास पैसा नहीं है।
      तो उसने कहा, फिर क्‍यों आऊं में तुम्‍हारे पास। जहां पर रूपये है मुझे तो वहीं जाना है। तुम समझते नहीं हमारी मजबूरी,क्‍योंकि तुम्‍हें पैसे की जरूरत नहीं है। पानी तुम्‍हें कुदरत से मिल जाता है, जिस मिट्टी पर तुम खड़े हो वह तुम्‍हें मुफ्त में मिल गई है। हवा, धूप जो तुम्हें पोशण देती है उसके लिए तुम्‍हें कुछ देना नहीं होता। पर हमें तो सब पैसे से ही लेना है, हमारा जीवन तो पैसे से ही चला है.....अब ये बात तुम्‍हें कैसे समझाऊं।
      अहंकार रूपये मांगता है। क्‍योंकि रूपया शक्‍ति है, सुरक्षा है।
      उस वृक्ष ने बहुत सोचा, फिर उसे ख्‍याल आया....तो तुम एक काम तो कर सकते हो, मेरे सारे फल तोड़ कर ले जाओ ओर बेच दो उसे बाजार में, फिर तुम्‍हें शायद पैसा मिल जाये।
      उस लड़के की आंखों में चमक आ गई। उसे तो ये ख्‍याल ही नहीं आया था। वह खुशी से राजा हो गया। वह चढ़ गया उस वृक्ष पर और तोड़ने लगा फल, पर आज उसके हाथों में कुरता थी, उसके चढ़ने से भी उस वृक्ष को कुछ भारी पन लग रहा था। उसने फलों के साथ तोड़ डालें हजारों पत्‍ते, टहनीया, वृक्ष को पीड़ा होती पर वह यह जान कर आनंदित होता की ये पीड़ा उसके प्रेमी ने ही तो दी है। प्रेम पीड़ा में भी आनंद देख लेता है। और अहंकार उदारता में भी दु:ख। लेकिन फिर भी वह वृक्ष खुश था कि इस बहाने उसे उस का संग साथ तो मिला।
      टूटकर भी प्रेम आनंदित हो जाता है।
      अहंकार पाकर भी आनंदित नहीं होता। पाकर भी दु:खी होता है। ओर उस लड़के ने तो धन्‍यवाद भी नहीं दिया और सारे फल ले कर चल दिया बाजार की और। वृक्ष उसे निहारता रहा। जाते हुए देखता रहा, अपने को तृप्‍त करता रहा पर उसने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
      लेकिन उस वृक्ष को पता भी नहीं चला। उसे तो धन्‍यवाद मिल गया इसी में कि उस लड़के ने उसके प्रेम को स्‍वीकार किया। और उससे फल तोड़े और उन्‍हें बेचकर उसे धन मिल जायेगा। वह यह सोच-सोच कर गद्द गद हो रहा था।
      लेकिन इसके बाद भी वह लड़का बहुत दिनों तक नहीं आया। उसके पास रूपये थे,और रुपयों से रूपये पैदा करने की  कोशिश में वह लग गया। वह भूल ही गया उस बात को। कि वह पैसा उसे उसी वृक्ष के प्रेम की देन है। सालों गुजर गये।
      और धीरे-धीरे वृक्ष की उदासी उसके पत्‍तों पर भी उभरने लगी। तेज हवा ये उसे खड़खड़ाती जरूर पर अब उनमें वह लय वदिता नहीं थी। एक मुर्दे की सी खड़खड़ाहट थी। वह इस लिए जीवत भी की उसके प्राणों में रस का संचार हाँ रहा था। उसके प्राणा को रस बार-बार पुकारता  उस लड़के को की तू मेरे पास आ मैं तुझे अपना रस दूँगा। जैसे किसी मां के स्तन में दूध भरा हो और उसका बेटा खो जाये। और उसके प्राण तड़प रहे है कि उसका बेटा कहां है जिसे वह खोजें, जो उसे हलका कर दे। निर्भार कर दे। ऐसा उस वृक्ष के प्राण पीड़ित होने लगे कि वह आये—आये,आये। उसके प्राणों की सारी आवाज में यही गुंज रहा था। आओ-आओ।
      बहुत दिनों के बाद वह आया। वह लड़का प्रौढ़ हो गया था। वृक्ष ने उससे कहा आओ मेरे पास। मेरे आलिंगन में आओ। उसने कहा छोड़ो,यह बकवास। यह बचपन की बातें है। अब में बड़ा हो गया हुं मेरे कंधों पर घर गृहस्थी का बोझ आ गये है। ये सब तुम नहीं समझ सकते।
      अहंकार प्रेम को पागलपन समझता है। बचपन की बातें समझता है।
      उस वृक्ष ने कहा, आओ मेरी डलियों से झूलों—नाचो, चढ़ो मुझ पर। दौड़ों भागों....
      उसने कहा छोड़ो भी ये फजूल की सब बातें,क्‍या रखा इन सब में। समय खराब करना ही है। मुझे एक मकार बनाना है। तुम मुझे मकान दे सकते हो?
      वृक्ष ने कहा, मकान? वह क्‍या होता है, हम तो कोई मकान नहीं बनाते। क्‍यों बनाओगे तूम मकान। क्‍या काम आयेगा। और भी पशु पक्षी भी मकान, घोसला बनाते, है चींटियाँ, दीमक,पर वह तो आदमी की तरह दुःखी नहीं होती। वह तो बड़े आनंद उत्‍सव से उसके बनाने कास आनंद लेती है। फिर तुम इतने उदास क्‍यों है? लेकिन एक बात हो सकती है, मैं क्‍या सहायता कर सकता हूं तुम्‍हारे मकान बनाने के लिए.....कोई हो तो कहो।
      वह आदमी थोड़ी देर के लिए तो चुप हो गया। उसके दिल की बात ज़ुंबाँ पर आते-आते रूक गई। पर वह साहस कर के कहने लगा। तुम अपनी शाखाएं मुझे दे दो तो में अपने मकान की छात आराम से डाल सकता हूं। वृक्ष मुस्‍कुराया और कहने लगा तो इसमें इतना सोचने की क्‍या बता है। तुम ले सकते हो मेरी शाखाएं। मैं तुम्हारे किसी भी काम आ सकूँ तो अपने को धन्‍य ही मानूँगा। और मुझे लगेगा की तुमने मुझे प्‍यार किया।
      और वह आदमी गया और कुल्‍हाड़ी लेकिर आ गया और उसने उस वृक्ष की शाखाएं काट डाली। वृक्ष एक ठूंठ रह गया। एक दम मृत प्राय, नग्‍न, पर फिर भी वह वृक्ष आनंदित था।
      प्रेम सदा आनंदित रहता है। चाहे उसके अंग भी काटे जायें। लेकिन कोई ले जाये, कोई ले जाये, कोई बांट ले, कोई सम्‍मिलित हो जाये, कोई साझीदार हो जाये।
      और उस आदमी ने पीछे मुड़ कर इस बार भी नहीं देखा।
      और वक्‍त गुजरता गया। वह ठूंठ राह देखता रहा, वह चिल्‍लाना चाहता था। कहना चाहता था, अपने ह्रदय की पुकार, पर अब उसके पास पत्‍ते भी नहीं थे। शाखाएं भी नहीं थी। हवाएँ आती और वह उनसे बात भी नहीं कर पाता था। बुला भी नहीं पाता था अपने प्रेमी को। लेकिन प्राणों में अब भी एक गुंज थी आओ-आओ....एक बार फिर आओ।
      और बहुत दिन बीत गये। तब वह बच्‍चा अब बूढा आदमी हो गया था। वह निकल रहा था उसके पास से। और वह वृक्ष के पास आकर खड़ा हो गया। बहुत दिनों बाद आये, पर तुम्‍हें मेरी याद सताती तो है। कहो सब ठीक है। कैसे उदास हो। कमर झुक गई है। बाल सफेद हो गये। आंखों पर चशमा लगा गया है। उसने कहा में प्रदेश जाना चाहता हूं। यहां इतनी मेहनत की कुछ नहीं मिला। वहां जा कर खूब धन कमाऊगां। पर मैं नदी पर नहीं कर सकता। उसके लिए नाव चाहिए। तुम अपना तना मुझे दे दो तो मैं नाव बना जा सकता हूं। नाव तो तुम मेरी बना सकते हो, पर मुझे भूल मत जाना वहां जाकर। मुझे तुम्‍हारी बहुत याद आती है। तुम लोट कर जरूर इधर आना। मैं यहां तुम्‍हारी प्रतीक्षा करूंगा।
      और उसने उस वृक्ष के तने को काट कर नाव बना ली। वहां रह गया एक छोटा सा ठूंठ, और वह आदमी दूर यात्रा पर निकल गया। और वह ठूंठ उसकी प्रतीक्षा करता रहा की अब आयेगा। अब आयेगा। लेकिन अब तो उसके पास कुछ भी नहीं था। उसे देने की लिए शायद वह कभी इधर नहीं आयेगा। क्‍योंकि अहंकार वहीं आता है। जहां कुछ पाने को है। अहंकार वहीं नहीं जाता,जहां कुछ पाने को नहीं है।
      मैं उस ठूंठ के पास एक रात मेहमान हुआ था। तो वह ठूंठ मुझसे बोला कि वह मेरा मित्र अब तक नहीं आया। और मुझे बड़ी पीड़ा होती है। की वह ठीक से तो है। वह मेरे तने की नाव बना कर परदेश गया था। कही मेरे तने में कोई छेद तो नहीं था। मुझे रात दिन यही चिंता सताये जाती है। बस एक बार यह पता चल जाये की वह जहां भी है खुश है। तो में तृप्‍त हो जाऊँगा। एक खबर मुझे भर कोई ला दे। अब मैं मरने के करीब हूं। इतना पता चल जाये कि वह सकुशल है, फिर कोई बात नहीं। फिर सब ठीक है। अब तो मेरे पास देने को कुछ नहीं है। इसलिए बूलाऊं भी तो शायद वह नहीं आयेगा। क्‍योंकि वह केवल लेने की ही भाषा समझता है।
      अहंकार लेने की भाषा समझता है।
      प्रेम देने की भाषा है।
      इससे ज्‍यादा ओर कुछ भी मैं नहीं कहूंगा।
      जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाये और उस वृक्ष की शाखाएं अनंत तक फैल जायें। सब उसकी छाया में हों और सब तक उसकी बाँहें फैल जायें तो पता चल सकता है कि प्रेम क्‍या है।
      प्रेम का कोई शस्‍त्र नहीं है। न कोई परिभाषा है। नहीं प्रेम का कोई सिद्धांत ही है।
      तो मैं बहुत हैरानी मैं था कि क्‍या कहूंगा आपसे की प्रेम क्‍या है, तो बताना मुश्‍किल है। आकर बैठ सकता हूं—और अगर मेरी आंखों में वह दिखाई पड़ जाये तो दिखाई पड़ सकता है। अगर मेरे हाथों में दिखाई पड़ जाये तो दिखाई पड़ सकता है। मैं कह सकता हूं ये है प्रेम ।
      लेकिन प्रेम क्‍या है? अगर मेरी आँख में न दिखाई पड़े मेरे हाथ में न दिखाई पड़े, तो शब्‍दों में तो बिलकुल भी दिखाई नहीं पडा सकता है कि प्रेम क्‍या है।
      मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहित हूं, और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्‍मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्‍वीकार करे।
 --ओशो
संभोग से समाधि की और
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499 

No comments:

Post a Comment