Wednesday 7 February 2018

शरीर और तंत्र, आसक्‍ति और प्रेम

तंत्र--सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--20

शरीर और तंत्र, आसक्‍ति और प्रेम—(प्रवचन—बीसवां)

प्रश्‍न—सार:

1—क्‍या प्रेम में सातत्‍य जरूरी है? और प्रेम कब
भक्‍ति बनता है?
2—तंत्र शरीर को इतना महत्‍व क्‍यों देता है?
3—कृपया हमें आसक्‍ति और स्‍वतंत्रता के संबंध में कुछ कहें।

शरीर और तंत्र पहला प्रश्न :

किसी को दिन के चौबींसों घंटे प्रेम करना बहुत कठिन मालूम होता है। ऐसा क्‍यों होता है? क्या प्रेम में सातत्‍य जरूरी है?और प्रेम कब भक्‍ति बनता है?

 प्रेम कृत्य नहीं हैवह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे तुम कर सको। अगर तुम इसे कर सकते हो तो यह प्रेम नहीं है। प्रेम किया नहीं जाता हैहोता है। वह कृत्य नहींहोने की अवस्था है।
कोई व्यक्ति कोई चीज चौबीस घंटे नहीं करता रह सकता है। अगर तुम प्रेम 'करते होतो उसे तुम चौबीस घंटे नहीं कर सकते। हर काम थका देता हैहर काम से ऊब पैदा होती है। हर कृत्य के बाद विश्राम की जरूरत पैदा होती है। अगर तुम प्रेम भी करते हो तो तुम्हें घृणा में विश्राम करना होगा। क्योंकि विपरीत में ही विश्राम संभव है।

इसी वजह से सदा हमारे प्रेम में घृणा मिली होती है। इस क्षण तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो और अगले क्षण उसको ही घृणा भी करते हो। एक ही व्यक्ति तुम्हारे प्रेम और घृणा दोनों का पात्र हो जाता है। प्रेमियों का द्वंद्व यही है। और क्योंकि तुम्हारा प्रेम कृत्य हैइसलिए उसमें इतना दुख और संताप है।
तो पहले तो यह समझना है कि प्रेम कृत्य नहीं है। तुम प्रेम कर नहीं सकते हो। तुम प्रेम में हो सकते होकर नहीं सकते। प्रेम करना बेतुका है।
इसमें और बातें भी निहित हैं। प्रेम प्रयत्न भी नहीं है। अगर प्रेम प्रयत्न हो तो तुम थक जाओगे। प्रेम चित्त की एक अवस्था है। और इसे संबंधों की भाषा में भी मत सोचोइसे चित्त की एक अवस्था की भांति सोचो। अगर तुम प्रेमपूर्ण हो तो वह चित्त की एक अवस्था है। यह चित्त की अवस्था एक व्यक्ति पर भी केंद्रीभूत हो सकती है और यह समस्त पर भी फैल सकती है। जब वह एक व्यक्ति पर केंद्रित होती है तो उसे प्रेम कहते हैं। और जब वह अकेंद्रित होकर समस्त पर फैल जाती है तब वह प्रार्थना हो जाती है। तब तुम बस प्रेम में होते होकिसी के प्रेम में नहींसिर्फ प्रेम में।
यह वैसा ही है जैसा श्वास लेना। अगर श्वास लेने के लिए प्रयत्न की जरूरत होती तो तुम उसमें थक जातेतब तुम्हें विश्राम की जरूरत होतीऔर तब तुम मर जाते। अगर श्वास में प्रयत्न निहित होता तो कभी तुम श्वास लेना भूल भी सकते थे,और तब मृत्यु निश्चित थी।
प्रेम श्वास लेने जैसा है—यह ऊंचे तल का श्वसन है। अगर तुम श्वास नहीं लेते हो तो तुम्हारा शरीर मरेगा और अगर तुम प्रेम नहीं करते हो तो तुम्‍हारी आत्मा का जन्म नहीं होगा। तो प्रेम को आत्मा का श्वसन समझोश्वास समझो—। जब तुम प्रेम में होते हो तब तुम्हारी आत्मा श्वास—प्रश्वास की तरह ही जीवंत और शक्तिशाली होगी।
लेकिन इसे ऐसा सोचो। अगर मैं तुम से कहूं कि तुम मेरे पास ही श्वास लोऔर कहीं नहींतो तुम मर जाओगे। और जब दूसरी बार मेरे निकट आओगे तो तुम मृतवत होगे और मेरे निकट भी श्वास न ले सकोगे।
प्रेम के साथ यही दुर्घटना हुई है। प्रेम में हम मालकियत करते हैंजिससे हमारा प्रेम होता है उस पर कब्जा रखना चाहते हैं। प्रेमी कहते हैं कि किसी दूसरे को प्रेम मत करोकेवल मुझे प्रेम करो। लेकिन तब प्रेम मर जाता है। और तब प्रेमी प्रेम भी नहीं कर सकता। तब प्रेम असंभव हो जाता है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें हरेक व्यक्ति को प्रेम करना है। इसका इतना ही अर्थ है कि तुम्हें चित्त की प्रेमपूर्ण अवस्था में होना है। यह श्वास लेने जैसा हैतुम अपने दुश्मन के पास होकर भी श्वास लेते हो। जीसस का यही मतलब है जब वे कहते हैं कि अपने शत्रु को प्रेम करो। ईसाइयत के लिए जीसस के इस वचन को समझाना कि शत्रु को प्रेम करोएक समस्या रही है। यह विरोधाभासी मालूम पड़ता है। लेकिन अगर प्रेम कृत्य नहीं हैअगर वह चित्त की दशा हैतो फिर शत्रु या मित्र का प्रश्न नहीं रहता। तब तुम बस प्रेम हो।
इस बात को दूसरी तरफ से देखो। ऐसे लोग हैं जो निरंतर घृणा में जीते हैं और जब वे प्रेम दिखाना चाहते हैं तो उन्हें बहुत प्रयत्न करना पड़ता है। उनका प्रेम प्रयत्न हैक्योंकि उनके चित्त की स्थायी अवस्था घृणा की है। इसलिए प्रयत्न की जरूरत पड़ती है। ऐसे लोग हैं जो सतत उदास रहते हैंतब उन्हें हंसने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। उन्हें अपने आपसे लड़ना पड़ता है। और तब उनकी हंसी चिपकायी हुई हंसी हो जाती है—झूठीआरोपितकृत्रिमआयोजित। वह भीतर से नहीं आती है। उसमें कोई सहजता नहीं होतीवह बिलकुल बनावटी है।
ऐसे लोग हैं जो सदा क्रोध में होते हैंऐसा नहीं कि वे किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति क्रोध में हैंवे बस क्रोध में हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए प्रेम करना प्रयत्न हो जाता है। दूसरी ओर अगर तुम्हारे चित्त की अवस्था प्रेम की है तो क्रोध करना प्रयत्न हो जाएगा। तुम क्रोध करोगेलेकिन वह क्रोध क्रोध नहीं होगाबनावटी क्रोध होगा। वह झूठा होगा।
यदि बुद्ध क्रोध करने की चेष्टा करें तो उन्हें बहुत प्रयत्न करना पड़ेगाऔर फिर भी उनका क्रोध झूठा होगा। जो उन्हें नहीं जानते हैं वे लोग ही उनके क्रोध के धोखे में पड़ सकते हैंजो जानते हैं वे जानते हैं कि यह क्रोध मिथ्या हैओढ़ा हुआ है,कृत्रिम है। यह भीतर से नहीं आता है। यह असंभव है।
कोई बुद्धकोई जीसस घृणा नहीं कर सकतेउसके लिए उन्हें प्रयत्न करना होगा। अगर वे घृणा दिखाना चाहेंगे तो उसका उन्हें अभिनय करना होगा। लेकिन तुम्हें घृणा करने के लिए प्रयत्न की जरूरत नहीं होगी। हीप्रेम करने के लिए प्रयत्न जरूरी होगा।
चित्त की इस अवस्था को बदलो। चित्त की अवस्था को कैसे बदला जाएप्रेमपूर्ण कैसे हुआ जाएऔर यह समय का प्रश्न नहीं है कि चौबीस घंटे प्रेमपूर्ण कैसे रहा जाए। यह प्रश्न ही व्यर्थ है। यह समय का प्रश्न ही नहीं है। अगर तुम एक क्षण के लिए भी प्रेमपूर्ण हो सको तो पर्याप्त है। तुम्हें दो क्षण एक साथ कभी नहीं मिलते हैं; जब मिलता है एक क्षण ही होता है।
और अगर तुमने जान लिया कि इस एक क्षण में प्रेमपूर्ण कैसे हुआ जाए तो कुंजी तुम्हारे हाथ आ गयी। तुम्हें चौबीस घंटे या जिंदगीभर की बात नहीं सोचनी है। प्रेम का एक क्षण पर्याप्त है। जब तुमने जान लिया कि एक क्षण को प्रेम से कैसे भरा जाए तब दूसरा क्षण तुम्हें मिलेगा और तुम उसको प्रेम से भर सकोगे।
इसलिए याद रहे कि यह समय की बात नहीं हैबस एक क्षण की बात है। और क्षण समय का हिस्सा नहीं है। क्षण कोई प्रक्रिया नहीं हैवह बस अभी है। एक बार तुम जान लो कि एक क्षण के भीतर प्रेमपूर्ण होकर कैसे प्रवेश किया जाए तो तुमने शाश्वत को जान लियातब समय नहीं रह जाता है।
बुद्ध अभी जीते हैंइस क्षण में जीते हैंतुम समय में जीते हो। समय का मतलब है अतीत की सोचनाभविष्य की सोचना। और जब तुम अतीत और भविष्य की सोच रहे होते हो तब वर्तमान खो जाता है। तुम भविष्य और अतीत में अटके होते हो और वर्तमान हाथ से निकल जाता है। और अस्तित्व वर्तमान में हैवर्तमान ही अस्तित्व है। अतीत वह है जो बीत चुका और भविष्य वह है जो होने को है। वे दोनों नहीं हैंवे दोनों अनस्तित्व हैं। यही क्षणयह एकअकेला आणविक क्षण अस्तित्व है;वह यहीं और अभी है।
अगर तुम प्रेमपूर्ण होना चाहते हो तो तुम्हें कुंजी प्राप्त है। और तुम्हें कभी भी दो क्षण एक साथ नहीं मिलेंगे। तो तुम समय की फिक्र मत करो।
एक अकेला क्षण सदाऔर सदा अभी के रूप में आता है। स्मरण रहे, 'यह क्षणदो तरह का नहीं होता है। यह एक क्षण सदा समान हैएक जैसा है। वह बीते क्षण से या आने वाले क्षण से किसी भी भांति भिन्न नहीं है। यह आणविक 'अबसदा एक जैसा है।
इसीलिए इकहार्ट कहता हैसमय नहीं बीतता है। समय तो वही हैहम बीतते हैं। शुद्ध समय सदा एक जैसा होता है। सिर्फ हम बीतते रहते हैं।
तो चौबीस घंटे की मत सोचो। और तब तुम्हें वर्तमान क्षण की फिक्र करने की जरूरत नहीं रहेगी।
एक और बात। सोचने के लिए समय की जरूरत हैजीने के लिए समय की जरूरत नहीं है। तुम इसी क्षण में सोच नहीं सकते हो। इस क्षण में अगर तुम होना चाहते होतुम्हें सोचना बंद करना पड़ेगा। विचारना बुनियादी रूप से अतीत या भविष्य से संबंधित है। वर्तमान में तुम क्या सोच सकते होज्यों ही तुम सोचते हो वर्तमान अतीत हो जाता है।
एक फूल हैतुम कहते हो कि यह सुंदर फूल है। यह कहना भी अब वर्तमान में नहीं हैयह अतीत हो चुका। जब तुम किसी चीज को विचार में पकड़ना चाहते होवह अतीत हो चुकती है। वर्तमान में तुम हो तो सकते होलेकिन विचार नहीं कर सकते। तुम फूल के साथ हो सकते होलेकिन विचार नहीं कर सकते। तुम फूल के साथ हो सकते होपरंतु उसके संबंध में विचार नहीं कर सकते। विचारने के लिए समय की जरूरत है। दूसरे शब्दों में, विचारना ही समय है। अगर तुम विचार नहीं करते हो तो समय नहीं है।
इसीलिए ध्यान में समय—शून्यता का एहसास होता है। इसीलिए प्रेम में कालातीत का अनुभव होता है। प्रेम विचारना नहीं हैवह विचार का विसर्जन है। तुम बस हो। जब तुम अपनी प्रेमिका के साथ हो तो तुम प्रेम के संबंध में विचार गी कर रहे हो,न तुम अपनी प्रेमिका के संबंध में विचार करते हो। तुम कुछ भी विचार नहीं करते हो। और अगर विचार कर रहे हो तो तुम अपनी प्रेमिका के साथ नहीं होकहीं और हो। विचारने का अर्थ है कि अभी—यहां तुम अनुपस्थित होतुम नहीं हो।
यही वजह है कि जो लोग विचारों से बहुत ग्रस्त रहते हैं वे प्रेम नहीं कर सकते। अगर ऐसे लोग भगवत्ता के मूल स्रोत पर भी पहुंच जाएंअगर वे परमात्मा को भी मिल जाएंतो भी वे उसके संबंध में सोचते रहेंगे और उसे बिलकुल चूक जाएंगे। तुम किसी चीज के संबंध में सोचते रहोसोचते रहीसोचते रहोलेकिन वह कभी तथ्य नहीं है।
प्रेम का एक क्षण समयातीत क्षण है। तब यह सोचने का प्रश्न नहीं उठता कि कैसे चौबीस घंटे प्रेम में रहा जाए। तुम यह कभी नहीं सोचते कि कैसे चौबीस घंटे जीवित रहा जाए। या तो तुम जीवित हो या नहीं जीवित हो। समझने की बुनियादी बात समय नहीं, 'अबहैकैसे यहां और अभी प्रेम की अवस्था में रहा जाए।
आखिर घृणा क्यों हैजब तुम्हें घृणा पकड़े है तो उसके कारण की खोज करो। केवल तभी प्रेम का फूल खिल सकता है। तुम्हें घृणा कब महसूस होती हैजब तुम समझते हो कि तुम्हारा अस्तित्वतुम्हारा जीवन खतरे में हैजब तुम्हें लगता है कि तुम्हारा अस्तित्व मिट सकता हैतो तुम अचानक घृणा से भर जाते हो। जब तुम्हें लगता है कि तुम्हें मिटाया जा सकता है तो तुम दूसरों को मिटाने में लग जाते हो। वह सुरक्षा का इंतजाम हैतुम्हारा ही एक अंश तब जीवित रहने के लिए संघर्ष करने लगता है। जब भी तुम्हें लगता है कि मेरा अस्तित्व खतरे में हैतुम घृणा से भर जाते हो।
इसलिए जब तक तुम्हें यह न लगे कि मेरा अस्तित्व खतरे में नहीं हैकि मुझे मिटाना असंभव हैतब तक तुम्हारे प्राण प्रेम से नहीं भर सकते। जीसस प्रेम कर सकते हैंक्योंकि वे उसे जानते हैं जो चिन्मय है। तुम प्रेम नहीं कर सकतेक्योंकि तुम उसे ही जानते हो जो मृण्मय है। प्रत्येक क्षण तुम्हारे लिए मृत्यु है। प्रत्येक क्षण तुम भयभीत हो। और जो भयभीत है वह प्रेम कैसे कर सकता हैप्रेम और भय साथ—साथ नहीं चल सकते। और तुम भयभीत हो! इसलिए तुम केवल प्रेम करने का भ्रम पैदा कर सकते हो।
और फिर तुम्हारा प्रेम सुरक्षा—व्यवस्था के सिवाय और कुछ नहीं है। तुम भय से बचने के लिए प्रेम करते हो। जब तुम मानते हो कि तुम प्रेम में हो तो तुम्हारा भय कम हो जाता है। क्षणभर के लिए तुम मृत्यु को भूल सकते हो। एक भ्रम निर्मित होता है जिसमें तुम्हें लगता है कि मुझे अस्तित्व ने स्वीकार कर लिया हैमैं अस्वीकृत नहीं हूं उपेक्षित नहीं हूं।
यही कारण है कि प्रेम की और प्रेम पाने की इतनी आकांक्षा है। जब भी तुम्हें कोई प्रेम करता है तो तुम्हें यह भ्रम होता है कि अस्तित्व को मेरी जरूरत है—कम से कम किसी को तो म् मेरी जरूरत है। तुम सोचते हो कि मैं व्यर्थ नहीं हूं क्योंकि किसी के लिए तो मैं जरूरी हूं। तुम सोचते हो कि मैं आकस्मिक नहीं हूं क्योंकि कहीं न कहीं मैं पूछा जाता हूं। तुम्हें लगता है कि मेरे बिना अस्तित्व में कुछ कमी रह जाएगी। और इससे तुम्हें अच्छा लगता हैतुम्हें लगता है कि मेरा भी प्रयोजन हैमेरी भी नियति हैअर्थवत्ता है और पात्रता है।
और जब तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता है तो तुम अस्वीकृत हो जाते हो और उपेक्षित अनुभव करते हो। तब तुम्हें लगता है कि मैं व्यर्थ हूं मेरा कोई प्रयोजन नहीं हैमेरी कोई अर्थवत्ता नहीं है। अगर कोई तुम्हें प्रेम न करे और तुम मर जाओ तो तुम्हारी अनुपस्थिति का एहसास नहीं होगाकिसी को भी एहसास नहीं होगा कि तुम कभी थे और तुम अब नहीं हो।
प्रेम तुम्हें यह भाव देता है कि मेरी भी जरूरत है। इसी से प्रेम में भय कम हो जाता है। और जब प्रेम नहीं रहता तो तुम ज्यादा भयभीत हो जाते हो और भय में सुरक्षा के लिए तुम घृणा करने लगते हो। घृणा सुरक्षा है। खुद ध्वंस से बचने के लिए तुम ध्वंसात्मक हो जाते हो। प्रेम में तुम्हें लगता है कि मैं स्वीकृत हूं कि मेरा स्वागत हैकि मैं बिनबुलाया मेहमान नहीं हूं कि लोग मेरी प्रतीक्षा में थेऔर यह कि अस्तित्व मुझे पाकर प्रसन्न है। तुम्हारा प्रेमी समूचे अस्तित्व का प्रतिनिधि बन जाता है।
लेकिन प्रेम बुनियादी रूप से भय पर खड़ा है। तुम प्रेम के द्वारा भय और मृत्यु से अपना बचाव कर रहे होतुम अपने प्रति अस्तित्व की अमानवीय उपेक्षा से अपना बचाव कर रहे हो। सच तो यह है कि अस्तित्व तुम्हारे प्रति उदासीन हैकम से कम ऊपरी तौर पर तो यही दिखाई देता है। सूरजसागरग्रहनक्षत्रपृथ्वीसभी तुम्हारे प्रति उदासीन लगते हैंकोई भी तो तुम्हारी फिक्र करता नहीं मालूम पड़ता है। देखने में तो यह स्पष्ट है कि तुम जरूरी नहीं हो। तुम्हारे बिना सब कुछ वैसा ही रहेगा जैसा तुम्हारे होने पर हैकुछ भी कम नहीं होगा।
यदि अस्तित्व को ऊपर—ऊपर देखो तो तुम्हें लगेगा कि किसी को भी मेरी चिंता नहीं है। अस्तित्व को शायद तुम्हारा पता भी न हो। चांद—सितारों को तुम्हारा पता नहीं हैइस धरती को भी तुम्हारा पता नहीं है जिसे तुम मां कहकर पुकारते हो। जब तुम मर जाओगे तो धरती दुखी न होगीकहीं कोई बदलाहट न होगीसब कुछ वैसा ही रहेगा जैसा है और सदा रहा है। तुम रहो न रहोकोई फर्क नहीं पड़ता है। इससे तुम्हें लगता है कि मैं महज आकस्मिक हूं मैं जरूरी नहीं हूं। तुम्हें लगता है कि मैं अनामंत्रित आ गया हूं—मात्र संयोगवश।
इससे भय पैदा होता है। और इसको ही कीर्कगार्ड ने संताप कहा है। एक सूक्ष्म भय निरंतर बना रहता है।
जब कोई तुम्हें प्रेम करता है तो तुम्हें लगता है कि मैं जरूरी हूं। तब तुम्हें लगता है कि मेरे जीवन में नए आयाम का उदय हुआ है। अब कम से कम एक मनुष्य तो होगा जो मेरे लिए रोएगाजो मेरे लिए दुखी होगाजो मेरे लिए आंसू बहाएगा। तब तुम्हें लगेगा कि मेरी भी जरूरत है। तब कम से कम एक आदमी तो होगा जिसे तुम्हारे न रहने पर सतत तुम्हारी कमी महसूस होगी। कम से कम एक व्यक्ति के लिए तुम्हारे जीवन का अर्थ होगासार्थकता होगी।
यही कारण है कि प्रेम की इतनी ज्यादा मांग है। और यदि तुम्हें प्रेम नहीं मिलता है तो तुम उखड़ेउखड़े मालूम पड़ते हो।
लेकिन यह वह प्रेम नहीं है जिसकी मैं चर्चा कर रहा हूं। यह तो एक संबंध हैजिसमें हम परस्पर एक—दूसरे के लिए यह भ्रम निर्मित करते हैं कि मेरे लिए तुम जरूरी हो और तुम्हारे
लिए मैं जरूरी हूं। इस प्रेम में मैं तुम्हें यह भ्रम देता हूं कि तुम्हारे बिना मेरा प्रयोजनमेरी अर्थवत्‍ता, मेरी जीवन, सब कुछ खो जायेगा। और वैसे ही तुम मुझे यह भ्रम देते हो कि मेरे बिना तुम्हारा सब कुछ खो जाएगा। इस तरह हम एक—दूसरे को भ्रम में पड़े रहने में सहायता करते हैं। हम एक पृथकनिजी दुनिया बना लेते हैंजिसमें हम फिर से अर्थपूर्ण हो जाते हैं,जिसमें इस विराट जगत की समस्त उदासीनता भूल जाती है।
दो प्रेमी एक निजी जगत बनाकर एक—दूसरे के सहारे जीते हैं। उन्होंने अपनी एक अलग निजीव्यक्तिगत दुनिया बना ली है। इसलिए प्रेम में ख्यात की बहुत जरूरत है। अगर यह स्वात न रहे तो दुनिया तुम पर हावी होने लगती है और कहने लगती है कि तुम्हारा प्रेम महज स्‍वप्‍न हैवहम हैएक पारस्परिक भ्रम है। प्रेम को एकांत चाहिएक्योंकि एकांत में संसार भूल जाता है। एकांत में सिर्फ दो प्रेमी होते हैं और जगत की उदासीनतासारी उदासीनता भुला दी जाती है। वहां तुम्हें प्रेम मिलता है,स्वागत मिलता है। वहां तुम्हारे बिना बहुत कुछ सूना हो जाएगा। कम से कम इस निजी दुनिया में तुम्हारे बिना सब कुछ उजाड़हो जाएगा। तो जीवन अर्थपूर्ण हो जाता है।
मैं इस प्रेम की चर्चा नहीं कर रहा हूं। यह सचमुच भ्रामक हैऔर यह भ्रम अभ्यासजन्य है। और आदमी इतना कमजोर है कि वह इस भ्रम के बिना जिंदा नहीं रह सकता। कोई विरला हीकोई बुद्ध ही इस भ्रम के बिना रह सकता है। और उसे यह भ्रम निर्मित करने की जरूरत नहीं है।
और जब किसी का भ्रम—मुक्त होकर जीना संभव होता है तभी प्रेम का दूसरा आयाम पैदा होता है। तब ऐसा नहीं है कि किसी एक व्यक्ति को तुम्हारी जरूरत है। इस प्रेम में यह बोध होता है कि तुम इस उदासीन नजर आने वाले अस्तित्व से भिन्न नहीं होकि तुम उसके अंश होकि तुम उसके साथ जैविक रूप से जुड़े हो। और फिर जब किसी वृक्ष में फूल लगते हैं तो वह फूलों वाला वृक्ष तुम से भिन्न नहीं हैतुम वृक्ष में फूल बनकर खिले हो और वृक्ष तुम में सचेतन हुआ है। सागररेत और सितारे सब तुम्हारे साथ एक हैं। तुम कोई अलग— थलग द्वीप नहीं हो। तुम ब्रह्मांड के साथ जैविक रूप से एक हो। समस्त ब्रह्मांड तुम्हारे भीतर है और तुम समस्त ब्रह्मांड में हो। जब तक तुम इस बात को नहीं जानतेनहीं अनुभव करतेतब तक उस प्रेम को नहीं अनुभव कर सकते होजो एक चित्त की अवस्था है।
और जब तुम यह समझ लेते होतब तुम्हें यह निजी भ्रम निर्मित करने की जरूरत नहीं रहती कि कोई व्यक्ति मुझे प्रेम करता है। और तब जीवन में अर्थ है। और यदि कोई व्यक्ति तुम्हें प्रेम नहीं करता है तो उससे इस अर्थ में कोई कमी नहीं पड़ती है। तब तुम जरा भी भयभीत नहीं होगेक्योंकि मृत्यु भी तुम्हें नहीं मिटा सकेगी। मृत्यु तुम्हारे आकार कोशरीर को मिटा सकती हैलेकिन वह तुम्हें नहीं मिटा सकती। क्योंकि तुम अस्तित्व ही हो।
ध्यान से यही घटित होता है। ध्यान का अर्थ ही यही है। इस प्रेम में तुम अंश बन जाते होद्वार बन जाते होतुम जानते हो कि अस्तित्व और मैं एक हैं। तब तुम्हारा सर्वत्र स्वागत है। तब भय नहीं रह जाता है। तब मृत्यु नहीं बचती है। तब प्रेम तुमसे प्रवाहित होता है। और तब प्रेम प्रयत्न नहीं है। तब तुम प्रेम करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकतेतब प्रेम श्वास जैसा हो जाता है। तुम अपने भीतर और बाहर प्रेम की ही श्वास लेते हो।
यही प्रेम बढ़कर भक्ति हो जाता है। और अंत में तुम इसे भूल जाओगेजैसे तुम अपनी श्वास को भूल जाते हो। क्या तुम ने देखा है कि श्वास तुम्हें याद कब आती हैयह याद तब आती है जब श्वास लेने में कोई कठिनाई अनुभव होती है। श्वास. की तकलीफ मैं ही तुम जानते हो कि मैं श्‍वास लेता हूं। अन्‍यथा जानने की कोई जरूरत नहीं रहती। और अगर तुम्हें अपनी श्वास पता चलती है तो उसका मतलब है कि तुम्हारी श्वास—क्रिया में कुछ गड़बड़ है। अन्यथा श्वास—क्रिया के पता चलने की जरूरत नहीं हैवह अपने आप ही चुपचाप चलती रहती है।
वैसे ही अगर तुम्हें अपने प्रेम का बोध है—उस प्रेम का जिसे हम चित्त की अवस्था कहते है—तो समझना चाहिए कि प्रेम में कोई भूल है। धीरे— धीरे यह बोध चला जाता है और तुम भीतर—बाहर प्रेम की श्वास लेते रहते हो। तुम्हें सब कुछ भूल गया हैयह भी भूल गया है कि तुम प्रेम करते हो। तब यह प्रेम भक्ति बन गया। वह आत्यंतिक शिखर हैपरम संभावना हैया जो भी नाम तुम इसे देना चाहो।
जब प्रेम का बोध भी चला जाता है तब भक्ति का उदय होता है। इसका यह मतलब नहीं है कि तुम बेहोश हो गए हो। इसका इतना ही अर्थ है कि प्रक्रिया इतनी मौन हो गई है कि उसके इर्द—गिर्द कोई शोरगुल नहीं है। तुम इसके प्रति बेहोश नहीं हो और इसके प्रति तुम होशपूर्ण भी नहीं हो। प्रेम इतना स्वाभाविक हो गया है कि यह हैलेकिन कोई हलचल पैदा नहीं करता है। यह सहज और लयबद्ध हो गया है।
तो स्मरण रहे कि जब मैं प्रेम की चर्चा करता हूं तो वह तुम्हारे प्रेम की चर्चा नहीं है। लेकिन अगर तुम अपने प्रेम को समझने की कोशिश करो तो वह किसी भिन्न कोटि के प्रेम के विकास में सहयोगी होगा। इसलिए मैं तुम्हारे प्रेम के विरोध में नहीं हूं। मैं सिर्फ इस तथ्य को प्रकट कर रहा हूं कि अगर तुम्हारा प्रेम भय पर खड़ा है तो वह सामान्य पाशविक प्रेम से भिन्न नहीं है। इसमें कोई निंदा या आलोचना की बात नहीं हैयह एक तथ्य भर है।
मनुष्य भयभीत है। उसे किसी की जरूरत है जो उसे यह आश्वासन दे दे कि कोई उसे भी चाहता हैउसे डरने की जरूरत नहीं है। एक प्रेमी उसे आश्वस्त करता है कि कम से कम एक व्यक्ति के साथ तुम्हें भयभीत होने की जरूरत नहीं है। अपनी जगह यह अच्छी बात हैलेकिन यह वही नहीं है जिसे बुद्ध या जीसस प्रेम कहते हैं। वे प्रेम को चित्त की अवस्था कहते हैंसंबंध नहीं। इसलिए संबंध के ऊपर उठो और धीरे—धीरे प्रेमपूर्ण होओ।
यह प्रेम तब तक संभव नहीं है जब तक तुम ध्यान में नहीं उतरते। जब तक तुम अपने भीतर के अमृत को नहीं जान लेते होजब तक तुम भीतर और बाहर के बीच की गहरी एकता को नहीं जानतेजब तक तुम यह नहीं जानते कि मैं अस्तित्व हूं तब तक यह प्रेम कठिन होगा। ध्यान की ये विधियां तुम्हें संबंध से चित्त की अवस्था की ओर गति करने में सहयोगी होंगी। और समय की फिक्र मत करोप्रेम में समय बिलकुल अप्रासंगिक है।

 दूसरा प्रश्न :

      आपने जिन विधियों की चर्चा की है उनमें से बहुसंख्‍यक विधियां शरीर का एक यंत्र की तरह उपयोग करती हैं। क्या कारण है कि तंत्र शरीर को इतना महत्व देता है?

हां बहुत सी बुनियादी बातें समझने जैसी हैं। एकतुम तुम्हारा शरीर हो। अभी तुम सिर्फ शरीर हो, और कुछ नहीं हो। तुम्‍हें आत्‍मा वगैरह के बारे में ख्‍याल होंगे, लेकिन वे खयाल ही हैं। जैसे तुम अभी होशरीर ही हो। अपने को यह धोखा मत दो कि मैं मृत्युंजय आत्माअमर आत्मा हूं। इस आत्मवचना में मत रहो। यह एक खयाल भर हैऔर वह भी भयजनित खयाल।
आत्मा है या नहींतुम्हें इसका कुछ पता नहीं है। तुमने उस अंतरतम में अब तक नहीं प्रवेश किया है जहां अमृत की उपलब्धि होती है। तुमने सिर्फ आत्मा के संबंध में कुछ सुना है। और चूंकि तुम मृत्यु से डरे हुए हो इसलिए तुम इस खयाल से चिपके हुए हो। तुम जानते हो कि मृत्यु हकीकत है। और इसलिए तुम चाहते हो और मानते हो कि तुम्हारे भीतर कुछ हो जो अमृत हो। यह एक विश फुलफिलमेंट है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा नहीं हैमैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो अमृत है। नहींमैं यह नहीं कह रहा हूं। लेकिन जहां तक तुम्हारा सवाल हैतुम केवल देह हो और तुम्हें खयाल भर है कि आत्मा अमर है। यह खयाल सिर्फ मानसिक है और वह भी मृत्यु के भय के कारण निर्मित हुआ है। और ज्यों—ज्यों तुम कमजोर होगेबूढ़े होगेत्यों—त्यों अमर आत्मा और परमात्मा में तुम्हारा विश्वास बड़ा होता जाएगा। तब तुम मस्जिदमंदिर और चर्च के चक्कर लगाने लगोगे। तुम मंदिरों—मस्जिदों में जाकर देखोवहा तुम्हें मृत्यु की कगार पर खड़े बूढ़े—बूढ़ियां इकट्ठे मिलेंगे।
युवक बुनियादी रूप से नास्तिक होता है। ऐसा सदा रहा है। जितने तुम जवान हो उतने ही नास्तिक भी हो। जितने तुम युवा हो उतने ही अविश्वासी हो। क्योंयह इसलिए कि तुम अभी बलवान हो। अभी तुम्हें भय बहुत कम है और मृत्यु के संबंध में तुम अभी अनजान हो। तुम्हारे लिए मृत्यु किसी सुदूर भविष्य में हैवह केवल दूसरों को घटित होती है। मृत्यु अभी तुम्हारे लिए नहीं है।
लेकिन जैसे—जैसे तुम बड़े होंगे वैसे—वैसे तुम्हें अहसास होगा कि अब मैं भी मर सकता हूं। मृत्यु करीब आती है और व्यक्ति आस्तिक होने लगता है। सभी विश्वास भय पर खड़े हैं—सभी विश्वास। और जो भय से विश्वास करता है वह अपने को सिर्फ धोखा देता है।
तुम अभी देह ही होयही तथ्य है। तुम्हें चिन्मय का अभी कोई पता नहीं हैतुम केवल मृण्मय को जानते हो। लेकिन चिन्मय हैतुम उसे जान भी सकते हो। विश्वास से काम नहीं चलेगा। जानना भी जरूरी है। तुम उसे जान सकते हो। खयाल किसी काम के नहीं है—जब तक कि वे ठोस अनुभव न बन जाएं। इसलिए खयालो के धोखे में मत पड़ोखयालों और विश्वासों को अनुभव मत समझ लो।
यही कारण है कि तंत्र शरीर से शुरू करता है। शरीर तथ्य है। तुम्हें शरीर से यात्रा करनी होगीक्योंकि तुम शरीर में हो। यह कहना भी ठीक नहीं हैमेरा यह कहना सही नहीं है कि तुम शरीर में हो। जहां तक तुम्हारा संबंध हैतुम शरीर ही होशरीर में नहीं हो। तुम्हें इस बात का कुछ पता नहीं है कि शरीर में क्या छिपा है। तुम सिर्फ शरीर को जानते होशरीर के पार का अनुभव तुम्हारे लिए अभी बहुत दूर का तारा है।
अगर तुम दार्शनिकों और धर्म—शास्त्रियों के पास जाओ तो तुम पाओगे कि वे सीधे आत्मा से आरंभ करते हैं। लेकिन तंत्र सर्वथा वैज्ञानिक है। वह वहां से शुरू करता है जहां तुम हो। वह वहां से शुरू नहीं करता है जहां तुम कभी हो सकते हो। जहां हो सकते हो वहां से शुरू करना मूढ़ता हैतुम वहा से शुरू नहीं कर सकते। आरंभ तो वहीं से हो सकता है तुम हो।
तंत्र शरीर की निंदा नहीं करता हैचीजें जैसी हैंउनका सर्व—स्वीकार तंत्र है। ईसाइयत और अन्य धर्मों के पंडित—पुरोहित शरीर के प्रति निंदा से भरे हैं। वे तुम्हारे भीतर एक विभाजन पैदा करते हैं। वे कहते हैं कि तुम दो हो। वे यह भी कहते हैं कि देह दुश्मन हैकि देह पाप हैऔर यह कि देह से लड़ना है।
यह द्वैतदुहरापन बुनियादी तौर से गलत है। यह द्वैत तुम्हारे चित्त को दो हिस्सों में बांट देता हैतुम्हारे भीतर विखंडित व्यक्तित्व निर्मित करता है। धर्मों ने मनुष्य के मन को खंड—खंड कर दिया हैउसे स्कीजोफ्रेनिक बना दिया है। कोई भी विभाजन तुम्हें अंदर—अंदर तोड़ देता हैतब तुम दो ही नहींअनेक हो जाते हो। प्रत्येक व्यक्ति अनेक खंडों की भीड़ भर हैउसमें कोई जैविक एकता नहीं हैउसमें कोई केंद्र नहीं है।
अंग्रेजी भाषा में व्यक्ति को इंडिविजुअल कहते हैं। जहां तक शब्दार्थ का संबंध है इंडिविजुअल का अर्थ है अविभाज्य। उस अर्थ में तुम अभी व्यक्ति नहीं होअविभाज्य नहीं हो। अभी तुम अनेक खंडों मेंअनेक चीजों में बंटे हो। यही नहीं कि तुम्हारे मन और शरीर बंटे हैंअलग—अलग हैंतुम्हारी आत्मा और शरीर भी बंटे हैं। यह मूढ़ता इतनी गहरी चली गई है कि खुद शरीर भी दो में बंट गया है। एक शरीर का ऊपरी भाग है जिसे तुम अच्छा समझते हो और दूसरा शरीर का निचला भाग है जिसे तुम बुरा मानते हो। यह मूढ़ता हैलेकिन है। तुम खुद भी अपने शरीर के निचले हिस्से के साथ चैन नहीं अनुभव करते होउसके साथ एक बेचैनी सरकती रहती है। विभाजन और विभाजनसर्वत्र विभाजन ही है।
तंत्र को सब स्वीकार हैवह सबको स्वीकार करता है। जो कुछ भी हैतंत्र उसे पूरे हृदय से स्वीकार करता है। यही कारण है कि तंत्र कामवासना को भी समग्रता से स्वीकार करता है। पांच हजार वर्षों से तंत्र ही अकेली परंपरा रही है जिसने काम को समग्रता से स्वीकार किया है। इस अर्थ में पूरे विश्व में तंत्र ऐसी अकेली परंपरा है। क्योंक्योंकि सेक्स या काम वह बिंदु है जहां तुम हो। और कोई भी यात्रा वहीं से हो सकती है जहां तुम हो।
तुम अपने काम—केंद्र पर होतुम्हारी ऊर्जा काम—केंद्र पर है। और उसी बिंदु से उसे यात्रा करनी हैउसे आगे जाना है,पार जाना है। अगर तुम केंद्र को ही इनकार करते हो तो तुम सिर्फ अपने को धोखा दे सकते हो कि तुम गति कर रहे होलेकिन गति असंभव है। तब तुम उसी बिंदु को इनकार कर रहे हो जहां से गति संभव होती है।
इसलिए तंत्र देह को स्वीकार करता हैकाम को स्वीकार करता हैसबको स्वीकार करता है। और तंत्र कहता है कि विवेक सबको स्वीकार कर उसे रूपांतरित करता हैकेवल अज्ञान इनकार करना जानता है। विवेक को सब कुछ स्वीकार हैअज्ञान को सब कुछ अस्वीकार है। विवेक के हाथों में पड़कर जहर भी औषधि बन जाता है। देह उस चीज के लिए साधन बन सकती है जो देहातीत है। वैसे ही काम—ऊर्जा आध्यात्मिक शक्ति बन सकती है।
स्मरण रहे कि जब तुम पूछते हो कि तंत्र में शरीर को इतना महत्व क्यों दिया जाता है तो यह प्रश्न तुम क्यों पूछते हो?क्या कारण है?
तुम शरीर के रूप में जन्म शरीर के ही रूप में जीते हो। तुम शरीर के रूप में बीमार पडते होऔर शरीर के रूप में ही तुम्हारा इलाज होता हैतुम्हें औषधि दी जाती हैतुम्हें पूर्ण और स्वस्थ बनाया जाता है। शरीर के रूप में ही तुम युवा होते हो;शरीर के रूप में ही तुम के होते हो। और अंत में शरीर के रूप में ही तुम मर जाओगे। तुम्हारा समूचा जीवन शरीर—केंद्रित है,शरीर के चारों ओर ही घूमता रहता है। फिर तुम किसी को प्यार करोगेउसके साथ संभोग में उतरोगेऔर दूसरे शरीरों का निर्माण करोगे।
तुम सारी जिंदगी कर क्या रहे होअपने को बचा रहे हो। भोजनहवा और मकान के जरिए तुम किसको सम्हाल रहे होशरीर को सम्हाल रहे होजिंदा रख रहे हो। और बच्चे पैदा करके तुम क्या करते होशरीर ही पैदा करते हो। सारा जीवन निन्यानबे दशमलव नौ प्रतिशत शरीर—केंद्रित है। तुम शरीर के पार जा सकते होलेकिन यह यात्रा शरीर से होकर और शरीर के द्वारा की जाती है। इस यात्रा में शरीर का उपयोग आवश्यक है।
लेकिन तुम यह प्रश्न क्यों पूछ रहे होक्योंकि शरीर तो बाहरी खोल हैगहराई में शरीर सेक्स काकाम का प्रतीक है। इसीलिए जो परंपराएं काम—विरोधी हैं वे शरीर—विरोधी भी हैं। और जो परंपराएं काम—विरोधी नहीं हैंवे ही शरीर के प्रति मैत्रीपूर्ण हो सकती हैं।
तंत्र सर्वथा मैत्रीपूर्ण है। और तंत्र कहता है कि शरीर पवित्र हैधार्मिक है। तंत्र की दृष्टि में शरीर की निंदा अधार्मिक कृत्य हैपाप है। यह कहना कि शरीर अशुद्ध है या शरीर पाप हैतंत्र की निगाह में मूढ़ता है। तंत्र ऐसी शिक्षा को विष— भरी शिक्षा मानता है। तंत्र शरीर को स्वीकार करता है। स्वीकार ही नहीं करतावह उसे शुद्धनिर्दोष और पवित्र मानता है। तुम शरीर का उपयोग कर सकते होउसे पार जाने का माध्यम बना सकते हो। पार जाने में भी वह सहयोगी होता है।
लेकिन अगर तुम शरीर से लड़ने लगोगे तो तुम चूक गए। अगर तुम शरीर से लड़ने लगे तो तुम बीमार से भी बीमार होते जाओगे। और अगर तुम शरीर से लड़ते ही रहे तो अवसर हाथ से निकल जाएगा। लड़ना नकारात्मक हैतंत्र विधायक रूपांतरण है। शरीर से मत लड़ोलड़ने की कोई जरूरत नहीं है।
यह ऐसे ही है कि तुम जिस कार में बैठे हो उसी कार से लड़ रहे हो। और तब कोई यात्रा नहीं हो सकतीक्योंकि तुम वाहन से लड़ रहे हो। वाहन से लड़ना नहीं हैबल्कि उसका सदुपयोग करना है। लड़ने से वाहन नष्ट होगा और यात्रा कठिन हो जाएगी।
शरीर एक सुंदर वाहन है—बहुत रहस्यपूर्णबहुत जटिल। इसका उपयोग करोइससे लड़ी मत। इसके साथ सहयोग करो। जिस क्षण तुम इसके विरोध में जाते हो तुम स्वयं के विरोध में जाते हो। यह ऐसा ही है कि कोई व्यक्ति कहीं जाना चाहे और अपने पांव से लड़ने लगेउन्हें काट फेंके।
तंत्र कहता है कि शरीर को जानोउसके रहस्यों को समझो। तंत्र कहता है कि शरीर की ऊर्जा को जानो और जानो कि यह ऊर्जा कैसे भिन्न—भिन्न आयामों में गति करती है और रूपांतरित होती है। उदाहरण के लिए काम—ऊर्जा को लोवह शरीर की बुनियादी ऊर्जा है। सामान्यत: हम काम—ऊर्जा का उपयोग सिर्फ बच्चे पैदा करने के लिए करते हैं। एक शरीर
दूसरे शरीरों को पैदा करता हैऔर ऐसे सिलसिला चलता रहता है। काम—ऊर्जा का जैविक उपयोग सिर्फ बच्चे पैदा करना है। लेकिन वह अनेक उपयोगों में से एक उपयोग है और निम्नतम उपयोग है। निम्नतम कहने में कोई निंदा नहीं हैमगर निम्नतम है। वही ऊर्जा दूसरे सृजनात्मक काम भी कर सकती है।
बच्चे पैदा करना मूलभूत सृजन है—तुमने कुछ निर्मित किया। यही कारण है कि कोई स्त्री मां बनने पर एक सूक्ष्म आनंद का अनुभव करती हैउसने कुछ सृजन किया है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पुरुष चूंकि स्त्री की भांति सृजन नहीं कर पाता है,चूंकि वह मां नहीं बन सकता हैउसे बेचैनी होती है। और इस बेचैनी पर विजय पाने के लिए वह बहुत सी चीजों का सृजन करता है। वह चित्र बनाएगावह कुछ करेगा जिससे कि वह सर्जक हो जाएजिससे कि वह मां बन जाए।
यह भी एक कारण है कि क्यों स्त्रियां कम सृजनात्मक होती हैं और पुरुष अधिक सृजनात्मक होते हैं। स्त्रियों को एक स्वाभाविक आयाम उपलब्ध है जिसमें वे सहज ही सृजनात्मक हो सकती हैंजिसमें वे मां बन सकती हैंजिसमें वे परितृप्त हो सकती हैं। उन्हें एक गहरी तृप्ति महसूस होती है।
लेकिन पुरुष को उसका अभाव है और वह अपने भीतर कहीं एक असंतुलन अनुभव करता है। इसलिए वह सृजन करना चाहता हैकोई परिपूरक सृजन। वह चित्र बनाएगावह गाएगावह नाचेगावह कुछ करेगा जिसमें वह भी मां बन सके।
मनोवैज्ञानिक यह बात अब कहने लगे हैं—और तंत्र सदा से कहता रहा है—कि काम—ऊर्जा सदा सारे सृजन का स्रोत है। इसीलिए ऐसा होता है कि यदि कोई चित्रकार सचमुच अपने सृजन में गहरा डूब जाए तो वह कामवासना को बिलकुल भूल सकता है। अगर कोई कवि अपनी कविता में बहुत तल्लीन हो जाए तो वह भी काम को भूल जाएगा। उसे ब्रह्मचर्य ओढ़ने की जरूरत न होगी। सिर्फ साधु—महात्माओं कोमठों में रहने वाले गैर—सृजनशील साधु—महात्माओं को ही अपने पर ब्रह्मचर्य लादने की जरूरत पड़ती है। क्योंकि अगर तुम सृजनशील हो तो जो ऊर्जा कामवासना में संलग्न थी वही सृजन में लग जाती है। तब तुम कामवासना को बिलकुल भूल सकते होऔर इस भूलने में किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं होती।
प्रयत्न करके भूलना असंभव है। किसी चीज को भूलने के लिए तुम प्रयत्न नहीं कर सकतेप्रयत्न ही तुम्हें बार—बार उसकी याद दिला देगा। वह व्यर्थ हैदरअसल वह आत्मघातक है। तुम किसी चीज को भूलने का प्रयत्न नहीं कर सकते।
यही कारण है कि जो लोग अपने पर ब्रह्मचर्य लादते हैंब्रह्मचारी बनने को अपने को मजबूर करते हैंवे मानसिक रूप से काम—विकृति के शिकार भर हो जाते हैं। तब कामवासना शरीर से हटकर मन में चक्कर लगाने लगती हैपूरी बात मानसिक हो जाती है। और वह बदतर हैक्योंकि तब मन बिलकुल विक्षिप्त हो जाता है।
सृजन का कोई भी काम कामवासना को विलीन करने में सहयोगी होगा। तंत्र कहता हैअगर तुम ध्यान में उतर जाओ तो कामवासना बिलकुल विलीन हो जाएगी। कामवासना बिलकुल विलीन हो सकती हैक्योंकि सारी ऊर्जा किसी ऊंचे केंद्र में समाहित हो रही है।
और तुम्हारे शरीर में कई केंद्र हैं और काम निम्नतम केंद्र है। और मनुष्य इस निम्नतम केंद्र पर जीता है। और जैसे—जैसे ऊर्जा नीचे से ऊपर की और गति करती है, वैसे—वैसे ऊपर के केंद्र खुलने—खिलने लगते हैं। वही ऊर्जा जब हृदय में पहुंचती है तो प्रेम बन जाती है। वही ऊर्जा जब और ऊंचे उठती है तो नए आयाम और अनुभव फलित होते हैं। और जब वह ऊर्जा शिखर पर पहुंचती हैतुम्हारे शरीर के अंतिम शिखर परतो वह वहा पहुंच जाती है जिसे तंत्र सहस्रार कहता है। वह उच्चतम चक्र है।
सेक्स या काम निम्नतम चक्र हैऔर सहस्रार उच्चतम। और काम—ऊर्जा इन दोनों के बीच गति करती है। काम—केंद्र से इसे मुक्त किया जा सकता है। जब वह काम—केंद्र से छूटती है तो तुम किसी को जन्म देने का कारण बनते हो। और जब वही ऊर्जा सहस्रार से मुक्त होकर ब्रह्मांड में समाती है तो तुम अपने को नया जन्म देते हो। यह भी जन्म देना हैलेकिन जैविक तल पर नहीं। तब यह आध्यात्मिक पुनर्जन्म हैतब तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ।
भारत में हम ऐसे व्यक्ति को द्विज कहते हैंउसका दुबारा जन्म हुआ। अब उसने अपने को एक नया जन्म दिया। वही ऊर्जा ऊर्ध्वगमन कर गई।
तंत्र के पास कोई निंदा नहीं हैतंत्र के पास रूपांतरण की गुह्य विधियां हैं। यही कारण है कि तंत्र शरीर की इतनी चर्चा करता हैवह जरूरी है। शरीर को समझना जरूरी है। और तुम वहीं से आरंभ कर सकते हो जहां तुम हो।

 तीसरा प्रश्न :

आपने कहा कि प्रेम तुम्हें स्वतंत्र कर सकता है। लेकिन साधारणत: हम देखते हैं कि प्रेम आसक्‍ति बन जाता है और वह हमें मुक्त करने कीं बजाय और भी बांध देता है। कृपा कर आसक्‍ति और स्वतंत्रता के संबंध में हमें कुछ और कहें।

 प्रेम अगर आसक्ति बनता है तो वह प्रेम नहीं है। तुम प्रेम का अभिनय कर रहे थे। तुम अपने को धोखा दे रहे थे। आसक्ति ही सच्चाई हैप्रेम तो उसकी भूमिका भर था। इसलिए जब भी तुम प्रेम में पड़ते होदेर— अबेर तुम्हें पता चलता है कि तुम एक साधन भर हो। और तब सारा संताप शुरू होता है। इसकी मेकेनिज्य क्या हैऐसा क्यों होता है?
अभी थोड़े दिन हुए एक आदमी मेरे पास आया। वह बहुत अपराधी अनुभव कर रहा था। उसने कहा : 'मैं एक स्त्री को प्रेम करता था और अतिशय प्रेम करता था। जिस दिन उसकी मृत्यु हुईमैं जार—जार रो रहा था। लेकिन अचानक मुझे मेरे भीतर किसी स्वतंत्रता का बोध हुआ और ऐसा लगा कि जैसे कोई बोझ उतर गया हो। मैंने एक गहरी सांस लीं—मानो मैं मुक्त हो गया हूं।
उसी क्षण उस व्यक्ति को अपने भाव की एक दूसरी पर्त का बोध हुआ। बाहर—बाहर तो वह चीखता—चिल्लाता था और कह रहा था कि उसके बिना मैं जिंदा नहीं रह सकताअब जीना असंभव हैअब जीना मृत्यु जैसा होगा। लेकिन उसने कहा कि'किसी गहरे तल पर मुझे पता चला कि मैं हलका अनुभव कर रहा हूं मुक्त अनुभव कर रहा हूं।'
लेकिन तभी भाव की एक तीसरी पर्त सक्रिय हुई और वह आदमी अपराधी महसूस करने लगा। उस पर्त ने उससे पूछा कि यह क्या करते हो! और उस समय उसकी पत्नी का शव उसके सामने पड़ा था। फलत: वह बहुत अपराध— भाव से भर गया। और उसने मुझसे कहा कि मेरी मदद करें। यह मेरे मन को क्या हो गया हैमैंने उसे इतनी जल्दी धोखा दिया क्या?
कुछ नहीं हुआ हैकिसी ने धोखा नहीं दिया है। प्रेम जब आसक्ति बन जाता है तो वह बोझ हो जाता हैबंधन हो जाता है। लेकिन प्रेम आसक्ति क्यों बनता है?
पहली चीज तो यह है कि तुम्हारा प्रेम अगर आसक्ति बन जाए तो समझना चाहिए कि तुम प्रेम के महज भ्रम में थे,धोखे में थे। तुम अपने साथ खिलवाड़ कर रहे थे और समझ रहे थे कि यह प्रेम है। सच तो यह है कि तुम्हें आसक्ति की जरूरत थी। और अगर और गहरे जाओ तो पता चलेगा कि तुम गुलाम बनना चाहते थे।
स्वतंत्रता के प्रति एक सूक्ष्म भय है और इसलिए हर व्यक्ति गुलाम होना चाहता है। वैसे हरेक आदमी स्वतंत्रता की बात करता हैलेकिन किसी को भी सचमुच स्वतंत्र होने का साहस नहीं है। क्योंकि अगर तुम सचमुच स्वतंत्र हो जाओ तो तुम अकेले हो जाओगे। इसलिए अगर तुम्हें अकेले होने का साहस हो तो ही तुम स्वतंत्र हो सकते हो। लेकिन किसी को भी अकेला होने का पर्याप्त साहस नहीं है। तुम्हें किसी की जरूरत है। तुम्हें किसी की जरूरत क्यों है?
तुम अपने अकेलेपन से ही भयभीत हो। तुम अपने से ही ऊबे हुए हो। और सचाई यह है कि जब तुम अकेले होते हो तो कुछ भी अर्थपूर्ण मालूम नहीं पड़ता है। और किसी के संग—साथ में तुम व्यस्त मालूम पड़ते हो और तुम अपने चारों ओर एक कृत्रिम अर्थवत्ता पैदा कर लेते हो। चूंकि तुम अपने लिए नहीं जी सकतेइसलिए तुम किसी अन्य के लिए जीने लगते हो। और यही बात दूसरे के लिए भी सच हैवह भी अकेले नहीं रह सकताउसे भी किसी अन्य की खोज होती है।
इस तरह दो व्यक्तिजो अपने— अपने अकेलेपन से भयभीत हैंइकट्ठे हो जाते हैं और एक खेल शुरू करते हैंजिसे वे प्रेम कहते हैं। लेकिन गहरे में वे आसक्तिप्रतिबद्धता और गुलामी खोज रहे हैं।
और जो तुम चाहते हो वह देर—अबेर हो ही जाता है। और इस दुनिया में यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात होती है कि जो तुम कामना करते हो वह फलित हो जाता है। देर—अबेर वह तुम्हें मिल जाएगा और पूर्व—क्रीड़ा समाप्त हो जाएगी। जब उसका काम पूरा हो जाता है तो वह पूर्व—क्रीड़ा समाप्त हो जाएगी। जब तुम पति—पत्नी हो जाते होएक—दूसरे के गुलाम हो जाते होजब विवाह हो जाता हैतब प्रेम विदा हो जाता है। क्योंक्योंकि प्रेम दो व्यक्तियों के बीच वह भ्रम है जो उन्हें एक—दूसरे का गुलाम बनाने में सहयोगी होता है।
सीधे—सीधे तुम किसी के गुलाम नहीं बन सकतेयह बहुत अपमानजनक है। तुम सीधे—सीधे किसी से नहीं कह सकते कि मेरे गुलाम बनो! वह विद्रोह कर उठेगा। तुम यह भी नहीं कह सकते कि मैं तुम्हारा गुलाम होना चाहता हूं। इसलिए तुम कहते हो कि मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। लेकिन अर्थ वही हैमतलब एक ही है। और जब यह असली इच्छा पूरी हो जाती है तो प्रेम विदा हो जाता है। और तब बंधन और गुलामी का अहसास होता है और तुम फिर से स्वतंत्र होने के लिए संघर्ष करने लगते हो।
स्मरण रहेमन का यह बड़ा विरोधाभास है कि जो तुम्हें मिल जाता है उससे तुम ऊब जाते हो और जो नहीं मिलता है उसकी कामना करते हो। जब तुम अकेले होते हो तो किसी बंधनकिसी गुलामी की चाह होती है और जब बंधन में होते हो तो स्वतंत्रता के लिए तरसने लगते हो। सच तो यह है कि गुलाम ही स्वतंत्रता के आकांक्षी होते हैं और स्वतंत्र लोग फिर से गुलाम होने की चेष्टा करते हैं। ऐसे मन घड़ी के पेंडुलम की तरह एक अति से दूसरी अति के बीच डोलता रहता है।
प्रेम आसक्ति नहीं बनता है। आसक्ति जरूरत थीप्रेम ने बस काटे में आटे का काम किया। तुम आसक्ति नाम की मछली खोज रहे थेप्रेम ने उस मछली को पकड़ने के लिए कांटे में आटे का काम किया। और जब मछली पकड़ ली जाती है तो आटा और काटा दोनों फेंक दिए जाते हैं।
इस बात को खयाल में रखो। और जब भी तुम कुछ करो तो उसके बुनियादी कारण का पता लगाने के लिए अपने भीतर जाओ। अगर सच्चा प्रेम हो तो वह कभी आसक्ति नहीं बनेगा। प्रेम के आसक्ति बनने में कौन सी चीज काम करती है?
जिस क्षण तुम अपने प्रेमी या प्रेमिका से कहते हो कि सिर्फ मुझ को प्रेम करोतुम ने उस पर मालकियत शुरू कर दी। और जिस क्षण तुम उस पर मालकियत करते हो उस क्षण तुम उसे प्रगाढ़ रूप से अपमानित करते होक्योंकि मालकियत करके तुम उसे वस्तु में बदल देते हो। जब मैं तुम्हें अपने कब्जे में लेता हूं तब तुम व्यक्ति न रहेतब तुम एक वस्तु हो गए। और तब मैं तुम्हारा उपयोग करता हूं। और चूंकि तुम मेरी चीज होइसीलिए मैं दूसरों को तुम्हारा उपयोग नहीं करने दे सकता। और यह एक परस्पर सौदा है जिसमें तुम भी मुझ पर मालकियत करते हो और मैं तुम्हारी वस्तु बन जाता हूं। यह एक सौदा है कि अब कोई दूसरा तुम्हारा उपयोग नहीं करेगा। दोनों एक—दूसरे से बंध जाते हैं और एक—दूसरे के गुलाम हो जाते हैं। मैं तुम्हें गुलाम बनाता हूं और बदले में तुम मुझे गुलाम बनाते हो।
और तब संघर्ष शुरू होता है। मैं स्वतंत्र व्यक्ति होना चाहता हूं और साथ ही यह भी चाहता हूं कि तुम पर मेरी मालकियत बनी रहे। वैसे ही तुम भी अपनी स्वतंत्रता कायम रखना चाहते हो। यही संघर्ष है। अगर मैं तुम पर मालकियत करूंगा तो तुम भी मुझ पर मालकियत करोगे। और अगर मैं अपने पर तुम्हारी मालकियत नहीं चाहता हूं तो मुझे तुम पर अपनी मालकियत भी छोड़ देनी होगी।
मालकियत को प्रेम के बीच में नहीं आना चाहिए। हमें व्यक्ति बने रहना हैहमें स्वतंत्रमुक्त चेतना की तरह जीना है। हम साथ—साथ रह सकते हैंहम एक—दूसरे में विलीन भी हो सकते हैंलेकिन मालकियत नहीं होनी चाहिए। तब कोई बंधन नहीं है। और तब कोई आसक्ति भी नहीं है।
आसक्ति अत्यंत कुरूप चीज है। और मैं इसे धार्मिक अर्थों में ही नहींबल्कि सौंदर्य के अर्थों में भी अत्यंत कुरूप कहता हूं। जब तुम आसक्त होते हो तो तुम्हारा अकेलापन खो जाता हैतुम्हारा एकांत खो जाता हैतुम्हारा सब कुछ खो जाता है। सिर्फ इतने से सुख के लिए कि किसी को मेरी जरूरत हैकि कोई मेरे साथ हैतुम ने सब कुछ गंवा दियातुम ने अपने को भी गंवा दिया। लेकिन चालबाजी सदा एक ही है कि तुम तो स्वतंत्र रहने की चेष्टा करते हो और दूसरे पर मालकियत करते हो। और दूसरा भी यही कर रहा है। तो किसी पर मालकियत मत करोताकि दूसरा भी तुम पर मालकियत न करे।
जीसस ने कहीं कहा है : 'दूसरे के संबंध में निर्णय मत लोताकि दूसरा तुम्हारे संबंध में निर्णय न ले।
यह वही बात है। दूसरे पर मालकियत मत करोताकि दूसरा तुम पर मालकियत न करे। किसी को भी गुलाम मत बनाओअन्यथा तुम खुद गुलाम बन जाओगे। मालिकतथाकथित मालिक सदा अपने गुलामों के भी गुलाम हो जाते हैं। गुलाम बने बिना तुम किसी के मालिक नहीं बन सकतेयह असंभव है।
तुम मालिक तभी हो सकते हो जब कोई भी तुम्हारा गुलाम न हो। यह बात विरोधाभासी मालूम होती है। जब मैं कहता हूं कि तुम मालिक तभी हो सकते हो जब कोई तुम्हारा गुलाम न होतब तुम कह सकते हो कि फिर मालकियत का मतलब क्या रहा! जब कोई मेरा गुलाम ही नहीं है तो फिर मालकियत कैसी! लेकिन मैं कहता हूं कि तुम उसी हालत में मालिक हो सकते हो जब कोई तुम्हारा गुलाम न हो और कोई तुम्हें गुलाम बनाने की कोशिश न कर रहा हो।
स्वतंत्रता को प्रेम करने कास्वतंत्र होने की चेष्टा का बुनियादी अर्थ यह है कि तुम्हें अपने संबंध में गहरा बोध हो गया है—स्वबोध। और अब तुम जानते हो कि मैं अपने आप में पर्याप्त हूं। अब तुम किसी के भी साथ सहभागी हो सकते होलेकिन तुम पराधीन नहीं हो। मैं अपने में किसी को भागीदार बना सकता हूं वैसे ही मैं अपने प्रेम में किसी को भागीदार बना सकता हूं अपने सुखआनंद और शाति में किसी को सहभागी बना सकता हूं। लेकिन वह सहभागिता हैपराधीनता नहीं। यदि कोई दूसरा नहीं भी है तो भी मैं उतना ही सुखी हूं कोई दूसरा नहीं भी है तो भी मैं उतना ही सुखी हूं उतना ही आनंदित हूं। और यदि दूसरा है तो वह भी अच्छा हैमैं उस के साथ भी सहभागिता के लिए राजी हूं।
जब तुम अपनी आंतरिक चेतना कोअपने केंद्र को उपलब्ध होते होतभी प्रेम आसक्ति नहीं बनता है। और अगर तुम अपने आतंरिक केंद्र को नहीं जानते हो तो प्रेम आसक्ति में बदल जाएगा। लेकिन अगर आंतरिक केंद्र को जानते हो तो प्रेम भक्ति बन जाएगा। लेकिन प्रेम करने के लिए पहले तुम्हें होना होगाऔर तुम नहीं हो।
बुद्ध एक गाव से गुजर रहे थे। एक युवक उनके पास आया और उसने कहा : 'मुझे शिक्षा देंमैं दूसरों की सेवा कैसे करूं?' बुद्ध हंसे और उससे बोले : 'पहले स्वयं होओदूसरों को भूल जाओ। पहले स्वयं होओऔर तब शेष चीजें अपने आप ही छाया की तरह पीछे—पीछे आएंगी।
अभी तुम नहीं हो। जब तुम कहते हो कि मैं प्रेम करता हूं और वह प्रेम आसक्ति बन जाता है तो तुम यह कह रहे हो कि मैं नहीं हूं। इसलिए तुम जो भी करते हो वह गलत हो जाता हैक्योंकि कर्ता अनुपस्थित है। बोध का आंतरिक बिंदु मौजूद नहीं हैइसलिए तुम जो भी करते हो वह गलत हो जाता है। पहले होओऔर तब तुम दूसरों को भागीदार बना सकते हो। और वह सहभागिता प्रेम होगी। उसके पहले तुम जो भी करोगे वह आसक्ति बन जाएगा।
और अंतिम बात। अगर तुम आसक्ति से संघर्ष कर रहे होलड़ रहे हो तो यह भूल हो रही हैतुम ने गलत कदम उठा लिया। तुम लड़ सकते हो। अनेक साधु—संन्यासी यही कर रहे हो। उन्‍हें लगता है कि हम अपने घर से, अपनी संपति से, पत्‍नी से, बच्‍चों से बंधे है, कैदी हैं। और तब वे भाग खड़े होते हैं। वे अपना घर—परिवारपत्नी—बच्चेधन—संपत्ति छोड्कर भिखारी हो जाते हैंजंगल मेंएकांत में जा छिपते हैं। लेकिन जाकर उन्हें देखो! वे अपने नए परिवेश से आसक्त हो गए हैंबंध गए हैं।
मैं अपने एक मित्र को मिलने गया जो फकीर थे और एक घने जंगल में झाडू के नीचे रहते थे। वहा दूसरे तपस्वी भी थे। एक दिन ऐसा हुआ कि मेरे मित्र कहीं बाहर गए थे और मैं अकेला उनके झाडू के नीचे बैठा था। मेरे मित्र नदी में स्नान करने गए थे। तभी एक संन्यासी आया और उसी पेडू के नीचे बैठकर ध्यान करने लगा।
थोड़ी देर में मेरे मित्र नदी से वापस आए और उन्होंने नए संन्यासी को पेडू के नीचे से भगा दिया। उन्होंने कहा : 'यह मेरा झाडू है। तुम कहीं कोई दूसरा झाडू अपने लिए खोज लो। मेरे झाडू के नीचे कोई दूसरा आदमी नहीं बैठ सकता है।’ और यही आदमी है जो अपनी घर—गृहस्थीपत्नी—बच्चे त्याग कर जंगल आया था। लेकिन अब झाडू पर उसकी आसक्ति हो गई है और कोई दूसरा व्यक्ति इस झाडू के नीचे ध्यान नहीं कर सकता है।
तुम आसक्ति से इतनी आसानी से नहीं बच सकते हो। आसक्ति नए रंग—रूप ले लेगी। तुम धोखे में पड़ जाओगेलेकिन आसक्ति अपनी जगह बनी रहेगी। आसक्ति से लड़ों मतकेवल यह समझने की कोशिश करो कि वह क्यों है। और तब उसके गहरे कारण को समझो। यह आसक्ति इसलिए है कि तुम नहीं हो। तुम्हारे भीतर तुम स्वयं ही इतने अनुपस्थित हो कि तुम सुरक्षा के लिए किसी से भी चिपकने की कोशिश करते हो। तुम्हारी अपनी जड़ें नहीं हैंइसलिए तुम किसी भी चीज को अपनी जड़ बनाने की चेष्टा करते हो। जब तुम स्वयं में केंद्रित हो जाओगेजब तुम जानोगे कि मैं कौन हूं वह आत्मावह चैतन्य क्या है जो हमारे भीतर हैतब तुम किसी से भी बंधे नहीं रहोगे।
इसका यह अर्थ नहीं है कि तब तुम प्रेम नहीं करोगे। सच तो यह है कि तभी प्रेम कर सकोगेक्योंकि तभी तुम दूसरों को सहभागी बना सकोगे। और यह किसी शर्तकिसी अपेक्षा के बिना होगा। तुम दूसरों को अपना प्रेम बाटोगेक्योंकि तुम्हारे पास प्रेम अतिशय हैइतना है कि कूल—किनारा तोड़कर बह रहा है।
यह ओवरफ्लोइंगयह स्वयं का प्रवाह ही प्रेम है। और जब यह स्वयं का प्रवाह बाढ़ का रूप ले लेता है और इस में सारा ब्रह्मांड समा जाता हैजब तुम्हारा प्रेम चांद—तारों को छूता हैजब तुम्हारे प्रेम में धरती आह्लादित अनुभव करती है और पूरी सृष्टि नहा जाती हैतब वह भक्ति है।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499 

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