Monday, 19 February 2018

यौन : जीवन का ऊर्जा-आयाम

संभोग से समाधि की और—22

यौन : जीवन का ऊर्जा-आयाम–6 

     धर्म के दो रूप है। जैसा सभी चीजों के होत है। एक स्‍वस्‍थ और एक अस्‍वस्‍थ।
      स्‍वस्‍थ धर्म जो जीवन को स्‍वीकार करता है। अस्‍वस्‍थ धर्म जीवन को अस्‍वीकार करता है।
      जहां भी अस्‍वीकार है, वहां अस्‍वास्‍थ्‍य है जितना गहरा अस्‍वीकार होगा, उतना ही व्‍यक्‍ति आत्‍मघाती है। जितना गहरा स्‍वीकार होगा,  उतना ही व्‍यक्‍ति जीवनोन्‍मुक्‍त होगा।
      ऐसे धर्म शस्‍त्र भी है, जो स्‍त्री पुरूष के बीच किसी तरह की कलह, द्वंद्व और संघर्ष नहीं करते। उन्‍हीं तरह के धर्म-शास्‍त्रों का नाम तंत्र है। और मेरी मान्‍यता यह है कि जितना गहरी तंत्र की पहुंच है जीवन में, उतनी क्षुद्र शास्‍त्रों की नहीं है। जहां निषेध किया गया है। मैं तो समर्थन में नहीं हूं। क्‍योंकि मेरी मान्‍यता ऐसी है कि जीवन और परमात्‍मा दो नहीं है।
      परमात्‍मा जीवन की गहनत्‍म अनुभूति है। और मोक्ष कोई संसार के विपरीत नहीं है। बल्‍कि संसार के अनुभव में ही जाग जाने का नाम है।
      मैं पूरे जीवन को स्‍वीकार करता हूं—उसके समस्‍त रूपों में।
      स्‍त्री-पुरूष इस जीवन के दो अनिवार्य अंग है। और एक अर्थ में पुरूष भी अधूरा है, और एक अर्थ में स्‍त्री भी अधूरी है। उनकी निकटता जितनी गहन। हो सके उतना ही एक का अनुभव शुरू होता है। तो मेरी दृष्‍टि में स्‍त्री-पुरूष के प्रेम में परमात्‍मा की पहली झलक उपलब्‍ध होती है। और जिस व्‍यक्‍ति को स्‍त्री-पुरूष के प्रेम में परमात्‍मा की पहली झलक उपलब्‍ध नहीं होती,उसे कोई भी झलक उपलब्‍ध होनी मुश्‍किल हे।
      स्‍त्री पुरूष के बीच जो आकर्षण है, वह अगर हम ठीक से समझें तो जीवन का ही आकर्षण है, और गहरे समझें तो स्‍त्री-पुरूष के बीच जो आकर्षण है वह परमात्‍मा की ही लीला का हिस्‍सा है। उसका ही आकर्षण है। तो मेरी दृष्‍टि में उसके बीच को आकर्षण में कोई भी पाप नहीं है।      
      लेकिन क्‍या कारण है, स्‍त्री–पुरूष को कुछ धर्मों ने, कुछ धर्म शस्‍त्रों ने कुछ धर्म गुरूओं ने एक शत्रुता का भाव पैदा कर दिया है। गहरे में एक ही कारण है। मनुष्‍य के अहंकार पर सबसे बड़ी चोट प्रेम में पड़ती है। जब एक पुरूष एक स्‍त्री के प्रेम में पड़ जाता है। या स्‍त्री एक पुरूष के प्रेम में पड़ती है। तो उन्‍हें अपना अहंकार तो छोड़ना ही पड़ता है। प्रेम की पहली चोट अहंकार पर होती है। तो जो अति अहंकारी हैं, वे प्रेम से बचेंगे। बहुत अहंकारी व्‍यक्‍ति प्रेम नहीं कर सकता, क्‍योंकि वह दांव पर लगाना पड़ेगा प्रेम।
      प्रेम का मतलब ही यह है कि मैं अपने से ज्‍यादा मूल्‍यवान किसी दूसरे को मान रहा हूं, उसका मतलब ही यह है कि मेरा सुख गौन है, अब किसी दूसरे का सुख ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है और जरूरत पड़े तो मैं अपने पूरा मिटा सकता हूं। ताकि दूसरा बच सके। और फिर प्रेम की जो प्रक्रिया है, उसका मतलब ही है कि एक दूसरे में लीन हो जाना।
      शरीर के तल पर यौन भी इसी लीनता का उपाय है—शरीर के तल पर। प्रेम और गहरे तल पर इसी लीनता का उपाय है। लेकिन दोनों लीनताएं—एक दूसरे में डूब जाना है, और एक हो जाना; एक फ्यूजन, फासला मिट जाये और कहीं मेरा ‘’मैं’’ खो जाये; अस्‍तित्‍व रह जाय, ‘’मैं’’ का कोई भाव न रहो।
      तो प्रेम से सबसे ज्‍यादा पीड़ा उनको होती है। जिनको अहंकार की कठिनाई है। तो अहंकारी व्‍यक्‍ति प्रेम नहीं कर सकता है। अहंकारी व्‍यक्‍ति प्रेम के ही विरोध में हो जायेगा, और अहंकारी व्‍यक्‍ति काम के भी विरोध में हो जायेगा। ऐसे अहंकारी व्‍यक्‍ति अगर धार्मिक हो जायें तो उनसे भी धर्म का जन्‍म होता है। वह रूग्‍ण धर्म है। और ऐसे अहंकारी व्‍यक्‍ति अक्‍सर धार्मिक हो जाते है। क्‍योंकि उन्‍हें जीवन में अब कहीं जाने का उपाय नहीं रह जाता।
      जिसका प्रेम का द्वार बंद है, उसके जीवन का भी द्वार बन्‍द हो गया। और जिसे प्रेम का अनुभव नहीं हो रहा है; उसके जीवन में दुःख ही दुःख रह गया। अब इस दुःख से ऊब रहे है। इसलिए ऊबरने का कोई रास्‍ता खोज रहे है। वह प्रेम में खो नहीं सकता तो अब वह कहीं और खोने का रास्‍ता खोज रहा है। तो वह परमात्‍मा की कल्‍पना करेगा, मोक्ष की कल्‍पना करेगा। लेकिन उसका परमात्‍मा और मोक्ष अनिवार्य रूप से संसार के विरोध में होगा। क्‍योंकि वह संसार के विरोध में है। संसार का मतलब है: प्रेम के विरोध में है, शरीर के विरोध में है। तो उसका जो परमात्‍मा है उसकी कल्‍पना का वह विपरीत हो गया संसार के। एक अर्थ में संसार का दुश्‍मन हो गया।
      ऐसा जो आदमी धार्मिक हो जाये तो रूग्‍ण धर्म पैदा होगा। और ऐसे लोग  अक्‍सर धार्मिक हो जाते है। ऐसे लोग शास्‍त्र भी लिखते है, ऐसे लोग अपने विचार का प्रचार भी करते है, और दुनिया में बहुत दुःखी लोग है। वे इस आशा में कि इस तरह के विचारों से आनन्‍द मिलेगा, वे भी इस तरफ झुकते है। और दुनिया में सभी के पास थोड़ा बहुत अहंकार हे। तो जिनके भी अहंकार को थोड़ा बढ़ावा पाने की इच्‍छा हो, वे इस और झुक जाते है।
      अहंकारी आदमी हमेशा आक्रामक होता है। तो वह अपने धर्म को लेकर भी आक्रमण करता है। दूसरों पर। उनको कनवर्ट करता, उनको समझाता-बुझाता, बदलता है। और चूंकि वह काम जीवन के सामान्‍य संबंधों से अपने को दूर रखता है। स्‍वभावत: ऐसा लगता है कि वह बड़ा त्‍याग कर रहा है। और जिन चीजों से हमें सुख मिल रहा है, उन सबको छोड़ रहा है। इसलिए हमारे मन में भी आदर पैदा होता है।
      आदर तभी पैदा होता है, जब हमसे विपरीत कोई कुछ कर रहा है। जो हम न कर पा रहे हों। वह कोई कर रहा हो तो आदर पैदा होता है। और वह आक्रामक है, अहंकारी है। वह सब भांति अपने विचार को हमारे ऊपर थोपने की कोशिश करता है। तो प्रेम जो वह, पाप हो जाता है। प्रेम भी करते है और भीतर कहीं गहरे में यह भी लगता रहता है। कि कुछ गलत कर रहे है। तो प्रेम जो है, कुछ पाप कर रहा है। इसका परिणाम यह होता है कि प्रेम से जो भी सुख मिलता था, वह मिलना बंद हो जाता है। प्रेम जारी रहता है और सुख इस अपराध भाव के कारण मिलना बंद कहो जाता है।
      जिस चीज में भी अपराध भाव पैदा हो जाय, उसमे सुख नहीं मिल सकता।
      सुख के लिए पहली बात जरूरी है कि मन में अहो भाव हो, अपराध भाव न हो।
      तो पुरूष का मन है कि स्‍त्री को प्रेम करे, स्‍त्री का मन है कि पुरूष को प्रेम करे। यह स्‍वभाविक है। नैसर्गिक, कुछ इसमें बुरा नहीं है। लेकिन अब वह जो अपराध पैदा कर देंगे त्‍यागी वह जहर बन जायेगा। तो स्‍त्री-पुरूष एक दूसरे के प्रति आकर्षित भी होंगे और साथ ही विकर्षित भी होंगे। एक दोहरी धारा, द्वंद्व और विपरीत स्‍थिति बन जायेगी,एक भीतर कन्‍ट्राडिक्‍शन खड़ा हो जायेगा। यह सारी मनुष्‍य जाति में उन्‍होंने पैदा कर दी। इसके उनको फायदे है। क्‍योंकि जब आपको प्रेम से कोई सुख नहीं मिलता तो उनकी बात बिलकुल ठीक लगने लगती है। कि न तो इसमें कोई सूख....ओर सुख नहीं मिलता। इसलिए नहीं कि प्रेम में सुख नहीं है; सुख नहीं मिलता इसलिए कि उन्‍होंने पाप का भाव पैदा कर दिया। अगर कोई बच्‍चे को समझा दे कि स्‍वास लेने में पाप हो तो स्‍वास लेने में दुःख मिलने लगेगा। हम जो भी समझा दें, उसमें दुःख मिलने लगेगा।
      दुःख जो है, वह कोई भी गलत काम हम कर रहे है, उससे मिलने लगेगा। वह काम है या नहीं, यह सवाल नहीं है। जैसे जैन घर का बच्‍चा रात को खाना खाये तो लगता है पाप हो गया।
      जब मैंने पहली दफा रात में खाना खाया तो मुझे वॉमिट हो गई। एकदम उल्‍टी हो गई। क्‍योंकि चौदह साल तक मैंने कभी रात में खाना खाया ही नहीं था। घर पर कभी खाता नहीं था। और रात में खाना पाप था। सब हिन्‍दू थे। उनको दिन में कोई फ्रिक न थी। कि भोजन या खाने की। और मेरे अकेले के लिए मुझे अच्‍छा भी नहीं लगा कि कुछ खाए। दिन भर की थकान, पहाड़ी पर चढ़ना, दिन भर की भूख और फिर रात उनका खाना बनाना मेरे साथ। तो भूख भी उनके खाने की गंध भी,जो मैं राज़ी हो गया। तो मैंने सोचा कि ये लोग इतने दिन से खाते है, अभी तक नर्क नहीं गये। एक दो दिन खा लेने से नर्क नहीं चला जाऊँगा। नर्क तो नहीं गया। लेकिन रात में तकलीफ में पड़ गया। मैं नर्क में ही रहा। क्‍योंकि मुझे उल्‍टी हो गई खाने के बाद चौदह साल तक जिस बात को पाप समझता हो उसको एकदम से भीतर ले जाना बहुत मुश्‍किल है। उस दिन जब मुझे उल्‍टी हो गई तो मैंने यह सोचा कि बात पाप की है, नहीं तो उल्‍टी कैसे हो जाती।
      तो विश्‍यिस सर्किल हे, विचार के भी दुष्‍ट चक्र है। जिस चीज को हम पाप मान लेते है उसमें सुख नहीं मिलता, दुःख मिलने लगता है। और जब दुःख मिलने लगता है तो उसे और भी पाप मान लेने का गहरा भाव हो जाता है। जितना गहरा पाप मानते है, उतना ज्‍यादा दुःख मिलते लगता है।
      इस भांति पाँच हजार साल से त्‍याग वादी आदमी की गर्दन पकड़े हुए है। और वे बीमार लोग है, रूग्ण है। जीवन को जो भोग नहीं सकते क्‍योंकि जीवन को भोगने के लिए जो अनिवार्य शर्त है, उसको वह पूरी नहीं कर सकते। उनका अहंकार बाधा बनता है। तब फिर वे कहने शुरू कर देते है कि सब अंगूर खट्टे है। और यह इतना प्रचार किया हुआ है अंगूर खट्टे होने का। कि अंगूर खट्टे हो ही जाते है। जब आप उनको मुंह में डालते है तो दाँत कहते है कि खट्टे है।
      इन सारे लोगों ने स्‍त्री पुरूष के बीच बहुत तरह की बाधाएं खड़ी की है। और चूंकि इनमें अधिक लोग पुरूष थे। इसलिए स्‍वभावत: स्‍त्री को उन्‍होंने बुरी तरह निंदित किया है। ये सब शास्‍त्र रचने वाले चूंकि अधिकतर पुरूष थे, इसलिए स्‍त्री को उन्‍होंने नर्क का द्वार बना दिया। तो नर्क के द्वार को छूने में खतरा तो है ही, फिर नर्क के द्वार के पास आने में भी खतरा हे। और जितना इन लोगों नह यह भाव पैदा किया कि स्‍त्री नर्क का द्वार है, स्‍त्री पुरूष के संबंध पाप है, अपराध है—ये भी सामान्‍य मनुष्‍य थे, इनके भीतर भी स्‍त्री के प्रति वही आकर्षण था, जो किसी और के मन में है। और जब इन्‍होंने इतना विरोध किया तो वह आकर्षण और बढ़ गया। निषेध से आकर्षण बढ़ता है।
      जिस चीज का इंकार किया जाए,उसमे एक तरह का रस पैदाहोना शुरू हो जाता है।
      तो ये दिन रात इंकार करते रहे तो इनका रस भी बढ़ गया। और जब इनका रस बढ़ गया—तो अगर इस तरह के लोग ध्‍यान करने बैठे, प्रार्थना करने बैठे—तो स्‍त्री ही उनको दिखाई पड़ने वाली है। वे भगवान को देखना चाहते है, लेकिन दिखाई स्‍त्री पड़ती है। तब स्‍वभावत: उनको ओर भी पक्‍का होता चला गया कि स्‍त्री ही नर्क का द्वार है। हम भगवान को जल्‍दी पाना जानना चाहते है। तभी स्‍त्री बीच में आ जाती है।
      सारे ऋषि मुनियों को स्त्रीयां सताती है। इसमें स्‍त्रियों को कोई कसूर नहीं है। इसमें ऋषि मुनियों के मन की भाव-दशा है। ये ऋषि मुनि स्‍त्री के खिलाफ लड़ रहे है। कोई उपर इंद्र बैठा हुआ नहीं है। जो अप्सराएं भेजता है। मगर इन सबको अप्‍सराएं भेज दी थी। नग्‍न और सुन्‍दर स्‍त्रियां—ये इनके मन के रूप है, जो इन्‍होंने दबाया है। और जिसको निषेध किया है, वह इतना प्रगाढ़ हो गया है। वह इतना प्रगाढ़ हो गया है। वह अब उनको बिल्‍कुल वास्‍तविक मालूम पड़ता है।
      तो इनके कहने में भी गलती नहीं है कि उन्‍होंने जो अप्‍सराएं देखीं, बिलकुल वास्‍तविक है। यह अत्‍यंत रूग्‍ण व्‍यक्‍ति की दिशा है। विक्षिप्‍त चित की दशा है। जब कोई वासना इतनी प्रगाढ़ हो जाती है कि उस वासना से जो स्‍वप्‍न खड़ा होता है वह वास्तविक मालूम होता है। यह पागल मन की हालत है। और सबको स्‍त्रियां ही सताती है। क्‍योंकि इनके पूरे जीवन का सार संघर्ष ही है। जिससे संघर्ष है, वह सताएगा।
      जिस दिन आपने उपवास किया है, उस दिन भोजन के स्‍वप्‍न ही आयेंगे। और अगर दो चार महीने आपको लंबा उपवास करना पड़े तो आप इल्यूजन की हालत में हो जायेंगे—मस्‍तिष्‍क से जो भी देखेगा। भोजन ही दिखाई पड़ेगा। कुछ भी सुनेगा। भोजन ही सुनाई पड़ेगा। कोई भी गंध आयेगी, वह भोजन की ही गंध होगी। इससे कोई संबंध बहार का नहीं है। इसके भीतर जो अभाव पैदा हो गया है। वह प्रक्षेपण कर रहा है।
      तो जब इन ऋषि मुनियों को ऐसा लगा कि स्‍त्री सब तरह से डिगाती है और उनके ध्‍यान की अवस्‍था में आ जाती है। और वे बड़ी ऊँचाई पर चढ़ रहे थे। और नीचे गिर जाते है। कोई गिरा नहीं रहा, न कहीं चढ़ रहा है। सब उनके मन का खेल है। तो जिससे लड़ रहे थे जिससे भाग रहे थे। उसी से खींचकर नीचे गिर जाते है। तो  फिर स्‍वभाविक है उन्‍होंने कहां कि स्‍त्री को देखना भी नहीं, छूना भी नहीं, स्‍त्री बैठी हो किसी जगह भी तो एक दम बैठ मत जाना।  कुछ काल व्‍यतीत हो जाने देना,ताकि उस स्‍त्री की ध्‍वनि-तरंगें उस स्‍थान से अलग हो जाएं। अब यह बिलकुल रूग्‍ण चित लोगों की दशा है। इतने भयभीत लोग। और जो स्‍त्री से इतने भयभीत हो वे कुछ और पा सकेंगे। इसकी संभावना नहीं है।
      इस तरह के लोगों ने जो बातें लिखी है, मैं मानता हूं कि आज नहीं कल हम उनको विक्षिप्त‍, मनोविकार ग्रस्‍त शास्‍त्रों में गिनंगे। मेरा कोई समर्थन इनको नहीं है।
      मेरा तो मानना है। कि जीवन में मुक्‍ति का एक ही उपाय है कि जीवन का जितना गहन अनुभव हो सके और जिस चीज के हम जितने गहन अनुभव में उतर जाते है। उतना ही उससे हमारा छुटकारा हो जाता है।
      अगर निषध से रस पैदा होता है। तो अनुभव से वैराग्‍य पैदा होता है।
      मेरी यह दृष्‍टि है कि जिस चीज को हम जान लेते है। जानते ही उससे जो विक्षिप्‍त आकर्षण था वह शांत होने लगता है।    
      और स्‍वभावत: काम का आकर्षण है—होगा। क्‍योंकि हम उत्‍पन्‍न काम से होते है। और हमारे शरीर का एक-एक कण जीवाणु का कण हे। माता-पिता के जिस कामाणु से निर्मित होता है। फिर उसी का विस्‍तार हमारा पूरा शरीर है। तो हमारा तो हमारा रोआं-रोआं काम से निर्मित हे। पूरी सृष्‍टि–काम सृष्‍टि है। इसमे होने का मतलब ही है, काम वासना के भीतर होना।
      जैसे हम स्‍वास ले रहे है हवा में उससे भी गहरा हमारा आस्‍तित्‍व कामवासना में है। क्‍योंकि स्‍वास लेना तो बहुत बाद में शुरू होता है। बच्‍चा जब मां के पेट से पैदा होगा और जब रौएगा। तब पहली स्‍वास लेगा। इसके पहले भी नौ महीने वह जिंदा रह चुका हे। और वह नौ महीने जो जिंदा रह चुका है, वह तो उसकी काम उर्जा का ही फैलाव हे। तो वह जो काम उर्जा से हमारा सारा शरीर निर्मित है, स्‍वास से भी गहरा हमारा उसमे अस्‍तित्‍व छिपा हुआ है, उससे भागकर कोई भी बच सकता है। क्‍योंकि भागकर कोई बच नहीं सकता, क्‍योंकि भागोगे कहां। वह तुम्‍हारे भीतर है, तुम ही हो।  मैं तो कहता हूं उससे भागने की कोई जरूरत नहीं हे। और भाग कर उपद्रव में पड़ जाता है। तो जीवन में जो है उसका सहज अनुभव उसका स्‍वीकार।
      और जितना गहरा अनुभव होता है, उतना हम जाग सकते है।


इस लिए मैं तंत्र के पक्ष में हूं, त्‍याग के पक्ष में नहीं हूं। और मेरा मानना है जब तक   धर्म दुनिया से समाप्‍त नहीं होते, तब तक दुनिया सुखी नहीं हो सकती। शांत नहीं हो सकती। सारे रोग की जड़ इनमें छिपी है।
      तंत्र की दृष्‍टि बिलकुल उल्‍टी है। तंत्र कहता है कि अगर स्‍त्री पुरूष के बीच आकर्षण है तो इस आकर्षण को दिव्‍य बनाओ। इससे भागों मत, इसको पवित्र करो। अगर काम-वासना इतनी गहरी है तो उससे तुम भाग सकोगे भी नहीं। इस गहरी काम वासना को ही क्‍यों ने परमात्‍मा से जुड़ने का मार्ग बनाओ। और अगर सृष्‍टि काम से हो रही है तो परमात्‍मा को हम काम वासना से मुक्‍त नहीं कर सकते। नहीं तो कुछ तो कुछ होने का उपाय नहीं है।
      अगर कहीं भी कोई शक्‍ति है इस जगत में तो उसका हमें किसी ने किसी रूप में काम वासना से संबंध जोड़ना ही पड़ेगा। नहीं तो इस सृष्‍टि के होने का कहीं कोई आधार नहीं रह जाता। इस सृष्‍टि में जो कुछ हो रहा है, वह किसी ने किसी रूप में परमात्‍मा से जुड़ा है। और हम आंखें खोलकर चारों तरफ देखें तो सारा काम को फैलाव है। आदमी है तो हम बेचैन हो जाते है—वे ऋषि मुनि भी। आदमी बेचैन हो जाता है, लेकिन उस तरफ उनको ख्‍याल में नहीं आता।
      सुबह जब पक्षी गीत गा रहे है तो उनको लगता है कि बड़ी दिव्‍य बात हो रही है। लेकिन वह पक्षी जो पुकार लगा रहा है। वह सब काम-वासना है। और जब फूल खिलते है तो ऋषि की वाटिका में तो वह सोचता है बड़ी अदभुत बात है। और फूलों को जाकर भगवान को चढ़ा रहा है। लेकिन सब फूल  काम वासना के रूप है। वे वीर्याणु है। उनमें....उनमें छिपा बीज है जन्‍म का। और फूलों पर तितलियां घूम कर उनके वीर्याणु को लेकिन दूसरे फूलों से जाकर मिला रही है। तो फूल देखकर तो ऋषि खुश होता है। यह उसके ख्‍याल में नहीं आ रह कि फूल जो है, वह काम वासना के रूप है। पक्षी का गीत सुनकर खुश होता है। मोर नाचता है तो खुश होता है। आदमी से क्‍या परेशानी है।
      वह काम,लेकिन आदमी के काम से वह परिचित है वह उसकी खुद की पीड़ा है। बाकी पूरी प्रकृति काम का फैलाव है। यहां जो भी दिखाई पड़ रहा है। वह सबके भीतर काम छिपा हुआ है। सारा फैलाव सारा खेल उसका तो जो काम इतने गहरे में है। वह परमात्‍मा से जुड़ा होगा।
      तंत्र कहता है: सबसे ज्‍यादा गहरी चीज काम वासना है, क्‍योंकि उससे ही जन्‍म होता है। उससे ही जीवन फैलता है। यहां जो भी दिखाई पड़ रहा है। वह सबके भीतर काम छिपा हुआ है। सारा फैलाव सारा खेल उसका, तो इस गहरे तंतु का हम उपयोग कर लें। इस तंतु से लड़े न, बल्‍कि इस तंतु को धारा बना लें, जिसमें हम बह जाएं।
      और काम वासना को अगर कोई धारा बना ले, ध्‍यान बना ले, समाधि बना ले। तो दोहरे परिणाम होत है। वह जो ऋषि निरन्‍तर चाहता है—त्‍याग वादी—का छुटकारा हो जाय, वि भी हो जाता है। और दूसरा परिणाम यह होता है कि यह व्यक्ति काम—वासना से भी छूट जाता है। और काम वासना के कारण अहंकार से भी छूट जाता है।
      तंत्र की साधना ही स्‍वस्‍थ साधना है।
      तो मैं तो विरोध में नहीं हूं। न तो मैं विरोध में हूं कि इस पर्त से बचो। न बच सकते है। ऐसा ऊपर से बचेंगे तो भीतर अप्‍सराएं सताएगी। उससे इस पृथ्‍वी की स्‍त्रियों में कुछ ज्‍यादा उपद्रव नहीं। बचने की बात ही मैं मानता हूं, गलत।
      भागना क्‍यों, डरना क्‍यों जीवन जैसा है, उसके तथ्‍यों में जागरूक होना। और जब मेरे मन में किसी चीज क प्रति आकर्षण है तो इस आकर्षण को समझने की कोशिश करूं। क्‍या है यह आकर्षण। क्‍यों है यह आकर्षण? और इस आकर्षण को मैं कैसे सृजनात्‍मक करूं कि इससे मेरा जीवन खिले और विकसित हो। यह मेरा विध्‍वंस न बन जाए। और इस आकर्षण को मैं उपयोग कैसे करूं। यह सवाल है।
      तो इस आकर्षण का गहरा उपयोग ध्‍यान के लिए हो सकता है। और स्‍त्री–पुरूषों की सन्‍निधि बड़ी मुक्त दायी हो सकती है। मगर कभी ऐसा हुआ तो मनुष्य ओर ज्यादा समझदार और ज्‍यादा विचारपूर्ण हुआ। तब हम स्‍त्री पुरूष के बीच की सारी बाधाएं तोड़ देंगे। स्‍त्री पुरूष के बीच की बाधाएं तोड़ते ही हमारे नब्‍बे परसैंट बीमारियां विलीन हो जाएं। क्‍योंकि उन बाधाओं के कारण सारे रोग खड़े हो रहे है। हमको दिखाई नहीं पड़ता। और चक्र ऐसा है कि जब रोग खड़े होते है तो हम सोचते है और बाधाएं खड़ी करो। ताकि रोग खड़े न हो।
      मैं एक गांव में था। और कुछ बड़े विचारक और संत साधु मिलकर अश्‍लील पोस्‍टर विरोधी एक सम्‍मेलन कर रहे थे। तो उनका ख्‍याल है कि अश्‍लील पोस्‍टर लगता है दीवालों पर, इसलिए लोग काम-वासना से परेशान रहते है। जबकि हालत दूसरी है लोग काम वासना से परेशान है। इसलिए पोस्‍टर में मजा है। यह पोस्‍टर कौन देखेगा? पोस्‍टर को देखने कौन जा रहा है।
      पोस्‍टर को देखने वही जा रहा है, जो स्‍त्री पुरूष के शरीर को देख ही नहीं सका। जो शरीर के सौन्‍दर्य को नहीं देख सका। जो शरीर की सहजता को अनुभव नहीं कर सका। वह पोस्‍टर देख रहा है।
      पोस्‍टर को देखने वही जा रहा है। जो स्‍त्री पुरूष के शरीर को देख ही नहीं सका। जो शरीर के सौन्‍दर्य को नहीं देख सका। जो शरीर की सहजता को अनुभव नहीं कर सका वह पोस्‍टर देख रहा है।
      पोस्‍टर इन्‍हीं गुरूओं की कृपा से लग रहे है। क्‍योंकि ये इधर स्‍त्री पुरूष को मिलने झुलने नहीं देते, पास नहीं होने देते तो इसका परवर्टेड, विकृत रूप है कि काई गंदी किताब पढ़ रहा है। कोई गंदी तस्‍वीर देख रहा है। कोई फिल्‍म बना रहा है। क्‍योंकि आखिर यह फिल्‍म कोई आसमान से नहीं टपकती, लोगों की जरूरत है।
      इसलिए सवाल यह नहीं है कि गंदी फिल्‍म कोई क्‍यों बना रहा है? लोगों की जरूरत क्‍या है? यह तस्‍वीर जो पोस्‍टर लगती है। कोई ऐसे ही मुफ्त पैसा खराब करके नहीं लगता। इसका कोई उपयोग है। इसे कहीं कोई देखने को तैयार है, मांग है इसकी वह मांग कैसे पैदा हुई? वह मांग हमने पैदा की है। स्‍त्री पुरूष को दूर करके। वह मांग पैदा कर दी। अब वह मांग को पूरा करने जब कोई जाता है तो हमको लगता है कि बड़ी गड़बड़ हो गई। तो उसको और बाधाएं डालों। उसको जितनी वह बाधाएं डालेगा,वह नए रास्‍ते खोजेगा मांग के। क्‍योंकि मांग तो अपनी पूर्ति माँगती है।
      तो मैंने उनको कहा कि अगर सच में ही चाहते हो कि पोस्‍टर विलीन हो जाये, तो स्‍त्री पुरूषों के बीच की बाधा कम करो। क्‍योंकि मैं नहीं देखता—आदिवासी समाज है जहां, स्‍त्री पुरूष सहज है, करीब-करीब नग्‍न–वहां कोई पोस्‍टर लगा है? या कोई पोस्‍टर में रस ले रहा है?
      जब पहली दफे ईसाई मिशनरी ऐसे कबीलों में पहुँचे, जहां नग्‍न  लोग थे। तो उनको ये भरोसा ही नहीं आया कि कोई नग्‍न स्‍त्री में भी रस ले सकता है। क्‍योंकि रस लेने का कोई कारण नहीं है। जब तक हम वस्‍त्रों में ढांके है और दीवालें ओर बाधाएं खड़ी किए है। तब तक रस पैदा होगा। रस पैदा होगा तो हम सोचते है कि—और डर पैदा हो रहा है—तो इसको रोको।
      मनुष्‍य की अधिक उलझनें इसी भांति की है। कि जो सोचता है कि सीढ़ियां है सुलझाव की, वहीं उपद्रव है, वही बाधाएं है।      
      तो मैं मानता हूं कि बच्‍चे बड़े हों, साथ बड़े हों; लड़के और लड़कियों के बीच कोई फासला न हो; साथ देखें दौड़ें बड़े हों,साथ स्‍नान करें, तैरें। ताकि स्‍त्री पुरूष के शरीर की नैसर्गिक प्रतीति हो। और वह प्रतीति कभी भी रूग्‍ण न बन जाए। और उसके लिए कोई बीमार रास्‍ते न खोजने पड़े।
      और यह बिलकुल उचित ही है। कि पुरूषों की शरीर में उत्‍सुकता हो। स्‍त्री की पुरूषों के शरीर में उत्‍सुकता हो। यह बिलकुल स्‍वाभाविक है। और इसमे कुछ भी कुरूप नहीं है और कुछ भी अशोभन नहीं है। अशोभन तो तब है जो हमने किया है। उससे अशोभन हो गई बात।
      अब जिस स्‍त्री से मेरा प्रेम हो, उसके शरीर में मेरा रस होना स्‍वाभाविक है। नहीं तो प्रेम तो प्रेम भी नहीं होगा। लेकिन एक अंजान स्‍त्री को रास्‍ते में धक्‍का मार दूँ भीड़ में यह अशोभन है। लेकिन इसके पीछे ऋषि मुनियों का हाथ है। जिस स्‍त्री से मेरा प्रेम है। उसे मैं अपने करीब निकट ले लूं,उसका आलिंगन करूं, यह समझ में आने वाली बात है। इसमें कुछ बुरा नहीं है। लेकिन जिस स्‍त्री को मैं जानता ही नहीं, जिससे मेरा कोई लेना देना ही नहीं है। रास्‍ते पर मौका भीड़ में मिल जाये। और में उसको धक्‍का मारू। उस धक्‍के में जरूर कोई बीमार बात है। वह धक्‍का क्‍यों पैदा हो रहा है? वह धक्‍का किसी जरूरत का रूग्‍ण रूप है। जिससे प्रेम हो सकता है। उसको मैं कभी पास नहीं ले पाता। वह रूग्‍ण हो गई वृति, अब धक्‍का मारने में भी रस ले रहा हूं। तो भीड़ में एक धक्‍का ही मार कर चला गया तो भी समझो कि कुछ सुख पाया। और सुख इसमें मिल नहीं सकता; ग्‍लानि मिलेगी मन को, निन्‍दा मिलेगी अपराध का भाव पैदा   होगा मन में। मैं समझूंगा कि मैं पाप कर रहा हूं। और जितना मैं समझूंगा कि मैं पाप कर रहा हूं,उतना स्‍त्री ओ मेरे बीच का फासला बढ़ता जाएगा। और जितना फासला बढ़ेगा, इसको मिटाने की बेहूदी कोशिशें करूंगा और यह चलता रहेगा।
      स्‍त्री-पुरूष को निकट लाना चाहता हूं, इतने निकट कि उनको यह प्रतीति नहीं रह जानी चाहिए कि कौन स्‍त्री है और कौन पुरूष।   
      स्‍त्री-पुरूष होना, चौबीस घंटे का बोध नहीं होना चाहिए। वह बीमारी है, अगर इतना बोध बना रहता है तो स्‍त्री पुरूष दोनों को चौबीस घंटे बोध नहीं होना चाहिए। वह मिटेगा तभी जब हम बीच में फासले मिटाएंगे।
      और इतने गहरे परिणाम होंगे—कि समाज की अश्‍लीलता, गंदा साहित्‍य, गंदी फिल्‍में बेहूदी वृतियां, वे अपने आप गिर जाएं। और एक ज्‍यादा स्‍वस्‍थ मनुष्‍य का जन्‍म हो। और यह जो स्‍वस्‍थ मनुष्‍य है इसकी मैं आशा कर सकता हूं कि यह धार्मिक हो सके। क्‍योंकि जो स्‍वस्‍थ  ही नहीं हो पाया अभी उसके धार्मिक होने की कोई आशा मैं नहीं मानता।
      तो एक तो धर्म है, जो अधर्म से भी बूरा है, अस्‍वस्‍थ धर्म। उससे तो अधर्म ठीक है। और एक धर्म है जो अधर्म से श्रेष्‍ठ है, और उसे मैं कहता हूं स्‍वस्‍थ धर्म। जीवन की समझ, प्रतीति, अनुभव, होश—इससे पैदा हुआ धर्म।
      स्‍त्री-पुरूष जितने निकट होंगे, उतना ही यह उपद्रव कम होगा, शांत होगा। और अगर यह उपद्रव शांत हो जाये तो असली खोज शुरू हो सकती है। क्‍योंकि आदमी बिना आकर्षण के नहीं जी सकता। और अगर स्‍त्री पुरूष का आकर्षण शांत हो जाता है तो वे और गहरे आकर्षण की खोज में लग जाते है। बिना आकर्षण के जीना मुश्‍किल है। वही  प्रयोजन है। और जो स्‍त्री-पुरूष में ही लड़ता रहा है—उसका आकर्षण तो कायम रहता है, दूसरा आकर्षण का कोई उपाय नहीं है।
      परमात्‍मा मेरे लिए प्रकृति में ही गहरे अनुभव का नाम है।
      और जिस दिन वह अनुभव होने लगता है। उसी दिन ये सारे,जिनसे हम बचना चाहते थे, इनसे हम बच जाते है। पर बिना कोई चेष्‍टा किए। एक तो कच्‍चा फल है, जिसको कोई झटका देकर तोड़ ले। और एक पका हुआ फल है जो वृक्ष से गिर जाता है। न वह वृक्ष को खबर होती है कि वह कब गिर गया। न फल को खबर होती है। कब गिर गया। न फल को लगता है कि कोई बड़ा भारी प्रयासकरना पडा। न कहीं होता है। न कहीं कुछ होता है। यह सब चुपचाप हो जाता है।
      तो जीवन के अनुभव से एक वैराग्‍य का जन्‍म होता है। जिसको मैं पका हुआ फल कहता हूं। और जीवन से लड़ने से एक वैराग्‍य का जन्‍म होता है। जिसको मैं कच्‍चा फल कहता हूं। सब तरफ  घाव छूट जाते है, और उन घावों का भरना मुश्‍किल है। तो मैं तो कसी ऐसे शास्‍त्रों के पक्ष में नहीं हूं।
      मेरा तो मानना यह है कि जो भी प्रकृति से उपलब्‍ध है समग्र सर्वांगीण स्‍वीकार।
      और उसी स्‍वीकार से रूपांतरण है। और यही रूपांतरण गहरा हो सकता है। संघर्ष में मेरा भरोसा नहीं है। और इसी बात को में आस्‍तित्‍व कहता हूं। सब त्‍यागियों को मैं नास्‍तिक कहता हूं। क्‍योंकि परमात्‍मा की सृष्‍टि उन्‍हें स्‍वीकार नहीं। और जिनको परमात्‍मा की सृष्‍टि स्‍वीकार नहीं, वे परमात्‍मा भी उन्‍हें मिल जाएगा तो स्‍वीकार करेंगे। मैं नहीं मानता। अस्‍वीकृति की उनकी आदत इतनी गहरी है कि जब वे परमात्‍मा को भी देखेंगे तो हजार भूले निकाल लेंगे कि इसमे यह पाप है।
      शोपहार ने कहीं कहा है कि हे परमात्‍मा, तू तो मुझे स्‍वीकार है, तेरी सृष्‍टि स्‍वीकार नहीं है। लेकिन इनको परमात्‍मा स्‍वीकार है तो उसकी सृष्‍टि अनिवार्य रूपेण स्‍वीकृति हो जाय। और अगर उसकी सृष्‍टि स्‍वीकार नहीं है, तो बहुत गहरे में हम उसे भी स्‍वीकार नहीं कर सकते। कैसे स्‍वीकार करेंगे। फिर या तो हम परमात्‍मा से ज्‍यादा समझदार हो गए है। उससे ऊपर अपने को रख लिया कि हम उसमें भी चुनाव करते है।
      मेरा कोई चुनाव नहीं, मैं तो मानता हूं जो प्रकट है, वह अप्रकट का ही हिस्‍सा है। जो दिखाई पड़ रहा है। उसके पीछे ही अदृश्‍य छिपा हुआ हे। थोड़ी पर्त भीतर प्रवेश करने की जरूरत है। और प्रेम जितना गहरा जाता है। इस जगत में कोई और चीज इतनी गहरी नहीं जाती। मैं छुरा मार सकता हूं। आपकी छाती में,वह इतना गहरा जाएगा जितना मेरी प्रेम आपके भीतर गहरा जाएगा। प्रेम से गहरा तो कुछ भी नहीं जाता इसको भी जो छोड़ देता है वह उथला सतह पर रह जाता है। तो मेरे मन में तो ऐसे शास्‍त्र अनिष्‍ट है। और जितने शीध्र उनसे छुटकारा हो, उतना ही अच्‍छा है। और ऐसे ऋषि मुनियों की चिकित्‍सा......मानसिक रोग है इन्‍हें।

ओशो
संभोग से समाधि की और
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

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