Friday 16 February 2018

ध्‍यान को हंसी—खेल बना लो

तंत्र--सूत्र--(भाग--4) प्रवचन--52

ध्‍यान को हंसीखेल बना लो--(प्रवचनबावनवो(प्रवचनबावनवां)

प्रश्‍नसार:
1—यदि सभी फिलासफी ध्‍यान—विरोधी है तो क्‍यों बुद्ध पुरूष
      दार्शीनिक मीमांसा की मजबूत शृंखला अपने पीछे छोड़ जाते है?
2—क्‍या विचार से समस्‍याएं हल हो सकती है?
3—खुले, निर्मल आकाश को एकटक देखने, प्रज्ञावान सदगुरू के फोटो
      पर त्राटक करने और अंधकार को अपलक देखने में क्‍या फर्क है?
4—क्‍या विज्ञान और धर्म का कहीं मिलन हो सकता है?
5—हम अपने अधैर्य को कैसे वश में करें?
6—आधुनिक विज्ञान को ध्‍यान में रखकर कृपया अंधकार
      एवं प्रकाश के संबंध में कुछ और कहें।


पहला प्रश्न :

उस रात आपने कहा कि सभी फिलासफी ध्यान— विरोधी हैं। लेकिन दूसरी तरफ आप कहते हैं कि तंत्र, योग और वेदांत जैसे पूर्वीय दर्शन बुद्ध पुरुषों द्वारा रचे गए हैं। यदि सभी फिलासफी ध्‍यान—विरोधी है तो क्‍यों बुद्ध पुरूष दार्शीनिक मीमांसा की मजबूत श्रृंखला अपने पीछे छोड़ जाते हैं?

फिलासफी का सही अनुवाद दर्शन नहीं है। दर्शन पूर्वीय शब्‍द है। दर्शन का अर्थ होता है देखना। और फिलासफी का अर्थ होता है सोच—विचार करना। हरमन हेस ने पश्चिमी भाषा में दर्शन के लिए एक नया शब्द गढ़ा हैवह इसे फिलोसिया कहता है—सिया का अर्थ होता है देखना।
फिलासफी का अर्थ विचार करना हैदर्शन का अर्थ देखना है। और दोनों बुनियादी रूप से भिन्न हैंभिन्न ही नहींएक—दूसरे के सर्वथा विपरीत हैं। क्योंकि जब तुम विचार करते हो तो तुम देख नहीं सकते। तुम विचारों से इतने भरे होते हो कि दर्शन धूमिल हो जाता हैदेखना धुंधला हो जाता है। जब तुम निर्विचार होते हो तो ही तुम देखने में समर्थ होते हो। तब तुम्हारी आंखें साफ हो जाती हैंनिर्मल हो जाती हैं। दर्शन तब घटित होता है जब विचार विलीन हो जाते हैं।
सुकरातप्लेटो और अरस्तू के लिएपश्चिम की पूरी परंपरा के लिए विचारणा आधार है। कणादकपिलपतंजलिबुद्ध के लिएपूर्व की पूरी परंपरा के लिए दर्शन आधार हैदेखना आधार है। इसलिए बुद्ध फिलासफर नहीं हैं—बिलकुल नहीं। पतंजलि,कपिल या कणाद फिलासफर नहीं हैं। उन्होंने सत्य को देखा हैउसके संबंध में विचार नहीं किया है।
यह भलीभांति स्मरण रखो कि तुम विचार इसीलिए करते होक्योंकि तुम देख नहीं सकते। अगर तुम देख सको तो विचार करने की जरूरत नहीं रहती। विचार करना सदा अज्ञान में होता है। विचार करना ज्ञान नहीं हैक्योंकि जब तुम जानते हो तो विचार करने की जरूरत नहीं रहती। जब तुम नहीं जानते हो तो उस खाली जगह कोअपने अज्ञान को विचार से भरते हो। विचार करना अंधेरे में टटोलना है।
इसलिए पूर्वीय दर्शन फिलासफी नहीं है। पूर्वीय दर्शन के लिए फिलासफी शब्द का उपयोग बिलकुल गलत है। दर्शन का अर्थ है देखनाऔर विचार की मध्यस्थता के बिना देखनादृष्टि पैदा करनाजाननाअनुभव करना। और यह देखनायह अनुभव तत्काल होता हैप्रत्यक्ष होता हैतुरंत होता हैसीधा—साफ होता है।
विचार कभी अज्ञात तक नहीं पहुंचा सकता है। कैसे पहुंचा सकता हैयह असंभव है। विचार की प्रक्रिया को ही समझना होगा। जब तुम विचार करते हो तो वस्तुत: क्या करते होविचार करने के लिए तुम अतीत की स्मृतियों को ही काम में लाते हो।
अगर मैं तुम्हें एक प्रश्न पूछूं पूछूं कि क्या ईश्वर हैतो तुम क्या करोगेतुम ने ईश्वर के संबंध में जो कुछ सुना हैजो कुछ पढ़ा हैजो कुछ संग्रह किया हैतुम उस सब को दोहराओगे। अगर तुम किसी नए निष्कर्ष पर भी पहुंचोगे तो उसका नयापन ऊपरी होगायथार्थ नहीं होगा। वह निष्कर्ष पुराने विचारों का महज जोड़ होगा। तुम अनेक पुराने विचारों को मिलाकर एक नई संरचना खड़ी कर सकते होलेकिन वह संरचना देखने में ही नई होगीवस्तुत: नई बिलकुल नहीं होगी।
सोच—विचार कभी मौलिक सत्य को नहीं उपलब्ध हो सकता है। विचार कभी मौलिक नहीं होताहो नहीं सकता। विचार सदा अतीत का होता हैबीते हुए का होता हैज्ञात का होता है। विचार कभी अज्ञात को नहीं छू सकतावह सदा ज्ञात के वर्तुल में कोल्‍हू के बैल की तरह घूमता रहता है।
तुम्हें सत्य का पता नहीं हैतुम्हें ईश्वर का पता नहीं है। तुम क्या कर सकते होतुम उसके बारे में विचार कर सकते हो। तुम वर्तुल में घूम सकते होचक्कर लगा सकते हो। लेकिन इससे तुम्हें सत्य का कभी अनुभव नहीं होगा।
इसलिए पूर्व का जोर दर्शन पर हैविचार पर नहीं। तुम परमात्मा के संबंध में विचार नहीं कर सकतेलेकिन तुम उसे देख सकते हो। तुम परमात्मा के संबंध में किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकतेलेकिन तुम उसे अनुभव कर सकते होउसको उपलब्ध हो सकते हो। परमात्मा तुम्हारा अनुभव बन सकता है। सूचनाज्ञानशास्त्रसिद्धात और फिलासफी के द्वारा तुम उसे जान नहीं सकतेतुम उसे तभी जान सकते हो जब तुम अपने सारे ज्ञान को उठाकर फेंक दो। तुम ने जो भी सुना हैपढ़ा है,संग्रह किया हैतुम्हारे मन ने जो भी धूल इकट्ठी की हैउस सबकोपूरे अतीत को अलग रख देना होगा। तब तुम्हारी आंखें निर्मल हैंतब तुम्हारी चेतना का आकाश निरभ्र है और तब तुम उसे देख सकते हो।
परमात्मा यहां हैअभी हैलेकिन तुम्हारी आंखों पर परदा पड़ा है। परमात्मा या सत्य को खोजने के लिए तुम्हें कहीं नहीं जाना हैवह यहीं है। वह ठीक यहीं है जहां तुम हो। और ऐसा ही हमेशा से है। लेकिन तुम्हारी आंखें बंद हैंतुम्हारी आंखें धूमिल हैं। तो प्रश्न यह नहीं है कि कैसे अधिक सोच—विचार किया जाएप्रश्न यह है कि कैसे निर्विचार चेतना को उपलब्ध हुआ जाए।
यही कारण है कि मैं कहता हूं कि ध्यान और फिलासफी एक—दूसरे के विरोधी हैं। फिलासफी सोच—विचार करना है;ध्यान निर्विचार निष्कर्ष पर पहुंचता है। और पूर्व की फिलासफी वस्तुत: फिलासफी नहीं हैं। पश्चिम में फिलासफी हैंपूर्व में केवल धार्मिक अनुभव हैंउपलब्धिया हैं।
हां, जब कोई बुद्ध होता हैया कोई कणाद या कोई पतंजलि होता हैजब कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता है तो वह उसके संबंध में वक्तव्य देता है। ये वक्तव्य अरस्तु के वक्तव्यों से या पाश्चात्य चिंतकों के निष्कर्षों से बहुत भिन्न हैं। और भिन्नता या फर्क यह है कि बुद्ध या कणाद पहले बोध को उपलब्ध होते हैं—बोध पहले है—और तब वे वक्तव्य देते हैं। अनुभव प्राथमिक है और तब वे अभिव्यक्ति देते हैं।
 अरस्‍तु, हिगल, कांट पहले सोच—विचार करते है और तब वे उस विचार से, तर्क सेपक्ष—विपक्ष के मंथन से विशेष निष्कर्षों पर पहुंचते हैं। ये निष्कर्ष ध्यान की साधना से नहीं आते हैंमात्र विचार सेमनन से निकाले जाते हैं। और तब उन पर वे वक्तव्य देते हैंसिद्धात प्रतिपादित करते हैं। स्रोत ही अलग है।
बुद्ध के लिए उनका वक्तव्य संवाद का एक माध्यम भर हैवे यह कभी नहीं कहते हैं कि उनके बोलने सेउनके कहने से तुम सत्य को पा लोगे। अगर तुम बुद्ध को समझ सकते हो तो उसका यह अर्थ नहीं है कि तुमने सत्य को पा लियाउसका इतना ही अर्थ है कि तुमने समझा हैजानकारी ली है। अब तुम्हें ध्यान से गुजरना होगामन की गहरी घाटियों से गुजरना होगागहन समाधि में उतरना होगा। तभी तुम सत्य को उपलब्ध हो सकोगे।
तो अनुभव के द्वारा ही सत्य तक पहुंचा जाता हैयह अस्तित्वगत हैमानसिक नहीं। सत्य को जानने के लिए और सत्य को उपलब्ध होने के लिए तुम्हें बदलना होगा। अगर तुम वही बने रहते हो जो होअगर तुम सूचनाएं जमा किए जाते होतो तुम बड़े पंडित हो जाओगेबड़े शास्त्री हो जाओगेलेकिन तुम बुद्ध नहीं होगे। तुम वही के वही आदमी बने रहोगेतुममें कोई रूपांतरण नहीं होगा।
इसीलिए मैंने कहा कि फिलासफी एक आयाम है और ध्यान बिलकुल विपरीत आयाम हैसर्वथा विरोधी आयाम है। तो जीवन के संबंध में सोच—विचार मत करोबल्कि जीवन को उसकी गहराई में जीओ। और आत्यंतिक समस्याओं के विषय में विचार मत करोबल्कि इसी क्षण आत्यंतिक में प्रवेश कर जाओ। और वह आत्यंतिक भविष्य में नहीं हैवह सदा ही यहां और अभी है।
एक और मित्र ने भी इसी तरह का प्रश्न पूछा है।

 उन्होंने पूछा है :
क्या सोच— विचार से समस्याओं का समाधान हो सकता है?

 हां, कुछ समस्याएं विचार से हल की जा सकती हैं। लेकिन केवल वे ही समस्याएं विचार से हल की जा सकती हैं जो विचार से ही पैदा होती हैं। कोई सच्ची समस्याकोई अस्तित्वगत समस्याजीवन—समस्या विचार से नहीं पैदा होती है। सच्ची समस्या विचार से नहीं पैदा होतीवह जीवन में ही मौजूद है। विचार करना उसके लिए अधिक काम का नहीं होगा। केवल एक अर्थ में विचार करना काम का हो सकता है कि निरंतर विचार करते—करते तुम्हें कभी यह सत्य हाथ लग जाए कि विचार करना व्यर्थ है। और जिस क्षण तुम समझ लेते हो कि अस्तित्वगत समस्याओं के लिए विचार करना व्यर्थ हैतुम्हें एक अर्थ में थोड़ी मदद तो मिल गई। विचार के द्वारा ही तुम्हें यह ज्ञान हुआ।
लेकिन विचार से पैदा हुई समस्याएं विचार से ही हल हो सकती हैं। उदाहरण के लिएगणित की समस्याएं हैं। गणित की समस्याएं विचार से हल की जा सकती हैंक्योंकि समस्त गणित विचार से निर्मित हुआ है।
उदाहरण के लिएअगर पृथ्वी पर मनुष्य न हो तो क्या गणित रहेगागणित नहीं रहेगा। मनुष्य के मस्तिष्क के विदा होने के साथ ही गणित भी विदा हो जाएगा। जीवन और अस्तित्व में गणित नहीं है।। बगीचे में वृक्ष हैंलेकिन जब तुम एक,दोतीन गिनते हो तो तीन वृक्ष नहीं हैं। यह तीन की संख्या मानसिक चीज है। वृक्ष हैंलेकिन अंक नहीं हैं। अंक तीन तुम्हारे मन में है। तुम नहीं रहोगे तो वृक्ष तो होंगेलेकिन तीन वृक्ष नहीं होंगे। केवल वृक्ष होंगे। तीन की संख्या मन से निर्मित हुई है;यह मन का खेल है। मन गणित निर्मित करता हैइसलिए गणित की कोई भी समस्या मन से ही हल होगीविचार से ही हल होगी। स्मरण रहेगणित के प्रश्न निर्विचार से नहीं हल हो सकते हैं। कोई ध्यान वहां काम नहीं देगा। क्योंकि ध्यान मन को विसर्जित कर देगा और मन के साथ पूरा गणित विसर्जित हो जाएगा।
तो ऐसी समस्याएं हैंजो मन से पैदा होती हैं और मन से ही उनका समाधान हो सकता है। लेकिन ऐसी समस्याएं भी हैं जो मन से नहीं पैदा होती हैंवे अस्तित्वगत समस्याएं हैं और उनका समाधान मन से नहीं हो सकता है। उनके समाधान के लिए तुम्हें अस्तित्व में ही गहरे उतरना होगा।
उदाहरण के लिएप्रेम है। प्रेम एक अस्तित्वगत समस्या हैतुम विचार के द्वारा उसका समाधान नहीं कर सकते। बल्कि विचार से तुम और भी उलझन में पड़ जाओगेतुम जितना विचार करोगे उतने ही समस्या के स्रोत से दूर हट जाओगे। यहां ध्यान सहयोगी होगा। ध्यान से तुम्हें अंतर्दृष्टि मिलेगीध्यान से तुम समस्या की अचेतन जड़ों तक पहुंच जाओगे। और अगर तुम इस संबंध में सोच—विचार करोगे तो तुम सतह पर ही रहोगे।
ध्यान रहेजीवन की समस्याएं विचार से नहीं हल हो सकती हैं। उलटे सचाई यह है कि बहुत सोच—विचार के कारण तुम समाधान से वंचित हो रहे होसोच—विचार के कारण अधिकाधिक समस्याएं पैदा हो रही हैं।
उदाहरण के लिएमृत्यु की समस्या विचार से नहीं पैदा हुई हैइसलिए तुम उसका समाधान विचार से नहीं कर सकते। चाहे तुम कितना भी विचार करोतुम मृत्यु का समाधान कैसे करोगेतुम्हें उससे सांत्वना मिल सकती है और तुम सोच भी सकते हो कि सांत्वना ही समाधान है। लेकिन सांत्वना समाधान नहीं है। तुम अपने को धोखा दे सकते होविचार से यह संभव है। तुम व्याख्याएं निर्मित कर सकते हो और व्याख्याओं से तुम समझ ले सकते हो कि मैंने समस्या का हल पा लिया। विचार के द्वारा तुम समस्या से पलायन कर सकते होलेकिन तुम उसे हल नहीं कर सकते। और इस फर्क को ठीक से समझ लो।
उदाहरण के लिएमृत्यु है। तुम्हारी प्रेमिका मर जाती हैया तुम्हारा मित्र या तुम्हारी बेटी मर जाती है। मृत्यु चारों तरफ मौजूद है। तुम अब क्या कर सकते होतुम उसके संबंध में विचार कर सकते हो। तुम सोच—विचार कर सकते हो कि आत्मा अमर हैक्योंकि यह तुमने पढ़ा है। उपनिषद कहते हैं कि आत्मा अमर हैसिर्फ शरीर मरता है। लेकिन यह तुम्हारा अपना ज्ञान नहीं है। क्योंकि अगर तुम वस्तुत: जानते कि आत्मा अमर है तो कोई समस्या ही न रही। या कि तब भी समस्या रहतीअगर तुम सचमुच जानते हो कि आत्मा अमर है तो मृत्यु है ही नहीं। फिर समस्या कहां है गु:
लेकिन समस्या है। मृत्यु हैऔर तुम बेचैन होतुम गहन शोक में हो। तुम इस शोक से बचना चाहते होतुम किसी भांति इस संताप को भूलना चाहते हो। और तुम इस व्याख्या को पकड लेते हो कि आत्मा अमर है। अब यह एक चालाकी है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आत्मा अमर नहीं हैलेकिन तुम्हारा यह कहना एक चालाकी है। तुम अपने को धोखा देने की चेष्टा कर रहे हो। तुम शोक में हो और तुम इस शोक से हट जाना चाहते हो। उसमें यह व्याख्या सहयोगी होगी। अब तुम अपने को यह कहकर सांत्वना दे सकते हो कि आत्मा अमर हैकोई मरता नहीं हैसिर्फ शरीर मरता है। जैसे मनुष्य कपड़े बदलता हैजैसे घर बदलता हैवैसे ही आत्मा एक घर से दूसरे घर में चली गई है। इस तरह तुम सोच सकते हो। लेकिन तुम्हें खुद इसका कुछ पता नहीं हैतुमने यह सब सुना हैतुमने ये सब सूचनाएं इकट्ठी कर ली हैं। लेकिन इन व्याख्याओं से तुम्हें थोड़ा चैन मिल जाएगातुम मृत्यु को भूल सकते हो।
लेकिन वस्तुत: वह समस्या का समाधान नहीं है। कुछ भी तो हल नहीं हुआ। अगले दिन किसी और की मृत्यु होगी और यह समस्या फिर उठ खड़ी होगी। फिर कोई और मरेगा और फिर यह समस्या उठ खड़ी होगी। और गहरे में तुम जानते हो कि मैं भी मरूंगा। तुम मृत्यु से बच नहीं सकतेइसीलिए भय है। लेकिन तुम व्याख्या के द्वारा इस भय को टाल सकते होभुला सकते हो। लेकिन उससे कुछ नहीं होगा।
मृत्यु अस्तित्वगत समस्या हैतुम विचार से उसका समाधान नहीं कर सकते। विचार से तुम सिर्फ झूठे समाधान निर्मित कर सकते हो। तब फिर क्या करें?
तब एक दूसरा आयाम है—ध्यान का आयाम। विचार सेचिंतन से काम नहीं चलेगा। स्थिति का सीधा साक्षात्कार करना है। मृत्यु घटित हुई हैतुम्हारी प्रेमिका चल बसी है। विचार में मत पड़ो। उपनिषद और गीता और बाइबिल को मत बीच में लाओ। क्राइस्टों और बुद्धों से मत पूछोउन्हें उनकी जगह रहने दो। मृत्यु सामने हैउसका साक्षात्कार करोउसे सीधे —सीधे देखो। इस स्थिति के साथ पूरी तरह रहा, उसके बारे में विचार मत करो। तुम क्या विचार कर सकते होतुम सिर्फ पुराने कचरे को दोहरा सकते हो। मृत्यु ऐसी नई घटना हैवह इतनी अज्ञात है कि तुम्हारा ज्ञान वहा किसी काम का नहीं होगा। इसलिए मन को अलग करो और मृत्यु के प्रगाढ़ ध्यान में उतरो।
कुछ करो मत। तुम क्या कर सकते हो जो सहयोगी हो सकता हैतुम कुछ नहीं जानते होइसलिए अपने अज्ञान में रहो। झूठे ज्ञान कोउधार ज्ञान को बीच में मत लाओ। मृत्यु यहां हैतुम उसके साथ रहो। अपनी समग्र उपस्थिति से मृत्यु का सामना करोसाक्षात करो। विचार मत करोक्योंकि तब तुम स्थिति से बच रहे होयहां से हट रहे हो। विचार मत करोमृत्यु के प्रति जागे रहो। दुख होगाशोक होगादिल पर भारी बोझ होगा। उसे होने दो। वह जीवन का हिस्सा हैवह प्रौढ़ता का हिस्सा हैवह परम उपलब्धि का हिस्सा है। उसके साथ रहोसमग्रत: उपस्थित रहो। यह ध्यान होगा। और तुम्हें मृत्यु का एक प्रगाढ़बोध उपलब्ध होगा। तब मृत्यु स्वयं शाश्वत जीवन बन जाएगी।
लेकिन मन को और ज्ञान को बीच में मत लाओ। मृत्यु के साथ रहो। तब मृत्यु तुम्हें अपना रहस्य प्रकट कर देगी। तब तुम जानोगे कि मृत्यु क्या है। तब तुम मृत्यु के आत्यंतिक रहस्य में प्रवेश पा जाओगे। तब मृत्यु तुम्हें जीवन के अंतरतम केंद्र पर पहुंचा देगीक्योंकि मृत्यु ही जीवन का केंद्र है। मृत्यु जीवन के विपरीत नहीं हैवह जीवन की ही प्रक्रिया है। लेकिन मन यह विरोध खड़ा करता है कि जीवन और मृत्यु एक—दूसरे के विपरीत हैं। तब तुम विचार करने में संलग्न हो जाते हो। और क्‍योंकि मूल बात ही गलत हैविरोध ही गलत हैइसलिए तुम किसी वास्तविक और सच्चे निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते।
जब भी कोई अस्तित्वगत समस्या होजीवन की समस्या हो तो मन को बीच में लाए बिना उस समस्या के साथ रहो। इसे ही मैं ध्यान कहता हूं। और समस्या के साथ मात्र रहने से ही समस्या का समाधान हो जाएगा। और अगर तुम वस्तुत: मृत्यु के साथ रह सके तो फिर तुम्हारे लिए मृत्यु समाप्त हो जाएगीक्योंकि तब तुम जानते हो कि मृत्यु क्या है।
यह हम कभी नहीं करते हैं। हम न कभी प्रेम के साथ रहते हैंन मृत्यु के साथन किसी भी चीज के साथ रहते हैं जो प्रामाणिक रूप से यथार्थ होसच हो। हम सदा विचार के साथ गति करते हैं। और विचार बड़े झूठे हैंवे सब कुछ झूठ कर देते हैं। सब विचार उधार हैंवे तुम्हारे नहीं हैं। वे तुम्हें मुक्त नहीं कर सकते। केवल तुम्हारा अपना सत्य ही तुम्हारी मुक्ति बन सकता है। और तुम अपने सत्य तक अपनी अत्यंत मौन उपस्थिति के द्वारा ही पहुंच सकते हो।
सच्ची समस्याओं के लिए विचार निष्फल हैंव्यर्थ हैंविचार से सच्ची समस्याओं का हल नहीं होगा। लेकिन विचार उन झूठी समस्याओं को जरूर हल कर सकता है जो विचार से ही पैदा हुई हैंक्योंकि झूठी समस्याएं तर्क के नियमों का अनुगमन करती हैं। लेकिन जीवन तर्क के नियमों का अनुगमन नहीं करता है। जीवन के अपने ही गुह्य नियम हैं और तुम उन पर तर्क को नहीं लाद सकते।
इस संबंध में एक बात और। जब भी तुम मन को लाते होमन विश्लेषण करता हैविभाजन करता है। सत्य एक है और मन सदा खंडों में बांटता है। और जैसे ही तुमने सत्य को बांटा कि तुमने उसे झुठला दिया। और फिर तुम जिंदगी भर संघर्ष करते रह सकते हो और कुछ उपलब्ध नहीं होगा। क्योंकि बुनियादी रूप से सत्य एक था और मन ने उसे दो खंडों में बांट दिया,और अब तुम खंडों के साथ काम कर रहे हो।
उदाहरण के लिएमैंने कहा कि जीवन और मृत्यु एक हैं। लेकिन मन के लिए वे दो हैं और मृत्यु जीवन की शत्रु है। लेकिन वस्तुत: मृत्यु जीवन की शत्रु नहीं हैक्योंकि जीवन मृत्यु के बिना नहीं हो सकता। अगर जीवन मृत्यु के बिना नहीं हो सकता तो मृत्यु शत्रु कैसे हो सकती हैमृत्यु बुनियादी स्थिति हैमृत्यु जीवन को संभव बनाती है। जीवन मृत्यु में ही बड़ा होता हैमृत्यु आत्मा हैउसके बिना जीवन असंभव है। लेकिन मनविचार उसे बाटता है और उसे विपरीत छोर के रूप में प्रस्तुत करता है। और तब तुम उसके संबंध में विचार करते रह सकते हो। लेकिन तुम जो भी विचार करोगे वह झूठा होगा;क्योंकि आरंभ में ही तुमसे एक पाप हो गया—विभाजन का पाप।
जब तुम ध्यान में उतरते हो तो विभाजन विलीन हो जाते हैं। जब तुम ध्यान में उतरते हो तो विभाजन संभव ही नहीं हैं। तुम मौन में विभाजन कैसे कर सकते हो?
हम लोग यहां हैं। हरेक व्यक्ति अपने मन में कुछ न कुछ विचार कर रहा है। तब हम लोग अलग—अलग हैंतब प्रत्येक व्यक्ति अलग है। क्योंकि तुम्हारा विचार तुम्हारा विचार है और मेरा विचार मेरा विचार है। मेरे मन में मेरे अपने सपने हैं और तुम्हारे मन में तुम्हारे अपने सपने हैं। तब यहां अनेक व्यक्ति हैं।
लेकिन अगर हम सारे लोग ध्‍यान में हो—न तुम विचार कर रहे हो, न मैं विचार कर रहा हूं विचार करना बंद हो गया है—तो यहां अनेक व्यक्ति नहीं होंगे। सच तो यह है कि तब यहां व्यक्ति ही नहीं होंगे। जब हम सारे लोग ध्यान में हैं तो सीमाएं विलीन हो गई हैं। जब मैं ध्यान में हूं और तुम ध्यान में हो तो हम दो व्यक्ति नहीं हैं। हम दो नहीं रह सकतेक्योंकि दो मौन एक हो जाते हैं। वे दो नहीं रह सकतेक्योंकि तुम एक मौन को दूसरे मौन से अलग कैसे कर सकते होयह नहीं हो सकता है। तुम एक विचार से दूसरे विचार कोएक मन से दूसरे मन को अलग कर सकते होउनके बीच सीमा—रेखा खींच सकते हो। लेकिन दो मौन तो एक ही हैंवे दो शून्यों की भांति हैं। और दो शून्य दो नहीं हैंएक ही हैं। तुम हजार शून्य रख सकते हो,लेकिन वे सब एक हैं।
ध्यान अंतस में शून्य निर्मित करता है—सभी विभाजनसभी सीमाएं विलीन हो जाती हैं। और उससे तुम्हें सच्ची आंख उपलब्ध होती है—तीसरी आंखदर्शन। अब तुम्हारे पास देखने वाली सच्ची आंखें हैं। और इन सच्ची आंखों के लिए सत्यउदघाटित हो जाता हैखुला और प्रकट हो जाता है। और सत्य के प्रकट होते ही कोई समस्या नहीं रह जाती है।

 तीसरा प्रश्न :

खुले निर्मल आकाश को एकटक देखने, प्रज्ञावान सदगुरु के फोटो पर त्राटक करने और अंधकार को अपलक देखने में क्या फर्क है?

 देखने की विधि दरअसल विषय से संबंधित नहीं हैयह देखने से ही संबंधित है। क्योंकि जब तुम किसी चीज को अपलक देखते हो तो तुम्हारी दृष्टि स्थिर हो जाती है। तुम्हारा फोकस एक जगह पर हो जाता है और तुम स्थिर हो जाते हो। और मन का स्वभाव है कि वह सतत चलता रहेसतत गति करता रहे। और अगर तुम सचमुच अपलक देखते होइधर—उधर गति नहीं करतेतो मन निस्संदेह कठिनाई में पड़ेगा। मन की प्रकृति है कि वह एक विषय से दूसरे विषय पर डोलता रहेसतत गति करता रहे।
लेकिन यदि तुम अंधकार परया प्रकाश परया किसी चीज पर त्राटक करते होअगर तुम वास्तव में एकटक देखते हो तो मन की गति बंद हो जाती है। क्योंकि अगर मन गति करता रहे तो तुम एकटक नहीं देख पाओगेतुम अपने लक्ष्य को चूकते रहोगे। जब मन कहीं और चला जाता है तो तुम भूल जाओगेतुम्हें याद नहीं रहेगा कि तुम किसे देख रहे थे। शारीरिक रूप से तो विषय वहा मौजूद रहेगालेकिन तुम्हारे लिए वह खो जाएगा। क्योंकि तुम वहां नहीं होतुम विचार में भटक गए हो।
एकटक देखने कात्राटक का मतलब है अपनी चेतना को गति नहीं करने देनाउसे स्थिर करना। और जब तुम मन को गति नहीं करने देते हो तो वह शुरू—शुरू में संघर्ष करता हैकठिन संघर्ष करता है। लेकिन अगर तुम त्राटक का अभ्यास जारी रखो तो मन धीरे—धीरे संघर्ष छोड़ देता है। तब वह कुछ क्षणों के लिए ठहर जाता है। और जब मन ठहर जाता है तो मननहीं होता है, क्‍योंकि मन केवल गति में हो सकता है, विचार केवल गति में संभव है। जब कोई गति नहीं होती तो विचार विलीन हो जाते हैं। क्योंकि विचार भी गति हैएक विचार से दूसरे विचार पर गति करना है। विचार एक प्रक्रिया है।
यदि तुम किसी एक चीज को निरंतर देखते होपूरे होश से देखते होसावचेत होकर देखते हो. क्योंकि तुम मुर्दा—मुर्दा आंखों से भी देख सकते हो। तब तुम विचार करते रहोगे और तुम्हारी आंखेंमुर्दा आंखें देखती रहेंगीदेखने का बहाना करती रहेंगी। तुम मुर्दा आंखों से देखोगे और तुम्हारा मन यहां—वहां गति करता रहेगा। वह देखना नहीं हैऔर उससे कुछ लाभ नहीं होगा।
देखने का अर्थ है कि तुम्हारी आंखें ही नहींतुम्हारा समग्र मन भी आंखों की राह से किसी विषय पर स्थिर हो गया है। कोई भी विषय हो सकता हैयह तुम पर निर्भर है। अगर तुम्हें प्रकाश पसंद है तो ठीक है। और अगर तुम्हें अंधेरा अच्छा लगता है तो वह भी ठीक है। विषय गौण है। महत्वपूर्ण यह है कि देखने में मन को बिलकुल ठहरा देना हैस्थिर कर देना हैताकि आंतरिक गतिभीतरी उछलकूदहलन—चलनसब बंद हो जाए। तुम सिर्फ देखोकुछ करो मत। वह शात—स्थिर देखना तुम्हें बिलकुल बदल देगा। वह ध्यान बन जाएगा।
यह अच्छा है। तुम इसे प्रयोग कर सकते हो। लेकिन स्मरण रहे कि तुम्हारी आंखें और तुम्हारी चेतना एक साथ होंएक हो जाएं। आंखों से वास्तव में तुम्हें देखना है। तुम्हें वहां उपस्थित रहना हैअनुपस्थित नहीं। तुम्हारी उपस्थिति जरूरी है—समग्र उपस्थिति। और तब तुम विचार नहीं कर सकतेतब विचार करना असंभव है।
लेकिन इसमें एक खतरा है कि तुम मूर्च्‍छित हो जा सकते होतुम नींद में चले जा सकते हो। खुली आंखों से भी संभव है कि तुम सो जाओ। तब तुम्हारी दृष्टि पथरा जाएगी।
आरंभ में यह कठिनाई होगी कि तुम देखोगे और वहां उपस्थित नहीं रहोगे। यह पहली बाधा है। तुम्हारा मन भागता रहेगा। तुम्हारी आंखें तो ठहरी होंगीलेकिन तुम्हारा मन गति करता रहेगा। आंख और मन का मिलना नहीं होगा। यह पहली कठिनाई होगी। और अगर तुम इस कठिनाई पर विजय पा गए तो दूसरी कठिनाई यह होगी कि गति—शून्य देखने में तुम्हें नींद पकड़ लेगी। तुम आत्मसम्मोहन में चले जाओगेतुम स्वयं ही अपने को सम्मोहित कर लोगे। और यह स्वाभाविक है। क्योंकि हमारा मन दो ही अवस्थाएं जानता है. सतत गति या नींद। स्वभावत: मन दो ही अवस्थाओं में रहना जानता है निरंतर गति में,विचार मेंया नींद में।
और ध्यान तीसरी अवस्था है। ध्यान की तीसरी अवस्था का मतलब है कि मन उतना शांत है जितना प्रगाढ़ नींद में वह शात होता है और साथ ही उतना सजग और सावचेत है जितना विचार की अवस्था में होता है। ध्यान में दोनों गुण एक साथ मौजूद रहते हैं। तुम्हें पूरी तरह सजग और सावचेत रहना है और साथ ही साथ गहरी नींद जैसे शात भी रहना है।
इसीलिए पतंजलि का योगसूत्र कहता है कि ध्यान प्रगाढ़ निद्रा की अवस्था जैसा है—सिर्फ इस फर्क के साथ कि तुम सावचेत हो। पतंजलि समाधि की तुलना सुषुप्ति से करते है। दोनों में इतना ही अंतर है कि सुषुप्ति में तुम सजग नहीं हो और ध्यान में तुम सजग हो। लेकिन दोनों में एक समान गुण है. वह है प्रगाढ़ मौननिस्तरंगनिष्कंपनिश्चल मौन।
तो आरंभ में ऐसा हो सकता है कि अपलक देखने से तुम्हें नींद लग जाए। इसलिए जब तुम अपने मन को स्थिर करने में सफल हो जाओ और तुम्हारा मन ठहर जाए तो सजग रहोसो मत जाओ। क्योंकि यदि नींद आ गई तो तुम फिर गड्डे में गिर गएअतल खाई में उतर गए। इन दो खाईयों—सतत विचार ओर नींद—के बीच में ध्‍यान का पतला—सा पुल है।


 चौथा प्रश्न :
आपने कहा कि विज्ञान आब्जेक्टिव के साथ प्रयोग करता है और धर्म सब्जेक्‍टिव के साथ। लेकिन इधर एक नया विकासमान है, जिसका नाम मनोविज्ञान— या ज्यादा उचित होगा कहना गहराई का मनोविज्ञान, डेप्‍थ साइकोलाजी है— जोआब्जेक्‍टिव और सब्जेक्टिव दोनों से संबंधित है। तो क्या इस गहराई के मनोविज्ञान में विज्ञान और धर्म का मिलन होता है?

 वे नहीं मिल सकते हैं। गहराई का मनोविज्ञान या चित्त की गतिविधियों का अध्ययन भी आब्जेक्टिव है। और गहराई के मनोविज्ञान की विधि भी आब्जेक्टिव विज्ञान की विधि है। इस भेद को समझने की कोशिश करो। उदाहरण के लिएतुम ध्यान का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से कर सकते हो। तुम किसी ध्यान करने वाले व्यक्ति का निरीक्षण कर सकते हो। लेकिन यह निरीक्षण तुम्हारे लिए आब्जेक्टिव हो गया। तुम ध्यान करते हो और मैं निरीक्षण करता हूं। यह देखने के लिए कि तुम्हें क्या हो रहा हैतुम्हारे भीतर क्या हो रहा हैमैं सभी वैज्ञानिक यंत्र प्रयोग में ला सकता हूं।
यह अध्ययन आब्जेक्टिव हैमैं खुद प्रयोग के बाहर हूं। मैं ध्यान नहीं कर रहा हूंतुम ध्यान कर रहे हो। तुम मेरे लिएआब्जेक्ट हो। तब मैं यह समझने की चेष्टा कर सकता हूं कि तुम्हें क्या हो रहा है। यंत्रों के द्वारा भी तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता हैलेकिन वह जानकारी आब्जेक्टिव और वैज्ञानिक ही होगी। असल में मैं जो भी अध्ययन करता हूं वह वही नहीं है जो तुम्हें हो रहा हैबल्कि वह तुम्हारे शरीर पर हुआ प्रभाव है।
तुम किसी बुद्ध में प्रवेश करके नहीं देख सकते कि उन्हें क्या हो रहा हैक्योंकि यथार्थत: वहा कुछ भी नहीं हो रहा है। बुद्ध पुरुष का गहनतम केंद्र शून्य हैवह। शून्य घटित हुआ है। और अगर शून्य घटित हुआ है तो तुम उसका अध्ययन कैसे कर सकते होतुम किसी चीज का अध्ययन कर सकते हो। तुम अल्फा तरंगों का अध्ययन कर सकते होमन कोशरीर को,रासायनिक व्यवस्था को क्या हो रहा हैयह तुम समझ सकते हो। लेकिन जब कोई बुद्ध हो जाता है तो वहां उसकी गहराई में कुछ भी नहीं होता हैसब होना समाप्त हो जाता है। संसार समाप्त हो गयायह कहने का यही अर्थ है। अब वहा कोई संसार न रहा,कोई घटना न रही। बुद्ध पुरुष ऐसे होते हैं जैसे नहीं हैं। इसीलिए बुद्ध कहते हैं कि मैं अब अनत्ता हो गया हूंमेरे भीतर कोई भी नहीं हैमैं बस शून्य हूंज्योति बुझ गई है और घर खाली है।
वहा परम शून्य है। तुम उसके संबंध में क्या लिखोगेज्यादा से ज्यादा यही लिख सकते हो कि कुछ नहीं हो रहा है। यदि कुछ हो रहा होता तो उसे आब्जेक्टिव रूप से देखा जा सकता था।
विज्ञान की विधि आब्जेक्टिव है। और विज्ञान सब्जेक्टिव से बहुत भयभीत है—कई कारण से। विज्ञान और वैज्ञानिक चित्‍त सब्‍जेक्‍टिवमें विश्वास नहीं करता है। क्योंकि पहले तो वह निजी हैवैयक्तिक है और उसमें कोई प्रवेश नहीं कर सकता। वह सार्वजनिक और सामूहिक नहीं हो सकता है। और जब तक कोई चीज सार्वजनिक और सामूहिक न होउसके संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता। जो व्यक्ति उसके संबंध में कुछ कह रहा है वह हो सकता है खुद धोखे में होया औरों को धोखा दे रहा हो। वह झूठा हो सकता हैया यदि झूठा न भी हो तो वह स्वयं भ्रमित हो सकता है। वह सोचता होमानता हो कि कुछ हुआ है और हो सकता है यह महज भ्रांति होआत्मवचना हो।
तो विज्ञान के लिए सत्य का आब्जेक्टिव होना जरूरी है। जरूरी है कि दूसरे उसमें भाग ले सकेंताकि हम निर्णय कर सकें कि यह बात सही है या नहीं।
दूसरी बात जरूरी है कि प्रयोग दोहराया जा सकेउसे दोहराने योग्य होना चाहिए। अगर हम पानी को गर्म करते हैं तो वह एक विशेष तापमान पर भाप बन जाता है। यह प्रयोग दोहराया जा सकता है। और हम चाहे जितनी बार भी दोहराएंपानी सदा उसी तापमान पर भाप बनता है। लेकिन यदि पानी एक बार तो सौ डिग्री पर भाप बनता है और फिर नहीं बनताया कभी वह अस्सी डिग्री पर भाप बनता हैतो यह वैज्ञानिक तथ्य नहीं बन सकता है। प्रयोग का दोहराए जाने योग्य होना जरूरी है और यह भी जरूरी है कि हर बार के प्रयोग में एक ही निष्पत्ति हाथ लगे।
लेकिन सब्जेक्टिव उपलब्धि कोवैयक्तिक ज्ञान को दोहराया नहीं जा सकताउसकी भविष्यवाणी भी नहीं हो सकती है। और न तुम उसे बुलावा दे सकते होवह अपने आप घटित होता है। उसके साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती है। संभव है,तुम्हें गहन ध्यान घटित हुआ होतुम्हें आनंद का शिखर— अनुभव हुआ होलेकिन यदि कोई कहे कि फिर करके दिखाओ तो तुम नहीं दिखा सकोगे। इसके विपरीतक्योंकि कोई कहता है और तुम करने का प्रयत्न करते होयह प्रयत्न ही बाधा बन सकता है। यहां तक कि निरीक्षकों की उपस्थिति भी बाधा बन सकती है। तुम प्रयोग को नहीं दोहरा पाओगे।
विज्ञान के लिए आब्जेक्टिव और दोहराने योग्य प्रयोग जरूरी हैं। और मनोविज्ञान कोयदि वह विज्ञान होना चाहता है,वैज्ञानिक नियमों का अनुसरण करना होगा।
धर्म सब्जेक्टिव हैनिजी हैउसे किसी तथ्य को सिद्ध करने की चिंता नहीं है। उसकी एकमात्र फिक्र है कि कैसे वैयक्तिक अनुभव को उपलब्ध हुआ जाए। जो गहनतम है उसे वैयक्तिक रहना चाहिएजो परम है उसे निजी रहना चाहिए। वह सामूहिक नहीं हो सकता है। जब तक सभी लोग बुद्धत्व को न उपलब्ध हो जाएं बुद्धत्व सामूहिक नहीं हो सकता। उसे उपलब्ध होने के लिए तुम्हें विकास करना है।
तो विज्ञान और धर्म वस्तुत: नहीं मिल सकते हैंक्योंकि उनके रास्ते अलग— अलग हैं। धर्म बिलकुल निजी है—वही व्यक्ति स्वयं के साथ संबंधित है। यही कारण है कि अतीत में जो देश अन्य देशों से ज्यादा धार्मिक हुए वे व्यक्तिवादी हो गए। उदाहरण के लिए भारत है।
भारत व्यक्तिवादी देश हैवह यहां तक व्यक्तिवादी है कि स्वार्थी मालूम पड़ता है। हरेक व्यक्ति अपनी ही चिंता करता है,अपने विकास कीअपने बुद्धत्व की चिंता करता है। उसे दूसरों की कोई चिंता नहीं हैवह दूसरों के प्रतिसमाज के प्रति,सामाजिक स्थिति के प्रतिगरीबी और गुलामी के प्रति उदासीन है। हरेक व्यक्ति अपनी फिक्र करता हैस्वयं के शिखर तक उठने की फिक्र करता है। यह बात स्वार्थपूर्ण मालूम पड़ती है।
 पश्‍चिम के देश ज्‍यादा समाजवादी है और कम व्‍यक्‍तिवादी। इसीलिए साम्‍यवाद की धारणा भारतीय चित्त के लिए असंभव हो गई। हमने जगत को बुद्ध और पतंजलि तो दिएलेकिन हम मार्क्स न दे सके। मार्क्स को पश्चिम से आना पड़ाजहां समाजसामूहिक जीवन व्यक्ति से ज्यादा महत्वपूर्ण हैजहां वितान धर्म से ज्यादा महिमावान हैजहां आब्जेक्टिव घटना तुम्हारी बिलकुल निजी घटना से ज्यादा महत्वपूर्ण है। पश्चिम के लिए एकांत में घटित होने वाली चीज स्वप्‍नवत है।
इसे देखो। जो सार्वजनिक रूप से घटित होता है उसे हम माया कहते हैं। शंकर कहते हैं कि सारा जगत माया है। वह जो तुम्हारे अंतरतम में घटित होता हैवही परमवही ब्रह्म सत्य है और शेष सब असत्य है। और पश्चिम की वैज्ञानिक दृष्टि ठीक इसके विपरीत है। उसके अनुसार जो तुम्हारे भीतर घटित होता है वह भ्रांति हैजो बाहर घटित होता है वही सत्य है।
ये दो दृष्टियां इतनी भिन्न हैं और उनके रास्ते इतने विपरीत हैं कि उनका मिलन नहीं हो सकता है। और उसकी जरूरत भी नहीं है। उनके आयाम अलग— अलग हैंउनके क्षेत्र अलग—अलग हैं। वे एक—दूसरे के क्षेत्र में बाधा नहीं देते हैंउनमें कोई विरोध नहीं है। विरोध की कोई जरूरत नहीं है। विज्ञान आब्जेक्टिव जगत के साथ काम करता है और धर्म वैयक्तिकनिजी,सब्जेक्टिव जगत के साथ काम करता है। वे एक—दूसरे के क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करते हैंउनमें संघर्ष की कोई संभावना ही नहीं है।
और मेरी दृष्टि यह है कि जब तुम बाहरी दुनिया के साथ काम कर रहे हो तो तुम्हें वैज्ञानिक रुझान से काम करना चाहिए और जब तुम अपने पर काम कर रहे हो तो तुम्हें धार्मिक रुझान से काम करना उचित है। और दोनों के बीच कोई विरोधकोई संघर्ष मत पैदा करो। उसकी कोई जरूरत नहीं है। अंतस के जगत में विज्ञान को मत ले जाओ और वैसे ही बाहर के जगत में धर्म को मत ले जाओ।
अगर तुम बाहर के जगत में धर्म को ले जाओगे तो तुम अराजकता पैदा करोगे। भारत में हमने यही किया हैपूरा गड़बड़—घोटाला हो गया है। और अगर तुम आंतरिक जगत में विज्ञान को ले जाओगे तो तुम विक्षिप्तता पैदा करोगेपश्चिम ने यही किया है। अब पश्चिम पूरी तरह विक्षिप्त हो रहा है। और दोनों ने एक ही भूल की है।
तो दोनों को गडुमडु मत करोन बाह्य में अंतस को घुसाओ और न अंतस में बाह्य को। सब्जेक्टिव को सब्जेक्टिव रहने दो और आब्जेक्टिव को आब्जेक्टिव। और जब तुम बाहर जाओ तो वैज्ञानिक और आब्जेक्टिव रहो और जब अंदर प्रवेश करो तो धार्मिक और सब्जेक्टिव होओ। कोई विरोध पैदा करने की जरूरत नहीं है—बिलकुल नहीं।
संघर्ष तब खड़ा होता है जब हम दोनों आयामों पर एक ही दृष्टि को थोपने की कोशिश करते हैं। हम पूरी तरह वैज्ञानिक होना चाहते हैं या पूरी तरह धार्मिक। यह गलत है; आब्जेक्टिव जगत में धार्मिक दृष्टिकोण से चलना या सब्जेक्टिव जगत में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना भूल भरा हैखतरनाक हैहानिकारक है।

पांचवां प्रश्न :

 आपने अनेक उपायों और विधियों की चर्चा की है। उन्हें सफल्लापूवर्क पूरा करने की हममें बहुत उत्कंठा है। हम अपने अति अधैर्य को कैसे वश में करें?

 हां दो बातें स्मरण रखने जैसी हैं। एक कि अध्यात्म हमारी कामना का फल नहीं हो सकताक्योंकि कामना ही हमारी सब चिंता और संताप का मूल कारण है। और तुम अपनी कामनाओं को आध्यात्मिक जगत में नहीं ला सकते हो।
लेकिन यह होता है। और यह स्वाभाविक है। क्योंकि हम एक ही यात्रा से परिचित है—वह है कामना की यात्रा। हम सांसारिक चीजों की कामना करते हैं। कोई धन चाहता हैकोई यश चाहता हैकोई पद—प्रतिष्ठा चाहता हैकोई कुछ चाहता है। हम संसार की चीजों की कामना करते हैं और इस तरह की कामनाओं से हमें निराशा हाथ लगती है।
और निराशा ही हाथ लगने वाली हैहमारी कामना पूरी होती है या नहींयह अप्रासंगिक है। अगर कामना पूरी नहीं होती है तब तो जाहिर है कि हम दुखी होंगे। लेकिन अगर कामना पूरी हो जाती है तो भी हम दुखी होंगे। क्योंकि जब कोई कामना पूरी होती है तो कामना तो पूरी होती हैलेकिन आश्वासन नहीं पूरा होता है। तुम्हें मन चाहा धन मिल सकता हैलेकिन वस्तुत: धन नहीं चाहा गया थाधन के द्वारा कुछ और ही चाहा गया था। और वह कभी पूरा नहीं होता है। तुम धन तो पा सकते हो,लेकिन तुमने धन के इर्द—गिर्द जो आशा पाली थी—सुख की आशाआनंद की आशामहासुख की आशा—वह आशा पूरी नहीं होती है। इसलिए धन न मिलने पर भी तुम दुखी होते हो और धन मिलने पर भी तुम दुखी होते हो। सब कुछ हैसब साधन हाथ में हैंलेकिन साध्य हाथ से निकल गया है। साध्य सदा छूट—छूट जाता है। इसलिए कामना की राह में एक गहन निराशा अनिवार्य है।
और जब यह गहन निराशा तुम्हें पकड़ती है तो तुम्हारी नजर इस संसार से सर्वथा भिन्न चीज की तरफ उठती है। तब एक धार्मिक कामना पैदा होती हैएक धार्मिक चाह का जन्म होता है। लेकिन तुम फिर कामना करने लगते हो। और तुम फिर बेचैन होने लगते होतुम यह पाना चाहते होवह पाना चाहते हो। तो मन नहीं बदलाकामना का विषय बदल गया। पहले तुम धन चाहते थेअब ध्यान चाहते हो। पहले पद—प्रतिष्ठा की खोज थीअब मौन और शांति की खोज है। पहले कुछ चाहते थेअब कुछ और चाहते हो। लेकिन मन और मन की व्यवस्थातुम्हारे होने का ढंगसब वही का वही है। पहले तुम क चाहते थेअब ख चाह रहे होलेकिन चाहना जारी हैकामना जारी है।
और कामना समस्या हैयह समस्या नहीं है कि तुम क्या चाहते हो। तुम क्या चाहते हो यह समस्या नहीं हैसमस्या यह है कि तुम चाहते होतुम फिर कामना कर रहे हो। और तुम्हें फिर निराशा हाथ लगेगीदुख हाथ लगेगा। तुम असफल होंगे तो दुखी होगेतुम सफल होंगे तो भी दुखी होगे। वही बात फिर—फिर होगीक्योंकि तुम असली बात नहीं समझेतुम असली बात ही चूक गए।
तुम ध्यान को नहीं चाह सकतेक्योंकि ध्यान तभी घटित होता है जब कोई चाह नहीं रहती। तुम मोक्ष कीनिर्वाण की कामना नहीं कर सकतेक्योंकि मोक्ष या निर्वाण केवल निष्काम अवस्था में घटित होता हैउसे कामना का विषय नहीं बनाया जा सकता है।
इसलिए मेरे देखे—और उन सबके देखे जो जानते हैं—कामना करना ही संसार हैचाहना ही संसार है। ऐसा नहीं है कि तुम सांसारिक चीजें चाहते होनहींचाहना ही संसार हैकामना ही संसार है।
और जब तुम कामना करते हो तो अधैर्य अनिवार्य है। क्योंकि मन प्रतीक्षा करना नहीं चाहता हैमन स्थगित करना नहीं चाहता है। मन अधीर है। अधैर्य कामना की छाया है। कामना जितनी तीव्र होगीउतना ही अधैर्य होगा। और अधैर्य से अशांति पैदा होगी। तब तुम ध्यान को कैसे उपलब्ध होगेकामना से मन गतिमान होता है और कामना से अधैर्य पैदा होता है। और अधैर्य से अधिक अशांति आती है।
ऐसा होता है और यह मैं रोज—रोज देखता हूं। एक आदमी सांसारिक जीवन में था और उतना अशांत नहीं था। लेकिन वह जब ध्यान शुरू करता हैया धार्मिक आयाम में गति शुरू करता है तो वह ज्यादा अशांत हो जाता है—जितना कि वह पहले कभी नहीं था। क्योंकि अब उसकी कामना पहले से ज्यादा है और उसका अधैर्य अधिक है। और संसार की चीजें इतनी ठोस और वास्तविक थीं कि वह उनकी प्रतीक्षा कर सकता था। वे सदा उसकी पहुंच के भीतर थीं। अब अध्यात्म के जगत में चीजें इतनी अदृश्य हैंइतनी सूक्ष्म हैंदूर की हैंकि वे कभी उसकी पहुंच के भीतर नहीं लगती हैं। जिंदगी बहुत छोटी मालूम पड़ती है और कामना के विषय अनंत मालूम पड़ते हैं। इससे और अधिक अधैर्यऔर अधिक अशांति पैदा होती है। और अशांत मन से तुम ध्यान कैसे करोगे?
यही उलझन है। इसे समझने की कोशिश करो। अगर तुम वास्तव में निराश होदुखी होअगर तुम समझते हो कि बाहर की सारी चीजें व्यर्थ हैं—धनकामवासनापद—प्रतिष्ठासब व्यर्थ हैं—अगर तुम्हें यह बोध हुआ हैतो अब तुम्हें उससे भी एक गहरी बात समझने की जरूरत है। अगर ये चीजें व्यर्थ हैं तो कामना करना और भी व्यर्थ है। तुम कामना करते रहते हो और कुछ भी नहीं होता है। कामना से दुख ही निर्मित होता है।
इस तथ्य को देखो कि कामना से दुख निर्मित होता है। और अगर तुम कामना न करो तो कोई दुख नहीं है। तो कामना को छोड़ो! और नई कामना मत निर्मित करो। बस कामना करना छोड़ दो। कोई आध्यात्मिक कामना मत पैदा करोमत कहो कि अब मैं ईश्वर को खोजने निकला हूं कि मैं यह पाना चाहता हूं, वह पाना चाहता हूं, कि मैं सत्य को उपलब्ध होना चाहता हूं। नई कामना मत निर्मित करो।
अगर तुम नई कामना निर्मित करते हो तो उसका अर्थ है कि तुमने अपने दुख को नहीं समझा। उस दुख को देखो जो कामना से पैदा होता है। समझो कि कामना दुख है और उसे गिरा दोछोड़ दो। उसे छोड़ने के लिए किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं है।
स्मरण रहेअगर तुम प्रयत्न करोगे तो तुम दूसरी कामना निर्मित कर लोगे। तुम कोई दूसरी कामना इसीलिए तो खोजते हो ताकि उसे पकड कर इसे छोड़ सको। अगर दूसरी कामना होगी तो तुम उसका सहारा पकड़ लोगे। तब तुम नई कामना से चिपक जाओगे और पुरानी को छोड़ दोगे। अगर कोई नई कामना मिलती हो तो पुरानी को छोड़ना आसान है। लेकिन तब तुम पूरी बात ही चूक गए।
कामना मात्र को छोड़ो और नई कामना मत निर्मित करो। और तब कोई अधैर्य नहीं होगा। तब तुम्हें ध्यान साधना नहीं पड़ेगाध्यान तुम्हें घटित होने लगेगा। क्योंकि निष्काम चित्त ध्यान में होता है। और तब तुम इन विधियों के साथ खेल सकते हो। मैं इसे खेल कहता हूं। तब तुम इन विधियों के साथ खेल सकते हो। तब यह साधना नहीं हैअभ्यास नहीं है। अभ्यास शब्द ठीक नहीं हैयह शब्द ही गलत है। तब तुम इन विधियों के साथ खेल सकते होतुम उनका आनंद ले सकते हो। क्योंकि अब कुछ पाने की कामना नहीं हैअब कहीं पहुंचने का अधैर्य नहीं है।
तुम खेल सकते होऔर खेल से—जब ध्यान खेल हो जाता है—सब संभव है। और सब तुरंत संभव होता हैक्योंकि तुम अशांत नहीं होबेचैन नहीं होतुम जल्दी में नहीं होतुम्हें कहीं जाना नहीं हैकहीं पहुंचना नहीं है। तुम यहीं और अभी हो। ध्यान हो तो ठीकन हो तो ठीक। अब तुममें कुछ गलत नहीं हैक्योंकि कोई कामना नहीं हैअपेक्षा नहीं है भविष्य नहीं है। और ध्यान रहेजब ध्यान और गैर— ध्यान तुम्हारे लिए समान हैं तो यही ध्यान हैतुम पहुंच गए। मंजिल आ गईपरम का आविर्भाव हुआ।
यह अजीब मालूम पड़ेगा कि मैं कहता हूं कि ध्यान को साधना मत बनाओ। खेल बनाओउसे हंसी—खेल समझो और किसी फल के लिए नहींउसे करने में ही उसका सुख लो। हमारा मन बहुत गंभीर हैअत्यंत गंभीर है। अगर हम खेलते भी हैं तो उसे गंभीर चीज बना लेते हैंहम खेल को भी काम बना लेते हैंकर्तव्य बना लेते हैं। छोटे बच्चों की तरह खेलो। ध्यान की विधियों के साथ खेलो। और तब उनसे बहुत कुछ संभव है। उन्हें गंभीरता से मत लोउन्हें हंसी—खेल समझो।
लेकिन हम तो सब चीजों को गंभीर बना लेते हैं। हम तो खेल को भी गंभीर बना लेते हैं। और धर्म के साथ तो हम सदा से गंभीर रहे हैं। हमने धर्म को कभी हंसी—खेल की तरह नहीं लिया। और यही कारण है कि पृथ्वी अधार्मिक बनी रही। धर्म को हंसी—खेल बनाना हैआनंद बनाना हैउत्सव बनाना है। इसी क्षण को उत्सव बनाना हैतुम जो भी कर रहे हो उसका आनंद लेना है—इतना आनंद लेना हैइतना गहन आनंद लेना है कि मन समाप्त हो जाए।
अगर तुम मुझे ठीक से समझो तो ये एक सौ बारह विधियां बताएंगी कि प्रत्येक चीज विधि बन सकती है। अगर तुम मुझे वस्तुत: समझते हो तो यह हो सकता है। इसीलिए तो एक सौ बारह विधियां हैं। अगर तुम उस चित्त की गुणवत्ता को समझो जिसमें ध्यान होता है तो प्रत्येक चीज विधि बन सकती है। उसके साथ खेलोउसे उत्सव बनाओउसका आनंद लो। उसमें इतने गहरे उतरो कि समय समाप्त हो जाए।
लेकिन यदि कामना हैचाह हैतो समय समाप्त नहीं हो सकता। सच तो यह है कि कामना ही समय है। जब तुम कुछ कामना करते हो तो उसके लिए भविष्य जरूरी हैक्योंकि कामना यहीं और अभी पूरी नहीं हो सकती है। कामना भविष्य में ही पूरी हो सकती है। इसलिए कामना को गति करने के लिए भविष्य की जरूरत होती है। और तब समय तुम्हें नष्ट कर देता है,तुम शाश्वत से वंचित रह जाते हो। शाश्वत अभी और यहीं है।
तो ध्यान को हंसी—खेल की तरह लोउसे आनंद और उत्सव बनाओ। और किसी भी चीज को उत्सव बनाया जा सकता है। तुम बाहर बगीचे में गड्डा खोद रहे हो—यही चीज विधि बन सकती है। सिर्फ खोदो और खोदने के कृत्य को उत्सव बनाओ,उसका आनंद लो। पूरी तरह कृत्य ही बन जाओ और कर्ता को भूल जाओ। कोई 'मैंनहीं हैकृत्य ही है। और तुम कृत्य में डूबे होआनंदपूर्वक डूबे हो। तब समाधि है—कोई अधैर्य नहींकोई कामना नहीं और कोई प्रयोजन नहीं।
यदि तुम ध्यान में प्रयोजनकामना और अधैर्य को जोड़ोगे तो तुम सब नष्ट कर दोगे। और तब तुम जितना करोगे,उतनी ही निराशा होगी। तुम कहोगे कि मैं इतना कर रहा हूं और कुछ नहीं होता है। लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं. 'मैं यह कर रहा हूंमैं वह कर रहा हूं और इतने महीनों से कर रहा हूं इतने वर्षों से कर रहा हूंऔर कुछ नहीं हो रहा है!'
एक साधक यहां हालैंड से आया था। वह एक विधि का प्रयोग दिन में तीन सौ बार करता था। उसने मुझसे कहा. 'दो वर्षों से मैं प्रति दिन यह विधि तीन सौ दफे कर रहा हूं। एक दिन की भी चूक नहीं हुई है। मैंने सब छोड़ दिया हैक्योंकि मुझे यह विधि तीन सौ बार करनी है। और कुछ नहीं हुआ!और इस कठिन साधना के कारण वह साधक विक्षिप्तता के कगार पर आ खडाहुआ था।
मैंने उससे कहा : 'पहली तो बात कि तुम इसे छोड़ दो। और जो कुछ करना चाहो करोलेकिन इस विधि को मत करो। अन्यथा तुम पागल हो जाओगे।
उसने इस विधि को अत्यंत गंभीरता से लिया हुआ था। यह उसके लिए जीवन—मरण का सवाल था। चाहे जैसे हो उसे यह हासिल करना था। और उसने कहा. 'कौन जानता है कि मेरे कितने दिन बचे हैंसमय कम है और मुझे यह इसी जन्म में हासिल कर लेना है। मैं पुन: जन्म लेना नहीं चाहताजीवन ऐसा संताप है!वह फिर—फिर जन्म लेगा। और जिस ढंग से वह प्रयोग कर रहा है वह और—और पागल होता जाएगा।
लेकिन यह गलत है। पूरी दृष्टि ही गलत है। ध्यान को खेल की तरह लोउसे हंसी—खेल समझो और उसका आनंद लो। और तब उसकी गुणवत्ता ही बदल जाती है। तब तुम उसका उपयोग किसी साध्य के लिए साधन की तरह नहीं कर रहे हो। नहीं,तुम यहीं और अभी उसका आनंद ले रहे हो। तब यही साधन है और यही साध्य है। यही आरंभ है और यही अंत है।
और तब तुम ध्यान से वंचित नहीं रहोगे। तब तुम इसे नहीं चूक सकतेध्यान तुम्हें घटित होगा। क्योंकि अब तुम उसके लिए तैयार होतुम खुले हुए हो। किसी ने नहीं कहा है कि ध्यान को खेल की तरह लोलेकिन मैं कहता हूं इसे खेल की तरह लो। छोटे बच्चों की भांति इसके साथ खेलो।

 अंतिम प्रश्न :

उस दिन आपने कहा कि अस्तित्व में अंधकार प्रकाश से ज्यादा बुनियादी है जब कि अधिकांश धर्मों का खयाल ठीक इसके विपरीत है। क्या आप इस पर, विशेषकर इसके प्रति आधुनिक विज्ञान की दृष्टि को ध्यान में रखकर, कुछ और प्रकाश डालने की कृपा करेंगेक्या आधुनिक विज्ञान यह नहीं कहता है कि पदार्थ के अंतिम विभाज्य घटक विद्यत—ऊर्जा मात्र हैं?

फिर वही विभाजन: प्रकाश और अंधेरा। वे दो हैंअगर तुम मन से देखते हो। और अगर तुम उन पर ध्यान करते हो तो एक है। और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम प्रकाश पर ध्यान करते हो या अंधकार पर। अगर तुम ध्यान करते हो तो वे एक ही घटना के दो छोर हैं। तब प्रकाश कम अंधकार है और अंधकार कम प्रकाश है। अंतर केवल मात्राओं का है। वे एक—दूसरे के विपरीत दो चीजें नहीं हैंबल्कि वे एक ही तत्व कीएक ही घटना की भिन्न—भिन्न मात्राएं हैंअवस्थाएं हैं।
और वह तत्व न प्रकाश है और न अंधकार। वह एकजिसकी ये दोनों मात्राएं हैंन प्रकाश है और न अंधकार है—या वह दोनों है। और तुम उसमें प्रकाश से भी प्रवेश कर सकते होतुम उसमें अंधकार से भी प्रवेश कर सकते हो। यह तुम पर निर्भर है।
अनेक धर्मों ने प्रकाश का उपयोग किया हैक्योंकि वह ज्यादा सुगम हैज्यादा सरल है। अंधकार कठिन है और दुर्गम है। अगर तुम अंधकार के द्वार से प्रवेश करने की कोशिश में हो तो तुम कठिन मार्ग का चुनाव कर रहे हो। इसीलिए अनेक धर्मों ने प्रकाश को चुना है। लेकिन तुम दोनों में से किसी को भी चुन सकते हो। यह तुम पर निर्भर है।
अगर तुम दुस्साहसी हो और चुनौतियों से घबराते नहीं तो अंधेरे को चुनो। अगर तुम कमजोर हो और कठिन रास्ते पर नहीं जाना चाहते हो तो प्रकाश को चुनो। क्योंकि दोनों एक ही तत्व के दो पहलू हैं जो कहीं प्रकाश की तरह दिखाई पड़ता है और कहीं अंधकार की तरह दिखाई पड़ता है।
उदाहरण के लिएयह कमरा प्रकाश से भरा हैलेकिन यह प्रकाश हरेक व्यक्ति के लिए एक जैसा नहीं हैया कि है?अगर मेरी आंखें कमजोर हैं तो मेरे लिए वैसा ही प्रकाश नहीं है जैसा तुम्हारे लिए है। मुझे वह थोड़ा धुंधला मालूम पड़ता है। मान लो कि मंगल ग्रह सेया किसी अन्य ग्रह से कोई व्यक्ति यहां आता है और उसकी आंखें ज्यादा बेधक हैं। तो जहां तुम्हें प्रकाश दिखाई पड़ता है वहीं उसे बहुत तीव्र प्रकाशबहुत ज्यादा प्रकाश दिखाई पड़ेगा। और जहां तुम्हें अंधकार दिखाई पड़ता है वहां उसे प्रकाश दिखाई पड़ेगा।
ऐसे पशु—पक्षी हैं जिन्हें रात में दिखाई पड़ता है जब तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता है। उनके लिए जो प्रकाश है तुम्हारे लिए वह अंधेरा है। तो प्रकाश क्या हैऔर अंधकार क्या है?
दोनों एक ही तत्व हैं—एक ही घटना हैं। और तुम उसमें कितना प्रवेश कर सकते हो और वह तुममें कितना प्रवेश कर सकता हैउस प्रवेश पर निर्भर है कि तुम उसे प्रकाश कहते हो या अंधकार। ये ध्रुवीय विपरीतताए विपरीत दिखाई भर पड़ती हैं,वे विपरीत हैं नहीं। वे एक ही घटना की सापेक्ष मात्राएं हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि पदार्थ के अंतिम विभाज्य घटक विद्युत—ऊर्जा मात्र हैं। लेकिन वे यह नहीं कहते हैं कि वे प्रकाश हैं;वे उन्हें विद्युत—ऊर्जा कहते हैं। अंधकार भी विद्युत—ऊर्जा है और प्रकाश भी विद्युत—ऊर्जा है। विद्युत—ऊर्जा प्रकाश का पर्यायवाची नहीं है। अगर तुम उसे विद्युत—ऊर्जा नाम देते हो तो उसकी एक अभिव्यक्ति प्रकाश है और उसकी दूसरी अभिव्यक्ति अंधकार है। लेकिन इस संबंध में वैज्ञानिक बहस में पड़ने की जरूरत नहीं हैवह व्यर्थ है।
अच्छा है कि अपने मन में विचार करो कि तुम्हें क्या पसंद है। अगर तुम्हें प्रकाश भाता है तो प्रकाश से प्रवेश करो। वह तुम्हारा द्वार है। और अगर तुम्हें अंधकार के साथ अच्छा लगता है
तो अंधकार से प्रवेश करो। और दोनों तुम्हें एक ही मंजिल पर पहुंचा देंगे।
इन एक सौ बारह विधियों में अनेक विधियां हैं जो प्रकाश से संबंध रखती है और थोड़ी सी विधियां हैं जो अंधकार से संबंधित हैं। और शिव सभी संभव विधियों की चर्चा कर रहे है। शिव किन्‍हीं विशेष तरह के लोगों से नहीं बात कर रहे है; वे सभी तरह के लोगों से बात कर रहे हैं। निश्चित ही कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अंधकार से प्रवेश करना पसंद करेंगे। उदाहरण के लिए,स्त्रैण चित्त के लोगनिष्‍क्रिय और भावुक चित्त के लोग अंधकार के द्वार से प्रवेश करना पसंद करेंगे। उन्हें अंधकार अधिक पसंद होगा। और पुरुष चित्त प्रकाश को ज्यादा पसंद करेगा।
तुमने शायद इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया होगा कि अतीत के और वर्तमान के अनेक कवियों और दार्शनिकों नेजिन्हें मनुष्य—मन की अच्छी परख हैस्त्री की तुलना अंधकार से की है और पुरुष की तुलना प्रकाश से की है। प्रकाश आक्रामक है—पुरुष—तत्व। अंधकार ग्राहक है—स्त्री—तत्व। अंधकार गर्भ जैसा है।
तो चुनाव तुम पर निर्भर है। अगर तुम्हें अंधकार पसंद है तो ठीक हैउससे ही प्रवेश करो। और अगर तुम्हें प्रकाश पसंद है तो भी ठीक हैप्रकाश से प्रवेश करो। और कभी—कभी विरोधी तत्व भी आकर्षित करता है। तुम उसे भी प्रयोग कर सकते हो। किसी के प्रयोग में कोई खतरा नहीं हैक्योंकि प्रत्येक मार्ग एक ही मंजिल पर पहुंचा देता है।
लेकिन इस संबंध में सोच—विचार ही मत करते रहो। समय नष्ट न करोप्रयोग करो। क्योंकि तुम जिंदगी भर इसी सोच—विचार में पड़े रह सकते हो कि कौन विधि रास आएगीकि क्या किया जाए और क्या न किया जाएकि क्यों इतने अधिक धर्मों ने प्रकाश पर जोर दिया और इतने कम धर्मों ने अंधकार पर जोर दिया। इन बातों की चिंता में मत पडीउससे कुछ लाभ नहीं होगा। अच्छा है कि तुम अपनी पसंद पर विचार करो। विचार करो कि मुझे क्या रास आएगामुझे क्या सुविधाजनक रहेगा। और फिर प्रयोग शुरू कर दो।
और शेष सब विधियों को भूल जाओ। क्योंकि ये सभी एक सौ बारह विधियां तुम्हारे लिए नहीं हैं। अगर तुम अपने लिए एक भी विधि चुन सके तो पर्याप्त है। तुम्हें सभी एक सौ बारह विधियों से गुजरने की जरूरत नहीं है। एक विधि पर्याप्त है। सिर्फ इतना सजग और बोधपूर्ण होने की जरूरत है कि तुम उस विधि को पहचान सको जो तुम्हारे लिए अनुकूल है। अन्य सभी विधियों और उपायों की झंझट में मत पड़ोवह व्यर्थ है।
एक विधि को चुन लो और उसके साथ खेलपूर्ण ढंग से प्रयोग करो। अगर तुम्हें अच्छा लगे और लगे कि कुछ हो रहा है तो उसमें गहरे जाओ और शेष एक सौ ग्यारह को भूल जाओ। और अगर तुम्हें लगे कि मैंने गलत विधि चुनी है तो उसे छोड़ दो और दूसरी विधि चुनो। और तब उससे खेलो। अगर तुम इस तरह चारपांच या छह विधियों का प्रयोग करोगे तो सही विधि तुम्हारे हाथ आ जाएगी। लेकिन गंभीर मत होओ—बस खेलो।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

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