संभोग से समाधि की और—27
प्रेम ओर विवाह--

न तो प्रार्थनाएं परमात्मा तक पहुंचा सकती है। न धर्म शास्त्र पहुंचा सकते है। न मंदिर मस्जिद पहुंचा सकते है। न कोई हिंदू और न मुसलमानों के, ईसाइयों के, पारसियों के संगठन पहुंचा सकते है।
मंदिर और मस्जिद तो प्रेम की ज्योति को बुझाने का काम करते है। जिन्हें हम धर्मगुरू कहते है। वे मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने के लिए जहर फैलाते है। जिन्हें हम धर्मशास्त्र कहते है, वे घृणा और हिंसा के आधार और माध्यम बन गये है।
जो प्रेम परमात्मा तक पहुंचा सकता था, वह अत्यंत उपेक्षित होकर जीवन के रास्ते के किनारे अंधेरे में कहीं पडा रह गया। इसलिए पाँच हजार वर्षों से आदमी प्रार्थनाएं कर रहा है। भजन पूजन कर रहा है। मसजिदों और मंदिरों की मूर्तियों के सामने सिर टेक रहा है। लेकिन परमात्मा की कोई झलक मनुष्यता को उपलब्ध नहीं हो सकी। परमात्मा की कोई किरण मनुष्य के भीतर अवतरित नहीं हो सकी। कोरी प्रार्थनाएं हाथ में रह गयी है और आदमी रोज नीचे गिरता गया है। और रोज-रोज अंधेरे में भटकता गया है। आनंद के केवल सपने हाथ में रह गये है। सच्चाइयाँ अत्यंत दुःख पूर्ण होती चली गयी है। आज तो आदमी करीब-करीब ऐसी जगह खड़ा हो गया है, जहां उसे ख्याल भी लाना असंभव होता जा रहा है कि परमात्मा भी हो सकता है।
क्या आपने कभी सोचा है कि यह घटना कैसे घट गयी है? क्या नास्तिक इसके लिए जिम्मेदार है? या कि लोगों की आकांक्षाओं और अभीप्साएं परमात्मा की दिशा की तरफ जाना बंद हो गयी है। क्या वैज्ञानिक ओर भौतिकवादी लोगो ने परमात्मा के द्वार बंद कर दिये है?
नहीं परमात्मा के द्वार इसलिए बंद हो गये है कि परमात्मा का ही द्वार था—प्रेम और उस प्रेम की तरफ हमारा कोई ध्यान ही नहीं गया है। और भी अजीब और कठिन और आश्चर्य की बात यह हो गयी है कि तथाकथित धार्मिक लोगों ने मिल-जुलकर प्रेम की हत्या कर दी और मनुष्य को जीवन में इस भांति सुव्यवस्थित करने की कोशिश की गयी है कि उसमें प्रेम की किरण की संभावना ही न रह जाये।
प्रेम के अतिरिक्त मुझे कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता है। जो प्रभु तक पहुंच सकता है। और इतने लोग जो वंचित हो गये है, प्रभु तक पहुंचने से वह इसीलिए कि वे प्रेम तक पहुंचने से ही वंचित रह रहे है।
समाज की पूरी व्यवस्था अप्रेम की व्यवस्था है। परिवार का पूरा का पूरा केंद्र.....अप्रेम केंद्र है। बच्चे के गर्भाधान,कंसेप्शन से लेकर उसकी मृत्यु तक सारी यात्रा अप्रेम की यात्रा है। और हम इसी समाज को इसी परिवार को इसी गृहस्थी को सम्मान दिये जाते है। अदब दिये जाते है। शोरगुल मचाये चले जाते है कि बड़ा पवित्र परिवार है, बड़ा पवित्र समाज है। बड़ा पवित्र जीवन है। यही परिवार और यही समाज और यही सभ्यता जिसके गुणगान करते हम थकते नहीं है। मनुष्य को प्रेम से रोकने का कारण बन रहा है।
इस बात को थोड़ा समझ लेना जरूरी होगा। मनुष्यता के विकास में कहीं कोई बुनियादी भूल हो गयी है। यह सवाल नहीं है कि एकाध आदमी ईश्वर को पा ले। कोई कृष्ण,कोई राम, कोई बुद्ध,कोई क्राइस्ट ईश्वर को उपलब्ध हो जाये। यह कोई सवाल नही है। अरबों-खरबों लोगों में अगर एक आदमी में ज्योति उतर भी आती हो तो यह कोई विचार करने की बात नहीं है। इसमें तो कोई हिसाब रखने की जरूरत भी नहीं है।
एक माली एक बग़ीचा लगाता है। उसने दस करोड़ पौधे उस बग़ीचे में लगाये है। और एक पौधे में एक अच्छा सा फूल आ जाये। तो माली की प्रशंसा करने कौन जायेगा। कौन कहेगा कि माली तू बहुत कुशल है। तूने जो बग़ीचा लगाया है। वह बहुत अद्भुत हे। देख दस करोड़ वृक्षों में एक फूल खिल गया है। हम कहेंगे यह माली की कुशलता का सबूत है। एक फूल खिल जाना।
माली की भूल चूक से खिल गया होगा। क्योंकि बाकी सारे पेड़ खबर दे रहे है कि माली में कितना कौशल है। यह फूल माली के बावजूद खिल गया होगा। माली ने कोशिश की होगी कि न खिल पाये; क्योंकि बाकी सारे पौधे तो खबर दे रहे हे कि माली के फूल कैसे खिले है।
खरबों लोगों के बीच कोई एकाध आदमी के जीवन में ज्योति जल जाती है। और हम उसी को शोरगुल मचाते रहते है हजारों सालों ते पूजा करते रहते है उसी के मंदिर बनाते रहते है। उसी का गुण गान करते रहते है। अब तक हम रामलीला कर रहे है। अब तक हम बुद्ध की जयंती मना रहे है। अब तक महावीर की पूजा कर रहे है। अब तक क्राइस्ट के सामने घुटने टेक रहे है। यह किस बात का सबूत है?
यह इस बात का सबूत है कि पाँच हजार साल में पाँच छह आदमियों के अतिरिक्त आदमियत के जीवन में परमात्मा का कोई संपर्क नहीं हो सकता है। नहीं तो कभी के हम भूल गये होते राम को कभी के भूल गये होत बुद्ध को, कभी के भूल गये होते महावीर को।
महावीर को हुए ढ़ाई हजार साल हो गये है। ढ़ाई हजार साल में कोई आदमी नहीं हुआ कि महावीर को हम भूल सकते। महावीर को याद रखना पडा। वह एक फूल खिला था, जिसे अब तक हमें याद रखना पड़ता है। यह कोई गौरव की बात नहीं है। कि हमें अब तक स्मृति है बुद्ध की, महावीर की, क्राइस्ट की, मुहम्मद की, या जरथुत्त्स की। यह इस बात का सबूत है कि और आदमी होते ही नहीं कि उनको हम भूल सकें। बस दो चार इने-गिने नाम अटके रह गये है मनुष्य जाति की स्मृति में।
और इन नामों के साथ हमने क्या किया। सिवाय उपद्रव के, हिंसा के। और उनकी पूजा करने वाले लोगों ने क्या किया है सिवाय आदमी के जीवन को नर्क बनाने के। मंदिरों और मसजिदों के पुजारी यों और पूजकों ने जमीन पर जितनी हत्याएँ की है। और जितना खून बहाया है। और जीवन का जीतना अहित किया है। उतना किसी ने कभी नहीं किया है। जरूर कहीं कोई बुनियादी भूल हो गयी है। नहीं तो इतने पौधे लगें और फूल न आयें। यह बड़े आश्चर्य की बात है। कहीं भूल जरूर हो गयी है।
मेरी दृष्टि में प्रेम अब तक मनुष्य के जीवन का केंद्र नहीं बनाया जा सका है। इसीलिए भूल हो गयी है। और प्रेम केंद्र बनेगा। भी नहीं। क्योंकि जिन चीजों के कारण प्रेम जीवन का केंद्र बन रहा है, हम उन्हीं चीजों का शोरगुल मचा रहे है। आदर कर रहे है। सम्मान कर रहे है, उन्हीं चीजों को बढ़ावा दे रहे है।
मनुष्य की जन्म से लेकिर मृत्यु तक की यात्रा की गलत हो गयी है। इसी पर पुनर्विचार करना चाहिए। अन्यथा सिर्फ हम कामनाए कर सकते है और कुछ भी उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्या आपको कभी ये बात ख्याल में आयी है कि आपका परिवार प्रेम का शत्रु है? क्या कभी आपको यह बात ख्याल में आई है। कि आपका समाज प्रेम का शत्रु है। क्या कभी आपको यह बात ख्याल में आई है कि मनु से लेकर आज तक के सभी नीति कार प्रेम के विरोधी है।
जीवन का केंद्र है—परिवार। और परिवार विवाह पर खड़ा है। जबकि परिवार प्रेम पर खड़ा होना चाहिए था। भूल हो गयी है। आदमी के सारे पारिवारिक विकास की भूल हो गयी हे। परिवार निर्मित होना चाहिए प्रेम के केंद्र पर, किंतु परिवार निर्मित किया जाता है विवाह के केंद्र पर। इससे ज्यादा झूठी और मिथ्या बात नहीं हो सकती है।
प्रेम और विवाह का क्या संबंध है?
प्रेम से तो विवाह निकल सकता है, लेकिन विवाह से प्रेम नहीं निकलता और न ही निकल सकता है। इस बात को थोड़ा समझ लें तो हम आगे बढ़ सकें।
प्रेम परमात्मा की व्यवस्था है, और विवाह आदमी की व्यवस्था है।
विवाह सामाजिक संस्था है, प्रेम प्रकृति का दान है।
प्रेम तो प्राणों के किसी कोने में अनजाने पैदा होता है।
लेकिन विवाह? समाज, कानून नियमित करता है, स्थिर करता है, बनाता है।
विवाह आदमी की ईजाद है।
और प्रेम? प्रेम परमात्मा का दान है।
हमने सारे परिवार को विवाह का केंद्र पर खड़ा कर दिया है। प्रेम के केंद्र पर नहीं। हमने यह मान रखा है कि विवाह कर देने से दो व्यक्ति प्रेम की दुनिया में उतर जायेंगे। अद्भुत झूठी बात है, और पाँच हजार वर्षों में भी हमको इसका ख्याल नहीं आ सका हे। हम अद्भुत अंधे है। दो आदमियों के हाथ बाँध देने से प्रेम के पैदा हो जाने की कोई जरूरत नहीं है। कोई अनिवार्यता नहीं है। बल्कि सच्चाई यह है कि जो लोग बंधा हुआ अनुभव करते है, वे आपस में प्रेम कभी नहीं कर सकते।
प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता में। प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता की भूमि में—जहां कोई बंधन नहीं, कोई मजबूरी नहीं है।
किंतु हम अविवाहित स्त्री या पुरूष के मन में युवक ओर युवती के मन में उस प्रेम की पहली किरण का गला घोंटकर हत्या कर देते है। फिर हम कहते है कि विवाह से प्रेम पैदा होना चाहिए। वह बिलकुल पैदा किया, कलटिवेटेड होता है। कोशिश से लाया गया होता है। वह प्रेम वास्तविक नहीं होता, वह प्रेम सहज-स्फूर्त, स्पांटेनिअस, नहीं होता है। वह प्रेम प्राणों से सहज उठता नही है। फैलता नहीं है। जिसे हम विवाह से उत्पन्न प्रेम कहते है। वह प्रेम केवल सहवास के कारण पैदा हुआ मोह होता है। प्राणों की ललक और प्राणों का आकर्षण और प्राणों की विद्युत वहां अनुपस्थित होती है।
और इस तरह से परिवार बनता है। इस विवाह से पैदा हुआ परिवार और परिवार की पवित्रता की कथाओं का कोई हिसाब नहीं है। परिवार की प्रशंसाओं,स्तुतियों की कोई गणना नहीं है। और यहीं परिवार सबसे कुरूप संस्था साबित हुई है। पूरी मनुष्यजाति को विकृत करने में। प्रेम से शून्य परिवार मनुष्य को विकृति करने में, अधार्मिक करने में, हिंसक बनाने में सब से बड़ा संस्था साबित हुई है। प्रेम से शून्य परिवार से ज्यादा असुंदर और कुरूप,अगली कुछ भी नहीं है। और वही अधर्म का अड्डा बना हुआ है।
जब हम एक युवक और युवती को विवाह में बाँधते है बिना प्रेम के, बिना आंतरिक परिचय के, बिना एक दूसरे के प्राणों के संगीत के; तब हम केवल पंडित के मंत्रों में और वेदों की पूजा में और थोथे उपक्रम में उनको विवाह से बाँध देते है। फिर आशा करते है कि उनके जीवन में प्रेम पैदा हो जायेगा। प्रेम तो पैदा नही होता है, सिर्फ उनके संबंध कामुक सेक्सुअल होते है। क्योंकि प्रेम तो पैदा किया जा सकता है। प्रेम पैदा हो जाय तो व्यक्ति साथ जुडकर परिवार निर्माण कर सकता है। दो व्यक्तियों को परिवार के निर्माण के लिए जोड़ दिया जाये और फिर आशा की जाये कि प्रेम पैदा हो जाये, यह नहीं हो सकता।
जब प्रेम पैदा नहीं होता है, तो क्या परिणाम होते है, आपको पता है?
एक-एक परिवार में कलह है। जिसको हम गृहस्थी कहते है, वि संघर्ष, कलह, द्वेष, ईर्ष्या, और चौबीस घंटे उपद्रव का अड्डा बनी हुई है। लेकिन न मालूम हम कैसे अंधे है कि देखने की कोशिश भी नहीं करते। बाहर जब हम निकलते है तो मुस्कराते हुए निकलते है। घर के सब आंसू पोंछकर बाहर जाते है—पत्नी भी हंसती हुई मालूम पड़ती है। पति भी हंसता हुआ मालूम पड़ता है। ये चेहरे झूठे है। ये दूसरों को दिखाई पड़ने वाले चेहरे है। घर के भीतर के चेहरे बहुत आंसुओं से भरे हुए है। चौबीस घंटे कलह और संघर्ष में जीवन बीत रहा है। फिर इस कलह और संघर्ष के परिणाम भी होंगे ही।
प्रेम के अतिरिक्त जगत के किसी व्यक्ति के जीवन में आत्म तृप्ति नहीं उपलब्ध होती।
प्रेम जो है, वह व्यक्तित्व की तृप्ति का चरम बिंदु है। और जब प्रेम नहीं मिलता है तो व्यक्तित्व हमेशा मांग करता है कि मुझे पूर्ति चाहिए। व्यक्तित्व हमेशा तड़पता हुआ अतृप्त हमेशा अधूरा बेचैन रहता है। यह तड़पता हुआ व्यक्तित्व समाज में अनाचार पैदा करता है। क्योंकि तड़पता हुआ व्यक्तित्व प्रेम को खोजने निकलता है। उसे विवाह में प्रेम नहीं मिलता। वह विवाह के अतिरक्ति प्रेम को खोजने की कोशिश करता है।
विवाह है मूल,रूट। विवाह है जड़ वेश्याओं के पैदा करने की। और अब तक तो स्त्री वेश्याएं थी, किंतु अब तो सभ्य मुल्कों में पुरूष वेश्याएं मेल प्रास्टीट्यूट उपलब्ध है। वेश्याएं पैदा होगीं। क्योंकि परिवार में जो प्रेम उपलब्ध होना चाहिए था। वह नहीं उपलब्ध हो रहा है। आदमी दूसरे घरों में झांक रहा है उस प्रेम के लिए। वेश्याएं होगी।
और अगर वेश्याएं रोक दी जायेगी तो दूसरे परिवारों में पीछे के द्वारों से पाप के रास्ते निर्मित होंगे। इसीलिए तो सारे समाज ने यह तय कर लिया है कि कुछ वेश्याएं निश्चित कर दो। ताकि परिवारों का आचरण सुरक्षित रहे। स्त्रीयों को पीड़ा में डाल दो। ताकि बाकी स्त्रियां पतिव्रता बनी रह सके।
लेकिन जो समाज ऐसा अनैतिक उपाय खोजता है, जिस समाज में वेश्याएं जैसी अनैतिक संस्थाएं ईजाद करना पड़ती है,जान लेना चाहिए कि वह पूरा समाज बुनियादी रूप में पूरा अनैतिक होगा। अन्यथा यह अनैतिक ईजाद की आवश्यकता नहीं थी।
वेश्या पैदा होती है, अनाचार पैदा होता है, व्यभिचार पैदा होता है। तलाक पैदा होते है। यदि तलाक न होता न व्यभिचार होता,और न अनाचार होत, तो घर एक चौबीस घंटे का मानसिक तनाव, ऐंग्जाइटी बन जाता।
सारी दुनिया में पागलों की संख्या बढती गयी है। ये पागल परिवार के भीतर पैदा होते है।
सारी दुनियां में स्त्रियां हिस्टीरिया और न्यूरोसिस से पीड़ित है। विक्षिप्त उन्माद से भरती चली जा रही है। बेहोश होती गिरती है, चिल्लाती है।
पुरूष पागल होते चले जा रहे है। एक घंटे में जमीन पर एक हजार आत्म हत्याएँ हो जाती है। और हम चिल्लाये जा रहे है—समाज हमारा बहुत महान है। ऋषि-मुनियों ने निर्मित किया है। हम चिल्लाये जा रहे है कि बहुत सोच-विचार से समाज के आधार रखे गये है। कैसे ऋषि-मुनि और कैसे ये आधार। अभी एक घंटा मैं बोलूं तो इस बीच एक हजार आदमी कहीं छुरा मार लेंगे। तो कहीं ट्रेन के नीचे लेट जायेंगे। तो कोई जहर पी लेगा। उन एक हजार लोगों की जिंदगी कैसी होगी, जो हर घंटे मरने को तैयार हो जाते है?
आप यह मत सोचना कि वे जो नहीं मरते है, वे बहुत सुखमय है। कुल जमा कारण यह है कि वे मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। उनके सुख का कोई भी सवाल नहीं है। वे कायर है। मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते है तो जिये चले जाते है। धक्के खाये चले जाते है। सोचते है, आज गलत है तो कल ठीक हो जायेगा। परसों सब ठीक हो जायेगा। लेकिन मस्तिष्क उनके रूग्ण होते चले जाते है।
प्रेम के अतिरिक्त कोई आदमी कभी स्वस्थ नहीं हो सकता।
प्रेम जीवन में न हो तो मस्तिष्क रूग्ण होगा। चिंता से भरेगा, आदमी शराब पियेगा। नशा करेगा। कहीं जाकर अपने को भूल जाना चाहेगा। दुनिया में बढ़ती हुई शराब शराबियों के कारण नहीं है। परिवार ने उस हालत में ला दिया है लोगों को कि बिना बेहोश हुए थोड़ी देर के लिए भी रास्ता मिलना मुश्किल हो गया है। तो लोग शराब पीने चले जायेंगे। लोग बेहोश पड़े रहेंगे लोग हत्या करेंगे, लोग पागल होते चले जायेंगे।
अमरीका में प्रतिदिन बीस लाख आदमी अपना मानसिक इलाज करवा रहे है। ये सरकारी आंकड़े है। आप तो भली भांति जानते है सरकारी आंकड़े कभी भी सही नहीं होते है। बीस लाख सरकार कहती है। तो कितने लोग इलाज करा रहे होंगे। यह कहना मुश्किल है। जो अमरीका की हालत है वह सारी दुनियां की हालत है।
आधुनिक युग के मानविद यह कहते है कि करीब-करीब चार आदमियों में दो आदमी एबनार्मल हो गये है। चार आदमियों में तीन आदमी रूग्ण हो गये है। स्वस्थ नहीं है। जिस समाज में चार आदमियों में तीन आदमी मानसिक रूप से रूग्ण हो जाते हों, उस समाज के आधारों को उसकी बुनियादों को फिर से सोच लेना जरूरी है। नहीं तो कल चार आदमी भी रूग्ण होंगे और फिर सोचने वाले भी शेष नहीं रह जायेंगे। फिर बहुत मुश्किल हो जायेगी।
लेकिन होता ऐसा है कि जब एक ही बीमारी से सारे लोग ग्रसित हो जाते है। तो उस बीमारी का पता नहीं चलता। हम सब एक जैसे रूग्ण, बीमार, परेशान है; तो हमें पता नहीं चलता। सभी ऐसे हैइसीलिस स्वस्थ मालूम पड़ते है। जब सभी ऐसे है,तो ठीक है। दुनियां चलती है, यही जीवन हे। जब ऐसी पीड़ा दिखाई देती है तो हम ऋषि-मुनियों के बचन दोहराते है कि वह तो ऋषि-मुनियों ने पहले ही कह दिया था। की जीवन दुःख है।
यह जीवन दुःख नहीं है। यह दुःख हम बनाये हुए है। वह तो पहले ही ऋषि-मुनियों ने कह दिया था। कि जीवन तो आसार है, उससे छुटकारा पाना चाहिए। जीवन असार नहीं है। यह असार हमने बनाया हुआ है।
जीवन से छुटकारा पाने की सब बातें दो कौड़ी की है। क्योंकि जो आदमी जीवन से छुटकारा पाने की कोशिश करता है वह प्रभु को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि जीवन प्रभु है, जीवन परमात्मा है। जीवन में परमात्मा ही तो प्रकट हो रहा है। उससे जो दूर भागेगा,वह परमात्मा से ही दूर चला जायेगा।
जब एक सी बीमारी पकड़ती है। तो किसी को पता नहीं चलता है। पूरी आदमियत जड़ से रूग्ण है। इसलिए पता नहीं चलता, तो दूसरी तरकीबें खोजते है इलाज के लिए। मूल कारण, एक्जुअलटि जो है, बुनियादी कारण जो है। उसको सोचते नहीं। ऊपरी इलाज भी क्या सोचते है? एक आदमी शराब पीने लगता है। जीवन से घबराकर। एक आदमी नृत्य देखने लगता है, वेश्या के घर जाकर, दूसरा आदमी सिनेमा में बैठ जाता है। तीसरा आदमी चुनाव लड़ने लगता है। ताकि भूल जाय सबको। चौथा आदमी मंदिर में जाकर भजन कीर्तन करने वाला भी खुद के जीवन को भूलने की कोशिश कर रहा है। यह कोई परमात्मा को पाने का रास्ता नहीं है।
परमात्मा तो जीवन में प्रवेश से उपलब्ध होता है। जीवन से भागने से नहीं। ये सब पलायन एस्केप है। एक आदमी मंदिर में भजन कीर्तन कर रहा है हिल-डुल रहा है। हम कहते है कि भक्त जी बहुत आनंदित है। भक्ति जी आनंदित नहीं हो रहा है। भक्त जी किसी दुःख से भोगे हुए है। वह भुलाने की कोशिश कर रहे है। शराब काही यह दूसरा रूप है। यह आध्यात्मिक नशा,स्प्रिचुअल इंटाक्सीकेशन, यह अध्यात्म के नाम से नहीं शराबें है। जो सारी दुनिया में जलती है। इन लोगों ने भाग-भाग कर जिंदगी को बदला नहीं आज तक। जिंदगी वहीं की वही दुःख से भरी हुई है। और जब भी कोई दुःखी हो जाता है वह भी इनके पीछे चला जाता है। कि हमको भी गुरु मंत्र दे दें। हमारा भी कान फूंक दें कि हम भी इसी तरह सुखी हो जायें। जैसे आप हो गये है। लेकिन यह जिंदगी क्यों दुःख पैदा कर रही है। इसको देखने के लिए इसके विज्ञान को खोजने के लिए कोई भी जाता नहीं है।
मेरी दृष्टि में यह है कि जहां जीवन की शुरूआत होती है, वहीं कुछ गड़बड़ हो गयी है। वह गड़बड़ यह हो गयी है कि हमने मनुष्य जाति पर प्रेम की जगह विवाह थोप दिया है। यदि विवाह होगा तो ये सारे रूप पैदा होंगे। और जब दो व्यक्ति एक दूसरे से बंध जाते है और उनके जीवन में कोई शांति और तृप्ति नहीं मिलती, तो वे दोनों एक दूसरे पर क्रुद्ध हो जाते है। कि तेरे कारण मुझे शांति नहीं मिल रही। वे कहते है, ‘’तेरे कारण मुझे शांति नहीं मिल पा रही है।‘’ वे एक दूसरे को सताना शुरू करते है। परेशान करना शुरू करते है। और इसी हैरानी इसी परेशानी इसी कलह के बीच बच्चों का जन्म होता है। ये बच्चे पैदाइश से ही विकृत परवर्टेड हो जाते है।
मेरी समझ में, मेरी दृष्टि में मेरी धारणा में जि दिन आदमी पूरी तरह आदमी के विज्ञान को विकसित करेगा। तो शायद आपको पता लगे कि दुनिया में बुद्ध कृष्ण और क्राइस्ट जैसे लोग शायद इसीलिए पैदा हो सके है कि उनमें मां-बाप ने जिस क्षण संभोग किया था, उस समय वे अपूर्व प्रेम से संयुक्त हुए थे। प्रेम के क्षण में गर्भस्थापन, कंसेप्शन हुआ था। यह कसी दिन जिस दिन जन्म विज्ञान पूरी तरह विकसित होगा। उस दिन शायद हमको यह पता चलेगा कि जो दुनिया मैं थोड़े से अद्भुत लोग हुए—शांत आनंदित, प्रभु को उपलब्ध—वे लोग वे ही थे। जिनका पहला अणु प्रेम की दीक्षा से उत्पन्न हुआ था। जिनका पहला अणु प्रेम के जीवन में सराबोर पैदा हुआ था।
पति और पत्नी कलह से भरे हुए है, क्रोध से, ईर्ष्या से; एक दूसरे के प्रति संघर्ष से, अहंकार से, एक दूसरे की छाती पर चढ़े हुए है। एक दूसरे के मालिक बनना चाह रहे है। इसी बीच उनके बच्चे पैदा हो रहे है। ये बच्चे किसी आध्यात्मिक जीवन में कैसे प्रवेश पायेंगे?
मैंने सुना है एक घर में एक मां ने अपने बेटे और छोटी बेटी को—वे दोनों बेटे और बेटी बाहर मैदान में लड़ रहे थे। एक दूसरे पर घूंसेबाजी कर रहे थे—कहा कि आरे यह क्या कर रहे हो। कितनी बार मैने समझाया कि लड़ा मत करो, आपस में लड़ों मत। उस लड़के ने कहा,हम लड़ नहीं रहे है, हम तो मम्मी—डैडी का खेल कर रहे है। वी आर जाट फाइटिंग, बी आर प्ले इंग मम्मी डैडी। जो घर में रोज हो रहा है। वह हम दोहरा रहे है। यह खेल जन्म के क्षण से शुरू हो जाता है। इस संबंध में दो चार बातें समझ लेनी बहुत जरूरी है।
मेरी दृष्टि में जब तक एक स्त्री और पुरूष परिपूर्ण प्रेम के आधार पर मिलते हे,उनका संभोग होता है। उनका मिलन होता है तो उस परिपूर्ण प्रेम के तल पर उनके शरीर ही नहीं मिलते है। उनकी आत्मा भी मिलती है। वे एक लयपूर्ण संगीत में डूब जाते है। वे दोनों विलीन हो जाते है, और शायद परमात्मा ही शेष रह जाता है उस क्षण। उस क्षण जिस बच्चो का गर्भाधान होता है। वह बच्चा परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि प्रेम के क्षण का पहला कदम उसके जीवन में उठा लिया गया है।
लेकिन जो मां-बाप, पति और पत्नी आपस में द्वेष से भरे है, धृणा से भरे है,क्रोध से भरे है। कलह से भरे है, वे भी मिलते है; लेकिन उनके शरीर ही मिलते है। उनकी आत्मा और प्राण नहीं मिलते। उनके शरीर के ऊपरी मिलन से जो बच्चे पैदा होते है। वे अगर शरीर वादी मैटिरियालिस्ट पैदा होते है। बीमार और रूग्ण पैदा होते है। और उनके जीवन में अगर आत्मा की प्यास पैदा न होती हो, तो दोष उन बच्चों को मत देना। बहुत दिया जा चुका यह दोष। दोष देना उन मां बाप को, जिनकी छवि लेकर वह जन्मते है। जिनका सब अपराध और जिनकी सब बीमारियां लेकिन जन्मते है। और जिनका सब क्रोध और घृणा लेकर जन्मते है। जन्म के साथ उनका पौधा विकृत हो जाता है। फिर इनको पिलाओ गीता, इनको समझाओ कुरान, इनसे कहो कि प्रार्थनाएं करो—जो झूठी हो जाती है। क्योंकि प्रेम का बीज ही शुरू नहीं हो सका जो प्रार्थनाएं कैसे शुरू हो सकती है।
जब एक स्त्री और पुरूष परिपूर्ण प्रेम और आनंद में मिलते है। तो वह मिलन एक आध्यात्मिक कृत्य स्प्रिचुअल एक्ट हो जाता है। फिर उसका काम, सेक्स से कोई संबंध नहीं है। वह मिलन फिर कामुक नहीं है। वह मिलन शारीरिक नही है। वह मिलन अनूठा है। वह उतना ही महत्वपूर्ण है। जितनी किसी योगी की समाधि। उतना ही महत्वपूर्ण है वह मिलन, जब दो आत्माएं परिपूर्ण प्रेम से संयुक्त होती है। उतना ही पवित्र है वह कृत्य—क्योंकि परमात्मा उसी कृत्य से जीवन को जन्म देता है। और जीवन को गति देता है।
लेकिन तथाकथित धार्मिक लोगों ने, तथाकथित झूठे समाज ने, तथाकथित झूठे परिवार ने यही समझाने की कोशिश की है कि सेक्स,काम, यौन, अपवित्र है, घृणित है। नितांत पागलपन की बातें है। अगर यौन घृणित और अपवित्र है। तो सारा जीवन अपवित्र हो गया। अगर सेक्स पाप है तो पूरा जीवन पाप हो गया। पूरा जीवन निंदित कंडम हो गया। अगर जीवन ही पूरा निंदित हो जायेगा, तो कैसे सच्चे लोग उपलब्ध होंगे। जब जीवन ही पूरा का पूरा पाप है तो सारी रात अंधेरी हो गयी है। अब इसमें प्रकाश की किरण कहीं से लानी पड़ेगी।
मैं आपको बस एक बात कहना चाहता हूं कि एक नयी मनुष्यता के जन्म के लिए सेक्स की पवित्रता, सेक्स की धार्मिकता स्वीकार करना अत्यंत आवश्यक है; क्योंकि जीवन उससे जन्मता है। परमात्मा उसी कृत्य से जीवन को जन्माता है।
परमात्मा ने जिसको जीवन की शुरूआत बनाया है। वह पाप नहीं हो सकता है, लेकिन आदमी ने उसे पाप कर दिया है।
जो चीज प्रेम से रहित है, वह पाप हो जाती है। जों चीज प्रेम से शून्य हो जाती है। वह अपवित्र हो जाती है। आदमी की जिंदगी में प्रेम नहीं रहा। इसलिए केवल कामुकता, सेक्सुअलिटी रह गयी है। सिर्फ यौन रह गया है। वह यौन पाप हो गया है। वह यौन पाप नहीं है, वह हमारे प्रेम के आभाव का पाप है। और उस पाप से सारा जीवन शुरू होता है। फिर बच्चे पैदा होत है। फिर बच्चे जन्मते है।
स्मरण रहे, जो पत्नी अपने पति को प्रेम करती है। उसके लिए पति परमात्मा हो जाता है। शास्त्रों के समझाने से नहीं होती है यह बात। जो पति अपनी पत्नी से प्रेम करता है। उसके लिए पत्नी भी परमात्मा हो जाती है, क्योंकि प्रेम किसी को भी परमात्मा बना देता है। जिसकी तरफ उसकी आंखें प्रेम से उठती है, वह परमात्मा हो जाता है। परमात्मा को कोई अर्थ नहीं है।
प्रेम की आँख सारे जगत को धीरे-धीरे परमात्मा मय देखने लगती है।
लेकिन जो एक को ही प्रेम से भर नहीं पाता और सारे जगत को ब्रह्मा मय देखने की बातें करता है, उसकी वे बातें झूठी है। उन बातों का कोई आधार और अर्थ नहीं है।
जिसने कभी एक को प्रेम नहीं किया। उसके जीवन में परमात्मा की कोई शुरूआत ही नहीं हो सकती, क्योंकि प्रेम के ही क्षण में पहली दफा कोई व्यक्ति परमात्मा हो जाता है। वह पहली झलक है प्रभु की। फिर उसी झलक को आदमी बढ़ता है, और एक दिन वही झलक पूरी हो जाती है। सारा जगत उसी रूप में स्थांतरित हो जाता है। लेकिन जिसने पानी की कभी बूंद नहीं देखी। वह कहता है पानी की बूंद से मुझे कोई मतलब नहीं है। पानी की बूंद का मैं क्या करूंगा। तुमने पानी की बूंद भी नहीं देखी, पानी की बूंद भी नहीं जानी, नहीं समझी, नहीं चखी। और चले हो सागर को खोजने। तो तूम पागल हो। क्योंकि सागर क्या है? पानी की अनंत बूँदों का जोड़।
परमात्मा क्या है? प्रेम की अनंत बूँदों का जोड़ हे। तो प्रेम की अगर एक बूंद निंदित है तो पूरा परमात्मा निंदित हो गया। फिर हमारे झूठे परमात्मा खड़े होंगे, मूर्तियां खड़ी होंगी। पूजा पाठ होंगे,सब बकवास होगी। लेकिन हमारे प्राणों का कोई अंतर संबंध उससे नहीं हो सकता। और यह भी ध्यान में रख लेना जरूरी है कि कोई स्त्री अपने पति को प्रेम करती है, जीवन साथी को प्रेम करती है, तभी प्रेम के कारण पूर्ण प्रेम के कारण ही वह ठीक अर्थों में मां बन पाती है। बच्चे पैदा कर लेने मात्र से कोई मां नहीं बन जाती। मां ता कोई स्त्री तभी बनती है और पिता कोई पुरूष तभी बनता है जब कि उन्होंने एक दूसरे को प्रेम किया हो।
जब पत्नी अपने पति को प्रेम करती है, अपने जीवन साथी को प्रेम करती है तो बच्चे उसे अपने पति का पुनर्जन्म मालूम पड़ते है। वह फिर वही शक्ल है,फिर वही रूप है। फिर वहीं निर्दोष आंखे है। जो उसके पति में छिपी थी। फिर प्रकट हुई है। उसने अगर अपने पति को प्रेम किया है। तो वह बच्चे को प्रेम कर सकती है। बच्चे को किया गया प्रेम, पति को किया गया प्रेम की प्रतिध्वनि है। यह पति ही फिर वापस लौट आया है। बच्चे का रूप लेकर। बच्चे को किया गया प्रेम, पति फिर पवित्र और नया हो कर वापस लोट आया है।
लेकिन अगर पति के प्रति प्रेम नहीं है तो बच्चे के प्रति कैसे हो सकता है।
बाप भी तभी कोई बनता है जब वह अपनी पत्नी को इतना प्रेम करता है। कि पत्नी भी उसे परमात्मा दिखाई देती है। तब बच्चा फिर से पत्नी का ही लोटा हुआ रूप है। पत्नी को जब उसने पहली बार देखा था। तब वह जैसी निर्दोष थी, तब वह जैसी शांत थी। तब जैसी सुंदर थी, तब उसकी आंखे जैसी झील की तरह थी। इस बच्चे में वापस लोट आई है। इन बच्चों में फिर वही चेहरा वापस लौट आया है। ये बच्चे फिर उसी छवि में नये होकर आ गये है—जैसे पिछले बसंत में फूल खिले थे। पिछले बसंत में पत्ते आये थे। फिर साल बीत गया। पुराने पत्ते गिर गये है। फिर नयी कोंपलें निकल आयी है। फिर नये पत्तों से वृक्ष भर गया है। फिर लौट आया है बसंत। फिर सब नया हो गया है। लेकिन जिसने पिछले बसंत को ही प्रेम नहीं किया था। वह इस बसंत को कैसे प्रेम कर सकेगा।
जीवन निरंतर लोट रहा है। निरंतर जीवन का पुनर्जन्म चल रहा है। रोज नया होता चला जाता है। पुराने पत्ते गिर जाते है। नये आ जाते है। जिसने पिछले बसंत को प्रेम नहीं किया इस बसंत को कैसे कर सकता है।
जीवन निरंतर लौट रहा है। निरंतर जीवन का पुनर्जन्म चल रहा है। रोज नया होता है, पुराने पत्ते गिर जाते है। नये आ जाते है। जीवन की यह सृजनात्मकता, क्रिएटिव टी ही तो परमात्मा है। यही तो प्रभु है। जो इसको पहचानेगा। वही तो उसे पहचानेगा।
लेकिन न मां बच्चे को प्रेम कर पाती है। न पिता बच्चे को प्रेम कर पाता है। और जब मां और बाप को प्रेम नहीं कर पाते है। तो बच्चे जन्म से ही पागल होने के रास्ते पर संलग्न हो जाते है। उनको दूध मिलता है, कपड़े मिलते है, मकान मिलता है। लेकिन प्रेम नहीं मिलता है। प्रेम के बिना उनको परमात्मा नहीं मिल सकता है। और सब मिल सकता है।
अभी रूस का एक वैज्ञानिक बंदरों के ऊपर कुछ प्रयोग करता था। उसने कुछ नकली बंदरियाँ बनायी। नकली बिजली के यंत्र, हाथ और पैर उनके बिजली के तारों का ढांचा। जो बंदर पैदा हुए, उनको नकली माताओं के पास धर दिया गया। नकली माताओं से वे चिपक गये। वे पहले दिन के बच्चे थे। उनको कुछ पता नहीं कि कौन असली है, कौन नकली। वे नकली मां के पास ले जाये गये। पैदा होते ही उनकी छाती से चिपक गये। नकली दूध है वह उनके मुंह में जा रहा हे। वे पी रहे है, वह चिपके रहते है। वह बंदरिया नकली है। वह हिलती रहती है, बच्चे समझते है मां हिल-हिल कर झूला रही हे। ऐसे बीस बंदर के बच्चों को नकली मां के पास पाला गया और उनको अच्छा दूध दिया गया। मां ने उनको अच्छी तरह हिलाया-डुलाया। मां कूदती -फाँदती सब करती। वे बच्चे स्वस्थ दिखाई पड़ते थे। फिर वे बड़े भी हो गये। लेकिन वे सब बंदर पागल निकले। वे सब असामान्य,एबनार्मल साबित हुए। उनको....उनका शरीर अच्छा हो गया; लेकिन उनका व्यवहार विक्षिप्त हो गया।
वैज्ञानिक...दूध मिला....बड़े हैरान हुए कि इनको क्या हुआ। इनको सब तो मिला, फिर वे विक्षिप्त कैसे हो गये?
एक चीज जो वैज्ञानिक की लेबोरेटरी में नहीं पकड़ी जा सकीं थी। वह उनको नहीं मिली—प्रेम उनको नहीं मिला,जो उन 20 बंदरों की हालत हुई, वहीं साढ़े तीन अरब मनुष्यों की हो रही है। झूठी मां मिलती है, झूठा बाप मिलता है। नकली मां हिलती है, नकली बाप हिलता है। और ये बच्चे विक्षिप्त हो जाते है। और हम कहते है कि ये शांत नहीं होते। अशांत होते चले जाते है। ये छुरे बाजी करते है। ये लड़कियों पर एसिड फेंकते है। ये कालेज में आग लगाते है। ये बस पर पत्थर फेंकते है, ये मास्टर को मारते है। मारेंगे,मारे बिना इनको कोई रास्ता नहीं। अभी थोड़ा–थोड़ा मारते है। कल और ज्यादा मारेंगे।
तुम्हारे कोई शिक्षक, तुम्हारे कोई नेता, तुम्हारे कोई धर्मगुरू इनको नहीं समझा सकेंगे। क्योंकि सवाल समझाने का नहीं है। आत्मा ही रूग्ण पैदा हुई हे। यह रूग्ण आत्मा प्यास पैदा करेगी। यह चीजों को तोड़गी, मिटाये गी। तीन हजार साल से जो चलती थी बात, वह चरम परिणति क्लाइमैक्स पर पहुंच रही है। सौ डिग्री तक हम पानी को गरम करते है। पानी भाप बनकर उड़ जाता है। निन्यानवे डिग्री तक पानी बना रहता है। फिर सौ डिग्री पर भाप बनने लगता है।
सौ डिग्री पर पहुंच गया है आदमियत का पागलपन। अब वह भाप बनकर उड़ना शुरू हो रहा है। मत चिल्लाइए, मत परेशान होइए। बनने दीजिए भाप। आप उपदेश देते रहिये। अपने साधु संतों से कहिए समझाते रहा करे। अच्छी-अच्छी बातें और गीता की टीकाएं करते रहें। करते रहो प्रवचन-टीका गीता पर, और दोहराते रहो पुराने शब्दों को। ये भाप बननी बंद नहीं होगी। ये भाप बननी तब बंद होगी। जब जीवन की पूरी प्रक्रिया को हम समझेंगे कि कहीं कोई भूल हो रही है। कहीं कोई भूल हुई है।
और वह कोई आज की भूल नहीं है। चार पाँच हजार साल की भूल है। जो शिखर क्लाइमैक्स पर पहुंच गयी है। इसलिए मुश्किल खड़ी हुई है। ये प्रेम रिक्त बच्चे जन्मते है और प्रेम से रिक्त हवा में पाले जाते है। फिर यही नाटक ये दोहरायेंगे। मम्मी और डैडी का पुराना खेल। ये फिर बड़े हो जायेंगे। फिर वे यह नाटक दोहरायेंगे, फिर विवाह में बांधे जायेंगे; क्योंकि समाज प्रेम को आज्ञा नहीं देता। न मां पसंद करती है कि मेरी लड़की किसी को प्रेम करे। न बाप पसंद करते है कि मेरा बेटा किसी को प्रेम करे। न समाज पसंद करता है कि कोई किसी को प्रेम करे। वह कहता है प्रेम तो होना ही नहीं चाहिए। प्रेम तो पाप है। वह तो बिलकुल ही योग्य बात नहीं है। विवाह होना चाहिए। फिर प्रेम नहीं होगा। वही पहिया पूरा का पूरा घूमता है।
आप कहेंगे कि जहां प्रेम होता है। वहां भी कोई बहुत अच्छी हालत मालूम नहीं पड़ती। नहीं मालूम पड़ती। नहीं मालूम होगी, क्योंकि प्रेम को आप जिस भांति मौका देते है, उसमें प्रेम एक चोरी की तरह होता है, प्रेम एक सीक्रेसी की तरह प्रेम करने वाले डरते है। घबराये हुए प्रेम करते है। चोरों की तरह प्रेम करते है। अपराधी विद्रोह में वे प्रेम करते है। यह प्रेम भी स्वास्थ नहीं है। प्रेम के लिए स्वस्थ हवा नहीं है, इसके परिणाम भी अच्छे नहीं हो सकते।
प्रेम के लिए समाज को हवा पैदा करनी चाहिए। मौका पैदा करना चाहिए। अवसर पैदा करना चाहिए।
प्रेम की शिक्षा दी जानी चाहिए, दीक्षा दी जानी चाहिए।
प्रेम की तरफ बच्चों को विकसित किया जाना चाहिए। क्योंकि वही उनके जीवन का आधार बनेगा। वहीं उनके पूरे जीवन का केंद्र बनेगा। उसी केंद्र से उनका जीवन विकसित होगा।
लेकिन अभी प्रेम की कोई बात नहीं है। उससे हम दूर खड़े रहते है, आंखे बंद किये खड़े रहते है। न मां बच्चे से प्रेम की बात करती है। और न बाप। न उन्हें कोई सिखाता है कि प्रेम जीवन का आधार है। न उन्हें कोई निर्भय बनाता है कि तुम प्रेम के जगत में निर्भय होना। न कोई उनसे कहता है कि जब तक तुम्हारा किसी से प्रेम न हो तब तक तुम विवाह मत करना,क्योंकि वह विवाह गलत होगा, झूठा होगा, पाप होगा। वह सारी कुरूपता की जड़ होगा और सारी मनुष्यता को पागल करने का कारण होगा।
अगर मनुष्य जाति को परमात्मा के निकट लाना है, तो पहला काम परमात्मा की बात मत करिये। मनुष्य जाति को प्रेम के निकट ले आइये। जीवन जोखिम भरा है। न मालूम कितने खतरे हो सकते है। जीवन की बनी-बनाई व्यवस्था में न मालूम कितने परिवर्तन करने पड़ सकते है। लेकिन न पर करेंगे परिवर्तन तो यह समाज अपने ही हाथ मौत के किनारे पहुंच गया है। इसलिए मर जाएगा। यह बच नहीं सकता। प्रेम से रिक्त लोग ही युद्धों को पैदा करते है। प्रेम से रिक्त लोग ही अपराधी बनते है। प्रेम से रिक्त ही अपराध, क्रिमीनलिटी की जड़ है और सारी दुनियां में अपराधी फैलते चले जाते है।
जैसे मैंने आपसे कहा कि अगर किसी दिन जन्म विज्ञान विकसित होगा, तो हम शायद पता लगा पाये कि कृष्ण का जन्म किन स्थितियों में हुआ। किसी समस्वरता हार्मनी में कृष्ण के मां-बाप ने किस प्रेम के क्षण में गर्भ स्थापन, कन्सैप्शन किया इस बच्चे का। किस प्रेम के क्षण में यह बच्चा अवतरित हुआ। तो शायद हमें दूसरी तरफ यह भी पता चल जाए कि हिटलर किस अप्रेम के क्षण में पैदा हुआ। मुसोलनी किस क्षण पैदा हुआ होगा। तैमुर लंग, चंगेज खां किस अवसर पर पैदा हुए थे।
हो सकता है यह पता चले कि चंगेज खां संघर्ष घृणा और क्रोध से भरे मां-बाप से पैदा हुआ हो। जिंदगी भी फिर वह क्रोध से भरा हुआ है। वह जो क्रोध का मौलिक वेग,ओरिजिनल मोमैंटम है हव उसको जिंदगी भर दौड़ाये चला जा रहा है। चंगेज खां जिस गांव में गया, लाखों लोगों को कटवाँ देता था।
तैमुर जिस राजधानी में जाता, दस-दस हजार बच्चों की गर्दनें कटवाँ देता। भाले मैं छिदवा देता। जुलूस निकालता तो दस हजार बच्चों की गर्दनें लटकी हुई है। भालों के ऊपर। पीछे तैमुर जा रहा है। लोग पूछते है यह तुम क्या कर रहे हो। तो वह कहता कि ताकि लोग याद रखें की कभी तैमुर लंग इस नगरी में आया था। इस पागल को याद रखने की कोई और बात समझ में नहीं पड़ती थी।
हिटलर ने जर्मनी में साठ लाख यहूदियों की हत्या की। पाँच सौ यहूदी रोज मारता रहा। स्टैलिन ने रूस में साठ लाख लोगों की हत्या की।
जरूर इनके जन्म के साथ कोई गड़बड़ हो गयी। जरूर ये जन्म के साथ पागल पैदा हुए। उन्माद इनके जन्म के साथ इनके खून में आया और फिरा वे इसको फैलाते चले गये।
पागलों में बड़ी ताकत होती है। पागल कब्जा कर लेते है और दौड़ कर हावी हो जाते है—धन पर,पद पर, यश पर, फिर वे सारी दूनिया को विकृत करते है। पागल ताकतवर होते है।
यह जो पागलों ने दुनिया बनायी है। यह दुनिया तीसरे महायुद्ध के करीब आ गयी है। सारी दुनिया मरेगी। पहले महायुद्ध में साढ़े तीन करोड लोगों की हत्या की गई। दूसरे महायुद्घ में साढ़े सात करोड़ लोगों की हत्या की गई। तब तीसरे में कितनी की जायेगी?
मैंने सूना है जब आइन्सटीन भगवान के घर पहुंच गया तो भगवान ने उससे पूछा कि मैं बहुत घबराया हुआ हूं। तीसरे महायुद्ध के संबंध में कुछ बताओगे? क्या होगा? उसने कहा, तीसरे के बाबत कहना मुश्किल है, चौथे के संबंध में कुछ जरूर बता सकता हूं। भगवान ने कहा, तीसरे के बाबत नहीं बता सकते तो चौथे के बाबत कैसे बताओगे? आइन्सटीन ने कहा एक बात बता सकता हूं चौथे के बाबत कि चौथा महायुद्ध कभी नहीं होगा। क्योंकि तीसरे में सब समाप्त हो जायेगा। चौथे के होने की कोई संभावना नहीं है। और तीसरे के बाबत कुछ भी कहना मुश्किल है कि साढ़े तीर अरब पागल आदमी क्या करेंगे? तीसरे महायुद्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता कि क्या स्थिति होगी।
प्रेम से रहित मनुष्य मात्र एक दुर्घटना है—मैं अंत में यह बात निवेदन करना चाहता हूं।
मेरी बातें बड़ी अजीब लगी होंगी; क्योंकि ऋषि मुनि इस तरह की बातें करते ही नहीं। मेरी बात बहुत अजीब लगी होगी। आपने सोचा होगा कि मैं भजन-कीर्तन का कोई नुस्खा बताऊंगा। आपने सोचा होगा कि मैं कोई माला फेरने की तरकीब बतालाऊंगा। आपने सोचा होगा कि मैं कोई आपको ताबीज दे दूँगा। जिसको बांधकर आप परमात्मा से मिल जायें। ऐसी कोई बात में आपको नहीं बता सकता हूं। ऐसे बताने वाले सब बेईमान है, धोखेबाज है। समाज को उन्होंने बहुत बर्बाद किया है।
समाज की जिंदगी को समझने के लिए मनुष्य के पूरे विज्ञान को समझना जरूरी है। परिवार को दंपति को, समाज को—उसकी पूरी व्यवस्था को समझना जरूरी है। कि कहां गड़बड़ हुई है। अगर सारी दुनिया यह तय कर ले कि हम पृथ्वी में एक प्रेम का घर बनायेगे, झूठे विवाह का नहीं। हां, प्रेम से विवाह निकले तो यह सच्चा विवाह होगा। हम सारी दुनिया को प्रेम का एक मंदिर बनायेगे। जितनी कठिनाइयां होंगी। मुश्किलें होंगी, अव्यवस्था होगी। उसको संभालने का हम कोई उपाय खोजेंगे। उस पर विचार करेंगे। लेकिन दुनिया से हम यह अप्रेम का जो जाल है, इसको तोड़ देंगे। और प्रेम की एक दुनिया बनायेगे। तो शायद पूरी मनुष्यजाति बच सकती है। और स्वस्थ हो सकती है।
जोर देकर मैं आपके यह कहना चाहता हूं कि अगर सारे जगत में प्रेम के केंद्र पर परिवार बन जाये तो अति मानव सुपरमैन की कल्पना, जो हजारों साल से हो रही है। आदमी को महा मानव बनाने की—यह जो नीत्से कल्पना करता है, अरविंद कल्पना करते है—यह कल्पना पूरी हो सकती है, लेकिन न तो अरविंद को प्रार्थनाओं से और न नीत्से के द्वारा पैदा किये गये सिद्धांत से वह सपना पूरा हो सकता है।
अगर पृथ्वी पर हम प्रेम की प्रतिष्ठा को वापस लौटा लाये, अगर प्रेम जीवन में वापस लौट आये सम्मानित हो जाए;अगर प्रेम एक आध्यात्मिक मूल्य ले-ले, तो नये मानव का निर्माण हो सकता है। नयी संतति का नयी पीढ़ियों को नये आदमी का। और वह आदमी वह बच्चा वह भ्रूण जिसका पहला अणु प्रेम से जन्मेंगा, विश्वास किया जा सकता है आश्वासन दिया जा सकता है कि उसकी अंतिम सांस परमात्मा में निकलेगी।
प्रेम है प्रारंभ। परमात्मा है अंत। वह अंतिम सीढी है।
जो प्रेम को ही नहीं पाता है, वह परमात्मा को पा ही नहीं सकता, यह असंभावना है।
लेकिन जो प्रेम में दीक्षित हो जाता है और प्रेम में विकसित हो जाता है। और प्रेम की सांसों में चलता है और प्रेम के फूल जिसकी सांस बन जाते है। और प्रेम जिसका अणु-अणु बन जाता है और जो प्रेम में बढ़ता जाता है। फिर एक दिन वह पाता है कि प्रेम की जि गंगा में वह चला था, वह गंगा अब किनारे छोड़ रही है। और सागर बन रही है। एक दिन वह पाता है कि गंगा के किनारे मिटते जाते है। और अनंत सागर आ गया सामने। छोटी-सी गंगा की धारा था गंगोत्री में, छोटी सी प्रेम की धारा होती है शुरू में फिर वह बढ़ती है, फिर वह बड़ी होती है। फिर वह पहाड़ों और मैदानों को पार करती है और एक वक्त आता है कि किनारे छूटने लगते है।
जिस दिन प्रेम के किनारे छूट जाते है, उसी दिन प्रेम परमात्मा बन जाता है। जब तक प्रेम के किनारे होते है। तब तक वह परमात्मा नहीं होता है। गंगा नदी होती है। जब तक कि वह इस जमीन के किनारे से बंधी होती है। फिर किनारे छूटते है और वह सागर में मिल जाते है। फिर वह परमात्मा से मिल जाती है।
प्रेम की सरिता और परमात्मा का सागर है। लेकिन हम प्रेम की सरिता ही नहीं है, हम प्रेम की नदिया ही नहीं है। और हम बैठे है हाथ जोड़े और प्रार्थनाएं कर रहे है। कि हमको भगवान चाहिए। जो सरिता नहीं है, वह सागर को कैसे पायेगी?
सारी मनुष्य जाती के लिए पूरा आंदोलन चाहिए। पूरी मनुष्य जाति के आमूल परिवर्तन की जरूरत है। पूरा परिवार बदलने की जरूरत है। बहुत कुरूप है हमारा परिवार। वह बहुत सुंदर हो सकता है। लेकिन केवल प्रेम के केंद्र पर ही पूरा समाज को बदलने की जरूरत है। और तब एक धार्मिक मनुष्यता पैदा हो सकती है।
प्रेम प्रथम, परमात्मा अंतिम।
और क्यों यह प्रेम परमात्मा पर पहुंच जाता है?
क्योंकि प्रेम है बीज और परमात्मा है वृक्ष। प्रेम का बीज ही फिर फूटता है और वृक्ष बन जाता है।
सारी दुनिया की स्त्रियों से मेरा कहने का यह मन होता है और खासकर स्त्रियों से, क्योंकि पुरूष के लिए प्रेम अन्य बहुत सी जीवन की दिशाओं में एक दिशा है। स्त्री के लिए प्रेम अकेली दिशा है। पुरूष के लिए प्रेम और बहुत से जीवन के आयामों में एक आयाम है। उसके और भी आयाम है व्यक्तित्व के; लेकिन स्त्री का एक ही आयाम है एक ही दिशा है—वह है प्रेम। स्त्री पूरी प्रेम भी है और दूसरी चीज भी है।
अगर स्त्री का प्रेम विकसित हो तो वह समझे,प्रेम की किमिया; प्रेम का रसायन। और बच्चों को दीक्षा दे प्रेम की और प्रेम के आकाश में उठने की शिक्षा दे; उनको पंखों को मजबूत करे। लेकिन अभी तो हम काट देते है पंख कि विवाह की जमीन पर सरको। प्रेम के आकाश में मत उड़ना। जब की होना यह चाहिए कि हम प्रेम की जोखिम सिखाए। लेकिन जो जोखिम नहीं उठाते। वे जमीन पर रेंगने वाले किले हो जाते है। जो जोखिम उठाते है, वे दूर अनंत आकाश में उड़ने वाले पक्षी सिद्ध होत है।
आदमी रेंगता हुआ कीड़ा हो गया है। क्योंकि हम सिखा रहे है; कोई जोखिम, रिसक न उठाना, कोई खतरा डेंजर मत उठाना। अपने घर का दरवाजा बंद करों और जमीन पर सरको। आकाश में मत उड़ना जब कि होना यह चाहिए कि हम प्रेम की जोखिम सिखाये, प्रेम का खतरा सिखाये। प्रेम का अभय सिखाये और प्रेम के आकाश में उड़ने के लिए उनके पंखों को मजबूर करें। और चारों तरफ जहां भी प्रेम पर हमला होता हो उसके खिलाफ खड़े हो जायें। प्रेम को मजबूत करें ताकत दें।
प्रेम के जितने दुश्मन खड़े है दुनियां में उनमें नीति शास्त्री भी है। क्योंकि प्रेम के विरोध में जो हो, वह क्या नीति शास्त्री होगा? साधु-संन्यासी खड़े है प्रेम के विरोध में। क्योंकि वे कहते है कि यह सब पाप है। यह सब बंधन है। इसको छोड़ो और परमात्मा की तरफ चलो।
जो आदमी कहता है कि प्रेम को छोड़कर परमात्मा की तरफ चलो। वह परमात्मा का शत्रु है; क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त परमात्मा की तरफ जाने का कोई रास्ता ही नहीं है।
बड़े बूढ़े भी खड़े है प्रेम के विपरीत, क्योंकि उनका अनुभव कहता है कि प्रेम खतरा है। लेकिन अनुभवी लोगों से जरा सावधान रहना। क्योंकि जिंदगी में कभी कोई नया रास्ता वे नहीं बनने देते। वे कहते है कि पुराने रास्ते का हमें अनुभव है, हम पुराने रास्ते पर चले है, उसी पर सबको चलना चाहिए।
लेकिन जिंदगी को रोज नया रास्ता चाहिए। जिंदगी रेल की पटरियों पर दौड़ती हुई रेलगाड़ी नहीं है कि बनी पटरियों पर दौड़ती रहे। यदि दौड़ती तो एक मशीन हो जायेगी। जिंदगी तो एक सरिता है, जो रोज एक नया रास्ता बना लेती है। मैदानों में जंगलों में अनूठे रास्ते से निकलती है। अंजान जगत में प्रवेश करती है और सागर तक पहुंच जाती है।
नारियों के सामने आज एक ही काम है। वह काम यह नहीं है कि अनाथ बच्चों को पढ़ा रही है बैठकर। तुम्हारे बच्चे भी तो सब अनाथ है। नाम के लिए वे तुम्हारे बच्चे है। न उनकी मां है, न उनका बाप। समाज सेवक स्त्रीयां सोचती है। कि अनाथ बच्चों का अनाथालय खोल दिया। बहुत बड़ा काम कर दिया। उनको पता नहीं कि तुम्हारे अनाथ ऑरफंस है, कोई नहीं उनका—न तुम हो, न तुम्हारे पति है। न उनकी मां है और न उनका बाप है, क्योंकि वह प्रेम ही नहीं है,जो उनको सनाथ बना दे।
सोचते है हम कि आदिवासी बच्चों को जाकर शिक्षा दें। तुम आदिवासी बच्चों को जाकर शिक्षा दो और तुम्हारे बच्चे धीरे-धीरे आदिवासी हुए चले जा रहे है। ये जो बीटल है, बीट निक है; फलां है, ढिकां है; ये फिर से आदमी के आदिवासी होने की शक्लें है। तुम सोचते हो, स्त्रियां सोचती है कि जायें और सेवा करें।
जिस समाज में प्रेम नहीं है, उस समाज में सेवा कैसे हो सकती है?
सेवा तो प्रेम की सुगंध है।
मैं तो एक ही बात आज कहना चाहूंगा। आज तो सिर्फ एक धक्का आपको दे देना चाहूंगा। ताकि आपके भीतर चिंतन शुरू हो जाए। हो सकता है मेरी बातें आपको बुरी लगें तो बहुत अच्छा है। हो सकता है मेरी बातों से आपको चोट लगे। तिलमिलाहट पैदा हो जाए। उतना ही अच्छा है क्योंकि उससे कुछ सोच-विचार पैदा होगा।
हो सकता है मेरी सब बातें गलत हों, इसलिए मेरी बात मान लेने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन मैंने जो कहा है, उस पर आप सोचना। मैं फिर दोहरा देता हूं दो चार सूत्रों को और कहकर अपनी बात पूरी किये देता हूं।
आज तक का मनुष्य का समाज, प्रेम के केंद्र पर निर्मित नहीं है। इसीलिए विक्षिप्तता है। इसीलिए पागलपन है, इसीलिए युद्ध है, इसीलिए आत्मा हत्याएँ है। इसीलिए अपराध है। प्रेम के जगत ने एक झूठा स्थानापन्न सब्स्टीट्यूट विवाह का ईजाद कर लिया है। विवाह के कारण वेश्याएं हे, गुंडे है। विवाह के शराबी है। विवाह के कारण बेहोशियां है। विवाह के कारण भागे हुए संन्यासी है, विवाह के कारण मंदिरों मे भजन करने वाले झूठे लोग है। जब तक विवाह है तब तक यह रहेगा।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि विवाह मिट जाये, मैं यह कहा रहा हूं कि विवाह प्रेम से निकले। विवाह से प्रेम नहीं निकलता है। प्रेम से विवाह निकले तो शुभ है, और विवाह से प्रेम को निकलने की कोशिश की जाये तो यह प्रेम झूठा होगा। क्योंकि जबर्दस्ती कभी भी कोई प्रेम नहीं निकल सकता है। प्रेम या तो निकलता है या नहीं निकलता है। जबर्दस्ती नहीं निकाला जा सकता है।
तीसरी बात मैंने यह कहीं है कि जो मां-बाप प्रेम से भरे हुए नहीं है; उनके बच्चे जन्म से ही विकृत, परवटेंड , एबनार्मल,रूग्ण और बीमार पैदा होंगे। मैंने यह कहा जो मां-बाप जो पति-पत्नी, जो प्रेमी युगल प्रेम के संभोग में लीन नहीं होते है। वे केवल उन बच्चों को पैदा करेंगे जो शरीवादी होंगे। भौतिकवादी होगें। उनकी जीवन की आँख पदार्थ से ऊपर कभी नहीं उठेगी। वे परमात्मा को देखने के लिए अंधे पैदा होंगे। आध्यात्मिक रूप से अंधे बच्चे हम पैदा कर रहे है।
मैंने आपसे चौथी बात यह कहीं कि मां-बाप अगर एक दूसरे को प्रेम करते है तो वे बच्चों के मां-बाप बनेंगे; क्योंकि बच्चे उनकी ही प्रतिध्वनि हे। वह आया हुआ नया बसंत है। वे फिर से जीवन के दरख़्त पर लगी हुई कोंपलें है। लेकिन जिसने पुराने बसंत को प्रेम नहीं किया, वह नये बसंत को प्रेम कैसे करेगा?
और मैने अंतिम बात यह कहीं कि प्रेम शुरूआत है और परमात्मा अंतिम विकाश है। प्रेम में जीवन शुरू हो तो परमात्मा में पूर्ण होता है। प्रेम बीज बने तो परमात्मा अंतिम वृक्ष की छाया बनता है। प्रेम गंगोत्री हो तो परमात्मा का सागर उपलब्ध होता है।
जिसके मन की कामना हो कि परमात्मा तक जाये, वह अपने जीवन को प्रेम के गीत से भर ले। और जिसकी भी आकांशा हो कि पूरी मनुष्यता परमात्मा के जीवन से भर जाए। वह सारी मनुष्यता को प्रेम की तरफ ले जाने के मार्ग पर जितनी बाधाएं हों वह उनको तोड़े मिटाये और प्रेम को उन्मुक्त आकाश दे; ताकि एक दिन एक नये मनुष्य का जन्म हो सके।
पुराना मनुष्य रूग्ण था। कुरूप था, अशुभ था। पुराने मनुष्य ने अपने आत्मघात का इंतजाम कर लिया था। वह आत्मा हत्या कर रहा था। सारे जगत में वह एक साथ आत्मघात कर लेगा। सार्वजनिक आत्मघात, यूनिवर्सल स्यूसाइड का उपाय कर लिया गया है। अगर इसे बचाना है तो प्रेम की वर्षा, प्रेम की भूमि और प्रेम के आकाश को निर्मित कर लेना जरूरी है।
Kalpant Healing Center
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