Tuesday, 13 February 2018

तुम ही लक्ष्‍य हो

तंत्र--सूत्र--(भाग--3) प्रवचन--48

तुम ही लक्ष्‍य हो—(प्रवचन—अड़तालीसए)

प्रश्‍नसार:
1—प्रेरणा और आदर्श में क्‍या फर्क है? क्‍या किसी जिज्ञासु
के लिए किसी से प्रेरणा लेना गलत है?
      2—सामान्‍य होना क्‍या है? और आजकल इतनी विकृति क्‍यों है?
      3—बोध को उपलब्‍ध हुए बिना उसे अनुभव कैसे किया जा सकता है?
            जो अभी घटा नहीं है उसका भाव कैसे संभव है?


पहला प्रश्न :

कल रात आपने कहा कि कृष्ण, क्राइष्ट और बुद्ध मनुष्य की संभवना और विकास के गौरीशंकर है, और फिर आपने कहा कि योग और तंत्र का मनोविज्ञान मनुष्य के सामने कोई आदर्श नहीं रखता है और तंत्र के अनुसार कोई भी आदर्श रखना एक भूल है। इस संदर्भ में कृपया समझाएं की प्रेरणा और आदर्श में क्या फर्क है। किसी जिज्ञासु के जीवन में प्रेरणा का क्या स्थान हैऔर यह भी समझाने की कृपा करें कि क्या किसी ध्यानी के लिए किसी महापुरुष से प्रेरणा लेना भी एक भूल है।

 बुद्ध कृष्ण या क्राइस्ट तुम्हारे लिए आदर्श नहीं हैंतुम्हें उनका अनुकरण नहीं करना है। अगर तुम उनका अनुकरण करोगे तो तुम उन्हें चूक जाओगे और तुम अपने बुद्धत्व को कभी उपलब्ध नहीं होगे। बुद्धत्व आदर्श हैबुद्ध आदर्श नहीं हैं। क्राइस्ट आदर्श हैजीसस आदर्श नहीं हैं। बुद्धत्व गौतम बुद्ध से भिन्न है। क्राइस्ट जीसस से भिन्न है। जीसस अनेक क्राइस्टों में एक हैं। तुम क्राइस्ट हो सकते होलेकिन तुम कभी जीसस नहीं हो सकते। तुम बुद्ध हो सकते होलेकिन तुम कभी गौतम नहीं हो सकते। एक दिन गौतम बुद्ध हो गए और तुम भी एक दिन बुद्ध हो सकते हो। बुद्धत्व एक गुणवत्ता हैएक अनुभव है।
निश्चित हीजब गौतम बुद्ध हुए तो उनका अपना ही व्यक्तित्व था। तुम्हारा भी अपना ही व्यक्तित्व है। जब तुम बुद्ध होगे तो दोनों बुद्ध एक जैसे नहीं होंगे। आंतरिक अनुभव तो एक होगालेकिन अभिव्यक्ति भिन्न होगी—बिलकुल भिन्न होगी। उनमें कोई तुलना संभव नहीं है। सिर्फ अंतरतम केंद्र में तुम समान होगे।
क्योंक्योंकि अंतरतम केंद्र में कोई व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्ति तो परिधि पर है। तुम जितने गहरे उतरते हो उतना ही व्यक्ति विलीन हो जाता है। अंतरतम केंद्र में तुम ऐसे हो जैसे कि नहीं होअंतरतम केंद्र में तुम एक गहन शून्य भर हो। और इस शून्यता के कारण ही वहां कोई भेद नहीं है। दो शून्य भिन्न नहीं हो सकतेलेकिन दो गैर—शून्य निश्चित ही भिन्न होंगे। दो गैर—शून्य वस्तुत: कभी एक जैसे नहीं हो सकते। और दो शून्य कभी भिन्न नहीं हो सकते।
जब कोई परम शून्यता ही हो जाता हैसिर्फ एक शून्य केंद्र रह जाता हैतो यह परम शून्यता वह तत्व है जो जीसस,कृष्ण और बुद्ध में समान है। जब तुम उस परम को उपलब्ध होगे तो तुम शून्य हो जाओगे। लेकिन तुम्हारा व्यक्तित्वउस समाधि की तुम्हारी अभिव्यक्ति निश्चित ही भिन्न होने वाली है।
मीरा नाचेगीबुद्ध कभी नाच नहीं सकते। नाचते हुए बुद्ध की कल्पना भी संभव नहीं है। वह बात ही बेतुकी मालूम पड़ेगी। लेकिन बुद्ध की भांति किसी वृक्ष के नीचे मीरा को बैठा दो तो वह बात भी उतनी ही बेतुकी मालूम पड़ेगी। वह अपना सब कुछ खो देगीवह मीरा बिलकुल नहीं रहेगा। वह नकल भी होगी। सच्ची मीरा की धारणा तो प्रेम में पागलआनंदमग्न नाचती हुई मीरा की ही बन सकती है। यह उसका ढंग है।
बोधिवृक्ष के नीचे बैठे बुद्ध का और आनंदमग्न नाचती मीरा कादोनों का अंतरतम समान होगा। नाचती हुई मीरा और मूर्तिवत मौन बैठे बुद्ध का अंतरस्थ केंद्र एक होगालेकिन उनकी परिधि अलग—अलग होगी। नृत्य और मौन बैठनादोनों परिधि पर हैं। अगर तुम मीरा में प्रवेश करोगे और गहरे उतरोगेनृत्य खो जाएगामीरा भी खो जाएगी। वैसे ही यदि तुम बुद्ध के भीतर गहरे जाओगे तो बैठना खो जाएगाव्यक्ति की भांति बुद्ध भी खो जाएंगे।
इसका अर्थ यह है कि तुम बुद्ध तो हो सकते होलेकिन तुम कभी गौतम बुद्ध नहीं हो सकते। तुम उन्हें अपना आदर्श मत बनाओअन्यथा तुम उनका अनुकरण करने लगोगे। और यदि तुम अनुकरण करोगे तो क्या कर सकते होतुम कुछ चीजें बाहर से आरोपित करोगेलेकिन वह आरोपण नकली होगाझूठा होगा। तुम झूठे हो जाओगेवह रंग—रोगन भर होगा। तुम बुद्ध जैसे दिखोगेबुद्ध से भी बढ़कर दिखोगे। तुम दिख सकते होलेकिन वह दिखावा भर होगाबाह्य आडंबर भर होगा। गहरे में तुम वही के वही रहोगेजो थे। और इससे द्वैत पैदा होगाद्वंद्व पैदा होगाआंतरिक संताप पैदा होगा। और तुम दुख में होगे।
तुम आनंद में तभी हो सकते हो जब तुम प्रामाणिक रूप से स्वयं होगे। जब तक तुम किसी दूसरे जैसे होने का नाटक करोगेतुम्हें कभी कोई सुख की प्रतीति नहीं हो सकती।
तो तंत्र का यह संदेश स्मरण रहे : 'तुम स्वयं आदर्श हो। तुम्हें किसी का अनुकरण नहीं करना हैतुम्हें अपना आविष्कार करना है।’ किसी बुद्ध को देखकर तुम्हें उनका अनुकरण करने की जरूरत नहीं है। जब तुम किसी बुद्ध को देखते हो तो तुम्हारे भीतर यह संभावना सजग हो जाती है कि कुछ ऐसा भी घटता है जो इस जगत का नहीं है।बुद्धतो एक प्रतीक मात्र है कि इस व्यक्ति को कुछ घटित हुआ है। और यदि यह इस व्यक्ति को घटित हो सकता है तो प्रत्येक व्यक्ति को यह घटित हो सकता है। उनमें मनुष्यता की आत्यंतिक संभावना प्रकट हो जाती है। जीससमीरा या चैतन्य में संभावना प्रकट हुई हैभविष्य प्रकट हुआ है। तुम्हें वही बने रहने की जरूरत नहीं है जो तुम होउससे बहुत अधिक संभव है।
तो बुद्ध केवल भविष्य के एक प्रतीक हैंउनका अनुकरण मत करो। बल्कि उनका जीवनउनका होना और उन्हें घटित हुई बुद्धत्व की घटनातुम्हारे भीतर नई अभीप्सा बन जाए इतना पर्याप्त है। तुम्हें उससे ही संतुष्ट नहीं हो जाना है जो तुम अभी हो। बुद्ध को अपने भीतर एक असंतोष बन जाने दोपार जाने कीअज्ञात में जाने की एक प्यास बन जाने दो।
जब तुम अपने अस्तित्व के शिखर पर पहुंचोगे तो तुम जान लोगे कि बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे क्या हुआ थाया जीसस को सूली पर क्या हुआ थाया मीरा को सड़कों पर नाचते हुए क्या हुआ था। तब तुम जान लोगे। लेकिन तुम्हारी अभिव्यक्ति तुम्हारी अपनी होगी। तुम मीरा या बुद्ध या जीसस नहीं होगे। तुम स्वयं होगे। तुम पहले कभी नहीं हुएतुम सर्वथा अनूठे हो।
तो कुछ कहा नहीं जा सकतातुम्हारे बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। कोई नहीं कह सकता कि क्या होगा,कि तुम उसे कैसे प्रकट करोगे। तुम गाओगेकि नाचोगे, कि चित्र बनाओगे या कि मौन रहोगेकोई नहीं कह सकता है। और यह अच्छा है कि कुछ कहा नहीं जा सकता, कोई भविष्‍यवाणी नहीं की जा सकती। यही इसका सौंदर्य है। अगर तुम्हारे संबंध में भविष्यवाणी की जा सके कि तुम यह होंगे या वह होगे तो तुम एक यांत्रिक चीज हो जाओगे। केवल यांत्रिक व्यवस्था के संबंध में भविष्यवाणी संभव है। मनुष्य की चेतना के संबंध में भविष्यवाणी असंभव है। वही उसकी स्वतंत्रता है।
तो जब तंत्र कहता है कि आदर्शों का अनुकरण मत करो तो उसका अभिप्राय बुद्ध को इनकार करना नहीं है। नहींयह बुद्ध का इनकार नहीं है। सच तो यह है कि इसी भांति तुम अपने बुद्धत्व को उपलब्ध हो सकते हो। दूसरों का अनुकरण करने से तो तुम उसे चूक जाओगे। अपने मार्ग पर चलकर ही तुम उसे प्राप्त कर सकते होउपलब्ध हो सकते हो।
एक आदमी झेन सदगुरु बोकोजू के पास आया। बोकोजू के गुरु बहुत प्रसिद्ध थेजाने—माने थेमहान पुरुष थे। तो उस आदमी ने बोकोजू से पूछा : 'क्या आप सच में अपने गुरु का अनुसरण करते हैं?' बोकोजू ने कहा : 'हीमैं उनका अनुसरण करता हूं।
लेकिन प्रश्न पूछने वाला बहुत हैरान हुआक्योंकि पूरे देश में बात प्रसिद्ध थी कि बोकोजू अपने गुरु का अनुसरण बिलकुल नहीं करता है। उसने कहा 'क्या आप मुझे धोखा देने की चेष्टा कर रहे हैंसब लोग जानते हैं और आप भी जानते हैं कि आप उनका अनुसरण नहीं करते हैं। तो फिर आपका मतलब क्या है?'
बोकोजू ने कहा : 'मैं अपने गुरु का ही अनुसरण कर रहा हूं—क्योंकि मेरे गुरु ने कभी अपने गुरु का अनुसरण नहीं किया। मैंने उनसे सही सीखा है। वे जैसे थे वैसे थे।
इसी भांति बुद्ध या जीसस का अनुसरण किया जाना चाहिए। इसी भांति! वे अनूठे हैं। और अगर तुम उनका सच में अनुसरण करते हो तो तुम्हें भी अनूठा होना चाहिए।
बुद्ध ने कभी किसी का अनुकरण नहीं कियाऔर वे बुद्धत्व को तभी उपलब्ध हुए जब उन्होंने सब अनुकरण सर्वथा बंद कर दिया। जब वे स्वयं हो गएजब उन्होंने सब मार्गसब सिद्धांत छोड़ दिए तब वे पहुंच गए। अगर तुम उनका अनुकरण करते हो तो यथार्थत: तुम उनका अनुसरण नहीं करते हो। यह बात विरोधाभासी नहीं हैविरोधाभासी दिखाई भर पड़ती है। अगर तुम उनका अंधे की तरह अनुकरण करते हो तो तुम उनका अनुसरण नहीं कर रहे हो। उन्होंने कभी किसी का अनुकरण नहीं किया और तो ही वे शिखर बन सके। उन्हें समझोउनका अनुकरण मत करो। और तब एक सूक्ष्म अनुसरण घटित होगा जो आंतरिक होगा। वह अनुकरण नहीं होगा।
नीत्शे के महान ग्रंथ 'दस स्पेक जरथुस्त्रमें अपने शिष्यों के प्रति जरथुस्त्र का अंतिम संदेश यह है : 'मुझसे सावधान रहो। मैंने तुम्हें वह सब कह दिया जो कहा जाने योग्य था। अब मुझसे सावधान रहो। मेरा अनुकरण मत करोमुझे भूल जाओ। मुझे छोड़ो और दूर चले जाओ।
सभी महान सदगुरुओं का यही अंतिम संदेश है। कोई महान गुरु तुम्हें अपने हाथ की कठपुतली बनाना नहीं चाहेगा। क्योंकि तब वह तुम्हारी हत्या कर रहा है। तब वह गुरु नहीं, हत्यारा है। सदगुरु तो तुम्हें स्वयं होने में सहयोग करेगा। और अगर तुम अपने सदगुरु की अंतरंग सन्निधि और सत्संग में रहकर भी स्वयं नहीं हो सकतेतो फिर तुम कहां स्वयं होंगे?
सदगुरु तुम्हें स्वयं होने के लिए एक अवसर है। सिर्फ क्षुद्र चित्त के लोगसंकीर्ण चित्त के लोग, जो गुरु होने का दिखावा करते है लेकिन है नहींकेवल वे ही तुम पर अपने को आरोपित करने की चेष्टा करेंगे। महान गुरु तो तुम्हें तुम्हारे मार्ग पर ही बढ़ने में सहायता करेंगे। सदगुरु सब संभव उपाय करेंगे कि तुम अनुकरण के शिकार न होओ। उससे तुम्हें बचाने के लिए वे सब तरह की बाधाएं निर्मित करेंगेवे तुम्हें अनुकरण नहीं करने देंगे।
तुम तो अनुकरण करना चाहोगेक्योंकि वह आसान है। अनुकरण आसान हैप्रामाणिक होना कठिन है। और जब तुम अनुकरण करते हो तो तुम उसके लिए अपने को जिम्मेवार नहीं समझते। तब गुरु जिम्मेवार हो जाता है। किसी बड़े सदगुरु ने कभी किसी को अनुकरण करने की इजाजत नहीं दी। वह हरेक बाधा निर्मित करेगाताकि तुम उसका अनुकरण न कर सको। वह हरेक उपाय से तुम्हें स्वयं पर फेंक देगा।
मुझे स्मरण आता है एक चीनी संत काजो अपने सदगुरु के संबोधि दिवस का उत्सव मना रहा था। उसके अनेक शिष्य वहां इकट्ठे थे। उन्होंने कहा : 'हमने तो कभी नहीं सुना कि यह व्यक्ति आपका गुरु हैहमें नहीं मालूम था कि आप उसके शिष्य हो।
वह का गुरु मर चुका था। उन्होंने कहा : 'आज ही हमें पता चला कि आप अपने गुरु का संबोधि—दिवस मना रहे हो। यह व्यक्ति आपका गुरु थालेकिन कैसेहमने तो आपको कभी उसके साथ नहीं देखा।
उस संत ने कहा : 'मैं तो उनका अनुयायी बनना चाहता थालेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। उन्होंने मेरा गुरु बनने से इनकार कर दिया। और उनके इस इनकार के कारण ही मैं स्वयं हो सका। अभी मैं जो कुछ हूं वह उनके इनकार के कारण हूं। मैं उनका शिष्य हूं। वे मुझे स्वीकार भी कर सकते थेतब मैं सारी जिम्मेवारी उनके कंधों पर डाल देता। लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया। और वे सर्वश्रेष्ठ गुरु थेवे अप्रतिम थेउनका कोई जोड़ नहीं था। जब उन्होंने मुझे इनकार कर दिया तो फिर मैं और किसी के पास नहीं जा सकाक्योंकि वे ही एकमात्र शरण थे। उन्होंने जब इनकार कर दिया तो फिर किसी और के पास जाने में कोई अर्थ नहीं थाकोई मतलब नहीं था। मैं किसी के पास नहीं गया। वे अंतिम थे। अगर वे मुझे स्वीकार कर लेते तो मैं अपने को भूल जाता। लेकिन उन्होंने इनकार कर दियाऔर बहुत कठोर ढंग से इनकार कर दिया। वह इनकार मेरे लिए बड़ा आघात बन गयाभारी चुनौती बन गया। और मैंने तय कर लिया कि अब मैं किसी के भी पास नहीं जाऊंगा। जब इस व्यक्ति ने इनकार कर दिया तो कोई अन्य व्यक्ति इस योग्य नहीं था कि उसके पास जाता। तब मैंने खुद ही अपने ऊपर काम शुरू किया। और तब मुझे धीरे— धीरे बोध हुआ कि उन्होंने क्यों इनकार किया था। उन्होंने मुझे मुझ पर ही फेंक दिया था। और तब मुझे यह बोध भी हुआ कि असल में उन्होंने मुझे स्वीकार कर लिया था। अन्यथा वे इनकार क्यों करते?'
यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती हैलेकिन चेतना का परम गणित इसी तरह काम करता है। सदगुरु बड़े रहस्यपूर्ण होते हैं। तुम उनके संबंध में कोई निर्णय नहीं ले सकतेतुम तय नहीं कर सकते कि वे क्या कर रहे हैं। यह तो तुम तभी समझोगे जब पूरी चीज घटित हो जाएगी। तब पीछे लौटकर देखने पर ही तुम समझ सकोगे कि वे क्या कर रहे थे। अभी तो यह असंभव है। बीच रास्ते में तुम नहीं समझ सकते कि क्या हो रहा हैक्या किया जा रहा है। लेकिन एक बात पक्की है : नकल बिलकुल स्वीकृत नहीं है।
 प्ररेणा भिन्‍न चीज है। प्रेरणा से तुम यात्रा पर निकलते हो; लेकिन यह यात्रा किसी की नकल में पड़ जाना नहीं है। तुम चलते तो अपने ही पथ पर हो। प्रेरणा चुनौती मात्र हैएक प्यास उठती है और तुम चल पड़ते हो।
तंत्र कहता है कि प्रेरणा तो लोमगर नकलची मत बनो। सदा स्मरण रखो कि तुम अपने गंतव्य स्वयं होकोई दूसरा तुम्हारा गंतव्य नहीं हो सकता। और जब तक तुम उस जगह नहीं पहुंच जाते जहां तुम कह सको कि मैं अपनी नियति को उपलब्ध हो गयामैं आप्तकाम हो गयातब तक मत रुकना। तब तक आगे बढ़ते जाओतब तक असंतुष्ट रहोतब तक बढ़ते चलो। चरैवेति—चरैवेति।
और यदि तुम अपना कोई आदर्श नहीं निर्मित करते हो तो हर कोई तुम्हें कुछ न कुछ सिखा सकता है। जैसे ही तुम किसी आदर्श से बंध जाते होतुम बंद हो जाते हो। अगर तुम बुद्ध से बंधे हो तो फिर जीसस तुम्हारे काम के न रहेफिर मोहम्मद तुम्हारे लिए न रहे। तब तुम एक आदर्श से बंधे हो और उसकी नकल करने में संलग्न हो। तब और सब भिन्न दिखने वाले लोग तुम्हारे मन को शत्रु मालूम पड़ने लगते हैं।
महावीर का अनुयायी मोहम्मद के प्रति खुले होने की सोच भी नहीं सकतायह असंभव है। मोहम्मद महावीर से बिलकुल भिन्न हैंभिन्न ही नहींविपरीत हैं। वे दोनों विपरीत ध्रुवों जैसे मालूम पड़ते हैं। अगर तुम दोनों को अपने चित्त में एक साथ रखोगे तो तुम भारी द्वंद्व में पड़ोगे। तुम ऐसा नहीं कर सकते हो।
यही कारण है कि एक के अनुयायी दूसरों के अनुयायियों के दुश्मन बन जाते हैं। वे ही संसार में शत्रुता के बीज बीते हैं। एक हिंदू नहीं सोच सकता कि मोहम्मद ज्ञानी हो सकते हैं। एक मुसलमान नहीं सोच सकता कि महावीर ज्ञानी हो सकते हैं। वैसे ही कृष्ण का अनुयायी नहीं सोच सकता कि महावीर ज्ञानी हो सकते हैंकि जीसस ज्ञानी हो सकते हैं। जीसस कितने उदास दिखते हैं और कृष्ण कितने आनंदित हैं! कृष्ण का आनंद और जीसस की उदासी दोनों बिलकुल विपरीत ध्रुव हैं। जीसस के अनुयायी सोच भी नहीं सकते कि कृष्ण ज्ञान को उपलब्ध हैं। संसार में इतना दुख है और यह आदमी बांसुरी बजा रहा है! यह तो हद दर्जे की स्वार्थ की बात मालूम पड़ती है। सारी दुनिया पीड़ा में है और यह अपनी गोपियों के साथ नाच रहा है! जीसस के अनुयायी इसे अधार्मिक कहेंगेसांसारिक कहेंगे।
लेकिन मैं यहां अनुयायियों की बात कर रहा हूं। जीससबुद्ध और कृष्ण बिना किसी कठिनाई केबिना किसी संघर्ष के साथ—साथ रह सकते हैं। बल्कि वे एक—दूसरे के साथ अति आनंदित होंगे। लेकिन उनके अनुयायी ऐसा नहीं कर सकते। क्यों?ऐसा क्यों है?
इसका बहुत गहरा मनोवैज्ञानिक कारण है। अनुयायी को मोहम्मद या महावीर से मतलब नहीं हैउसे अपनी चिंता है। अगर दोनों ठीक हैं तो वह कठिनाई में पड़ेगा। तब उसे प्रश्न उठेगा कि किसके पीछे चला जाएक्या किया जाए। मोहम्मद अपनी तलवार हाथ में लिए खड़े हैं और महावीर कहते हैं कि कीड़े—मकोड़े को मारना भी जन्मों—जन्मों का भटकाव हो सकता है। मोहम्मद तो अपनी तलवार लिए हैंफिर क्या किया जाए?
मोहम्मद युद्ध करते हैं और महावीर जीवन से सर्वथा पलायन कर जाते हैं। वे इतना
पलायन कर जाते हैं कि श्वास लेने से भी डरते हैं। क्योंकि जब तुम श्वास लेते हो तो उससे अनगिनत जीवन नष्‍ट हो जाते है। महावीर श्‍वास लेने से भी डरते है और मोहम्मद युद्ध करते हैं। कैसे उनमें से किसी का भी अनुयायी विपरीत को भी ठीक स्वीकार करेगाउसका हृदय बंट जाएगा और वह सतत द्वंद्व में फंसा रहेगा। इससे बचने के लिए वह कहता है कि अन्य सारे लोग गलत हैंसिर्फ यही ठीक है।
लेकिन यह समस्या उसी ने पैदा की है। यह समस्या इसीलिए खड़ी होती है क्योंकि वह अनुकरण करने में लगा है। उसकी कोई जरूरत नहीं है। अगर तुम किसी से बंधे नहीं हो तो तुम अनेक नदियों और अनेक कुओं के पानी का स्वाद ले सकते हो। और यह कोई समस्या नहीं है अगर उनका स्वाद भिन्न—भिन्न है। यह तो सुंदर बात है। तुम उनसे समृद्ध होते हो। तब तुम मोहम्मद और महावीर और क्राइस्ट और जरथुस्त्रसबके प्रति खुले होते हो। वे सब तुम्हें स्वयं होने के लिए प्रेरणा बन जाते हैं। वे आदर्श नहीं हैंवे सब स्वयं होने में तुम्हारी मदद करते हैं। वे अपनी ओर इशारा नहीं कर रहे हैंवे तो अलग—अलग उपायों सेअलग—अलग ढंगों से तुम्हें तुम्हारी ओर ही उगख कर रहे हैं। वे एक ही मंजिल की ओर इशारा कर रहे हैंऔर वह मंजिल तुम हो।
लारा हक्सले ने एक किताब लिखी है। किताब का नाम है : 'यू आर नाट दि टारगेट', तुम लक्ष्य नहीं हो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ही लक्ष्य होतुम ही बुद्धमहावीरकृष्ण और क्राइस्ट के लक्ष्य हो। वे सबके सब तुम्हारी तरफ इशारा कर रहे हैं। तुम ही लक्ष्य होतुम ही मंजिल हो। तुम्हारे द्वारा जीवन एक अनूठे शिखर पर पहुंचने की चेष्टा में लगा है। इससे प्रसन्न होओ। इसके लिए कृतज्ञ होओ। जीवन तुम्हारे द्वारा एक अनूठी मंजिल को प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है। और वह मंजिल तुम्हारे द्वारा ही प्राप्त की जा सकती हैकोई दूसरा उसे नहीं प्राप्त कर सकता है। तुम उसके लिए बने होवही तुम्हारी नियति है।
तो दूसरों के अनुकरण में समय मत गंवाओ। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि किसी से प्रेरणा नहीं लेनी है। सच तो यह है कि अगर तुम किसी का अनुकरण नहीं कर रहे हो तो तुम आसानी से प्रेरणा ले सकते हो। अगर तुम अनुकरण कर रहे हो तो तुम मुर्दा होतब तुम प्रेरणा नहीं ले सकते। प्रेरणा खुलापन हैअनुकरण बंद होना है।

 दूसरा प्रश्न:

आपने कहा कि पश्‍चिम का मनोविज्ञान फ्रायड की मानसिक रुग्णता की धारणा पर
आधारित है और पूर्वीय मनोविज्ञान मनुष्य के मूल्यांकन के लिए अधिसामान्य को आधार की तरह उपयोग करता है। लेकिन जब मैं आधुनिक जगत में अपने चारों ओर देखता हूं तो पाता हूं कि सर्वाधिक लोग फ्रायड की रुग्णता की कौटी मैं आते हैलाखों में एक व्‍यक्‍ति अधिसामान्‍य की कोटी में है। और बहुत थोड़े से लोग समाज के सामान्य के आदर्श के अनुकूल पड़ते हैं। आजकल इतनी ज्यादा रूग्‍णता क्यों हैऔर आप सामान्य की क्या परिभाषा करेंगे?

 हुत सी बातें समझने जैसी हैं। ऐसा नहीं है कि बहुत थोड़े लोग अपने शिखर को उपलब्ध होते हैंअनेक होते हैं;लेकिन उन्हें देखने वाली आंखें तुम्हारे पास नहीं हैं। जब तुम अपने चारों और देखते हो तो तुम वही देखते हो जो देख सकते हो। तुम उसे कैसे देख सकते हो जिसे तुम नहीं देख सकतेतुम्हारी देखने की क्षमता से बहुत सी बातें तय होती हैं। तुम वही सुनते हो जो सुन सकते होवह नहीं जो है।
अगर कोई बुद्ध पुरुष तुम्हारे पास से गुजरे तो तुम उसे नहीं पहचान पाओगे। और तुम मौजूद थे जब बुद्ध गुजरे थे;लेकिन तुम उन्हें चूक गए। तुम मौजूद थे जब जीसस जीवित थेलेकिन तुमने उन्हें सूली पर चढ़ा दिया। देखना कठिन है,क्योंकि तुम अपने ही ढंग से देखते हो। तुम्हारी अपनी धारणाएं हैंतुम्हारी अपनी मान्यताएं हैंतुम्हारे अपने रुझान हैं। उनके द्वारा तुम बुद्ध या जीसस को देखते हो।
जीसस तुम्हें अपराधी दिखाई पड़े। जब जीसस को सूली दी गई तो उन्हें दो अन्य अपराधियों के साथ सूली पर चढ़ाया गया। उनके दोनों तरफ एक—एक चोर था। तीन व्यक्तियों को सूली पर चढ़ाया गया और जीसस ठीक दो चोरों के बीच में थे। क्योंउन्हें अनैतिक अपराधी माना गया। और तुम निर्णायक थे। अगर जीसस अभी फिर आ जाएं तो तुम फिर उन्हें उसी तरह अपराधी ठहराओगेक्योंकि तुम्हारे निर्णय के ढंगतुम्हारे मापदंड नहीं बदले हैं।
जीसस किसी के भी साथ रह लेते थेकिसी के भी घर ठहर जाते थे। वे एक बार एक वेश्या के घर में ठहरेऔर सारा गांव उनके विरोध में हो गया। लेकिन उनके मूल्य भिन्न थे। वह वेश्या आई और उसने आंसुओ से जीसस के पांव धोए। उसने उनसे कहा : 'मैं दोषी हूंमैं पापी हूं। और आप मेरी एकमात्र आशा हैं। अगर आप मेरे घर आएंगे तो मैं पाप से मुक्त हो जाऊंगी;मुझे नया जीवन मिल जाएगा। अगर जीसस मेरे घर आ सकते हैं तो मैं स्वीकृत हूं।’ तो जीसस गए और उस वेश्या के मेहमान हुए। लेकिन सारा गाव उनके खिलाफ हो गया। लोग कहने लगे कि यह किस ढंग का आदमी है जो वेश्या के घर टिकता है! लेकिन जीसस के लिए प्रेम मूल्य है। और किसी ने भी उन्हें ऐसा प्रेमपूर्ण निमंत्रण नहीं दिया था। वे इनकार नहीं कर सकते थे। और यदि जीसस इनकार करते तो वे प्रबुद्ध नहीं थे। तब वे भी सामाजिक सम्मान के पीछे दौड़ने वालों में से एक होते। लेकिन वे सामाजिक सम्मान की खोज में नहीं थे।
एक दूसरे गांव में गाव के लोग एक स्त्री को लेकर जीसस के पास आए। उस स्त्री ने व्यभिचार किया था। पुरानी बाइबिल में लिखा है कि यदि कोई स्त्री व्यभिचार करे तो उसे पत्थर फेंक कर मार डालना चाहिए। यह नहीं लिखा है कि व्यभिचार के भागी पुरुष को मार डालना चाहिएलिखा है कि स्त्री को मार डालना चाहिए। क्योंकि स्त्री व्यभिचार करती हैपुरुष कभी व्यभिचार नहीं करता। कारण यह है कि सभी धर्मशास्त्र पुरुषों ने लिखे हैं। और यह एक कठिन सवाल थातो उन्होंने जीसस से पूछा कि क्या करना चाहिए।
वे लोग जीसस के साथ चाल चल रहे थे। अगर जीसस कहते कि इस स्त्री को मत मारोकिसी के निर्णायक मत बनोतो वे कहते कि आप शास्त्र के खिलाफ हैं। और अगर जीसस कहते कि इस स्त्री को मार डालोपत्थर फेंककर मार डालोतो वे कहते कि आपके इस उपदेश का क्या हुआ कि अपने शत्रुओं को प्रेम करोऔर आपका वह उपदेश कहां गया कि 'किसी के निर्णायक मत बनीताकि तुम पर भी कोई निर्णय न ले।ऐसे वे चाल चल रहे थे। वे जीसस के लिए एक धर्मसंकट पैदा कर रहे थे,एक तार्किक झंझट पैदा कर रहे थे। जीसस कुछ भी कहतेवे उसमें ही पकड़े जाते।
लेकिन तुम बुद्ध पुरुष को नहीं पकड़ सकतेयह असंभव है। यह बिलकुल असंभव है। और तुम जितनी ही उन्हें फांसने की कोशिश करोगेउतने ही तुम उनके फंदे में पड़ जाओगे। जीसस ने कहा : 'शास्त्र बिलकुल सही हैं। लेकिन वे ही लोग आगे आएं जिन्होंने कभी व्यभिचार न किया हो। और ये पत्थर उठाओ और इस स्त्री की हत्या कर दोलेकिन वे ही पत्थर उठाएं जिन्होंने कभी व्यभिचार न किया हो।
इतना सुनते ही भीड़ छंटने लगी। जो लोग आगे खड़े थे वे पीछे सरकने लगे। कौन इस स्त्री को पत्थर मारेलेकिन वे लोग जीसस के शत्रु बन गए।
और जब मैं कहता हूं 'वेतो मेरा मतलब तुमसे है। तुम सदा यहां रहे हो। तुम नहीं पहचान सकतेतुम नहीं देख सकते;तुम अंधे हो। यही कारण है कि तुम्हें सदा लगता है कि जगत बुरा है और यहां कोई बुद्ध नहीं हैयहां सब रुग्ण लोग हैं। ऐसा नहीं है। लेकिन तुम्हें सिर्फ रुग्णता दिखाई पड़ती हैक्योंकि तुम रुग्ण हो। तुम्हें बीमारी समझ में आती हैक्योंकि तुम बीमार हो। तुम कभी स्वास्थ्य को नहीं समझ सकतेक्योंकि तुम कभी स्वस्थ नहीं रहे। स्वास्थ्य की भाषा तुम्हारी समझ के बाहर है।
मैंने एक यहूदी संत बालशेम के संबंध में सुना है। कोई आदमी आया और उसने बालशेम से पूछा. 'क्या ज्यादा महत्वपूर्ण हैक्या ज्यादा मूल्यवान है—धन या विवेक?' वह आदमी यह प्रश्न किसी कारण से पूछ रहा था। तो बालशेम हंसा और उसने कहा. 'निश्चित ही विवेक ज्यादा महत्वपूर्ण हैज्यादा मूल्यवान है।’ तब उस आदमी ने कहा : 'फिरबालशेमदूसरा सवाल यह है कि मैं हमेशा देखता हूं कि विवेकपूर्ण होकर भी तुम ही धनियों के पास जाते हो। तुम ही सदा धनी लोगों के घर जाते होमैंने कभी किसी धनवान को तुम्हारे पासविवेक वाले के पासआते नहीं देखा। और तुम कहते हो कि धन से विवेक ज्यादा मूल्यवान है। तो यह बात मुझे समझाओ।
बालशेम हंसा और उसने कहा. 'विवेक वाले धनवान के पास जाते हैंक्योंकि उनमें विवेक है और वे धन का मूल्य जानते हैं। और धनवान सिर्फ धनवान हैं—उनके पास केवल धन हैऔर कुछ भी नहीं है—वे विवेक का मूल्य नहीं समझ सकते। निश्चित ही मैं जाता हूं क्योंकि मैं धन का मूल्य समझता हूं। और वे गरीब मूढ़जन! वे सिर्फ धनवान हैं—और कुछ भी नहीं। वे विवेक का मूल्य नहीं समझ सकतेइसलिए वे कभी मेरे पास नहीं आते हैं।
अगर तुम किसी संत को राजमहल की ओर जाते देखोगे तो तुम कहोगे कि यह आदमी संत नहीं हैबात ही खत्म हो गई। क्योंकि तुम अपनी ही आंखों से देखते हो। धन तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है। तुम उसी संत के पीछे चलोगे जो धन का त्याग कर देता हैक्योंकि तुम धन—लोलुप हो। तुम अपने को गौर से देखोतुम जो भी कहते हो वह दूसरों की बजाय तुम्हारे संबंध में ज्यादा खबर देता है। वह सदा तुम्हारे संबंध में हैतुम संदर्भ हों। जब तुम कहते हो कि बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध नहीं है। तो तुम्हारा मतलब कुछ और है। तुम्हारा मतलब इतना ही है कि तुम्हें वे ज्ञान को उपलब्ध दिखाई नहीं पड़ते हैं।
लेकिन तुम कौन होऔर क्या उनका बुद्धत्व किसी भी तरह से तुम्हारे रुझानतुम्हारे मततुम्‍हारे दृष्‍टिकोण पर निर्भर है? तुम्‍हारी धारणाओं के बंधे—बंधाए ढांचे है और तुम निरंतर उन्हीं के माध्यम से निर्णय लेते रहते हो। तुम्हें रुग्णता पहचान आती हैबुद्धत्व नहीं।
और स्मरण रहेतुम उसे नहीं समझ सकते जो तुमसे ऊंचा है। तुम उसे ही समझ सकते हो जो तुमसे छोटा है या ज्यादा से ज्यादा तुम्हारे बराबर है। उच्चतर को तुम नहीं समझ सकतेवह असंभव है। उच्चतर को समझने के लिए तुम्हें ऊंचा उठना होगा। तुम निम्नतर को ही समझ सकते हो।
इसे इस तरह देखो। एक पागल आदमी तुम्हें नहीं समझ सकतापागल के लिए तुम्हें समझना असंभव है। वह अपने पागलपन की आंखों से देखता है। लेकिन तुम पागल आदमी को समझ सकते हो। वह तुमसे नीचे है। सामान्य व्यक्ति असामान्य को समझ सकता है जो सामान्य से नीचे गिर गया हैरुग्ण है। लेकिन वह अपने से ऊंचे को नहीं समझ सकता है।
फ्रायड भी भयभीत है। दा ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि एक बार ऐसा हुआ कि वह फ्रायड के सपनों का विश्लेषण करना चाहता था। दा फ्रायड के प्रधान शिष्यों में से एक था। वे जहाज से अमेरिका जा रहे थेतो कई दिनों का साथ था। एक दिन दा ने हिम्मत कीवह उन दिनों फ्रायड का सबसे अंतरंग शिष्य था। उसने फ्रायड से कहा : 'मैं आपके स्‍वप्‍नों का विश्लेषण करना चाहता हूं आप कृपया अपने कुछ स्वप्न बताएं। बहुत दिन हम लोग साथ रहेंगेमैं इस बीच आपके स्‍वप्‍नों का विश्लेषण करूंगा।’ पता हैफ्रायड ने क्या कहाफ्रायड ने कहा : 'क्या इरादा है तुम्हारायदि तुम मेरे स्‍वप्‍नों का विश्लेषण करने लगोगे तो मेरा प्रभाव ही खत्म हो जाएगा। मैं तुम्हें अपने स्वप्न नहीं बता सकता।
फ्रायड इतना भयभीत थाक्योंकि उसके स्‍वप्‍नों में वे ही रोगवे ही विकृतियां प्रकट होंगी जो रोग और विकृतियां उसे दूसरों के स्‍वप्‍नों में मिलती रही हैं। उसने कहा : 'मैं अपना प्रभुत्व नहीं खो सकतामैं तुम्हें अपने सपने नहीं बताऊंगा।
फ्रायडइस युग का सबसे बड़ा मनसविद भी उन सारे रोगों का शिकार है जिनके शिकार दूसरे लोग हैं। और जब दा ने कहा कि मैं अब तुमसे अलग हो जाऊंगा तो यह सुनकर फ्रायड कुर्सी से गिर पड़ा और बेहोश हो गया। वह गश खाकर गिर पड़ा और घंटों मूर्च्छित रहा। एक शिष्य द्वारा त्यागे जाने का विचार ही इतना भारी आघात कर गया कि उसकी चेतना जाती रही।
अगर तुम बुद्ध से कहो कि मैं आपको छोड़ दूंगा तो क्या तुम सोचते हो कि वे गिर पड़ेंगे और बेहोश हो जाएंगेअगर सारे के सारे दस हजार शिष्य भी उन्हें छोड्कर चले जाएं तो बुद्ध प्रसन्न ही होंगेबहुत प्रसन्न होंगे कि अच्छा हुआ कि तुम चले गए।
क्यों ऐसा होता हैक्योंकि तुम्हारे मनसविद भी तुम्हारे जैसे ही हैं। वे ऊपर से नहीं आए हैं। उनकी समस्याएं भी वही हैं जो तुम्हारी हैं। एक मनसविद दूसरे मनसविद के पास अपना मनोविश्लेषण कराने जाता है। यह ऐसा नहीं है कि एक डाक्टर दूसरे डाक्टर के पास इलाज कराने जाए। डाक्टरों के लिए यह ठीक हैउन्हें क्षमा किया जा सकता है। लेकिन यह बहुत बेतुका मालूम पड़ता है कि एक मनसविद दूसरे मनसविद के पास अपना विश्लेषण कराने जाए। इसका क्या अर्थ है?
इसका यही अर्थ है कि वह भी साधारण आदमी है। मनोविज्ञान एक धंधा भर है।

 बुद्ध किसी धंधे में नहीं है; वे कोई साधारण जन नहीं हैं। वे एक नए सत्य को उपलब्ध हैंवे चेतना की एक नई अवस्था में हैं। अब वे शिखर पर खड़े होकर देखते हैं। वे तुम्हें समझ सकते हैंलेकिन तुम उन्हें नहीं समझ सकते हो। और वे चाहे जितनी भी चेष्टा करेंतुम्हारे लिए उन्हें समझना असंभव है। तब तक तुम उन्हें गलत समझते रहोगे जब तक तुम उनके व्यक्तित्व से न जुड़कर शब्दों से बंधे रहोगेजब तक तुम शब्दों की बजाय उनकी चुंबकीय शक्ति से नहीं बंधते हो। जब तक तुम एक लोहे के टुकड़े की भांति उनके चुंबकत्व के प्रभाव में नहीं पड जाते होतब तक तुम उन्हें नहीं समझ सकोगे। तुम गलत ही समझोगे।
यही कारण है कि तुम नहीं देख पाते हो। लेकिन बुद्ध पुरुष सदा ही पृथ्वी पर हैं। रुग्णता पहचान में आती हैक्योंकि हम रुग्ण लोग हैं। हम रुग्णता को देख सकते हैंसमझ सकते हैं।
दूसरी बातयदि ऐसा भी हो कि पूरे मनुष्य—जाति के इतिहास में एक ही व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ हो—एक ही व्यक्ति बुद्ध हुआ हो—वह भी तुम्हारी संभावना दिखाने के लिए पर्याप्त है। यदि एक मनुष्य को भी बुद्धत्व घटित हो सकता है तो तुम्हें क्यों नहीं घटित हो सकताअगर एक बीज फूल बन सकता है तो प्रत्येक बीज में फूल बनने की क्षमता है। हो सकता है कि तुम केवल बीज होलेकिन अब तुम अपने भविष्य को जानते हो कि बहुत कुछ संभव है।
लेकिन मनुष्य के मन के साथ विपरीत ही घटित हो रहा है। और यह सदा से घटित हो रहा है। तुमने ककून या कोया देखा होगाकोया टूटता है और उससे तितली निकलकर बाहर उड़ती है। मनुष्य की प्रक्रिया उलटी है। मनुष्य तितली की भांति जन्म लेता है और फिर वह कोया में प्रवेश कर जाता है। प्रत्येक बच्चा बुद्ध जैसा पैदा होता है और फिर उससे दूर हटता जाता है।
बच्चे को देखोउसकी आंखों को देखो। किसी भी बडे व्यक्ति की आंख से उसकी आंख ज्यादा बुद्ध जैसी है। उसके बैठने का ढंगचलने का ढंगउसका सौंदर्यउसका प्रसादउसका क्षण— क्षण जीनाउसका क्रोध तकसब कितना सुंदर है! वह इतना समग्र है। और जब भी कोई चीज समग्र होती हैवह सुंदर होती है।
किसी बच्चे को क्रोध में उछलते—कूदतेचीखते—चिल्लाते देखो। सिर्फ देखो! अपनी फिक्र छोड़ो कि वह तुम्हारी शांति भंग कर रहा है। इस घटना को मात्र देखो। वह क्रोध सुंदर हैक्योंकि बच्चा उसमें इतनी समग्रता से है कि कुछ भी पीछे नहीं बचा है। वह क्रोध ही हो गया हैऔर वह इतना प्रामाणिक है कि कुछ भी दमित नहीं हो रहा है। वह अपने को जरा भी नहीं रोक रहा हैवह क्रोध में डूब गया हैक्रोध ही हो गया है। बच्चे को देखो जब वह प्रेम करता हैजब वह तुम्हारा स्वागत करता हैजब वह तुम्हारे पास आता है। वह बुद्ध जैसा है। लेकिन शीघ्र ही समाज आएगाउसे कोया में प्रवेश करने में मदद देगा। और बच्चा कोया में बंद होकर मर जाता है। हम पालने से सीधे कब में प्रवेश कर जाते हैं। यही कारण है। कि यहां इतनी रुग्णता हैकिसी को भी सहज और स्वाभाविक नहीं रहने दिया जाता है। रुग्णता तुम पर लाद दी जाती है। तुम एक मुर्दा ढांचे में कैद हो जाते होऔर तब तुम्हारे सहज प्राण दुखी—पीड़ित होते हैं। यहां इतनी रुग्णता हैइसका यही कारण है।
यह रुग्णता मनुष्य—निर्मित हैमनुष्य जितना सभ्य होता जाता हैउतना ही रुग्ण होता जाता है। यह कसौटी है : अगर तुम्हारे देश में कम पागल हैं तो समझ लो कि तुम्हारा देश कम सभ्य है। और अगर तुम्हारे देश में पागलों की संख्या बढती जाती हैअगर हर कोई विक्षिप्त हो रहा है और मनोचिकित्सक के पास जा रहा है तो भलीभांति समझ लो कि तुम्हारा देश संसार में सबसे ज्यादा सभ्य है। और जब कोई देश सभ्यता के शिखर को छू लेगा तो उसका एक—एक नागरिक पागल होगा।
सभ्यता तुम्हें पागल कर देती हैक्योंकि वह तुम्हें स्वयं और सहज नहीं होने देती। सब कुछ दमित हैऔर दमन के साथ हर चीज विकृत हो जाती है। तुम सहजता से श्वास भी नहीं ले सकते हो—और चीजों की तो बात ही मत पूछो। तुम्हारी श्वास भी असहज हो जाती है। तुम गहरी श्वास नहीं ले सकतेक्योंकि समाज गहरी श्वास नहीं लेने देता है।
गहरी श्वास लो। अगर तुम गहरी श्वास लोगे तो तुम अपनी वृत्तियों का दमन नहीं कर सकोगे। अगर तुम किसी चीज का दमन करना चाहते हो तो तुम देखोगे कि तुम्हारी श्वास—क्रिया में बदलाहट होने लगी। तुम्हें क्रोध आया है और तुम उसे दबाना चाहते हो तो तुम क्या करोगेतुम तुरंत श्वास लेना बंद कर दोगे।
क्रोध में श्वास गहरी जाती हैक्योंकि क्रोध के लिए जरूरी है कि तुम्हारे भीतर खून का गर्म प्रवाह होक्रोध के लिए ज्यादा आक्सीजन जरूरी है। क्रोध के लिए जरूरी है कि तुम्हारे भीतर कुछ रासायनिक परिवर्तन हों। और वे परिवर्तन गहरी श्वास लेने से घटित होते हैं। तो जब तुम्हें क्रोध आएगा और तुम उस क्रोध को दबाना चाहोगे तो तुम स्वाभाविक ढंग से श्वास न ले सकोगे। तुम उथली श्वास लोगे।
किसी बच्चे को कहो कि अमुक काम मत करोऔर तुम देखोगे कि तुरंत उसकी श्वास उथली हो गई। अब वह गहरी श्वास न ले सकेगाक्योंकि यदि वह गहरी श्वास लेगा तो वह तुम्हारी आज्ञा का पालन नहीं कर पाएगा। तब वह वही करेगा जो वह करना चाहता है। आदमी गहरी श्वास भी नहीं ले रहा है। अगर तुम गहरी श्वास लोगे तो तुम्हारे भीतर काम—केंद्र पर चोट पड़ेगी। और समाज इसके विरुद्ध है। धीमी श्वास लोउथली श्वास लो। गहरे मत जाओऔर तब काम—केंद्र पर चोट नहीं पड़ेगी।
सच तो यह है कि सभ्य मनुष्य प्रगाढ़ काम—संभोग में असमर्थ हो गया हैक्योंकि वह गहरी श्वास नहीं ले सकता। काम—कृत्य में तुम्हारी श्वास इतनी गहरी होनी चाहिए कि तुम्हारा सारा शरीर उसमें संलग्न हो। अन्यथा तुम्हें आर्गाज्य नहीं होगा,शिखर अनुभव नहीं होगा और तुम्हें सिर्फ निराशा हाथ लगेगी।
अनेक लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि हमें काम—कृत्य में कोई सुख नहीं मिलता है। हम उसे यंत्रवत करते हैं,जिसमें सिर्फ ऊर्जा ही खोती है। और बाद में हम निराश होते हैंविषाद महसूस करते हैं।
इसका कारण काम नहीं हैकारण यह है कि वे इसमें समग्रता से नहीं उतरते हैं। उनका काम—कृत्य स्थानीय होकर रह जाता हैजिसमें सिर्फ वीर्यपात होता है। तब वे निर्बल महसूस करते हैं और कुछ उससे मिलता भी नहीं। अगर पशुओं की तरह तुम्हारा सारा शरीर संभोग में संलग्न होअगर शरीर का रोआं—रोआं उत्तेजित होकर कांपने लगेअगर तुम्हारा सारा शरीर जैसे विधुत—शक्‍ति से भावाविष्‍ट हो जाएअगर तुम अहंकाररहितमस्तिष्करहित हो जाओअगर विचारणा न रहेअगर तुम्हारा शरीर एक लयबद्ध गति में डूब जाएतब तुम्हें एक प्रगाढ़ सुख की अनुभूति होगी। तब तुम एक गहन विश्राम अनुभव करोगे और किसी अर्थ में परितृप्त भी।
लेकिन यह नहीं हो सकताक्योंकि तुम गहरी श्वास नहीं ले सकते हो। तुम इतने भयभीत हो।
शरीर को देखो। उसके दो छोर हैं। एक छोरऊपरी छोर चीजों को भीतर ले जाने के लिए हैतुम्हारा सिर चीजों .को भीतर ले जाने के लिए है। वह सब कुछ भीतर ले जाता है। भोजनवायुप्रभावविचारकोई भी चीज वह ग्रहण करता हैउससे तुम चीजों को भीतर ले जाते हो। यह एक छोर है। दूसरा छोर नीचे का शरीर हैवह त्यागने के लिए हैग्रहण के लिए नहीं। निचले शरीर से तुम कोई चीज भीतर नहीं ले जा सकतेवह छोर त्यागने के लिए हैछोड़ने के लिए हैबाहर निकालने के लिए है। ऊपरी शरीर से तुम लेते हो और निचले शरीर से त्यागते होछोड़ते हो।
लेकिन सभ्य मनुष्य केवल भीतर लेता हैकभी छोड़ता नहीं। उससे ही रुग्णता पैदा होती हैतुम विक्षिप्त हो जाते हो। यह ऐसे ही है जैसे कि तुम भोजन तो लोउसे भीतर जमा करते जाओ और कभी मल त्याग न करो। तुम पागल हो जाओगे। दूसरे छोर को काम में लाना है। अगर कोई आदमी कंजूस है तो वह जरूर कब्जियत का शिकार होगा। किसी कंजूस को देखोवह कब्जियत से पीड़ित होगा। कंजूसी एक तरह की आध्यात्मिक कब्जियत है। इकट्ठा किए जाओकुछ छोड़ो मत।
जो लोग सेक्स केकाम के विरोधी हैंवे बस कृपण लोग हैं। वे भोजन तो भीतर लिए जाते हैंलेकिन वे काम—ऊर्जा का त्याग नहीं करेंगे। तब वे विक्षिप्त हो जाएंगे। और उसे काम—केंद्र से ही बाहर निकालना जरूरी नहीं है। एक और संभावना भी है,उसे सहस्रार से भीसिर में स्थित तुम्हारे सर्वोच्च केंद्र से भी मुक्त किया जा सकता है। तंत्र यही सिखाता है। लेकिन उसे छोड़ना ही होगातुम उसे सदा जमा नहीं कर सकते। संसार में कुछ भी जमा नहीं रखा जा सकतासंसार एक बहाव हैएक नदी है। ग्रहण करो और त्यागो। अगर तुम ग्रहण ही करते रहोगे और त्याग कभी न करोगे तो तुम पागल हो जाओगे।
वही हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति लेने में लगा हैकोई देने को राजी नहीं है। जब देने का समय आता हैतुम भयभीत हो जाते हो। तुम सिर्फ लेना चाहते हो—प्रेम भी। तुम चाहते हो कि कोई तुम्हें प्रेम दे। बुनियादी जरूरत यह है कि तुम किसी को प्रेम दो। तब तुम मुक्त होगेहलके होगे। कोई तुम्हें प्रेम करेइससे काम नहीं चलेगाक्योंकि तब तुम ले भर रहे हो। दोनों छोरों को संतुलित होना चाहिएतब स्वास्थ्य घटित होता है। और मैं उसे ही सामान्य आदमी कहता हूं। वही सामान्य है जिसके ग्रहण और त्याग बराबर हैंसंतुलित हैं। वही आदमी सामान्य है।
और उस आदमी को मैं असामान्य कहता हूं जो लेता तो बहुत हैलेकिन देना नहीं जानता। वह कुछ देता ही नहीं है। यदि वह कुछ देता भी है तो मजबूरी में देता है। यह उसकी अपनी मर्जी नहीं है। तुम उससे कुछ छीन सकते होतुम उसे देने के लिए मजबूर कर सकते हो। वह अपनी मर्जी से नहीं देगा; उसका देना एनिमा जैसा है। तुम मजबुर करते हो तो वह मल त्याग करता है। वह अपनी मर्जी से मल त्याग नहीं करता हैवह राजी नहीं है। हर चीज को इकट्ठा किए जाना विक्षिप्तता है। और तब वह विक्षिप्त हो जाएगाक्योंकि पूरी व्यवस्था गड़बड़ हो जाती है। वह असामान्य है।
और अधिसामान्य वह है जो देता ही हैकभी ग्रहण नहीं करता। ये तीन कोटियां हैं। असामान्य लेता ही लेता हैकभी देता नहीं। सामान्य का लेना और देना संतुलित है। और अधिसामान्य कभी लेता नहीं हैदेता ही देता है। बुद्ध दाता हैंदानी हैं;विक्षिप्त आदमी परिग्रही है। वह बुद्ध के विपरीत छोर पर है। यदि दोनों छोर संतुलित हों तो तुम सामान्य व्यक्ति हो। कम से कम सामान्य बनोक्योंकि अगर तुम सामान्य न रह सके तो तुम नीचे गिर जाओगे और असामान्य हो जाओगे।
इसीलिए सभी धर्मों में दान पर इतना जोर दिया जाता है। दो! जो भी है दो। और कभी लेने की भाषा में मत सोचो। तब तुम अधिसामान्य बनोगे। लेकिन वह तो अभी दूर की बात है। पहले सामान्य बनोसंतुलित बनो। तुम जो भी भीतर लो उसे वापस संसार को लौटा दो। तुम बस मार्ग बन जाओ। ग्रहण मत करो। तब तुम कभी पागल और विक्षिप्त नहीं होगे। तब तुम पागलपन सेखंडित मानसिकता सेस्कीजोफ्रेनिया सेविक्षिप्तता सेकिसी भी तरह की मानसिक रुग्णता से कभी पीड़ित नहीं होगे।
सामान्य आदमी की मेरी परिभाषा यह है कि वह संतुलित है—बिलकुल संतुलित। वह कुछ बचाकर नहीं रखता है। वह श्वास भीतर ले जाता है और फिर उसे बाहर निकाल देता है। उसकी आती 'श्वास और जाती श्वास समान हैंसंतुलित हैं। तो संतुलित होने की चेष्टा करो। और सदा स्मरण रखो कि तुम जो कुछ लो उसे जरूर लौटा दो। तब तुम जीवंतस्वस्थमौनशांत और सुखी होगे। तुममें एक गहन लयबद्धता का उदय होगा। यह लयबद्धता लेने और देने के संतुलन से घटित होती है।
लेकिन हम तो सदा और—और लेने की ही सोचते हैं। और तुम जो भी लेते हो और उसे फिर लौटाते नहींवह तुम्हें तनावउपद्रव और दुख से भर देगा। तुम एक नरक बन जाओगे। इसलिए भीतर लेने के पूर्व बाहर जरूर निकालो। क्या तुमने ध्यान दिया है कि तुम सदा भीतर आती श्वास पर जोर देते होतुम बाहर जाती श्वास की फिक्र ही नहीं करते। तुम श्वास को भीतर ले जाते हो और उसे बाहर फेंकने का काम शरीर पर छोड़ देते हो। इस प्रक्रिया को उलट दोतब तुम ज्यादा सामान्य होगे। बाहर जाने वाली श्वास पर जोर दो। पूरी ताकत से श्वास को बाहर फेंकोऔर श्वास को भीतर लेने का काम शरीर पर छोड़ दो।
जब तुम श्वास भीतर लें जाते हो और फिर उसे छोड़ते नहीं तो तुम्हारे फेफड़े कार्बन डायआक्साइड से भर जाते हैं। और यह क्रम चलता रहता है। तुम्हारा पूरा फेफड़ा कभी खाली नहीं होतातुम उसे कार्बन डायआक्साइड से भरते जाते हो। तब तुम्हारी श्वास—प्रक्रिया उथली हो जाती है और तुम्हारे फेफड़े कार्बन डायआक्साइड से भरते जाते हैं। पहले श्वास को बाहर फेंको और लेने की बात भूल जाओ। शरीर खुद उसकी चिंता कर लेगा। शरीर के पास अपना विवेक है और वह तुमसे ज्यादा बुद्धिमान है। श्वास को बाहर फेंको और लेने की बात भूल जाओ। और डरो मततुम मरोगे नहीं। शरीर उतनी श्वास भीतर ले लेगा जितनी जरूरी है। जितनी श्वास तुम बाहर निकालोगेशरीर उतनी श्वास अंदर ले लेगाऔर संतुलन कायम रहेगा। अगर तुम आती श्वास पर जोर दोगे तो संतुलन बिगड़ जाएगाक्योंकि तुम्हारे मन की प्रवृत्ति इकट्ठा करने की है।
मैं अनेक घरों में मेहमान हुआ हूं। और मैं देखता हूं कि लोग इतनी चीजें इकट्ठा कर लेते हैं कि घर में रहने की जगह ही नहीं रह जाती। घर में रहने की जगह नहीं है और वे इकट्ठा करने में लगे हैं! वे चीजें जमा करते रहते हैं और सोचते हैं कि किसी दिन उनकी जरूरत पड़ सकती है।
जिस चीज की जरूरत नहीं हैउसे इकट्ठा मत करो। और यदि किसी को किसी चीज की जरूरत तुमसे अधिक हो तो बेहतर है कि वह चीज उसे दे दो। देने वाले बनोऔर तुम कभी रुग्ण नहीं होगे। सभी प्राचीन सभ्यताएं दान पर आधारित थीं;और यह आधुनिक सभ्यता परिग्रह परइकट्ठा करने पर खड़ी है। यही कारण है कि ज्यादा लोग पागल हो रहे हैंविक्षिप्त हो रहे हैं। हर कोई पूछ रहा है कि कहां से मिलेगाकोई नहीं पूछता कि कहां जाऊं और दूं किसको दूं।

 अंतिम प्रश्न :

रोज आप अपने हरेक प्रवचन में बोध कीसमग्र बोध कीअबाधित की चर्चा करते हैं। आप यह भी कहते हैं की मन से,किसी विचार के दोहराने से इसे नहीं प्राप्‍त किया जा सकता है; इसे तो अनुभव करना है। लेकिन प्राप्त किए बिना कोई इसे अनुभव कैसे कर सकता हैऔर वह कौन सा भाव है जो प्राप्ति के पहले आता हैजो अभी घटित नहीं हुआ है उसका भाव या उसकी कल्पना कैसे की जाएक्या यह भी मन को हटाने से घटित होता हैइसकी पूरी प्रक्रिया क्या हैऔर इसे संभव कैसे बनाया जाए?

ब मैं कहता हूं कि मन से बोध को नहीं उपलब्ध हुआ जा सकता तो मेरा मतलब है कि तुम उसके बारे में सोच—विचार करके उसे नहीं पा सकते। तुम उसके बारे में खूब सोच—विचार करते रहोलेकिन तुम वर्तुल में घूमते रहोगे। जब मैं कहता हूं कि उसे मन से नहीं पाया जा सकता तो मेरा मतलब है कि उसे सोच—विचार से नहीं पाया जा सकता। तुम्हें कुछ साधना होगाकुछ करना होगा। उसे करके ही पाया जा सकता हैसोचकर नहीं। यह पहली बात है।
तो इस पर विचार ही मत करते रहो कि बोध क्या हैउसे कैसे पाया जाता हैउसका फल क्या होगा। सोचते ही मत रहो,कुछ करो। रास्ते पर चलते हुए बोध से चलो। यह कठिन है और तुम बार—बार भूल जाओगे। लेकिन घबड़ाओ मत। जब भी स्मरण आए सजग हो जाओ। प्रत्येक कदम पूरी सजगता से उठाओ—जानते हुएबोध के साथ। मन को और कहीं मत जाने दो। भोजन करते समय भोजन ही करोहोश के साथ चबाओ। तुम जो भी करोउसे यंत्रवत मत करो। और यह बिलकुल अलग बात है।
और जब मैं कहता हूं कि इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है तो उसका यह अर्थ है
किउदाहरण के लिए मैं अपना हाथ यंत्रवत उठा सकता हूं और मैं उसे पूरे होश के साथ भी उठा सकता हूं। होश के साथ उठाने से मेरा मन सजग है कि हाथ उठाया जा रहा।
इसे करके देखोइसे प्रयोग में लाओ। पहले हाथ को यंत्रवत उठाओ और फिर होशपूर्वक उठाओ। तुम बदलाहट अनुभव करोगेतुरंत ही गुणवत्ता बदल जाती है। सजगता से चलोऔर तुम्हारा चलना भिन्न होगा। तब तुम्हारी चाल में एक गरिमा होती है। तुम धीमे— धीमे चलते होसुंदर ढंग से चलते हो। जब तुम यंत्रवत चलते हो—इसलिए चलते हो क्योंकि तुम्हें चलना आता है और सजग होने की जरूरत नहीं है—तब चलना कुरूप होता है। उस चाल में गरिमा नहीं होती है।
तो तुम जो भी करोसजगता के साथ करो। और फिर देखो कि क्या फर्क है। जब मैं कहता हूं कि महसूस करो तो उसका मतलब है निरीक्षण करो। पहले यांत्रिक ढंग से करो और फिर उसे सजगता के साथ करोऔर फर्क को समझो। और फर्क तुम्हें अनुभव में आएगा। उदाहरण के लिए अगर तुम सजग होकर भोजन करते हो तो तुम शरीर की जरूरत से ज्यादा भोजन नहीं कर सकते। लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं : 'हमारा वजन बढ़ रहा हैशरीर में चर्बी इकट्ठी होती जा रही हैकुछ डाइटिंग बताइए।
मैं उनसे कहता हूं : 'डाइटिंग की फिक्र छोड़ोचेतना की चिंता करो। डाइटिंग से कुछ नहीं होगातुम कर भी नहीं सकोगे। एक दिन तुम डाइटिंग कर लोगे और दूसरे दिन वह छूट जाएगीतुम उसे जारी नहीं रख सकते। बेहतर है कि बोधपूर्वक भोजन करो।
बोध से गुणधर्म बदल जाता है। अगर तुम बोधपूर्वक भोजन करोगे तो तुम ज्यादा चबाकर खाओगे। मूर्च्छा मेंयंत्रवत भोजन करने में तुम बिलकुल नहीं चबाते होबस पेट को भर लेते हो। इस तरह तुम भोजन के सुख से वंचित रह जाते हो। और क्योंकि भोजन का सुख नहीं मिलतातुम सुख के लिए और—और भोजन की मांग करते हो। जब स्वाद नहीं मिलता है तो तुम्हें ज्यादा भोजन चाहिए।
सिर्फ सजग होओ और देखो कि क्या होता है। अगर तुम सजग हो तो तुम ज्यादा चबाओगेज्यादा स्वाद लोगेतुम भोजन का सुख लोगे। तब तुम्हें भोजन में ज्यादा समय लगेगा। अगर तुम्हें भोजन लेने में आधा घंटा लगता है तो उसी भोजन को पूरे बोध के साथ लेने में डेढ़ घंटा लगेगा—तीन गुना समय लगेगा। आधे घंटे में तो एक तिहाई भोजन ही ले पाओगेलेकिन तुम ज्यादा तृप्त अनुभव करोगेतुम भोजन का ज्यादा सुख लोगे।
और जब शरीर सुख लेता है तो वह तुम्हें बता देता है कि कब रुकना है। जब शरीर इस सुख से सर्वथा वंचित रहता है तो वह रुकने को नहीं कहता और तुम भोजन डाले चले जाते हो। और तब शरीर जड़ हो जाता है। शरीर क्या कह रहा हैतुम नहीं सुनते। तुम भोजन करते रहते हो और होते कहीं और हो। उससे ही समस्या पैदा होती है।
भोजन के समय वहीं रहोऔर पूरी प्रक्रिया धीमी हो जाएगी। तब शरीर खुद कहेगा कि बस करो। और शरीर जब रुकने को कहे तो समझना चाहिए कि यही ठीक समय है। अगर तुम सावचेत हो तो तुम शरीर के साथ जबरदस्ती नहीं करोगेतुम रुक जाओगे। तो शरीर की सुनो। वह तो हरेक क्षण कह रहा हैलेकिन तुम उसे सुनने के लिए वहां मौजूद नहीं होते। सजग होओ और तुम सुनोगे।
और जब मैं कहता हूं कि इसे अनुभव करो तो मैं जानता हूं कि यह कठिन है। तुम बोधपूर्ण हुए बिना बोध को कैसे अनुभव कर सकते हो? मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम बुद्ध के बुद्धत्व को अभी इसी क्षण अनुभव कर सकते होलेकिन कहीं तो आरंभ करना होगा। तुस पूरे सागर को नहीं पा सकतेलेकिन एक बूंद—एक छोटी सी बूंद भी—स्वाद दे देगी। और वह स्वाद एक ही है। यदि तुम क्षण भर को भी बोधपूर्ण हुए तो तुमने बुद्धत्व का स्वाद पा लिया। यह क्षणिक हैयह एक झलक भर हैलेकिन अब तुम ज्यादा जानते हो।
और यह झलक तुम्हें कभी सोच—विचार से नहीं घटित होगीयह सिर्फ भाव से घटित होगी। भाव पर जोर इसलिए है,क्योंकि स्वयं के अनुभव पर जोर है। विचारणा झूठ है। तुम प्रेम के संबंध में निरंतर सोच—विचार कर सकते होप्रेम के सिद्धांत गढ़ सकते हो। तुम प्रेम में उतरे बिना प्रेम पर शोध—ग्रंथ लिखकर डाक्टरेट भी प्राप्त कर सकते हो। तुम सब बता सकते हो कि प्रेम क्या है। और हो सकता है तुमने प्रेम का कण भी न जाना होतुम्हें प्रेम का जरा भी अनुभव न हो।
तुम अपनी आत्मा का विकास किए बिना ही अपना ज्ञान बढ़ा ले सकते हो। और ज्ञान और आत्मा दोनों भिन्न आयाम हैं। तुम ज्ञान का विस्तार कर सकते होतुम्हारा मस्तिष्क बड़े से बड़ा होता जाएगा। लेकिन तुम्हारी आत्मा छोटी की छोटी रहेगी। यह कोई विकास नहीं हैतुम्हारा परिग्रह भर बड़ा होता जाता है। जब तुम चीजों को अनुभव करते हो तो तुम बढ़ते हो,तुम्हारी आत्मा बढ़ती हैबड़ी होती है।
और कहीं तो आरंभ करना होगातो आरंभ करो। भूलें होंगीहोंगी ही। तुम भूल— भूल जाओगेयह स्वाभाविक है। लेकिन हताश मत होओ और यह कह कर प्रयत्न करना मत छोड़ दो कि यह मुझसे नहीं होने वाला है। तुमसे होने वाला हैतुम यह कर सकते हो। तुम्हारे भीतर वही संभावना छिपी है जो जीसस या बुद्ध में छिपी थी। तुम बीज होतुम में कोई कमी नहीं है। बस थोड़ी अराजकता हैसब चीजें बिखरी—बिखरी हैं। कमी कुछ भी नहीं हैतुममें सब कुछ हैतुम बुद्ध हो सकते होबस चीजों को थोड़ी व्यवस्था देने की जरूरत है।
अभी तो तुम एक अराजकता होक्योंकि व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था तब आती है जब तुम सजग होते होसावचेत होते हो। तुम्हारे बोधपूर्ण होने से ही चीजें अपनी—अपनी जगह ले लेती हैंऔर तब यही अराजकताजो तुम होएक व्यवस्था बन जाती हैएक संगीत बन जाती है।

आज इतना ही।
(तीसरा भाग समाप्‍त)
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

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