Monday, 19 February 2018

परमात्‍मा को जन्‍म देना है

तंत्र--सूत्र--(भाग--4) प्रवचन--63

परमात्‍मा को जन्‍म देना है—(प्रवचन—तेरष्‍ठवां)

सूत्र:
90—आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से
उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है।
और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।
      91—हे दयामयी, अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत
            नींचे, आकाशीय उपस्‍थिति में प्रवेश करो।


एक बार एक चर्च में ऐसा हुआ कि एक बहुत लंबे और उबाऊ व्याख्यान के बाद पादरी ने सूचना दी कि मंगलकामना के तुरंत बाद बोर्ड की एक संक्षिप्त बैठक होगी। सभा समाप्त होने पर जो पहला आदमी पादरी के पास पहुंचा वह एक अजनबी था। पादरी ने सोचा कि कुछ गलतफहमी हुई हैक्योंकि वह व्यक्ति बिलकुल अजनबी था। वह ईसाई भी नहीं मालूम पड़ता थाउसका चेहरा मुसलमान जैसा था। तो पादरी ने उससे कहा कि ऐसा लगता है कि आपने सूचना को गलत ढंग से समझायहां बोर्ड (समिति) की बैठक होने वाली है।
उस अजनबी ने कहा : 'यही तो मैंने भी सुना। और अगर यहां कोई व्यक्ति है जो मुझसे भी ज्यादा बोर्ड हो तो मैं उससे मिलना चाहूंगा—इफ देअर वाज समवन हिअर मोर बोर्ड दैन मी देन आई वुड लाइक टु मीट हिम।
प्रत्येक आदमी की यही स्थिति है। लोगों के चेहरे देखोया आईने में अपना ही चेहरा देखोऔर तुम्हें लगेगा कि मैं सबसे ज्यादा ऊबा हुआ आदमी हूं। और तुम्हें यह असंभव मालूम होगा कि कोई दूसरा तुमसे ज्यादा ऊबा हुआ हो सकता है। पूरा जीवन एक लंबी ऊब मालूम पड़ता है—रूखा—सूखानीरस और अर्थहीन—जिसे तुम किसी भाति बोझ की तरह ढो रहे हो।
ऐसा क्यों हो गया हैजिंदगी ऊब बनने के लिए नहीं है। जीवन दुख—संताप बनने के लिए नहीं है। जीवन एक उत्सव है;जीवन हर्षोल्लास का शिखर है। लेकिन यह केवल कविता कीस्‍वप्‍न कीबातचीत की चीज बन कर रह गई है। कभी—कभार कोई बुद्धकोई कृष्ण गहन उत्सव में मालूम होते हैंलेकिन वे अपवाद जैसे लगते हैं। वे सच में हुएयह भी मानने को दिल नहीं होता। अविश्वसनीय मालूम पड़ते हैं—मानो वे यथार्थ नहींकल्पनाएं हों। ऐसा लगता है कि ऐसे लोग कभी होते नहींवे केवल हमारी कल्पना की उड़ान हैंपुराण—कथाएं हैंस्‍वप्‍न हैं। वे मिथक हैं। वे हमारी आशाएं हैं। वे असलियत नहीं हैं। असलियत तो हमारा अपना चेहरा है जिस पर ऊबदुख और संताप छाया हुआ है। यथार्थ तो हमारी पूरी जिंदगी हैजिसे हम किसी तरह ढो रहे हैं।
ऐसा क्यों हो गयायह जीवन का बुनियादी सत्य होना नहीं चाहिएऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि ऐसा सिर्फ मनुष्य के साथ होता है। वृक्ष हैंतारे हैंपशु—पक्षी हैंकहीं भी तो ऐसा नहीं होता है। मनुष्य को छोड़ कर कोई भी तो ऊबा हुआ नहीं है। यदि उन्हें कभी पीड़ा भी होती है तो वह क्षणिक है। उनकी पीड़ा सदा—सदा की ग्रस्तता नहीं बनती हैचिंता नहीं बनती है। वह पीड़ा सतत उनके मन पर छाई नहीं रहती है। वह क्षणिक हैएक छोटी सी दुर्घटना हैवे उसे ढोते नहीं हैं।
पशुओं को पीड़ा हो सकती हैलेकिन उन्हें कभी दुख—संताप नहीं सताता। उनकी पीड़ा आकस्मिक घटना होती हैवे उससे बाहर निकल जाते हैं। फिर वे उसे ढोते नहीं हैंवह पीड़ा उनका स्थायी घाव नहीं बन जाती है। पीड़ा आती हैचली जाती हैअतीत का हिस्सा हो जाती हैवह कभी उनके भविष्य का हिस्सा नहीं बनती। जब पीड़ा स्थायी हो जाती हैएक घाव बन जाती हैजब वह एक क्षणिक घटना न रहकर तुम्हारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाती हैमानो तुम उसके बिना जी ही नहीं सकतेतब वह समस्या बन जाती है। और वह समस्या सिर्फ मनुष्य के मन में पैदा हुई है।
वृक्ष दुखी नहीं हैंउन्हें कोई संताप नहीं सताता। ऐसा नहीं है कि उनकी मृत्यु नहीं होतीवे भी मरते हैं। लेकिन मृत्यु उनके लिए समस्या नहीं है। ऐसा नहीं है कि वृक्षों को पीड़ादायी अनुभव नहीं होतेउन्हें भी पीड़ादायी अनुभव होते हैं। लेकिन ये अनुभव उनका जीवन नहीं बन जातेवे सिर्फ परिधि पर घटते हैं और विदा हो जाते हैं। उनके केंद्र मेंउनके अंतरतम में उनका जीवन उत्सव बना रहता है। वृक्ष सदा उत्सव में है। मृत्यु होगीलेकिन एक ही बार होगी। पूरी जिंदगी उसे सिर पर नहीं ढोना है। मनुष्य को छोड्कर जगत में हर कहीं उत्सव है। सिर्फ मनुष्य ऊबा हुआ हैऊब एक मानवीय घटना है। क्या भूल हो गई है?
कुछ भूल अवश्य हुई है। और एक ढंग से यह शुभ लक्षण भी हो सकता है। ऊब मानवीय है। तुम मनुष्य की परिभाषा ऊब से कर सकते हो। अरस्तु ने मनुष्य की परिभाषा बुद्धिमान होने से की है। वह परिभाषा पूरी तरह सही नहीं हैवह शत—प्रतिशत सही नहीं है। क्योंकि फर्क सिर्फ मात्रा का है। पशु भी बुद्धिमान हैंलेकिन कम बुद्धिमान हैं। वे सर्वथा बुद्धिहीन नहीं हैं। ऐसे पशु भी हैं जो मनुष्य मन के जरा ही नीचे हैं। वे भी अपने ढंग से बुद्धिमान हैंलेकिन उतने बुद्धिमान नहीं हैं जितने मनुष्य हैं। लेकिन वे बिलकुल निर्बुद्धि नहीं हैं। फर्क मात्रा का ही है। इसलिए मनुष्य की परिभाषा सिर्फ बुद्धि से नहीं हो सकती। लेकिन उसकी परिभाषा ऊब से हो सकती है। एकमात्र मनुष्य ही ऊबा हुआ जानवर है।
और उसकी यह ऊब इस हद तक जा सकती है कि मनुष्य आत्मघात कर सकता है। सिर्फ मनुष्य आत्महत्या करता है,कोई पशु आत्महत्या नहीं करता। आत्महत्या पूरी तरह मानवीय घटना है। जब ऊब इस हद पर पहुंच जाती है जहां आशा भी असंभव हो जाए तो तुम अपने हाथों ही अपनी जिंदगी खतम कर लेते होक्योंकि अब इसे ढोए चलने में कोई अर्थ न रहा। तुम इस ऊब कोइस पीड़ा को ढोते होझेलते होक्योंकि कल अभी भी आशापूर्ण है। तुम्‍हें लगता है कि आज बुरा है, लेकिन कल कुछ होगा। उस आशा में तुम किसी तरह चलते रहते हो।
मैंने सुना हैएक बार चीन के एक सम्राट ने अपने प्रधान मंत्री को फांसी की सजा दे दी। जिस दिन प्रधान मंत्री को फांसी दी जाने वाली थीसम्राट उससे मिलने आयाउसे अंतिम विदा कहने आया। वह उसका बहुत वर्षों तक वफादार सेवक रहा था,लेकिन उसने कुछ किया जिससे सम्राट बहुत नाराज हो गया और उसे फांसी की सजा दे दी। लेकिन यह याद करके कि यह उसका अंतिम दिन हैसम्राट उससे मिलने आया।
जब सम्राट आया तो उसने देखा कि प्रधान मंत्री रो रहा हैउसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। वह सोच भी नहीं सकता था कि मृत्यु उसके रोने का कारण हो सकती हैक्योंकि प्रधान मंत्री बहुत बहादुर आदमी था। उसने कहा. 'यह कल्पना करना भी असंभव है कि तुम मृत्यु को निकट देखकर रो रहे हो। यह सोचना भी असंभव है। तुम बहादुर आदमी हो और मैंने अनेक बार तुम्हारी बहादुरी देखी है। अवश्य कोई और बात है। क्या बात हैयदि मैं कुछ कर सकता हूं तो जरूर करूंगा।
प्रधान मंत्री ने कहा : 'अब कुछ भी नहीं किया जा सकताऔर बताने से भी कुछ लाभ नहीं होगा। लेकिन अगर आप जिद करेंगे तो मैं अभी भी आपका सेवक हूं आपकी आज्ञा मानकर बता दूंगा।
सम्राट ने जिद की और प्रधान मंत्री ने कहा : 'मेरे रोने का कारण मृत्यु नहीं हैक्योंकि मृत्यु कोई बड़ी बात नहीं है। मनुष्य को एक दिन मरना ही हैकिसी भी दिन मृत्यु हो सकती है। मैं तो बाहर खड़े आपके घोड़े को देखकर रो रहा हूं।
सम्राट ने पूछा. 'घोड़े के कारण रोते होलेकिन क्यों?'
प्रधान मंत्री ने कहा. 'मैं जिंदगी भर इसी तरह के घोड़े की तलाश में रहाक्योंकि मैं एक प्राचीन कला जानता हूं। मैं घोड़ोंको उड़ना सिखा सकता हूं लेकिन उसके लिए एक खास किस्म का घोड़ा चाहिए। यह उसी किस्म का घोड़ा है। और यह मेरा अंतिम दिन है। मुझे अपनी मृत्यु की फिक्र नहीं हैमैं रोता हूं कि मेरे साथ एक प्राचीन कला भी मर जाएगी।
सम्राट की उत्सुकता जगी—घोड़ा उड़ेयह कितनी बड़ी बात होगी—उसने कहा : 'घोड़े को उड़ना सिखाने में कितने दिन लगेंगे?
प्रधान मंत्री ने कहा : कम से कम एक वर्ष—और यह घोड़ा उड़ने लगेगा।
सम्राट ने कहा. 'बहुत अच्छा! मैं तुम्हें एक वर्ष के लिए आजाद कर दूंगा। लेकिन स्मरण रहेयदि एक वर्ष में घोड़ा नहीं उड़ा तो तुम्हें फिर फांसी दे दी जाएगी। और यदि घोड़ा उड़ने लगा तो तुम्हें माफ कर दिया जाएगा। और माफ ही नहींमैं तुम्हें अपना आधा राज्य भी दे दूंगा। क्योंकि मैं इतिहास का पहला सम्राट होऊंगा जिसके पास उड़ने वाला घोड़ा होगा। तो जेल से बाहर आ जाओ और रोना बंद करो।
प्रधान मंत्री घोड़े पर सवारप्रसन्न और हंसता हुआ अपने घर पहुंचा। उसकी पत्नी अभी भी रो— धो रही थी। उसने कहा :'मैंने सब सुन लिया है। तुम्हारे आने के पहले ही मुझे खबर मिल गई है। लेकिन बस एक वर्षऔर मैं जानती हूं तुम्हें कोई कला नहीं आती है और यह घोड़ा कभी उड़ नहीं सकता। यह तो तरकीब हैधोखा है। तो अगर तुम एक साल का समय मांग सकते थे तो दस साल का समय क्यों नहीं माग लिया?'
प्रधान मंत्री ने कहा : 'वह जरा ज्यादा हो जाता। जो मिला है वही बहुत ज्यादा है। घोड़े
के उड़ने की बात ही अविश्वसनीय हैफिर दस साल का समय मांगना सरासर धोखा होता। लेकिन रोओ मत।
लेकिन पत्नी ने कहा : 'यह तो मेरे लिए और बड़े दुख की बात है कि मैं तुम्हारे साथ भी रहूंगी और भीतर— भीतर मुझे पता भी है कि एक वर्ष के बाद तुम्हें फांसी लगने वाली है। यह एक वर्ष तो भारी दुख का वर्ष होगा।
प्रधान मंत्री ने कहा. 'अब मैं तुम्हें एक प्राचीन भेद की बात बताता हूं जिसका तुम्हें पता नहीं है। इस एक वर्ष में सम्राट मर सकता हैघोड़ा मर सकता हैमैं मर सकता हूं। या कौन जाने घोड़ा उड़ना ही सीख जाए। एक वर्ष!'
बस आशा—मनुष्य आशा के सहारे जीता हैक्योंकि वह इतना ऊबा हुआ है। और जब ऊब उस बिंदु पर पहुंच जाती है जहां तुम और आशा नहीं कर सकतेजहां निराशा परिपूर्ण होती हैतब तुम आत्महत्या कर लेते हो। ऊब और आत्महत्यादोनों मानवीय घटनाएं हैं। कोई पशु आत्महत्या नहीं करता है। कोई वृक्ष आत्महत्या नहीं करता है।
ऐसा क्यों हो गया हैइसके पीछे कारण क्या हैक्या आदमी बिलकुल भूल गया है कि कैसे जीया जाता हैकि कैसे जीवन का उत्सव मनाया जाता हैजब कि सारा अस्तित्व उत्सवपूर्ण हैयह कैसे संभव हुआ कि केवल मनुष्य उससे बाहर निकल गया है और उसने अपने चारों ओर विषाद का एक वातावरण निर्मित कर लिया है?
मगर ऐसा ही हो गया है। पशु वृत्तियों के द्वारा जीते हैंवे बोध से नहीं जीते। वे प्रकृति द्वारा संचालित होते हैंवे यंत्रवत जीते हैं। उन्हें कुछ सीखना नहीं हैवे उसे लेकर ही जन्म लेते हैं जो सीखने योग्य है। उनका जीवन वृत्तियों के तल पर निर्बाध चलता रहता है। उन्हें कुछ सीखना नहीं है। उन्हें जीने और सुखी होने के लिए जो भी चाहिए वह उनकी कोशिकाओं में बिल्ट—इन हैउसका ब्‍लूप्रिंट पहले से तैयार है। इसलिए वे यंत्रवत जीए जाते हैं।
मनुष्य ने अपने वृत्तिया खो दी हैंअब उसके पास कोई ब्‍लूप्रिंट नहीं है। तुम बिना किसी ब्लूप्रिंट केबिना किसी बिल्ट—इन प्रोग्रेम के जन्म लेते हो। तुम्हारे लिए कोई बनी—बनाई यांत्रिक रेखाएं उपलब्ध नहीं हैंतुम्हें अपना मार्ग स्वयं निर्मित करना है। तुम्हें वृत्ति की जगह कुछ ऐसी चीजें निर्मित करनी हैं जो वृत्ति नहीं हैंक्योंकि वृत्ति तो जा चुकी। तुम्हें वृत्ति की जगह विवेक से काम लेना हैतुम्हें वृत्ति की जगह बोध से काम लेना है। तुम यंत्र की भांति नहीं चल सकते हो। तुम उस अवस्था के पार चले गए हो जहां यांत्रिक जीवन संभव हैयांत्रिक जीवन तुम्हारे लिए संभव नहीं है। समस्या यह है कि तुम पशु की भांति नहीं जी सकते और तुम यह भी नहीं जानते कि जीने का और कोई ढंग भी है—यही समस्या है।
तुम्हारे पास कोई प्रकृति द्वारा दिया हुआ बिल्ट—इन प्रोग्रेम नहीं हैजिसके अनुसार तुम चलो। तुम्हें अस्तित्व का सीधा साक्षात्कार करना है। और ऊबदुख और संताप तुम्हारी नियति होने ही वाले हैंअगर तुम वृत्तियों के सहारे जीने की बजाय बोध से जीने के लिए उपयुक्त बोध पैदा नहीं करते। तुम्हें सब कुछ सीखना हैकही समस्या है। किसी पशु को कुछ सीखना नहीं है और तुम्हें सभी कुछ सीखना है। और जब तक तुम यह नहीं सीखतेतुम्हें जीना मुश्किल होगा। तुम्हें जीने की कला सीखनीहोगीपशु को इसकी जरूरत नहीं है।
सीखना ही समस्या है। वैसे तुम भी बहुत कुछ सीखते हो। तुम धन कमाना सीखते हो, गणित सीखते होइतिहास सीखते होविज्ञान सीखते हो। लेकिन कभी तुम यह नहीं सीखते कि जीया कैसे जाए। और उससे ही ऊब की समस्या पैदा होती है। पूरी मनुष्यता ऊब से पीड़ित है, क्‍योंकि एक बुनियादी बात अछूती रह जाती है। और उसे वृत्तियों पर नहीं छोड़ा जा सकता; क्योंकि अब जीने के लिए वृत्तियां ही न रहीं। मनुष्य के लिए वृत्ति छूट चुकी हैवह द्वार बंद हो चुका है। तुम्हें अपना मार्ग आप बनाना है। तुम बिना किसी नक्‍शे के पैदा हुए हो।
और यह शुभ है। क्योंकि अस्तित्व समझता है कि तुम इतने जिम्मेवार हो कि अपना मार्ग आप बना सकते हो। यह गौरव की बात है। यह महिमा की बात है। यह मनुष्य को सर्वोच्च बना देती हैअस्तित्व का शिखर बना देती है। क्‍योंकि अस्तित्व तुम्हें स्वतंत्रता देता है। कोई पशु स्वतंत्र नहीं हैउसे अस्तित्व द्वारा दिए गए विशेष प्रोग्रेम के अनुसार जीना है। जब वह जन्म लेता हैवह एक प्रोग्रेम के साथ जन्म लेता है। और उसे इस प्रोग्रेम का अनुसरण करना है। वह उसके बाहर नहीं जा सकता हैवह चुनाव नहीं कर सकता है। उसके लिए कोई विकल्प नहीं है। मनुष्य के लिए सभी विकल्प उपलब्ध हैंऔर उसे गति करने के लिए कोई नक्‍शा नहीं दिया गया है।
अगर तुम जीने की कला नहीं सीखते तो तुम्हारा जीवन रूखा—सूखा हो जाएगामरुस्थल हो जाएगा। और यही हो गया है। तब तुम बहुत कुछ करते रह सकते हो और फिर भी तुम्हें लगेगा कि मैं जीवित नहीं हूं मैं मुर्दा हूं। तुम्हें लगेगा कि कहीं गहरे में तुम काम भी करते रहते होक्योंकि करना पड़ता है। सिर्फ जीने के लिए तुम काम करते रहते हो। लेकिन वह 'सिर्फ जीनाजीवन नहीं है। उसमें कोई नृत्य नहीं हैकोई पुलक नहीं है। वह मात्र व्यवसाय बनकरव्यस्तता बनकर रह गया है। उसमें कोई प्रफुल्लता नहीं हैऔर जाहिर है कि तुम उसका मजा नहीं ले सकते।
तंत्र की ये विधियां तुम्हें यह सिखाने के लिए हैं कि कैसे जीया जाए। वे तुम्हें सिखाती हैं कि पशुओं की तरह वृत्ति पर मत निर्भर रहोक्योंकि वह रही नहीं। वह इतनी धुंधली— धुंधली है कि तुम्हारे काम की नहीं है।
निरीक्षण से पाया गया है कि अगर एक मानव—शिशु मां के बिना पाला जाए तो वह कभी प्रेम नहीं सीख सकतावह कभी प्रेम नहीं कर सकता। वह जीवन— भर प्रेम के बिना जीएगाक्योंकि अब वृत्ति तो रही नहीं। उसे प्रेम सीखना होगा। उसके लिए प्रेम भी सीखने की चीज है। और जो आदमी का बच्चा प्रेम के अभाव में बड़ा किया गया है वह प्रेम नहीं सीख सकता है। वह कभी प्रेम नहीं कर सकेगा। अगर मां मौजूद नहीं हैऔर अगर मां सुख और आनंद का स्रोत नहीं बनती हैतो उस बच्चे के जीवन में कभी कोई स्त्री सुख और आनंद का स्रोत नहीं बन सकेगी। वह जब बड़ा होगाप्रौढ़ होगातो वह स्त्रियों के प्रति आकर्षित नहीं होगाक्योंकि अब वृत्ति तो काम करती नहीं।
पशुओं के साथ यह बात नहीं है। ठीक समय आने पर उनकी वृत्ति काम करने लगती है। समय पर वे कामुक हो जाएंगे और विपरीत लिंग की तरफ आकर्षित होने लगेंगे। यह चीज उनके लिए इंस्टिक्टिव हैयांत्रिक है। मनुष्य के लिए कुछ यांत्रिक नहीं है। अगर तुम मनुष्य के बच्चे को भाषा नहीं सिखाओगे तो उसे भाषा नहीं आएगी। अगर उसे बोलना नहीं सिखाया जाएगा तो उसके पास कोई भाषा नहीं होगी। यह स्वाभाविक नहीं हैइसके लिए कोई वृत्ति नहीं है। तुम जो कुछ भी हो वह सीखने के कारण हो। मनुष्य प्राकृतिक कम और सांस्कृतिक ज्यादा है। पशु सिर्फ प्राकृतिक हैमनुष्य प्राकृतिक कम और सांस्कृतिक ज्यादा है।
लेकिन मनुष्य का एक आयामबुनियादी और आधारभूत आयाम असंस्कृत रह जाता है। और वह है जीने का आयाम,जीवन का आयाम। तुम समझते हो कि वह आयाम तुम्हें मिला ही हुआ हैतुम्हारे पास ही है। लेकिन यह बात गलत है। तुम नहीं जानते हो कि कैसे जीया जाए। क्योंकि सिर्फ श्वास लेना जीना नहीं हैश्वास लेना जीवन का पर्याय नहीं है। वैसे ही भोजन करना और सोना भी जीना नहीं है। तब तुम कहने को ही जीवित होतुम सच्चे अर्थ में जीवित नहीं हो। तुम जीवंत नहीं हो।
बुद्ध बस जीवित ही नहीं हैंवे जीवंत हैं। वह जीवंतता तो तभी आती है जब तुम उसे सीखते होजब तुम उसके प्रति बोध से भरते होजब तुम उसकी खोज करते हो और ऐसी स्थिति निर्मित करते हो जिसमें जीवन विकास कर सके। इसे स्मरण रखो. मनुष्य के लिए यांत्रिक विकास संभव नहीं है। उसकी जगह सचेतन विकास ने ले ली है। अब सचेतन विकास में गति करने के अलावा कोई उपाय नहीं है। अब तुम पीछे नहीं लौट सकते। हीतुम वहीं टिके रह सकते हो जहां हो। लेकिन तब तुम ऊब से पीड़ित होंगे।
यही हुआ है। तुम विकसित नहीं हो रहे हो। तुम पार्थिव चीजें इकट्ठी किए जा रहे होइसलिए चीजें विकसित हो रही हैं। तुम्हारी गति अवरुद्ध हैरुकी हुई है। तुम्हारा धन जमा हो रहा हैइसलिए धन बढ़ रहा हैतुम नहीं बढ़ रहे। तुम्हारा बैंक—बैलेंस बड़ा हो रहा हैतुम नहीं। तुम जरा भी नहीं बढ़ रहे होइसके विपरीत तुम सिकुड़ रहे होघट रहे हो। तुम बढ़ तो बिलकुल नहीं रहे हो। और अगर तुम कुछ सचेतन रूप से नहीं करते तो तुम गए। सचेतन प्रयत्न की जरूरत है। पशुओं से यह अपेक्षा नहीं की जा सकतीक्योंकि वे जिम्मेवार नहीं हैं। तो यह बहुत बुनियादी बात समझ लेने जैसी है कि स्वतंत्रता के साथ जिम्मेवारी आ जाती है। और तुम तभी स्वतंत्र हो सकते हो जब तुम अपनी जिम्मेवारी स्वीकार करते हो।
पशु जिम्मेवार नहीं हैंक्योंकि पशु स्वतंत्र भी नहीं हैं। वे स्वतंत्र नहीं हैंउन्हें बस एक विशेष ढंग—ढांचे का अनुगमन करना है। और वे सुखी हैंक्योंकि कुछ गलत होने वाला नहीं है। वे पूर्व —निश्चित मार्ग पर चल रहे हैंवे एक ढांचे का अनुसरण कर रहे हैंजो लाखों—लाखों वर्षों के विकास—क्रम में निर्मित हुआ है। और वह सही पाया गया है। वे उसके अनुसार चल रहे हैं। उसमें गलत होने की संभावना नहीं है।
लेकिन तुम्हारे गलत होने की सब संभावना है। क्योंकि तुम्हारे लिए कोई नक्‍शा नहीं हैकोई योजना नहीं हैकोई ढंग—ढांचा नहीं है। तुम्हारे भावी जीवन की कोई तय रूपरेखा नहीं है। तुम स्वतंत्र हो। लेकिन तब तुम पर एक भारी दायित्व भी आ जाता है। और वह दायित्व यह है कि तुम सही चुनाव करोसही ढंग से काम करो और अपने ही प्रयत्न से अपना भविष्य निर्मित करो। सच तो यह है कि मनुष्य को अपने प्रयत्न से ही अपने को निर्मित करना है।
पश्चिम में अस्तित्ववादी जो कहते हैं वह सही है। वे कहते हैं कि मनुष्य एसेंस के बिनाआत्मा के बिना पैदा होता है। सार्त्रमार्शलहाइडेगरसब कहते हैं कि मनुष्य आत्मा के बिना जन्म लेता है। वह अस्तित्व की भांति पैदा होता है और फिर अपने प्रयत्न से वह आत्मा का सृजन करता है। वह एक संभावना की तरह आता है और फिर अपने प्रयत्न से आत्मा का सृजन करता है। वह सिर्फ रूप की तरह जन्म लेता है और फिर अपने सचेतन प्रयत्न से सत्व की रचना करता है।
शेष सारी प्रकृति के साथ बात ठीक उलटी है। प्रत्‍येक पशु, प्रत्‍येक पौधा अपने साथ सत्य लेकरआत्मा लेकरएक कार्यक्रम लेकरएक नियति लेकर जन्म लेता है। सिर्फ मनुष्य एक अवसर की तरह जन्म लेता हैउसकी कोई नियति नहीं है। और इससे ही समस्या पैदा होती हैइससे ही दायित्व पैदा होता है। और इससे ही तुम्हें भयचिंता और संताप घेरता है। और फिर यदि तुम कुछ नहीं करते हो तो तुम जहां हो वहीं अटक जाते हो। और इस अटकाव से ऊब पैदा होती है।
तुम जीवंतसुखीउत्सवपूर्ण और आनंदित तभी होते हो जब तुम विकास करते हो जब तुम बढ़ते होविस्तार पाते हो;जब तुम आत्मा का सृजन करते होअसल में जब तुम परमात्मा से आविष्ट होते होजब परमात्मा तुम्हारे गर्भ में विस्तार पाता हैजब तुम परमात्मा को जन्म देते हो।
तंत्र के लिए परमात्मा आरंभ नहीं हैपरमात्मा अंत है। परमात्मा स्रष्टा नहीं है परमात्मा विकास का चरम बिंदु हैपरम शिखर है। वह अंतिम हैप्रथम नहीं। वह अल्फा नहींओमेगा है। और जब तक तुम गर्भवान नहीं होतेजब तक तुम अपने भीतर जीवन को नहीं पालतेतब तक तुम ऊब से पीड़ित ही रहोगे। क्योंकि तब तक तुम्हारा जीवन व्यर्थ होगा उससे कुछ सार्थक नहीं होने वाला हैउसमें कोई फल नहीं लगने वाला है। और उससे ही ऊब पैदा होती है।
तुम इस अवसर को विकास का साधन बना सकते हो या इसे गंवा सकते हो और आत्मघात का कारण बना सकते हो। यह तुम पर निर्भर है। क्योंकि मनुष्य आत्महत्या कर सकता हैइसलिए मनुष्य ही आध्यात्मिक विकास कर सकता है। कोई पशु आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता है। क्योंकि मनुष्य के हाथ में है कि वह अपने को विनष्ट कर सके इसलिए उसके हाथ में है कि वह अपना सृजन भी कर सके।
स्मरण रहेदोनों संभावनाएं साथ—साथ हैंयुगपत हैं। कोई पशु आत्महत्या नहीं कर सकतायह असंभव है। तुम सोच भी नहीं सकते कि कोई सिंह आत्महत्या की बात सोचेकि वह किसी पहाड़ी से कूदकर अपने को समाप्त कर दे। यह असंभव है। कोई सिंह—चाहे वह कितना ही बलवान हो—कोई सिंह आत्महत्या की बातअपना जीवन समाप्त करने की बात नहीं सोच सकता। क्योंकि वह स्वतंत्र नहीं है। लेकिन मनुष्य अपने को समाप्त करने की सोच सकता है।
असल में तो ऐसा आदमी खोजना असंभव है जिसने कई बार आत्महत्या करने का विचार न किया हो। और अगर तुम्हें ऐसा कोई आदमी मिल जाए जिसने आत्महत्या का विचार कभी न किया हो तो समझना कि वह या तो पशु है या देवता है।
आत्मघात बुनियादी रूप से मानवीय घटना है। लेकिन इस के साथ ही एक दूसरा द्वार खुलता है कि तुम अपना सृजन भी कर सकते हो। सच तो यह है कि दोनों द्वार युगपत खुलते है। तुम अपना सृजन कर सकते होक्योंकि तुम अपना विनाश भी कर सकते हो। कोई पशु अपना सृजन नहीं कर सकतातुम अपना सृजन कर सकते हो। और यदि तुम अपना सृजन नहीं करते हो तो तुम अपना विनाश करने लगोगे। यदि तुम आत्म—सृजन नहीं करोगेआत्म—निर्माण में नहीं लगोगे.।
और यह आत्म—सृजन एक प्रक्रिया हैतुम्हें सतत आत्म—सृजन में लगे रहना है। जब तक तुम आत्यंतिक शिखर तक न पहुंच जाओतुम्हें सृजन में लगे रहना है। और अगर तुम सृजन नहीं करोगे तो तुम ऊबोगे। सृजन—विहीन जीवन ही ऊब है। और ये सब विधियां तुम्हें सृजन करने मेंपुनर्जन्म पाने मेंगर्भवान होने में सहयोगी होंगी।
अब मैं विधियों को लेता हूं।
पहली विधि। यह विधि बहुत सरल है और सचमुच अदभुत विधि है। तुम इसे प्रयोग कर सकते हो। कोई भी व्यक्ति इसे प्रयोग कर सकता है। इसमें तुम्हारे टाइप का सवाल नहीं हैकोई भी इसे कर सकता है। और यह विधि सबके लिए सहयोगी होगी। अगर तुम इसमें बहुत गहरे न भी जा सको तो भी वह सहयोगी होगीतुम्हें ताजा कर जाएगी। जब भी तुम ऊब से भरोगे,यह विधि तुम्हें तुरंत ताजा कर देगी। जब भी तुम थके—हारे महसूस करोगेयह तुम्हें तुरंत नवजीवन दे देगी। जब भी तुम ऐसी भाव—दशा में होंगे जिसमें जिंदगी से निराशा अनुभव होइस विधि के प्रयोग से तुम्हारे भीतर ऊर्जा की नई धार प्रवाहित होने लगेगी।
तो यह सबके लिए उपयोगी है। अगर तुम इस पर ध्यान भी न करो तो भी यह तुम्हारे लिए औषधि का काम करेगी। यह तुम्हें स्वास्थ्य देगी। और यह बहुत सरल हैइसके लिए किसी पूर्व—तैयारी की जरूरत नहीं है।

 विधि है:
आंख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन हृदय में खुलता है और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।
विधि में प्रवेश के पहले कुछ भूमिका की बातें समझ लेनी हैं। पहली बात कि आंख के बाबत कुछ समझना जरूरी है,क्योंकि पूरी विधि इस पर ही निर्भर करती है।
पहली बात यह है कि बाहर तुम जो भी हो या जो दिखाई पड़ते हो वह झूठ हो सकता हैलेकिन तुम अपनी आंखों को नहीं झुठला सकते। तुम झूठी आंखें नहीं बना सकते हो। तुम झूठा चेहरा बना सकते होलेकिन झूठी आंखें नहीं बना सकते। वह असंभव हैजब तक कि तुम गुरजिएफ की तरह परम निष्णात ही न हो जाओ। जब तक तुम अपनी सारी शक्तियों के मालिक न हो जाओतुम अपनी आंखों को नहीं झुठला सकते। सामान्य आदमी यह नहीं कर सकता है। आंखों को झुठलाना असंभव है।
यही कारण है कि जब कोई आदमी तुम्हारी आंखों में झांकता हैतुम्हारी आंखों में आंखें डालकर देखता है तो तुम्हें बहुत बुरा लगता है। क्योंकि वह आदमी तुम्हारी असलियत में झांकने की चेष्टा कर रहा है। और वहां तुम कुछ भी नहीं कर सकते;तुम्हारी आंखें असलियत को प्रकट कर देंगीवे उसे प्रकट कर देंगी जो तुम सचमुच हो। इसीलिए किसी की आंखों में झांकना शिष्टाचार के विरुद्ध माना जाता है। किसी से बातचीत करते समय भी तुम उसकी आंखों में झांकने से बचते हो। जब तक तुम किसी के प्रेम में नहीं होजब तक कोई तुम्हारे साथ प्रामाणिक होने को राजी नहीं हैतब तक तुम उसकी आंख में नहीं देख सकते।
एक सीमा है। मनसविदों ने बताया है कि तीस सेकेंड सीमा है। किसी अजनबी की परमात्मा को आंखों में तुम तीस सेकेंड तक देख सकते हो—उससे अधिक नहीं। अगर उससे ज्यादा देर तक देखोगे तो तुम आक्रामक हो रहे हो ओर दूसरा व्‍यक्‍ति तुरंत बुरा मानेगा। हां, बहुत दूर से तुम किसी की आंख में देख सकते होक्योंकि तब दूसरे को उसका बोध नहीं होता है। अगर तुम सौ फीट की दूरी पर हो तो मैं तुम्हें घूरता रह सकता हूंलेकिन अगर सिर्फ दो फीट की दूरी हो तो वैसा करना असंभव है।
किसी भीड़—भरी रेलगाड़ी मेंया किसी लिफ्ट में आस—पास बैठे या खड़े होकर भी तुम एक—दूसरे की आंखों में नहीं देखते हो। हो सकता है किसी का शरीर छू जाएवह उतना बुरा नहीं हैलेकिन तुम दूसरे की आंखों में कभी नहीं झांकते हो। क्योंकि वह जरा ज्यादा हो जाएगाइतने निकट से तुम आदमी की असलियत में प्रवेश कर जाओगे।
तो पहली बात कि आंखों का कोई संस्कारित रूप नहीं होताआंखें शुद्ध प्रकृति हैं। आंखों पर मुखौटा नहीं है। और दूसरी बात याद रखने की यह है कि तुम संसार में करीब—करीब सिर्फ आंख के द्वारा गति करते हो। कहते हैं कि तुम्हारी अस्सी प्रतिशत जीवन—यात्रा आंख के सहारे होती है। जिन्होंने आंखों पर काम किया है उन मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि संसार के साथ तुम्हारा अस्सी प्रतिशत संपर्क आंखों के द्वारा होता है। तुम्हारा अस्सी प्रतिशत जीवन आंख से चलता है।
यही कारण है कि जब तुम किसी अंधे आदमी को देखते हो तो तुमको दया आती है। तुम्हें उतनी दया और सहानुभूति तब नहीं होती जब तुम किसी बहरे आदमी को देखते हो। लेकिन जब तुम्हें कोई अंधा आदमी दिखाई देता है तो तुम्हें अचानक उसके प्रति सहानुभूति और करुणा अनुभव होती है। क्योंक्योंकि वह अस्सी प्रतिशत मरा हुआ है। बहरा आदमी उतना मरा हुआ नहीं है। अगर तुम्हारे हाथ—पांव भी कट जाएं तो भी तुम उतने मृत नहीं अनुभव करोगेलेकिन अंधा आदमी अस्सी प्रतिशत मुर्दा है। वह केवल बीस प्रतिशत जीवित है।
तुम्हारी अस्सी प्रतिशत ऊर्जा तुम्हारी आंखों से बाहर जाती है। तुम संसार में आंखों के द्वारा गति करते हो। इसलिए जब तुम थकते हो तो सबसे पहले आंखें थकती हैं और फिर शरीर के दूसरे अंग थकते हैं। सबसे पहले तुम्हारी आंखें ही ऊर्जा से रिक्त होती हैं। अगर तुम अपनी आंखों को फिर तरोताजा कर लो तो तुम्हारा पूरा शरीर तरोताजा हो जाएगाक्योंकि आंखें तुम्हारी अस्सी प्रतिशत ऊर्जा हैं। अगर तुम अपनी आंखों को पुनजार्वित कर लो तो तुमने अपने को पुनर्जीवन दे दिया।
तुम किसी प्राकृतिक परिवेश में कभी उतना नहीं थकते हो जितना किसी अप्राकृतिक शहर में थकते हो। कारण यह है कि प्राकृतिक परिवेश में तुम्हारी आंखों को निरंतर पोषण मिलता है। वहां की हरियालीवहां की ताजी हवावहां की हर चीज तुम्हारी आंखों को आराम देती हैपोषण देती है। एक आधुनिक शहर में बात उलटी हैवहां सब कुछ तुम्हारी आंखों का शोषण करता है,वहां उन्हें पोषण नहीं मिलता है।
तुम किसी दूर देहात में चले जाओया किसी पहाड़ पर चले जाओ जहां के माहौल में कुछ भी कृत्रिम नहीं हैजहां सब कुछ प्राकृतिक हैऔर वहां तुम्हें भिन्न ही ढंग की आंखें देखने को मिलेंगी। उनकी झलकउनकी गुणवत्ता और होगीवे ताजी होंगीपशुओं जैसी निर्मल होंगी, गहरी होंगी, जीवंत और नाचती हुई होंगी। आधुनिक शहर में आंखें मृत होती है; बुझी—बुझी होती हैं। उन्हें उत्सव का पता नहीं है। उन्हें मालूम नहीं कि ताजगी क्या है। वहां आंखों में जीवन का प्रवाह नहीं हैबस उनका शोषण होता है।
तुम्हारी अस्सी प्रतिशत ऊर्जा आंखों से होकर बहती है। तुम्हें इसका पूरा—पूरा बोध होना चाहिए और तुम्हें आंखों की गति,उनकी ऊर्जाउनकी संभावना के संबंध में जागरूक होना चाहिए।
भारत में हम अंधे व्यक्तियों को प्रज्ञाचक्षु कहते हैंउसका विशेष कारण है। प्रत्येक दुर्भाग्य को महान अवसर में रूपांतरित किया जा सकता है। आंखों से होकर अस्सी प्रतिशत ऊर्जा काम करती हैऔर अंधा आदमी अस्सी प्रतिशत मुर्दा होता हैसंसार के साथ उसका अस्सी प्रतिशत संपर्क टूटा होता है। जहां तक बाहरी दुनिया का संबंध हैवह आदमी बहुत दीन है। लेकिन अगर वह इस अवसर काइस अंधे होने के अवसर का उपयोग करना चाहे तो वह इस अस्सी प्रतिशत ऊर्जा का उपयोग अपने आंतरिक जगत के आविष्कार के लिए कर सकता है। यह अस्सी प्रतिशत ऊर्जाजिसके बहने का सामान्य द्वार बंद हैबिना उपयोग के रह जाती हैयदि वह उसकी कला नहीं जानता है।
तो उसके पास अस्सी प्रतिशत ऊर्जा का भंडार पड़ा हैऔर जो ऊर्जा सामान्यत: बहिर्यात्रा में लगती है वही ऊर्जा अंतर्यात्रा में लग सकती है। अगर वह उसे अंतर्यात्रा में संलग्न करना जान ले तो वह प्रज्ञाचक्षु हो जाएगाविवेकवान हो जाएगा।
तो अंधा होने से ही कोई प्रज्ञाचक्षु नहीं हो जातालेकिन वह हो सकता है। उसके पास सामान्य आंखें तो नहीं हैंलेकिन उसे प्रज्ञा की आंखें मिल सकती हैं। इसकी संभावना है। हमने उसे प्रज्ञाचक्षु नाम यह बोध देने के इरादे से दिया कि वह इसके लिए दुख न माने कि उसे आंखें नहीं हैं। वह अंतर्चक्षु निर्मित कर सकता है। उसके पास अस्सी प्रतिशत ऊर्जा का भंडार अछूता पड़ा है जो आंख वालों के पास नहीं है। वह उसका उपयोग कर सकता है। वह अंतर्यात्रा कर सकता है।
यदि अंधा आदमी बोधपूर्ण नहीं है तो भी वह तुमसे ज्यादा शात होता हैज्यादा विश्रामपूर्ण होता है। किसी अंधे आदमी को देखोवह ज्यादा शांत हैउसका चेहरा ज्यादा विश्रामपूर्ण है। वह अपने आप में संतुष्ट हैउसमें असंतोष नहीं है। यह बात बहरे आदमी के साथ नहीं होती है। बहरा आदमी तुमसे ज्यादा अशात होगा और चालाक होगा। लेकिन अंधा आदमी न अशात होता है और न चालाक और हिसाबी—किताबी होता है। वह बुनियादी तौर से श्रद्धावान होता हैअस्तित्व के प्रति श्रद्धावान होता है।
ऐसा क्यों होता हैक्योंकि उसकी अस्सी प्रतिशत ऊर्जाहालाकि वह उसके बारे में कुछ नहीं जानता हैभीतर की ओर प्रवाहित हो रही है। वह ऊर्जा सतत भीतर गिर रही हैठीक जलप्रपात की तरह गिर रही है। उसे इसका बोध नहीं हैलेकिन यह ऊर्जा उसके हृदय पर बरसती रहती है। वही ऊर्जा जो बाहर जाती हैउसके हृदय में जा रही है। और यह चीज
उसके जीवन का गुणधर्म बदल देती है। प्राचीन भारत में अंधे आदमी को बहुत आदर मिलता था—बहुत—बहुत आदर। अत्यंत आदर में हमने उसे प्रज्ञाचक्षु कहा है।
तुम यही अपनी आंखों के साथ कर सकते हो। यह विधि उसके लिए ही है। यह तुम्हारी बाहर जाने वाली ऊर्जा को वापस लानेतुम्हारे हृदय केंद्र पर उतारने की विधि है। अगर वह ऊर्जा तुम्‍हारे ह्रदय में उत्‍तर जाए तो तुम बहुत हलके हो जोओगे। तुम्‍हें ऐसा लगेगा। कि सारा शरीर एक पंख बन गया हैकि तुम पर अब गुरुत्वाकर्षण का कोई प्रभाव न रहा। और तुम तब तुरंत अपने अस्तित्व के गहनतम स्रोत से जुड़ जाते होऔर वह तुम्हें पुनरुज्जीवित कर देता है।
तंत्र के अनुसारगाढ़ी नींद के बाद तुम्हें जो नवजीवन मिलता हैजो ताजगी मिलती हैउसका कारण नींद नहीं हैउसका कारण है कि जो ऊर्जा बाहर जा रही थी वही ऊर्जा भीतर आ जाती है। अगर तुम यह राज जान लो तो जो नींद सामान्य व्यक्ति छह या आठ घंटों में पूरी करता हैतुम कुछ मिनटों में पूरी कर सकते हो। छह या आठ घंटे की नींद में तुम खुद कुछ नहीं करते होप्रकृति ही कुछ करती हैऔर इसका तुम्हें बोध नहीं है कि वह क्या करती है। तुम्हारी नींद में एक रहस्यपूर्ण प्रक्रिया घटती है। उसकी एक बुनियादी बात यह है कि तुम्हारी ऊर्जा बाहर नहीं जातीवह तुम्हारे हृदय पर बरसती रहती है। और वही चीज तुम्हें नया जीवन देती हैतुम अपनी ही ऊर्जा में गहन स्नान कर लेते हो।
इस गतिशील ऊर्जा के संबंध में कुछ और बातें समझने की हैं। तुमने गौर किया होगा कि अगर कोई व्यक्ति तुमसे ऊपर है तो वह तुम्हारी आंखों में सीधे देखता है और अगर वह तुमसे कमजोर है तो वह नीचे की तरफ देखता है। नौकरगुलाम या कोई भी कम महत्व का व्यक्ति अपने से बड़े व्यक्ति की आंखों में नहीं देखेगा। लेकिन बड़ा आदमी घूर सकता हैसम्राट घूर सकता है। लेकिन सम्राट के सामने खड़े होकर तुम उसकी आंख से आंख मिलाकर नहीं देख सकते होवह गुनाह समझा जाएगा। तुम्हें अपनी आंखों को झुकाए रहना है।
असल में तुम्हारी ऊर्जा तुम्हारी आंखों से गति करती है और वह सूक्ष्म हिंसा बन सकती है। यह बात मनुष्यों के लिए ही नहींपशुओं के लिए भी सही है। जब दो अजनबी मिलते हैंदो जानवर मिलते हैंतो वे एक—दूसरे की आंख में झांकते हैं कि कौन शक्तिशाली है और कौन कमजोर। और एक बार एक जानवर ने आंखें नीची कर लीं तो मामला तय हो गयाफिर वे लड़ते नहीं। बात खत्म हो गई। निश्चित हो गया कि उनमें कौन श्रेष्ठ है।
बच्चे भी एक—दूसरे की आंख में घूरने का खेल खेलते हैंऔर जो भी आंख पहले हटा लेता है वह हार गया माना जाता है। और बच्चे सही हैं। जब दो बच्चे एक—दूसरे की आंखों में घूरते हैं तो उनमें जो भी पहले बेचैनी अनुभव करता हैइधर—उधर देखने लगता हैदूसरे की आंख से बचता हैवह पराजित माना जाता हैऔर जो घूरता ही रहता है वह शक्तिशाली माना जाता है। अगर तुम्हारी आंखें दूसरे की आंखों को हरा दें तो यह इस बात का सूक्ष्म लक्षण है कि तुम दूसरे से शक्तिशाली हो।
जब कोई व्यक्ति भाषण देने या अभिनय करने के लिए मंच पर खड़ा होता है तो वह बहुत भयभीत होता हैवह कांपने लगता है। जो लोग पुराने अभिनेता हैंवे भी जब मंच पर आते हैं तो उन्हें भय पकड़ लेता है। कारण यह है कि उन्हें इतनी आंखें देख रही हैं उनकी और इतनी आक्रामक ऊर्जा प्रवाहित हो रही है। उनकी ओर हजारों लोगों से इतनी ऊर्जा प्रवाहित होती है कि वे अचानक अपने भीतर कांपने लगते हैं।
एक सूक्ष्म ऊर्जा आंखों से प्रवाहित होती है। एक अत्यंत सूक्ष्मअत्यंत परिष्कृत शक्ति आंखों से प्रवाहित होती है। और व्‍यक्‍ति—व्‍यक्‍ति के साथ इस ऊर्जा का गुणधर्म बदल जाता है।
बुद्ध की आंखों से एक तरह की ऊर्जा प्रवाहित होती है और हिटलर की आंखों से सर्वथा भिन्न तरह की ऊर्जा प्रवाहित होती है। अगर तुम बुद्ध की आंखों में देखो तो पाओगे कि वे आंखें तुम्हें बुला रही हैंतुम्हारा स्वागत कर रही हैं। बुद्ध की आंखें तुम्हारे लिए द्वार बन जाती हैं। और अगर तुम हिटलर की आंखों में देखो तो पाओगे कि वे तुम्हें अस्वीकार कर रही हैंतुम्हारी निंदा कर रही हैंतुम्हें दूर हटा रही हैं। हिटलर की आंखें तलवार जैसी हैं और बुद्ध की आंखें कमल जैसी हैं। हिटलर की आंखों में हिंसा है;बुद्ध की आंखों में करुणा।
आंखों का गुणधर्म अलग—अलग है। देर— अबेर हम आंख की ऊर्जा को नापने की विधि खोज लेंगेऔर तब मनुष्य के संबंध में जानने को बहुत नहीं बचेगा। सिर्फ आंख की ऊर्जाआंख का गुणधर्म बता देगा कि उसके पीछे किस किस्म का व्यक्ति छिपा है। देर—अबेर इसे नापना संभव हो जाएगा।
यह सूत्रयह विधि इस प्रकार है : 'आंख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन हृदय में खुलता है और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।
'आंख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से........।
दोनों हथेलियों का उपयोग करोउन्हें अपनी आंखों पर रखो और हथेलियों से पुतलियों को स्पर्श करो—जैसे पंख से उन्हें छू रहे हो। पुतलियों पर जरा भी दबाव मत डालों। अगर दबाव डालते हो तो तुम पूरी बात ही चूक गए। तब पूरी विधि ही व्यर्थ हो गई। कोई दबाव मत डालोबस पंख की तरह छुओ।
ऐसा स्पर्शपंखवत स्पर्श धीरे— धीरे आएगा। आरंभ में तुम दबाव दोगे। इस दबाव को कम से कम करते जाओ—जब तक कि दबाव बिलकुल न मालूम होतुम्हारी हथेलियां पुतलियों को स्पर्श भर करें—मात्र स्पर्श। इस स्पर्श में जरा भी दबाव न रहे। यदि जरा भी दबाव रह गया तो विधि काम न करेगी। इसलिए इसे पंख—स्पर्श कहा गया है।
क्योंक्योंकि जहां सुई से काम चले वहां तलवार चलाने से क्या होगाकुछ काम हैं जिन्हें सुई ही कर सकती हैउन्हें तलवार नहीं कर सकती। अगर तुम पुतलियों पर दबाव देते हो तो स्पर्श का गुण बदल गयातब तुम आक्रामक हो। और जो ऊर्जा आंखों से बहती है वह बहुत सूक्ष्म हैबहुत बारीक है। जरा सा दबावऔर एक संघर्षएक प्रतिरोध पैदा हो जाता है। दबाव पड़ने से आंखों से बहने वाली ऊर्जा लड़ेगीप्रतिरोध करेगी। एक संघर्ष चलेगा। तो बिलकुल दबाव मत डालोआंख की ऊर्जा को हलके से दबाव का भी पता चल जाता हैवह बहुत सूक्ष्म हैकोमल है। तो दबाव बिलकुल नहींतुम्हारी हथेलियां पंख की तरह पुतलियों को ऐसे छुए जैसे न छू रही हों। आंखों को ऐसे स्पर्श करो कि वह स्पर्श पता भी न चलेकिंचित भी दबाव न पड़ेबस हलका सा अहसास हो कि हथेली पुतली को छू रही है। बस!
इससे क्या होगाजब तुम किसी दबाव के बिना स्पर्श करते हो तो ऊर्जा भीतर की ओर गति करने लगती है। और अगर दबाव पड़ता है तो ऊर्जा हाथ से लड़ने लगती है और। वह बाहर चली जाती है। लेकिन अगर हलका सा स्पर्श होपंख—स्पर्श हो,तो ऊर्जा भीतर की तरफ बहने लगती है। एक द्वार बंद हैबाहर का द्वार बंद हैऔर ऊर्जा पीछे की तरफ लौट पड़ती है। और जिस क्षण ऊर्जा पीछे की तरफ बहने लगेगीतुम अनुभव करोगे कि तुम्हारे पूरे चेहरे पर और तुम्‍हारे सिर में एक हलकापन फैल गया है। वह प्रतिक्रमण करती हुई ऊर्जा ही, पीछे लौटती ऊर्जा ही तुम्हें हलका बनाती है।
और इन दो आंखों के मध्य में तीसरी आंख हैप्रज्ञाचक्षु है। इन्हीं दो आंखों के मध्य में शिवनेत्र है। आंखों से पीछे की ओर बहने वाली ऊर्जा तीसरी आंख पर चोट करती है और उसके कारण ही तुम हलकापन महसूस करते होजमीन से ऊपर उठते मालूम पड़ते होमानो गुरुत्वाकर्षण समाप्त हो गया हो। और यही ऊर्जा तीसरी आंख से चलकर हृदय पर उतरती है।
यह एक शारीरिक प्रक्रिया है। बूंद—बूंद ऊर्जा नीचे गिरती हैहृदय पर बरसती है। और तुम्हारे हृदय में बहुत हलकापन अनुभव होगा। हृदय की धड़कन बहुत धीमी हो जाएगी और श्वास की गति धीमी हो जाएगी और तुम्हारा शरीरसारा शरीर विश्राम अनुभव करेगा।
यदि तुम इसे ध्यान की तरह नहीं भी करते हो तो भी यह प्रयोग तुम्हें शारीरिक रूप से सहयोगी होगा। दिन में कभी भी कुर्सी पर बैठे हुएया यदि कुर्सी न हो तो रेलगाड़ी या कहीं भी बैठे हुँएआंखें बंद कर लोपूरे शरीर को शिथिल छोड़ दो और अपनी हथेलियों को आंखों पर रखो। लेकिन आंखों पर दबाव मत डालों—यही बात बहुत महत्वपूर्ण है—पंख की भांति छुओ भर!
जब तुम बिना दबाव के छूते हो तो तुम्हारे विचार तत्क्षण बंद हो जाते हैं। शात मन में विचार नहीं चल सकतेवे ठहर जाते हैं। विचारों को गति करने के लिए पागलपन जरूरी हैतनाव जरूरी है। विचार तनाव के सहारे जीते हैं। जब आंखें मौन,शिथिल और शात हैं और ऊर्जा पीछे की तरफ गति करने लगती है तो विचार ठहर जाते हैं। तुम्हें एक सूक्ष्म सुख का अनुभव होगा जो रोज प्रगाढ़ होता जाएगा।
दिन में यह प्रयोग कई बार करो। एक क्षण के लिए भी यह छूना अच्छा रहेगा। जब भी तुम्हारी आंखें थक जाएंजब भी उनकी ऊर्जा चुक जाएवे बोझिल अनुभव करें—जैसा पढ़नेफिल्म देखने या टी वी देखने से होता है—तो आंखें बंद कर लो और उन्हें स्पर्श करो। उसका असर तत्‍क्षण होगा।
लेकिन अगर तुम इसे ध्यान बनाना चाहते हो तो कम से कम चालीस मिनट तक इसे करना चाहिए। और कुल बात इतनी है कि दबाव मत डालोंसिर्फ छुओ। क्योंकि एक क्षण के लिए तो पंख जैसा स्पर्श आसान हैलेकिन ऐसा स्पर्श चालीस मिनट रहेयह कठिन है। अनेक बार तुम भूल जाओगे और दबाना शुरू कर दोगे।
दबाव मत डालों। चालीस मिनट तक यह बोध बना रहे कि तुम्हारे हाथों में कोई वजन नहीं हैवे सिर्फ स्पर्श कर रहे हैं। इसका सतत होश बना रहे कि तुम आंखों को दबाते नहींकेवल छूते हो। फिर यह श्वास की भाति गहरा बोध बन जाएगा। जैसे बुद्ध कहते हैं कि पूरे होश से श्वास लोवैसे ही स्पर्श भी पूरे होश से करो। तुम्हें सतत स्मरण रहे कि मैं बिलकुल दबाव न डालूं। तुम्हारे हाथों को पंख जैसा हलका होना चाहिए—बिलकुल वजन—शून्यमात्र स्पर्श। तुम्हारा अवधान एकाग्र होकर वहां रहेगा;ऊर्जा निरंतर बहती रहेगी।
आरंभ में ऊर्जा बूंद—बूंद आएगी। फिर कुछ ही महीनों में तुम देखोगे कि वह सरित—प्रवाह बन गया है। और वर्ष भर के भीतर वह बाढ़ बन जाएगी। और जब यह घटित होगा—'आंखकी पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन'—जब तुम छुओगे तो तुम्हें हलकापन अनुभव होगा। तुम इसे अभी ही अनुभव कर सकते हो। जैसे ही तुम छूते होतत्काल एक हलकापन पैदा हो जाता है। और वह 'उनके बीच का हलकापन हृदय में खुलता है,' वह हलकापन गहरे उतरता हैहृदय में खुलता है।
हृदय में केवल हलकापन प्रवेश कर सकता हैकुछ भी जो भारी है वह हृदय में नहीं प्रवेश कर सकता। हृदय में सिर्फ हलकी चीजें घटित हो सकती हैं। दो आंखों के बीच का यह हलकापन हृदय में गिरने लगेगा और हृदय उसे ग्रहण करने को खुल जाएगा।
'और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।
और जैसे—जैसे यह ऊर्जा की वर्षा पहले झरना बनती हैफिर नदी बनती है और फिर बाढ़ बनती हैतुम उसमें खो जाओगेबह जाओगे। तुम्हें अनुभव होगा कि तुम नहीं हो। तुम्हें अनुभव होगा कि सिर्फ ब्रह्मांड है। श्वास लेते हुएश्वास छोड़ते हुए तुम ब्रह्मांड ही हो जाओगेतब श्वास के साथ—साथ ब्रह्मांड ही भीतर आएगा और ब्रह्मांड ही बाहर जाएगा। तब अहंकारजो तुम सदा रहे होनहीं रहेगा। तब अहंकार गया।
यह विधि बहुत सरल हैइसमें कोई खतरा नहीं है। तुम जैसे चाहो इसके साथ प्रयोग कर सकते हो। लेकिन इसके सरल होने के कारण ही तुम इसे करने में भूल भी कर सकते हो। पूरी बात इस पर निर्भर है कि दबाव के बिना छूना है।
तुम्हें यह सीखना पड़ेगा। प्रयोग करते रहो। एक सप्ताह के भीतर यह सध जाएगा। अचानक किसी दिन जब तुम दबाव दिए बिना छुओगेतुम्हें तत्‍क्षण वह अनुभव होगा जिसकी मैं बात कर रहा हूं। एक हलकापनहृदय का खुलना और किसी चीज का सिर से हृदय में उतरना अनुभव होगा।

 दूसरी विधि:
हे दयामयी अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत नीचेआकाशीय उपस्थिति में प्रवेश करो।
ह दूसरी विधि तभी प्रयोग की जा सकती है जब तुमने पहली विधि पूरी कर ली है। यह प्रयोग अलग से भी किया जा सकता हैलेकिन तब यह बहुत कठिन होगा। इसलिए पहली विधि पूरी करके ही इसे करना अच्छा है। और तब यह विधि बहुत सरल भी हो जाएगी। जब भी ऐसा होता है—कि तुम हलके—फुलके अनुभव करते होजमीन से उठते हुए अनुभव करते होमानो तुम उड़ सकते हो—तभी अचानक तुम्हें बोध होगा कि तुम्हारा शरीर को चारों ओर से एक नीला आभा—मंडल घेरे है।
लेकिन यह अनुभव तभी होगा जब तुम्हें लगे कि मैं जमीन से ऊपर उठ सकता हूं कि मेरा शरीर आकाश में उड़ सकता हैकि वह बिलकुल हलका और निर्भार हो गया हैकि वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बिलकुल मुक्त हो गया है।
ऐसा नहीं है कि तुम उड़ सकते होवह प्रश्न नहीं है। हालाकि कभी—कभी यह भी होता है। कभी—कभी ऐसा संतुलन बैठ जाता है कि तुम्हारा शरीर ऊपर उठ जाता है। लेकिन वह प्रश्न ही नहीं हैउसकी सोचो ही मत। बंद आंखों से इतना महसूस करना काफी है कि तुम्हारा शरीर ऊपर उठ गया है। जब तुम आंख खोलोगे तो पाओगे कि तुम जमीन पर ही बैठे हो। उसकी चिंता मत करो। अगर तुम बंद आंखों से महसूस कर सके कि शरीर ऊपर उठ गया हैकि उसमें कोई वजन न रहातो इतना काफी है।
ध्यान के लिए इतना काफी है। लेकिन अगर तुम आकाश में उड़ना सीखने की चेष्टा कर रहे हो तो यह काफी नहीं है। लेकिन मैं उसमें उत्सुक नहीं हूं और मैं तुम्हें उसके संबंध में कुछ नहीं बताऊंगा। इतना पर्याप्त है कि तुम्हें महसूस हो कि तुम्हारे शरीर पर कोई भार नहीं हैवह निर्भार हो गया है।
और जब भी यह हलकापन महसूस हो तो आंखें बंद रखे हुए ही अपने शरीर के आकार के प्रति बोधपूर्ण होओ। आंखों को बंद रखते हुए आठों को और उनके आकार को महसूस करोपैरों को और उनके आकार को महसूस करो। अगर तुम बुद्ध की भाति सिद्धासन में बैठे हो तो बैठे ही बैठे अपने शरीर के आकार को अनुभव करो। तुम्हें अनुभव होगास्पष्ट अनुभव होगाऔर उसके साथ ही साथ तुम्हें बोध होगा कि उस आकार के चारों ओर नीला सा प्रकाश फैला है।
आरंभ में यह प्रयोग आंखों को बंद रख कर करो। और जब यह प्रकाश फैलता जाए और तुम्हें आकार के चारों ओर नीला प्रकाश—मंडल महसूस होतब कभी यह प्रयोग रात मेंअंधेरे कमरे में करते समय आंखें खोल लोऔर तुम अपने शरीर के चारों ओर एक नीला प्रकाशएक नीला आभा—मंडल देखोगे। अगर तुम इसे बंद आंखों से नहींखुली आंखों से देखना चाहते होइसे सचमुच देखना चाहते हो तो यह प्रयोग किसी अंधेरे कमरे में करो जहां कोई रोशनी न हो।
यह नीला प्रकाशयह नीला आभा—मंडल तुम्हारे आकाश—शरीर की उपस्थिति है। तुम्हारे कई शरीर हैं। यह विधि आकाश—शरीर से संबंध रखती हैऔर तुम आकाश—शरीर के द्वारा ऊंची से ऊंची समाधि में प्रवेश कर सकते हो।
सात शरीर हैं और भगवत्ता में प्रवेश के लिए प्रत्येक शरीर का उपयोग हो सकता है। प्रत्येक शरीर एक द्वार है। यह विधि आकाश—शरीर का उपयोग करती है। और आकाश—शरीर को प्राप्त करना सबसे सरल है। शरीर के तल पर जितनी ज्यादा गहराई होगी उतनी ही उसकी उपलब्धि कठिन होगी। लेकिन आकाश—शरीर तुम्हारे बहुत निकट हैस्थूल शरीर के बहुत निकट है। आकाश—शरीर तुम्हारा दूसरा शरीर हैजो तुम्हारे चारों ओर है—तुम्हारे स्थूल शरीर के चारों ओर। यह तुम्हारे शरीर के भीतर भी है और यह शरीर को चारों ओर से एक धुंधली आभा की तरहनीले प्रकाश की तरहढीले परिधान की तरह घेरे हुए है।
'हे दयामयीअपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत नीचेआकाशीय उपस्थिति में प्रवेश करो।
बहुत ऊपरबहुत नीचे—तुम्हारे चारों ओरसर्वत्र। यदि तुम अपने सब ओर उस नीले प्रकाश को देख सको तो विचार तुरंत ठहर जाएगाक्योंकि आकाश—शरीर के लिए विचार करने की जरूरत नहीं है। यह नीला प्रकाश बहुत शांतिदायी है। क्योंक्योंकि वह तुम्हारे आकाश—शरीर का प्रकाश है। नीला आकाश ही कितना विश्रामपूर्ण है! क्योंक्योंकि वह तुम्हारे आकाश—शरीर का रंग है। और आकाश—शरीर स्वयं बहुत विश्रामपूर्ण है।
जब भी कोई व्‍यक्‍ति तुम्‍हें प्रेम करता है। जब भी कोई व्‍यक्‍ति तुम्‍हें स्पर्श करता हैतब वह तुम्हारे आकाश—शरीर को स्पर्श करता है। इसीलिए तुम्हें वह इतना सुखदायी मालूम पड़ता है। इसका तो फोटोग्राफ भी लिया जा चुका है। जब दो प्रेमी गहन प्रेम में संभोग में उतरते हैं और यदि उनका संभोग एक खास अवधि तक चलेचालीस मिनट से ऊपर चले और स्खलन न होतो गहन प्रेम में डूबे उन दो शरीरों के चारों ओर एक नीला प्रकाश छा जाता है। उसका फोटो लिया जा चुका है।
और कभी—कभी तो बहुत अजीब घटनाएं घटती हैंक्योंकि यह प्रकाश बहुत ही सूक्ष्म विद्युत—शक्ति है। सारे संसार में बहुत सी ऐसी घटनाएं घटी हैं। नए प्रेमियों का एक जोड़ा हनीमून मनाने के लिए नए कमरे में ठहरा हैपहली रात है और वे एक—दूसरे के शरीर से परिचित नहीं हैंवे नहीं जानते हैं कि क्या संभव है। अगर दोनों के शरीर प्रेम केआकर्षण केलगाव और हार्दिकता के एक विशेष तरंग से तरंगायित हैंएक—दूसरे के प्रति खुले हैंग्रहणशील हैंएक—दूसरे में डूब जाने को तत्पर हैं तो कभी—कभी ऐसा आकस्मिक रूप से हुआ है कि उनके शरीर इतने विद्युतमय हो गए हैंउनके आकाश—शरीर इतने आविष्ट और जीवंत हो गए हैंकि उनके प्रभाव से कमरे की चीजें गिरने लगी हैं।
बहुत अजीब घटनाएं घटी हैं। मेज पर एक ग्रतइरखी हैवह जमीन पर गिर जाती है। मेज का शीशा अचानक टूट जाता है। वहां कोई तीसरा व्यक्ति नहीं हैमात्र वह जोडा है वहां। उन्होंने मेज या शीशे को स्पर्श भी नहीं किया है। और ऐसा भी हुआ है कि अचानक कुछ जलने लगता है। दुनिया भर में ऐसे मामलों की खबरें पुलिस चौकियों में दर्ज हुई हैं। उन पर खोजबीन की गई है और पाया गया है कि गहन प्रेम में संलग्न दो व्यक्ति ऐसी विद्युत शक्ति का सृजन कर सकते हैं कि उससे उनके आस—पास की चीजें प्रभावित हो सकती हैं।
वह शक्ति भी आकाश—शरीर से आती है। तुम्हारा आकाश—शरीर तुम्हारा विद्युत—शरीर है। जब भी तुम ऊर्जा से भरे होते हो तब तुम्हारा आकाश—शरीर बड़ा हो जाता है। और जब तुम उदासबुझे—बुझे होते हो तो तुम्हारा आकाश—शरीर सिकुड़करशरीर के भीतर सिमट जाता है। इसीलिए उदास और दुखी व्यक्ति के पास तुम भी उदास और दुखी हो जाते हो। अगर कोई दुखी व्यक्ति इस कमरे में प्रवेश करे तो तुम्हें लगेगा कि कुछ गड़बड़ हो रही हैक्योंकि उसका आकाश—शरीर तुम्हें तुरंत प्रभावित करता है। वह शक्ति चूसता हैक्योंकि उसकी अपनी शक्ति इतनी बुझी—बुझी है कि वह दूसरों की शक्ति चूसने लगता है।
उदास आदमी तुम्हें उदास बना देगादुखी आदमी तुम्हें दुखी कर देगाबीमार व्यक्ति तुम्हें बीमार कर देगा। क्योंक्योंकि वह उतना ही नहीं है जितना तुम देखते होउसके भीतर कुछ छिपा है जो काम कर रहा है। हालांकि उसने कुछ नहीं कहा है,हालांकि वह बाहर से मुस्कुरा रहा हैतो भी यदि वह दुखी है तो वह तुम्हारा शोषण करेगातुम्हारे आकाश—शरीर की ऊर्जा क्षीण हो जाएगी। वह तुम्हारी उतनी शक्ति खींच लेगावह तुम्हें उतना चूस लेगा। और जब कोई सुखी व्यक्ति कमरे में प्रवेश करता है तो तुम भी तत्‍क्षण सुख महसूस करने लगते हो। सुखी व्यक्ति इतनी आकाशीय शक्ति बिखेरता है कि वह तुम्हारे लिए भोजन बन जाती हैवह तुम्हारा पोषण बन जाती है। उसके पास अतिशय ऊर्जा हैवह ऊर्जा उससे बह रही है।
जब कोई बुद्धकोई क्राइस्टकोई कृष्ण तुम्हारे पास से गुजरते हैं तो वे तुम्हें निरंतर एक सूक्ष्म भोजन दे रहे हैं और तुम निरंतर उनके मेहमान हो। और जब तुम किसी बुद्ध के दर्शन करके लौटते हो तो तुम अत्‍यंत पुनजीर्वित, अत्‍यंत ताजा, अत्‍यंत जीवंत अनुभव करते हो। हुआ क्या हैबुद्ध कुछ बोले भी न होंमात्र दर्शन से तुम्हें लगता है कि मेरे भीतर कुछ बदल गया है,मेरे भीतर कुछ प्रविष्ट हो गया है। क्या प्रविष्ट हो गया हैबुद्ध इतने आप्तकाम हैंइतने आपूरिरत हैंइतने लबालब भरे हैं कि वे ऊर्जा का सागर बन गए हैं। और उनकी ऊर्जा बाढ़ की भांति बह रही है।
जो भी व्यक्ति स्वस्थ होता हैशांत होता हैवह सदा बाढ़ बन जाता है। क्योंकि अब उसकी ऊर्जा उन व्यर्थ की बातों में,उन नासमझियों में व्यय नहीं होती जिनमें तुम अपनी ऊर्जा गंवा रहे हो। उसके साथ उसके चारों ओर सदा ऊर्जा की बाढ़ चलती है। और जो भी उसके संपर्क में अता हैवह उसका लाभ ले सकता है।
जीसस कहते हैं: 'मेरे पास आओ। अगर तुम बहुत बोझिल हो तो मेरे पास आओ। मैं तुम्हें निबोंझ कर दूंगा।
असल में जीसस कुछ नहीं करतेबस उनकी उपस्थिति में कुछ होता है। कहते हैं कि जब कोई भगवत्ता को उपलब्ध पुरुष,कोई तीर्थंकरकोई अवतारकोई क्राइस्ट पृथ्वी पर चलता है तो उसके चारों ओर एक विशेष वातावरणएक प्रभाव— क्षेत्र निर्मित होता है। जैन योगियों ने तो इसका माप भी लिया है। वे कहते हैं कि यह प्रभाव— क्षेत्र चौबीस मील के घेरे में होता है। तीर्थंकर के चारों ओर चौबीस मील की परिधि होती है और इस परिधि के भीतर आने वाला प्रत्येक व्यक्ति इस ऊर्जा से नहा जाता है। चाहे उसे इसका बोध हो या न होचाहे वह मित्र हो या शत्रु होअनुयायी हो या विरोधी होइससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
हांयदि तुम अनुयायी हो तो तुम खूब भर जाते होक्योंकि तुम खुले हुए हो। विरोधी भी भरता हैलेकिन उतना नहीं,क्योंकि विरोधी बंद होता है। लेकिन ऊर्जा तो सब पर बरसती है। एक अकेला व्यक्ति यदि अनुद्विग्न हैशात हैमौन हैआनंदित हैतो वह शक्ति का पुंज बन जाता है—ऐसा पुंज कि उसके चारों ओर चौबीस मील में एक विशेष वातावरण बन जाता है। और उस वातावरण में तुम्हें एक सूक्ष्म पोषण मिलता है।
यह घटना आकाश—शरीर के द्वारा घटती है। तुम्हारा आकाश—शरीर विद्युत—शरीर है। जो शरीर हमें दिखाई पड़ता हैवह भौतिक हैपार्थिव है। यह सच्चा जीवन नहीं है। इस शरीर में विद्युत—शरीरआकाश—शरीर के कारण जीवन आता है। वही तुम्हारा प्राण है।
तो शिव कहते हैं: 'हे दयामयीआकाशीय उपस्थिति में प्रवेश करो।
पहले तुम्हें अपने भौतिक शरीर को घेरने वाले आकाश—शरीर के प्रति बोधपूर्ण होना होगा। और जब तुम्हें उसका बोध होने लगे तो उसे बढ़ाओबड़ा करोफैलाओ। इसके लिए तुम क्या कर सकते हो?
बस चुपचाप बैठना है और उसे देखना है। कुछ करना नहीं हैबस अपने चारों ओर फैले इस नीले आकार को देखते रहना है। और देखते—देखते तुम पाओगे कि वह बढ़ रहा हैबड़ा हो रहा है। सिर्फ देखने से वह बड़ा हो रहा है। क्योंकि जब तुम कुछ नहीं करते हो तो पूरी ऊर्जा आकाश—शरीर को मिलती हैइसे स्मरण रखो। और जब तुम कुछ करते हो तो आकाश—शरीर से ऊर्जा बाहर जाती है।

 लाओत्‍सू कहता है: 'मैं कुछ नहीं करता हूं और मुझसे शक्तिशाली कोई नहीं है। मैं कभी कुछ नहीं करता हूं और कोई मुझसे शक्तिशाली नहीं है। जो कुछ करने के कारण शक्तिशाली हैंउन्हें हराया जा सकता है।’ लाओत्सु कहता है, 'मुझे हराया नहीं जा सकताक्योंकि मेरी शक्ति कुछ न करने से आती है।’ तो असली बात कुछ न करना है।
बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध क्या कर रहे थेकुछ नहीं कर रहे थे। वे उस क्षण कुछ भी नहीं कर रहे थेवे शून्य हो गए थे। और मात्र बैठे —बैठे उन्होंने परम को पा लिया। यह बात बेबूझ लगती है। यह बात बहुत हैरानी की लगती है। हम इतना प्रयत्न करते हैं और कुछ नहीं होता है और बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे बैठे—बैठे बिना कुछ किए ही परम को उपलब्ध हो गए!
जब तुम कुछ नहीं कर रहे हो तब तुम्हारी ऊर्जा बाहर गति नहीं करती है। तब वह ऊर्जा आकाश—शरीर को मिलती है और वहां इकट्ठी होती है। फिर तुम्हारा आकाश—शरीर विद्युत शक्ति का भंडार बन जाता है। और वह भंडार जितना बढ़ता है,तुम्हारी शांति भी उतनी ही बढ़ती है। और तुम जितना ज्यादा शात होते हो उतनी ही ऊर्जा का भंडार भी बढ़ता है। और जिस क्षण तुम जान लेते हो कि आकाश—शरीर को ऊर्जा कैसे दी जाए और कैसे ऊर्जा को व्यर्थ नष्ट न किया जाएउसी क्षण गुप्त कुंजी तुम्हारे हाथ लग गई।
और तब तुम आनंदित हो सकते हो। वस्तुत: तभी तुम आनंदित हो सकते होउत्सव मना सकते हो। तुम अभी जैसे हो,ऊर्जा से रिक्ततुम कैसे उत्सवपूर्ण हो सकते होतुम कैसे उत्सव मना सकते होतुम कैसे फूल की तरह खिल सकते होफूल तो अतिरेक से आते हैंजब वृक्ष ऊर्जा से लबालब होते हैं तो उनमें फूल लगते हैं। फूल तो अतिरिक्त ऊर्जा का वैभव हैं। वृक्ष यदि भूखा हो तो उसमें फूल नहीं आएंगेक्योंकि पत्तों के लिए भी पर्याप्त पोषण नहीं हैजड़ों के लिए भी पर्याप्त भोजन नहीं है।
उनमें भी एक क्रम है। पहले जड़ों को भोजन मिलेगाक्योंकि वे बुनियादी हैं। अगर जड़ें ही सूख गईं तो फूल की संभावना कहां रहेगीतो पहले जड़ों को भोजन दिया जाएगा। फिर शाखाओं को। और अगर सब ठीक—ठाक चले और फिर भी ऊर्जा शेष रह जाएतब पत्तों को पोषण दिया जाएगा। और उसके बाद भी भोजन बचे और वृक्ष समग्रत: संतुष्ट होजीने के लिए और भोजन की जरूरत न रहेतब अचानक उसमें फूल लगते हैं। ऊर्जा का अतिरेक ही फूल बन जाता है। फूल दूसरों के लिए दान हैं। फूल भेंट हैं। फूल वृक्ष की तरफ से तुम्हें भेंट हैं।
और यही घटना मनुष्य में भी घटती है। बुद्ध वह वृक्ष हैं जिसमें फूल लगे। अब उनकी ऊर्जा इतनी अतिशय है कि उन्होंने सबकोपूरे अस्तित्व को उसमें सहभागी होने के लिए आमंत्रित किया है।
पहले पहली विधि को प्रयोग करो और फिर दूसरी विधि को। तुम दोनों को अलग— अलग भी प्रयोग कर सकते हो,लेकिन तब आकाश—शरीर के नीले आभामंडल को प्राप्त करना थोडा कठिन होगा।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
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