Monday 19 February 2018

डरने से मत डरो

तंत्र--सूत्र--(भाग--4) प्रवचन--60

डरने से मत डरो—(प्रवचन—साठवां)

प्रश्‍नसार:
      1—क्‍या स्‍वतंत्रता और समर्पण परस्‍पर विरोधी नहीं है?
      2—सूत्र का सिर्फ यह यह है पर इतना जोर क्‍यों है?
      3—क्‍या भगवता या परमात्‍मा संसार का ही हिस्‍सा है?
            और वह क्‍या है जो दोनों के पार जाता है?
      4—तंत्र के अनुसार भय से कैसे मुक्‍त हुआ जाए?
      5—ऐसी ध्‍वनियां सुनने लगा हूं जो बहती नदी या झरने
            की घ्‍वनियों जैसी है। यह ध्‍वनि क्‍या है?


पहला प्रश्न:

 आप कहते हैं कि धर्म समय स्वतंत्रता है, मोक्ष है। और आप धर्म के जगत में समर्पण की महिमा पर भी जोर देते हैं। लेकिन क्या स्वतंत्रता और समर्पण परस्‍पर विरोधी नहीं हैं?

 वे विरोधी मालूम पड़ते हैंलेकिन हैं नहीं। वे भाषा के कारण विरोधी मालूम पड़ते हैंवस्तुत: वे विरोधी नहीं हैं। यहां दो बातें समझने की कोशिश करो।
पहली बात कि तुम जैसे होस्वतंत्र नहीं हो सकतेक्योंकि तुम जैसे होवही तो तुम्हारा बंधन है। तुम्हारा अहंकार ही तुम्हारा बंधन है। और तुम स्वतंत्र तभी हो सकते हो जब यह अहंकार का केंद्र विदा हो। यह अहंकार ही तो बंधन हैकारागृह है।
जब अहंकार विदा हो जाता है तब तुम अस्तित्व के साथ एक हो जाते हो। और वह अखंडता ही स्वतंत्रता हो सकती है। अभी तुम पृथक होअलग होऔर यह अलगाव झूठा है। वस्तुत: तुम अलग नहीं होतुम अलग हो नहीं सकते। तुम अस्तित्व के अभिन्न अंग हो। अस्तित्व से अलग होकर तुम एक क्षण के लिए भी नहीं जी सकते। प्रतिपल तुम अस्तित्व में श्वास लेते हो;प्रतिपल अस्तित्व तुममें श्वास लेता है। तुम एक जागतिक अखंडता में जीते हो।
यह तुम्हारा अहंकार है जो तुम्हें पृथक अस्तित्व का झूठा खयाल देता है। और इस झूठे खयाल के कारण तुम अस्तित्व से लड़ने लगते हो। और जब तुम लड़ते होतुम बंधन में हो। जब तुम लड़ते हो तो तुम्हारी हार निश्चित हैक्योंकि अंश पूर्ण से नहीं जीत सकता है। और अस्तित्व से इस संघर्ष के कारण तुम बंधन में महसूस करते होसर्वत्र अपने को सीमित पाते हो। तुम जहां भी जाते हो वहीं एक दीवार खड़ी पाते हो। वह दीवार कहीं भी नहीं हैवह तुम्हारे अहंकार के साथ चलती हैवह तुम्हारे पृथक होने के खयाल का हिस्सा है। तब तुम अस्तित्व से संघर्ष करते हो। उस संघर्ष में तुम निरंतर हारते हो। और उस हार में तुम्हें बंधन महसूस होता हैतुम सीमित मालूम पड़ते हो।
समर्पण का अर्थ है कि तुम अहंकार का समर्पण कर देते होतुम अलग करने वाली दीवार को हटा देते हो और तुम अस्तित्व से एक हो जाते हो। वह एकता ही सत्य है। इसलिए तुम जिसका समर्पण कर रहे होवह एक स्वप्न हैखयाल है,झूठी धारणा है। तुम किसी वास्तविक चीज का समर्पण नहीं कर रहे होतुम केवल एक झूठे खयाल का समर्पण कर रहे हो। और जिस क्षण तुम इस झूठे खयाल को छोड़ देते होतुम अस्तित्व के साथ एक हो जाते हो। और तब कोई संघर्ष नहीं है।
और अगर संघर्ष नहीं है तो तुम्हारी कोई सीमा न रही। तब कहां बंधनकहां सीमातब तुम पृथक नहीं रहे। तब तुम्हें हराया नहीं जा सकताक्योंकि हारने वाला ही न रहा। तब तुम्हारी मृत्यु नहीं हो सकतीक्योंकि मरने वाला ही न रहा। तब तुम्हें कोई दुख नहीं छू सकताक्योंकि दुखी होने वाला ही नहीं है। जिस क्षण तुम अहंकार का समर्पण कर देते होसारा उपद्रव समर्पित हो जाता है—दुखबंधननरक—स्ब समाप्त हो जाता है। तुम अस्तित्व के साथ एक हो जाते हो।
यह एकता ही स्वतंत्रता है। पृथकताअलगाव परतंत्रता है। एकता स्वतंत्रता है।
और स्मरण रहे. ऐसा नहीं है कि तुम स्वतंत्र हो जाते होतुम तो होते ही नहीं। तुम स्वतंत्र नहीं होतेतुम बस मिट जाते हो। वस्तुत: तुम जब नहीं हो तो स्वतंत्रता है। इस बात को कहना थोड़ा कठिन है—जब तुम नहीं हो तब स्वतंत्रता है। बुद्ध ने कहा है तुम आनंद में नहीं होंगेजब तुम नहीं हो तब आनंद है। तुम मुक्त नहीं होगेतुम स्वयं से मुक्त होगे।
तो स्वतंत्रता का मतलब अहंकार की स्वतंत्रता नहीं हैस्वतंत्रता का मतलब अहंकार से स्वतंत्रता है। और अगर तुम समझ सके कि स्वतंत्रता का मतलब अहंकार से स्वतंत्रता है तो समर्पण और स्वतंत्रता दोनों एक हो गए। तब समर्पण और स्वतंत्रता दोनों एक ही अर्थ रखते हैं।
लेकिन अगर तुम अहंकार को अपना केंद्र—बिंदु बनाए हो तो अहंकार कहेगा समर्पण क्यों करनातुम अगर समर्पण करते हो तो तुम स्वतंत्र नहीं हो सकतेतुम गुलाम हो जाते हो। यदि तुम समर्पण करोगे तो तुम गुलाम हो जाओगे।
लेकिन सचाई यह है कि तुम किसी के प्रति समर्पण नहीं कर रहे हो। यह दूसरी बात है जो समझने जैसी है। तुम किसी के प्रति समर्पण नहीं करते होतुम बस समर्पण करते हो। कोई नहीं है जो तुम्हारा समर्पण लेगा। और अगर कोई है जिसके प्रति तुम समर्पित होते हो तो वह एक तरह की गुलामी है। सच तो यह है कि तुम ईश्वर के प्रति भी समर्पण नहीं करते हो। और जब हम ईश्वर की बात करते हैं तो वह तुम्हें समर्पित होने के लिए एक निमित्त भर है।
पतंजलि के योगसूत्र में ईश्वर की चर्चा तुम्हारे समर्पण में सहयोगी के रूप में की गई है। कहीं कोई ईश्वर नहीं हैपतंजलि कहते हैं कि कोई ईश्वर नहीं हैलेकिन तुम्हारे लिए समर्पण करना कठिन होगा अगर वह किसी के प्रति न होकर मात्र समर्पण हो। सिर्फ समर्पण करना कठिन है। समर्पण को संभव करने के लिए ईश्वर की बात की जाती है। ईश्वर केवल एक बहाना है। यह बहुत अदभुत और बहुत वैज्ञानिक बात है कि परमात्मा का उपयोग तुम्हारे समर्पण के लिए एक उपाय की तरह किया गया है। वहा कोई भी नहीं है जो तुम्हारा समर्पण ग्रहण करेगा। और अगर कोई समर्पण लेने वाला है और तुम उसके प्रति समर्पण करते हो तो वह गुलामी हैवह बंधन है।
यह एक बहुत ही सूक्ष्म और गहन बात है। व्यक्ति की तरह कहीं कोई ईश्वर नहीं है; ईश्वर सिर्फ एक मार्ग हैएक उपाय हैएक विधि है। पतंजलि अनेक विधियों की चर्चा करते हैंउनमें से एक विधि है ईश्वर—प्रणिधान। समर्पण के अनेक उपाय हैं;ईश्वर—प्रणिधान उनमें से एक है। ईश्वर की धारणा तुम्हारे मन के लिए समर्पण करने में सहयोगी होगी। क्योंकि अगर मैं कहूं कि समर्पण करोतुम पूछोगे कि किसको समर्पण करूंअगर मैं कहूं कि सिर्फ समर्पण करोतो तुम्हें इस बात की धारणा करनी बहुत कठिन होगी।
इस बात को एक और ढंग से समझने की चेष्टा करो। अगर मैं कहूं कि मात्र प्रेम करोतो तुम पूछोगे कि किसको प्रेम करूंतुम पूछोगे कि मात्र प्रेम करने का क्या अर्थ हैअगर प्रेम करने के लिए कोई विषय नहीं है तो प्रेम कैसे होगावैसे ही अगर मैं कहूं कि प्रार्थना करोतो तुम पूछोगे कि किसकी प्रार्थना करूंकिसकी पूजा करूंतुम्हारा मन अद्वैत की धारणा नहीं बना सकता है। वह पूछेगावह प्रश्न उठाएगाकि किसकी?
तो सिर्फ तुम्हारे मन को सहारा देने के लिएताकि तुम्हारे मन में उठा प्रश्न शात हो जाएपतंजलि कहते हैं कि ईश्वर—प्रणिधान एक उपाय हैएक विधि है। पूजाप्रेमसमर्पण—किसके प्रतिपतंजलि कहते हैं : ईश्वर के प्रति। क्योंकि जब तुम समर्पण करोगे तो तुम जान लोगे कि कोई ईश्वर नहीं हैया यह जान लोगे कि वह तुम ही हो जिसके प्रति तुम समर्पण करते हो। लेकिन यह तो तभी होगा जब तुम समर्पण कर चुकोगे। ईश्वर केवल एक उपाय है।
कहते हैं कि ईश्वर के प्रति भी समर्पण करना कठिन हैक्योंकि वह कहीं दिखाई नहीं देता हैवह अदृश्य है। तो शास्त्र कहते हैं कि गुरु के प्रति समर्पण करो। गुरु दिखाई देता हैगुरु सामने मौजूद एक व्यक्ति है।
लेकिन फिर प्रश्न खड़ा होता है कि तब तो यह गुलामी हो गई। गुरु एक व्यक्ति है और तुम उसके प्रति समर्पण करते हो तो स्वभावत: यह प्रश्न उठता है।
लेकिन यहां फिर एक सूक्ष्म और गहरी बात समझने जैसी है। यह बात ईश्वर की धारणा से भी सूक्ष्म और गहन है। गुरु तभी गुरु है जब वह नहीं है। अगर वह है तो वह गुरु नहीं है। गुरु तभी गुरु होता है जब वह मिट जाता हैशून्य हो जाता है। गुरु अब व्यक्ति नहीं रहांशून्य हो गयाअनत्ता हो गया। वहां कोई नहीं है। अगर यहां इस कुर्सी में कोई व्यक्ति बैठा है तो वह गुरु नहीं है। और उसको समर्पित होने पर जरूर गुलामी है। लेकिन अगर इस कुर्सी में कोई बैठा नहीं हैएक शून्य हैजो कहीं केंद्रित नहीं हैजो बस समर्पित है—किसी के प्रति समर्पित नहींसिर्फ समर्पित—जो शून्य कोअनस्तित्व को उपलब्ध हो गया है,जो व्यक्ति की तरह मिट गया हैजो अहंकार में केंद्रित नहीं हैकहीं भी केंद्रित नहीं हैजो वाष्पीभूत हो गया हैतो वह गुरु है। इसलिए जब तुम किसी गुरु के प्रति समर्पण करते हो तो वास्तव में यह समर्पण किसी के प्रति समर्पण नहीं है। यह मात्र समर्पण है।
यह तुम्हारे लिए बहुत गहरा प्रश्न है। जब तुम समर्पित होते हो तो तुम्हें समझना है कि यह समर्पण नहीं हैसमर्पित होना है—मात्र समर्पित होना। समर्पण नहींसमर्पित होना। समर्पण किसी के प्रति होता हैसमर्पित होना तुम्हारी ओर से घटता है। इसलिए बुनियादी बात समर्पित होना हैकृत्य बुनियादी हैविषय नहीं। किसके प्रति समर्पित हो रहे हो यह महत्वपूर्ण नहीं हैमहत्वपूर्ण वह है जो समर्पित हो रहा है। विषय तो मात्र निमित्त हैबहाना है। अगर तुम यह बात समझ सके तो किसी के प्रति समर्पण नहीं करना हैसिर्फ समर्पित होना हैकिसी विशेष को प्रेम नहीं करना हैकेवल प्रेमपूर्ण होना है। तब तुम महत्वपूर्ण होविषय नहीं।
और अगर विषय महत्वपूर्ण है तो तुम बंधन निर्मित कर लोगे। तब ईश्वर भीजो नहीं हैबंधन बन जाएगा। तब गुरु भी,जो नहीं हैपरतंत्रता बन जाएगा। लेकिन यह बंधन तुम हो निर्मित करते होयह तुम्हारी नासमझी है। अन्यथा समर्पित होना स्वतंत्रता है।
वे विरोधी नहीं हैं

 दूसरा प्रश्न :

अगर 'यह यह हैमें 'यह वह हैऔर वह ब्रह्म हैभी सम्मिलित है, तो क्यों सूत्र सिर्फ यह यह हैपर जोर देता है?

 क विशेष कारण सेक्योंकि तंत्र सिर्फ यहां और अभी की फिक्र करता है।यह यह हैका अर्थ है कि जो यहां और अभी है। वहजरा दूर पड़ जाता है।
दूसरी बात कि तंत्र के लिए 'यहऔर 'वहमें कोई विभाजन नहीं है। तंत्र अद्वैतवादी है। यह संसार है और वह ब्रह्मयह लौकिक है और वह आध्यात्मिक—तंत्र के लिए ऐसे भेद नहीं हैं।यहही सब है; 'वहभी इसमें ही सम्मिलित है। तंत्र के लिए यह संसार ही दिव्य हैभागवत है।
और तंत्र उच्च और निम्न का भेद और वर्गीकरण नहीं करता है। तंत्र नहीं कहता है कि 'यहका अर्थ निम्न है और 'वह'का अर्थ उच्चतंत्र नहीं कहता है कि 'यहका अर्थ है जिसे तुम देख सकते होछू सकते होजान सकते हो और 'वहका मतलब वह अदृश्य है जिसे तुम देख नहीं सकतेछू नहीं सकतेजिसका अनुमान भर कर सकते हो। तंत्र उच्च और निम्न में,दृश्य और अदृश्य मेंपदार्थ और चेतना मेंजीवन और मृत्यु मेंजगत और ब्रह्म में भेद नहीं करता है। तंत्र अभेद है।
तंत्र कहता है कि यह यह है और वह इसमें समाहित है। लेकिन 'यहपर जो जोर है वह सुंदर है। तंत्र कहता है कि यहां और अभीजो भी हैयही सब है। इसमें सब कुछ हैकुछ भी इसके बाहर नहीं है। जो निकट हैजो सहज हैजो सामान्य है,वही सब कुछ है।
झेन साधना का एक प्रसिद्ध वचन है कि अगर तुम सिर्फ सामान्य हो जाओ तो तुम असामान्य हो गए। जो व्यक्ति अपने सामान्य होने से संतुष्ट है वही असामान्य है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति असामान्य होने को आतुर हैइसलिए असामान्य होने की इच्छा बहुत सामान्य इच्छा है। प्रत्येक व्यक्ति असामान्य होने की दौड़ में लगा है। ऐसा आदमी खोजना अत्यंत कठिन है जो किसी न किसी तरह से असाधारण होने की दौड़ में नहीं लगा है। इसलिए असाधारण होने की कामना बहुत मामूली चित्त का ढंग है। झेन सदगुरु कहते हैं कि साधारण होना संसार में सबसे असाधारण बात है। मात्र साधारण होनासामान्य होनामामूली होना—बड़ी दुर्लभ बात है। ऐसा कभी—कभी ही घटता है कि कोई व्यक्ति साधारणसिर्फ साधारण होने से पूरी तरह संतुष्ट हो—पूरी तरह तृप्त हो।
जापान का एक सम्राट किसी सदगुरु की खोज में था। वह अनेक गुरुओं के पास गयालेकिन कोई गुरु उसे संतुष्ट न कर सका। क्योंकि एक बूढ़े व्यक्ति ने उससे कहा था कि सच्चा गुरु बहुत सामान्य होगा। वह ढूंढ़ता रहांलेकिन उसे वह साधारण व्यक्ति नहीं मिला।
आखिर वह फिर उसी बूढ़े के पास लौटा जो उस क्षण अपनी मृत्यु—शय्या पर था। उसने उस बूढ़े से कहा : आपने मुझे बहुत परेशानी में डाल दिया। आपने सदगुरु की जो परिभाषा की कि वह सरल होगासाधारण होगासामान्य होगावह परिभाषा मेरी समस्या हो गई है। मैं सारे देश में खोज चुकालेकिन कोई मुझे संतुष्ट न कर सका। कृपा करके गुरु को पाने का कुछ उपाय मुझे बताएं।
उस मरते हुए के ने कहा : तुम गलत जगहों में उसे खोजते रहे। तुमने बिलकुल गलत जगहों में उसकी खोज की। तुम उन लोगों के पास गए जो किसी न किसी रूप में असाधारण हैंऔर वहां तुमने साधारण को खोजने की कोशिश की। तुम साधारण दुनिया में जाओ। और सचाई यह है कि तुम अभी भी असाधारण को ही खोज रहे हो। तुम उसकी परिभाषा तो सामान्य की करते होलेकिन अभी भी तुम्हारी खोज असामान्य की ही है। परिभाषा भर बदल गई है। अब तुम उसे सबसे अधिक सामान्य कहते होलेकिन चाहते हो कि वह असामान्य रूप से सामान्य हो। तब तुम फिर असामान्य को ही खोज रहे हो। वह न करो। और जिस क्षण तुम तैयार होंगेजिस क्षण तुम खोज का पुराना ढंग छोड़ दोगेसदगुरु स्वयं तुम्हारे पास चला आएगा।
दूसरे दिन सुबह सम्राट अपने महल में अकेला बैठा था और के व्यक्ति ने जो कहा था उसे समझने की चेष्टा कर रहा था। और उसे लगा कि का सही था। और खोज की कामना खो गई। तभी एक भिखारी प्रकट हुआऔर वह गुरु था। और सम्राट उस भिखारी को हमेशा से जानता था। वह रोज आता थावह भिखारी रोज राजमहल में आता था। सम्राट ने उससे पूछाक्या कारण है कि मैंने आपको पहले नहीं पहचानाभिखारी ने कहांक्योंकि तुम असाधारण की खोज कर रहे थे। मैं तो सदा से यहां था,लेकिन तुम कहीं और ढूंढ रहे थे। और तुम मुझे निरंतर चूकते रहे।
तंत्र कहता हैविशेषकर इस विधि में कहता है 'वह नहींयह।’ लेकिन ऐसी भी विधियां हैं जिनमें 'वहकी चर्चा हुई है। लेकिन 'यहसर्वाधिक तंत्र सम्मत है—यहयहां और अभीजो सबसे निकट है। तुम्हारी पत्नीतुम्हारा पतितुम्हारा मित्रमामूली भिखारी—सदगुरु हो सकता है। लेकिन तुम 'यहको नहीं देख रहे होतुम्हारी नजर 'वहपर लगी है—वहीदूर कहीं बादलों में। तुम्हें यह कल्पना भी नहीं हो सकती कि तुम्हारे निकट ही ऐसी गुणवत्ता वाला व्यक्ति मौजूद है। तुम कल्पना भी नहीं कर सकते,क्योंकि तुम सोचते हो कि निकट को तो मैं जानता ही हूं। और इसीलिए तुम दूर की खोज करते हो। तुम्हें लगता है कि 'यहतो पता ही हैइसलिए पाने की चीज 'वहहै।
यह सच नहीं है। तुम 'यहको नहीं जानते होतुम्हें निकट का पता नहीं है। निकट उतना ही अज्ञात है जितना दूरबहुत दूर अज्ञात है। अपने चारों ओर निगाह डालोतुम कुछ भी नहीं जानते हो। तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। क्या तुम उस वृक्ष को जानते हो जिसके पास से रोज गुजरते होक्या तुम उस मित्र को जानते हो जो तुमसे रोज मिलता हैकुछ भी तो पता नहीं है।यहभी तो नहीं मालूम हैफिर 'वहके पीछे क्यों भागना?
यह विधि कहती है कि यदि 'यहजान लिया गया तो 'वहअपने आप ही जान लिया जाएगा। क्योंकि 'वह'यहमें सम्मिलित हैजो दूर है वह निकट में छिपा है।
लेकिन मनुष्य का मन दूर के पीछे दौड़ता है। यह पलायन है। दूर की सोचना पलायन है; क्‍योंकि तुम सदा—सदा सोचते रह सकते हो। और इस भांति तुम जीना स्‍थगित रख सकते होक्योंकि जीवन 'यहहै। अगर तुम 'यहपर विमर्श करोगेमनन करोगेतो तुम्हें अपने को बदलना पड़ेगा।
मुझे एक कहानी याद आ रही है। एक बार एक झेन गुरु को किसी मंदिर का उपदेशक नियुक्त किया गया। कोई नहीं जानता था कि वह झेन गुरु है। सभा बैठी और गुरु ने पहला प्रवचन दिया। सभी लोग प्रवचन सुनकर झूम उठेप्रवचन बहुत सुंदर था। किसी ने भी ऐसा प्रवचन पहले नहीं सुना था। दूसरे दिन बड़ी भीड़ मंदिर में जमा हुई। लेकिन झेन गुरु ने वही प्रवचन दोहरा दिया जो उसने पहले दिन दिया था। श्रोता ऊब उठे। उन्होंने कहा यह कैसा उपदेशक है!
तीसरे दिन लोग आएलेकिन उनकी संख्या ज्यादा नहीं थी। झेन गुरु ने फिर पुराने प्रवचन को ही दोहरा दिया। बहुत से लोग तो प्रवचन के बीच में ही उठकर चले गए। और जो थोड़े से लोग रह गए वे यह पूछने के लिए रुके रहे कि क्या आपको एक ही प्रवचन देना आता हैक्या आप इसे रोज—रोज दोहराएंगेआखिरकार एक व्यक्ति ने कहा. 'यह किस ढंग का उपदेश है?तीन बार हम आपको सुन चुके हैंआप वही की वही बातवही के वही शब्दअक्षरश: बिलकुल वही प्रवचन दोहरा देते हैं। क्या आपके पास कोई दूसरा प्रवचनकोई दूसरा व्याख्यान नहीं है?'
गुरु ने कहा : 'मेरे पास कई प्रवचन हैंलेकिन तुम लोगों ने पहले प्रवचन के ही बाबत कुछ नहीं किया है। जब तक तुम पहले प्रवचन के संबंध में कुछ नहीं करते तब तक मैं दूसरा प्रवचन नहीं दूंगा। उसकी कोई जरूरत नहीं है।
फिर तो लोगों ने उस मंदिर में आना ही बंद कर दिया। लोग उस मंदिर के पास जाने से बचने लगेक्योंकि जैसे ही कोई आता थाझेन पुरोहित अपना पहला प्रवचन प्रारंभ कर देता था। कहते हैं कि लोगों ने उस मंदिर को क्याउस मंदिर की राह ही छोड़ दी। वे कहने लगे कि पुरोहित वहा मौजूद हैअगर तुम गए तो वह फिर वही प्रवचन पिलाएगा
वह झेन गुरु मन का बहुत बड़ा पारखी रहा होगा। मनुष्य का मन विचार तो करना चाहता हैलेकिन वह करना कुछ भी नहीं चाहता है। करना खतरनाक हैविचार करना ठीक हैक्योंकि विचार से तुम वही के वही बने रहते हो। अगर तुम दूर के संबंध में विचार करते रहे तो तुम्हें अपने को बदलने की जरूरत नहीं पड़ेगी। ब्रह्म और परमब्रह्म तुम्हें नहीं बदल सकतेलेकिन पड़ोसीमित्रपत्नीपति—अगर तुम उन्हें देखोगे तो तुम्हें अपने को बदलना पड़ेगा। उन्हें न देखना एक तरकीब है।
तुम 'वहको देखते हो ताकि 'यहको भूल जाओ। और 'यहजीवन है, 'वहतो केवल सपना है। तुम परमात्मा के संबंध में विचार कर सकते होक्योंकि विचार करना नपुंसक हैउससे कुछ होने वाला नहीं है। तुम परमात्मा के बारे में विचार करते रह सकते होऔर तुम वही के वही बने रहोगे जो थे। लेकिन अगर तुम अपनी पत्नी का विचार करोगे, अगर तुम अपने बच्चे का विचार करोगेअगर तुम समीप मेंनिकट में गहरे उतरोगे तो तुम वही के वही नहीं रह सकतेउससे कर्म का उदय होगा ही।


तंत्र कहता है: बहुत दूर मत जाओ। वह यहीं हैवह इसी क्षण में हैतुम्हारे निकट ही है। खुलो 'यहको देखो, 'वह'अपनी फिक्र आप कर लेगा।

 तीसरा प्रश्न:

आपने कहा कि तंत्र मनुष्य को सिखाता है कि वह अपने पाशविक अतीत की कामना और परमात्मा की कामना, दोनों का अतिक्रमण करे। तो क्या इसका यह अर्थ है कि भगवत। या परमात्मा भी संसार का ही हिस्सा है और हमें उसका भी अतिक्रमण करना हैफिर वह क्या है जो दोनों के यार है?

 स संबंध में बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। पहले तो कामना की प्रकृति कोउसके स्वभाव को समझना होगा। भगवत्ता वह नहीं है जिसे तुम भगवत्ता कहते हो। तुम जिस परमात्मा की बातें करते हो वह सच में परमात्मा नहीं हैवह तो तुम्हारी कामना का परमात्मा है। इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि क्या परमात्मा संसार का हिस्सा है। वह प्रश्न ही नहीं है। असली प्रश्न यह है कि क्या तुम परमात्मा को संसार का हिस्सा बनाए बिना परमात्मा की कामना कर सकते हो?
इसे इस तरह समझो। बार—बार कहा गया है कि जब तक तुम कामना नहीं छोड़ोगेवासना नहीं छोड़ोगेतब तक तुम उसेउस परम को नहीं पा सकते। तुम भगवत्ता को उपलब्ध नहीं हो सकतेअगर तुम कामना से मुक्त नहीं होते। कामना छोड़ोऔर तुम परमात्मा को उपलब्ध हो जाओगे।
यह बात तुमने बहुत बार सुनी हैलेकिन मैं नहीं समझता कि तुमने इसे समझा भी है। अधिक संभावना यही है कि तुम इसे गलत ही समझोगे। बार—बार यह बात सुनकर तुम परमात्मा की कामना करने लगते होऔर वहीं तुम पूरी बात चूक जाते हो।
तुम्हें बार—बार कहा गया है कि अगर तुम कामना छोड़ दोगे तो तुम्हें परमात्मा घटित होगा। यह सुनकर तुम परमात्मा की कामना करने लगते होऔर तब तुम्हारा परमात्मा तुम्हारे संसार का हिस्सा हो जाता है। कामना ही संसार है। मेरी परिभाषा यही है : जिसकी कामना की जा सकेवह संसार है। इसलिए परमात्मा की कामना नहीं की जा सकतीऔर अगर तुम उसकी कामना करते हो तो वह भी संसार का हिस्सा हो गया।
जब कामना विदा हो जाती हैतब परमात्मा घटित होता है। जब तुम कुछ भी नहीं चाहते हो तो परमात्मा तत्‍क्षण उपलब्ध हो जाता है—तब सारा संसार ही परमात्मा है। तुम्हें परमात्मा कहीं संसार के विरोध में नहीं मिलेगावह संसार के विपरीत नहीं है। जब तुम कामना नहीं करते तब सब कुछ परमात्ममय है। और जब तक कामना है तब तक सब कुछ संसार है। तुम्हारी कामना ही संसार का निर्माण करती है।
संसार वह नहीं है जो तुम्हें दिखाई पड़ता है। ये वृक्षयह आकाशयह पृथ्वीयह सागरये नदिया और यह पृथ्वी और ये चांद—तारे—यह संसार नहीं है। तुम जो कामना करते हो वह संसार है।
बगीचे में एक फूल खिला है। जब तुम फूल के पास से गुजरते हो और फूल को देखते होफूल की सुगंध तुम्हारे नासापुटों को छूती हैतब अपने भीतर देखो। अगर तुम्हें फूल की कामना नहीं हैअगर तुम्‍हें उस फूल पर मालकियत करने कि जरा भी कामना नहीं हैतो वह फूल परमात्मा हो जाता है। तब उस फूल में ही तुम्हें परमात्मा का चेहरा दिख जाएगा।
लेकिन अगर उस फूल पर मालकियत करने की कामना हैया तुम्हें वृक्ष के मालिक के प्रति ईर्ष्या का भाव होता हैतो तुमने संसार निर्मित कर लिया। तब परमात्मा खो गया। यह तुम्हारी कामना हैतुम्हारी वासना हैजो अस्तित्व का गुणधर्म बदल देती है। तुम्हारी कामना फूल को संसार बना देती है। और जब तुम कामना—रहित होनिष्काम होतब सारा संसार परमात्मा हो जाता है।
अब मैं इस प्रश्न को फिर से पढ़ता हूं : 'आपने कहा कि तंत्र मनुष्य को सिखाता है कि वह अपनी पाशविक अतीत की कामना और परमात्मा की कामनादोनों का अतिक्रमण करे।
तंत्र कामना मात्र का अतिक्रमण सिखाता है। तुम किस चीज की कामना करते होवह गौण हैतुम कामना करते हो,बुनियादी बात यह है। तुम कामना के विषय बदलते रह सकते हो। अभी तुम धन चाहते होसत्ता चाहते होपद—प्रतिष्ठा चाहते होये सांसारिक कामनाएं हैं। फिर तुम कामना के विषय बदल लेते हो। तुम धन—पद से थक जाते होऊब जाते हो। या तुमने जो भी चाहा था वह पा लिया और तुम तृप्त नहीं हुएतुम निराशा अनुभव करते हो। फिर तुम एक नई कामना शुरू करते हो—तुम परमात्मा की कामना करते होतुम मोक्ष और निर्वाण की कामना करते होतुम ईश्वर को पाना चाहते हो। क्या हुआ?
कामना का विषय बदल गयातुम नहीं बदले। तुम्हारी कामना वही की वही बनी है। पहले वह पद—प्रतिष्ठा और धन के पीछे दौड़ती थीअब वह परमात्मा के पीछे दौड रही है। अब वह परम तत्व के पीछेपरम मोक्ष के पीछे भाग रही है। लेकिन कामना अपनी जगह है। सामान्यत: धार्मिक लोग अपनी कामना के विषय बदलते रहते हैं। लेकिन कामना अपनी जगह कायम रहती हैवह नहीं बदलती। और कामना के विषय समस्या नहीं निर्मित करते हैंकामना ही समस्या निर्मित करती है।
तंत्र कहता है कि कामना के विषय बदलने से कुछ नहीं होगावह केवल समयशक्ति और जीवन का अपव्यय है। विषय नहींकामना छोड़ो। कोई कामना मत करोमोक्ष की भी कामना मत करोक्योंकि कामना ही बंधन है। परमात्मा की कामना भी मत करोक्योंकि कामना ही संसार है। अंतस की कामना भी मत करोक्योंकि सब कामना बाह्य है। प्रश्न यह नहीं है कि इस कामना का अतिक्रमण किया जाए या उस कामना का अतिक्रमण किया जाएकामना मात्र को गिरा दो। कोई कामना मत करो। तुम बस स्वयं होओ। तुम वही हो रहो जो तुम होबस।
जब तुम कोई कामना नहीं करते हो तो क्या होता हैजब तुम वासना छोड़ देते हो तो क्या होता हैतब तुम भागते नहींतब सब दौड़ बंद हो जाती है। तब तुम कहीं पहुंचने की जल्दी में नहीं होतेतब तुम गंभीर नहीं होते। तब न कोई आशा होती है और न कोई निराशा। तब तुम्हें कोई अपेक्षा नहीं होतीतब तुम्हें कुछ भी निराश नहीं कर सकता। अब कोई कामना न रहीफिर तुम असफल कैसे होगेहांतब कोई सफलता भी नहीं होगी। सफलता—असफलता दोनों गईं।
और फिर क्या होता है जब तुम्हें कोई कामना नहीं रहतीतुम एकाकी हो जाते होक्योंकि कहीं भी नहीं जाना। कोई लक्ष्य नहींकोई मंजिल नहींक्योंकि कामना ही मंजिल निर्मित करती है। अब कोई भविष्य भी नहीं हैक्योंकि वासना भविष्य का निर्माण करती है। अब समय भी नहीं हैक्योंकि वासना ही गति करने के लिए समय लेती है। समय ठहर जाता है। भविष्य गिर जाता है। और जब कोई कामना न रही तो मन गिर जाता हैमन विदा हो जाता है। क्योंकि मन कामनाओं का जोड मात्र है। और कामना के लिए ही तुम योजना बनाते होसोच—विचार करते होसपने संजोते होसब आयोजन करते हो।
जब कामना नहीं रही तो सब कुछ गिर जाता है। तुम अपनी शुद्धता में होते हो। तुम किसी दौड़— धूप के बिना जीते हो। तुम्हारे भीतर की लहरें शात हो गईं। सागर तो हैलेकिन लहरें समाप्त हो गईं। और तंत्र के लिए यही भगवत्ता है।
इसे इस भांति देखो : कामना ही बाधा है। विषय की चिंता मत करोअन्यथा तुम आत्म—वंचना में पड़ोगेतुम अपने को ही धोखा दोगे। तुम विषय बदलते रहोगे और नाहक समय गवाओगे। तुम बार—बार असफल और निराश होगे। तुम बार—बार विषय बदलोगे। इस तरह तुम अनंतकाल तक कामना के विषय बदलते रहोगेजब तक तुम्हें यह बोध नहीं होगा कि विषय नहीं,कामना समस्या पैदा करती है। लेकिन कामना सूक्ष्म है और विषय स्थूल हैं। विषय को देखा जा सकता हैलेकिन कामना तो तभी दिखाई पड़ेगी जब तुम गहरे उतरोगे और उस पर ध्यान दोगे। अन्यथा कामना नहीं देखी जा सकती है।
तुम किसी स्त्री से या किसी पुरुष से बहुत—बहुत आशा लगाकरबड़े सपने संजोकर विवाह कर सकते हो। और जितनी बड़ी आशा होगीजितना बड़ा सपना होगाउतनी ही बड़ी निष्फलता हाथ लगेगीउतनी ही बड़ी निराशा होगी। आयोजित विवाह उतना असफल नहीं होता जितना असफल प्रेम—विवाह होता है। ऐसा होना अनिवार्य है। क्योंकि आयोजित विवाह में बहुत आशा बांधनेबहुत सपने संजोने की गुंजाइश नहीं है। वह विवाह दुकानदारी जैसा हैउसमें कोई रोमांस नहीं हैप्रेम नहीं हैकविता नहीं है। उस विवाह में शिखर नहीं हैवहां तुम समतल भूमि पर चलते हो।
यही कारण है कि पुराने ढंग का विवाह कभी नहीं टूटताउसमें टूटने की कोई बात ही नहीं है। पुराना विवाह कैसे टूट सकता हैउसमें कोई शिखर नहीं हैफिर उसमें गिरने का सवाल ही न रहा। प्रेम—विवाह असफल होता हैप्रेम—विवाह ही असफल हो सकता है। क्योंकि प्रेम—विवाह बड़ी कविताबड़े सपनेबड़ी उमंगों के साथ आता है। वहां बडी ऊंचाइयां हैंतुम आकाश में उड़ने लगते हो। तब जमीन पर गिरना अनिवार्य हो जाता है।
इसलिए पुराने देशजिन्हें अनुभव हैजिन्हें पता हैउन्होंने आयोजित विवाह का चुनाव किया। वे प्रेम—विवाह की बात नहीं करते हैं। भारत में प्रेम—विवाह की बात नहीं होती है। भारत ने भी अतीत में प्रेम—विवाह का प्रयोग किया और पाया कि प्रेम—विवाह असफल होने ही वाला है। क्योंकि तुम्हारी अपेक्षाएं बहुत हैंइसलिए असफलता हाथ लगेगी ही। अपेक्षा और असफलता का अनुपात समान है। कामना अपेक्षा लाती है जो पूरी नहीं हो सकती।
तुम एक स्त्री से विवाह करते हो। अगर यह प्रेम—विवाह है तो तुम्हारी अपेक्षा बहुत होगी। फिर तुम उस विवाह से निराश होते हो। और तुम जिस क्षण निराश होते होउसी क्षण
तुम दूसरी स्त्री का विचार करने लगते हो। तो अगर तुम अपनी पत्नी से कहते हो कि मैं किसी दूसरी स्‍त्री में उत्‍सुक नहीं हूं और तुम्‍हारी पत्‍नी को लगता है कि तुम उसके प्रति उदासीन हो, तो वह तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं करेगी। तुम अपनी पत्नी को भरोसा नहीं दिला सकतेयह असंभव हैयह अस्वाभाविक है। जैसे ही तुम अपनी पत्नी से उदासीन होते होतुम्हारी पत्नी सहज जान जाती है कि तुम किसी दूसरी स्त्री में रस लेने लगे हो।
मन के काम करने का यही ढंग है। जब तुम उस स्त्री से भलीभांति परिचित हो जाते हो जिससे तुमने विवाह कियाजब तुम्हें उससे सुख के बजाय दुख मिलने लगता हैतो तुम सोचते हो कि मेरा चुनाव गलत थायह स्त्री मेरे योग्य नहीं थी। यही सामान्य तर्क है—'यह स्त्री मेरे लिए नहीं थीमैंने गलत स्त्री चुन लीऔर संघर्ष का कारण गलत चुनाव है।’ अब तुम दूसरी स्त्री खोजने की कोशिश करोगे।
इस भाति तुम अनंत काल तक कर सकते हो। तुम संसार की सभी स्त्रियों से भी विवाह कर लो तो भी तुम्हारे सोचने का ढंग यही रहेगा। तुम सदा सोचोगे कि यह स्त्री मेरे योग्य नहीं थीमैंने गलत चुनाव किया। तुम्हारी दृष्टि उस सूक्ष्म कामना पर नहीं जातीजो सारे उपद्रव की जड़ में है। यह सूक्ष्म है। स्त्री दिखाई देती हैकामना नहीं दिखाई देती।
लेकिन सचाई यह है कि कोई स्त्री या पुरुष दुख नहीं दे रहा हैयह तुम्हारी कामना है जो दुख दे रही है। अगर तुम्हें यह बोध हो जाए तो तुम बुद्धिमान हो। और अगर तुम विषय ही बदलते रहे तो तुम मूढ़ हो। अगर तुम अपने को और अपनी कामना को देख सकेदेख सके कि सारा उपद्रव कामना ही लाती हैतो तुम विवेकशील हुए।
तब तुम कामना के विषयों को बदलने में नहीं लगते होतब तुम कामना को ही छोड़ देते हो। और जिस क्षण कामना गई उसी क्षण सारा संसार परमात्मा हो जाता है। यह सदा से ऐसा ही हैलेकिन तुम्हारे पास उसे देखने की आंखें नहीं थीं। तुम्हारी आंखें तो वासना से भरी थीं। और वासना से भरी आंखों को परमात्मा संसार जैसा मालूम पड़ता है। वासना से रिक्त,स्वच्छ आंखों के लिए संसार ही परमात्मा हो जाता है।
संसार और परमात्मा दो चीजें नहीं हैं। वे एक ही चीज को देखने के दो ढंग हैंदो दृष्टियां हैंदो दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टि वासना से घिरी होती हैदूसरी दृष्टि वासना से रिक्त और स्वच्छ होती है। अगर तुम निर्मल आंखों से देख सकोअगर तुम्हारी आंखें निराशा के आंसुओ और आशा के सपनों से न भरी होंतो संसार जैसी कोई चीज नहीं हैतब केवल परमात्मा है। तब सारा अस्तित्व परमात्ममय हैभागवत है।
तंत्र का यही अर्थ है। तंत्र जब कहता है कि दोनों का अतिक्रमण करो तो तंत्र दोनों से अपने को अलग कर लेता है। तंत्र का किसी से कोई लेना—देना नहीं हैतंत्र का संबंध दोनों के अतिक्रमण से हैताकि कोई भी वासना न रहे। न संसार की वासनान परमात्मा की।
'फिर वह क्या है जो दोनों के पार है?'
उसे कहा नहीं जा सकताउसके कहने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जैसे ही उसके बारे में कुछ कहा जाता हैवह दोनों के घेरे में आ जाता है। परमात्मा के संबंध में जो भी कहा जाए वह झूठा हो जाएगा—कहने के कारण ही झूठा हो जाएगा।
भाषा द्वैतवादी है। अद्वैत की कोई भाषा नहीं हैहो नहीं सकती। द्वैत के लिए ही भाषा
का कोई अर्थ है। मैं कहूं प्रकाशऔर तुरंत तुम्हारे मन में अंधेरा या काला शब्द आ जाएगा। मैं कहूं दिनऔर तत्‍क्षण तुम्हारे मन में रात आ जाएगी। मैं कहूं प्रेमऔर उसके पीछे ही घृणा खडी है। अगर मैं प्रकाश कहूं और अंधेरा न होतो तुम प्रकाश की परिभाषा कैसे करोगे?
हम शब्दों की परिभाषा उनके विपरीत से ही कर सकते हैं। यदि तुम पूछो कि प्रकाश क्या हैतो मैं कहूंगा जो अंधेरा नहीं है। यदि कोई तुमसे पूछे कि मन क्या हैतो तुम कहोगे जो शरीर नहीं है। सभी शब्द वर्तुलाकार हैंगोल—मोल हैंइसलिए बुनियादी तौर से उनका कोई अर्थ नहीं है। तुम न कुछ शरीर के संबंध में जानते हो और न मन के संबंध में। जब मैं मन के बाबत पूछता हूं तो तुम उसकी परिभाषा शरीर से करते होऔर शरीर अपरिभाषित है। जब मैं शरीर के बाबत पूछता हूं तुम उसकी परिभाषा मन से करते होजो कि स्वयं ही अपरिभाषित है।
एक खेल की भांति यह ठीक है। भाषा एक खेल की भांति ठीक है। लेकिन हम कभी नहीं सोचते कि पूरी बात बेतुकी है,गोल—मोल हैकुछ भी तो परिभाषित नहीं है। तो तुम किसी भी चीज की परिभाषा कैसे करोगेजब मैं मन के संबंध में पूछता हूं तो तुम शरीर को ले आते होऔर शरीर स्वयं अपरिभाषित है। तुम मन की परिभाषा एक अपरिभाषित चीज से कर रहे हो। और यदि मैं पूछूं कि शरीर से तुम्हारा क्या मतलब हैतो तुम तुरंत मन को ले आओगे। यह व्यर्थ है। लेकिन कोई दूसरा उपाय भी तो नहीं है।
भाषा विपरीत शब्दों से बनी हैभाषा द्वैत से बनी हैवह अन्यथा नहीं हो सकती। इसलिए अद्वैत के अनुभव को भाषा में नहीं कहा जा सकता है। जो भी कहा जाएगा वह गलत होगा। उसकी तरफ इशारे किए जा सकते हैंउसके लिए प्रतीक उपयोग में लाए जा सकते हैं। लेकिन मौन सर्वश्रेष्ठ हैउसे मौन के द्वारा कहना ही ठीक—ठीक कहना है।
जगत में सब कुछ की परिभाषा हो सकती हैसब कुछ शब्दों में कहा जा सकता हैलेकिन परम को कहने का कोई उपाय नहीं है। तुम उसे जान सकते होउसका स्वाद ले सकते होवह हो सकते होलेकिन उसके बारे में कुछ कहना असंभव है। सिर्फ निषेध की भाषा मेंनेति—नेति की भाषा में कुछ कहा जा सकता है। हम यह नहीं कह सकते कि वह क्या हैहम इतना ही कह सकते हैं कि वह क्या नहीं है। यह भी नहींयह भी नहीं—नेति—नेति।
समस्त रहस्यवादी नेति—नेति की भाषा ही बोलते हैं। अगर तुम पूछोगे कि परमात्मा क्या हैतो वे कहेंगे : परमात्मा न यह है न वह। वह न जीवन है और न मृत्यु। वह न प्रकाश है और न अंधकार। वह न निकट है और न दूर। वह न मैं है और न तू। वे इसी ढंग में बोलते हैं। लेकिन उससे बात और बेबूझ हो जाती है।
वासना छोड़ोकामना गिरा दो और तुम उसे आमने —सामने जान लोगे। लेकिन यह अनुभव इतना वैयक्तिक हैइतना गहरा हैइतना शब्दों और भाषा के पार हैकि जब तुम उसे जान भी लोगे तब भी उसके संबंध में कुछ कह नहीं पाओगे। तुम बिलकुल चुप हो जाओगेमौन हो जाओगे। या ज्यादा से ज्यादा वही कहोगे जो मैं अभी कह रहा हूंतुम कहोगे कि उसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
लेकिन फिर इतनी चर्चा का मतलब क्या हैयदि कुछ भी नहीं कहा जा सकता है तो मैं क्यों रोज—रोज तुमसे इतनी बातें करता हूं?
इसीलिए कि मैं तुम्हें उस बिंदु पर पहुंचा दूं जहां कुछ कहना असंभव हो जाता है। इसीलिए कि मैं तुम्‍हें उस अतल शून्य में उतार दूं जहां तुम भाषा के बाहर छलांग ले लो। उस बिंदु तक भाषा सहयोगी हो सकती है—उस अतल शून्य के किनारे तक पहुंचने मेंजहां, तुम्हारी निशब्द मेंभाषा के पारछलांग लगेगीभाषा उपयोगी हो सकती है। लेकिन ज्यों ही छलांग लगेगी,मौन का लोक शुरू हो जाएगाजो भाषा के पार है।
इसलिए मैं भाषा के द्वारा तुम्हें वहा पहुंचा सकता हूं जहां, संसार का अंत आ जाता है—संसार का आखिरी छोर। लेकिन भाषा उसके आगे एक कदम भी नहीं रख सकती हैपरमात्मा के जगत में भाषा की कोई गति नहीं हैभाषा के सहारे वहां एक इंच भी नहीं बढ़ा जा सकता है। लेकिन भाषा के सहारे आखिरी छोर तक ले जाया जा सकता हैतब तुम अपनी आंखों से देखोगेकि सामने आनंद का असीम—अथाह सागर लहरा रहा है।
और वह सागर तुम्हें खुद बुलाएगावह परम तुम्हें चुंबक की तरह अपनी तरफ खींच लेगा। तुम्हारे लिए वहा से पीछे लौटना असंभव हो जाएगा। वह अथाह सागरमौन का अथाह सागर इतना आकर्षक हैइतना मादक हैइतना चुंबकीय है कि इसके पहले कि तुम्हें पता लगे तुम्हारी छलांग लग जाएगी।
यही कारण है कि मैं बोले चला जाता हूं यद्यपि मैं जानता हूं कि मैं जो कह रहा हूं उससे तुम उसे नहीं जान पाओगे जो आत्यंतिक हैसबके पार हैपार के भी पार है। लेकिन इससे निश्चय ही तुम्हें छलांग लेने में सुविधा होगीसहायता मिलेगी। यह एक उपाय हैएक विधि है।
यह विरोधाभासी मालूम पड़ेगा कि मैं जो इतने शब्दों का उपयोग कर रहा हूं या अतीत में रहस्यवादियों ने जो शब्दों का उपयोग कियावह सिर्फ इसलिए कि तुम्हें मौन के मंदिर तक पहुंचा दिया जाएकि तुम्हें मौन में उतार दिया जाए। लेकिन भाषा का उपयोग क्योंमौन के लिए शब्द का उपयोग क्यों?
मैं मौन का उपयोग भी कर सकता हूं लेकिन तब तुम नहीं समझोगेतुम अभी मौन नहीं समझ सकते। जब मुझे किसी पागल आदमी से बात करनी होती है तो मैं पागल आदमी की भाषा का उपयोग करता हूं। मैं तुम्हारे कारण और तुम्हारे लिए भाषा का उपयोग करता हूं। ऐसा नहीं कि भाषा के माध्यम से कुछ कहा जा सकता है। लेकिन भाषा के माध्यम से जो तुम्हारे भीतर निरंतर की बकबक चल रही है उसे जरूर मिटाया जा सकता है।
यह ऐसा ही है जैसे कि तुम्हारे पांव में काटा गड़ा है और उसे निकालने के लिए हम दूसरे कांटे का उपयोग कर लेते हैं। दूसरा भी काटा ही है। तुम्हारा मन शब्दों सेशब्दों के काटो से भरा हैमैं उन्हें निकालने कीतुम्हारे मन को खाली करने की चेष्टा में लगा हूं। और उसके लिए मैं शब्दों के ही कीटों का उपयोग कर रहा हूं। तुम्हारा चित्त विष से भरा हैउस विष को निकालने के लिए मुझे विष का ही उपयोग करना पड़ता है। यह एंटीडोट हैयह भी विष ही है। लेकिन एक कांटे से दूसरे कांटे को निकाला जा सकता है। और जब काटा निकल जाता है तो हम दोनों ही कीटों को एक साथ फेंक देते हैं।
जब मैं शब्दों के माध्यम से तुम्हें उस बिंदु पर ले आऊं जहां तुम मौन होने को तैयार हो तो तुम मेरे शब्दों को भी फेंक देना। उन्हें जरा भी आगे मत ढोनावे व्यर्थ हैं। फिर उन्हें ढोना खतरनाक भी है। जब तुम जान गए कि भाषा व्यर्थ है,खतरनाक हैजब तुम जान गए कि यह जो आंतरिक बकबक है वही बाधा है और तुम मौन होने को तैयार होतब मेरे शब्दों को भी फेंक देना। यह याद रखना।
ध्यान रहेसत्य कहा नहीं जा सकता और जो कहा जा सके वह सत्य नहीं है। इसलिए अपने शब्दों से ही नहींमेरे शब्दों से भी खाली हो जानामुक्त हो जाना।
जरथुस्त्र ने अपने शिष्यों से जो अंतिम बात कही वह बहुत सुंदर है। उसने जीवन भर उन्हें समझाया था। उसने उन्हें सत्य की झलकें दी थीं। उसने उनके प्राणों को आलोकित किया था। उसने उन्हें परम अभियान के लिए चुनौती दी थीतैयार किया था। लेकिन विदा के क्षण में जो शब्द उसने उनसे कहे वे अत्यंत कीमती हैं। उसने कहा : 'अब मैं तुमसे विदा हो रहा हूं। अब जरथुस्त्र से सावधान रहना।’ शिष्यों ने कहा 'आप यह क्या कह रहे हैंजरथुस्त्र से सावधान! आप हमारे गुरु हैंशिक्षक हैंहमारी एकमात्र आशा हैं।’ और जरथुस्त्र ने कहा 'अब तक जो कुछ मैंने तुमसे कहांउससे सावधान रहना। मुझे मत पकड़ लेनाअन्यथा मैं तुम्हारा बंधन बन जाऊंगा
जब एक काटा तुम्हारे भीतर के काटे को निकाल दे तो दोनों को एक साथ फेंक देना। ऐसा नहीं कि निकालने वाले काटे को यह कह कर वापस रख लेना कि उसने तुम पर कितना उपकार किया है। वह भी कांटा ही हैयह मत भूलना। तो जब मैं तुम्हें मौन के लिए तैयार कर दूं तो मुझसे भी सावधान हो जाना। तब उन सब शब्दों को भी कचरे में फेंक देना जो मैंने तुमसे कहे हैं। फिर उनकी कोई उपयोगिता नहीं है। उनकी उपयोगिता उसी घड़ी तक है जब तक तुम मौन में छलांग के लिए तैयार नहीं हुए हो। इधर तुम तैयार हुए उधर वे व्यर्थ हुए।
और उसके संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता है जो दोनों के पार है। जो पार हैपरम हैउसके संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ नहीं कहा जा सकताऔर इतना कहना भी बहुत कहना है। अगर तुम इतना समझ सको तो यह भी पर्याप्त इंगित है।
मैं यह कह रहा हूं कि अगर तुम्हारा मन शब्दों से पूरी तरह खाली हो जाए तुम उसे जान लोगे। जब तुम विचारों से दबे नहीं होजब तुम निर्विचार होतुम उसे जान लोगे। क्योंकि वह तो मौजूद ही है। वह कोई ऐसी चीज नहीं है जो कभी तुम्हें उपलब्ध होगीवह तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। तुम उसकी ही अभिव्यक्ति होउसका ही प्रकट रूप हो। लेकिन तुम विचारों से,विचार के बादलों से इतने घिरे हो कि तुम उसे चूक रहे हो। तुम बादलों पर अटक गए हो और आकाश को भूल गए हो।
बादलों को छंट जाने दोऔर आकाश तुम्हारी सदा से प्रतीक्षा कर रहा है। वह जो सबके पार हैवह जो आत्यंतिक है,तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। द्वैत को विदा हो जाने दो और परम उदघाटित हो जाता है।

 चौथा प्रश्न :

आपने कहा कि जो व्‍यक्‍ति भयभीत है वह प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता और न यह परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है। कृपया बताएं कि तंत्र के अनुसार भय से कैसे मुक्‍त हुआ जाए।
तुम क्यों भय से मुक्त होना चाहते होया तुम भय से भयभीत हो गए होअगर तुम भय से भयभीत हो गए हो तो यह एक नया भय है। मन इसी भांति एक ही वर्तुल से घूमता रहता है।
जब मैं कहता हूं कि कामना छोड़ो और तुम परमात्मा को पा लोगेतो तुम पूछते होक्या सच ही यदि हम कामना छोड़ दें तो परमात्मा को पा लेंगेअब तुमने परमात्मा की कामना शुरू कर दी। जब मैं कहता हूं कि तुम अगर भयभीत हो तो प्रेम नहीं कर सकतेतो तुम भय से भयभीत हो जाते हो। तुम पूछते होभय से कैसे मुक्त हुआ जाएअब यह भी भय ही है—एक नया भय। और यह पहले भय से ज्यादा खतरनाक भय हैक्योंकि पुराना भय तो स्वाभाविक थायह नया भय अस्वाभाविक है। और यह नया भय इतना सूक्ष्म है कि तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या पूछ रहे हो।
किसी चीज से मुक्त होने की बात नहीं हैबात सिर्फ समझने की हैबोध की है। भय को समझो कि वह क्या हैउससे मुक्त होने की चेष्टा मत करो। क्योंकि जैसे ही तुम किसी चीज से छुटकारा पाने की चेष्टा में लगे कि तुमने उसे समझना छोड़ दिया।
जो मन छुटकारे की भाषा में सोचता है वह समझने का द्वार बंद कर देता है। वह मन बंद है। वह मन समझने के लिए राजी नहीं हैखुला नहीं है। वह मन सहानुभूतिपूर्ण नहीं है। वह मन शांति के साथ देखने में समर्थ नहीं है। उसने तो पहले ही निर्णय ले किया कि भय बुरा है और उससे छुटकारा पाना है।
किसी भी चीज से छुटकारा पाने की चेष्टा मत करो। समझने की चेष्टा करो कि भय क्या है। यदि तुम्हें भय है तो पहले भय को स्वीकार करो। वह हैउसे छिपाने की चेष्टा मत करो। वह हैउसके विपरीत को निर्मित करके उसे दबाने की कोशिश मत करो। अगर तुम भयभीत हो तो तुम भयभीत होउसे अपने अस्तित्व के एक अंग की भांति स्वीकार करो। और अगर तुमने उसे स्वीकार कर लिया तो वह विदा हो जाएगा। स्वीकार से भय विदा हो जाता हैइनकार से बढ़ता है।
तुम पाते हो कि तुम भयभीत हो और इस भय के कारण तुम प्रेमपूर्ण नहीं हो सकतेतो तुम क्या कर सकते होतो ठीक हैभय हैअब एक ही बात हो सकती है कि मैं प्रेम का नाटक नहीं करूंगा। या मैं अपनी प्रेमिका से कह दूंगा कि मैं भयभीत हूं और भय के कारण मैं तुमसे चिपका हुआ हूं। भीतर मैं भयभीत हूं। मैं अपनी स्थिति के संबंध में स्पष्ट हो जाऊंमा,सरल हो जाऊंगा। मैं किसी और को या स्वयं को इस संबंध में धोखे में नहीं रखूंगा। मैं यह नहीं कहूंगा कि यह प्रेम हैमैं कहूंगा कि यह केवल मेरा भय है। प्रेम नहींभय के कारण मैं किसी से चिपका रहना चाहता हूं। भय के कारण ही मैं मंदिर जाता हूं और प्रार्थना करता हूं। भय के कारण ही मैं परमात्मा को स्मरण करता हूं। मैं अब जानता हूं कि यह प्रार्थना नहीं हैयह प्रेम नहीं हैयह केवल मेरा भय है। मैं भय हूं। इसलिए मैं जो कुछ करता हूं भय के कारण करता हूं। मैं इस सत्य को स्वीकार करूंगा। और जब तुम सत्य को स्वीकार करते हो तो चमत्कार घटता है। यह स्वीकार ही तुम्हें बदल देता है।
जब तुम जानते हो कि तुम भयभीत हो तो तुम क्या कर सकते होतुम यही कर सकते हो कि तुम अभिनय करो कि तुम भयभीत नहीं हो। और यह अभिनय दूसरी अति को छू सकता है। एक बहुत भयभीत आदमी बहुत बहादुर आदमी बन जा सकता है। वह अपने चारों ओर बहादुरी का कवच निर्मित कर लेगा और खतरों से खेलेगा—सिर्फ दिखाने के लिए कि वह डरपोक नहीं है। वह अपने भय को छिपाने के लिए खतरों में उतरेगा और स्वयं को भी धोखा देगा कि वह किसी से भी नहीं डरता है।
लेकिन बहादुर से बहादुर आदमी भी डरा हुआ है। उनकी बहादुरी ऊपर—ऊपर हैभीतर वे भय से कांप रहे हैं। इस कठोर तथ्य से आख चुराने के लिए वे खतरों में भी उतर जाते हैं। वे जोखिम के काम भी करते हैंताकि उन्हें अपने भय का बोध न हो। लेकिन भय तो है ही।
तुम भय के विपरीत बहादुरी निर्मित कर ले सकते होलेकिन उससे कुछ बदलने वाला नहीं है। तुम बहादुरी का अभिनय कर सकते होउससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। एकमात्र रूपांतरण यही हो सकता है कि तुम सिर्फ स्वीकार कर लोतुम इस बोध से भर जाओ कि मैं भयभीत हूं कि मैं भय ही हूं कि मेरे पूरे प्राण कांप रहे हैं और मैं जो भी करता हूं सब भय के कारण करता हूं। तब तुम अपने प्रति सच्चे हो गएईमानदार हो गए।
और तब तुम भय से भयभीत नहीं होतब भय तुम्हारे होने का हिस्सा है जिसके संबंध में कुछ भी नहीं किया जा सकता। तुमने भय को स्वीकार कर लिया है। अब तुम निर्भय होने का अभिनय नहीं करते हो। अब तुम न दूसरों को और न स्वयं को ही धोखे में रखना चाहते हो। अब भय तुम्हारा सत्य है और तुम उससे भयभीत नहीं हो। अब तुम भयभीत होने से नहीं डरते हो।
इस स्वीकार के साथ ही भय विलीन होने लगता हैक्योंकि जो व्यक्ति अपने भय को स्वीकार करने से नहीं डरता है वह अभय को उपलब्ध होने लगता है। बड़े से बड़ा जो अभय संभव है वह यही है। अब वह विपरीत का निर्माण नहीं करता है इसलिए उसमें द्वैत नहीं रहांद्वंद्व नहीं रहा। उसने तथ्य को स्वीकार कर लिया हैवह सत्य के सामने सरल हो गया हैविनम्र हो गया है। और उसने यह भी भलीभांति जान लिया है कि इसके बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। कोई नहीं जानता है कि स्वीकार करने के अलावा और कुछ किया जा सकता है। और उसने निर्भय होने का अभिनय छोड़ दिया हैउसने निर्भयता के मुखौटेउतारकर रख दिए हैं। वह अपने भय के साथ प्रामाणिक हो गया है।
यह प्रामाणिकता तुम्हें बदल देगी। सत्य को स्वीकार करने का साहस तुम्हें बदल देगा। भय का स्वीकार अभय की बुनियाद है। और जब तुम प्रेम का नाटक नहीं करतेजब तुम झूठे प्रेम का दिखावा नहीं करतेजब तुम अपने चारों ओर एक धोखा नहीं खड़ा करतेजब तुम पाखंड नहीं करतेतब तुम प्रामाणिक हो गए। इस प्रामाणिकता में प्रेम का जन्म होता हैइस प्रामाणिकता में भय विदा हो जाता है और प्रेम का उदय होता है। प्रेम के जन्म की आंतरिक कीमिया है यह।
अब तुम प्रेमपूर्ण होअब तुम प्रेम कर सकते हो। अब तुम करुणा कर सकते हो। अब तुम किसी पर निर्भर नहीं हो;उसकी जरूरत न रही। तुमने सत्य को स्वीकार कर लिया; अब किसी पर निर्भर रहने की जरूरत न रही। अब तुम्हें न किसी पर मालकियत करनी है और न किसी को अपने पर मालकियत करने देनी है। अब दूसरे के पीछे भागने की जरूरत न रही। तुमने स्वयं को स्वीकार कर लियाइसी स्वीकार से प्रेम पैदा होता है। और इस प्रेम से तुम्हारे प्राण भर जाते है।
स्मरण रहेअब तुम भय से भयभीत नहीं होअब तुम भय से छुटकारा पाने की चेष्टा नहीं करते हो। और चमत्कार यह है कि इस स्वीकार से ही भय विलीन हो जाता है।
तुम अपने प्रामाणिक अस्तित्व कोप्रामाणिक होने को स्वीकार कर लोऔर तुम रूपांतरित हो जाओगे। स्मरण रहे,स्वीकारसमग्र स्वीकार तंत्र की गुह्य चाबी है। स्वीकार रूपांतरण की कीमिया है। कुछ भी इनकार मत करोक्योंकि इनकार तुम्हें अपंग कर देगा। जो भी हैसबको स्वीकार करो। न उसकी निंदा करोन उससे भागने की चेष्टा करो। समग्र स्वीकार ही मंत्र है।
और जब मैं कहता हूं कि भय से भागने की चेष्टा मत करो तो उसमें कई बातें हैं। जब तुम किसी चीज से छुटकारा पाने की कोशिश करते हो तो तुम अपने को खंडों में तोड़ते होतुम अपंग हो जाते हो। जब तुम कुछ काटते हो तो उसके साथ ही कुछ और भी कट जाता है जो उस चीज का हिस्सा थातुम अपंग हो जाते हो। तुम अखंड न रहे। और जब तक तुम अखंड और समग्र नहीं हो तब तक तुम सुखी नहीं हो सकते। समग्र होनापूर्ण होना ही धार्मिक होना है। और खंडित होना रुग्णता हैबीमारी है।
इसलिए मैं कहता हूं. भय को समझने की चेष्टा करो। यह भय तुम्हें अस्तित्व से मिला हैउसमें जरूर कोई गहरा राज छिपा होगाउसका कोई रहस्य होगाकोई अर्थ होगा। उसे फेंको मत। अस्तित्व से हमें जो भी मिलता है उसमें कुछ न कुछ अर्थ हैव्यर्थ कुछ भी नहीं है। तुम्हारे भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे श्रेष्ठ में नहीं बदला जा सकता है।
तुम्हारे भीतर जो भी है—तुम्हें पता हो या न हो—उसकी सीढ़ी बनाई जा सकती है। उसे बाधा मत मानोउसे सीढ़ी बना लो। रास्ते में पड़े पत्थर को बाधा मानकर उससे लड़ो मतउसे सीढ़ी बना लो। अगर तुम उस पत्थर का उपयोग कर सकोउस पर चढ़ सकोतो रास्ते का नया दृश्य तुम्हारे सामने खुलेगाकिसी नए ही आयाम मेंऊंचे आयाम में खुलेगा। तुम्हें अपनी संभावना कीक्षमता कीभविष्य की नई गहराइयां दिखाई देंगी।
भय के भी अपने उपयोग हैं। इसे समझने की चेष्टा करो। पहलाअगर भय न हो तो तुम अत्यंत अहंकारी हो जाओगे और उससे मुक्त होने का उपाय न रहेगा। अगर भय न होतो तुम जैसे होतुम फिर अस्तित्व मेंपरमात्मा में डूब जाने की चेष्टा न करोगे। सच तो यह है कि भय न हो तो तुम जीवित ही नहीं रह सकते।
इसलिए भय भी उपयोगी हैतुम जो भी हो उसमें उसका भी हाथ है। अगर तुम उसे छिपाने कीदबाने कीमिटाने की चेष्टा करोगेअगर तुम उसके विपरीत कुछ निर्मित करने का प्रयत्न करोगेतो तुम खंड—खंड हो जाओगेतुम टूट जाओगे।
इसलिए भय को स्वीकार करो और उसका भी उपयोग कर लो। और जिस क्षण तुम जानते हो कि तुमने उसे स्वीकार कर लिया हैतुम चकित होगे कि भय विदा हो जाता है। थोड़ा सोचो : अगर तुम अपने भय को स्वीकार कर लेते हो तो भय कहा है?
एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा : 'मैं मृत्यु से अत्यंत भयभीत हूं।’ वह आदमी कैंसर से पीड़ित था और मृत्यु सचमुच निकट थी। वह किसी भी दिन मर सकता था, कोई उसे बचा नहीं सकता था। और वह जानता था कि मृत्यु द्वार पर खड़ी हैबस कुछ महीनों की बात थीया कुछ हफ्तों की। वह भय से कांप रहा थावस्तुत: उसका शरीर कांप रहा था। और उसने मुझसे कातर स्वर में कहा: 'मुझे बस एक बात बता दीजिए कि मैं कैसे मृत्यु के भय से छुटकारा पाऊं। मुझे कोई मंत्रया कोई उपाय बताइए कि मैं मृत्यु का सामना कर सकूं। मैं कांपते हुए नहीं मरना चाहता हूं।
जरा रुक कर उस व्यक्ति ने फिर कहा. 'मैं अनेक साधु—संतों के पास गयासबने कुछ न कुछ बताया। वे दयालु लोग थे। किसी ने मंत्र बतायाकिसी ने विभूति दीकिसी ने अपना चित्र दियाकिसी ने और कुछ दिया। लेकिन कोई भी चीज काम नहीं आ रही है। सब व्यर्थ है। अब मैं आपके पास आया हूं। यह मेरा आखिरी प्रयत्न है। अब और कहीं नहीं जाना है। कुछ बताइए।
मैंने उस व्यक्ति से कहा : 'तुम्हें अब भी बोध नहीं हुआ। तुम क्या मांग रहे होतुम भय से छुटकारे का उपाय चाहते हो?कोई उपाय काम नहीं आएगा। मैं तुम्हें कुछ भी नहीं दूंगाअन्यथा दूसरों की भांति मैं भी व्यर्थ सिद्ध होऊंगा। और जिन लोगों ने भी तुम्हें कुछ दिया वे नहीं जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। मैं तो तुम्हें एक ही बात कहूंगा कि भय को स्वीकार कर लो। भय से कांप रहे हो तो कांपोखूब कांपो। करना क्या हैमृत्यु है और तुम्हें भय से कंपन होता है तो कांपो। उसे झुठलाओ मतउसे दबाओ मत। बहादुर बनने की चेष्टा मत करो। उसकी कोई जरूरत नहीं है। मृत्यु है तो भय स्वाभाविक है। तो पूरी तरह भयभीत होओ। भय ही हो जाओ।
वह बोला: 'आप क्या कह रहे हैंआपने मुझे कुछ दिया तो नहींउलटे आप कहते हैं उसे स्वीकार करो!मैंने कहा. 'हां,तुम स्वीकार कर लो। तुम भय को समग्रता से स्वीकार कर लो तो तुम शांतिपूर्वक मर सकोगे।
तीन—चार दिन के बाद वह व्यक्ति दोबारा मेरे पास आया और उसने कहा. 'आपने जो बताया वह काम कर गया। कितने दिनों तक मैं सोया नहीं थापिछले चार दिन मैं गहरी नींद सोया। आप सही हैंआपने जो बताया वह कारगर उपाय है। मृत्यु है,भय हैक्या किया जा सकता हैस्वीकार ही एकमात्र उपाय है। सभी मंत्र कचरा हैं।
कोई वैद्य—डाक्टर कुछ नहीं कर सकता है। न कोई साधु—संत ही कुछ कर सकता है। मृत्यु है। वह तथ्य है। और तुम उसके भय से कांपते होयह भी स्वाभाविक है। आधी आती है और वृक्ष कांपने लगता है। वृक्ष किसी संत के पास यह पूछने नहीं जाता है कि आधी आए तो उसके भय से बचने का उपाय क्या है। वह तूफान से बचने के लिए मंत्र नहीं मांगता है। वह बस कांपता है। कांपना स्वाभाविक है।
और उस आदमी ने फिर कहा. 'लेकिन एक चमत्कार हो गया कि अब मैं उतना भयभीत नहीं हूं।
अगर तुम स्वीकार कर लो तो भय विलीन होने लगता है। और अगर तुम उसे हटाते होउसका प्रतिरोध करते होदमन करते होअगर तुम उससे लड़ते होतो तुम भय को ऊर्जा देते होबढ़ाते हो।
वह व्यक्ति शांतिपूर्वक मरा—बिना किसी भय केबिना किसी कंपन के—क्योंकि वह भय को स्वीकार कर सका।
भय को स्‍वीकार कर लो और वह विदा हो जाता है।

अंतिम प्रश्न :
कल जिस दूसरी विधि की आपने चर्चा की उससे मिलती—जुलती विधि के प्रयोग में मैं ऐसी ध्वनियां सुनने लगा हूं जो बहती नदी या झरने की ध्वनियों जैसी हैं। वह क्या हैजहां तक मैं समझता हूं, इस प्रयोग में ध्वनि और विचार से सर्वथा शून्य मौन का अनुभव होना चाहिए। फिर यह ध्वनि क्या है?

 शुरू—शुरू में मौन के घटित होने के पूर्व ध्वनि सुनाई देगी। वह शुभ लक्षण है। जब शब्दविचारभाषा की पर्त विदा होती हैतब दूसरी पर्त आती हैवह ध्वनि कीस्वर की पर्त है। उससे लड़ी मतउसका सुख लो। वह स्वर संगीतमय होता जाएगामधुर होता जाएगा। तुम उस संगीत से भर जाओगे और ज्यादा जीवंत हो उठोगे। जब मन विलीन होता है तब भीतर से एक नैसर्गिक ध्वनि प्रकट होती है। उसे होने दो। उस पर ध्यान करो। उसका प्रतिरोध मत करोउसके साक्षी हो जाओ। वहगहराएगी
और अगर तुमने उससे संघर्ष नहीं कियाउसका प्रतिरोध नहीं कियातो वह अपने आप ही विलीन हो जाएगी। और तुम मौन में उतर जाओगे। शब्दध्वनि और मौन—ये तीन तत्व हैं। शब्द मानवीय हैध्वनि प्राकृतिक है और मौन भागवत है।
यह शुभ लक्षण है कि ध्वनि सुनाई देती है। इसे नाद कहते हैं : भीतर की ध्वनि। उसे सुनोउसका आनंद लोउसके साक्षी होओ। यह ध्वनि भी विदा हो जाएगी। लेकिन उसकी चिंता मत लोयह मत कहो कि ऐसा नहीं होना चाहिए था। अगर उसका प्रतिरोध करोगेउससे किसी भांति छुटकारा पाने की कोशिश करोगेतो तुम फिर पहले तल परशब्दों के तल पर वापिस आ जाओगे।
यह ध्यान रहेअगर तुमने ध्वनि के इस दूसरे तल से लड़ना शुरू किया तो उसका अर्थ है कि तुमने उसके संबंध में विचार करना शुरू कर दियाशब्द वापस आ गए। अगर तुमने ध्वनि के इस दूसरे तल के संबंध में कुछ कहना शुरू किया तो उसका अर्थ है कि तुम दूसरे तल से हट गए और फिर पहले तल पर वापस आ गए। तुम मन में लौट आए।
कुछ मत कहोउसके बारे में कोई विचार मत करो। यह भी मत कहो कि यह ध्वनि है। सिर्फ उसे सुनो। उसके चारों ओर शब्द मत खड़े करो। उसे कोई शब्द या नाम—रूप मत दो। वह जैसी है वैसी ही रहने दो उसे। उसे बहने दो और तुम साक्षी रहो। नदी बह रही है और तुम किनारे बैठ कर उसे देख रहे हो—साक्षी की भांति। तुम यह भी नहीं जानते हो कि नदी का नाम क्या हैया वह कहां जा रही हैकहां से आ रही है। ध्वनि के पास बैठ कर उसे बस सुनोदेर—अबेर वह विदा हो जाएगी। और जब वह विदा होगी तब मौन प्रकट होगा।
यह शुभ लक्षण है। तुमने दूसरे तल को स्पर्श किया है। लेकिन अगर तुमने इस संबंध में सोच—विचार शुरू कर दिया तो तुम उसे खो दोगे। तब तुम पहले तल परशब्दों के तल पर वापस आ गए।
अगर तुमने कोई सोच—विचार नहीं कियाबस उसके साक्षी होने का सुख लियातो डरने से मत डरो तुम और गहरे तीसरे तल पर पहुंच जाओगे।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
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