संभोग से समाधि की ओर—9
संभोग : समय-शून्यता की झलक—1
मेरे प्रिय आत्मन,
एक छोटी से कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। बहुत वर्ष बीते, बहुत सदिया। किसी देश में एक बड़ा चित्रकार था। वह जब अपनी युवा अवस्था में था, उसने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊं जिसमें भगवान का आनंद झलकता हो। मैं एक ऐसे व्यक्ति को खोजूं एक ऐसे मनुष्य को जिसका चित्र जीवन के जो पार है जगत के जो दूर है उसकी खबर लाता हो।
और वह अपने देश के गांव-गांव घूमा, जंगल-जंगल अपने छाना उस आदमी को,जिसकी प्रति छवि वह बना सके। और आखिर एक पहाड़ पर गाय चराने वाले एक चरवाहे को उसने खोज लिया। उसकी आंखों में कोई झलक थी। उसके चेहरे की रूप रेखा में कोई दूर की खबर थी। उसे देखकर ही लगाता था कि मनुष्य के भीतर परमात्मा भी है। उसने उसके चित्र को बनाया। उस चित्र की लाखों प्रतियां गांव-गांव दूर-दूर के देशों में बिकी, लोगों ने उस चित्र को घर में टाँग कर अपने घर को धन्य समझा।
फिर बीस साल बाद वह चित्रकार बूढा हो गया। तब उसे ख्याल आया कि ऐसा चित्र तो मैंने बनाया जिस में परमात्मा की झलक आती थी, जिसकी आंखों में किसी और लोक की झलक मिलती थी। जीवन के अनुभव से उसे पता चला था कि आदमी में भगवान ही अगर अकेला होता तो ठीक का, आदमी में शैतान भी दिखायी पड़ता है उसने सोचा कि मैं एक और चित्र बनाऊंगा,जिसमें आदमी के भीतर शैतान की छवि होगी। तब मेरे दोनों चित्र पूरे मनुष्य के चित्र बन सकेंगे।
वह चित्र कार फिर गया—जुआ घरों में, शराब खानों में, पागल खानों में, और उसने खोजबीन की उस आदमी की जो आदमी न हो शैतान हो। जिसकी आंखों में न कर की लपटें जलती हो। जिसके चेहरे की आकृति उस सबका स्मरण दिलाती हो। जो अशुभ है, कुरूप है, असुन्दर है। वह पाप की प्रतिमा की खोज में निकला। एक प्रतिमा उसने परमात्मा की बनायी थी। वह एक प्रतिमा पाप की बनाना चाहता है।
और बहुत खोज के बाद एक कारागृह में उसे ऐ कैदी मिल गया। जिसने सात हताएं की थी और जो थोड़े ही दिनों के बाद मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। फांसी पर लटकाया जाने वाला था। उस आदमी की आंखों में नरक के दर्शन होते थे। घृणा जैसे साक्षात थी। उस आदमी के चेहरे की रूपरेखा ऐसी थी कि वैसा कुरूप मनुष्य खोजना मुश्किल था। उसने उसके चित्र को बनाया। जिस दिन उसका चित्र बनकर पूरा हुआ, वह अपने पहले चित्र को भी लेकर कारागृह में आ गया। दोनों चित्रों को पास-पास रख कर देखने लगा। चित्र कार खुद ही मुग्ध हो गया था। कि कौन सी कलाकृति श्रेष्ठ है। कली की दृष्टि से यह तय करना मुश्किल था।
और तभी उस चित्रकार को पीछे किसी के रोने की आवाज सुनायी पड़ी। तो वह कैदी ज़ंजीरों में बंधा रो रहा था। जिसकी कि उसने तस्वीर बनायी थी। वह चित्रकार हैरान हुआ। उसने कहां मेरे दोस्त तुम क्यों रोते हो। चित्रों को देख कर तुम्हें क्या तकलीफ हुई।
उस आदमी ने कहा, मैंने इतने दिन तक छिपाने की कोशिश की लेकिन आज मैं हार गया। शायद तुम्हें पता नहीं कि पहली तस्वीर भी तुमने मेरी ही बनाई थी। ये दोनों चित्र मेरे ही है। बीस साल पहले पहाड़ पर जो आदमी तुम्हें मिला था वह मैं ही था। और मैं इस लिए रोता हूं,कि मैंने बीस साल में कौन सी यात्रा कर ली—स्वर्ग से नरक की, परमात्मा से पाप की।
पता नहीं यह कहानी कहां तक सच है। सच हो या न हो, लेकिन हर आदमी के जीवन में दो तस्वीरें है। हर आदमी के भीतर शैतान है, और परमात्मा है। और हर आदमी के भीतर नरक की भी संभावना है और स्वर्ग की भी। हर आदमी के भीतर सौंदर्य के फूल भी खिल भी खिल सकते है और कुरूपता के गंदे डबरा भी बन सकते है। प्रत्येक आदमी इन दो यात्राओं के बीच निरंतर डोल रहा है। ये दो छोर है, जिनमे से आदमी किसी को भी छू सकता है। और अधिक लोग नरक के छोर को छू लेते है। और बहुत कम सौभाग्यशाली है, जो अपने भीतर परमात्मा को उभार पाते है।
क्या हम अपने भीतर परमात्मा को उभार पाने में सफल हो सकते है। क्या हम भी वह प्रतिमा बन सकेंगे जहां परमात्मा की झलक मिले?
यह कैसे हो सकता है—इस प्रश्न के साथ ही आज की दूसरी चर्चा मैं शुरू करना चाहता हूं। यह कैसे हो सकता है कि आदमी परमात्मा की प्रतिमा बने? यह कैसे हो सकता है कि आदमी का जीवन एक स्वर्ग बने—एक सुवास, एक सुगंध, एक सौन्दर्य? यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य उसे जान ले, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है? यह कैसे हो सकता है कि मनुष्य परमात्मा के मुदिर में प्रविष्ट हो जाये?
होता तो उलटा है। बचपन में हम कहीं स्वर्ग में होते है। और बूढे होते-होते नरम तक पहुंच जाते है। होता उल्टा है। होता यह है कि बचपन के बाद जैसे हमारा रोज पतन होता है। बचपन में किसी इनोसेंस, किसी निर्दोष संसार का हम अनुभव करते है। और फिर धीरे-धीरे एक कपट से भर हुआ पाखंड से भरा हुआ मार्ग हम तय करते है। और बूढा होते-होते ने केवल हम शरीर से बूढे हो जोत है, बल्कि हम आत्मा से भी बूढ़े हाँ जाते है। न केवल शरीर दीन-हीन, जीर्ण-जर्जर हो जाता है, बल्कि आत्मा भी प्रतीत, जीर्ण-जर्जर हो जाती है। और इसे ही हम जीवन मान लेते है। और समाप्त हो जाते है।
धर्म इस संबंध में संदेह उठाना चाहता है। धर्म एक बड़ा संदेह है इस संबंध में कि यह आदमी के जीवन की यात्रा गलत है कि स्वर्ग से हम नरक तक पहुंच जाये। होना तो उल्टा चाहिए। जीवन की यात्रा अपलब्धि की यात्रा होनी चाहिए। कि हम दुःख से आनंद तक पहुँचें हम अंधकार से प्रकाश तक पहुंचे हम मृत्यु से अमृत तक पहुंच जायें। प्राणों के प्राण की अभिलाषा और प्यास भी वहीं है। प्राणों मे एक ही आकांक्षा है कि मृत्यु से अमृत तक कैसे पहुँचें। प्राणों में एक ही प्यास है कि हम अंधकार से आलोक को कैसे उपलब्ध हों। प्राणों की एक ही मांग है कि हम असत्य से सत्य तक कैसे जा सकते है।
निश्चित ही सत्य की यात्रा के लिए, निश्चित ही स्वयं के भीतर परमात्मा की खोज के लिए, व्यक्ति को ऊर्जा का एक संग्रह चाहिए। कन्जर्वेशन चाहिए। व्यक्ति को शक्ति का एक संवर्धन चाहिए। उसके भीतर शक्ति इक्कठी हो कि वह शक्ति का एक स्त्रोत बन जाये, तभी व्यक्ति को स्वर्ग तक ले जाया जा सकता है।
स्वर्ग निर्बलों के लिए नहीं है। जीवन के सत्य उनके लिए नहीं है। जो दीन हीन हो गये है। शक्ति को खोकर जो जीवन की सारी शक्ति को खो देते है। और भीतर दुर्बल और दीन हो जाते है। वे यात्रा नहीं कर सकते। उस यात्रा पर चढ़ने के लिए उन पहाड़ों पर चढ़ने के लिए शक्ति चाहिए।
और शक्ति का संवर्धन धर्म का सूत्र है—शक्ति का संवर्धन, कंजरवेशन ऑफ ऐनजी। कैसे शक्ति इकट्ठी हो कि हम शक्ति के उबलते हुए भण्डार हो जायें?
लेकिन हम तो दीन-हीन जन है। सारी शक्ति खोकर हम धीरे-धीरे निर्बल होते चले जाते है। सब खो जाता है भीतर रिक्ति रह जाती है। खाली खालीपन के अतिरिक्तत और कुछ भी नहीं छूटता है।
हम शक्ति को कैसे खो देते है?
मनुष्य का शक्ति को खोने का सबसे बड़ा द्वार सेक्स हे। काम मनुष्य की शक्ति के खोने का सबसे बड़ा द्वार है। जहां से वह शक्ति को खोता है।
और जैसा मैंने कल आपसे कहा, कोई कारण है जिसकी वजह से वह शक्ति को खोता है। शक्ति करे कोई भी खोना नहीं चाहता है। कौन शक्ति को खोना चाहता है। लेकिन कुछ झलक है उपलब्धि की उस झलक के लिए आदमी शक्ति को खोने को राज़ी हो जाता है। काम के क्षणों में कुछ अनुभव है, उस अनुभव के लिए आदमी सब कुछ खोने को तैयार है। अगर वह अनुभव किसी और मार्ग से उपलब्ध हो सके तो मनुष्य सेक्स के माध्यमसे शक्ति को खोन को कभी तैयार नहीं होगा।
क्या और कोई द्वार हे, उस अनुभव को पाने का? क्या और कोई मार्ग है उस अनुभव को उपलब्ध करने का—जहां हम अपने प्राणों की गहरी-से गहराई में उतर सके। जहां हम जीवन की ऊर्जा का ऊंचे से ऊँचा शिखर छू सके। जहां पर हम जीवन की शांति और आनंद की झलक पाते है। क्या कोई और मार्ग है? क्या कोई और मार्ग है अपने भी तीर पहुंचने का। क्या स्वयं की शांति और आनंद के स्त्रोत तक पहुंच जाने की और कोई सीढ़ी है?
अगर वह सीढ़ी हमे दिखाई पड़ जाये तो जीवन में एक क्रांति घटित हो जाती है। आदमी काम के प्रति विमुख और राम के प्रति सम्मुख हो जाता है। एक क्रांति घटित हो जाती है। एक नया द्वार खुल जाता है।
मनुष्य की जाति को अगर हम नया द्वार न दे सकें तो मनुष्य एक रिपिटीटिव सर्किल में, एक पुनरूक्ति वाले चक्कर में घूमता है और नष्ट होता है। लेकिन आज तक सेक्स के संबंध में जो भी धारणाएं रही है, वह मनुष्य को सेक्स के अतिरिक्त नया द्वार खोलने में समर्थ नहीं बना पायी। बल्कि एक उल्टा उपद्रव हुआ। प्रकृति एक ही द्वार देती है। मनुष्य को वह सेक्स का द्वार है। अब तक की शिक्षाओं ने वह बंद भी कर दिया और नया द्वार खोला नहीं। शक्ति भीतर घूमने लगी और चक्कर काटने लगी। और अगर नया द्वार शक्ति के लिए न मिले तो घूमती हुई शक्ति को विक्षिप्त कर देती है। पागल कर देती है। और विक्षिप्त मनुष्य फिर न केवल उस द्वार से जो सेक्स का सहज द्वार था, निकलने की चेष्टा करता है। वह दीवालों और खिड़कियों को तोड़कर भी उसकी शक्ति बाहर बहने लगती है। वह अप्राकृतिक मार्गों से भी सेक्स की शक्ति बाहर बहने लगती है।
यह दुर्धटना घटी है। यह मनुष्य जाति के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है। नया द्वार नहीं खोला गया और पुराना द्वार बंद कर दिया गया। इसलिए मैं सेक्स के विरोध में; दुश्मनी के लिए, दमन के लिए अब तक जो भी शिक्षाऐं दी गयी है उन सके स्पष्ट विरोध में खड़ा हूं, उन सारी शिक्षाओं से मनुष्य की सेक्सुअलिटी बढ़ी है। कम नहीं हुई,बल्कि विकृत हुई है। क्या करें लेकिन, कोई और द्वार खोला जा सकता है।
मैंने आपसे कल कहा, संभोग के क्षण की जो प्रतीति हे वह प्रतीति दो बातों की है—टाइमलेसनेस और इगोलेसनेस की। समय शून्य हो जाता है। और अहंकार विलीन हो जाता है। समय शून्य होने से और अहंकार विलीन होने से हमें उसकी एक झलक मिलती है। जो हमारा वास्तविक जीवन है। लेकिन क्षण भर की झलक और हम वापस अपनी जगह खड़े हो जाते है। और एक बड़ी ऊर्जा एक बड़ी वैद्युतिक शक्ति का प्रवाह इसमें हम खो देते है। फिर झलक की याद ,स्मृति मन को पीड़ा देती रहती है। हम वापस उस अनुभव को पाना चाहते है। और वह झलक इतनी छोटी है कि एक क्षण में खो जाती है। ठीक से उसकी स्मृति भी नहीं रह जाती कि क्या थी झलक हमने क्या जाना था। बस एक धुन एक अर्ज एक पागल प्रतीक्षा रह जाती है। फिर उस अनुभव को पाने की। और जीवन भर आदमी इसी चेष्टा में संलग्न रहता है लेकिन उस झलक को एक क्षण से ज्यादा नहीं पाया जा सकता। वहीं झलक ध्यान के माध्यम से भी उपलब्ध होती है।
मनुष्य की चेतना तक पहुंचने के दो मार्ग है—काम और ध्यान सेक्स और मेडिटेशन।
सेक्स प्राकृतिक मार्ग है, जो प्रकृति ने दिया हुआ है। जानवरों को भी दिया हुआ है, पक्षियों को भी दिया हुआ है। पौधों को भी दिया हुआ है। मनुष्यों को भी दिया हुआ है। और जब तक मनुष्य केवल प्रकृति के दिए हुए द्वार का उपयोग करता है, तब तक वह पशुओं से ऊपर नहीं है। नहीं हो सकता। वह सारा द्वार तो पशुओं के लिए भी उपलब्ध है।
मनुष्यता का प्रारम्भ उस दिन से होता है। जिस दिन से मनुष्य सेक्स के अतिरिक्त एक नया द्वार खोलने मे समर्थ हो जाता है। उसके पहले हम मनुष्य नहीं है। नाम मात्र को मनुष्य है। उसके पहले हमारे जीवन का केंद्र पशु कास केंद्र है। प्रकृति का केंद्र है। जब तक हम उसके ऊपर उठ नहीं पाएँ उसे ट्रांसेंड नहीं कर पाएँ, उसका अतिक्रमण नहीं कर पाएँ, तब तक हम पशुओं की भांति ही जीते है।
हमने कपड़े मनुष्य के पहन रखे है। हम भाषा मनुष्यों की बोलते है, हमने सारा रूप मनुष्यों का पैदा कर रखा है; लेकिन भीतर गहने से गहरे मन के तल पर हम पशुओं से ज्यादा नहीं होते। नहीं हो सकते। और इस लिए जरा सा मौका मिलते ही हम पशु की तरह व्यवहार करने लग जाते है।
हिन्दुस्तान पाकिस्तान का बंटवारा हुआ और हमें दिखायी पड़ गया कि आदमी के कपड़ों के भीतर जानवर बैठा हुआ है। हमें दिखायी पड गया कि वे लोग जो कल मसजिदों में प्रार्थना करते थे और मंदिर में गीता पढ़ते थे वे क्या कर रहे है? वे हत्याएँ कर रहे है, वे बलात्कार कर रहे है। वे ही लोग जो मंदिरों और मसजिदों में दिखाई पड़ रहे थे, वे ही लोग बलात्कार करते हुए दिखायी पड़ने लगे। क्या हो गया इनको।
अभी दंगा फसाद हो जाये, अभी यह दंगा हो जाये, और यहीं आदमी को दंगे में मौका मिल जायेगा अपनी आदमियत का छुटटी लेने का। और फौरन वह भीतर छुपा हुआ पशु के वह प्रकट हो जायेगा। वह हमेशा तैयार है, वह प्रतीक्षा कर रहा हे कि मुझे मौका मिल जाये। भीड़ भाड़ में उसे मौका मिल जाता हे, तो वह जल्दी से छोड़ देता है अपना ख्याल। वह जो बाँध-बूंध कर उसने रखा हुआ है अपने को। भीड़ में मौका मिल जाता है। उसे भूल जाने का कि मैं भूल जाउं अपने को।
इसलिए आज तक अकेले आदमियों ने उतने पाप नहीं किये है, जितने भीड़ में आदमियों ने किये हे। अकेला आदमी थोड़ा डरता है। कि कोई देख लेगा। अकेला आदमी थोड़ा सोचता है। कि मैं ये सब क्या कर रहा हूं। अकेले आदमी को अपने कपड़ों की थोड़ी फिक्र होती है। लोग क्या कहेंगे। जानवर हो।
लेकिन जब बड़ी भीड़ होती है तो अकेला आदमी कहता है कि अब कौन देखता है—अब कौन पहचानता है। वह भीड़ के साथ एक हो जाता है। उसकी आइडेन्टिटी मिट जाती है। अब वह फलां नाम का आदमी नहीं है, अब वह भीड़ है। और बड़ी भीड़ जो करती है वह भी करता है। और क्या करता हे? आग लगाता है। बलात्कार करता है। भीड़ मे उसे मौका मिल जाता है। कि वह आपने पशु को वह फिर से छुटटी दे दें। जो उसके भीतर छिपा है।
और इसलिए आदमी दस-पाँच वर्षों में युद्ध की प्रतीक्षा करने लगता है, दंगों की प्रतीक्षा करने लगता है। और हिन्दू-मुसलमान का बहाना मिल जाये तो हिन्दू-मुसलमान सही। अगर हिन्दू-मुसलमान का न मिले तो गुजराती-मराठी भी काम करेगा। अगर गुजराती-मराठी न सही तो हिन्दी बोलने वाला और गेर हिन्दी बोलने वाला भी चलेगा।
कोई भी बहाना चाहिए आदमी को, उसके भीतर के पशु को छुटटी चाहिए। वह घबरा जाता है। पशु भीतर बंद रहते-रहते। वह कहता है, मुझे प्रकट होने दो। और आदमी के भीतर का पशु तब तक नहीं मिटता है, जब तक पशुता का जो सहज मार्ग हे, उसके उपर मनुष्य की चेतना न उठे। पशुता का सहज मार्ग—हमारी उर्जा हमारी शक्ति का एक ही द्वार है बहने का—वह है सेक्स। और वह द्वार बंद कर दें तो कठिनाई खड़ी हो जाती है। उस द्वार को बंद करने के पहले नये ,द्वार का उदघाटन होना जरूरी है—जीवन चेतना नयी दिशा में प्रवाहित हो सके।
लेकिन यह हो सकता है। यह आज तक किया नहीं गया। नहीं किया गया। क्योंकि दमन सरल मालूम पड़ता हे। दबा देना किसी बात को आसान है। बदलना, बदलने कि विधि और साधना की जरूरत है। इसलिए हमने सरल मार्ग का उपयोग किया कि दबा दो अपने भीतर।
लेकिन हम यह भूल गये कि दबाने से कोई चीज नष्ट नहीं होती है, दबाने से और बलशाली हो जाती है। और हम यह भूल गये कि दबाने से हमारा आकर्षण और गहरा होता है। जिसे हम दबाते है वह हमारी चेतना की और गहरी पर्तों में प्रविष्ट हो जाता है। हम उसे दिन में दबा लेते है, वह सपने में हमारी आंखों में झुलने लगता है। हम उसे रोजमर्रा दबा लेते है वह हमारे भी प्रतीक्षा करता है कि कब मौका मिल जाये,कब मैं फूट पडूं, निकल पडूं। जिसे हम दबाते है उससे हम मुक्त नहीं होते। हम और गहरे अर्थों में, और गहराइयों में, और अचेतन में और अनकांशस तक उसकी जड़ें पहुंच जाती है। और वह हमें जकड़ लेता है।
आदमी सेक्स को दबाने के कारण ही बंध गया और जकड़ गया। और यही वजह है कि पशुओं की तो सेक्स की कोई अवधि होती है। कोई पीरियड होता है। वर्ष में; आदमी की कोई अवधि न रही। कोई पीरियड न रहा। आदमी चौबीस घंटे बाहर महीने सेक्सुअल है। सारे जानवरों में कोई जानवर ऐसा नहीं है। जो बारह महीने, चौबीस घंटे कामुकता से भरा हुआ हो। उसका वक्त है, उसकी ऋतु है; वह आती है और चली जाती है। और फिर उसका स्मरण भी खो देता है।
आदमी को क्या हो गया है? आदमी ने दबाया जिस चीज को वह फैल कर उसके चौबीस घंटे बारह महीने के जीवन पर फैल गई है।
कभी आपने इस पर विचार क्या कि कोई पशु हर स्थिति में हर समय कामुक नहीं होता। लेकिन आदमी हर वक्त हर स्थिति में हर समय कामुक है—जो कामुकता उबल रही है। जैसे कामुकता ही सब कुछ हो। वह कैसे हो गया? यह कैसे हो गया?यह दुर्घटना कैसे संभव हुई है? पृथ्वी पर सिर्फ मनुष्य के साथ हुआ है, और किसी जानवर के साथ नहीं—क्यों?
एक ही कारण है सिर्फ आदमी ने दबाने की कोशिश की है। और जिसे दबाया, वह जहर की तरह सब तरफ फैल गई। और दबाने के लिए हमें क्या करना पड़ा? दबाने के लिए हमें निंदा करनी पड़ी,दबाने के लिए हमें कहना पडा की सेक्स नरक है। हमें कहना पडा जो सेक्स में है वह गर्हित है, निंदित है। हमें ये सारी गालियां खोजनी पड़ी, तभी हम दबाने में सफल हो सके। और हमें ख्याल भी नहीं कि इन निंदा ओर गलियों के कारण हमारा सारा जीवन जहर से भर गया है।
नीत्से ने एक वचन कहा है, जो बहुत अर्थपूर्ण है। उसने कहा है कि धर्मों ने जहर खिलाकर सेक्स को मार डालने की कोशिश की है। सेक्स मरा तो नहीं, सिर्फ जहरीला और निंदित हो गया है। मर भी जाता तो ठीक था। वह मरा नहीं। लेकिन ओर गड़बड़ हो गयी बात। वह जहरीला होकर जिंदा है। यह जो सेक्सुअलिटी है, यह जहरीला सेक्स है।
सेक्स तो पशुओं भी है, काम तो पशुओं में भी है। क्योंकि काम जीवन की ऊर्जा है। लेकिन सेक्सुअलिटी, कामुकता सिर्फ मनुष्य में है। कामुकता पशुओं में नहीं है। पशुओं की आंखों में देखें, वहां कामुकता दिखाई नहीं पड़ेगी। आदमी की आंखों में झांके, वहां एक कामुकता का रस झलकता हुआ दिखायी पड़ेगा। इसलिए पशु आज भी एक तरह से सुन्दर है। लेकिन दमन करने वाले पागलों की कोई सीमा नहीं है कि वे कहां तक बढ़ जायेंगे।
मैंने कल आपको कहा था कि अगर हमें दुनिया को सेक्स से मुक्त करना है, तो बच्चे और बच्ची यों को एक दूसरे के निकट लाना होगा। इसके पहले कि उनमें सेक्स जागे। चौदह साल के पहले वे एक दूसरे के शरीर से इतने स्पष्ट रूप से परिचित हो लें कि वह आकांशा विलीन हो जाये।
लेकिन अमरीका में अभी-अभी एक नया आंदोलन चला है। और वह नया आंदोलन वहां के बहुत धार्मिक लोग चला रहे है। शायद आपको पता हो। वह नया आंदोलन बड़ा अद्भत है। वह आंदोलन यह है कि सड़कों पर गाय, भेस, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली को बिना कपड़ों के न निकाला जाये। उनको भी कपड़े पहने चाहिए। क्योंकि नंगे पशुओं को देख कर बच्चें बिगड़ सकते है। यह बड़े मजे कि बात है। नंगे पशुओं को देख कर बच्चें बिगड़ सकते है। अमरीका के कुछ नीति शास्त्री इसके बाबत आंदोलन और संगठन ओर संस्थाएं बना रहे है। आदमी को बचाने की इतनी कोशिश चल रही है। और कोशिश बचाने की जो करने वाले लोग है, वे ही आदमी को नष्ट कर रहे है।
लेकिन वह जो भयभीत लोग है, वे जो डरे हुए लोग है। वे भय और डर के कारण सब कुछ कर रहे है आज तक। और उनके सब करने से आदमी रोज नीचे उतरता जा रहा है। जरूरत तो यह है कि आदमी भी कसी दिन इतना सरल हो कि नग्न खड़ा हो सके—निर्दोष और आनंद से भरा हुआ।
जरूरत तो यह है कि—जैसे महावीर जैसा व्यक्ति नग्न खड़ा हो गया। लोग कहते है कि उन्होंने कपड़े छोड़े कपड़ों का त्याग किया। मैं कहता हूं, न कपड़े छोड़े न कपड़ों का त्याग किया। चित इतना निर्दोष हो गया होगा। इतना इनोसेंस, जैसे एक छोटे बच्चे का, तो वे नग्न खड़े हो गये होंगे। क्योंकि ढांकने को जब कुछ भी नहीं रह जाता तो आदमी नग्न हो सकता है।
जब तक ढाँकने को कुछ है हमारे भीतर,तब तक आदमी आपने को छिपायेंगा। जब ढांकने को कुछ भी नहीं है, तो नग्न हो सकता है।
चाहिए तो एक ऐसी पृथ्वी कि आदमी भी इतना सरल होगा कि नग्न होने में भी उसे कोई पश्चाताप कोई पीड़ा न होगी। नग्न होने में उसे कोई अपराध न होगा। आज तो हम कपड़े पहन कार भी अपराधी मालूम होते है। हम कपड़े पहनकर भी नंगे है। और ऐसे लोग भी रहे है। जो नग्न होकर भी नग्न नहीं थे।
नंगापन मन की एक वृति है।
सरलता, निर्दोष चित—फिर नग्नता भी सार्थक हो जाती है। अर्थ पूर्ण हो जाती है। वह भी एक सौंदर्य ले लेती है।
लेकिन अब तक आदमी को जहर पिलाया गया है। और जहर का परिणाम यह हुआ है कि हमारा सारा जीवन एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक विषाक्त हो गया है।
स्त्रीयों को हम कहते है, पति को परमात्मा समझना। और उन स्त्रियों को बचपन से सिखाया गया है कि सेक्स पाप है। वे कल विवाहित होंगी। वे उस पति को कैसे परमात्मा मान सकेंगी, जो उन्हें सेक्स में और नरक में ले जा रहा है। एक तरफ हम सिखाते है पति परमात्मा है और पत्नी का अनुभव कहता है कि यह पहला पापी है जो मुझे नरक में घसीट रहा है।
एक बहिन ने मुझे आकर कहा, पिछली मीटिंग में जब मैं बोला, भारतीय विद्या भवन में तो एक बहन मेरे पास उसी दिन आयी और उसने कहा कि मैं......मैं बहुत गुस्से में हूं? मैं बहुत क्रोध में हूं। सेक्स तो बड़ी घृणित चीज है। सेक्स तो पाप है। और आपने सेक्स की इतनी बातें क्यों कि। मैं तो घृणा करती हूं सेक्स से।
अब यह पत्नी है इसका पति है, इसके बच्चें है। बच्चियां है। और यह पत्नी सेक्स से घृणा करती है। यह पति को कैसे प्रेम कर सकेगी। जो इसे सेक्स में लिए जा रहा है। यह उन बच्चों को कैसे प्रेम कर सकेगी। जो सेक्स से पैदा हुए है। इसका प्रेम जहरीला हो गया है। इसके प्रेम में जहर छिपा है। पति और उसके बीच एक बुनियादी दीवाल खड़ी हो गई है। बच्चों और इसके बीच एक बुनियादी दिवाल खड़ी हो गई है क्योंकि वे सेक्स से पैदा हुए हे। ये बच्चें पाप से आये है। क्योंकि यह सेक्स की दीवाल और सेक्स की कंडेमनेशन की वृति बीच में खड़ी है। यह पति और मेरे बीच पाप का संबंध है, और जिनके साथ पाप को संबंध हो, उसके प्रति मैत्रीपूर्ण कैसे हो सकते है? पाप के प्रति हम मैत्री पूर्ण हो सकते है।
सारी दुनियां का गृहस्थ जीवन नष्ट किया है, सेक्स को गाली देने वाले,निंदा करने वाले लोगों ने। और वे इसे नष्ट करके जो दुष् परिणाम लाये है वह यह नहीं है कि सेक्स से लोग मुक्त हो गये है। जो पति अपनी पत्नी और अपने बीच एक दीवाल पाता है। पाप की, वह पत्नी से कभी भी तृप्ति अनुभव नहीं कर पाता। तो आसपास की स्त्रियों को खोजता है, वेश्याओं को खोजता है। अगर पत्नी से उसे तृप्ति मिल गयी होती तो शायद इस जगत की सारी स्त्रीयां उसके लिए मां और बहन हो जातीं। लेकिन पत्नी से भी तृप्ति न मिलने के कारण सारी स्त्रीयां उसे पोटेंशियलिटी औरतों की तरह पोटेंशियल पत्निओं की तरह मालूम पड़ती है। जिनको पत्नी में बदला जा सकता है।
यह स्वाभाविक है यह होने वाला था। यह होने वाला था, क्योंकि जहां तृप्ति मिल सकती थी। वहां जहर है। वहां पाप है। और तृप्ति नहीं मिलती। और चह चारों तरफ भटकता है और खोजता है। और क्या-क्या ईजादें करता है खोजकर आदमी। अगर इन सारी ईजादों को हम सोचने बैठे तो घबरा जायेंगे कि आदमी ने क्या-क्या ईजादें की है। लेकिन एक बुनियादी बात पर खयाल नहीं किया कि वह जो प्रेम का कुआं था, वह जो काम का कुआं का, वह जहरीला हो गया है।
और जब पत्नी और पति के बीच जहर का भाव हो, घबराहट का भाव हो, पाप का भाव हो तो फिर यह पाप की भावना रूपांतरण नहीं करने देगी। अन्यथा मेरी समझ यह है कि एक पति और पत्नी अगर एक दूसरे के प्रति समझ पूर्वक प्रेम से भरे हुए आनंद से भरे हुए और सेक्स के प्रति बिना निंदा के सेक्स को समझने की चेष्टा करेंगे तो आज नहीं कल, उनके बीच का संबंध रूपांतरित हो जाने वाला है। यह हो सकता है कि कल वहीं पत्नी मां जैसी दिखाई पड़ने लगे।
गांधी जी 1930 के करीब श्री लंका गये थे। उनके साथ कस्तूरबा साथ थी। संयोजकों ने समझा कि शायद गांधी की मां साथ आयी हुई है। क्योंकि गाँधीजी कस्तूरबा को खुद भी बा ही कहते थे। लोगों ने समझा शायद उनकी मां होगी। संयोजकों ने परिचय देते हुए कहा कि गांधी जी आये है और बड़ सौभाग्य की बात है कि उनकी मां भी साथ आयी हुई है। वह उनके बगल में बैठी है। गांधी जी के सैक्रेटरी तो घबरा गये कि यह तो भूल हमारी है, हमें बताना था कि साथ में कौन है। लेकिन अब तो बड़ी देर हो चुकी थी। गांधी तो मंच पर जाकर बैठ भी गये थे और बोलना शुरू कर दिया था। सैक्रेटरी घबराये हुए है कि गांधी पीछे क्या कहेंगे। उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि गांधी नाराज नहीं होंगे, क्योंकि ऐसे पुरूष बहुत कम है, जो पत्नी को मां बनाने में समर्थ हो जाते है।
लेकिन गांधी जी ने कहां, की सौभाग्य की बात है, जिन मित्र ने मेरा परिचय दिया है। उन्होंने भूल से एक सच्ची बात कह दी। कस्तूरबा कुछ वर्षों से मेरी मां हो गयी है। कभी वह मेरी पत्नी थी। लेकिन अब वह मेरी मां है।
इस बात की संभावना है कि अगर पत्नी और पति काम को, संभोग को समझने की चेष्टा करे तो एक दूसरे के मित्र बन सकते है और दूसरे के काम के रूपांतरण में सहयोगी और साथी हो सकते है।
और जिस दिन पति और पत्नी अपने आपस के संभोग के संबंध को रूपांतरित करने में सफल हो जाते है उस दिन उनके जीवन में पहली दफा एक दूसरे के प्रति अनुग्रह और ग्रेटीट्यूड का भाव पैदा होता हे, उसके पहले नहीं। उसके पहले वे एक दूसरे के प्रति क्रोध से भरे रहते है, उसके पहले वे एक दूसरे के बुनियादी शत्रु बने रहते है। उसके पहले उनके बीच एक संघर्ष हे, मैत्री नहीं।
मैत्री उस दिन शुरू होती है। जिस दिन वे एक दूसरे के साथी बनते है और उनके काम की ऊर्जा को रूपांतरण करने में माध्यम बन जाते है। उस दिन एक अनुग्रह एक ग्रेटीट्यूड, एक कृतज्ञता का भाव ज्ञापन होता है। उस दिन पुरूष आदर से भरता है। स्त्री के प्रति क्योंकि स्त्री ने उसे काम-वासना से मुक्त होने में सहयोग पहुंचायी है। उस दीन स्त्री अनुगृहित होती है पुरूष के प्रति कि उसने उसे साथ दिया और वासना से मुक्ति दिलवायी। उस दिन वे सच्ची मैत्री में बँधते है, जो काम की नहीं प्रेम की मैत्री है। उस दिन उनका जीवन ठीक उस दिशा में जाता है, जहां पत्नी के लिए पति परमात्मा हो जाता है। और पति के लिए पत्नी परमात्मा हो जाती है।
लेकिन वह कुआं तो विषाक्त कर दिया है, इसी लिए मैंने कल कहा कि मुझसे बड़ा शत्रु सेक्स का खोजना कठिन हे। लेकिन मेरी शत्रुता का यह मतलब नहीं है कि मैं सेक्स को गाली दूँ और निंदा करूं। मेरी शत्रुता का मतलब यह है कि मैं सेक्स को रूपांतरित करने के संबंध में दिशा-सूचन करूं। मैं आपको कहूं कि वह कैसे रूपांतरित हो सकता है। मैं कोयले का दुश्मन हूं,क्योंकि मैं कोयले को हीरा बनाना चाहता हूं। मैं सेक्स को रूपांतरित करना चाहता हूं। वह कैसे रूपांतरित होगा, उसकी क्या विधि होगी?
मैंने आपसे कहा, एक द्वार खोलना जरूरी है—नया द्वार। बच्चे जैसे ही पैदा होते है,वैसे ही उनके जीवन में सेक्स का आगमन नही हो जाता। अभी देर है। अभी शरीर शक्ति इकट्ठी कर रहा है। अभी शरीर के अणु मजबूत होंगे। अभी उस दिन की प्रतीक्षा है। जब शरीर पूरी तरह से तैयार हो जायेगा। ऊर्जा इकट्ठी होगी द्वार जो बंद रहा है। 14 वर्षो तक वह खुल जायेगा उर्जा के धक्के से, और सेक्स की दुनिया शुरू हो जायेगी। एक बार द्वार खुल जाने के बाद नया द्वार खोलना मुश्किल हो जायेगा। क्योंकि समस्त उर्जा का नियम यही है। समस्त शक्ति का वह एक दफा अपना मार्ग खोज ले बहने के लिए तो वह उसी मार्ग से बहना पसन्द करती है।
गंगा बह रही है सागर की ओर, उसने एक बार रास्ता खोज लिया। अब वह उसी रास्ते से बही चली जाती है। बही चली जाती है। रोज-रोज नया पानी आता है। उसी रास्ते से बहता हुआ चला जाता है। गंगा रोज नया रास्ता नहीं खोजती है।
जीवन की ऊर्जा भी एक रास्ता खोज लेती है। अब वह उसी रास्ते से बही चली जाती है। अगर जीवन को कामुकता से मुक्त करना हे, तो सेक्स का रास्ता खुलने से पहले नया रास्ता, ध्यान का रास्ता तोड़ देना जरूरी है। एक-एक बच्चे को ध्यान की अनिवार्य शिक्षा और दीक्षा मिलनी चाहिए।
पर हम उसे सेक्स के विरोध की दीक्षा देते है, जो कि अत्यंत मूर्खतापूर्ण है। सेक्स के विरोध की दीक्षा नहीं देनी है। शिक्षा देनी है ध्यान की, पाजीटिव कि वह ध्यान के लिए कैसे उपलब्ध हो। और बच्चे ध्यान को जल्दी उपलब्ध हो सकते है। क्योंकि अभी उनकी ऊर्जा का कोई भी द्वार खुला नहीं है। अभी द्वार बंद है, अभी ऊर्जा संरक्षित है, अभी कहीं भी नये द्वार पर धक्के दिये जो सकते है, और नया द्वार खोला जो सकता है। फिर ये ही बूढ़े, हो जायेंगे और इन्हें ध्यान में पहुंचना, अत्यंत कठिन हो जायेगा।
ऐसे ही, जैसे एक नया पौधा पैदा होता है, उसकी शाखाएं कहीं भी झुक जाती है। कहीं भी झुकायी जा सकती है। फिर वही बूढ़ा वृक्ष हो जाता है। फिर हम उसकी शाखाओं को झुकाने की कोशिश करते है, तो फिर शाखाएं टूट जाती है, झुकती नहीं।
बूढ़े लोग ध्यान की चेष्टा करते है दुनिया में, जो बिलकुल ही गलत है। ध्यान की सारी चेष्टा बच्चों पर की जानी चाहिए। लेकिन मरने के करीब पहुंच कर आदमी ध्यान में उत्सुक होता है। वह पूछता है ध्यान क्या, योग क्या,हम कैसे शांत हो जायें। जब जीवन की सारी ऊर्जा खो गयी, जब जीवन के सब रास्ते सख्त और मजबूत हो गये। जब झुकना और बदलना मुश्किल हो गया, तब वह पूछता है कि अब मैं कैसे बदल जाऊँ। एक पैर आदमी कब्र में डाल लेता है, और दूसरा पैर बहार रख कर पूछता है। ध्यान का कोई रास्ता है?
अजीब सी बात है। बिलकुल पागलपन की बात है। यह पृथ्वी कभी भी शांत और ध्यानस्थ नहीं हो सकती। जब तक ध्यान का संबंध पहले दिन के पैदा हुए बच्चे से हम न जोड़ेंगे अंतिम दिन के वृद्ध से नहीं जोड़ा जा सकता। व्यर्थ ही हमें बहुत श्रम उठाना पड़ता है बाद के दिनों में शांत होने के लिए, जो कि पहले एकदम हो सकता था।
छोटे बच्चे को ध्यान की दीक्षा काम के रूपांतरण का पहला चरण है—शांत होने की दीक्षा, निर्विचार होने की दीक्षा मौन होने की दीक्षा।
बच्चे ऐसे भी मौन है, बच्चे ऐसे ही शांत है, अगर उन्हें थोड़ी सी दिशा दी जाये और उन्हें मौन और शांत होने के लिए घड़ी भर की भी शिक्षा दी जाये तो जब वे 14 वर्ष के होने के करीब आयेंगे। जब काम जगेगा, जब तक उनका एक द्वार खुल चुका होगा। शक्ति इकट्ठी होगी और जो द्वार से बहनी शुरू हो जायेगी। वह अनुभव उनकी ऊर्जा को गलत मार्गों से रोकेगा और ठीक मार्गों पर ले आयेगा।
लेकिन हम छोटे-छोटे बच्चों को ध्यान तो नहीं सिखाते, काम का विरोध सिखाते है। पाप है गंदगी है। कुरूपता है, बुराई है, नरक है—यह सब हम बता रहे है। और इस सबके बताने से कुछ भी फर्क नहीं पड़ता—कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। बल्कि हमारे बताने से वे और भी आकर्षित होते है और तलाश करते है कि क्या है यह गंदगी, क्या है नरक, जिसके लिए बड़े इतने भयभीत और बेचैन होते है।
और फिर थोड़े ही दिनों में उन्हें यह भी पता चल जाता है कि बड़े जिस बात से हमें रोकने की कोशिश कर रहे है। खुद दिन रात उसी में लीन रहते है। और जिस दिन उन्हें यह पता चल जाता है, मां बाप के प्रति सारी श्रद्धा समाप्त हो जाती है।
मां-बाप के प्रति श्रद्धा समाप्त करने में शिक्षा का हाथ नहीं है। मां-बाप के प्रति श्रद्धा समाप्त करने में मां बाप का अपना हाथ है।
आप जिन बातों के लिए बच्चों को गंदा कहते है। बच्चे बहुत जल्दी पता लगा लेते है कि उन सारी गंदगियों में आप भली भांति लवलीन हे। आपकी दिन की जिंदगी दूसरी और रात की दूसरी। आप कहते है कुछ और करते है कुछ।
छोटे बच्चे बहुत एक्यूट आब्जर्वर होते है। वे बहुत गौर से निरीक्षण करते रहते है। कि क्या हो रहा है। घर में वे देखते है कि मां जिस बात को गंदा कहती है, बाप जिस बात को गंदा कहता है। वही गंदी बात दिन रात घर में चल रही है। इसकी उन्हें बहुत जल्दी बोध हो जाता है। उनकी सारी श्रद्धा का भाव विलीन हो जाता है। कि धोखेबाज है ये मां-बाप। पाखंडी है। हिपोक्रेट है। ये बातें कुछ और कहते है, करते कुछ और है।
और जिन बच्चों का मां-बाप पर से विश्र्वास उठ गया। वे बच्चे परमात्मा पर कभी विश्वास नहीं कर सकेंगे। इसको याद रखना। क्योंकि बच्चों के लिए परमात्मा का पहला दर्शन मां-बाप में होता है। अगर वहीं खंडित हो गया तो। ये बच्चे भविष्य में नास्तिक हो जाने वाले है। बच्चों को पहले परमात्मा की प्रतीति अपने मां-बाप की पवित्रता से होती है। पहली दफा बच्चे मां-बाप को ही जानते है। निकटतम और उनसे ही उन्हें पहली दफा श्रद्धा और रिवरेंस का भाव पैदा होता है। अगर वही खंडित हो गया तो इन बच्चों को मरते दम तक वापस परमात्मा के रास्ते पर लाना मुश्किल हो जायेगा। क्योंकि पहला परमात्मा ही धोखा दे गया। जो मां थी, जो बाप था, वहीं धोखे बाज सिद्ध हुआ।
आज सारी दुनिया में जो लड़के यह कह रहे है कि कोई परमात्मा नहीं है, कोई आत्मा नहीं है। कोई मोक्ष नहीं है। धर्म सब बकवास है। उसका कारण यह नहीं है कि लड़कों ने पता लगा लिया है कि आत्मा नहीं है। परमात्मा नहीं है। उसका कारण यह है कि लड़कों ने मां-बाप का पता लगा लिया है। कि वे धोखेबाज है। और यह सार धोखा सेक्स के आस पास केंद्रित है। और यह सारा धोखा केंद्र पर खड़ा है।
बच्चों को यह सिखाने की जरूरत नहीं है कि सेक्स पाप है, बल्कि ईमानदारी से यह सिखाने की जरूरत है कि सेक्स जिंदगी का एक हिस्सा है और तुम सेक्स से ही पैदा हुए हो, और वह हमारी जिंदगी में है, ताकि बच्चे सरलता से मां बाप को समझ सकें और जब जीवन को वह जानेंगे तो आदर से भर सकें कि मां-बाप सच्चे और ईमानदार है। उनको जीवन में आस्तिक बनाने में इससे बड़ा संबल और कुछ भी नहीं है। वे अपने मां बाप को सच्चे और ईमानदार अनुभव कर सकते है।
लेकिन आज सब बच्चे जानते है कि मां-बाप बेईमान और धोखेबाज हे। यह बच्चे और मां बाप के बीच एक कलह का एक कारण बनता है। सेक्स का दमन पति ओर पत्नी को तोड़ दिया है। मां-बाप और बच्चों को तोड़ दिया है।
नहीं, सेक्स का विरोध नहीं, निंदा नहीं, बल्कि सेक्स की शिक्षा दी जानी चाहिए।
जैसे ही बच्चे पूछने को तैयार हो जायें, जो भी जरूरी मालूम पड़े,जो उनकी समझ के योग्य मालूम पड़े, वह सब उन्हें बता दिया जाना चाहिए। ताकि वे सेक्स के संबंध में अति उत्सुक न हों। ताकि उनका आकर्षण न पैदा हो, ताकि वे दीवाने होकर गलत रास्तों से जानकारी पाने की कोशिश न करें।
आज बच्चे सब जानकारी पा लेते है, यहाँ-वहां से। गलत मार्गों से, गलत लोगों से उन्हें जानकारी मिलती है। जो जीवन भर उन्हें पीड़ा देती है। और मां-बाप और उनके बीच एक मौन की दीवार होती है—जैसे मां-बाप को कुछ भी पता नहीं और बच्चों को भी पता नहीं है। उन्हें सेक्स की सम्यक शिक्षा मिलनी चाहिए—राइट एजुकेशन।
और दूसरी बात, उन्हें ध्यान की दीक्षा मिलनी चाहिए। कैसे मौन हों, कैसे शांत हों, कैसे निर्विचार हों। और बच्चे तत्क्षण निर्विचार हो सकते है। मौन हो सकते है। शांत हो सकते है। चौबीस घंटे में एक घंटा अगर बच्चों को घर में मौन में ले जाने की व्यवस्था हो। निश्चित ही वह मौन में तभी जा सकेंगे,जब आप भी उनके साथ मौन बैठ सकें। हर घर में एक घंटा मौन का अनिवार्य होना चाहिए। एक दिन खाना न मिले घर में तो चल सकता है। लेकिन एक घंटा मौन के बिना घर नहीं चलना चाहिए।
वह घर झूठा हे। उस घर को परिवार कहना गलत है, जिस परिवार में एक घंटे के मौन की दीक्षा नहीं है। वह एक घंटे का मौन चौदह वर्षों में उस दरवाजे को तोड़ देगा। रोज धक्के मारेगा। उस दरवाजे को तोड़ देगा। जिसका नाम ध्यान है। जिस ध्यान से मनुष्य को समय हीन, टाइमलेसनेस इगोलेसनेस, अहंकार-शुन्य का अनुभव होता है। जहां से आत्मा की झलक मिलती है। वह झलक सेक्स के अनुभव के पहले मिल जानी जरूरी है। अगर वह झलक मिल जाए तो सेक्स के प्रति अतिशय दौड़ समाप्त हो जायेगी। उर्जा इस नये मार्ग से बहने लगेगी। यह मैं पहला चरण कहता हूं।
ब्रह्मचर्य की साधना में, सेक्स के ऊपर उठने की साधना में सेक्स की उर्जा के ट्रांसफॉर्मेशन के लिए पहला चरण है ध्यान और दूसरा चरण है प्रेम।
बच्चों को बचपन से ही प्रेम की दीक्षा दि जानी चाहिए।
हम अब तक यही सोचते है कि प्रेम की शिक्षा मनुष्य को सेक्स में ले जायेगी। यह बात अत्यंत भ्रांत हे। सेक्स की शिक्षा तो मनुष्य को प्रेम में ले जा सकती है। लेकिन प्रेम की शिक्षा कभी किसी मनुष्य को सेक्स में नहीं ले जाती। बल्कि सच्चाई बिलकुल उल्टी है।
जो लोग जितने कम प्रेम से भरे होते है, उतने ही ज्यादा कामुक होते है।
जिसके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ज्यादा धृणा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतना ही विद्वेष होगा।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही ईर्ष्या होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही प्रतिस्पर्धा होगी।
जिनके जीवन में जितना कम प्रेम है, उनके जीवन में उतनी ही दुःख और चिंता होगी।
दुःख, चिंता, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष इन सबसे जो आदमी जितना ज्यादा घिरा है, उसकी शक्तियां सारी की सारी भीतर इकट्ठा हो जाती है। उनके निकास का कोई मार्ग नहीं रह जाता है। उनके निकास का एक ही मार्ग रह जाता है—वह सेक्स हे।
प्रेम शक्तियों का निकास बनता है। प्रेम बहाव है। क्रिएशन—सृजनात्मक है प्रेम। इसीलिए वह बहता है और एक तृप्ति लाता है। वह तृप्ति सेक्स की तृप्ति से बहुत ज्यादा कीमती और गहरी है। जिसे वह तृप्ति मिल गयी, वह फिर कंकड़-पत्थर नहीं बीनता। जिसे हीरे जवाहरात मिलने शुरू हो जाते है।
लेकिन घृणा से भरे आदमी को वह तृप्ति कभी नहीं मिलती। घृणा में वह तोड़ देता है चीजों को। लेकिन तोड़ने से कभी किसी आदमी को कोई तृप्ति नहीं मिलती। तृप्ति मिलती है निर्माण करने से।
द्वेष से भरा आदमी संघर्ष करता है। लेकिन संघर्ष से कोई तृप्ति नहीं मिलती तृप्ति मिलती है, दान से , देने से। छीन लेने से नहीं। संघर्ष करने वाला छीन लेता है। छीनने से वह तृप्ति कभी नहीं मिलती जो किसी को देने से और दान से उपलब्ध होती है।
महत्व कांक्षी आदमी एक पद से दूसरे पद की यात्रा करता रहता है। लेकिन कभी भी शांत नहीं हो पाता। शांत वे होते है जो पदों की यात्रा नहीं करते,बल्कि प्रेम की यात्रा करते है। जो प्रेम के एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ की यात्रा करते है।
जितना आदमी प्रेम पूर्ण होता है। उतनी तृप्ति, एक कंटेंटमेंट, एक गहरा संतोष,एक गहरा आनंद का भाव, एक उपलब्धि का भाव, उसके प्राणों के रग-रग में बहने लगाता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है। जो तृप्ति का रस है, वैसा तृप्त आदमी सेक्स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने के लिए रोकने के लिए चेष्टा नहीं करनी पड़ती। वह जाता ही नहीं,क्योंकि वह तृप्ति, जो क्षण भर को सेक्स से मिलती थी,प्रेम से यह तृप्ति चौबीस घंटे को मिल जाती है।
तो दूसरी दिशा है, कि व्यक्तित्व का अधिकतम विकास प्रेम के मार्गों पर होना चाहिए। हम प्रेम करें, हम प्रेम दें, हम प्रेम में जियें।
और जरूरी नहीं है कि हम प्रेम मनुष्य को ही देंगे, तभी प्रेम की दीक्षा होगी। प्रेम की दीक्षा तो पूरे व्यक्तित्व के प्रेमपूर्ण होने की दीक्षा है। वह तो ‘टू बी लिविंग’होने की दीक्षा है।
एक पत्थर को भी हम उठाये तो हम ऐसे उठा सकते है। जैसे मित्र को उठा रहे है। और एक आदमी का हाथ भी हम पकड सकते है, जैसे शत्रु का पकड़े हुए है। एक आदमी वस्तुओं के साथ भी प्रेमपूर्ण व्यवहार कर सकता है। एक आदमी आदमियों के साथ भी ऐसा व्यवहार करता है, जैसा वस्तुओं के साथ भी नहीं करना चाहिए। घृणा से भरा हुआ आदमी वस्तुएं समझता है मनुष्य को। प्रेम से भरा हुआ आदमी वस्तुओं को भी व्यक्तित्व देता है।
एक फकीर से मिलने एक जर्मन यात्री गया हुआ था। उस फकीर से जाकर नमस्कार किया। उसने दरवाजे पर जोर से जूते खोल दिये, जूतों को पटका, धक्का दिया जोर से दरवाजे को।
क्रोध में आदमी जूते भी खोलता है तो ऐसे जैसे जूते दुश्मन हो। दरवाजे भी खोलता है तो ऐसे दरवाजे से कोई झगड़ा हो।
दरवाजे को धक्का देकर वह भीतर गया। उस फकीर से जाकर नमस्कार किया। उस फकीर ने कहा: नहीं, अभी मैं नमस्कार का उत्तर न दे सकूंगा। पहले तुम दरवाजे से और जूतों से क्षमा मांग कर आओ।
उस आदमी ने कहा, आप पागल हो गये है? दरवाज़ों और जूतों से क्षमा। क्या उनका भी कोई व्यक्तित्व है?
उस फकीर ने कहा, तुमने क्रोध करते समय कभी भी न सोचा कि उनका कोई व्यक्तित्व है। तुमने जूते ऐसे पटके जैसे उनमें जाने हो, जैसे उनका कोई कसूर हो। तुमने दरवाजा ऐसे खोला जैसे तुम दुश्मन हो। नहीं, जब तुमने क्रोध करते वक्त उनका व्यक्तित्व मान लिया,तो पहले जाओ, क्षमा मांग कर आ जाओ, तब मैं तुमसे आगे बात करूंगा। अन्यथा मैं बात करने को नहीं हूं।
अब वह आदमी दूर जर्मनी से उस फकीर को मिलने गया था। इतनी सी बात पर मुलाकात न हो सकेगी। मजबूरी थी। उसे जाकर दरवाजे पर हाथ जोड़कर क्षमा मांगनी पड़ी कि मित्र क्षमा कर दो। जूतों को कहना पड़ा, माफ करिए,भूल हो गई, हमने जो आपको इस भांति गुस्से में खोला।
उस जर्मन यात्री ने लिखा है कि लेकिन जब मैं क्षमा मांग रहा था तो पहले तो मुझे हंसी आयी कि मैं क्या पागलपन कर रहा हूं। लेकिन जब मैं क्षमा मांग चुका तो मैं हैरान हुआ। मुझे एक इतनी शांति मालूम हुई, जिसकी मुझे कल्पना तक नहीं थी। कि दरवाजे और जूतों से क्षमा मांग कर शांति मिल सकती है।
मैं जाकर उस फकीर के पास बैठ गया, वह हंसने लगा। उसने कहां, अब ठीक है, अब कुछ बात हो सकती है। तुमने थोड़ा प्रेम जाहिर किया। अब तुम संबंधित हो सकते हो, समझ भी सकते हो। क्योंकि अब तुम प्रफुल्लित हो, अब तुम आनंद से भर गये हो।
सवाल मनुष्यों के साथ ही प्रेम पूर्णा होने का नहीं, यह सवाल नहीं है कि मां को प्रेम दो? ये गलत बात है। जब कोई मां अपने बच्चे को कहती है कि में तेरी मां हूं इसलिए प्रेम कर। तब वह गलत शिक्षा दे रही है। क्योंकि जिस प्रेम में इसलिए लगा हुआ है। देय फोर वह प्रेम झूठा है। जो कहता है, इसलिए प्रेम करो कि मैं बाप हूं,वह गलत शिक्षा दे रहा है। वह कारण बता रहा है प्रेम का।
प्रेम अकारण होता है, प्रेम कारण सहित नहीं होता है।
मां कहती है, मैं तेरी मां हूं,मैंने तुझे इतने दिन पाला-पोसा,बड़ा किया, इसलिए प्रेम कर। वह वजह बता रही है, प्रेम खत्म हो गया। अगर वह प्रेम भी होगा तो बच्चा झूठा प्रेम दिखाने की कोशिश करेगा। क्योंकि यह मां है। इसलिए प्रेम दिखाना पड़ रहा है।
नहीं प्रेम की शिक्षा का मतलब है: प्रेम का कारण नहीं; प्रेमपूर्ण होने की सुविधा और व्यवस्था कि बच्चा प्रेमपूर्ण हो सके।
जो मां कहती है कि मुझसे प्रेम कर, क्योंकि मैं मां हूं, वह प्रेम नहीं सिखा रही। उसे यह कहना चाहिए कि यह तेरा व्यक्तित्व,यह तेरे भविष्य, यह तेरे आनंद की बात है, कि जो भी तेरे मार्ग पर पड़ जाये, तू उससे प्रेमपूर्ण हो—पत्थर पड़ जाए। फूल पड़ जाये, आदमी पड़ जाये, जानवर पड़ जाये, तू प्रेम देना। मां को प्रेम देने का नहीं, तेरे प्रेमपूर्ण होने का है। क्योंकि तेरा भविष्य इस पर निर्भर करेगा। कि तू कितना प्रेमपूर्ण है। तेरा व्यक्तित्व कितना प्रेम से भरा हुआ है। उतना तेरे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ेगी।
प्रेम पूर्ण होने की शिक्षा चाहिए मनुष्य को, तो वह कामुकता से मुक्त हो सकता है।
लेकिन हम तो प्रेम की कोई शिक्षा नहीं देते। हम तो प्रेम का कोई भाव पैदा होने नहीं देते। हम तो प्रेम के नाम पर जो भी बात करते है वह झूठे ही सिखाते है उनको।
क्या आपको पता है कि एक आदमी एक के प्रति प्रेमपूर्ण है और दूसरे के प्रति घृणा पूर्ण हो सकता है? यह असंभव है।
प्रेमपूर्ण आदमी प्रेमपूर्ण होता है। आदमी से कोई संबंध नहीं है उस बात का। अकेले में बैठता है तो भी प्रेमपूर्ण होता है। कोई नहीं होता तो भी प्रेमपूर्ण होता है। प्रेमपूर्ण होना उसके स्वभाव की बात है। वह आपसे संबंधित होने का सवाल नहीं है।
क्रोधी आदमी अकेले में भी क्रोधपूर्ण होता है। घृणा से भरा आदमी घृणा से भरा हुआ होता है। वह अकेले भी बैठा है तो आप उसको देख कर कह सकते है कि यह आदमी क्रोधी है, हालांकि वह किसी पर क्रोध नहीं कर रहा है। लेकिन उसका सारा व्यक्तित्व क्रोधी है।
प्रेम पूर्ण आदमी अगर अकेले में बैठा है, तो आप कहेंगे यह आदमी कितने प्रेम से भरा हुआ बैठा है।
फूल एकांत में खिलते है जंगल के तो वहां भी सुगंध बिखेरते रहते है। चाहे कोई सूंघने वाला हो या न हो। रास्तें से कोई निकले या न निकले। फूल सुगंधित होता रहता है। फूल का सुगंधित होना स्वभाव है। इस भूल में आप मत पड़ना कि आपके लिए सुगंधित हो रहा है।
प्रेमपूर्ण होना व्यक्तित्व बनाना चाहिए। वह हमार व्यक्तित्व हो, इससे कोई संबंध नहीं कि वह किसके प्रति।
लेकिन जितने प्रेम करने वाले लोग है, वे सोचते है कि मेरे प्रति प्रेमपूर्ण हो जाये। और किसी के प्रति नहीं। और उनको पता नहीं है कि जो सबके प्रति प्रेम पूर्ण नहीं है वह किसी के प्रति भी प्रेम पूर्ण नहीं हो सकता।
पत्नी कहती है पति से, मुझे प्रेम करना बस, फिर आ गया स्टाप। फिर इधर-उधर कहीं देखना मत, फिर और कहीं तुम्हारे प्रेम की जरा सी धारा न बहे, बस प्रेम यानी इस तरफ। और उस पत्नी को पता नहीं है कि प्रेम झूठा है, वह अपने हाथ से किये ले रही है, जो पति प्रेमपूर्ण नहीं है हर स्थिति में, हरेक के प्रति,वह पत्नी के प्रति भी प्रेम पूर्ण नहीं हो सकता।
प्रेम पूर्ण चौबीस घंटे के जीवन का स्वभाव है। वह ऐसी कोई नहीं कि हम किसी के प्रति प्रेमपूर्ण हो जायें और किसी के प्रति प्रेमहीन हो जायें। लेकिन आज तक मनुष्य इसको समझने में समर्थ नहीं हो सका है।
बाप कहता है कि मेरे प्रति प्रेम पूर्ण, लेकिन घर में जा चपरासी है उसके प्रति....वह तो नौकर है। लेकिन उसे पता है कि जो बेटा एक बूढ़े नौकर के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो पाया है....वह बूढ़ा नौकर भी किसी का बाप है।
लेकिन उसे पता नहीं कि जो बेटा एक बूढे नौकर के प्रति प्रेमपूर्ण नहीं हो सका वह आज नहीं कल, जब उसका बाप भी बूढ़ा हो जायेगा। उसके प्रति भी प्रेम पूर्ण नहीं रह पायेगा। तब वह बाप पछतायेंगा। कि मेरा लड़का मेरे प्रति प्रेमपूर्ण नहीं है। लेकिन इस बाप को पता ही नहीं कि लड़का प्रेमपूर्ण हो सकता था। उसके प्रति भी, अगर जो भी आसपास थे, सबके प्रति प्रेमपूर्ण होने की शिक्षा दी गयी होती। तो वह उसके प्रति भी प्रेमपूर्ण होता।
प्रेम स्वभाव की बात है। संबंध की बात नहीं है।
प्रेम रिलेशनशिप नहीं है। प्रेम है ‘’स्टेट ऑफ माइंड’’ मनुष्य के व्यक्तित्व का भीतरी अंग है।
तो हमें प्रेम पूर्ण होने की दूसरी दीक्षा दी जानी चाहिए—एक-एक चीज के प्रति। अगर बच्चा एक किताब को भी गलत ढंग से रखे तो गलती बात है, उसे उसी क्षण टोकना चाहिए कि ये तुम्हारे व्यक्तित्व के प्रति शोभा दायक नहीं है। कि तुम इस भांति किताब को रखो। कोई देखेगा,कोई सुनेगा, कोई पायेगा कि तुम किताब के साथ दुर्व्यवहार किये हो? तुम कुत्ते के साथ गलत ढंग से पेश आये हो यह तुम्हारे व्यक्तित्व की गलती है।
एक फकीर के बाबत मुझे ख्याल आता है। एक छोटा सा फकीर का झोंपड़ा था। रात थी, जोर से वर्षा होती थी। रात के बारह बजे होंगे। फकीर और उसकी पत्नी दोनों सोते थे। किसी आदमी ने दरवाजे पर दस्तक दी। छोटा सा झोंपड़ा कोई शायद शरण चाहता था। उसकी पत्नी से उसने कहा कि द्वार खोल दें, कोई द्वार पर खड़ा है, कोई यात्री कोई अपरिचित मित्र।
सुनते है उसकी बात, उसने कहां, कोई अपरिचित मित्र, हमारे तो परिचित है, वह भी मित्र नहीं है। उसने कहां की कोई अपरिचित मित्र,प्रेम का भाव है।
कोई अपरिचित मित्र द्वार पर खड़ा है, द्वार खोल उसकी पत्नी ने कहां,लेकिन जगह तो बिलकुल नहीं है। हम दो के लायक ही मुश्किल से है। कोई तीसरा आदमी भीतर आयेगा तो हम क्या करेंगे।
उस फकीर ने कहा,पागल यह किसी अमीर का महल नहीं है,जो छोटा पड़ जाये। यह गरीब को झोंपड़ा है। अमीर का महल छोटा पड़ जाता है। हमेशा एक मेहमान आ जाये तो महल छोटा पड़ जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है।
उसकी पत्नी ने कहां—इसमे झोपड़ी....अमीर और गरीब का क्या सवाल है? जगह छोटी है।
उस फकीर ने कहा कि जहां दिल में जगह बड़ी हो वहां, झोपड़ी महल की तरह मालूम हो जाती है। और जहां दिल में छोटी जगह हो, वहां झोंपड़ा तो क्या महल भी छोटा और झोंपड़ा हो जाता है। द्वार खोल दो, द्वार पर खड़े हुए आदमी को वापस कैसे लौटाया जा सकता है? अभी हम दोनों लेटे थे, अब तीन लेट नहीं सकेंगे,तीन बैठेंगे। बैठने के लिए काफी जगह है।
मजबूरी थी, पत्नी को दरवाजा खोल देना पडा। एक मित्र आ गया, पानी से भीगा हुआ। उसके कपड़े बदले और वे तीनों बैठ कर गपशप करने लग गये। दरवाजा फिर बंद कर दिया।
फिर किन्हीं दो आदमियों ने दस्तक दी। अब उस मित्र ने उस फकीर को कहा, वह दरवाजे के पास था, कि दरवाजा खोल दो। मालूम होता है कि कोई आया है। उसी आदमी ने कहा, कैसे खोल दूँ दरवाजा, जगह कहां हे यहां।
वह आदमी अभी दो घड़ी पहले आया था खुद और भूल गया वह बात की जिस प्रेम ने मुझे जगह दी थी। वह मुझे जगह नहीं दी थी, प्रेम था उसके भीतर इस लिए जगह दी थी। अब कोई दूसरा आ गया जगह बनानी पड़ेगी।
लेकिन उस आदमी ने कहा,नहीं दरवाजा खोलने की जरूरत नहीं; मुश्किल से हम तीन बैठे हे।
वह फकीर हंसने लगा। उसने कहां, बड़े पागल हो। मैंने तुम्हारे लिए जगह नहीं की थी। प्रेम था, इसलिए जगह की थी। प्रेम अब भी है, वह तुम पर चुक नहीं गया और समाप्त नहीं हो गया। दरवाजा खोलों, अभी हम दूर-दूर बैठे है। फिर हम पास-पास बैठ जायेंगे। पास-पास बैठने के लिए काफी जगह है। और रात ठंडी है, पास-पास बैठने में आनंद ही और होगा।
दरवाजा खोलना पडा। दो आदमी भीतर आ गये। फिर वह पास-पास बैठकर गपशप करने लगे। और थोड़ी देर बीती है और रात आगे बढ़ गयी है और वर्षा हो रही है ओर एक गधे ने आकर सर लगाया दरवाजे से। पानी में भीग गया था। वह रात शरण चाहता था।
उस फकीर ने कहा कि मित्रों, वे दो मित्र दरवाजे पर बैठे हुए थे जो पीछे आये थे; दरवाजा खोल दो, कोई अपरिचित मित्र फिर आ गया।
उन लोगों ने कहा, वह मित्र वगैरह नहीं है, वह गधा है। इसके लिए द्वार खोलने की जरूरत नहीं है।
उस फकीर ने कहा कि तुम्हें शायद पता नहीं, अमीर के द्वार पर आदमी के साथ भी गधे जैसा व्यवहार किया जाता है। यह गरीब की झोपड़ी है, हम गधे के साथ भी आदमी जैसा व्यवहार करेने की आदत भर हो गई है। दरवाजा खोल दो।
पर वे दोनों कहने लगे, जगह।
उस फकीर ने कहा, जगह बहुत है; अभी हम बैठे है, अब खड़े हो जायेंगे। खड़े होने के लिए काफी जगह है। और फिर तुम घबडाओं मत, अगर जरूरत पड़ेगी तो मैं हमेशा बहार होने के लिए तैयार हूं। प्रेम इतना कर सकता है।
एक लिविंग एटीट्यूड, एक प्रेमपूर्ण ह्रदय बनाने की जरूरत है। जब प्रेम पूर्ण ह्रदय बनता है। तो व्यक्तित्व में एक तृप्ति का भाव एक रसपूर्ण तृप्ति.....।
क्या आपको कभी ख्याल है कि जब भी आप किसी के प्रति जरा-से प्रेमपूर्ण हुए, पीछे एक तृप्ति की लहर छूट गयी है। क्या आपको कभी भी खयाल है कि जीवन में तृप्ति के क्षण वही रहे है। जो बेशर्त प्रेम के क्षण रहे होंगे। जब कोई शर्त न रही होगी प्रेम की। और जब आपने रास्ते चलते एक अजनबी आदमी को देखकर मुस्कुरा दिया होगा—उसके पीछे छूट गयी तृप्ति का कोई अनुभव है? उसके पीछे साथ आ गया एक शांति का भाव। एक प्राणों में एक आनंद की लहर का कोई पता है। जब राह चलते किसी आदमी को उठा लिया हो, किसी गिरते को संभाल लिया हो, किसी बीमार को एक फूल दे दिया हो। इसलिए नहीं कि वह आपकी मां है, इसलिए नहीं की वह आपका पिता है। नहीं वह आपका कोई नहीं है। लेकिन एक फूल किसी बीमार को दे देना आनंद पूर्ण है।
व्यक्तित्व में प्रेम की संभावना बढ़ती जानी चाहिए। वह इतनी बढ़ जानी चाहिए—पौधों के प्रति, पक्षियों के प्रति पशुओं के प्रति, आदमी के प्रति, अपरिचित के प्रति, अंजान लोगों के प्रति, विदेशियों के प्रति, जो बहुत दूर है उसके प्रति, प्रेम हमारा बढ़त चला जाए।
जितना प्रेम हमारा बढ़ता है, उतनी ही सेक्स की जीवन में संभावना कम होती चली जाती है।
प्रेम और ध्यान दोनों मिलकर उस दरवाजे को खोल देते है, जो दरवाजा परमात्मा की और जाता है।
प्रेम+ध्यान=परमात्मा। प्रेम और ध्यान का जोड़ हो जाये और परमात्मा उपलब्ध हो जाता है।
और उस उपलब्धि से जीवन में ब्रह्मचर्य फलित होता है। फिर सारी उर्जा एक नये ही मार्ग पर ऊपर चढ़ने लगती है। फिर बह-बह कर निकल जाती है। फिर जीवन से बाहर निकल-निकल कर व्यर्थ नहीं हो जाती। फिर जीवन के भीतरी मार्गों पर गति करने लगती है। उसका एक ऊर्ध्वगमन, एक ऊपर की तरफ की यात्रा शुरू होती है।
अभी हमारी यात्रा नीचे की तरफ है। सेक्स ऊर्जा का अधोगमन है, नीचे की तरफ बह जाना है। ब्रह्मचर्य ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन है, उपर की तरफ उठ जाना है।
प्रेम और ध्यान ब्रह्मचर्य के सूत्र है।
तीसरी बात कल आपसे करने को हूं कि ब्रह्मचर्य अपलब्ध होगा तो क्या फल होगा? क्या होगी उपलब्धि,क्या मिल जायेगा?
ये दो बातें मैंने आज आपसे कहीं—प्रेम और ध्यान। मैंने यह कहा है कि छोटे बच्चों से इनकी शिक्षा शुरू हो जानी चाहिए। इससे आप यह मत सोच लेना कि अब तो हम बच्चे नहीं रहे। इसलिए करने को कुछ बाकी नहीं बचा। यह आप मत सोच कर चले जाना। अन्यथा मेरी मेहनत फिजूल हो जायेगी। आप किसी भी उम्र के हो, यह काम शुरू किया जा सकता है। यह काम कभी भी शुरू किया जा सकता है। हालांकि जितनी उम्र बढ़ती चली जाती है, उतनी मुश्किल होती चली जाती है। बच्चों के साथ हो सके सौभाग्य, लेकिन कभी भी हो सके सौभाग्य। इतनी देर कभी नहीं हुई है कि हम कुछ भी न कर सकें। हम आज शुरू कर सकते है।
और जो लोग सीखने के लिए तैयार है, वे बूढ़े भी बच्चों जैसे ही होते है। वे बुढ़ापे में भी शुरू कर सकते है। अगर उनकी सीखने की क्षमता है,अगर लर्निंग का एटीट्यूड है, अगर वे इस ज्ञान से नहीं भर गये है कि हमने सब जान लिया और सब पा लिया है। तो वे सिख सकते है। और वे छोटे बच्चों की भांति नई यात्रा शुरू कर सकते है।
बुद्ध के पास एक भिक्षु कुछ वर्षों से दीक्षित था। एक दिन बुद्ध ने उससे पूछा: ‘’भिक्षु तुम्हारी उम्र क्या है।‘’ उस भिक्षु ने कहा, भंते, मेरी उम्र पाँच वर्ष की होगी। बुद्ध कहने लगे,पाँच वर्ष, तुम तो कोई सत्तर वर्ष के मालूम होते हो। झूठ बोलते हो भिक्षु।
तो उस भिक्षु ने कहा, लेकिन पाँच वर्ष पहले ही मेरी जीवन में ध्यान की किरण फूटी। पाँच वर्ष पहले ही मेरे जीवन में प्रेम की वर्षा हुई। उसके पहले मैं जीता था, वह सपने में जीने जैसा था। नींद में जीने जैसा था। उसकी गिनती में अब जीवन में नहीं करता। सोना भी कोई जीना होता है। उसे कैसे करू?
जिंदगी तो इधर पाँच वर्ष से ही शुरू हुई है। यहीं पाँच वर्ष में अपनी आयु के मानता हूं।
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहां, भिक्षुओं इस बात को खयाल में रख लेना। अपनी उम्र आज से तुम भी इस तरह जोड़ना। यही उम्र को नापने का ढंग है।
अगर प्रेम और ध्यान का जन्म नहीं हुआ है तो उम्र फिजूल चली गयी। अभी आपकी ठीक जन्म भी नहीं हुआ। और कभी भी उतनी देर नहीं हुई है, जब कि हम प्रयास करें, श्रम करें और हम अपने नये जन्म को उपल्बध न हो जाये।
इसलिए मेरी बात से यह नतीजा मत निकाल लेना आप कि आप तो अब बचपन के पार हो चुके, इसलिए यह बात आने वाले बच्चों के लिए है। कोई आदमी किसी भी क्षण इतनी दूर नहीं निकल गया है कि वापस नहीं लौट सके। कोई आदमी कितने ही गलत रास्तों पर चला हो, ऐसी जगह नहीं पहुंच गया है कि ठीक रास्ता उसे दिखाई न पड़ सके। कोई आदमी कितने ही हजारों वर्षों से अंधकार में रह रहा हो, इसका मतलब यह नहीं है कि वह दिया जलायेगा तो अंधकार कहेगा कि मैं हजार वर्ष पुराना हूं। इसलिए नहीं टूटता। दिया जलाने से एक दिन का अंधकार भी टूटता है। और हजार वर्ष का अंधकार भी टूटता है। दिया जलाने की चेष्टा बचपन में आसान हो सकती है, बाद में थोड़ी मुश्किल हो जाती है। मात्र यही भेद है।
लेकिन कठिनाई का अर्थ असंभावना नहीं है। कठिनाई का अर्थ है, थोड़ा ज्यादा श्रम। कठिनाई का अर्थ है, थोड़ी और मेहनत, और संकल्प। कठिनाई का अर्थ है: थोड़ा ज्यादा—ज्यादा लगन पूर्वक। ज्यादा सातत्य से तोड़ना पड़ेगा। व्यक्तित्व की जो बंधी धाराएं है। उनको और नये मार्ग खोलने पड़ेंगे।
लेकिन जब नये मार्ग की जरा सी भी किरण फूटनी शुरू होती है तो सारा श्रम ऐसा लगता है कि हमने कुछ भी नहीं किया है। और बहुत कुछ पा लिया है। जब एक किरण भी आती है उस आनंद की, उस सत्य की उस प्रकाश की तो लगता है। कि हमने तो बिना कुछ किये पा लिया है; क्योंकि हमने जो किया था, उसका तो कोई भी मूल्य नहीं था। जो हाथ में आ गया ळ वह तो अमूल्य है। वह तो अमूल्य है। इसलिए यह भाव मन में आप न लेंगे। ऐसी मेरी प्रार्थना है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना; उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहित हूं और अंत में सबके भी तर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer
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