Monday, 19 February 2018

समाधि : संभोग-उर्जा का अध्‍यात्‍मिक नियोजन

संभोग से समाधि की और—17

समाधि : संभोग-उर्जा का अध्‍यात्‍मिक नियोजन—5

     मेरे प्रिय आत्‍मजन,

मित्रों ने बहुत से प्रश्‍न पूछे है। सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि मैंने बोलने के लिए सेक्‍स या काम का विषय क्‍यों चूना?
      इसकी थोड़ी सी कहानी है। एक बड़ा बाजार है। उस बड़े बाजार को कुछ लोग बंबई कहते है। उस बड़े बाजार में एक सभा थी और उस सभा में एक पंडितजी कबीर क्‍या कहते है, इस संबंध में बोलते थे। उन्‍होंने कबीर की एक पंक्‍ति कहीं और उसका अर्थ समझाया। उन्‍होंने कहा, ‘’कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर बारे अपना चले हमारे साथ।’’ उन्‍होंने यह कहा कि कबीर बाजार में खड़ा था और चिल्‍लाकर लोगों से कहने लगा कि लकड़ी उठाकर बुलाता हूं उन्‍हें जो अपने घर को जलाने की हिम्‍मत रखते हों वे हमारे साथ आ जायें।
      उस सभा में मैंने देखा कि लोग यह बात सुनकर बहुत खुश हुए। मुझे बड़ी हैरानी हुई—मुझे हैरानी यह हुई कि वह जो लोग खुश हो रहे थे। उनमें से कोई भी आपने घर को जलाने को कभी तैयार नहीं था। लेकिन उन्‍हें प्रसन्‍न देखकर मैंने समझा कि बेचारा कबीर आज होता तो कितना खुश न होता। जब तीन सौ साल पहले वह था और किसी बाजार में उसने चिल्‍लाकर कहा होगा तो एक भी आदमी खुश नहीं हुआ होगा।
      आदमी की जात बड़ी अद्भुत है। जो मर जाते है उनकी बातें सुनकर लोग खुश होते है जो जिंदा होते है, उन्‍हें मार डालने की धमकी देते है।
      मैंने सोचा कि आज कबीर होते, इस बंबई के बड़े बाजार में तो कितने खुश होते कि लोग कितने प्रसन्‍न हो रहे है। कबीर जी क्‍या कहते है, इसको सुनकर लोग प्रसन्‍न हो रहे हे। कबीर जी को सुनकर वे कभी भी प्रसन्‍न नहीं हुए थे। लेकिन लोगों को प्रसन्‍न देखकर ऐसा लगा कि जो लोग अपने घर को जलाने के लिए भी हिम्‍मत रखते है और खुश होते है, उनसे कुछ दिल की बातें आज कही जायें। तो मैं भी उसी धोखे में आ गया। जिसमें कबीर और क्राइस्‍ट और सारे लोग हमेशा आत रहे है।
      मैंने लोगों से सत्‍य की कुछ बात कहनी चाही। और सत्‍य के संबंध में कोई बात कहनी हो तो उन असत्‍यों को सबसे पहले तोड़ देना जरूरी है, जो आदमी ने सत्‍य समझ रखे है। जिन्‍हें हम सत्‍य समझते है और जो सत्‍य नहीं है। जब तक उन्‍हें न तोड़ दिया जाए, तब तक सत्‍य क्‍या है उसे जानने की तरफ कोई कदम नहीं उठाया जा सकता।
      मुझे कहा गया था उस सभा में कि मैं प्रेम के संबंध में कुछ कहूं और मुझे लगा कि प्रेम के संबंध में तब तक बात समझ में नहीं आ सकती, जब तक कि हम काम और सेक्‍स के संबंध में कुछ गलत धारणाएं लिए हुए बैठे है। अगर गलत धारणाएं है सेक्‍स के संबंध में तो प्रेम के संबंध में हम जो भी बातचीत करेंगे वह अधूरी होगी। वह झूठी होगी। वह सत्‍य नहीं हो सकती।
      इसलिए उस सभा में मैंने काम और सेक्‍स के संबंध में कुछ कहा। और यह कहा कि काम की उर्जा ही रूपांतरित होकर प्रेम की अभिव्‍यक्‍ति बनती है। एक आदमी खाद खरीद लाता है, गंदी और बदबू से भरी हुई और अगर अपने घर के पास ढेर लगा ले तो सड़क पर से निकलना मुश्‍किल हो जायेगा। इतनी दुर्गंध वहां फैलेगी। लेकिन एक दूसरा आदमी उसी खाद को बग़ीचे में डालता है और फूलों के बीज डालता है। फिर वे बीज बड़े होते है पौधे बनते है। और उनमें फूल निकलते है। फूलों की सुगंध पास-पड़ोस के घरों मे निमंत्रण बनकर पहुंच जाती है। रहा से निकलते लोगों को भी वह सुगंध छूती है। वह पौधों को लहराता हुआ संगीत अनुभव होता है। लेकिन शायद ही कभी आपने सोचा हो कि फूलों से जो सुगंध बनकर प्रकट हो रहा रही है। वह वही दुर्गंध है जो खाद से प्रकट होती थी। खाद की दुर्गंध बीजों से गुजर कर फूलों की सुगंध कर जाती है।
      दुर्गंध सुगंध बन सकती है। काम प्रेम बन सकता है।
      लेकिन जो काम के विरोध में हो जायेगा। वह उसे प्रेम कैसे बनायेगे। जो काम का शत्रु हो जायगा, वह उसे कैसे रूपांतरित करेगा? इसलिए काम को सेक्‍स को, समझना जरूरी है। यह वहां कहां और उसे रूपांतरित करना जरूरी है।
      मैंने सोचा था, जो लोग सिर हिलाते थे घर जल जाने पर, वे लोग मेरी बातें सुनकर बड़े खुश होंगे। लेकिन मुझसे गलती हो गयी। जब मैं मंच से उतरा तो उस मंच पर जितने नेता थे, जितने संयोजक थे, वे सब भाग चुके थे। वे मुझे उतरते वक्‍त मंच पर कोई नहीं मिले। वे शायद अपने घर चले गये होंगे कि कहीं घर में आग न लग जाये। उसे बुझाने का इंतजाम करने भोग गये थे। मुझे धन्‍यवाद देने को भी संयोजक वहां नहीं थे। जितनी भी सफेद टोपियों थी। जितने भी खादी वाले लोग थे। वे मंच पर कोई भी नहीं थे। वे जा चुके थे। नेता बड़ा कमजोर होता है। वह अनुयायियों के पहले भाग जाता है।
      लेकिन कुछ हिम्‍मत वर लोग जरूर आये। कुछ बच्‍चे आये, कुछ बच्‍चियां आयी, कुछ बूढ़े, कुछ जवान। और उन्‍होंने मुझसे कहा कि आपने वह बात हमें कहीं है, जो हमें किसी ने कभी नहीं कही। और हमारी आंखें खोल दी है। हमें बहुत ही प्रकाश अनुभव हुआ है। तो फिर मैंने सोचा कि उचित होगा कि इस बात को और ठीक से पूरी तरह कहां जाये। इसलिए यह विषय मैंने आज यहां चुना। इस चार दिनों में यक कहानी जो वहां अधूरी रह गयी थी। उसे पूरा करने का एक कारण यह था कि लोगों ने मुझे कहा। और वह उन लोगों ने कहा, जिनको जीवन को समझने की हार्दिक चेष्‍टा है। और उन्‍होंने चाहा कि मैं पूरी बात कहूं। एक तो कारण यह था।
      और दूसरा कारण यह था कि वे जो भाग गये थे मंच से, उन्‍होंने जगह-जगह जाकर कहना शुरू कर दिया कि मैंने तो ऐसी बातें कही है कि धर्म का विनाश ही हो जायेगा। मैंने तो ऐसी कहीं है, जिनसे कि लोग अधार्मिक हो जायेंगे।   
      तो मुझे लगा कि उनका भी कहना पूरा स्‍पष्‍ट हो सके, उनको भी पता चल सके कि लोग सेक्‍स के संबंध में समझकर अधार्मिक होने वाले नहीं है। नहीं समझा है उन्‍होंने आज तक इसलिए अधार्मिक हो गये है।
      अज्ञान अधार्मिक बनाता हो। ज्ञान कभी भी अधार्मिक नहीं बना सकता है।
      और अगर ज्ञान अधार्मिक बनाता हो तो मैं कहता हूं कि ऐसा ज्ञान उचित है। जो अधार्मिक बना दे, उस अज्ञान की बजाय जो कि धार्मिक बनाता हो। धर्म तो वही सत्‍य है जो ज्ञान के आधार पर खड़ा होता है।
      और मुझे नहीं दिखायी पड़ता की ज्ञान मनुष्‍य को कहीं भी कोई हानि पहुंचा सकता है। हानि हमेशा अंधकार से पहुंचती है और अज्ञान से।
      इसलिए अगर मनुष्‍य जाति भ्रष्‍ट हो गयी; यौन के संबंध में विकृत और विक्षिप्‍त हो गयी। सेक्‍स के संबंध में पागल हो गयी तो उसका जिम्‍मा उन लोगो पर नहीं है, जिन्‍होंने सेक्‍स के संबंध में ज्ञान की खोज की है। उसका जिम्‍मा उन नैतिक धार्मिक और थोथे साधु-संतों पर है, जिन्‍होंने मनुष्‍य को हजारों वर्षो से अज्ञान में रखने की चेष्‍टा की है। यह मनुष्‍य जाति कभी की सेक्‍स से मुक्‍त हो गयी होती। लेकिन नहीं यह हो सका। नहीं हो सका उनकी वजह से जो अंधकार कायम रखने की चेष्‍टा कर रहे है।
      तो मैंने समझा की अगर थोड़ी सह किरण से इतनी बेचैनी हुई तो फिर पूरे प्रकाश की चर्चा कर लेनी उचित है। ताकि साफ हो सके कि ज्ञान मनुष्‍य को धार्मिक बनाता है या अधार्मिक बनाता है। यह कारण था इसलिए यह विषय चुना। और अगर यह कारण न होता तो शायद मुझे अचानक खयाल न आता इसे चुनने का। शायद इस पर मैं कोई बात नहीं  करता। इस लिहाज से वे लोग धन्‍यवाद के पात्र है, जिन्‍होंने अवसर पैदा किया यह विषय चुनने का। और अगर आपको धन्‍यवाद देना हो तो मुझे मत देना। वह भारतीय विद्या भवन ने जिन्‍होंने सभा आयोजित की थी, उनको धन्‍यवाद देना। उन्‍होंने ही यह विषय चुनाव दिया। मेरा इसमें कोई हाथ नहीं है।
       एक मित्र ने पूछा है, कि मैंने कहा कि काम का रूपांतरण ही प्रेम बनता है। तो उन्‍होंने पूछा है कि मां का बेटे के लिए प्रेम—क्‍या वह भी काम है। वह भी सेक्‍स है। और भी कुछ लोगों ने इसी तरह के प्रश्न पूछे है।
      इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा।
      एक तल तो शरीर का तल हैबिलकुल फिजियोलॉजलीकल। एक आदमी वेश्‍या के पास जाता है। उसे जो सेक्‍स का अनुभव होता है। वह शरीर का गहरा नहीं हो सकता। वेश्‍या शरीर बेच सकती है। मन नहीं बेच सकती। और आत्‍मा को बेचने का तो कोई उपाय ही नहीं है। शरीर –शरीर से मिल सकता है।
      एक आदमी बलात्‍कार करता है। तो बलात्‍कार में किसी का मन भी नहीं मिल सकता ओर किसी की आत्‍मा भी नहीं मिल सकती। शरीर पर बलात्‍कार किया जा सकता है। आत्‍मा पर बलात्‍कार करने का कोई उपाय नहीं है। ने खोजा जा सका हे। न खोजा जा सकता है। तो बलात्‍कार में जो भी अनुभव होगा वह शरीर का होगा। सेक्‍स का प्राथमिक अनुभव शरीर से ज्‍यादा गहरा नहीं होता। लेकिन शरीर के अनुभव पर ही जो रूक जाते है। वे सेक्‍स के पूरे अनुभव को उपलब्ध नहीं होते। उन्‍हें मैंने जो गहराइयों की बातें कहीं है। उसका कोई पता नहीं चल सकता। और अधिक लोग शरीर के तल पर ही रूक जाते है।
      इस संबंध में यह भी जान लेना जरूरी है कि जिन देशों में भी प्रेम के बिना विवाह होता है। उस देश में सेक्‍स शरीर के तल पर रूक जाता है। और उससे गहरे नहीं जा सकता।
      विवाह दो शरीरों का हो सकता है, विवाह दो आत्‍माओं का नहीं। दो आत्‍माओं का प्रेम हो सकता है।
      वह अगर प्रेम से विवाह निकलता हो, तब तो विवाह एक गहरा अर्थ ले लेता है। और अगर विवाह दो पंडितों के और दो ज्‍योतिषियों के हिसाब किताब से निकलता हो, और जाति के विचार से निकलता हो और धन के विचार से निकलता हो तो वैसा विवाह कभी भी शरीर से ज्‍यादा गहरा नहीं जा सकता।
      लेकिन ऐसे विवाह का एक फायदा है। शरीर मन के बजाय ज्‍यादा स्‍थिर चीज है। इसलिए शरीर जिन समाजों में विवाह का आधार है, उन समाजों में विवाह सुस्‍थिर होगा। जीवन भर चल जाएगा।
      शरीर अस्‍थिर चीज नहीं है। शरीर बहुत स्‍थिर चीज है। उसमें परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे आता है। और पता भी नहीं चलता। शरीर जड़ता का तल है। इसलिए जिन समाजों ने यह समझा कि विवाह को स्‍थिर बनाना जरूरी है—एक ही विवाह पर्याप्‍त हो,बदलाहट की जरूरत न पड़े; उनको प्रेम अलग कर देना पडा। क्‍योंकि प्रेम होता है मन से और मन चंचल है।
      जो समाज प्रेम के आधार पर विवाह को निर्मित करेंगे, उन समाजों में तलाक अनिवार्य होगा। उन समाजों में विवाह परिवर्तित होगा। विवाह स्‍थायी व्‍यवस्‍था नहीं हो सकती है। क्‍योंकि प्रेम तरल है।
      मन चंचल है, और शरीर स्‍थिर और जड़ है।
      आपके घर में एक पत्‍थर पडा हुआ है। सुबह पत्‍थर पड़ा था। सांझ भी पत्‍थर वहीं पडा रहेगा। सुबह एक फूल खिला था। शाम तक मुरझा जाएगा। फूल जिंदा है। जन्मे गा, मरेगा। पत्‍थर मुर्दा है। वैसे का वैसा सुबह था। वैसा ही श्‍याम पडा रहेगा। पत्‍थर बहुत स्‍थिर है।   
      विवाह पत्‍थर पडा हुआ है। शरीर के तल पर जो विवाह है, वह स्‍थिरता लाता है। समाज के हित में है। लेकिन एक-एक व्‍यक्‍ति के अहित में है। क्‍योंकि वह स्‍थिरता शरीर के तल पर लायी गई है ओर प्रेम से बचा गया है।
      इसलिए शरीर के तल से ज्‍यादा पति और पत्‍नी का संभोग और सेक्‍स नहीं पहुंच पात है। एक यांत्रिक , एक मेकैनिकल रूटीन हो जाती है। एक यंत्र की भांति जीवन हो जाता है। सेक्‍स का। उस अनुभव को रिपिट करते रहते हे। और जड़ होते चले जाते है। लेकिन उससे ज्‍यादा गहराई कभी भी नहीं मिलती।
      जहां प्रेम के बिना विवाह होता है। उस विवाह में और वेश्‍या के पास जाने में बुनियादी भेद नहीं, थोड़ा सा भेद है। बुनियादी नहीं है वह। वेश्‍या को आप एक दिन के लिए खरीदते है और पत्‍नी को आप पूरे जीवन के लिए खरीदते है। इससे ज्‍यादा फर्क नहीं पड़ता। जहां प्रेम नहीं हैवहां खरीदना ही है। चाहे एक दिन के लिए खरीदो चाहे पूरी जिंदगी के लिए खरीदो। हालांकि साथ रहने से रोज-रोज एक तरह का संबंध पैदा हो जाता है एसोसिएशन से। लोग उसी को प्रेम समझ लेते है। वह प्रेम नहीं है। वह प्रेम और ही बात है। शरीर के तल पर विवाह है इसलिए शरीर के तल से गहरा संबंध कभी भी नहीं उत्‍पन्‍न हो पाता है। यह एक तल है।
      दूसरा तल है सेक्‍स का—मन का तल, साइकोलॉजीकल वात्‍यायन से लेकर पंडित कोक तक जिन लोगों ने भी इस तरह के शास्‍त्र लिखे हे सेक्‍स के बाबत वे शरीर के तल से गहरे नही जाते। दूसरा तल है मानसिक। जो लोग प्रेम करते है और फिर विवाह में बँधते है। उनका प्रेम शरीर के तल से थोड़ा गहरा जाता है। वह मन तक जाता है। उसकी गहराई साइकोलॉजीकल है। लेकिन वह भी रोज-रोज पुनरूक्‍ति होने से थोड़े दिनों में शरीर के तल पर आ जाता है। और यांत्रिक हो जाता है।
      जो व्‍यवस्‍था विकसित की है दो सौ वर्षों में प्रेम विवाह की, वह मानसिक तल तक सेक्‍स को ले जाता है, ,और आज पश्‍चिम में आज समाज अस्‍त-व्‍यस्‍त हो गया है। क्‍योंकि मन का कोई भरोसा नहीं है, वह आज कहता है कुछ, कल कुछ और कहने लग जाता है। सुबह कुछ कहने लगता है, श्‍याम कुछ कहने लगता है। घड़ी भर पहले कुछ कहता है। घड़ी भर बाद कुछ कहने लगता है।
      शायद आपने सुना होगा कि बायरन ने जब शादी की तो कहते है कि तब वह कोई साठ-सत्‍तर स्‍त्रियों से संबंधित रह चुका था। एक स्‍त्री ने उसे मजबूर की कर दिया विवाह के लिए। जो उसने विवाह किया और जब वह चर्च से उतर रहा था विवाह करके अपनी पत्‍नी का हाथ-हाथ में लेकर। घंटिया बज रही है चर्च की। मोमबत्तियाँ अभी जो जलाई गई थी। जल रही है। अभी जो मित्र स्‍वागत करने आये थे। वे विदा हो रहे है। और वह अपनी पत्‍नी को हाथ पकड़कर सामने खड़ी घोड़ा-गाड़ी में बैठने के लिए चर्च की सीढ़ियाँ उतर रहा है। तभी उसे चर्च केसामने ही एक और स्‍त्री जाती हुई दिखाई देती है। एक क्षण को वह भूल जाता है अपनी पत्‍नी को। उसके हाथ को, अपने विवाह को। सारा प्राण उस स्‍त्री के पीछा करने लगा। जाकर वह गाड़ी में बैठा। बहुत ईमानदार आदमी रहा होगा। उसने अपनी पत्‍नी से कहां, तूने कुछ ध्‍यान दिया। एक अजीव घटना घट गई। कल तक तुझसे मेरा विवाह नहीं हुआ था, तो मैं विचार करता था कि तू मुझे मिल पायेगी या नहीं। तेरे सिवाय मुझे कोई भी दिखाई नहीं पड़ता था और आज जबकि विवाह हो गया है, मैं तेरा हाथ पकड़कर नीचे उत्‍तर रहा हूं। मुझे एक स्त्री दिखाई पड़ी गाड़ी के उस तरफ जाती हुई और तू मुझे भल गयी। और मेरा मन उस स्‍त्री का पीछा करने लगा। और एक क्षण को मुझे लगा कि काश यह स्‍त्री मुझे मिल जाये।
      मन इतना चंचल है। तो जिन लोगों को समाज को व्‍यवस्‍थित रखना था। उन्‍होंने मन के तल पर सेक्‍स को नहीं जाने दिया। उन्‍होंने शरीर के तल पर रोक लिया। विवाह करो,प्रेम नहीं। फिर विवाह से प्रेम आता हो तो आये। न आता हो न आये। शरीर के तल पर स्‍थिरता हो सकती है। मन के तल पर स्‍थिरता बहुत मुशिकल है। लेकिन मन के तल पर सेक्‍स का अनुभव शरीर से ज्‍यादा गहरा होता है।
      पूरब की बजाय पश्‍चिम का सेक्‍स का अनुभव ज्‍यादा गहरा है।
      पश्‍चिम के जो मनोवैज्ञानिक हैं फ्रायड से जुंग तक, उन सारे लोगों ने जो लिखा है वह सेक्‍स की दूसरी गहराई है, वह मन की गहराई है।

लेकिन मैं जिस सेक्‍स की बात कर रहा हूं, वह तीसरा तल है। वह न आज तक पूरब में पैदा हुआ है, न पश्‍चिम में। वह तीसरा तल है स्‍प्रिचुअल, वह तीसरा तल है, अध्‍यात्‍मिक। शरीर के तल पर भी एक स्‍थिरता है। क्‍योंकि शरीर जड़ है। और आत्‍मा के तल पर भी स्‍थिरता है, क्‍योंकि आत्‍मा के तल पर कोई परिवर्तन कभी होता ही नहीं। वहां सब शांत है, वहां सब सनातन है। बीच में एक तल है मन का जहां पारे की तरह तरल है मन। जरा में बदल जाता है।
      पश्‍चिम मन के साथ प्रयोग कर रहा है इसलिए विवाह टूट रहा है। परिवार नष्‍ट हो रहा है। मन के साथ विवाह और परिवार खड़े नहीं रह सकते। अभी दो वर्ष में तलाक है, कल दो घंटे में तलाक हो सकता है। मन तो घंटे भर में बदल जाता है। तो पश्‍चिम का सारा समाज अस्‍त-व्‍यस्‍त हो गया है। पूरब का समाज व्‍यवस्‍थित था। लेकिन सेक्‍स की जो गहरी अनुभूति थी,वह पूरब को अपलब्‍ध नहीं हो सकी।
      एक और स्‍थिरता है, एक और घड़ी है अध्‍यात्‍म की। उस तल पर जो पति-पत्‍नी एक बार मिल जाते है या दो व्‍यक्‍ति एक बार मिल जाते है। उन्‍हें तो ऐसा लगता है कि वे अनंत जन्‍मों के लिए एक हो गये। वहां फिर कोई परिवर्तन नहीं है। उस तल पर चाहिए स्‍थिरता। उस तल पर चाहिए अनुभव।
      तो मैं जिस अनुभव की बात कर रहा हूं,जिस सेक्‍स की बात कहर रहा हूं। वह स्‍प्रिचुअल सेक्‍स हे। अध्‍यात्‍मिक अर्थ नियोजन करना चाहता हूं काम की वासना में। और अगर मेरी यह बात समझेंगे तो आपको पता चल जायेगा। कि मां का बेटे के प्रति जो प्रेम है, वह आध्‍यात्‍मिक काम है। वह स्प्रिचुअल सेक्‍स का हिस्‍सा है। आप कहेंगे यह तो बहुत उलटी बात है...मां को बेटे के प्रति काम का क्‍या संबंध?
      लेकिन जैसा मैंने कहा कि पुरूष और स्‍त्री पति और पत्‍नी एक क्षण के लिए मिलते है, एक क्षण के लिए दोनों की आत्‍माएं एक हो जाती है। और उस घड़ी में जो उन्‍हें आनंद का अनुभव होता है। वही उनको बांधने वाला हो जाता है।
      कभी आपने सोचा कि मां के पेट में बेटा नौ महीने तक रहता है। और मां के आस्‍तित्‍व से मिला रहता है। पति एक क्षण को मिलता है। बेटा नौ महीने के लिए होता है इक्ट्ठा होता है। इसीलिए मां का बेटे से जो गहरा संबंध है, वह पति से भी कभी नहीं  होता। हो भी नहीं सकता। पति एक क्षण के लिए मिलता है आस्‍तित्‍व के तल पर, जहां एग्ज़िसटैंस है, जहां बीइंग है, वहां एक क्षण को मिलता है, फिर बिछुड़ जाता है। एक क्षण को करीब आते है ओर फिर कोसों का फासला शुरू हो जाता है।
      लेकिन बेटा नौ महीने तक मां की सांस से सांस लेता है। मां के ह्रदय से धड़कता है। मां के खून, मां के प्राण से प्राण,उसका अपना कोई आस्‍तित्‍व नहीं होता है। वह मां का एक हिस्‍सा होता है। इसीलिए स्‍त्री मां बने बिना कभी भी पूरी तरह तृप्‍त नहीं हो पाती। कोई पति स्‍त्री को कभी तृप्‍त नहीं कर सकता। जो उसका बेटा उसे कर देता है। कोई पति कभी उतना गहरा कन्‍टेंटमेंट उसे नहीं दे पाता जितना उसका बेटा उसे दे पाता है।
      स्‍त्री मां बने बिना पूरी नहीं हो पाती। उसके व्‍यक्‍तित्‍व का पूरा निखार और पूरा सौंदर्य उसके मां बनने पर प्रकट होता है। उससे उसके बेटे के आत्‍मिक संबंध बहुत गहरे होते है।
      और इसीलिए आप यह भी समझ लें कि जैसे ही स्‍त्री मां बन जाती है। उसकी सेक्‍स में रूचि कम हो जाती है। यह कभी आपने ख्‍याल किया है। जैसे ही स्‍त्री मां बन जाती है, सेक्‍स के प्रति रूचि कम हो जाती है। फिर सेक्‍स में उसे उतना रस नहीं मालूम पड़ता। उसने एक और गहरा रस ले लिया है। मातृत्‍व का। वह एक प्राण के साथ और नौ महीने तक इकट्ठी जी ली है। अब उसे सेक्‍स में रस नहीं  रह जाता है।
      अकसर पति हैरान होते है। पिता बनने से पति में कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मां बनने से स्‍त्री में बुनियादी फर्क पड़ जाता है। पिता बनने से पति में कोई फर्क नहीं पड़ता। क्‍योंकि पिता कोई बहुत गहरा संबंध नहीं है। जो नया व्‍यक्‍ति पैदा होता है उससे पिता का कोई गहरा संबंध नहीं है।
      पिता बिलकुल सामाजिक व्‍यवस्‍था है, सोशल इंस्टीटयूशन है।
      पिता के बिना भी दुनिया चल सकती है, इसीलिए पिता को कोई गहरा संबंध नहीं है बेटे का।
      मां से उसके गहरे संबंध है, और मां तृप्‍त हो जाती है उसके बाद। और उसमें एक और ही तरह की आध्‍यात्‍मिक गरिमा प्रकट होती है। जो मां नहीं बनी है स्‍त्री उसको देखे और जो मां बन गई है उसे देखें। उन दोनों की चमक और उर्जा और उनकी व्‍यक्‍तित्‍व अलग मालूम होगा। मां की दीप्ति दिखाई पड़ेगी—शांत, जैसे नदी जब मैदान में आ जाती है, तब शांत हो जाती है। जो अभी मां नहीं बनी है, उस स्‍त्री में एक दौड़ दिखेगी, जैसे पहाड़ पर नदी दौड़ती है। झरने की तरह टूटती है, चिल्‍लाती है;गड़गड़ाहट करती है; आवाज है; दौड़ है; मां बन कर वह एक दम से शांत हो जाती है।
      इसीलिए मैं आपसे इस संदर्भ में यह भी कहना चाहता हूं कि जिन स्‍त्रियों को सेक्‍स का पागलपन सवार हो गया है, जैसे पश्‍चिम में—वे इसीलिए मां नहीं बनना चाहती। क्‍योंकि मां बनने के बाद सेक्‍स का रस कम हो जाता है। पश्‍चिम की स्‍त्री मां बनने से इंकार करती है। क्‍योंकि मां बनी कि सेक्‍स का रस कम हुआ। सेक्‍स का रस तभी तक रह सकता है जब वह मां नहीं बन जाती। पर विकृति एक अपवाद नहीं है।
      तो पश्‍चिम की अनेक हुकूमतें घबरा गयी है इस बात से कि वह रो अगर बढ़ता चला गया तो उनकी संख्‍या का क्‍या होगा। हम यहां घबरा रहे कि हमारी संख्‍या न बढ़ जाए। पश्‍चिम के मुल्‍क घबरा रहे है कि उनकी संख्‍या कहीं कम न हो जाये। क्‍योंकि स्‍त्रियों को अगर इतने तीव्र रूप से यह भाव पैदा हो जाये कि मां बनने से सेक्‍स का रस कम हो जाता है और वह मां न बनना चाहे तो क्‍या किया जा सकता है। कोई कानूनी जबर्दस्‍ती की जा सकती है।
      किसी को संतति नियमन के लिए तो कानूनी जबर्दस्‍ती भी की जा सकती है। कि हम जबर्दस्‍ती बच्‍चे नहीं होने देंगे। लेकिन किसी स्‍त्री को मजबूर नहीं किया जा सकता कि बच्‍चे पैदा करने की पड़ेंगे।
      पश्‍चिम के सामने हमसे बड़ा सवाल है। हमारा सवाल उतना बड़ा नहीं है, हम संख्‍या को रोक सकते है। जबर्दस्‍ती कानूनन,लेकिन संख्‍या को कानूनन बढ़ाने को कोई रास्‍ता नहीं है। किसी व्‍यक्‍ति को जबर्दस्‍ती नहीं की जात सकती की तुम बच्‍चे पैदा करों।
      और आज से दो सौ साल के भीतर पश्‍चिम के सामने यक प्रश्‍न बहुत भारी हो जायेगा, क्‍योंकि पूरब की संख्‍या बढती चली जायेगी, वह सारी दुनिया पर छा सकती है। और पश्‍चिम की संख्‍या क्षीण होती जा सकती है। स्‍त्री को मां बनने के लिए उन्‍हें फिर से राज़ी करना पड़ेगा।
      और उनके कुछ मनोवैज्ञानिकों ने यह सलाह देनी शुरू कर दी है, कि बाल विवाह शुरू कर दें, अन्‍यथा खतरा है। क्‍योंकि स्‍त्री होश में आ जाती है तो वह मां नहीं बनना चाहती। उसे सेक्‍स का रस लेने में ज्‍यादा ठीक मालूम होता है। इसलिए बचपन में शादी कर दो उसे पता ही न चले कि वह कब मां बन गई।
      पूरब में जो बाल-विवाह चलता था, उसके एक कारणों में यह भी था। स्‍त्री जितनी युवा हो जायेगी और जितनी समझदार हो जायेगी। और सेक्‍स का जैसे रस लेने लगेगी,वैसे वह मां नहीं बनना चाहेंगी। हालांकि उसे कुछ पता नहीं कि मां बनने से क्‍या मिलेगा। वह तो मां बनने से ही पता चल सकता है। उससे पहले कोई उपाय नहीं है।
      स्‍त्री तृप्‍त होने लगती है मां बनकर—क्‍यों? उसने एक आध्‍यात्‍मिक तल पर सेक्‍स का अनुभव कर लिया बच्‍चे के साथ। और इसीलिए मां और बेटे के पास एक आत्‍मीयता है। मां अपने प्राण दे सकती है बेटे के लिए, मां बेटे के प्राण लेने की कल्‍पना नहीं कर सकती।
      पत्‍नी पति के प्राण ले सकती है। लिए है अनेक बार। और अगर नहीं भी लेगी तो पूरी जिंदगी में प्राण लेने की हालत पैदा कर देगी। लेकिन बेटे के लिए कल्‍पना भी नहीं कर सकती। वह संबंध बहुत गहरा है।
      और मैं आपसे यह भी कहूं कि उससे अपने पति को संबंध भी इतना हो जाता है—तो पति उसे बेटे की तरह दिखाई देता है। पति की तरह नहीं। यहां इतनी स्त्रीयां बैठी है और इतने पुरूष बैठे है। मैं उनसे ये पूछता हूं कि जब उन्‍होंने अपनी पत्‍नी को बहुत प्रेम किया है तो क्‍या उन्‍होंने इस तरह का व्‍यवहार नहीं किया। जैसे छोटा बच्‍चा अपनी मां के साथ करता है। क्‍या आपको इस बात का ख्‍याल है कि पुरूष के हाथ स्‍त्री के स्‍तन की तरफ क्‍यों पहुंच जाते है?
      वह छोटे बच्‍चे के हाथ है, जो अपनी मां के स्‍तन की तरफ जा रहे है।
      जैसे ही पुरूष स्‍त्री के प्रति गहरे प्रेम से भरता है, उसके हाथ उसके स्‍तन की तरफ बढते है—क्‍यों, स्‍तन से क्‍या संबंध है सेक्‍स का।
      स्‍तन से कोई संबंध नहीं है। स्‍तन से मां और बेटे का संबंध है। बचपन से वह जानता रहा है। बेटे का संबंध स्‍तन से है। और जैसे ही पुरूष गहरे प्रेम से भरता है वह बेटा हो जाता है।
      और स्‍त्री का हाथ कहां पहुंच जाता है?
      वह पुरूष के सिर पर पहुंच जाता है। उसके बालों में अगुलियां चली जाती है। वह पुराने बेटे की याद है। वह पुराने बेटे का सर है, जिसे उसने सहलाया है।
      इसलिए अगर ठीक से प्रेम आध्‍यात्‍मिक तल तक विकसित हो जाये तो पति आखिर में बेटा हो जाता है। और बेटा हो जाना चाहिए। तो आप समझिए कि हमने तीसरे तल पर सेक्‍स का अनुभव किया। अध्‍यात्‍म के तल पर स्प्रिचुअल के तल पर। इस तल पर एक संबंध है, जिसका हमें कोई पता नहीं है। पति पत्‍नी का संबंध उसकी तैयारी है। उसका अंत नहीं है। वह यात्रा की शुरूआत है। पहुंचा नहीं है।
      इसलिए पति पत्‍नी के बीच एक इनर कानफ्लिक्ट्स चौबीस घंटे चलती रहती है। चौबीस घंटे एक कलह चलती है। जिसे हम प्रेम करते है, उसी के साथ चौबीस घंटे कलह चलती है। लेकिन न पति समझता है, न पत्‍नी समझती है। कि कलह का क्‍या करण है। पति सोचता है कि शायद दूसरी स्‍त्री होती तो ठीक हो जाता। पत्‍नी सोचती है कि शायद दूसरा पुरूष होता तो ठीक हो जाता। यह जोड़ा गलत हो गया है।
      लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि दुनिया भर के जोड़ों का यही अनुभव है। और आपको अगर बदलने का मौका दे दिया जाये तो इतना ही फर्क पड़ेगा कि जैसे कुछ लोग अर्थी को लेकर मरघट जाते है। कंधे पर रखकर अर्थी को। एक कंधा दुःख ने लगता है तो उठाकर दूसरे कंधे पर अर्थी रख लेते है। थोड़ी देर राहत मिलती है। कंधा बदल गया। थोड़ी देर बाद पता चलता है कि बोझ उतना का उतना ही फिर शुरू हो गया है।
      पश्‍चिम में इतने तलाक होते है। उनका अनुभव यह है कि दूसरी स्‍त्री दस पाँच दिन के बाद फिर पहली स्‍त्री साबित होती है। दूसरा पुरूष 15 दिन के बाद फिर पहला पुरूष साबित हो जाता है। इसके कारण गहरे है। इसके कारण इसी स्‍त्री और इसी पुरूष के संबंधित नहीं है। इसके कारण इस बात से संबंधित है कि जो स्‍त्री और पुरूष का पति और पत्‍नी का संबंध बीच की यात्रा का संबंध है। वह मुकाम नहीं है, वह अंत नहीं है। अंत तो वही होगा, जहां स्‍त्री मां बन जायेगी। और पुरूष फिर बेटा हो जायेगा।
      तो मैं आपसे कह रहा हूं कि मां और बेटे का संबंध आध्‍यात्‍मिक काम का संबंध है और जिस दिन स्‍त्री और पुरूष में,पति-पत्‍नी में भी अध्‍यात्‍मिक काम का संबंध उत्‍पन्‍न होगा,उस दिन फिर मां-बेटे का संबंध स्‍थापित हो जायेगा। और वह स्‍थापित हो जाये तो एक तृप्‍ति है। जिसको मैंने कहा, कन्टेंटमेंट, अनुभव होगा और उस अनुभव से ब्रह्मचर्य फलित होता है। तो यह मत सोचें कि मां और बेटे के संबंध में कोई काम नहीं है। आध्‍यात्‍मिक काम है। अगर हम ठीक से कहें तो आध्‍यात्‍मिक काम को ही प्रेम कह सकते है। वह प्रेम...स्प्रीच्युअलाइज जैसे ही सेक्‍स हो जाता है। वह प्रेम हो जाता है।

एक मित्र ने इस संबंध में और एक बात पूछी है। उन्‍होंने पूछा है कि आपको हम सेक्‍स पर कोई आथोरिटी कोई प्रामाणिक व्‍यक्‍ति नहीं मान सकते है। हम तो आपसे ईश्‍वर के संबंध में पूछने आये थे। और आप सेक्‍स के संबंध में बताने लगे। हम तो सुनने आये थे ईश्‍वर के संबंध में तो आप हमें ईश्‍वर के संबंध में बताइए।
      उन्‍हें शायद पता नहीं कि जिस व्‍यक्‍ति को हम सेक्‍स के संबंध में भी आथोरिटी नहीं मान सकते। उससे ईश्‍वर के संबंध में पूछना फिजूल है। क्‍योंकि जो पहली सीढ़ी के संबंध में भी कुछ नहीं जानता। उससे आप अंतिम सीढ़ी के संबंध में पूछना चाहते हो? अगर सेक्‍स के संबंध में जो मैंने कहा वह स्‍वीकार्य नहीं है। तो फिर तो भूलकर ईश्‍वर के संबंध में मुझसे पूछने कभी मत आना, क्‍योंकि वह बात ही  खत्‍म हो गयी पहल कक्षा के योग्‍य भी मैं सिद्ध नहीं हुआ। तो अंतिम कक्षा के योग्‍य कैसे सिद्ध हो सकता हूं। लेकिन उनके पूछने का कारण है।
      अब तक काम और राम को दुश्‍मन की तरह देखा गया है। अब तक ऐसा समझा जाता रहा है कि जो राम की खोज करते है, उनको काम से कोई संबंध नहीं है। और जो लोग काम की यात्रा करते है। उनको अध्‍यात्‍म से कोई संबंध नहीं है। ये दोनों बातें बेवकूफी की है।
      आदमी काम की यात्रा भी राम की खोज के लिए ही करता है। वह काम का इतना तीव्र आकर्षण, राम की ही खोज है और इसीलिए काम में कभी तृप्‍ति नहीं मिलती। कभी ऐसा नहीं लगता कि सब पूरा हो गया है। वह जब तक राम न मिल जाये। तब तक लग भी नहीं सकता।
      और जो लोग काम के शत्रु होकर राम को खोजते है, राम की खोज नहीं है वह। वह सिर्फ राम के नाम में काम से एस्‍केप है, पलायन है। काम से बचना है। इधर प्राण घबराते है, डर लगता है तो राम चदरिया ओढ़ कर उसमें छिप जाते है। और राम-राम-राम जपते मिले तो जरा देखना वह कहीं काम की याद से तो नहीं बच रहे।
      जब भी कोई आदमी राम-राम-राम जपते मिले तो जरा गौर करना। उसके भीतर राम-राम के जप के पीछे काम का जप चल रहा होगा। सेक्‍स का जप चल रहा होगा। स्‍त्री को देखेगा और माला फेरने लगेगा। कहेगा, राम-राम। वह स्‍त्री दिखी कि वह ज्‍यादा जोर से माला फेरता है। ज्‍यादा जोर से राम-राम कहता है।
      क्‍यों?
      वह भीतर जो काम बैठा है, वह धक्‍के मार रहा है। राम का नाम ले-लेकर उसे भुलाने की कोशिश करता है। लेकिन इतनी आसान तरकीबों से जीवन बदलते होते तो दुनिया कभी की बदल गयी होती। उतना आसान रास्‍ता नहीं हे।
      तो मैं आपसे कहना चाहता हूं। कि काम को समझना जरूरी है अगर आप अपने राम की और परमात्‍मा की खोज को भी समझना चाहते है। क्‍यों? यह इसीलिए मैं कहता हूं कि एक आदमी बंबई से कलकत्‍ता की यात्रा करना चाहे; वह कलकत्ता के संबंध में पता लगाये कि कलकत्‍ता कहां है किस दिशा में है? लेकिन उसे यही पता न हो कि बंबई कहां है और किस दिशा में है और कलकत्‍ता की वह यात्रा करना चाहे, तो क्‍या वह कभी सफल हो सकेगा। कलकत्‍ता जाने के लिए सबसे पहले यह पता लगाना जरूरी है कि बंबई कहां हे। जहां मैं हूं, वह किस दिशा में है? फिर कलकत्ता की तरफ दिशा विचार की जा सकती हे। लेकिन मुझे यही पता नहीं कि बंबई कहां है, तो कलकत्ता के बाबत की सारी जानकारी फिजूल है....क्‍योंकि यात्रा मुझे बंबई से शुरू करना पड़ेगी। यात्रा का प्रारंभ बंबई से करना है। और प्रारंभ पहले है, अंत बाद में।
      आप कहां खड़े है?
      राम की यात्रा करना चाहते है, वह ठीक। भगवान तक पहुंचना चाहते है वह ठीक। लेकिन खड़े कहां है। खड़े तो काम में है, खड़े तो वासना में है, खड़े तो सेक्‍स में है। वह आपका निवास गृह है जहां से आपको कदम उठाने है। और यात्रा करनी है। तो पहले तो उस जगह को समझ लेना जरूरी है, जहां हम है, जो है उसे, जो एक्‍जुअलटि, पहले जो वास्‍तविक है उसे पहले समझ लेना जरूरी है। तब हम उसे भी समझ सकते है जो संभावना है। जो पासिबिलटि है जो हम हो सकते है, उसे जानने के लिए,जो हम है उसे पहले जान लेना जरूरी है। अंतिम कदम को समझने के पहले पहला कदम समझ लेना जरूरी है। क्‍योंकि पहला कदम ही अंतिम कदम तक पहुंचाने का रास्‍ता बनेगा। और अगर पहला कदम ही गलत होगा तो अंतिम कदम कभी भी सही नहीं होने वाला है।
      राम से भी ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण  काम को समझना है, परमात्‍मा से भी ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण सेक्‍स को समझना है, क्‍यों इतना महत्‍वपूर्ण है?
      इसी लिए महत्‍वपूर्ण है कि अगर परमात्‍मा तक पहुंचना है तो सेक्‍स को बिना समझे आन नहीं पहुंच सकते। इसलिए यह मत पूछे।
      रह गयी अथरीटी की बात कि मैं आथोरिटी हूं या नहीं—यह कैसे निर्णय होगा। अगर मैं ही इस संबंध में कुछ कहूंगा तो वह निर्णायक नहीं रहेगा, क्‍योंकि मेरे संबंध में ही निर्णय होना है। अगर मैं ही कहूं मैं अथरीटी हूं तो उसका कोई मतलब नहीं। अगर मैं कहूं कि मैं अथरीटी नहीं हूं। तो उसका भी कोई मतलब नहीं है। क्‍योंकि मेरे दोनों वक्तव्य के संबंध में विचारणीय है कि अथारिटेटिव आदमी कह रहा है। गैर-अथारिटेटिव। मैं जो भी कहूंगा इस संबंध में वह फिजूल है। मैं अथरीटी हूं या नहीं  यह तो आप थोड़े सेक्‍स की दुनिया में प्रयोग करके देखना। जब अनुभव आयेगा तो पता चलेगा। कि जो मैंने कहा था वह अथरीटी थी या नहीं, उसके बिना कोई रास्‍ता नहीं है।
      मैं आपसे कहता हूं कि तैरने का यह रास्‍ता है, आप कहें कि , लेकिन हम कैसे मानें कि आप तैरने के संबंध में प्रामाणिक बात कर रहे है। तो मैं कहता हूं कि चलिए, आपको साथ लेकर नदी में उतरा जा सकता है। आपको नदी में उतारे देता हूं। मैने जो कहा है आपको, अगर वह कारगर हो जाये पार होने में हाथ पैर चलाने में और तैरने में तो आप समझना कि जो मैंने कहा है, वह कुछ जानकर कहा है।
      उन्‍होने यह भी कहा है कि फ्रायड अथरीटी हो सकते है। लेकिन मैं आपसे कहता हूं कि जो मैं कह रह हूं, उसपर शायद फ्रायड दो कौड़ी भी नहीं जानते। फ्रायड मानसिक तल से कभी उपर उठे ही नहीं। उनको कल्‍पना भी नहीं है। आध्‍यात्‍मिक सेक्‍स की। फ्रायड की सारी जानकारी रूग्‍ण सेक्‍स की है—हिस्‍टेरिक, होमोसेक्सुअलिटी, मास्‍टरबेशन—इस सबकी खोजबीन है। रूग्‍ण सेक्‍स, विकृत सेक्‍स के बाबत खोजबीन है, पैथोलाजिकल, है। बीमार की चिकित्‍सा की वह खोज है। फ्रायड एक डाक्‍टर है फिर पश्‍चिम में जिन लोगों को उसने अध्‍यान किया, वे मन के तल के सेक्‍स के लोग है। उसके पास एक भी अध्‍यात्‍मिक नहीं है। एक भी केस हिस्‍ट्री नहीं जिसको स्‍प्रिचुअल सेक्‍स कहा जा सके।
      तो अगर खोज करनी है कि जो मैं कह रहा हूं, वह कहां तक सच है, तो सिर्फ एक दिशा में खोज हो सकती है, वह दिशा है तंत्र। और तंत्र के बाबत हमने हजारों साल से सोचना बंद कर दिया है। तंत्र ने सेक्‍स को स्‍प्रिचुअल बनाने का दुनिया में सबसे पहला प्रयास किया था। खजुराहो में खड़े मंदिर, पुरी और कोनार्क में मंदिर सबूत है। कभी आप खजुराहो गये है? कभी आपने जाकर खजुराहो की मूर्तियां देखी?
      तो आपको दो बातें अद्भुत अनुभव होगी। पहली तो बात यह है कि नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर भी आपको ऐसा नहीं लगेगा कि उनमें जरा भी कुछ गंदा है। जरा भी कुछ अगली है। नग्‍न मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि कुछ कुरूप है, कुछ बुरा है। बल्‍कि मैथुन की प्रतिमाओं को देखकर एक शांति एक पवित्रता का अनुभव होगा जो बड़ी हैरानी की बात है। वे प्रतिमाएं आध्‍यात्‍मिक सेक्‍स काक जिन लोगों ने अनुभव किया था। उन शिल्‍पियों से निर्मित करवायी गई थी।
      उन प्रतिमाओं के चेहरों पर.....आप एक सेक्‍स से भरे हुए आदमी को देखें उसकी आंखे देखें उसका चेहरा देखें, वह घिनौना, घबरानें वाला, कुरूप प्रतीत होगा। उसकी आंखों से एक झलक मिलती हुई मालूम होगी, जो घबरानें वाली और डराने वाली होगी। प्‍यारे से प्‍यारे आदमी को, अपने निकटतम प्‍यारे से प्‍यारे व्‍यक्‍ति को भी स्‍त्री जब सेक्‍स से भरा हुआ पास आता हुई देखती है तो उसे दुश्‍मन दिखायी पड़ता है, मित्र नहीं  दिखाई पड़ता। प्‍यारी से प्‍यारी स्‍त्री को अगर कोई पुरूष अपने निकट सेक्‍स से भरा हुआ आता हुआ दिखायी देगा तो उसे उसके भीतर नरक दिखायी देगा। स्‍वर्ग नहीं दिखायी पड़ेगा।
      लेकिन खजुराहो की प्रतिमाओं को देखें तो उनके चेहरे को देख कर ऐसा लगता है। जैसे बुद्ध का चेहरा हो, महावीर का चेहरा हो, मैथुन की प्रतिमाओं और मैथुन रत जोड़े के चेहरे पर जो भाव है, वे समाधि के है, और सारी प्रतिमाओं को देख लें और पीछे एक हल्‍की सी शांति की झलक छूट जायेगी। और कुछ भी नहीं। और एक आश्‍चर्य आपको अनुभव होगा।
      आप सोचते होंगे कि नंगी तस्वीरे और मूर्तियां देखकर आपको भीतर कामुकता पैदा होगी। तो मैं आपसे कहता हूं फिर आप देर न करें और सीधे खजुराहो चल जायें। खजुराहो पृथ्‍वी इस समय अनूठी चीज है।
      लेकिन हमारे कई नीति शास्‍त्री पुरूषोतम दास टंडन और उनके कुछ साथी इस सुझाव के थे कि खजुराहो के मंदिर पर मिट्टी छाप कर दीवालें बंद कर देनी चाहिए, क्‍योंकि देखने से वासना पैदा हो सकती है। मैं हैरान हो गया।
      खजुराहो के मंदिर जिन्‍होंने बनाये थे, उनका ख्‍याल यह था कि इन प्रतिमाओं को अगर कोई बैठकर घंटे भर देखे तो वासना से शून्‍य हो जायेगा। वे प्रतिमाएं आब्‍जेक्‍ट्स फार मेडिटेशन रहीं हजारों वर्ष तक। वे प्रतिमाएं ध्‍यान के लिए ऑब्‍जेक्‍स का काम करती है। जो लोग अति कामुक थे। उन्‍हें खजुराहो के मंदिर के पास भेज कर उन पर ध्‍यान करवाने के लिए कहा जाता था। कि तुम ध्‍यान करो—इन प्रतिमाओं को देखो और इनमें लीन हो जाओ।
      और यह आश्‍चर्य कि बात है, हालांकि हमारे अनुभव में है, लेकिन हमें ख्‍याल नहीं। आपको पता है रास्‍ते पर दो आदमी लड़ रहे हों और आप रास्‍ते से चले जा रहे हों, तो आपका मन होता है कि खड़े होकर उनकी लड़ाई देखे। लेकिन क्‍यों? आपने कभी ख्‍याल किया लड़ाई देखने से आपको क्‍या फायदा है? हजार जरूरी काम छोड़कर आप आधे घंटे ते दो आदमियों की मुक्‍केबाजी देख सकते है, उससे क्‍या फायदा है?
      शायद आपको पता नहीं फायदा एक है। दो आदमियों को लड़ते देखकर आपके भीतर भी जो लड़ने की प्रवृति है, वह विसर्जित होती है। जिसका निकास हो जाता है। वह इवोपरेट हो जाती है।
      अगर मैथुन की प्रतिमा को कोई घंटे भर तक शांत बैठकर ध्‍यान मग्‍न होकर देखे तो उसके भीतर जो मैथुन करने का पागल भाव है, वह विलीन हो जाता है।
      एक मनोवैज्ञानिक के पास एक आदमी को लाया गया था। वह एक दफ्तर में काम करता है। और अपने मालिक से अपने बॉस से बहुत रूष्‍ट है। मालिक उससे कुछ भी कहता है तो उसे बहुत अपमान मालूम होता है। और उसके मन में होता है कि निकालू जूता और मार दूँ।
      लेकिन मालिक को जूता कैसे मारा जो सकता है। हालांकि ऐसे नौकर कम ही होंगे। जिनके मन में ये ख्‍याल नहीं आता होगा। कि निकालू जूता और मार दूँ। ऐसा नौकर खोजना मुश्‍किल है। अगर आप मालिक है तो भी आपको पता होगा और अगर आप नौकर है तो भी आपको पता होगा।
      नौकर के मन में नौकर होने की भारी पीडा है। और मन होता है कि इसका बदला ले लूं। लेकिन नौकर अगर बदला ले सकता तो नौकर होता क्‍यों? तो बह बेचारा मजबूर है और दबाये चला जाता है। दबाये चला जाता है।
      फिर तो हालत उसकी ऐसी रूग्‍ण हो गयी कि उसे डर पैदा हो गया कि किसी दिन आवेश में मैं जूता मार ही न दूँ। वह जूता घर ही छोड़ जाता है। लेकिन दफ्तर में उसे जूते की दिन भर याद आती है। और जब मालिक दिखायी देता है वह पैर टटोलता है। कि जूता कहां है—लेकिन जूता तो वह घर छोड़ आया है। और खुश होता है कि अच्‍छा हुआ। मैं छोड़ आया। किसी दिन आवेश में क्षण में निकल आये जूता तो मुश्‍किल होगी।
      लेकिन घर जूता छोड़ आने से जूते से मुक्‍ति नहीं होती। जूता उसका पीछा करने लगा। वह कागज पर कुछ भी बनाता है तो जूता बन जाता है। वह रजिस्‍टर पर कुछ ऐसों ही लिख रहा है कि पाता है जूते ने आकार ले लेना शुरू कर दिया। उसके प्राणों में जूता घिरनें लगा। यह बहुत घबरा गया है उसे ऐसा डर लगने लगा है धीरे-धीरे कि मैं किसी भी दिन हमला कर सकता हूं। तो उसने अपने घर आकर कहा कि अब मुझे नौकरी पर जाना ठीक नहीं, मैं छूटी लेना चाहता हूं; क्‍योंकि अब हालत भी ऐसी हो गयी कि मैं दूसरे का जूता निकालकर भी मार सकता हूं। और अपने जूते की जरूरत नहीं रह गयी। मेरे हाथ दूसरे लोगों के पैरों की तरफ भी बढ़ने की कोशिश करते है।
      तो घर के लोगों ने समझा कि वह पागल हो गया है। उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गये। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा,इसकी बीमारी बड़ी छोटी सी है। इसके मालिक की एक तस्‍वीर घर में लगा लो और उससे कहो, रोज सुबह पाँच जूता धार्मिक भाव से मारा करे। पाँच जूता मारे तब दफ्तर जाये—बिल्‍कुल रिलीजसली। ऐसा नहीं की किसी दिन चुक जाये। जैसे लोग ध्‍यान,जप करते है—बिलकुल वक्‍त पर पाँच जूता मारे। दफ्तर से लौटकर पाँच जूता मारे। वह आदमी पहले तो बोला, यह क्‍या पागलपन की बातें है। लेकिन भीतर से उसे खुशी मालूम हो रही थी। वह हैरान हुआ उसने कहा, लेकिन मुझे भीतर खुशी मालूम हो रही है।
      तस्‍वीर टांग ली गयी। और वह रोज पाँच जूते मारकर दफ्तर गया। पहले दिन ही जब वह पाँच जूते मारकर दफ्तर गया तो उसे एक बड़ा अनुभव हुआ। मालिक के प्रति उसने दफ्तर में उतना क्रोध अनुभव नहीं किया। और 15 दिन के भीतर तो वह मालिक के प्रति अत्‍यंत विनयशील हो गया। मालिक को भी हैरानी हुई। उसे तो कुछ पता नहीं कि भी क्‍या चल रहा है। उसने उसको पूछा कि तुम आजकल बहुत आज्ञाकारी, बहुत विनम्र, बहुत शांत दिल हो गये हो। बात क्‍या है? उसने कहा कि मत पूछिए, नहीं तो सब गूडगोबर हो जायेगा।
      क्‍या हुआ—तस्‍वीर को जूते मारने से कुछ हो सकता है। लेकिन तस्‍वीर को जूते मारने से वह जो जूते मारने का भाव है,वह तिरोहित हुआ, वह इवोपरेट हुआ, वह वाष्‍पीभूत हुआ।
      खजुराहो के मंदिर या कोणार्क और पुरी के मंदिर जैसे मंदिर सारे देश के गांव-गांव में होने चाहिए।
      बाकी मंदिरों की कोई जरूरत नहीं है। वे बेवकूफी के सबूत है। उनमें कुछ नहीं है। उनमें न कोई वैज्ञानिकता है न कोई अर्थ है। न कोई प्रयोजन है। वे निपट गँवारी के सबूत है। लेकिन खजुराहो के मंदिर जरूरी अर्थपूर्ण है।
      जिस आदमी का मन सेक्‍स से बहुत भरा हो, वह जाकर इन मंदिरों कि मूर्तियों पर ध्‍यान करे। वह हलका होकर लौटेगा। शांत होकर लौटेगा। तंत्रों ने जरूर सेक्‍स को आध्यात्मिक बनाने की कोशिश की थी। लेकिन इस मुल्‍क के नीति शास्त्री अरे मॉरल प्रीचर्स है, उन दुष्‍टों ने उनकी बात काक समाज तक नहीं पहुंचने दिया। वह मेरी बात भी नहीं पहुंचने देना चाहते।

यहां से मैं भारतीय विद्या भवन से बोल कर जबलपुर वापस लौटा और तीसरे दिन मुझे एक पत्र मिला कि अगर आप इस तरह की बातें कहना बंद नहीं कर देते है तो आपको गोली क्‍यों ने मार दि जाये? मैंने उत्‍तर देना चाहा था, लेकिन वह गोली मारने वाले सज्‍जन बहुत कायर मालूम पड़े। न उन्‍होंने नाम लिखा था, न पता लिखा था। शायद वे डरे होंगे कि मैं पुलिस को न दे दू्ं। लेकिन अगर वह यहां कहीं हों—अगर होंगे तो जरूर किसी झाड़ के पीछे या किसी दीवाल के पीछे छिप कर सून रहे होंगे। अगर वह यहां कहीं हों तो मैं उनको कहना चाहता हूं। कि पुलिस को देने की कोई भी जरूरत नहीं है। वह अपना नाम और पता मुझे भेज दें। ताकि में उनको उत्‍तर दें सकूँ। लेकिन अगर उनकी हिम्‍मत न हो तो मैं उत्‍तर यहीं दिये देता हूं। ताकि वह सुन ले।
      पहली तो बात यह है कि इतनी जल्‍दी गोली मारने की मत करना, क्‍योंकि गोली मारते ही जो बात मैं कह रहा हूं। वह परम सत्‍य हो जायेगी। इसका उनको पता होना चाहिए। जीसस क्राइस्‍ट को दुनिया कभी की भूल गयी होती। अगर उसको सूली न मिली होती। सूली देने वाले ने बड़ी कृपा की।
      और मैंने तो यहां तक सूना है जो इनर सर्किलस में जो जीवन की गहराईयों की खोज करते है। उनसे मुझे यह भी ज्ञात हुआ है की जीसस ने खुद अपनी सूली लगवाने की योजना और षड़यंत्र किया था। जीसस ने चाहा था कि मुझे सूली लगा दी जाये। क्‍योंकि सूली लगते ही जो जीसस ने कहा है वह करोड़ों-करोड़ों वर्ष के लिए अमर हो जायेगा। और हजारों लोगों के, लाखों लोगो के काम आ सकेगा।
      इस बात की बहुत संभावना है, क्‍योंकि जूदास। जिसने ईसा को तीस रूपये में बेचा था। वह ईसा के प्‍यारे से प्‍यारे शिष्‍यों में से एक था। और यह संभव नहीं है कि जो वर्षों से ईसा के पास रहा हो, वह सिर्फ तीस रूपये में ईसा को बेच दे। सिवाय इसके कि ईसा ने उसको कहा हो कि तू कोशिश कर, दुश्‍मन से मिल जा और किसी तरह मुझे उलझादे और सूली लगवा दे,ताकि मैं जो कह रहा हूं, वह अमृत का स्‍थान ले-ले और करोड़ों लोगों का उद्धार बन जाये।
      महावीर को अगर सूली लगी होती तो दुनिया में केवल तीस लाख जैन नहीं होते। तीस करोड़ हो सकते थे। लेकिन महावीर शांति से मर गये, सूली का उन्‍हें पता नहीं था। न किसी ने लगायी, न उन्‍होंने लगवाने की व्‍यवस्‍था ही की। आज आधी दुनियां ईसाई है। उसका इसके सिवाय कोई कारण नहीं कि ईसा अकेला सूली पर लटका हुआ है—न बुद्ध, न मुहम्‍मद, न महावीर,न कृष्‍ण, न राम। सारी दुनिया भी ईसाई हो सकती है। यह सूली पर लटकने से यह फायदा हो गया। तो मैं उनसे कहता हूं कि जल्‍दी मत करना। नहीं तो नुकसान में पड़ जाओगे।   
      दूसरी बात यह कहना चाहता हूं। कि घबराये न वे। मेरे इरादे खाट पर मरने के है भी नहीं है। मैं पूरी कोशिश करूंगा कि कोई न कोई गोली मार ही दे। तो मैं खूद ही कोशिश करूंगा, जल्‍दी  उनको करने की आवश्‍यकता नहीं है। समय आने पर मैं चाहूंगा कि कोई गोली मार ही दे। जिंदगी भी काम आती है और गोली लग जाये तो मौत भी काम आती है। और जिंदगी से ज्‍यादा काम आ जाती है। जिंदगी जो नहीं दे पाती है, वह गोली लगी हुई मौत दे जाती है। अब तक हमेशा यह भूल की है दुश्‍मनों ने। नासमझी की है। सुकरात को जिन्‍होंने सूली पर लटका दिया, जिन्‍होंने जहर पिला दिया; मंसूर को जिन्‍होंने सूली पर लटका दिया। और अभी गँडासे ने गांधी को गोली मार दी है। गँडासे को पता नहीं कि गांधी के भक्‍त और गांधी के अनुयायी गांधी को इतने दूर तक स्‍मरण कराने में कभी सफल नहीं हो सकते थे। जितना अकेले गँडासे ने कर दिया है।
      और अगर गांधी ने मरते वक्‍त। जब उन्‍हें गोली लगी और हाथ जोड़कर गँडासे को नमस्‍कार किया होगा तो बड़ा अर्थपूर्ण था वह नमस्‍कार। वह अर्थपूर्ण था कि मेरा अंतिम शिष्‍य सामने आ गया। अब ये मुझे आखिर और हमेशा के लिए अमर कर दिये दे रहा है। भगवान ने आदमी भेज दिया, जिसकी जरूरत थी।
      जिंदगी का ड्रामा, वह जो जिंदगी की कहानी है, वह बहुत उलझी हुई है। वह इतनी आसान नहीं है। खाट पर मरने वाले हमेशा के लिए मर जाते है। गोली मरने वालों का मरना बहुत मुश्‍किल हो जाता है।
      सुकरात से किसी ने पूछा उसके मित्रों ने कि अब तुम्‍हें जहर दे दिया जायेगा। अब तुम मर जाओगे तो हम तुम्‍हारे गाड़ने की कैसी व्‍यवस्‍था करेंगेजलाये, कब्र बनाये, क्‍या करें? सुकरात ने कहा पागलों तुम्‍हें नहीं पता कि तुम मुझे नहीं गाड़ सकोगे। तुम जब सब मिट जाओगे, तब भी मैं जिंदा रहूंगा। मैंने मरने की तरकीब जो चुनी है, वह हमेशा जिंदा रहने वाली है।
      तो वह मित्र अगर कहीं हों तो उनको पता होना चाहिए, जल्‍दी न करें। जल्‍दी में नुकसान हो जायेगा। उनका। मेरा कुछ होने वाला नहीं है। क्‍योंकि जिसको गोली लग सकती है वह मैं नहीं हूं। और जो गोली लगने के बाद भी पीछे बच जाता है वहीं हूं। तो वह जल्‍दी न करें। और दूसरी बात यह कि वह घबराये भी न। मैं हर तरह की कोशिश करूंगा कि खाट पर न मर सकूँ। वह मरना बड़ा गड़बड़ है। वह बेकार ही मर जाना है। वह निरर्थक मर जाना है। मर जाने की भी सार्थकता चाहिए।
      और तीसरी बात कि वह दस्‍तखत करने से न घबराये, न पता लिखने से घबराये। क्‍योंकि अगर मुझे लगे कि कोई आदमी मारने को तैयार  हो गया है तो वह जहां मुझे बूलायेगा, मैं चुपचाप बिना किसी को खबर किये, वहां आने को हमेशा तैयार हूं। ताकि उसके पीछे कोई मुसीबत न आये।
      लेकिन ये पागलपन सूझते है। इस तरह के धार्मिक.....ओर जिस बेचारे ने लिखा है , उसने यही सोच कर लिखा है कि वह धर्म की रक्षा कर रहा है। उसने यही सोचकर लिखा है कि मैं धर्म को मिटाने की कोशिश कर रहा हूं। वह धर्म की रक्षा कर रहा है। उसकी नीयत में कहीं खराबी नहीं है। उसके भाव बड़े अच्‍छे है। लेकिन बुद्धि मूढ़ता की है।
      तो हजारों साल से तथाकथित नैतिक लोगों ने जीवन के सत्‍यों को पूरा-पूरा प्रकट होने में बाधा डाली है, उसे प्रकट नहीं होने दिया गया है। नहीं प्रकट होने के कारण एक अज्ञात व्‍यापक हो गया और उसे अज्ञात—अंधेरी रात में हम टटोल रहे है। भटक रहे है, गिर रहे है। और वे मॉरल टीचर्स वे नीतिशास्‍त्र के उपदेशक,हमारे इस अंधकार के बीच में मंच बनाकर उपदेश देने का काम करते रहते है।
      यह भी सच है कि जिस दिन हम अच्‍छे लोग हो जायेंगे, जिस दिन हमारे जीवन में सत्‍य की किरण आयेगी समाधि की कोई झलक आयेगी। जिस दिन हमारा सामान्‍य जीवन  भी परमात्‍मा-जीवन में रूपांतरित होने लगेगा। उस दिन उपदेशक व्‍यर्थ हो जायेगे। उसकी कोई जरूरत नहीं रह जायेगी। उपदेशक तभी तक सार्थक है, जब तक लोग अंधेरे में भटकते है।
      गांव में चिकित्‍सक की तभी तक जरूरत है। जब तक लोग बीमार पड़ते है। जिस दिन आदमी बीमार पड़ना बंद कर देगा। उस दिन चिकित्‍सक को विदा कर देना पड़ेगा। तो हालांकि चिकित्‍सक ऊपर से बीमार का इलाज करता हुआ मालूम पड़ता है। लेकिन भी तर से उसके प्राणों को आकांक्षा यही होती है। कि लोग बीमार पड़ते रहें। यह बड़ी उलटी बात है। क्‍योंकि चिकित्‍सक जीता है लोगों के बीमार पड़ने पर। उसका प्रोफेशन बड़ा कंट्राडिक्‍री है। उसका धंधा बड़ा विरोधी है। कोशिश तो उसकी यह है कि लोग बीमार पड़त रहे। और जब मलेरिया फैलता है और फ्लू की हवाएँ आती है। तो वह भगवान को एकांत में धन्‍यवाद देता है। क्‍योंकि यह धंधे को वक्त आया सीजन है।
      मैंने सुना है, एक रात एक मधुशाला में बड़ी देर तक कुछ मित्र आकर खाना-पीना करते रहे, शराब पीते रहे। उन्‍होंने  खूब मौज की और जब वे चलने लगे आधी रात को तो शराब खाने के मालिक ने अपनी पत्‍नी को कहा कि भगवान को धन्‍यवाद बड़े लोग आये। ऐसे लोग रोज आते रहें तो कुछ ही दिनों में हम मालामाल हो जायें।
      विदा होते मेहमानों को सुनायी पड़ गया और जिसने पैसे चुकाये थे उसने कहा, दोस्‍त भगवान से प्रार्थना करो कि हमारा भी धंधा रोज चलता रहे तो हम रोज आयें।
      चलते-चलते उसे शराबघर के मालिक ने पूछा भाई तुम्‍हारा धंधा क्‍या है?
      उसने कहां, मेरा धंधा पूछते हो, मैं मरघट पर लकडियां बेचता हूं, मुद्रों के लिए। जब आदमी ज्‍यादा मरते है, तब मेरा धंधा अच्‍छा चलता है। तब हम थोड़ा खुश हो जाते है। हमारा भी धंधा अच्‍छा चलता रहे तो हम तो रोज यहां आये।
      चिकित्‍सक का धंधा है कि लोगों को ठीक करें। लेकिन फायदा, लाभ और शोषण इसमें है कि लोग बीमार पड़ते रहें। तो एक हाथ से चिकित्‍सक ठीक करता है और उसके प्राणों की प्रार्थना होती है कि मरीज जल्‍दी ठीक न हो जाये।
      इसीलिए पैसे वाले मरीज होने में बड़ी देर लगती है। गरीब मरीज जल्‍दी ठीक हो जाया है; क्‍योंकि गरीब मरीज को ज्‍यादा देर बीमार रहने से कोई फायदा नहीं है। चिकित्‍सक को कोई फायदा नहीं है। चिकित्‍सक को फायदा है अमीर मरीज है, तो अमीर मरीज लम्‍बा बीमार रहता है। सच तो यह है कि अमीर अक्‍सर ही बीमार रहते है। यह चिकित्‍सक की प्रार्थनाएं काम कर रही है। उसकी आंतरिक इच्‍छा भी उसके हाथ को रोकती है कि मरीज एकदम ठीक ही न हो जाये।
      उपदेशक की स्‍थिति भी ऐसी ही है। समाज जितना नीतिभ्रष्‍ट फैल जितना अनाचार फैले उतना ही उपदेशक का मंच ऊपर उठने लगता है। क्‍योंकि जरूरत आ जाती है, कि वह लोगों को कहं; अहिंसा का पालन करो, सत्‍य का पालन करो, ईमानदारी स्‍वीकार करो; यह व्रत पालन करो, वह व्रत पालन करो। अगर लोग व्रती हों, अगर लोग संयमी हों, अगर लोग शांत हों, ईमानदार हों तो उपदेशक मर गया। उसकी कोई जगह न रही।
      और हिंदुस्‍तान में सारी दुनिया से ज्‍यादा उपदेशक क्‍यों है? ये गांव-गांव गुरु और घर-घर स्‍वामी और संन्‍यासी क्‍यों है?यह महात्‍माओं की इतनी भीड़ और यह कतार क्‍यों है?
      यह इसलिए नहीं है कि आप बड़े धार्मिक देश में रहते है, जहां कि संत-महात्‍मा पैदा होते है। यह इसीलिए है कि आप इस समय पृथ्‍वी पर सबसे ज्‍यादा अधार्मिक और अनैतिक देश है। इसीलिए इतने उपदेशकों को पालने का ठेका और धंधा मिल गया है। हमारा तो जातीय रोग हो गया है।
      मैंने सुना हे कि अमरीका में किसी ने एक लेख लिखा हुआ था। किसी मित्र ने वह लेख मेरे पास भेज दिया। उसमें एक कमी थी, उन्‍होंने मेरी सलाह चाही। किसी ने लेख लिखा था वहां—मजाक का कोई लेख था, उसमें लिखा था कि हर आदमी और हर जाती का लक्षण शराब पिलाकर पता लगाया जा सकता है। कि बेसिक कैरेक्‍टर क्‍या है?
      उसने लिखा था कि अगर डच आदमी को शराब पिला दी जाये तो वह एकदम से खाने पर टूट पड़ता है, फिर वह किचन के बाहर ही नहीं निकलता। फिर वह एकदम खाने की मेज से उठता ही नहीं। बस शराब पी कि वह दो-दो, तीन-तीन घंटे तक खाना खाता रहता है। अगर फ्रैंच को शराब पिला दी जायें तो शराब पीने के बाद वह एकदम नाच-गाने के लिए तत्‍पर हो जाता है। और अंग्रेज को शराब पिला दि जाये तो वह एक दम चुप हो कर एक कोने में बैठ जाता है। वह वैसे ही चुप बैठा रहता है,और शराब पी ली तो उसका कैरेक्‍टर है, वह और चुप हो जाता है। ऐसे दुनिया के सारे लोगों के लक्षण थे। लेकिन भूल से यह  अज्ञान के वश भारत के बाबत कुछ भी नहीं लिखा था, तो किसी मित्र ने मुझे लेख भेजा और कहा कि आप भारत के कैरेक्‍टर की बाबत क्‍या कहते है। अगर भारतीय को शराब पिलायी जायें तो वह क्‍या करेगा।
      तो मैंने कहा कि वह तो जग जाहिर बात है। भारतीय शराब पियेगा। और तत्‍काल उपदेश देना शुरू कर देगा। यह उसका कैरेक्‍टरस्‍टिक है, वह उसका जातीय गुण है।
      यह जो—यह जो उपदेशकों का समाज और साधु, संतों और महात्‍माओं की लंबी कतार है, ये रोग के लक्षण है, ये अनीति के लक्षण है। और मजा यह है कि इनमें से कोई भी भीतर ह्रदय से कभी नहीं चाहता कि अनीति मिट जाये, रोग मिट जाये;क्‍योंकि उनके मिटने के साथ वह भी मिट जाते है,प्राणों की पुकार तो यही कहती है कि रोग बना रहे और बढ़ता रहे।
      और उस रोग को बढ़ाने के लिए जो सबसे सुगम उपाय है वह यह है, कि जीवन के संबंध में सर्वांगीण ज्ञान उत्‍पन्‍न न हो सके। और जीवन के जो सबसे ज्‍यादा गहरे केंद्र है, जिनके अज्ञान के कारण अनीति और व्‍यभिचार और भ्रष्‍टाचार फैलता है,उन केंद्रों को आदमी कभी भी न जान सकें क्‍योंकि उन केंद्रों को जान लेने के बाद मनुष्‍य के जीवन से अनीति तत्‍काल विदा हो सकती है।
      और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि सेक्‍स मनुष्‍य की अनीति का सवार्धिक केंद्र है। मनुष्‍य के व्‍यभिचार का, मनुष्‍य की विकृति का सबसे मौलिक, सबसे आधारभूत केंद्र और इसलिए धर्मगुरू उसकी बिलकुल बात नहीं करना चाहते है।
      एक मित्र ने मुझे खबर भिजवायी है कि कोई संत-महात्‍मा सेक्‍स की बात नहीं करता। और आपने सेक्‍स की बात की तो हमारे मन में आपका आदर बहुत कम हो गया है।
      मैंने उनसे कहा,उसमें कुछ गलती नहीं हुई। पहले आदर था, उसमें गलती थी। इसमें क्‍या गलती हुई? मेरे प्रति आदर होने की जरूरत क्‍या है? मुझे आदर देने का प्रयोजन क्‍या है? मैंने कब मांगा है कि मुझे आदर दें? देते थे तो आपकी गलती थी। नहीं देते तो आपकी कृपा, मैं महात्‍मा नहीं रहा। मैंने कभी चाहा होता कि मैं महात्‍मा होऊं तो मुझे बड़ी पीड़ा होती। मैं कहता,क्षमा करना भूल से ये बातें मैंने कह दीं।
      मैं महात्‍मा था नहीं, मैं महात्‍मा हूं नहीं, मैं महात्‍मा होना चाहता नहीं।
      जहां इतनी बड़े जगत में इतने दीन-हीन लोग है, वहां एक आदमी महात्‍मा होना चाहे, उससे ज्‍यादा निम्‍न प्रवृति और स्‍वार्थ से भरा हुआ आदमी नहीं है। जहां इतने दीन-हीन आत्‍माओं का विस्‍तार है, वहां महात्‍मा होने की कल्‍पना और विचार ही पाप है।
      महान मनुष्‍यता में चाहता हूं। महान मनुष्‍य में चाहता हूं।
      महात्‍मा होने की मेरे मन में कोई और आकांक्षा नहीं है। महात्‍माओं के दिन विदा हो जाने चाहिए। महात्‍माओं की कोई जरूरत नहीं है। महान मनुष्‍य की जरूरत है। महान मनुष्‍यता की जरूरत है। ग्रेट मैन नही, ग्रेट ह्रुमिनिटी। बड़े आदमी बहुत हो चुके। उनसे क्‍या फायदा हुआ। अब बड़े आदमियों की जरूरत नहीं, बड़ी आदमियत की जरूरत है।
      तो मुझे.....मुझे अच्‍छा लगा कम से कम एक आदमी का इल्‍यूजन तो टूटा। एक आदमी तो डिसइल्‍यूजंड हुआ। एक आदमी को तो यह पता चल गया कि यह आदमी महात्‍मा नहीं है। एक आदमी का भ्रम टूट गया,यह भी बड़ी बात है। वह शायद सोचे होंगे कि इस भांति कहकर वह शायद मुझे प्रलोभन दे रहे है कि मुझे महात्‍मा और महर्षि बनाया जा सकता है। अगर मैं इस तरह की बातें न करूं।
      आज तक महार्षियों और महात्‍माओं को इसी तरह बनाया गया है। इसीलिए उन कमजोर लोगों ने इस तरह की बातें नहीं की, जिनसे महात्मा पन छिन सकता था। अपना महात्मा पन बचा रखने के लिए—उस प्रलोभन में जीवन का कितना अहित हो सकता है इसका उन्‍होंने कोई भी ख्‍याल नहीं किया।
      मुझे चिंता नहीं है, मुझे विचार भी नहीं है, मुझे ख्‍याल भी नहीं है। मुझे घबराहट ही होती है, जब कोई मुझे महात्‍मा मानना चाहेगा।
      और आज की दुनिया में महात्‍मा में महात्‍मा बन जाता और महर्षि बन जाना, इतना आसान है। जिसका कोई हिसाब नहीं। हमेशा आसान रहा है। हमेशा आसान रहेगा। वह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि महान मनुष्‍य कैसे पैदा हो? उसके लिए हम क्‍या कर सकते है, क्‍या सोच सकते है। क्‍या खोज सकते है। और मुझे लगता है कि मैंने बुनियादी सवाल पर जो बातें आपसे कहीं है। वह आपके जीवन में एक दिशा तोड़ने में सहयोगी हो सकती है। उनसे एक मार्ग प्रकट हो सकता है। और क्रमश: आपकी वासना का रूपांतरण आत्‍मा की दिशा में हो सकता है। अभी हम वासना है, आत्‍मा नहीं। कल हम आत्‍मा भी हो सकते है। लेकिन वह होंगे कैसे? इसी वासना के सर्वांग रूपांतरण से इसी शक्‍ति को निरंतर ऊपर ले जाने से।
      जैसा मैंने कल आपको कहा, उस संबंध में भी बहुत से प्रश्‍न हे। उसके संबंध में एक बात कहूंगा।
      मैंने आपको कहा कि संभोग में समाधि की झलक का स्‍मरण रखें, रिमेम्‍बरिग रखें और उस बिंदु को पकड़ने की कोशिश करें। उस बिंदु को जो विद्युत की तरह संभोग के बीच में चमकती है समाधि का। एक क्षण को जो चमक आती है, और विदा हो जाती है। उस बिंदु को पकड़ने की कोशिश करें कि वह क्‍या है। उसे जानने की कोशिश करें। उसको पकड़ लें पूरी तरह से कि वह क्‍या है। और एक दफा उसे आपने पकड़ लिया तो उस पकड़ में आपको दिखायी पड़ेगा कि उस क्षण में आप शरीर नहीं रह जाते है—बॉडीलेसनेस। उस क्षण में आप शरीर नहीं है। उस क्षण में एक झलक की तरह आप कुछ और हो गये है। आप आत्‍मा हो गये है।
      और वह झलक आपको दिखायी पड़ जाये तो फिर उस झलक के लिए ध्‍यान के मार्ग से श्रम किया जा सकता है। उस झलक को फिर ध्‍यान की तरह से पकड़ा जा सकता है। और अगर वह ज्ञान हमारे जानने ओर जीवन का हिस्‍सा बन जाय तो आपके जीवन में सेक्‍स की कोई जगह नहीं रह जायेगी।

एक मित्र ने पूछा है कि अगर इस भांति सेक्‍स विदा हो जायगा तो दुनिया में संतति का क्‍या होगा? अगर इस भांति सारे लोग समाधि का अनुभव करके ब्रह्मचर्य को उपलब्‍ध हो जायेंगे तो बच्‍चों का क्‍या होगा।
      जरूर इस भांति के बच्‍चे पैदा नहीं होंगे। जिस भांति आज पैदा होते है। वह ढंग कुत्‍ते,बिल्‍लियों और इल्‍लियों का तो ठीक है, आदमियों का ठीक नहीं हे। यह कोई ढंग हैयह कोई बच्‍चों की कतार लगाये चले जाना—निरर्थक, अर्थहीन, बिना जाने बुझे—यह भीड़ पैदा किये जाना। यह कितनी हो गयी? यह भीड़ इतनी हो गयी है कि वैज्ञानिक कहते है कि अगर सौ बरस तक इसी भांति बच्‍चे पैदा होते रहें और कोई रूकावट नहीं लगाई गई, तो जमीन पर टहनी हिलाने के लिए भी जगह नहीं बचेगी। हमेशा आप सभा में ही खड़े हुए मालूम होंगे। जहां जायेंगे वहीं, सभा मालूम होंगी। सभी करना बहुत मुश्‍किल हो जायेगा। टहनी हिलाने की जगह नहीं रह जाने वाली है सौ साल के भीतर, अगर यही स्‍थिति रही।
      वह मित्र ठीक पूछते है कि अगर इतनी ब्रह्मचर्य अपलब्‍ध होगा तो बच्‍चे कैसे पैदा होंगे? उनसे भी मैं एक और बात कहना चाहता हूं, वह भी अर्थ की है और आपके ख्‍याल में आ जाना चाहिए, ब्रह्मचर्य से भी बच्‍चे पैदा हो सकते है। लेकिन ब्रह्मचर्य से बच्‍चों के पैदा करने का सारा प्रयोजन और अर्थ बदल जायेगा। काम से बच्‍चें पैदा होते है। सेक्‍स से बच्‍चे पैदा होते है—बच्‍चे पैदा करने के लिए कोई सेक्‍स में नहीं जाता है।
      बच्‍चे पैदा होना आकस्‍मित है, एक्सीडेंट है।
      सेक्‍स में आप जाते है किसी और कारण से बीच में आ जाते है, बच्‍चों के लिए आप कभी सेक्‍स में नहीं जाते। बिना बुलाये मेहमान है बच्‍चे और इसीलिए बच्‍चों के प्रति आपके मन में वह प्रेम नहीं हो सकता। जो बिना बुलाये मेहमानों के प्रति होता है। घर में कोई आ जाये अतिथि बिना बुलाये तो जो हालत घर में हो जाती है—बिस्‍तर भी लगाते है उसको सुलाने के लिए,खाना भी खिलाते है, आवभगत भी करते है, हाथ भी जोड़ते है, लेकिन पता होगा आपको कि बिना बुलाये मेहमान के साथ क्‍या घर की हालत हो जाती है। वह सब ऊपर-ऊपर होता है। भीतर कुछ भी नहीं होता। भी कुछ भी नहीं। और पूरे वक्‍त यही इच्‍छा होती है कि कब आप बिदा हों, कब आप जायें।
      बिना बुलाये बच्‍चों के साथ भी दुर्व्यवहार होगा। सद्व्‍यवहार हो ही नही सकता। क्‍योंकि उन्‍हें हमने कभी चाहा न था, कभी हमारे प्राणों की बह आकांक्षा नहीं थी। हम तो किसी और ही तरफ गये थे। वह बाईप्रॉडक्‍ट हैं, प्रोडेक्ट नहीं। आज के बच्‍चे प्रॉडक्‍ट नहीं है। बाईप्रॉडक्‍ट है। वे उत्पती नहीं है। वह उत्पती के साथ, जैसे गेहूँ के साथ भूसा पैदा हो जाता है। वैसी हालत है। आपका विचार आपकी कामना दूसरी थी, बच्‍चे बिलकुल आकस्‍मिक है।
      और इसीलिए सारी दुनिया में हमेशा से यह कोशिश चली है वात्स्यायन से लेकिर आज तक यह कोशिश चली है कि सेक्‍स को बच्‍चों से किसी तरह मुक्‍त कर लिया जाये। उसी से बर्थ कंट्रोल विकासित हुआ। संतति नियमन विकसित हुआ, कृत्रिम साधन विकसित हुए कि हम बच्‍चों से भी बच जायें और सेक्‍स को भी भोग लें। बच्‍चों से बचने की चेष्‍टा हजारों साल से चल रही है। आयुर्वेद के तीर-चार-पाँच हजार साल पुराने ग्रंथ इसका विचार करते है और अभी आज का आधुनिकतम स्‍वास्‍थ्‍य का मिनिस्‍टर भी इसी की बात करता है। क्‍यों? आदमी ने ये ईजाद करने की चेष्‍टा क्‍यों की?
      बच्‍चे बड़े उपद्रव का कारण हो गये है। वे बीच में आते हैं, जिम्‍मेदारी ले आते है। और भी एक खतरा—बच्‍चों के आते से स्‍त्री परिवर्तित हो जाती है।
      पुरूष भी बच्‍चो नहीं चाहता है। नहीं होते है तो चाहता है इस कारण नहीं की बच्‍चों के प्रेम है, बल्‍कि अपनी संपति से प्रेम है। कल मालिक कौन होगा। बच्‍चों से प्रेम नहीं है। बाप जब चाहता है कि बच्‍चा हो जाये एक घर में, लड़का नहीं है, तो आप यह मत सोचना कि लड़के के लिए बड़े उसके प्राण आतुर हो रहे है। नहीं, आतुरता यह हो रही है कि मैं रूपये कमा-कमा कर मरा जा रहा हूं, न मालूम कौन कब्‍जा कर लेगा। एक हकदार मेरे खून का उसको बचाने के लिए होना चाहिए।    
      बच्‍चों के लिए...कोई कभी नहीं चाहता कि बच्‍चे आ जायें। बच्‍चों से हम बचने की कोशिश करते रहे है। लेकिन बच्‍चे पैदा होते चले गये। हमने  संभोग किया और बच्‍चे बीच में आ गये। वह उसके साथ जुड़ा हुआ संबंध था। यह काम जन्‍य संतति है। यह बाई प्रॉडक्‍ट है सेक्सुअलिटी कीओर इसीलिए मनुष्‍य इतना रूग्ण इतना,दीन-हीन इतना उदास इतना चिंतित हो गया है।
      ब्रह्मचर्य से भी बच्‍चे आयेंगे,लेकिन वे बच्‍चे सेक्‍स की बाईप्रॉडक्ट नहीं होगें। उन बच्‍चों के लिए सेक्‍स एक वैहिकल होगा। उन बच्‍चों को लाने के लिए सेक्‍स एक माध्‍यम होगा। सेक्‍स से कोई संबंध नहीं होगा।
      जैसे एक आदमी बैलगाड़ी में बैठकर कहीं गया। उसे बैलगाड़ी से कोई मतलब है? वह हवाई जहाज में भी बैठकर जा सकता था।  आप यहां से बैठकर दिल्‍ली गये हवाई जहाज में। हवाई जहाज से आपको कोई मतलब है। कोई भी संबंध है। कोई भी नाता है? कोई नाता नहीं है, नाता केवल दिल्‍ली जाने से है। हवाई जहाज सिर्फ वैहिकल है, सिर्फ माध्‍यम है।
      ब्रह्मचर्य को जब लोग उपलब्‍ध हों और संभोग की यात्रा समाधि तक हो जाये, तब भी वे बच्‍चे चाह सकते है। लेकिन उन बच्‍चों का जन्‍म, उत्‍पत्‍ति होगी। वह प्रॉडक्‍ट होंगे। वह सृजन होंगे। सेक्‍स सिर्फ माध्‍यम होगा।
      और जिस भांति अब तक यह कोशिश की गयी है—इसे बहुत गौर से सुन लेना—जिस भांति अब तक यह कोशिश की गयी है। कि बच्‍चों से बचकर सेक्‍स को भोगा जा सके। वह नयी मनुष्‍यता यह कोशिश कर सकती है कि सेक्‍स से बचकर बच्‍चे पैदा किये जा सके। मेरी आप बात समझे?
      ब्रह्मचर्य अगर जगत में व्‍यापक हो जाये तो हम एक नयी खोज करेंगे। जैसी पुरानी खोज की है कि बच्‍चों से बचा जा सके और सेक्‍स का अनुभव पूरा हो जाये। इससे  उल्‍टा प्रयोग आने वाले जगत में हो सकता हे। जब ब्रह्मचर्य व्‍यापक होगा। सेक्‍स से बचा जा सके और बच्‍चे हो जाये।
      और यह हो सकता है, इसमें कोई भी कठिनाई नहीं है। इसमें जरा भी कठिनाई नहीं है। यह हो सकता है। ब्रह्मचर्य से जगत का अंत होने कोई संबंध नहीं है।
      जगत का अंत होने का संबंध सेक्सुअलिटी से पैदा हो गया है। तुम करते जाओ बच्‍चे पैदा और जगत का अंत हो जायेगा। न एटम बम की जरूरत है, न हाइड्रोजन बम की जरूरत है। यह बच्‍चों की इतनी बड़ी तादाद, यह कतार यह काम; यह काम से उत्‍पन्‍न हुए कीड़ों-मकोड़ों जैसी मनुष्‍यता यह अपने आप नष्‍ट हो जायेगी।
      ब्रह्मचर्य से तो एक और ही तरह का आदमी पैदा होगा। उसकी उम्र बहुत लंबी हो सकती है। उसकी उम्र इतनी लंबी हो सकती है। जिसकी हम कोई कल्‍पना भी नहीं कर सकते। उसका स्‍वास्‍थ्‍य अद्भुत हो सकता है उसमें बीमारी पैदा न हो। उसका मस्‍तिष्‍क वैसा होगा। जैसा कभी-कभी कोई प्रतिभा दिखायी पड़ती है। उसके व्‍यक्‍ति में सुगंध ही और होगी। बल ही और होगा,सत्‍य ही और होगा। धर्म ही और होगा। धर्म ही और होगा, धर्म ही और होगा। वह धर्म को साथ लेकर पैदा होगा।
      हम अधर्म को साथ लेकर पैदा होते है और अधर्म में जीते है और अधर्म में ही मर जाते है। इसलिए दिन-रात जिंदगी भर धर्म की चर्चा करते रहते है। शायद उस मनुष्‍य में धर्म की कोई  चर्चा नहीं होगी, क्‍योंकि धर्म लोगों का जीवन होगा। हम चर्चा उसी की करते है जो हमारा जीवन नहीं होता। जो जीवन होता है उसकी हम चर्चा नहीं करते है। हम सेक्‍स की चर्चा नहीं करते क्‍योंकि हम जिंदगी में उपलब्‍ध नहीं कर पाते। बातचीत करके उसको पूरा कर लेते है।
      आपने ख्‍याल किया होगा, स्त्रीयां पुरूषों से ज्‍यादा लड़ती है। स्त्रीयां लड़ती ही रहती है, कुछ न कुछ खटपट पास पड़ोस....सब तरफ चलती रहती है। कहते है कि दो स्त्रीयां साथ-साथ बहुत देर तक शांति से बैठी रहें, यह बहुत कठिन हे।
      मैंने तो सुना है कि चीन में एक बार बड़ी प्रतियोगिता हुई और उस प्रतियोगिता में चीन के सबसे बड़े झूठ बोलने वाले लोग इकट्ठे हुए। झूठ बोलने की प्रतियोगिता थी कि कौन सबसे झूठ बोलता है उसको पहला पुरस्‍कार मिल जाए।
      एक आदमी को पहला पुरस्‍कार मिला। और उसने यह बात बोली थी सिर्फ कि मैं एक बग़ीचे में गया। दो औरतें एक ही बेंच पर पाँच मिनट से चुपचाप बैठी थी।
      और लोगों ने कहा कि इससे बड़ा झूठ कुछ भी नहीं हो सकता हे। यह तो अल्‍टीमेट अनटुथ हो गया। और भी बड़ी-बड़ी झूठ लोगों ने बोली थी। उन्‍होंने कहा, यह सब बेकार है, पुरस्‍कार इसको दे दो। वह आदमी बाजी मार ले गया।
      लेकिन कभी आपने सोचा कि स्त्रीयां इतनी बातें क्‍यों करती हैपुरूष काम करते है, स्‍त्रियों के हाथ में कोई काम नहीं है। और काम नहीं होता है तो बात होती है।
      भारत इतनी बातचीत क्‍यों करता है? वही स्‍त्रियों वाला दुगुर्ण है। काम कुछ भी नहीं है—बातचीत-बातचीत।
      ब्रह्मचर्य से एक नये मनुष्‍य का जन्‍म होगा। जो बातचीत करने वाला नहीं जीने वाला होगा। वह धर्म की बात नहीं करेगा। धर्म को जीयेगा। लोग भूल ही जायेंगे कि धर्म कुछ है, वह इतना स्‍वभाविक हो सकता है। उस मनुष्‍य के बाबत विचार भी अद्भुत है। वैसे कुछ मनुष्‍य पैदा होते है। आकस्‍मिक था उनका पैदा होना।
      कभी एक महावीर पैदा हो जाता है। ऐसा सुंदर आदमी पैदा हो जाता है। कि वह वस्‍त्र पहले तो उतना सुंदर न मालूम पड़े। नग्‍न खड़ा हो जाता है। उसके सौंदर्य की सुगंध फैल जाती है। सब तरफ। लोग महावीर को देखने चले आते है। वह ऐसा मालूम होता है, जैसे कोई संगमरमर की प्रतिमा हो। उसमें इतना वीर्य प्रकट होता है कि—उसका नाम तो वर्धमान था—लोग उसको महावीर कहने लगते है। उसके ब्रह्मचर्य का तेल इतना प्रकट होता है कि लोग अभिभूत हो जाते है। कि वह आदमी ही और है।
      कभी एक बुद्ध पैदा होता है, कभी एक क्राइस्‍ट पैदा होता है, कभी एक कंफ्यूशियस पैदा होता है। पूरी  मनुष्‍य जाति के इतिहास में दस-पच्‍चीस नाम हम गिन सकते है, जो पैदा हुए है।
      जिस दिन दुनिया में ब्रह्मचर्य से बच्‍चे आयेंगे। और यह शब्‍द भी सुनना,आपको लगेगा कि ब्रह्मचर्य से बच्‍चे। मैं एक नये ही कंसेप्‍ट की बात कर रहा हूं। ब्रह्मचर्य से जिस दिन बच्‍चे आयेंगे, उस दिन सारे जगत के लोग ऐसे होंगे। ऐसे सुंदर, ऐसे शक्‍तिशाली,ऐसे मेधावी, ऐसे विचार शील—फिर कितनी देर होगी उन लोगों को कि वे परमात्‍मा को न जानें। वे परमात्‍मा को इसी भांति जानेंगे, जैसे हम रात को सोते है।
      लेकिन जिस आदमी को नींद नहीं आती, उससे अगर कोई कहं कि मैं सिर्फ तकिये पर सर रखता हूं और सौ जाता हूं, तो वह आदमी कहेगा। कि यह बिलकुल झूठ है, ऐसा हो नहीं सकता मैं तो सारी रात करवटें ही बदलता रहता हूं, उठता हूं, बैठता हूं,माला फेरता हूं, गाय-भैंस गिनता हूं, लेकिन कुछ नहीं—नींद आती ही नहीं। आप झूठ कहते है। ऐसे कैसे हो सकता है। कि तकिये पर सर रखा है और नींद आ जाये। आप सरासर झूठ बोलते हो। क्‍योंकि मैंने तो बहुत प्रयोग करके देख लिया; नींद तो कभी नहीं आती, रात-रात गुजर जाती है।   
      अमरीका में न्‍यूयार्क जैसे नगरों में तीस से लेकर चालीस प्रतिशत लोग नींद की दवायें लेकर सो रहे है। और अमरीकी वैज्ञानिक कहते है कि सौ वर्ष के भीतर न्‍यूयार्क जैसे नगर में एक भी आदमी सहज रूप से सौ नहीं सकता,उसे दवा लेनी ही पड़ेगी। तो यह हो सकता है कि न्‍यूयार्क में सौ साल बाद होगा,दो सौ साल बाद हिंदुस्‍तान में होगा; क्‍योंकि हिंदुस्‍तान के नेता इस बात के पीछे पड़े है कि हम उनका मुकाबला करके रहेंगे। हम उनसे पीछे नहीं रह सकते है। वे कहते है, हम उनसे पीछे नहीं रह सकते उन की सब बिमारियों को हम आत्‍म सात कर ही चैन लेंगे।
      तो यह हो सकता है कि पाँच सौ साल बाद दुनिया के लोग नींद की दवा लेकर ही सोये। और बच्‍चा जब पहली दफा पैदा हो मां के पेट से तो वह दूध न मांगे, वह कहं ट्रेन्‍कोलाइजर, नहीं मैं सो नहीं पाया तुम्‍हारे पेट में, ट्रेन्‍कोलाइजर कहां है। तो पाँच सौ साल बाद उन लोगों को यह विश्‍वास दिलाना कठिन होगा कि आज से पाँच सौ साल पहले सारी मनुष्‍यता आँख बंद करते ही सो जाती थी। वे कहेंगे इंपासिबल,यह असंभव है, यह बात हो नहीं सकती। ये बात कैसे हो सकती है।
      मैं आपसे कहता हूं उस ब्रह्मचर्य से जो जीवन उपजेगा, उसको यह विश्‍वास करना कठिन हो जायेगा कि लोग चोर थे, लोग बेईमान थे, लोग हत्‍यारे थे। लोग आत्‍म-हत्याएँ कर लेते थे। लोग जहर खाते थे। लोग शराब पीते थे। लोग छुरे भोंकते थे, युद्ध करते थे। उनको विश्‍वास करना मुश्‍किल हो जायेगा। काम से अब तक उत्पती हुई है। और वह भी उस काम से जो फिजियोलॉजिकल से ज्‍यादा नहीं है।
      एक अध्‍यात्‍मिक काम का जन्‍म हो सकता है। और एक नये जीवन का प्रारंभ हो सकता हे। उस नये जीवन के प्रारंभ के लिए ये थोड़ी सी बातें, इस चार दिनों में मैंने आपसे कहीं है। मेरी बातों को इतने प्रेम और इतनी शांति से—और ऐसी बातों को,जिन्‍हें प्रेम और शांति से सुनना बहुत मुश्‍किल हो गया है। बड़ी कठिनाई मालूम पड़ी होगी।
      एक मित्र तो मेरे पास आये और कहने लगे कि मैं डर रहा था कि कहीं दस बीस आदमी खड़े होकर यह न कहने लगें कि बंद करिये। ये बातें नहीं होनी चाहिए। मैंने कहा, इतने हिम्मत वर आदमी भी होते तो भी ठीक था। इतने हिम्मत वर आदमी भी कहां है कि किसी को कह दें कि बंद करिये यह बात।  इतने ही  हिम्मत वर आदमी इस मुल्‍क में होते तो बेवक़ूफ़ों की कतार जो कुछ भी कह रही है मुल्‍क में, वह कभी की बंद हो गयी होती। लेकिन वह बंद नहीं हो पा रही है।
      मैंने कहा कि मैं प्रतीक्षा करता हूं कि कभी कोई बहादूर आदमी खड़े होकर कहेगा कि बंद करे ये बात। उससे कुछ बात करने का मजा होगा। तो ऐसी बातों को, जिनसे कि मित्र डरे हुए थे कि कहीं कोई खड़े होकर न कह दे, आप इतने प्रेम से सुनते रहे, आप बड़े भले आदमी हे। और जितना आपका रिण मानूं उतना कम है।
      अंत में यही कामना करता हूं परमात्‍मा से कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के भीतर जो काम है, वह राम के मंदिर तक पहुंचने की सीढ़ी बन सके। बहुत-बहुत धन्‍यवाद। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्‍मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्‍वीकार करें।

ओशो
संभोग से समाधि की ओर,
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

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