Wednesday 7 February 2018

नहीं कहीं मिलती है छांव

नहीं कहीं मिलती है छांव!
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
राह अंजानी, लोग अंजाने,
जितने भी संयोग अजाने,
अनजाने से मिली मुझे जो
भूख अंजानी, भोग अंजाने!
एक भुलावा कडुवा -मीठा,
एक छलावा ठांव-कुठांव,
जिसको समझूं अपनी मंजिल
नहीं कहीं दिखता वह गांव,
नहीं कहीं रुकते है पांव!
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत?
नित्य टूटते रहते सपने,
नित्य बिछडते रहते अपने,
एक जलन लेकर प्राणों में
मैं आया हूं केवल तपने!
वर्तमान हो या भविष्य हो
बन जाता है विवश अतीत।
और शून्य में लय हो जाते
सुख-दुख के ये जितने गीत!
किसे कहूं मैं अपना मीत?
किसे कहूं मैं अपनी जीत!
एक सांस है सस्मित चाह।
एक सांस है आह-कराह!
बडी प्रबल है गति की धारा।
मैं पथभूला, मैं पथहारा।
जिसको देखा वही विवश है-
किसको किसका कौन सहारा?
रंग-बिरंगे स्वप्न संजोए
मेरे उर का तमस अथाह-
ज्यों- ज्यों घटती जाती दूरी
त्यों -त्यों बढ़ती जाती राह!
एक सांस है सस्मित चाह,
एक सांस है आह-कराह!
कब बुझ पाई किसकी प्यास?
और सत्य कब हास -विलास?
नहीं यहां पर ठौर-ठिकाना।
सुख अनजाना, दुख अनजाना
पग-पग पर बुनता जाता है
काल-नियति का ताना-बाना!
मेरे आगे है मरीचिका।
मेरे अंदर है विश्वास,
जो कि मृत्यु पर चिरविजयी है
वह जीवन है मेरे पास!
मेरा जीवन केवल प्यास।
यही प्यास है हास -विलास!
नहीं कहीं मिलती है छांव।
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
राह अंजानी, लोग अंजाने,
जितने भी संयोग अंजाने,
अनजाने से मिली मुझे जो
भूख अजानी, भोग अंजाने!
एक भुलावा कडुवा -मीठा,
एक छलावा ठांव-कुठांव,
किसको समझूं अपनी मंजिल
नहीं कहीं दिखता वह गांव,
नहीं कहीं मिलती है छांव,
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
प्रत्येक मनुष्य का यही अनुभव है-सदियों-सदियों से, सदा से। पहले भी यही अनुभव था, आज भी वही अनुभव है, कल भी यही अनुभव होगा। क्योंकि जहां हम खोज रहे हैं मंजिल, वहां  मंजिल नहीं है। मंजिल तो जरूर है, हमारी खोज की दिशा भ्रांत है। मंजिल नहीं है ऐसा नहीं; छांव नहीं है ऐसा नहीं; गांव नहीं है ऐसा नहीं-गांव भी है, छांव भी है, और हमारे पास पहूंचाने वाले पांव भी हैं। पर अगर तुम गांव की तरफ पीठ करके चलो, तो चलोगे तो बहुत, पहुंचोगे नहीं। और अगर छाह से उलटी ही तुम्हारी जीवनधारा है, तो तपोगे, जलोगे, मगर विश्राम न पा सकोगे।
मंजिल है भीतर और मार्ग हम खोजते हैं बाहर। खोया है जिसे, वह है भीतर; खोजते हैं बाहर।

लोग मुझे पागल कहते हैं तो एक बार अपने पर विचार करना, तुम जिसे खोज रहे हो उसे कहां खोया है? आज तक को खोज रहे हो; खोया कहां, पहले यह पूछ लेना! आत्मा को खोज रहे, परमात्मा का खोज रहे, अमरत्व खोज रहे, शाश्वतता खोज रहे, स्वर्ग खोज रहे, मोक्ष खोज रहे; पहले पूछ लेना, मौलिक प्रश्न पहले उठा लेना कि खोज रहे हो उसे खोया कहां है? और मैं तुमसे कहता हूं कि भीतर खोया है और बाहर खोज रहे हो। लाख करो उपाय, मिलन होगा नहीं।      नहीं कहीं मिलती है छांव।
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
कैसे रुके! छांव ही नहीं मिलती, गांव ही नहीं मिलता, तो पांव रुके तो कैसे रुके! और मिलेगा भी नहीं। तुम सारी पृथ्वी खोजो, चाद -तारे खोजो, खोजते ही रहो। जिसे तुम खोज रहे हो वह खोजने वाले में छिपा बैठा है। जो खोज रहा है वही है वह, जिसे तुम खोजने निकल पड़े हो। तुम्हारा अंतस चैतन्य ही तुम्हारे जीवन का अंतिम गंतव्य है। तुम्हीं हो अपनी मंजिल। तुम्हीं हो वह गांव जहां तुम्हारे पावों को पहुंचना है।
और एक बार यह बात समझ में आ जाए तो चलने की बात ही खत्म हुई। अपने तक पहुंचने के लिए चलना होगा क्या? अपने से दूर जाना हो तो चलना होता है, अपने तक आना हो तो चलने का सवाल कहां! तुम तो वहां हो ही, तुम तो वहां  सदा से हो। इतने चल चुके हो, फिर भी तुम वहीं हो। क्योंकि तुम्हारा स्वरूप तो तुम्हारे साथ है। तुम उसे चाहो तो भी छोड़ सकते और तुम चाहो तो भी उसे गंवा नहीं सकते।
मुझसे लोग पूछते हैं : ईश्वर को खोजना है, कहां खोजें? मैं उनसे पूछता हूं : तुमने खोया कहां है, पहले यह पक्का कर लो। और अगर खोया ही नहीं है तो खोज व्यर्थ है। खोज भटकन में ले जाएगी। बहुत भटकन में ले जाएगी। और फिर जीवन संताप और विषाद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि खोजोगे और हर बार पाओगे कि नहीं पाया। खोजोगे और हर बार हारोगे। खोजोगे और हर बार पराजय हाथ लगेगी। तो जीवन आंसुओ से ही भर जाएगा। ऐसा ही जीवन आंसुओ से भर गया है।
नहीं कहीं मिलती है छांव,
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
राह अंजानी, लोग अजाने,
जितने भी संयोग अंजाने,
अनजाने से मिली मुझे जो
भूख अजानी भोग अजाने!
एक भुलावा कडुवा -मीठा,
एक छलावा ठांव-कुठाव,
जिसको समझूं अपनी मंजिल
नहीं कहीं दिखता वह गांव,
नहीं कहीं मिलती है छांव,
नहीं कहीं रुकते हैं पांव!
और जब तुम अपने से ही अपरिचित हो तो किससे परिचित हो पाओगे? जिसने स्वयं को नहीं जाना वह किसी और को न जान पाएगा। उसे जानने की कला ही न आई। उसके भीतर जानने वाला दीया ही न जला।
'राह अंजानी लोग अजाने!' क्यों? क्योंकि तुम अपने से अजाने हो। 'जितने भी संयोग अजाने!' क्योंकि? क्योंकि तुम अपने से अजाने हो। अनजाने से मिली मुझे जो, भूख अन्जानी भोग अजाने!' क्यों? क्योंकि तुम अपने से अजाने हो।
सारा ज्ञान दो कौड़ी का है, अगर आत्मज्ञान न हो। सारी पहचान व्यर्थ है अगर अपनी पहचान न हो। अपनी तो पहचान नहीं है और हम न मालूम कितना कूड़ा-करकट ज्ञान के नाम पर इकट्ठा करते चले जाते हैं! अपने घर में तो प्रवेश नहीं मिलता और चाद -तारों पर प्रवेश की चेष्टा चलती है। क्या करोगे चाद-तारों पर? चांद -तारों पर पहुंच कर भी तुम तुम ही रहोगे! स्वर्ग में भी पहुंच जाओ तो क्या करोगे?

ॐ तत्सत
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
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