Friday, 9 February 2018

यहीं मन बुद्ध है

तंत्र--सूत्र--(भाग--3)--प्रवचन--39

यहीं मन बुद्ध है--(प्रवचन—उन्‍नतालीसवां)

सूत्र:

61—जैसे जल से लहरें उठतीं है और अग्‍नि से लपटें,
      वैसेही सर्वव्‍यापक हम से लहराता है।
62जहां कहीं तुम्‍हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर,
      उसी स्‍थान पर, यह।
63—जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो,
      उसी बोध में स्‍थित होओ।

श्री अरविंद ने कहीं कहा है कि पूरा जीवन योग है। और यह बात सही है। हर चीज ध्यान बन सकती है। और जब तक हर चीज ध्यान न बनेसमझना कि तुम्हें ध्यान नहीं घटित हुआ है। ध्यान खंड—खंड में नहीं होता है।
या तो ध्यान होता है—और जब वह होता है तो तुम पूरे के पूरे उसमें होते हो—या वह नहीं होता है। तुम अपने जीवन के एक अंश को ध्यानपूर्ण नहीं बना सकते; वह असंभव है। लेकिन सब जगह वही कोशिश चलती है।
तुम पूरे—पूरे ही ध्यानपूर्ण हो सकते होतुम्हारा कोई अंश ध्यानपूर्ण नहीं हो सकता। वह असंभव है। क्योंकि ध्यान तुम्हारा स्वभाव हैवह श्वास लेने जैसा है। तुम चाहे जो भी करोतुम श्वास लेते रहते हो। तुम्हारे करने से उसका कुछ लेना—देना नहीं हैतुम सतत श्वास लेते रहते हो। चलते हुएबैठे हुएलेटे हुए सोए हुएतुम श्वास लेना जारी रखते हो। तुम ऐसा नहीं कर सकते कि कभी श्वास लो और कभी न लो। यह एक सातत्य है।
ध्यान आंतरिक श्वास है। और जब मैं कहता हूं कि ध्यान अंतस की श्वास है तो मैं कोई प्रतीक के अर्थ में नहीं कहता हूं। ध्यान वस्तुत: आंतरिक श्वास है। जिस भांति तुम हवा की श्वास लेते होउसी भांति चेतना की श्वास भी ले सकते हो। और जब तुम चेतना की श्वास भीतर—बाहर लेना शुरू कर देते हो तो तुम मात्र शरीर नहीं रहे। इस उच्चतर श्वास—प्रश्वास के शुरू होने से,इस चेतना केजीवन के श्वास—प्रश्वास के आरंभ होने से तुम एक नए लोक मेंएक नए आयाम में प्रवेश कर जाते हो। वह आयाम ही अध्यात्म है। तुम्हारी श्वास शारीरिक हैध्यान आध्यात्मिक है।
तो तुम अपने जीवन के एक खंड को ध्यानपूर्ण नहीं बना सकते हो। ऐसा नहीं है कि तुम सुबह ध्यान कर लो और फिर दिनभर के लिए उसे भूल जाओ। ऐसा नहीं है कि तुम मंदिर या चर्च गएवहा ध्यान किया और ध्यान से वैसे ही बाहर निकल आए जैसे मंदिर से बाहर आ जाते हो। यह संभव नहीं है। और अगर तुम ऐसी चेष्टा करोगे तो वह चेष्टा झूठी होगी। तुम मंदिर में प्रवेश कर सकते हो और बाहर आ सकते होलेकिन वैसे ही तुम ध्यान में प्रवेश करके बाहर नहीं आ सकते। जब तुम ध्यान में प्रवेश करते हो तो प्रवेश कर ही गए। अब तुम जहां भी जाओगेध्यान तुम्‍हारे साथ होगा।
यह बहुत बुनियादीप्राथमिक बात हैजिसे सतत स्मरण रखना चाहिए। दूसरी बात कि तुम ध्यान में कहीं से भी प्रवेश कर सकते होक्योंकि सारा जीवन गहन ध्यान में है। पर्वत ध्यान में हैंतारे ध्यान में हैंफूलपेड़—पौधेहवाएं ध्यान में हैं। और तुम कहीं से भी ध्यान में प्रवेश कर सकते हो। कुछ भी होकुछ भी प्रवेश—द्वार बन सकता है।
इसका प्रयोग हो चुका है। यही कारण है कि इतनी विधियां हैं। यही वजह है कि इतने धर्म हैं। और इसीलिए एक धर्म दूसरे को नहीं समझ सकता हैक्योंकि उनके प्रवेश—द्वार भिन्न—भिन्न हैं। और कोई—कोई धर्म तो ऐसे हैं जो धर्म के नाम से भी नहीं जाने जाते। कुछ लोगों को तो तुम धार्मिक की भांति पहचानोगे भी नहींक्योंकि उनका प्रवेश—द्वार इतना भिन्न है।
उदाहरण के लिए एक कवि है। किसी गुरु के पास गए बिना भीधार्मिकतथाकथित धार्मिक हुए बिना भी एक कवि ध्यान में उतर सकता है। उसकी कविताउसकी सृजनात्मकता द्वार बन सकती हैवह उससे ही ध्यान में प्रवेश कर सकता है। या कोई कुम्हारजो मिट्टी के बर्तन बनाता हैमिट्टी के बर्तन बनाते हुए ही ध्यान में जा सकता है। उसका शिल्प ही द्वार बन सकता है। या कोई धनुर्विद अपनी धनुर्विद्या के द्वारा ध्यान में उतर जा सकता है। वैसे ही कोई माली भी। कोई कहीं से भी प्रवेश कर सकता है।
तुम जो भी करते हो वही चीज विधि बन सकती है। अगर उसे करते हुए बोध की गुणवत्ता बदल जाए तो वही चीज विधि बन सकती है। तो तुम जितनी चाहो उतनी विधियां हो सकती हैं। कोई भी कृत्य द्वार बन सकता है। कृत्य या विधि या उपाय या मार्ग महत्वपूर्ण नहीं हैंमहत्वपूर्ण है चेतना की वह गुणवत्ता जिससे तुम उस कृत्य को करते हो।
भारत के एक महान संतकबीरजुलाहे थे और ज्ञान को उपलब्ध होने के बाद भी जुलाहे ही बने रहे। उनके हजारों शिष्य थे। उनके शिष्य उनसे कहते थे कि अब आप कपड़ा बुनना बंद कीजिएअब आपको यह सब करने की जरूरत नहीं है। हम हैं,हम आपकी हर तरह देखभाल करेंगे। कबीर हंसकर कहते : यह बुनना बुनना भर नहीं है। मेरा कपड़ा बुनना तो बाहरी कृत्य है,लेकिन इसके साथ—साथ मेरे भीतर कुछ होता है जिसे तुम नहीं देख सकते। यह मेरा ध्यान है।
कपड़ा बुनते—बुनते कोई जुलाहा ध्यानी कैसे हो जा सकता हैतुम जिस चित्त से कपडा बुनते होअगर वह चित्त ध्यानपूर्ण है तो फिर कृत्य प्रासंगिक नहीं है। कृत्य तो अप्रासंगिक है।
एक दूसरे संत हुए जो कुम्हार थे। उनका नाम गोरा था। वे मिट्टी के बर्तन बनाते थे। बर्तन बनाते हुए गोरा नाचते थे,गीत गाते थे। जब वे चाक पर बर्तन गढ़ते थे तो जैसे—जैसे बर्तन चाक पर केंद्रीभूत होता थागोरा भी अपने भीतर केंद्रीभूत हो जाते थे। तुम्हें तो एक ही चीज दिखाई देती कि चाक घूम रहा हैमिट्टी का बर्तन आकार ले रहा है और गोरा उसे केंद्रीभूत कर रहे हैं। तुम्हें एक ही केंद्रीकरण दिखाई देतालेकिन उसके साथ—साथयुगपत, एक दूसरा केंद्रीकरण भी घटित हो रहा था—गोरा भी केंद्रिभूत हो रहे थे। बर्तन को गढ़ते हुए, बर्तन को रूप देते हुएवे खुद भी आंतरिक चेतना के अदृश्य जगत में रूपायित हो रहे थे।
जब बर्तन निर्मित हो रहा था—वह उनका असली कृत्य नहीं था—तो वे साथ ही साथ अपना भी सृजन कर रहे थे।
कोई भी कृत्य ध्यानपूर्ण हो सकता है। और एक बार तुमने जान लिया कि कैसे कोई कृत्य ध्यानपूर्ण होता है तो फिर कठिनाई नहीं है। तब तुम अपने सभी कृत्यों को ध्यान में रूपांतरित कर सकते हो। और तब सारा जीवन योग बन जाता है। तब सड़क पर चलनाया दफ्तर में काम करनाया सिर्फ बैठनाकुछ भी न करना ध्यान बन सकता है। कुछ भी ध्यान बन सकता है। स्मरण रहेध्यान कृत्य में नहीं हैकृत्य की गुणवत्ता में है।
अब हम विधियों में प्रवेश करेंगे।

 पहली विधि :

जैसे जल से लहरें उठती हैं और अग्नि से लपटें वैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।

हले तो यह समझने की कोशिश करो कि लहर क्या है और तब तुम समझ सकते हो कि कैसे यह चेतना की लहर तुम्हें ध्यान में ले जाने में सहयोगी हो सकती है।
तुम सागर में उठती लहरों को देखते हो। वे प्रकट होती हैंएक अर्थ में वे हैं और फिर भी किसी गहरे अर्थ में वे नहीं हैं। लहर के संबंध में समझने की यह पहली बात है। लहर प्रकट होतीं हैएक अर्थ में लहर है। लेकिन किसी गहरे अर्थ में लहर नहीं हैगहरे अर्थ में सिर्फ सागर है। सागर के बिना लहर नहीं हो सकतीऔर जब लहर है भी तो भी वह सागर ही है। लहर रूप भर हैसत्य नहीं है। सागर सत्य हैलहर केवल रूप है।
भाषा के कारण अनेक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। क्योंकि हम कहते हैं लहरइससे लगता है कि लहर कुछ है। बेहतर हो कि हम लहर न कहकर लहराना कहेंलहर नहींलहराना ही है। वह कोई वस्तु नहींएक क्रिया भर है। वह एक गति हैप्रक्रिया हैवह कोई पदार्थ नहीं है। वह कोई तत्व या सत्य नहीं है। पदार्थ या तत्व तो सागर हैलहर एक रूप भर है।
सागर शांत हो सकता है। तब लहरें विलीन हो जाएंगीलेकिन सागर तो रहेगा। सागर शांत हो सकता हैया बहुत सक्रिय और क्षुब्ध हो सकता हैया सागर निष्‍क्रिय हो सकता है। लेकिन तुम्हें कोई शांत लहर देखने को नहीं मिलेगी। लहर सक्रियता है,सत्य नहीं। जब सक्रियता है तो लहर हैयह लहराना हैगति हैहलचल है—एक साधारण सी हलचल। लेकिन जब शांति आती हैजब निष्‍क्रियता आती है तो लहर नहीं रहतीलेकिन सागर रहता है। दोनों अवस्थाओं में सागर सत्य है। लहर उसका एक खेल है। लहर उठती हैखो जाती हैलेकिन सागर रहता है।
दूसरी बातलहरें अलग— अलग दिखती हैं। प्रत्येक लहर का अपना व्यक्तित्व हैअनूठाऔरों से भिन्न। कोई दो लहरें समान नहीं होतींकोई लहर बड़ी होती हैकोई छोटी। उनके अपने — अपने विशिष्ट लक्षण होते हैं। प्रत्येक लहर का निजी ढंग होता है। और निश्चित ही प्रत्येक लहर दूसरे से भिन्न होती है। एक लहर उठ रही हो सकती है और दूसरी मिट रही हो सकती है। जब एक उठती है तो दूसरी गिरती है। दोनों एक नहीं हो सकतीं; क्योंकि एक जन्म ले रही होती है और दूसरी मिट रही होती है। फिर भी दोनों लहरों के पीछे जो सत्य वह एक ही है। वे भिन्‍न दिखती हैवे पृथक दिखती हैवे अलग—अलग दिखती है;
लेकिन यह दिखना भ्रांत है। गहराई में एक ही सागर हैऔर लहरें चाहे जितनी असंबद्ध दिखेवे परस्पर संबद्ध हैं।
जब एक लहर उठ रही होती है और दूसरी गिर रही होती है तो तुम्हें उनमें संबंध नहीं दिखाई पड़ता है। संबंध प्रकट नहीं है। उठती हुई लहर मिटती हुई लहर से कैसे संबद्ध हो सकती हैएक बूढ़ा आदमी मर रहा है और एक बच्चा जन्म ले रहा है,उन दोनों के बीच क्या संबंध हो सकता हैअगर उनमें कोई संबंध है तो दोनों साथ—साथ मरेंगे या साथ—साथ जन्म लेंगे। बच्चा पैदा हो रहा हैका मर रहा है। एक लहर मिट रही हैदूसरी उठ रही है।
लेकिन संभव है कि उठती लहर मिटने वाली लहर से ऊर्जा ग्रहण कर रही हो। मिटने वाली लहर अपनी मृत्यु के द्वारा उसे उठने में मदद कर रही हो। बिखरने वाली लहर उस लहर के लिए कारण बन सकती है जो उठ रही है। बहुत गहरे में वे एक ही सागर से जुड़ी हैंवे भिन्न नहीं हैंवे पृथक नहीं हैं। उनका व्यक्तित्व झूठा हैभ्रामक है। वे जुड़ी हुई हैं। उनका द्वैत भासता तो हैलेकिन है नहीं। उनका अद्वैत सत्य है।
अब मैं सूत्र को फिर से पढ़ता हूं. 'जैसे जल से लहरें उठती हैं और अग्नि से लपटेंवैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।
हम जागतिक सागर में लहर मात्र हैं। इस पर ध्यान करोइस भाव को अपने भीतर खूब गहरे उतरने दो। अपनी श्वास को उठती हुई लहर की तरह महसूस करना शुरू करो। तुम श्वास लेते होतुम श्वास छोडते हो। जो श्वास अभी तुम्हारे अंदर जा रही है वह एक क्षण पहले किसी दूसरे की श्वास थी। और जो श्वास अभी तुमसे बाहर जा रही है वह अगले क्षण किसी दूसरे की श्वास हो जाएगी। श्वास लेना जीवन के सागर में लहरों के उठने—गिरने जैसा ही है। तुम पृथक नहीं होबस लहर हो। गहराई में तुम एक हो। हम सब इकट्ठे हैंसंयुक्‍त हैं। वैयक्तिकता झूठी हैभ्रामक है। इसलिए अहंकार एकमात्र बाधा है। वैयक्तिकता झूठी है। वह भासती तो हैलेकिन सत्य नहीं है। सत्य तो अखंड हैसागर हैअद्वैत है।
यही कारण है कि प्रत्येक धर्म अहंकार के विरोध में है। जो व्यक्ति कहता है कि ईश्वर नहीं है वह अधार्मिक न भी हो,लेकिन जो कहता है कि मैं हूं वह अवश्य अधार्मिक है।
गौतम बुद्ध नास्तिक थेवे किसी ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे। महावीर वर्धमान नास्तिक थेउन्हें भी किसी ईश्वर में विश्वास नहीं था। लेकिन वे पहुंच गएउन्होंने पायावे समग्रता कोपूर्ण को उपलब्ध हुए। अगर तुम्हें किसी परमात्मा में विश्वास नहीं है तो तुम अधार्मिक नहीं होक्योंकि धर्म के लिए ईश्वर बुनियादी नहीं है। धर्म के लिए निरहंकार बुनियादी है। और अगर तुम ईश्वर में विश्वास भी करते होलेकिन अहंकार भरे मन से विश्वास करते हो तो तुम अधार्मिक हो। अहंकार—रहित मन के लिए ईश्वर में विश्वास की भी जरूरत नहीं हैनिरहंकारी व्यक्ति अपने आप हीसहज ही परमात्मा में लीन हो जाता है। निरहंकारी होकर तुम लहर से नहीं चिपके रह सकते होतुम्हें सागर में गिरना ही होगा। अहंकार लहर से चिपका रहता है। जीवन को सागर की भांति देखो और अपने को लहर मात्र समझोऔर इस भाव को अपने भीतर उतरने दो।
इस विधि को तुम कई ढंग से उपयोग में ला सकते हो। श्वास लेते हो तो भाव करो कि सागर ही तुम्‍हारे भीतर श्वास ले रहा हैसागर ही तुम्‍हारे भीतर आता है बाहर जाता हैआता—जाता रहता है। प्रत्येक श्वास के साथ महसूस करो कि लहर उठ रही हैप्रत्येक श्वास के साथ महसूस करो कि लहर मिट रही है। और दोनों के बीच में तुम कौन होबस एक शून्यखालीपन।
उस शून्यता के भाव के साथ तुम रूपांतरित हो जाओगे। उस खालीपन के भाव के साथ तुम्हारे सब दुख विलीन हो जाएंगे। क्योंकि दुख को होने के लिए किसी केंद्र की जरूरत है—वह भी झूठे केंद्र की। शून्य ही तुम्हारा असली केंद्र है। उस शून्य में दुख नहीं हैउस शून्य में तुम गहन विश्राम में होते हो। जब तुम ही नहीं हो तो तनावग्रस्त कौन होगातुम तब आनंद से भर जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम आनंदपूर्ण होते होसिर्फ आनंद होता है। तुम्हारे बिना क्या तुम दुख निर्मित कर सकते हो?
यही कारण है कि बुद्ध कभी नहीं कहते हैं कि उस अवस्था मेंउस परम अवस्था में आनंद होगा। वे ऐसा नहीं कहतेवे यही कहते हैं कि दुख नहीं होगाबस। आनंद की बात करने से तुम भटक सकते होइसलिए बुद्ध आनंद की बात नहीं करते। वे कहते हैं कि आनंद की बात ही मत पूछोसिर्फ इतना जानो कि दुख से कैसे मुक्‍त हुआ जाएउसका मतलब है कि अपने बिना,खुद के बिना कैसे हुआ जाए।
हमारी समस्या क्या हैसमस्या यह है कि लहर अपने को सागर से पृथक मानती है। तब समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। अगर लहर अपने को सागर से पृथक मानती है तो उसे तुरंत मृत्यु का भय पकड़ेगा। लहर तो मिटेगी। लहर अपने चारों ओर अन्य लहरों को मिटते हुए देख सकती है। और तुम अपने को बहुत समय तक धोखा नहीं दे सकते। लहर देख रही है कि दूसरी लहरें मिट रही हैं। और लहर जानती है कि उसके उठने में ही कहीं मृत्यु छिपी है। क्योंकि दूसरी लहरें भी तो क्षणभर पहले उठ रही थीं और अब वे गिर रही हैंबिखर रही हैंमिट रही हैं। तुम्हें भी मिटना होगा।
अगर लहर अपने को सागर से पृथक मानती है तो देर—अबेर मृत्यु का भय उसे अवश्य घेरेगा। लेकिन अगर लहर जान ले कि मैं नहीं हूं सागर हैतो मृत्यु का कोई भय नहीं है। लहर ही मरती हैसागर नहीं मरता। मैं मर सकता हूंलेकिन जीवन नहीं मरता। तुम मर सकते होतुम मरोगेलेकिन जीवन नहीं मरेगाअस्तित्व नहीं मरेगा। अस्तित्व तो लहराता ही जाता है। वह तुममें लहराया हैवह दूसरों में लहराएगा। और जब तुम्हारी लहर बिखर रही होगीतो संभव है कि तुम्हारे बिखराव में से ही दूसरी लहरें उठे। सागर जारी रहता है।
जब तुम अपने को लहर के रूप से पृथक देख लेते हो और सागर के साथअरूप के साथ एक जान लेते होएकात्म अनुभव करते होतो फिर तुम्हारी मृत्यु नहीं है। अन्यथा मृत्यु का भय दुख निर्मित करेगा। प्रत्येक पीड़ा मेंप्रत्येक संताप में,प्रत्येक चिंता में मृत्यु का भय मूलभूत है। तुम भयभीत होकांप रहे हो। चाहे तुम्हें इसका बोध न होलेकिन अगर तुम अपने अंतस में प्रवेश करोगे तो पाओगे कि प्रत्येक क्षण तुम कांप रहे होक्योंकि तुम मरने वाले हो। तुम अनेक सुरक्षा के उपाय कर सकते होतुम अपने चारों ओर किलाबंदी कर सकते होलेकिन कुछ भी काम न देगा। कुछ भी काम नहीं देगाधूल धूल में जा मिलेगी। तुम धूल में मिलने ही वाले हो।
क्या तुमने कभी इस बात पर गौर किया हैइस तथ्य पर ध्यान किया है कि अभी तुम रास्ते पर चल रहे हो तो जो धूल तुम्हारे जूते पर जमा हो रही हैहो सकता है वह धूल किसी नेपोलियनकिसी सिकंदर के शरीर की धूल हो! सिकंदर इस समय कहीं न कहीं धूल बना पड़ा है और हो सकता है कि तुम्हारे जूते से चिपकी धूल सिकंदर के शरीर की ही धूल हो। यही तुम्हारा भी हाल होने वाला है। इस क्षण तुम हो और अगले क्षण तुम नहीं होगे। यही तुम्हारा भी हाल होने वाला है। देर—अबेर धूल धूल में मिल जाएगीलहर विदा हो जाएगी।
भय पकड़ता है। जरा कल्पना करो कि तुम किसी के जूते से चिपकी हुई धूल हो या कोई तुम्हारे शरीर सेतुम्हारी प्रेमिका के शरीर से चाक पर बर्तन गढ़ रहा है। या कल्पना करो कि तुम किसी कीड़े के शरीर में या वृक्ष के शरीर में प्रवेश कर रहे हो। लेकिन यही हो रहा है। प्रत्येक चीज रूप है और रूप को मिटना है। केवल अरूप शाश्वत है। अगर तुम रूप से बंधे होअगर रूप से तुम्हारा तादात्‍मय हैअगर तुम अपने को लहर मानते होतो तुम अपने ही हाथों उपद्रव में पड़ने जा रहे हो।
तुम सागर होलहर नहीं। यह ध्यान सहयोगी हो सकता है। यह तुम्हारा रूपांतरण बन सकता हैयह आमूल संपरिवर्तन बन सकता है। लेकिन इसे अपने पूरे जीवन पर फैलने दो। श्वास लेते हुए सोचोभोजन करते हुए सोचोचलते हुए सोचो। दो चीजें सोचो कि रूप सदा लहर है और अरूप सागर हैकि रूप मृण्मय है और अरूप अमृत है।
और ऐसा नहीं है कि तुम किसी दिन मरोगेतुम प्रतिदिन मर रहे हो। बचपन मरता है और यौवन जन्म लेता है। फिर यौवन मरता है और बुढ़ापा जन्मता है। और फिर बुढापा भी मरता है और रूप विदा हो जाता है। प्रत्येक क्षण तुम मर रहे हो;प्रत्येक क्षण तुम जन्म रहे हो। तुम्हारे जन्म का पहला दिन तुम्हारे जीवन का पहला दिन नहीं हैवह तो आने वाले अनेक—अनेक जन्मों में से एक है। वैसे ही तुम्हारे इस जीवन की मृत्यु पहली मृत्यु नहीं हैवह तो सिर्फ इस जीवन की मृत्यु है। तुम पहले भी मरते रहे हो। प्रतिक्षण कुछ मर रहा है और कुछ जन्म ले रहा है। तुम्हारा एक अंश मरता हैदूसरा अंश जन्मता है।
शरीर शास्त्री कहते हैं कि सात वर्षों में तुम्हारे शरीर का कुछ भी पुराना नहीं बचता हैएक—एक चीजएक—एक कोष्ठ बदल जाता है। अगर तुम सत्तर वर्ष जीने वाले हो तो इस बीच तुम्हारा शरीर दस बार बदलेगापूरे का पूरा बदलेगा। हर सात वर्षों में तुम्हें नया शरीर मिलता है। लेकिन यह परिवर्तन अचानक नहीं होताप्रत्येक क्षण कुछ न कुछ बदल रहा होता है।
तुम एक लहर हो और वह भी बहुत ठोस नहीं। प्रतिक्षण तुम बदल रहे हो। और लहर थिर नहीं हो सकतीगतिहीन नहीं हो सकतीलहर को सतत बदलते रहना हैसतत गतिमान रहना है। थिर लहर जैसी कोई चीज नहीं होती है। कैसे हो सकती है?थिर लहर का कोई अर्थ नहीं है। वह गति हैप्रक्रिया है। तुम गति होप्रक्रिया हो। अगर तुम इस गति से तादात्म कर बैठे और अपने को जन्म और मृत्यु के बीच सीमित मानने लगे तो तुम पीड़ा मेंदुख में पड़ोगे। तब तुम आभास को सत्य मान रहे हो। इसको ही शंकर माया कहते हैं।
सागर ब्रह्म हैसागर सत्य है। अपने को लहर मानोया उठती—गिरती लहरों का एक सातत्य मानोऔर उसके साक्षी होओ। तुम कुछ कर नहीं सकते हो। ये लहरें विलीन होंगी। जो प्रकट हुआ हैवह विलीन होगाउसके संबंध में कुछ नहीं किया जा सकता। सब प्रयत्न बिलकुल व्यर्थ है। सिर्फ एक चीज की जा सकती है। वह है इस लहर—रूप का साक्षी होना। और एक बार तुम साक्षी हो गए तो तुम्हें अचानक उसका बोध हो जाएगा जो लहर के पार हैजो लहर के पीछे हैजो लहर में भी है और लहर के बाहर भी हैजिससे लहर बनती है और जो फिर भी लहर के पार हैजो सागर है।
'जैसे जल से लहरें उठती हैं और अग्नि से लपटेंवैसे ही सर्वव्यापक हम से लहराता है।
सर्वव्यापक हमसे लहराता है। तुम नहीं होसर्वव्यापक है। वह तुम्हारे द्वारा लहरा रहा है। इसे महसूस करोइसका मनन करोइस पर ध्यान करो। और बहुत—बहुत ढंगों से इसे अपने पर घटित होने दो।
मैंने तुम्हें श्वास के संबंध में कहा। तुममें कामवासना उठती हैउसे महसूस करोऐसे नहीं जैसे वह तुम्हारी कामवासना है,बल्कि ऐसे कि सागर तुममें लहरा रहा हैजीवन तुममें धड़क रहा हैजीवन तुममें लहर ले रहा है। तुम संभोग में मिलते हो,ऐसा मत सोचो कि दो लहरें मिल रही हैंऐसा मत सोचो कि दो व्यक्ति मिल रहे हैंबल्कि ऐसा सोचो कि दो व्यक्ति एक—दूसरे में विलीन हो रहे हैं। दो व्यक्ति अब नहीं बचेलहरें विलीन हो गई हैंकेवल सागर बचा है। तब संभोग ध्यान बन जाता है।
जो भी तुम्हें घटित हो रहा हैऐसा भाव करो कि वह ब्रह्मांड को घटित हो रहा हैकि मैं उसका अंश मात्र हूं कि मैं सतह पर एक लहर मात्र हूं। सब कुछ अस्तित्व पर छोड़ दो। झेन सदगुरु डोजेन कहा करता था—जब उसे भूख लगती थी तो वह कहता था—कि ऐसा लगता है कि अस्तित्व को मेरे द्वारा भूख लगी है। जब उसे प्यास लगती तो वह कहता था कि मेरे भीतर अस्तित्व प्यासा है।
यह ध्यान तुम्हें उसी स्थिति में पहुंचा देगा। तब तुम्हारा अहंकार बिखर जाता हैमिट जाता है और सब कुछ ब्रह्मांड का हिस्सा हो जाता है। तब जो भी होता हैअस्तित्व को होता है। तुम अब यहां नहीं हो। और तब कोई पाप नहीं हैतब कोई जिम्मेवारी नहीं है।
मेरा मतलब यह नहीं है कि तुम उच्छृंखल हो जाओगे। मेरा मतलब यह भी नहीं है कि तुम पापी हो जाओगे। पाप असंभव हो जाएगाक्योंकि पाप अहंकार के इर्द—गिर्द ही घटित होता है। जिम्मेवारी नहीं रहेगीक्योंकि अब तुम गैर—जिम्मेवार नहीं हो सकते। अब तो केवल तुम होइसलिए किसके प्रति जिम्मेवार होगे?
अब अगर तुम किसी को मरते देखोगे तो तुम्हें लगेगा कि उसके साथउसके भीतरमैं ही मर रहा हूं तब तुम्हें लगेगा कि पूरा जगत मर रहा है और मैं उस जगत का अंश हूं। और अगर किसी फूल को खिलते देखोगे तो तुम उसके साथ—साथ खिलोगे। अब सारा ब्रह्मांड तुममय है। और ऐसी घनिष्ठता मेंऐसी लयबद्धता में होना समाधि में होना है। ध्यान मार्ग है और यह एकता का भावसब के साथ जुड़े होने का भावमंजिल है।
इसे प्रयोग करो। सागर को स्मरण रखो और लहर को भूल जाओ। और ध्यान रहे, जब भी तुम लहर को स्मरण करोगे और लहर की भांति व्यवहार करने लगोगे तो तुम भूल करोगे और उसके कारण दुख में पड़ोगे। कहीं कोई ईश्वर नहीं है जो तुम्हें दंड दे रहा है। जब भी तुम किसी भ्रांति के शिकार होते होतुम अपने को दंड देते हो। जगत में एक नियम हैधर्म हैताओ है। अगर तुम इसके साथ लयबद्ध चलते हो तो तुम आनंद में हो। यदि तुम उसके विपरीत चलोगेतुम अपने को दुख में पाओगे। वहां आकाश में कोई नहीं बैठा है तुम्हें दंडित करने को। वहां तुम्हारे पापों का कोई बही—खाता नहीं हैन उसकी कोई जरूरत है।
यह ठीक गुरुत्वाकर्षण जैसा है। अगर तुम सही ढंग से चलते हो तो गुरुत्वाकर्षण सहयोगी होता हैगुरुत्वाकर्षण के बिना तुम चल नहीं सकते। लेकिन अगर तुम गलत ढंग से चलोगे तो गिरोगेअपनी हड्डी भी तोड़ ले सकते हो। लेकिन कोई तुम्हें दंड नहीं दे रहा हैसिर्फ नियम है गुरुत्वाकर्षण कानिरपेक्ष नियम है। अगर तुम गलत चलोगे और गिरोगे तो तुम्हारी हड्डी टूट जाएगी। और ठीक से चलोगे तो उसका मतलब है कि तुम गुरुत्वाकर्षण का सही उपयोग कर रहे हो। ऊर्जा का सही और गलत दोनों तरह से उपयोग हो सकता है।
जब तुम अपने को लहर मानते हो तो तुम जागतिक नियम के विरोध में होतुम सत्य के विरोध में हो। तब तुम अपने लिए दुख निर्मित करोगे। कर्म के सिद्धांत का यही मतलब है। कोई कानून बनाने वाला नहीं हैपरमात्मा कोई जज नहीं है। जज होना कुरूप बात है। और अगर ईश्वर कोई जज होता तो अब तक बिलकुल ही ऊब गया होता या पागल हो गया होता। वह कोई जज नहीं हैवह कोई कंट्रोलर नहीं हैवह कोई कानून बनाने वाला भी नहीं है। जगत के अपने ही नियम हैं। और बुनियादी नियम यह है कि सच्चा होना आनंद में होना है और झूठा होना दुख में होना है।

 दूसरी विधि :

जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है भीतर या बाहर उसी स्थान पर यह।

ह मन द्वार है—यही मन। जहां कहीं यह मन भटकता हैजो कुछ यह सोचता हैमनन करता हैसपने देखता है—यही मन और यही क्षण द्वार है।
यह एक अति क्रांतिकारी विधि हैक्योंकि हम कभी नहीं सोचते कि साधारण मन द्वार है। हम सोचते हैं कि कोई महान मनकोई बुद्ध या जीसस का मन प्रवेश कर सकता है। हम सोचते हैं कि बुद्ध या जीसस के पास कोई असाधारण मन है। और यह सूत्र कहता है कि तुम्हारा साधारण मन ही द्वार है—वही मन जो सपने देखता हैकल्पनाएं करता हैऊलजलूल सोच—विचार करता है। यही मन द्वार है जो कुरूप कामनाओं और वासनाओं सेक्रोध और लोभ से खचाखच भरा हैजिसमें वह सब है जो निंदित हैजो तुम्हारे बस के बाहर हैजो तुम्हें यहां से वहां भटकाता रहता हैजो सतत एक पागलखाना है। यही मन द्वार है।
'जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता है...।
इस जहां कहीं को स्मरण रखो। भटकने का विषय महत्वपूर्ण नहीं है।
'जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता हैभीतर या बाहरउसी स्थान परयह।
बहुत सी बातें समझने जैसी हैं। एक कि साधारण मन उतना साधारण नहीं है जितना हम समझते हैं। साधारण मन जागतिक मन से असंबद्ध नहीं हैवह उसका ही अंश है। उसकी जड़ें अस्तित्व के केंद्र तक चली गई हैंअन्यथा तुम अस्तित्व में नहीं हो सकते हो। एक पापी भी परमात्मा में आधारित हैअन्यथा वह अस्तित्व में नहीं हो सकता है। वह जो शैतान है वह भी: परमात्मा के सहारे के बिना नहीं हो सकता है। अस्तित्व ही इसलिए संभव हैक्योंकि वह परमात्मा में प्रतिष्‍ठित है।
तुम्हारा मन स्‍वप्‍न देखता हैकल्पना करता हैभटकता हैवह तनावग्रस्त हैदुख में हैसंताप में है। वह जैसे भी गति करता हैजहां कहीं भी जाता हैवह समग्र से जुड़ा रहता है। अन्यथा संभव नहीं है। तुम अस्तित्व से भाग नहीं सकतेवह असंभव है। इसी क्षण तुम्हारी जड़ें अस्तित्व में गडी हैं। तब क्या किया जाए?
अगर इसी क्षण हमारी जड़ें अस्तित्व में गड़ी हैं तो अहंकारी मन को लगेगा कि फिर तो कुछ करना नहीं है। हम तो परमात्मा में ही हैंफिर इतनी आपा— धापी की क्या जरूरततुम्हारी जड़ें तो परमात्मा में हैंलेकिन तुम इस तथ्य के प्रति मूर्च्‍छित हो। जब मन भटकता है तो दो चीजें होती हैं. मन और भटकावमन के विषय और मनआकाश में तिरते बादल और आकाश। वहां दो चीजें हैं : बादल और आकाश। कभी ऐसा भी हो सकता है कि बादल इतने हो जाते हैं कि आकाश छिप जाता हैतुम उसे देख नहीं पाते।
लेकिन जब तुम नहीं देख पाते हो तब भी आकाश विलीन नहीं हो जाता है। वह विलीन नहीं हो सकता है। आकाश के विलीन होने का कोई उपाय नहीं है। वह हैआच्छादित या प्रकटदृश्य या अदृश्यवह है। लेकिन बादल भी हैं। अगर तुम बादलों पर ही ध्यान देते हो तो आकाश भूल जाता है। और अगर तुम आकाश पर ध्यान देते हो तो बादल गौण हो जाते हैंवे आते और जाते हैं। तुम्हें बादलों की बहुत चिंता लेने की जरूरत नहीं है। वे आते—जाते रहते हैं। वे आते—जाते रहे हैंलेकिन उन्होंने आकाश को रत्तीभर भी नष्ट नहीं किया है। उन्होंने आकाश को गंदा भी नहीं किया है। उन्होंने उसको स्पर्श भी नहीं किया है। आकाश तो सदा कुंआरा है।
जब तुम्हारा मन भटकता है तो दो चीजें होती हैं। एक तो बादल हैंविचार हैंविषय हैंबिंब हैंऔर दूसरी चेतना है,खुद मन है। जब तुम बादलों परविचारों परबिंबों पर बहुत ध्यान देते हो तो तुम आकाश को भूल गए। तब तुम मेजबान को भूल गए और मेहमान में ही बुरी तरह उलझ गए। वे विचारवे बिंबजो भटक रहे हैंकेवल मेहमान हैं। अगर तुम मेहमानों पर सब ध्यान लगा देते हो तो तुम अपनी आत्मा ही भूल बैठे।
अपने ध्यान को मेहमानों से हटाकर मेजबान पर लगाओबादलों से हटाकर आकाश पर केंद्रित करो। और इसे व्यावहारिक ढंग से करो। कामवासना उठती हैयह बादल है। या बड़ा घर पाने का लोभ पैदा होता हैयह भी बादल है। तुम इससे इतने ग्रस्त हो जा सकते हो कि तुम भूल ही जाओ कि यह किस में उठ रहा हैयह किस को घटित हो रहा हैकौन इसके पीछे है,किस आकाश में यह बादल उठ रहा है। उस आकाश को स्मरण करोऔर अचानक बादल विदा हो जाएगा। सिर्फ दृष्टि बदलने की जरूरत हैपरिप्रेक्ष्य बदलने की जरूरत है। दृष्टि को विषय से विषयी परबाहर से भीतर परबादल से आकाश परअतिथि से आतिथेय पर ले जाने की जरूरत है। सिर्फ दृष्टि को बदलना हैफोकस बदलना है।
एक झेन सदगुरु लिंची प्रवचन कर रहा था। भीड में से किसी ने कहा : मेरे एक प्रश्न का उत्तर देंमैं कौन हूंलिंची ने बोलना बंद कर दिया। सब लोग चौकन्ने हो गए। लिंची क्या उत्तर देने जा रहा हैसब यही सोच रहे थे। लेकिन उसने कोई उत्तर नहीं दिया। वह कुर्सी से नीचे उतरा, आगे बढ़ा और उस आदमी के पास पहूंचा। पूरी भीड़ चकित और सजग हो उठी। लोगों की श्‍वासें तक रूक गई थी़ं। लिंची क्‍या करने जा रहा है? उसे कुर्सी पर बैठे—बैठे ही जवाब दे देना था; कुर्सी से उठने की क्‍या जरूरत थी। और प्रश्‍नकर्ता तो बहुत भयभीत हो उठा। लिंची अपनी बेधक दृष्‍टि उस व्‍यक्‍ति पर जमाए पास आया। उसने उस आदमी का गला पकड़ लिया,उसे झकझोरा और कहा: आंखें बंद करो और उसका स्‍मरण करो जा यह प्रश्‍न पूछ रहा है। कि मैं कौन हूं।
उस आदमी ने आंखें बंद की—हालांकि डरते—डरते बंद की। वह अपने भीतर खोजने गया कि किसने यह प्रश्‍न पूछा है। और वह वापस नहीं आया। भीड़ प्रतीक्षा करती रहीं,प्रतीक्षा करती रही,प्रतीक्षा करती रहीं। उस आदमी का चेहरा मौन और शांत हो गया। तब लिंची ने उसे फिर झकझोरा: अब बाहर आओ और सबको बताओ कि तुम कौन हो। वह आदमी हंसने लगा और उसने कहा: जवाब देने का आपका खूब अद्भुत ढंग है। लेकिन यदि कोई व्‍यक्‍ति अभी मुझसे यही पूछे तो मैं भी वही करूंगा; मैं उत्‍तर नहीं दे सकता।
यह दृष्‍टि की, परिप्रेक्ष्‍य की बदलाहट थी। तुम पूछते हो कि मैं कौन हूं। और तुम्‍हारा मन प्रश्‍न पर केंद्रित है, जब कि उत्‍तर के ठीक पीछे प्रश्‍नकर्ता में छिपा है। दृष्‍टि को बदलों; अपने पर लौट ओओ।
यह सूत्र कहता है: जहां कहीं तुम्‍हारा मन भटकता है, भीतर या बाहर, उसी स्‍थान पर यह।
विषय से मन पर चले आओ और तुम फिर साधारण मन न रहे। तुम विषयों के कारण साधारण हो। दृष्‍टि के बदलते ही तुम स्‍वयं बुद्ध हो जाते हो। तुम बुद्ध ही हो; लेकिन अनेक बादलों के नीचेदबे हो। इतना ही नहीं कि तुम बादलों से दबे हो; तुम उनसे बंधे हो, तुम उन्‍हें जाने भी नहीं देते।
तुम सोचते हो कि बादल मेरी संपदा है। तुम सोचते हो कि जितने बादल होंगे; मैं उतना ही बेहतर, उतना ही ज्‍यादा समृद्ध हो जाऊंगा। और तुम्‍हारा सारा आकाश, सारा आंतरिक आकाश उनसे आच्‍छादित है, ढंका है, एक अर्थ में बादलों का जीवन ही संसार है।
यह बात एक क्षण में घट सकती है—यह दृष्‍टि की बदलाहट। यह सदा अचानक ही घटती है। मैं यह नहीं कहा रहा हूं कि तुम कुछ भी मत करो और यह अचानक घटेगी। तुम्‍हें बहुत कुछ करना होगा। लेकिन यह क्रमिक ढंग से नहीं घटता है। तुम्‍हें बहुत कुछ करना होगा। करना ही होगा। तब करते—करते एक दिन वह क्षण आता है जब तुम भाप बनने के सही तापमान पर पहुंच जाते हो। अचानक पानी—पानी नहीं रहता है। वह भाप बन गया। अचानक तुम विषय से बाहर हो गए; तुम्‍हारी आंखें अब बादलों पर नहीं अटकी है। अब अचानक तुम आंतरिक आकाश की तरफ भीतर मुड़ गए।
ऐसा कभी क्रमिक रूप से नहीं होता कि तुम्‍हारी आँख का एक अंश भीतर की और मुड़ जाता है। और उसका दूसरा अंश बाहर बादलों पर लगा रहता है। नहीं, यह अंशों में नहीं घटित होता कि तुम अब दस प्रतिशत भीतर हो और नब्‍बे प्रतिशत बाहर,कि बीस प्रतिशत भीतर हो और अस्‍सी प्रतिशत बाहर। नहीं, जब यह घटित होता है तो शत प्रतिशत होता है। क्योंकि तुम अपनी दृष्टि को खंड—खंड नहीं कर सकते हो। या तो तुम विषयों को देखते हो या अपने कोया संसार को या ब्रह्म को।
फिर तुम संसार में वापस आ सकते होतुम फिर अपनी दृष्टि बदल सकते हो। अब तुम मालिक हो। सच तो यह है कि तुम तभी मालिक होते हो जब स्वेच्छा से अपनी दृष्टि बदल सकते हो।
मुझे एक तिब्बती संत मारपा का स्मरण आता है। जब वह ज्ञान को उपलब्ध हुआ—जब वह बुद्ध हुआजब वह अंतस की ओर मुड़ गयाजब उसने अंतराकाश काअनंत का साक्षात्कार किया—तो किसी ने उससे पूछा. मारपाअब कैसे होतो मारपा ने जो उत्तर दिया वह अपूर्व हैअप्रत्याशित है। अब तक किसी बुद्ध ने वैसा उत्तर नहीं दिया था। मारपा ने कहा. पहले जैसा ही दुखी।
वह आदमी तो भौचक्का रह गयाउसने पूछा : पहले जैसा ही दुखीलेकिन मारपा हंसाउसने कहा : हीलेकिन एक फर्क के साथ। और फर्क यह है कि अब मेरा दुख स्वैच्छिक है। अब मैं कभी—कभी बस संसार का स्वाद लेने के लिए अपने से बाहर चला जाता हूं लेकिन मैं मालिक हूं। मैं किसी भी क्षण भीतर लौट सकता हूं। और दोनों ध्रुवों के बीच गति करना अच्छा है। तभी कोई जीवंत रहता है। मारपा ने कहा : मैं अब दोनों जगत में गति कर सकता हूं। कभी मैं दुखों में लौट जाता हूं लेकिन अब दुख मुझे नहीं घटित होते हैंमैं ही उन्हें घटित होता हूं। और मैं उनसे अछूता रहता हूं।
निश्चित हीजब तुम स्वेच्छा से गति करते हो तो तुम अछूते रहते हो। एक बार तुमने जान लिया कि दृष्टि को अंतर्मुखी कैसे किया जाएतुम संसार में वापस आ सकते हो। सभी बुद्धषुरुष संसार में वापस आए हैं। वे दृष्टि को फिर संसार पर ले जाते हैं। लेकिन अब आंतरिक मनुष्य की गुणवत्ता भिन्न है। वह जानता है कि यह उसकी स्वतंत्र दृष्टि हैवह बादलों को भी गति करने की इजाजत दे सकता है। अब बादल मालिक न रहेवे तुम पर हावी नहीं हो सकते। वे अब तुम्हारी मर्जी से घूमते हैं।
और यह सुंदर है। कभी—कभी बादलों से भरा आकाश सुंदर होता हैबादलों की हलचल सुंदर होती है। अगर आकाश आकाश बना रहे तो बादलों को तिरने दिया जा सकता है। समस्या तो तब खड़ी होती है जब आकाश अपने को भूल जाता है और वहां बादल ही बादल रह जाते हैं। तब सब कुछ कुरूप हो जाता हैक्योंकि स्वतंत्रता खो गई।
यह सूत्र सुंदर है. 'जहां कहीं तुम्हारा मन भटकता हैभीतर या बाहरउसी स्थान परयह।
झेन परंपरा में इस सूत्र का गहरा उपयोग हुआ है। झेन कहता है कि साधारण मन ही बुद्ध—मन है। भोजन करते हुए तुम बुद्ध होसोते हुए तुम बुद्ध होकुएं से पानी ले जाते हुए तुम बुद्ध हो। तुम हो! कुएं से पानी ले जाते हुए भोजन करते हुए,बिस्तर पर लेटे हुए तुम बुद्ध हो! यह बात सोच में भी नहीं आतीयह पहेली जैसी लगती है। लेकिन यह सत्य है। अगर पानी ढोते हुए तुम सिर्फ पानी ढोते होतुम उसे समस्या नहीं बनाते और सिर्फ पानी ढोते होअगर तुम्हारा मन बादलों से मुक्‍त है और आकाश खाली हैअगर तुम केवल पानी ढोते होतो तुम बुद्ध हो। तब भोजन करते हुए तुम सिर्फ भोजन करते हो और कुछ नहीं करते।
लेकिन हम जब भोजन करते हैं तो उसके साथ हजारों चीजें करते रहते हैं। हो सकता है कि तुम्‍हारा मन भोजन में बिलकुल न हो; तुम्‍हारा शरीर यंत्र की तरह भोजन कर रहा हो और तुम्हारा मन कहीं और हो।
किसी विश्वविद्यालय का एक छात्र यहां कुछ दिन पहले आया था। उसकी परीक्षा करीब थीइसलिए वह कुछ पूछने आया था। उसने कहा : मैं बहुत उलझन में हूं। समस्या यह है कि मैं एक लड़की के प्रेम में पड़ गया हूं और परीक्षा निकट है। जब मैं लड़की के साथ होता हूं तो परीक्षा की सोचता रहता हूं और जब पढ़ता होता हूं तो लड़की की सोचता रहता हूं। मैं क्या करूं?पढ़ते समय मैं वहां नहीं होतामैं कल्पना में अपनी प्रेमिका के साथ होता हूं। और प्रेमिका के साथ जब होता हूं तो कभी उसके साथ नहीं होतामैं अपनी समस्याओं के बारे मेंनजदीक आती परीक्षा के बारे में चिंता करता रहता हूं। नतीजा यह है कि सब कुछ गड्ड—मड्ड हो गया है।
यह लड़का ही नहीं ऐसे ही हर कोई गड्ड—मड्ड हो गया है। तुम जब दफ्तर में होते हो तो तुम्हारा मन घर में होता है;तुम जब घर में होते हो तो तुम्हारा मन दफ्तर में होता है। और तुम ऐसा जादुई करिश्मा कर नहीं सकतेघर में होकर तुम घर में ही हो सकते होदफ्तर में नहीं हो सकतेऔर अगर तुम दफ्तर में हो तो तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं हैतुम पागल हो। तब हर चीज दूसरी चीज में उलझ जाती हैगुत्थमगुत्था हो जाती है। तब कुछ भी स्पष्ट नहीं रहता है। और यही मन समस्या है।
कुएं से पानी खींचते हुएकुएं से पानी ढोते हुए तुम अगर मात्र यही काम कर रहे हो तो तुम बुद्ध हो। अगर तुम झेन सदगुरुओं के पास जाओ और उनसे पूछो कि आप क्या करते हैंआपकी साधना क्या हैध्यान क्या हैतो वे कहेंगे : जब नींद आती है तो हम सो जाते हैंजब भूख लगती है तो हम भोजन कर लेते हैं। बस यही हमारी साधना है और कोई साधना नहीं है।
लेकिन यह बहुत कठिन हैहालांकि आसान मालूम पड़ता है। अगर भोजन करते हुए तुम सिर्फ भोजन करोअगर बैठे हुए तुम सिर्फ बैठो और कुछ न करोअगर तुम वर्तमान क्षण के साथ रह सकोउससे हटो नहींअगर तुम वर्तमान क्षण में डूब सकोन कोई अतीत होन कोई भविष्‍य होअगर. वर्तमान क्षण ही एकमात्र अस्तित्व होतो तुम बुद्ध हो। तब यही मन बुद्ध—मन बन जाता है।
तो जब तुम्हारा मन भटकता हो तो उसे रोकने की चेष्टा मत करोबल्कि आकाश को स्मरण करो। जब मन भटके तो उसे रोको मत। उसे किसी बिंदु पर लाने कीएकाग्र करने की चेष्टा मत करो। नहींउसे भटकने दोलेकिन भटकाव पर बहुत अवधान मत दो—न पक्ष मेंन विपक्ष में। क्योंकि तुम चाहे उसके पक्ष में रहो या विपक्ष मेंतुम उससे बंधे रहते हो। आकाश को स्मरण करो। भटकन को चलने दो और इतना ही कहो : ठीक हैयह चलती हुई राह हैअनेक लोग इधर—उधर चल रहे हैं। मन एक चलती राह है। मैं आकाश हूं बादल नहीं।
इसे स्मरण रखोइस भाव में उतरोइसमें ही स्थित रहो। देर—अबेर तुम देखोगे कि बादलों की गति मंद पड़ रही बादलों के बीच बड़े अंतराल आने लगे हैं। वे अब उतने काले नहीं हैंउतने घने नहीं हैं। उनकी गति मंद हो गई है,. उनके बीच अंतराल देखे जा सकते हैंउनके पीछे का आकाश दिखाई पड़ने लगा है। अपने को आकाश की भांति अनुभव करते रहोबादलों की भांति नहीं। देर—अबेर किसी दिनकिसी सम्यक क्षण मेंजब तुम्हारी दृष्टि सचमुच भीतर लौट गई हैबादल विलीन हो जाएंगेऔर तब तुम शुद्ध आकाश होसदा से शुद्रसदा से अस्पर्शित आकाश हो।
और एक बार तुमने इस कुंआरेपन को जान लिया तो फिर बादलों मेंबादलों के संसार में वापस आ सकते हो। तब संसार का अपना ही सौंदर्य हैतब तुम इसमें रह सकते होलेकिन अब तुम मालिक हो।
संसार बुरा नहीं है। मालिक की तरह संसार समस्या हैजब तुम ही मालिक हो तो तुम उसमें रह सकते हो। तब संसार का अपना ही सौंदर्य हैवह सुंदर हैप्यारा है। लेकिन तुम उस सौंदर्य कोउस माधुर्य को अपने भीतर मालिक होकर ही जान सकते हो।

 तीसरी विधि:

जब किसी इंद्रिय— विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध हो उसी बोध में स्थित होओ।

तुम अपनी आख के द्वारा देखते हो। ध्यान रहेतुम अपनी आख के द्वारा देखते हो। आंखें नहीं देख सकतींउनके द्वारा तुम देखते हो। द्रष्टा पीछे छिपा हैभीतर छिपा हैआंखें बस द्वार हैंझरोखे हैं। लेकिन हम सदा सोचते हैं कि हम आख से देखते हैंहम सोचते हैं कि हम कान से सुनते हैं। कभी किसी ने कान से नहीं सुना है। तुम कान के द्वारा सुनते होकान से नहीं। सुनने वाला पीछे छिपा है। कान तो रिसीवर भर है।
मैं तुम्हें छूता हूंमैं बहुत प्रेमपूर्वक तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं। यह हाथ नहीं है जो तुम्हें छूता हैयह मैं हूं जो हाथ के द्वारा तुम्हें छू रहा हूं। हाथ यंत्र भर है। और स्पर्श भी दो भांति का है। एकजब मैं सच ही तुम्हें स्पर्श करता हूं। और दूसराजब मैं स्पर्श से बचना चाहता हूं। मैं तुम्हें छूकर भी स्पर्श से बच सकता हूंमैं अपने हाथ में न रहूंमैं हाथ से अपने को अलग कर लूं।
इसे प्रयोग करके देखोतुम्हें एक भिन्न अनुभव होगाएक दूरी का अनुभव होगा। किसी पर अपना हाथ रखो और अपने को अलग रखोवहां सिर्फ मुर्दा हाथ होगातुम नहीं। और अगर दूसरा व्यक्ति संवेदनशील है तो उसे मुर्दा हाथ का एहसास होगा;वह अपमानित अनुभव करेगा। क्योंकि तुम उसे धोखा दे रहे होतुम छूने का दिखावा कर रहे होछू नहीं रहे हो।
स्त्रियां इस मामले में बहुत संवेदनशील हैंतुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। स्पर्श के प्रतिशारीरिक स्पर्श के प्रति वे ज्यादा सजग हैंवे जान जाती हैं। हो सकता है पति मीठी—मीठी बातें कर रहा होवह फूल ले आया हो और कह रहा हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूंलेकिन उसका स्पर्श कह देगा कि वह वहा नहीं है। और स्त्रियों को सहज—बोध हो जाता है कि कब तुम उनके साथ हो और कब नहीं। अगर तुम अपने मालिक नहीं हो तो तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। अगर तुम्हें अपने ऊपर मालकियत नहीं है तो तुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। और जो अपना मालिक है वह पति होना नहीं चाहेगायह कठिनाई है। तुम जो भी कहोगेतुम्हारा स्पर्श उसे झुठला देगा।
बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैंतुम उन्हें धोखा नहीं दे सकते। तुम उनकी पीठ भला थपथपाते हो, लेकिन वे जान जाते है कि यह थपथपाना मुर्दा है। अगर तुम्‍हारे हाथ में प्रेम—ऊर्जा का प्रवाह नहीं है तो वे जान जाते हैं। एक मुर्दा हाथ उपयोग में लाया जा रहा है। और जब तुम समग्रता से अपने हाथ में मौजूद होते होजब तुम खुद हाथ के साथ आगे बढ़ते होजब तुम्हारे प्राण तुम्हारे हाथ में आ गए हैंजब तुम्हारी आत्मा ही वहा मौजूद हैतब स्पर्श की गुणवत्ता ही भिन्न होती है।
यह सूत्र कहता है कि इंद्रियां द्वार भर हैं—एक माध्यमएक यंत्रएक रिसीविंग स्टेशन। और तुम उनके पीछे छिपे हो।
'जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध होउसी बोध में स्थित होओ।
संगीत सुनते हुए अपने को कान में मत खो दोमत भुला दोउस चैतन्य को स्मरण करो जो पीछे छिपा है। होश रखो। किसी को देखते हुए इस विधि का प्रयोग करो। तुम यह प्रयोग मुझे देखते हुए अभी और यहीं कर सकते हो। क्या हो रहा है?
तुम मुझे आख से देख सकते हो। और जब मैं कहता हूं आख से तो उसका मतलब है कि तुम्हें इसका बोध नहीं है कि तुम आख के पीछे छिपे हो। तुम मुझे आख के द्वारा देख सकते हो। और जब मैं कहता हूं आख के द्वारा तो उसका मतलब है कि आख बस तुम्हारे और मेरे बीच में एक यंत्र भर हैतुम आख के पीछे खड़े होआख के द्वारा देख रहे होजैसे कोई खिड़की या ऐनक के द्वारा देखता है।
तुमने बैंक में किसी क्लर्क को अपनी ऐनक के ऊपर से देखते हुए देखा होगा। ऐनक उसकी नाक पर उतर आयी है और वह देख रहा है। उसी ढंग से मुझे देखोमेरी तरफ देखोऐसे देखो जैसे आख के ऊपर से देखते होमानो तुम्हारी आंखें सरककर नीचे नाक पर आ गई हों और तुम उनके पीछे से मुझे देख रहे हो। अचानक तुम्हें गुणवत्ता में फर्क मालूम पड़ेगा। तुम्हारा परिप्रेक्ष्य बदलता हैआंखें महज द्वार बन जाती हैं। और यह ध्यान बन जाता है।
सुनते समय कानों के द्वारा मात्र सुनो और अपने आंतरिक केंद्र के प्रति जागे रहो। स्पर्श करते हुए हाथ के द्वारा मात्र छुओ और आंतरिक केंद्र को स्मरण रखो जो पीछे छिपा है। किसी भी इंद्रिय से तुम्हें आंतरिक केंद्र की अनुभूति हो सकती है। और प्रत्येक इंद्रिय आंतरिक केंद्र तक जाती हैउसे सूचना देती है।
यही कारण है कि जब तुम मुझे देख और सुन रहे हो—जब तुम आख के द्वारा देख रहे हो और कान के द्वारा सुन रहे हो—तो तुम जानते हो कि तुम उसी व्यक्ति को देख रहे हो जिसे सुन भी रहे हो। अगर मेरे शरीर में कोई गंध है तो तुम्हारी नाक उसे भी ग्रहण करेगी। उस हालत में तीन—तीन इंद्रियां एक ही केंद्र को सूचना दे रही हैं। इसी से तुम संयोजन कर पाते हो,अन्यथा संयोजन कठिन होता।
अगर तुम्हारी आंखें ही देखती हैं और कान ही सुनते हैं तो यह जानना कठिन होता कि तुम उसी व्यक्ति को सुन रहे हो जिसे देख भी रहे होया दो भिन्न व्यक्तियों को देख और सुन रहे होक्योंकि दोनों इंद्रियां भिन्न हैं और वे आपस में नहीं मिलती हैं। तुम्हारी आंखों को तुम्हारे कानों का पता नहीं है और तुम्हारे कानों को तुम्हारी आंखों का पता नहीं है। वे एक—दूसरे को नहीं जानते हैंवे आपस में कभी मिले नहीं हैं। उनका एक—दूसरे से परिचय भी नहीं कराया गया है। तो फिर सारा. समन्वयसारा संयोजन कैसे घटित होता है?
कान सुनते है, आंखें देखती है, हाथ छूते है, नाक सूंघती है; और अचानक तुम्‍हारे भीतर कहीं कोई जान जाता है कि यह वही आदमी है जिसे मैं सुन रहा हूं देख रहा हूं छू रहा हूं और सूंघ रहा हूं। यह ज्ञाता इंद्रियों से पृथक और भिन्न है। सभी इंद्रियां इस ज्ञाता को ही सूचना देती हैं। और इस ज्ञाता मेंइस केंद्र में सब कुछ सम्मिलित होकरसंयोजित होकर एक हो जाता है। यह चमत्कार है।
मैं एक हूंतुमसे बाहर मैं एक हूं। मेरा शरीरमेरे शरीर की उपस्थितिउसकी गंधमेरा बोलनासब एक हैं। लेकिन तुम्हारी इंद्रियां मुझे विभाजित कर देंगी। तुम्हारे कान मेरे बोलने की खबर देंगेतुम्हारी नाक मेरी गंध की खबर देगी और तुम्हारी आंखें मेरी उपस्थिति की खबर देंगी। वे इंद्रियां मुझे टुकड़ों में बांट देंगी। लेकिन फिर तुम्हारे भीतर कहीं पर मैं एक हो जाऊंगा। जहां तुम्हारे भीतर मैं एक होता हूं वह तुम्हारे होने का केंद्र है। वह तुम्हारा बोध हैचैतन्य है। तुम उसे बिलकुल भूल गए हो। यह विस्मरण ही अज्ञान है। और बोध या चैतन्य आत्म—ज्ञान का द्वार खोलता है। तुम और किसी उपाय से अपने को नहीं जान सकते हो।
'जब किसी इंद्रिय—विशेष के द्वारा स्पष्ट बोध होउसी बोध में स्थित होओ।
उसी बोध में रहोउसी बोध में स्थिर रहो। होशपूर्ण होओ।
आरंभ में यह कठिन है। हम बार—बार सो जाते हैंऔर आख के द्वारा देखना कठिन मालूम पड़ता है। आख से देखना आसान है। आरंभ में थोड़ा तनाव अनुभव होगा अगर तुम आख के द्वारा देखने की चेष्टा करोगे। और न केवल तुम तनाव अनुभव करोगेवह व्यक्ति भी तनाव अनुभव करेगा जिसे तुम देखोगे।
अगर तुम किसी को आख के द्वारा देखोगे तो उसे लगेगा कि तुम अनुचित रूप से दखल दे रहे होकि तुम उसके साथ अभद्र व्यवहार कर रहे हो। तुम अगर आख के द्वारा देखोगे तो दूसरे को अचानक अनुभव होगा कि तुम उसके साथ उचित व्यवहार नहीं कर रहे हो। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि बेधक बन जाएगीतुम्हारी दृष्टि गहराई में उतर जाएगी। अगर यह दृष्टि तुम्हारी गहराई से आती हैवह उसकी गहराई में प्रवेश कर जाएगी।
यही कारण है कि समाज ने एक बिल्ट—इन सुरक्षा की व्यवस्था कर रखी है। समाज कहता है कि जब तक तुम किसी के प्रेम में नहीं होउसे बहुत घूरकर मत देखो। अगर तुम प्रेम में हो तो देख सकते हो। तब तुम उसके अंतर्तम तक प्रवेश कर सकते होक्योंकि वह तुमसे भयभीत नहीं है। तब दूसरा तुम्हारे प्रति नग्न हो सकता हैसमग्रत: नग्न हो सकता हैवह तुम्हारे प्रति खुला हो सकता है। लेकिन साधारणत:अगर तुम प्रेम में नहीं होतो किसी को घूरने कीबेधक दृष्टि से देखने की मनाही है।
भारत में हम ऐसे आदमी कोजो दूसरे को घूरता हैलुच्चा कहते हैं। लुच्चा का अर्थ हैदेखने वाला। लुच्चा शब्द लोचन से आता है। लुच्चा का अर्थ हुआ कि जो आख ही बन गया है। इसलिए इस विधि का प्रयोग किसी अपरिचित पर मत करो। वह तुम्हें लुच्चा समझेगा। पहले इस विधि का प्रयोग ऐसे विषयों के साथ करो जैसे फूल हैंपेड़ हैंरात के तारे है। वे इसे अनुचित दखल नहीं मानेंगेवे एतराज नहीं उठाएंगे। बल्कि वे इसे पसंद करेंगेउन्हें बहुत अच्छा लगेगा। वे इसका स्वागत करेंगे।
तो पहले उनके साथ प्रयोग करो और फिर अपनी पत्नीअपने बच्चेअपने प्रियजनों के साथ। कभी अपने बच्‍चे को गोद में उठा लो और उसको आँख के द्वारा देखो। बच्चा इसे समझेगासराहेगा। वह अन्य किसी से भी ज्यादा समझेगाक्योंकि अभी समाज ने उसे पंगु नहीं बनाया हैविकृत नहीं किया है। वह अभी सहज है। तुम अगर उसे आख के द्वारा देखोगे तो उसे प्रगाढ़ प्रेम की अनुभूति होगीउसे तुम्हारी उपस्थिति का एहसास होगा।
अपने प्रेमी या प्रेमिका को ऐसे देखो। और फिर जैसे—जैसे तुम्हें इस बात की पकड़ आएगीजैसे—जैसे तुम इसमें कुशल होगेवैसे—वैसे तुम धीरे— धीरे दूसरों को भी देखने में समर्थ हो जाओगे। क्योंकि तब किसी को पता नहीं चलेगा कि तुमने इस गहराई से उसे देखा। और जब अपनी इंद्रियों के पीछे सतत सजग होकर खड़े होने की कला तुम्हारे हाथ आ जाएगी तो इंद्रियां तुम्हें धोखा न दे पाएंगी। अन्यथा इंद्रियां धोखा देती हैं। ऐसे संसार मेंजो सिर्फ भासता हैइंद्रियों ने तुम्हें उसे सच मानने का धोखा दिया है।
अगर तुम इंद्रियों के द्वारा देख सके और सजग रह सके तो धीरे— धीरे संसार माया मालूम पड़ने लगेगास्‍वप्‍नवत मालूम पड़ने लगेगा। और तब तुम उसके तत्व मेंउसके मूल तत्व में प्रवेश कर सकोगे। वह मूल तत्व ही ब्रह्म है।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

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