Friday 16 February 2018

जब हरि हैं मैं नाहिं

तंत्र--सूत्र--(भाग--4) प्रवचन--53

जब हरि हैं मैं नाहिं(प्रवचनतैरपनवां)

सूत्र:
79—भाव करो कि एक आग तुम्‍हारे पाँव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरिर
      में ऊपर उठ रही है। और अंतत: शरीर जलाकर राख हो जाता है;
      लेकिन तुम नहीं।
80—यह काल्‍पनिक जगत जलकर राख हो रहा है, यह भाव करो;
      और मनुष्‍य से श्रेष्‍ठतर प्राणी बनो।
81—जैसे विषयीगत रूप से अक्षर शब्‍दों में और शब्‍द वाक्‍यों में जाकर
      मिलते है और विषयगत रूप से वर्तुल चक्रों में और चक्र मूल
      तत्‍व में जाकर मिलते है, वैसे ही अंतत: इन्‍हें भी हमारे
अस्‍तित्‍व में आकर मिलते हुए पाओ।


भी बुद्ध पुरुषसभी धर्म सिर्फ एक बात पर सहमत हैं। उनके मतभेद अनेक हैंलेकिन उनमें एक बड़ी सहमति है। सहमति यह है कि मनुष्य अपने अहंकार के कारण ही सत्य से वंचित हैसत्य और उसके बीच एक ही बाधा हैऔर वह अहंकार है—यह भाव कि मैं हूं। इस बात पर सब बुद्धसब क्राइस्टसब कृष्ण एकमत हैं। और उनकी इस सहमति के कारण मुझे लगता है कि सारी आध्यात्मिक साधना का बुनियादी सूत्र यही हैशेष सब गौण है। सार—सूत्र यह है कि तुम अपने अहंकार के कारण सत्य से वंचित हो रहे हो।
यह अहंकार क्या हैयह किन चीजों का जोड़ हैयह कैसे पैदा होता हैऔर यह इतना महत्वपूर्ण क्यों हो जाता है?
अपने मन को देखो। तुम अपने मन की घटना को सैद्धांतिक ढंग से नहीं समझ सकतेउसे केवल अस्तित्वगत ढंग से ही समझ सकते हो। अपने मन को देखोउसका निरीक्षण करोऔर तुम्हें एक गहरी समझ प्राप्त होगी। और अगर तुम समझ सके कि यह अहंकार क्या है तो फिर कोई समस्या न रहीतब उसे आसानी से छोड़ा जा सकता है। बल्कि उसे छोड़ने की भी जरूरत नहीं हैअगर तुम अहंकार को समझ सके तो यह समझ ही उसका विसर्जन बन जाती है। क्योंकि अहंकार तुम्हारी नासमझी से निर्मित होता हैअहंकार तुम्हारी मूर्च्छा से पैदा होता है। अगर तुम उसके प्रति बोधपूर्ण हो जाओअगर तुम उस पर अपनी चेतना को थिर कर सकोतो वह विलीन हो जाता है। अगर तुम अंधकार को देखने के लिए दीया लाओयह देखने के लिए दीया लाओ कि अंधकार कैसा हैतो भी अंधकार विदा हो जाता है।
अहंकार हैक्योंकि तुम कभी अपने होने के प्रति सजग नहीं हो। अहंकार तुम्हारी बेहोशी कीतुम्हारी मूर्च्छा की छाया है। इसलिए दरअसल इसे छोड़ने की जरूरत नहीं हैअगर तुम उसे ठीक से देख सको तो वह अपने आप ही विलीन हो जाता है।
क्या है अहंकारक्या तुमने कोई ऐसा क्षण जाना जब अहंकार न हो?
जब भी तुम मौन होते होअहंकार नहीं होता है। और जब भी तुम्हारा मन अशांत होता हैउद्विग्न होता हैबेचैन होता हैअहंकार मौजूद हो जाता है। और जब तुम विश्राम में होते होमौन और शांत होते होअहंकार नहीं होता है। अभी ही अगर तुम मौन हो जाओ तो अहंकार कहां हैतुम तो होगेलेकिन मैं का कोई भाव नहीं होगा। इसलिए इस अहंकार को अस्तित्वतः समझोइसे सोचकर नहींजीकर समझो।
अभी मैं बोल रहा हूं तुम देख सकते हो कि अगर तुम मौन होपूरी तरह सजग हो तो तुम तो होपर 'मैंका भाव नहीं है। और इससे ठीक उलटा भी होता है कि जब तुम अशांत होद्वंद्व और चिंता से भरे होतब तुम्हारे भीतर एक ठोस अहंकार होता है। जब तुम क्रोध में होकामुकहिंसक और आक्रामक हो तो तुम्हारे भीतर अहंकार बिलकुल स्पष्ट और उभर कर खड़ा होता है। और जब तुम प्रेमपूर्ण होकरुणापूर्ण होतो कोई अहंकार नहीं होता है।
यही कारण है कि हम प्रेम करने में असमर्थ हो गए हैंअहंकार के साथ प्रेम असंभव है। और यही कारण है कि हम प्रेम की बातचीत तो बहुत करते हैंलेकिन हम कभी प्रेम नहीं करते। और जिसे हम प्रेम कहते हैं वह करीब—करीब कामवासना है,वह प्रेम नहीं है। तुम अपना अहंकार छोड़ने को राजी नहीं हो। और जब तक अहंकार विलीन नहीं होताप्रेम नहीं हो सकता है।
प्रेमध्यानपरमात्माइन सब की एक ही शर्त है कि अहंकार न हो। इसलिए जीसस ठीक कहते हैं कि परमात्मा प्रेम है,क्योंकि दोनों तभी होते हैं जब अहंकार नहीं होता। अगर तुम प्रेम को जानते हो तो तुम्हें परमात्मा को जानने की जरूरत न रहा,तुमने उसे जान ही लिया। प्रेम परमात्मा का ही दूसरा नाम है। और अगर तुम प्रेम जानते हो तो ध्यान की भी जरूरत नहीं हैतुम ध्यान में ही हो। प्रेम ध्यान का ही दूसरा नाम है।
ध्यान की इतनी सारी विधियां जरूरी हैंइतने सारे गुरु जरूरी हैंइतने विद्यापीठ जरूरी हैं—क्योंकि प्रेम नहीं है। अगर प्रेम हो तो कुछ भी साधने की जरूरत नहीं है। क्योंकि बात पूरी हो गईअहंकार का विसर्जन ही असली बात है।
पहली बात समझने की यह है कि जब भी तुम शांत होते हो तो अहंकार नहीं होता है। और मेरी बात मान मत लोमैं किसी सिद्धात की बात नहीं कर रहा हूं। यह तथ्य हैयह हकीकत है। तुम्हें मेरी बात मान लेने की जरूरत नहीं हैस्वयं के भीतर इसका निरीक्षण करोइसे देखो। और इसे भविष्य के लिए स्थगित करने की भी जरूरत नहीं है। तुम इसी क्षण इस तथ्य को देख सकते हो कि अगर तुम शांत हो तो तुम होलेकिन बिना किसी सीमा केबिना किसी केंद्र के। जब तुम मौन हो तो तुम हो—बिना किसी केंद्र केबिना किसी केंद्रीभूत 'मैंके। एक उपस्थिति हैचेतना हैलेकिन कोई नहीं है जो कहे कि 'मैं हूं?
जब तुम शांत हो तो अहंकार नहीं है। और जब तुम अशांत हो तो अहंकार है। तो अहंकार ही रोग है—सभी रोगों का इकट्ठा रूप। यही कारण है कि अहंकार के समर्पण पर इतना जोर दिया जाता है। यह जोर रोग के समर्पण के लिए है।
और दूसरी बात कि इस शांति में अगर तुम्हें क्षण भर के लिए भी अपने अहंकार—रहित अस्तित्व की झलक मिल जाए तो तुम उससे तुलना कर सकते हो और तब तुम अहंकार की घटना में प्रवेश कर सकते होतब तुम समझ सकते हो कि वह क्या है।
मन संग्रह हैमन संगृहीत अतीत है। मन कभी भी यहां और अभी नहीं हैवह सदा अतीत में हैअतीत से निर्मित है। मन संग्रह हैमन स्मृति है। तुम जितने अनुभवों से गुजरे होतुम जितनी सूचनाओं के संपर्क में आए होतुमने फ्यू—सुनकर जितना ज्ञान इकट्ठा किया है, वे सब संग्रहीत है। मन निरंतर संग्रह कर रहा है। मन सब से बड़ा संग्रह करने वाला है। वह संग्रह करता रहता है। तुम जब सजग नहीं होते हो तो भी वह संग्रह करता रहता है। तुम जब सोए होते हो तो भी मन संग्रह करता रहता है।
शायद तुम्हें इसका बोध भी न हो। जब तुम सोए होते हो और सड़क पर शोर होता है तो उस शोर को भी मन संगृहीत कर लेता है। सुबह यदि तुम्हें सम्मोहित करके पूछा जाए तो तुम वह सब बता दोगे जो तुम्हारे मन ने पिछली रात जमा किया था।
अगर तुम मूर्च्छित भी होअचेत होबेहोशी में पड़े होतो भी मन अपना संग्रह जारी रखता है। संग्रह करने के लिए मन को तुम्हारे होश में होने की जरूरत नहीं हैवह तुम्हारी अचेतन अवस्था में भी संग्रह करता रहता है। जब तुम मां के पेट में थे,मन वहा भी संग्रह कर रहा था। और सम्मोहन के द्वारा तुम्हारे मां के गर्भ के दिनों की स्मृतियां जगाई जा सकती हैं। अपने जन्म लेने की घटना के संबंध में तुम्हें कुछ भी स्मरण नहीं हैलेकिन मन तब भी संग्रह कर रहा था। जो भी हो रहा थामन उसे इकट्ठा कर रहा था। और अब सम्मोहन के द्वारा इस स्मृति को जगाया जा सकता हैस्मृति को तुम्हारी चेतना के सामने लाया जा सकता है। और लाखों स्मृतियां संगृहीत हैं—यह संग्रह ही मन है। यह स्मृति ही मन है।
'मैंया अहंकार कैसे निर्मित होता हैचेतना तुम्हारे भीतर है और इस चेतना के चारों ओर परिधि पर ये स्मृतिया इकट्ठी हैं। वे उपयोगी हैं और तुम उनके बिना जीवित नहीं रह सकते। उनकी जरूरत है। लेकिन इन दोनों के बीच एक नई चीज घटित होती है—एक उप—घटना। भीतर चेतना हैभीतर तुम हो—मैं के बिना। अंतस में कोई 'मैंनहीं है। वहा तुम हो—बिना किसी केंद्र के। और परिधि पर प्रत्येक क्षण ज्ञानअनुभवस्मृतियां इकट्ठी हो रही हैंऔर यही मन है। और जब तुम संसार को देखते हो तो तुम इसी मन के द्वारा देखते हो। जब तुम किसी नए अनुभव से गुजरते हो तो तुम स्मृतियों के द्वारा उसे देखते हो,स्मृतियों के द्वारा उसकी व्याख्या करते हो। तुम प्रत्येक चीज को अतीत के माध्यम से देखते होअतीत बीच में आ जाता है। और अतीत के द्वारा निरंतर देखने से तुम्हारा अतीत के साथ तादात्म्य हो जाता है। यह तादात्म्य ही अहंकार है।
इसी बात को मुझे इस ढंग से कहने दो. स्मृतियों के साथ चेतना का तादात्म्य अहंकार है। तुम कहते हो कि मैं हिंदू हूं?कि मैं ईसाई हूं कि मैं जैन हूं। तुम क्या कह रहे होकोई भी व्यक्ति ईसाई या हिंदू या जैन की भाति जन्म नहीं लेता है। तुम मात्र मनुष्य की भांति जन्म लेते हो। और फिर तुम्हें सिखाया जाता हैफिर तुम्हें संस्कारित किया जाता है कि मैं ईसाई हूं या हिंदू हूंया जैन हूं। यह स्मृति है। तुम्हें सिखाया गया है कि तुम ईसाई हो। यह स्मृति है। और अब जब भी तुम इस स्मृति के द्वारा देखते होतुम समझते हो कि मैं ईसाई हूं।
तुम्हारी चेतना ईसाई नहीं है—हो नहीं सकती। वह शुद्ध चेतना है। तुम्हें सिखाया गया है कि तुम ईसाई हो। यह सिखावन परिधि पर संगृहीत है। और अब तुम उस रंगीन चश्मे से संसार को देखते हो और सारा संसार तुम्हें रंगीन दिखाई पड़ता है। वे चश्मे बहुत जोर से बहुत गहरे चिपक गए हैं और तुम कभी उनसे अलग नहीं होतेतुम कभी उन्हें हटाकर अलग नहीं रखते। तुम उनके इतने आदी हो गए हो कि तुम भूल ही गए हो कि तुम्हारी आंखों पर कोई चश्मे भी हैं। तब तुम कहते हो कि मैं ईसाई हूं।
जब भी तुम्हारा किसी स्मृतिकिसी ज्ञानकिसी अनुभवया किसी नाम—रूप छ साथ तादात्म्य हो जाता है तो यह 'मैं'जन्म लेता है। तब तुम जवान होके होधनी होगरीब होसुंदर होअसुंदर होशिक्षित होअशिक्षित होसम्मानित हो,असम्मानित हो। तब तुम उन चीजों के साथ तादात्म्य किए जाते हो जो तुम्हारे चारों ओर इकट्ठी होती हैं और अहंकार का जन्म होता है। मन के साथ तादात्म्य ही अहंकार है।
यही कारण है कि जब तुम मौन हो तो अहंकार नहीं हैक्योंकि जब तुम मौन हो तो मन नहीं है। मौन का यही अर्थ है। जब मन सक्रिय है तो तुम मौन नहीं हो। मन के रहते तुम मौन नहीं हो सकतेभीतर की बातचीतभीतर का शोरगुल ही तो मन की सक्रियता है। जब यह बातचीत बंद होती हैया नहीं होती हैया जब तुम उसके पार चले गए होते होया तुम अपने अंतस में सरक गए होते होतो मौन है। और उस मौन में अहंकार नहीं है।
लेकिन यह कभी—कभी होता हैऔर क्षण भर के लिए ही होता हैकि तुम मौन हो। यही वजह है कि तुम्हें लगता है कि मौन के वे क्षण कितने प्यारे थे। फिर तुम उस अवस्था की आकांक्षा करने लगते हो। तुम किसी पहाड़ पर जाते होया सुबह उगते हुए सूरज को देखते होऔर सहसा तुममें खुशी का ज्वार उठने लगता है। तुम आनंदित अनुभव करते होएक सुख उतर आता है। क्या हुआ है वस्तुत:?
शांत सुबह के कारणशांत सूर्योदय के कारणहरियाली और पर्वत के सौंदर्य के कारण तुम्हारी भीतरी बातचीत बंद हो गई है। यह घटना इतनी अदभुत है—तुम्हारे चारों ओर इतना सौंदर्यइतनी शांतिइतनी निस्तब्धता—कि तुम क्षण भर के लिए ठहर गए हो। और उस ठहरने में तुम निरहंकार अवस्था को उपलब्ध हो गए हो। हालांकि यह उपलब्धि क्षण भर की ही है।
यह अनुभव और भी स्थितियों में हो सकता है। यह संभोग में हो सकता हैयह संगीत में हो सकता हैऐसी किसी भी स्थिति में हो सकता है जो तुम्हें अभिभूत कर ले और जिसमें तुम्हारी निरंतर चलने वाली बातचीत क्षण भर के लिए ठहर जाए!
जब भी तुम अहंकार—शून्य होते होचाहे आकस्मिक रूप से या किसी अभ्यास सेतुम्हें एक सूक्ष्म आनंद का अनुभव होता है—जो पहले कभी नहीं हुआ था। यह आनंद कहीं बाहर से नहीं आता है। यह आनंद पहाड़ी सेया सूर्योदय सेया सुंदर फूलों से नहीं आता है। यह आनंद संभोग से नहीं आता है। यह आनंद कहीं बाहर से नहीं आता हैबाहर तो सिर्फ एक स्थिति होती हैआनंद तुम्हारे भीतर से आता है।
अगर तुम बाहर की स्थिति को बार—बार दोहराओ तो फिर यह आनंद नहीं आएगा। क्योंकि तब तुम उस स्थिति के आदी हो जाओगेतब उसका तुम पर कोई असर नहीं होगा। वही पहाड़वही सूर्योदयतुम फिर जाते हो और तुम्हें आनंद नहीं मिलता है। तुम्हें लगता है कि मैं कुछ चूक रहा हूं। लेकिन कारण यह है कि पहली दफा यह दृश्य इतना नया था कि उसने तुम्हारे मन को अभिभूत कर लिया था। वह चमत्कार इतना अदभुत थापट इतना विराट था कि तुम अपनी पुरानी बातचीत को नहीं जारी रख सकते थे। मन ठहर गयाअचानक ठहर गया। लेकिन जब दूसरी दफा तुम वहां जाते हो तो तुम्हें सब पता है। अब उसमें कोई चमत्कार नहीं हैकोई रहस्य नहीं है। इसलिए मन जारी रहता है।
ऐसा प्रत्येक अनुभव में होता है। तुम किसी भी आनंददायी अनुभव को दोहराओऔर उसका आनंद नष्ट हो जाता है;क्योंकि दोहराए गए अनुभव में मन बना रहता है।
तो दूसरी बात स्मरण रखने की यह है कि मन एक संग्रह हैऔर तुम्हारी चेतना इसी संगृहीत अतीत के पीछे छिपी है और तुमने उसके साथ तादात्म्य किया हुआ है। जब भी तुम कहते हो कि 'मैं यह हूं, मैं वह हूं, 'तुम अहंकार निर्मित करते हो।
और तीसरी बात। अगर तुम यह समझ सके तो तीसरी बात कठिन नहीं है। और वह तीसरी बात यह है कि मन का उपयोग किया जा सकता है। उससे तादात्म्य करने की जरूरत नहीं हैलेकिन तुम मन का उपयोग एक यंत्र की तरह कर सकते हो। और मन एक यंत्र ही हैउसके साथ तादात्म्य करने की जरूरत नहीं है। सदा उससे ऊपर रहो। सच तो यह है कि तुम सदा ऊपर होक्योंकि तुम यहां होअभी होसदा उपस्थित होऔर मन सदा अतीत है। तुम सदा मन के आगे हो। मन तुम्हारे पीछे —पीछे चलता हैवह तुम्हारी छाया है।
यह क्षण हमेशा नया हैतुम्हारा मन उसे नहीं पा सकता। एक क्षण बाद यह क्षण स्मृति का हिस्सा हो जाएगातब मन उसे पकड़ सकेगा। तुम प्रत्येक क्षण स्वतंत्र हो। इसीलिए बुद्ध ने क्षण पर इतना जोर दिया है। वे कहते हैं, ' क्षण में रहो और मन नहीं होगा।’ लेकिन क्षण बहुत आणविक हैबहुत सूक्ष्म है। तुम उसे आसानी से चूक सकते हो। मन सदा अतीत हैजो भी तुमने जाना है वह मन है। और जो सत्य अभी हैवह मन का हिस्सा नहीं है। एक क्षण बाद वह मन का हिस्सा हो जाएगा।
अगर तुम सत्य के प्रति अभी और यहीं बोधपूर्ण हो सको तो तुम सदा मन के पार रहोगे। और अगर तुम मन के पार रह सकेसदा उसके ऊपर रह सकेकभी उसमें उलझे नहींअगर तुमने उसका उपयोग भर कियाकभी उसमें ग्रस्त नहीं हुएउसे एक यंत्र की तरह उपयोग में लियालेकिन उससे तादात्म्य नहीं किया—तो अहंकार विलीन हो जाएगातुम अहंकार—मुक्त हो जाओगे।
और जब तुम अहंकार—मुका हो जाते हो तो कुछ और करने को नहीं है। तब शेष सब कुछ अपने आप ही घटित होता है। तुम अब संवेदनशील होखुले हुए होअब सारा अस्तित्व तुममें घटित होता है। अब समस्त आनंद तुम्हारा है। अब दुख असंभव है। दुख अहंकार से आता है। और आनंद निरहंकार के द्वार से आता है।
अब हम विधियों में प्रवेश करेंगेक्योंकि ये विधियां अहंकार—शून्य होने से संबंधित है। बहुत सरल विधियां हैं। लेकिन यदि तुम इस पृष्ठभूमि को समझोगे तो ही तुम उनका प्रयोग कर सकोगे। और उनसे बहुत कुछ संभव है।

 अग्नि—संबंधी पहली विधि:
भाव करो कि एक आग तुम्हारे पांव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है और अंतत: शरीर जलकर राख हो जाता हैलेकिन तुम नहीं।
ह बहुत सरल विधि है और बहुत अदभुत हैप्रयोग करने में भी सरल है। लेकिन पहले कुछ बुनियादी जरूरतें पूरी करनी होती हैं।
बुद्ध को यह विधि बहुत प्रीतिकर थी और वे अपने शिष्यों को इस विधि में दीक्षित करते थे। जब भी कोई व्यक्ति बुद्ध से दीक्षित होता था तो वे उससे पहली बात यही कहते थेवे उससे कहते थे कि मरघट चले जाओ और वहा किसी जलती चिता को देखोजलते हुए शरीर को देखोजलते हुए शव को देखो। तीन महीने तक उसे कुछ और नहीं करना थासिर्फ मरघट में बैठकर देखना था।
तो साधक गांव के मरघट में चला जाता था और तीन महीने तक दिन—रात वहीं रहता था। और जब भी कोई मुर्दा आता,वह बैठकर उस पर ध्यान करता था। वह पहले शव को देखताफिर आग जलाई जाती और शरीर जलने लगता और वह देखता रहता। तीन महीने तक वह इसके सिवाय कुछ और नहीं करताबस मुर्दों को जलते देखता रहता।
बुद्ध कहते थे, 'उसके संबंध में विचार मत करनाउसे बस देखना।
और यह कठिन है कि साधक के मन में यह विचार न उठे कि देर— अबेर मेरा शरीर भी जला दिया जाएगा। तीन महीने लंबा समय है। और साधक को रात—दिन निरंतर जब भी कोई चिता जलतीउस पर ध्यान करना था। देर—अबेर उसे दिखाई देने लगता कि चिता पर मेरा शरीर ही जल रहा हैचिता पर मैं ही जलाया जा रहा हूं।
यह सहयोगी होगा। अगर तुम इस विधि का प्रयोग करना चाहते हो तो मरघट चले जाओ और देखो। तीन महीने के लिए नहींलेकिन कम से कम एक मुर्दे को तो जलते हुए जरूर देखोउसका अच्छी तरह निरीक्षण करो। और तब तुम इस विधि का प्रयोग आसानी से कर सकते हो। विचार मत करोसिर्फ घटना को देखोदेखो कि क्या हो रहा है।
लोग अपने सगे —संबंधियों को जलाने ले जाते हैंलेकिन वे कभी उस घटना को देखते नहीं। वे दूसरी चीजों के संबंध में या मृत्यु के संबंध में ही बातचीत करने लगते हैं। वे विवाद करते हैंविवेचना करते हैं। वे बहुत कुछ करते हैंअनेक चीजों की चर्चा करते हैंगपशप करते हैंलेकिन वे कभी दाह—क्रिया का निरीक्षण नहीं करते। इसे तो ध्यान बना लेना चाहिए। वहां बातचीत की इजाजत नहीं होनी चाहिए। क्योंकि अपने किसी प्रियजन को जलते हुए देखना एक दुर्लभ अनुभव है। वहां तुम्हें यह भाव अवश्य उठेगा कि मैं भी जल रहा हूं। अगर तुम अपनी मां को जलते हुए देख रहे होया पिता कोया पत्नी कोया पति कोतो यह असंभव है कि तुम अपने को भी उस चिता में जलते हुए न देखो।
यह अनुभव इस विधि के लिए सहयोगी होगा—यह पहली बात।
दूसरी बात कि अगर तुम मृत्यु से बहुत भयभीत हो तो तुम इस विधि का प्रयोग नहीं कर सकोगे। क्योंकि वह भय ही अवरोध बन जाएगातुम उसमें प्रवेश न कर सकोगे। या तुम ऊपर—ऊपर कल्पना करते रहोगेमगर तुम अपने गहन प्राणों से उसमें प्रवेश नहीं करोगे।
तब तुम्हें कुछ भी नहीं होगा। तो यह दूसरी बात स्मरण रहे कि तुम चाहे भयभीत हो या नहीं होमृत्यु निश्चित है। केवल मृत्यु निश्चित है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम भयभीत हो या नहींयह अप्रासंगिक है। जीवन में मृत्यु के अतिरिक्त कुछ भी निश्चित नहीं है। सब कुछ अनिश्चित हैकेवल मृत्यु निश्चित है। सब कुछ सांयोगिक है—हो भी सकता हैनहीं भी हो सकता है—लेकिन मृत्यु सांयोगिक नहीं है।
लेकिन मनुष्य के मन को देखो। हम सदा मृत्यु की चर्चा इस भांति करते हैं मानो वह दुर्घटना हो। जब भी किसी की मृत्यु होती हैहम कहते हैं कि वह असमय मर गया। जब भी कोई मरता है तो हम इस तरह की बातें करने लगते है मानों यह कोई अनहोनी घटना है। सिर्फ मृत्यु अनहोनी नहीं है—सिर्फ मृत्यु सुनिश्चित है। बाकी सब कुछ सांयोगिक है। मृत्यु बिलकुल निश्चित है। तुम्हें मरना है।
और जब मैं कहता हूं कि तुम्हें मरना है तो ऐसा लगता है कि यह मरना कहीं भविष्य में हैबहुत दूर है। ऐसी बात नहीं है। तुम मर ही चुके होजिस क्षण तुम पैदा हुएतुम मर चुके। जन्म के साथ ही मृत्यु निश्चित हो गई। उसका एक छोरजन्म का छोर घटित हो चुकाअब दूसरे छोर कोमृत्यु के छोर को घटित होना है। इसलिए तुम मर चुके होआधे मर चुके हो;क्योंकि जन्म लेने के साथ ही तुम मृत्यु के घेरे में आ गएदाखिल हो गए। अब कुछ भी उसे नहीं बदल सकताअब उसे बदलने का उपाय नहीं है। तुम उसमें प्रवेश कर चुकेजन्म के साथ तुम आधे मर गए।
और दूसरी बात कि मृत्यु अंत में नहीं घटेगीवह घट ही रही है। मृत्यु एक प्रक्रिया है। जैसे जीवन प्रक्रिया हैवैसे ही मृत्यु भी प्रक्रिया है। द्वैत हम निर्मित करते हैंलेकिन जीवन और मृत्यु ठीक तुम्हारे दो पांवों की तरह हैं। जीवन और मृत्यु दोनों एक प्रक्रिया हैं। तुम प्रतिक्षण मर रहे हो।
मुझे यह बात इस तरह से कहने दो : जब तुम श्वास भीतर ले जाते हो तो वह जीवन हैऔर जब तुम श्वास बाहर निकालते हो तो वह मृत्यु है। बच्चा जन्म लेने पर पहला काम करता है कि वह श्वास भीतर ले जाता है। बच्चा पहले श्वास छोड़ नहीं सकताउसका पहला काम श्वास लेना है। वह श्वास छोड़ नहीं सकताक्योंकि उसके सीने में हवा नहीं है। उसे पहले श्वास लेनी पड़ती हैपहला कृत्य श्वास लेना है। और मरता हुआ का आदमी अंतिम कृत्य करता है कि वह श्वास छोड़ता है। मरते हुए तुम श्वास ले नहीं सकतेया कि ले सकते होजब तुम मर रहे हो तो तुम श्वास नहीं ले सकतेवह तुम्हारा अंतिम कृत्य नहीं हो सकता है। अंतिम कृत्य तो श्वास छोड़ना ही होगा। पहला काम श्वास लेना है और अंतिम काम श्वास छोड़ना है। श्वास लेना जीवन है और श्वास छोड़ना मृत्यु। प्रत्येक क्षण तुम दोनों काम कर रहे हों—श्वास लेते हो और छोड़ते हो। श्वास लेना जीवन है और श्वास छोड़ना मृत्यु।
तुमने शायद यह निरीक्षण न किया होलेकिन यह निरीक्षण करने जैसा है। जब भी तुम श्वास छोड़ते होतुम शांत अनुभव करते हो। लंबी श्वास बाहर फेंको और तुम्हें अपने भीतर एक शांति का अनुभव होगा। और जब भी तुम श्वास भीतर लेते होतुम बेचैन हो जाते होतनावग्रस्त हो जाते हो। भीतर जाती श्वास की तीव्रता ही तनाव पैदा करती है।
और सामान्यत: हम सदा श्वास लेने पर जोर देते हैं। अगर मैं कहूं कि गहरी श्वास लो तो तुम सदा श्वास लेने से शुरू करोगे। सच तो यह है कि हम श्वास छोड़ने से डरते हैंयही कारण है कि हमारी श्वास इतनी उथली हो गई है। तुम कभी श्वास छोड़ते नहींतुम श्वास लेते हो। सिर्फ तुम्हारा शरीर श्वास छोड़ने का काम करता हैक्योंकि शरीर सिर्फ श्वास लेकर ही जीवित नहीं रह सकता।
एक प्रयोग करो। पूरे दिन जब भी तुम्हें स्मरण रहेश्वास छोड़ने पर ध्यान दोपूरी श्वास बाहर फेंको। और तुम श्वास भीतर मत लोश्वास लेने का काम शरीर पर छोड़ दोतुम केवल श्वास छोड़ते जाओ—लंबी और गहरी श्वास। और तब तुम्हें एक गहन शांति का अनुभव होगाक्योंकि मृत्यु मौन हैमृत्यु शांति है।
और अगर तुम श्वास छोड़ने पर ध्यान दे सकेज्यादा से ज्यादा ध्यान दे सकेतो तुम अहंकार—रहित अनुभव करोगे। श्वास लेने से तुम ज्यादा अहंकारी अनुभव करोगे और श्वास छोड़ने से ज्यादा अहंकार—रहित। तो श्वास छोड़ने पर ज्यादा ध्यान दो। पूरे दिनजब भी याद आएगहरी श्वास बाहर फेंको और लो मतश्वास लेने का काम शरीर को करने दोतुम कुछ मत करो।
श्वास छोड़ने पर यह जोर तुम्हें इस विधि के प्रयोग में बहुत सहयोगी होगाक्योंकि तुम मरने के लिए तैयार होंगे। मरने की तैयारी जरूरी हैअन्यथा यह विधि बहुत काम की नहीं होगी। और तुम मृत्यु के लिए तैयार तभी हो सकते हो जब तुमने किसी न किसी तरह से एक बार उसका स्वाद लिया हो। गहरी श्वास छोड़ो और तुम्हें उसका स्वाद मिल जाएगा।
यह बहुत सुंदर है। मृत्यु बहुत सुंदर है। मृत्यु के समान कुछ भी नहीं है—इतनी मौनइतनी विश्रामपूर्णइतनी शांत,इतनी अनुद्विग्न। लेकिन हम मृत्यु से भयभीत हैं। और हम मृत्यु से भयभीत क्यों हैंमृत्यु का इतना भय क्यों है?
हम मृत्यु से भयभीत हैंइसका कारण मृत्यु नहीं है। मृत्यु को तो हम जानते ही नहीं हैं। तुम उस चीज से कैसे भयभीत हो सकते हो जिसका तुम्हें कभी सामना ही नहीं हुआतुम उस चीज से कैसे भयभीत हो सकते हो जिसे तुम जानते ही नहीं हो?किसी चीज से भयभीत होने के लिए उसे जानना जरूरी है।
तो असल में तुम मृत्यु से भयभीत नहीं होयह भय कुछ और है। तुम वस्तुत: कभी जीए ही नहींऔर इससे ही मृत्यु का भय पैदा होता है। मृत्यु का भय पकड़ता हैक्योंकि तुम जी नहीं रहे हो। और तुम्हारा भय यह है 'अब तक मैं जीया ही नहींऔर मृत्यु आ गई तो क्या होगामैं तो अतृप्तअनजीया ही मर जाऊंगा।’ मृत्यु का भय उन्हें ही पकड़ता है जो वस्तुत: जीवित नहीं हैं।
यदि तुमने जीवन को जीया हैजीवन को जाना हैतो तुम मृत्यु का स्वागत करोगे। तब कोई भय नहीं है। तुमने जीवन को जान लियाअब तुम मृत्यु को भी जानना चाहोगे। लेकिन हम जीवन से ही इतने डरे हुए हैं कि हम उसे नहीं जान पाए हैं;हम उसमें गहरे नहीं उतरे हैं। वही चीज मृत्यु का भय पैदा करती है।
अगर तुम इस विधि में प्रवेश करना चाहते हो तो तुम्हें मृत्यु के प्रति इस सघन भय के प्रति जागना होगाबोधपूर्ण होना होगा। और इस सघन भय को विसर्जित करना होगातो ही इस विधि में प्रवेश हो सकता है।
इससे मदद मिलेगी. श्वास छोड़ने पर ज्यादा ध्यान दो। सारा ध्यान श्वास छोड़ने पर दोश्वास लेना भूल जाओ। और डरो मत कि मर जाओगेतुम नहीं मरोगे। श्वास लेने का काम खुद शरीर कर लेगा। शरीर का अपना विवेक है। अगर तुम गहरी श्वास बाहर फेंकोगे तो शरीर खुद गहरी श्वास भीतर लेगा। तुम्हें हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। और तुम्हारी समस्त चेतना पर एक गहरी शांति फैल जाएगी। सारा दिन तुम विश्राम अनुभव करोगेऔर एक आंतरिक मौन घटित होगा।
अगर तुम एक और प्रयोग करो तो विश्रांति और मौन का यह भाव और भी प्रगाढ़ हो सकता। दिन में सिर्फ पंद्रह मिनट के लिए गहरी श्वास बाहर छोड़ो। कुर्सी पर या जमींन पर बैठ जाओ और गहरी श्वास छोड़ो और छोड़ते समय आंखें बंद रखो। जब श्वास बाहर जाए तब तुम भीतर चले जाओ। और फिर शरीर को श्वास भीतर लेने दो। और जब श्वास भीतर जाएआंखें खोल लो और तुम बाहर चले जाओ। ठीक उलटा करो. जब श्वास बाहर जाए तो तुम भीतर जाओऔर जब श्वास भीतर जाए तो तुम बाहर जाओ।
जब तुम श्वास छोड़ते हो तो भीतर खाली स्थानअवकाश निर्मित होता हैक्योंकि श्वास जीवन है। जब तुम गहरी श्वास छोड़ते हो तो तुम खाली हो जाते होजीवन बाहर निकल गया। एक ढंग से तुम मर गएक्षण भर के लिए मर गए। मृत्यु के उस मौन में अपने भीतर प्रवेश करो। श्वास बाहर जा रही हैआंखें बंद करो और भीतर सरक जाओ। वहां अवकाश हैतुम आसानी से सरक सकते हो। स्मरण रहेजब तुम श्वास ले रहे हो तब भीतर जाना बहुत कठिन है। वहा जाने के लिए जगह कहां हैश्वास छोड़ते हुए ही तुम भीतर जा सकते हो। और जब श्वास भीतर हो तो तुम बाहर चले जाओआंखें खोलो और बाहर निकल जाओ। इन दोनों के बीच एक लयबद्धता निर्मित कर लो।
पंद्रह मिनट के इस प्रयोग से तुम गहन विश्राम में उतर जाओगे और तब तुम इस विधि के प्रयोग के लिए अपने को तैयार पाओगे। इस विधि में उतरने के पहले पंद्रह मिनट के लिए यह प्रयोग जरूर करोताकि तुम तैयार हो सको—तैयार ही नहीं उसके प्रति स्वागतपूर्ण हो सकोखुले हो सको। मृत्यु का भय खो जाएगाक्योंकि अब मृत्यु प्रगाढ़ विश्राम मालूम पड़ेगी। अब मृत्यु जीवन के विरुद्ध नहींवरन जीवन का स्रोतजीवन की ऊर्जा मालूम पड़ेगी। जीवन तो झील की सतह पर लहरों की भांति है और मृत्यु स्वयं झील है। और जब लहरें नहीं हैं तब भी झील है। और झील तो लहरों के बिना हो सकती हैलेकिन लहरें झील के बिना नहीं हो सकतीं। जीवन मृत्यु के बिना नहीं हो सकतालेकिन मृत्यु जीवन के बिना हो सकती है। क्योंकि मृत्यु स्रोत है। और तब तुम इस विधि का प्रयोग कर सकते हो।
'भाव करो कि एक आग तुम्हारे पाव के अंगूठे से शुरू होकर पूरे शरीर में ऊपर उठ रही है..।
बस लेट जाओ। पहले भाव करो कि तुम मर गए होशरीर एक शव मात्र है। लेटे रहो और अपने ध्यान को पैर के अंगूठे पर ले जाओ। आंखें बंद करके भीतर गति करो। अपने ध्यान को अंगूठों पर ले जाओ और भाव करो कि वहा से आग ऊपर बढ़ रही है और सब कुछ जल रहा हैजैसे—जैसे अण बढ़ती है वैसे—वैसे तुम्हारा शरीर विलीन हो रहा है। अंगूठे से शुरू करो और ऊपर बढ़ो।
अंगूठे से क्यों शुरू करोयह आसान होगाक्योंकि अंगूठा तुम्हारे 'मैंसेतुम्हारे अहंकार से बहुत दूर हैँ। तुम्हारा अहंकार सिर में केंद्रित हैवहां से शुरू करना कठिन होगा। तो दूर के बिंदु से शुरू करोभाव करो कि अंगूठे जल गए हैंसिर्फ राख बची है।
और फिर धीरे — धीरे ऊपर बढ़ो जो भी आग की राह में पड़े उसे जलाते जाओ। सारे अंग—पैरजांघ—विलीन हो जाएंगे। और देखते जाओ कि अंग—अंग राख हो रहे हैं;.
जिन अंगों से होकर आग गुजरी है वे अब नहीं हैंवे राख हो गए हैं। ऊपर बढ़ते जाओऔर अंत में सिर भी विलीन हो जाता है। प्रत्‍येक चीज राख हो गई हैधूल धूल में मिल गई है।
'और अंततः शरीर जलकर राख हो जाता हैलेकिन तुम नहीं।
तुम शिखर पर खड़े द्रष्टा रह जाओगेसाक्षी रह जाओगे। शरीर वहां पड़ा होगा—मृतजला हुआराख—और तुम द्रष्टा होगे,साक्षी होगे। इस साक्षी का कोई अहंकार नहीं है।
यह विधि निरहंकार अवस्था की उपलब्धि के लिए बहुत उपयोगी है। क्योंक्योंकि इसमें बहुत सी बातें घटती हैं। यह विधि सरल मालूम पड़ती हैलेकिन यह उतनी सरल है नहीं। इसकी आंतरिक संरचना बहुत जटिल है।
पहली बात यह है कि तुम्हारी स्मृतियां शरीर का हिस्सा हैं। स्मृति पदार्थ हैयही कारण है कि उसे संगृहीत किया जा सकता है। स्मृति मस्तिष्क के कोष्ठों में संगृहीत है। स्मृतियां भौतिक हैंशरीर का हिस्सा हैं। तुम्हारे मस्तिष्क का आपरेशन करके अगर कुछ कोशिकाओं को निकाल दिया जाए तो उनके साथ कुछ स्मृतियां भी विदा हो जाएंगी। स्मृतियां मस्तिष्क में संगृहीत रहती हैं। स्मृति पदार्थ हैउसे नष्ट किया जा सकता है।
और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि स्मृति प्रत्यारोपित की जा सकती है। देर—अबेर हम उपाय खोज लेंगे कि जब आइंस्टीन जैसा व्यक्ति मरे तो हम उसके मस्तिष्क की कोशिकाओं को बचा लेंऔर उन्हें किसी बच्चे में प्रत्यारोपित कर दें। और उस बच्चे को आइंस्टीन के अनुभवों से गुजरे बिना ही आइंस्टीन की स्मृतियां प्राप्त हो जाएंगी।
तो स्मृति शरीर का हिस्सा है। और अगर सारा शरीर जल जाएराख हो जाएतो कोई स्मृति नहीं बचेगी। याद रहेयह बात समझने जैसी है। अगर स्मृति रह जाती है तो शरीर अभी बाकी हैऔर तुम धोखे में हो। अगर तुम सचमुच गहराई से इस भाव में उतरोगे कि शरीर नहीं हैजल गया हैआग ने उसे पूरी तरह राख कर दिया हैतो उस क्षण तुम्हें कोई स्मृति नहीं रहेगी। साक्षित्व के उस क्षण में कोई मन नहीं रहेगा। सब कुछ ठहर जाएगाविचारों की गति रुक जाएगीकेवल दर्शनमात्र देखना रह जाएगा कि क्या हुआ है।
और एक बार तुमने यह जान लिया तो तुम इस अवस्था में निरंतर रह सकते हो। एक बार सिर्फ यह जानना है कि तुम अपने को अपने शरीर से अलग कर सकते हो। यह विधि तुम्हें अपने शरीर से अलग जानने कातुम्हारे और तुम्हारे शरीर के बीच एक अंतराल पैदा करने काकुछ क्षणों के लिए शरीर से बाहर होने का एक उपाय है। अगर तुम इसे साध सको तो तुम शरीर में होते हुए भी शरीर में नहीं होगे। तुम पहले की तरह ही जीए जा सकते होलेकिन अब तुम फिर कभी वही नहीं होगे जो थे।
इस विधि में कम से कम तीन महीने लगेंगे। इसे करते रहीयह एक दिन में नहीं होगी। लेकिन यदि तुम प्रतिदिन इसे एक घंटा देते रहे तो तीन महीने के भीतर किसी दिन अचानक तुम्हारी कल्पना सफल होगी और एक अंतराल निर्मित हो जाएगा और तुम सचमुच देखोगे कि तुम्हारा शरीर राख हो गया है। तब तुम निरीक्षण कर सकते हो। और उस निरीक्षण में एक गहन तथ्य का बोध होगा कि अहंकार असत्य हैझूठ हैउसकी कोई सत्ता नहीं है। अहंकार थाक्योंकि तुम शरीर सेविचारों सेमन से तादात्म्य किए बैठे थे। तुम उनमें से कुछ भी नहीं हो—न मनन विचारन शरीर। तुम उन सबसे भिन्न हो जो तुम्हें घेरे हुए हैंतुम अपनी परिधि से सर्वथा भिन्न हो।
तो ऊपर से यह विधि सरल मालूम पड़ती हैलेकिन यह तुम्हारे भीतर गहन रूपांतरण ला सकती है। लेकिन पहले मरघट में जाकर ध्यान करोजहां लोगों को जलाया जाता हो वहा बैठकर ध्यान करो। देखो कि कैसे शरीर जलता हैकैसे शरीर फिर मिट्टी हो जाता हैताकि तुम फिर आसानी से कल्पना कर सको। और तब आठों से आरंभ करो और बहुत धीरे—धीरे ऊपर बढ़ो।
और इस विधि में उतरने के पहले श्वास छोड़ने पर ज्यादा ध्यान दो। इस विधि को करने के ठीक पहले पंद्रह मिनट तक श्वास छोड़ो और आंखें बंद कर लोफिर शरीर को श्वास लेने दो और आंखें खोल दो। पंद्रह मिनट तक गहन विश्राम में रहो और फिर विधि में प्रवेश करो।

 अग्नि—संबंधी दूसरी विधि:
यह काल्पनिक जगत जलकर राख हो रहा है यह भाव करोऔर मनुष्य से श्रेष्ठतर प्राणी बनो।
अगर तुम पहली विधि कर सके तो यह दूसरी विधि बहुत सरल हो जाएगी। अगर तुम यह भाव कर सके कि तुम्हारा शरीर जल रहा है तो यह भाव करना कठिन नहीं होगा कि सारा जगत जल रहा हैक्योंकि तुम्हारा शरीर जगत का हिस्सा है और तुम अपने शरीर के द्वारा ही जगत से जुड़े हो। सच तो यह है कि अपने शरीर के कारण ही तुम जगत से जुड़ते हो—जगत तम्हारे शरीर का फैलाव है। अगर तुम अपने शरीर के जलने की कल्पना कर सकते हो तो जगत के जलने की कल्पना करना कठिन नहीं है।
और सूत्र कहता है कि यह जगत काल्पनिक हैवह हैक्योंकि तुमने उसे माना हुआ है। और यह सारा जगत जल रहा है,विलीन हो रहा है।
लेकिन अगर तुम्हें लगे कि पहली विधि कठिन है तो तुम दूसरी विधि से भी आरंभ कर सकते हो। पर पहली को साध लेने से दूसरी बहुत आसान हो जाती है। और असल में अगर कोई पहली विधि को साध ले तो उसके लिए दूसरी विधि की जरूरत ही नहीं रहती। तुम्हारे शरीर के साथ सब कुछ अपने आप ही विलीन हो जाता है। लेकिन यदि पहली विधि कठिन लगे तो तुम दूसरी विधि में सीधे भी उतर सकते हो।
मैंने कहा कि आठों से आरंभ करोक्योंकि वे सिर सेअहंकार से बहुत दूर हैं। लेकिन हो सकता है कि तुम्हें अंगूठों से आरंभ करने की बात भी न जमे। तो और दूर निकल जाओ—संसार से शुरू करो। और तब अपनी तरफ आओसंसार से शुरू करो और अपने नकट आओ। और जब सारा जगत जल रहा हो तो तुम्हारे लिए उस पूरे जलते जगत में जलना आसान होगा।
दूसरी विधि है 'यह काल्पनिक जगत जलकर राख हो रहा हैयह भाव करोऔर मनुष्य से श्रेष्ठतर प्राणी बनो।
अगर तुम सारे संसार को जलता हुआ देख सके तो तुम मनुष्य के ऊपर उठ गएतुम अतिमानव हो गए। तब तुम अतिमानवीय चेतना को जान गए।
तुम यह कल्पना कर सकते हो; लेकिन कल्पना का प्रशिक्षण जरूरी है। हमारी कल्पना बहुत प्रगाढ़ नहीं है। वह कमजोर हैक्योंकि कल्पना के प्रशिक्षण की व्यवस्था ही नहीं है। बुद्धि प्रशिक्षित हैउसके लिए विद्यालय हैं और महाविद्यालय हैं। बुद्धि के प्रशिक्षण में जीवन का बड़ा हिस्सा खर्च किया जाता है। लेकिन कल्पना का कोई प्रशिक्षण नहीं होता है। और कल्पना का अपना ही जगत है—बहुत अदभुत जगत है। यदि तुम अपनी कल्पना को प्रशिक्षित कर सको तो चमत्कार घटित हो सकते हैं।
छोटी—छोटी चीजों से शुरू करो। क्योंकि बड़ी चीजों में कूदना कठिन होगाऔर संभव है तुम्हें उनमें असफलता हाथ लगे। उदाहरण के लिएयह कल्पना कि सारा संसार जल रहा हैजरा कठिन है। यह भाव बहुत गहरा नहीं जा सकता है।
पहली बात कि तुम जानते हो कि यह कल्पना है। और यदि कल्पना में तुम सोचो भी कि चारों तरफ लपटें ही लपटें हैं तो भी तुम्हें लगेगा कि संसार जला नहीं हैवह अभी भी है। क्योंकि यह केवल तुम्हारी कल्पना है और तुम नहीं जानते हो कि कल्पना कैसे यथार्थ बनती है। तुम्हें पहले उसे महसूस करना होगा।
इस विधि में उतरने के पहले एक सरल प्रयोग करो। अपने दोनों हाथों को एक—दूसरे में गूंथ लोआंखों को बंद कर लो और भाव करो कि अब वे ऐसे गुंथ गए हैं कि खुल नहीं सकते और उन्हें खोलने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता।
शुरू—शुरू में तुम्हें लगेगा कि तुम केवल कल्पना कर रहे हो और तुम उन्हें खोल सकते हो। लेकिन तुम सतत दस मिनट तक भाव करते रहो कि मैं उन्हें नहीं खोल सकतामैं उन्हें खोलने के लिए कुछ नहीं कर सकतामेरे हाथ खुल ही नहीं सकते। और फिर दस मिनट के बाद उन्हें खोलने की कोशिश करो।
दस में से चार व्यक्ति तुरंत सफल हो जाएंगेचालीस प्रतिशत लोग तुरंत कामयाब हो जाएंगे—दस मिनट के बाद वे अपने हाथ नहीं खोल पाएंगे। कल्पना यथार्थ हो गई। वे जितना ही संघर्ष करेंगेवे हाथ खोलने के लिए जितनी ही ताकत लगाएंगे,उतना ही हाथों का खुलना कठिन होता जाएगा। तुम्हें पसीना आनें लगेगा। तुम्हारे ही हाथ हैंऔर तुम देख रहे हो कि वे बंध गए हैं और तुम उन्हें नहीं खोल सकते!
लेकिन भयभीत मत होओ। फिर आंखें बंद कर लो और फिर भाव करो कि मैं उन्हें खोल सकता हूं। और तो ही तुम उन्हें खोल सकते हो। लेकिन चालीस प्रतिशत लोग तुरंत सफल हो जाएंगे।
ये चालीस प्रतिशत लोग इस विधि में आसानी से उतर सकते हैंउनके लिए कोई कठिनाई नहीं है। बाकी साठ प्रतिशत के लिए यह विधि कठिन पडेगीउन्हें समय लगेगा। जो लोग बहुत भाव—प्रवण हैं वे कुछ भी कल्पना कर सकते हैंऔर वह घटित होगा। और एक बार उन्हें यह प्रतीति हो जाए कि कल्पना यथार्थ हो सकती हैकि भाव वास्तविक बन सकता हैतो उन्हें आश्वासन मिल गया और वे आगे बढ़ सकते हैं। तब तुम अपने भाव के द्वारा बहुत कुछ कर सकते हो।
तुम अभी भी भाव से बहुत कुछ करते होलेकिन तुम्हें पता नहीं है। तुम अभी भी करते होलेकिन तुम्हें उसका बोध नहीं है। शहर में कोई नया रोग फैलता हैफ्रेंच फ्लू फैलता हैऔर तुम उसके शिकार हो जाते हो। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि सौ में से सत्तर लोग सिर्फ कल्पना के कारण बीमार हो जाते हैं। चूंकि शहर में रोग फैला हैतुम कल्पना करने लगते हो कि मैं भी इसका शिकार होने वाला हूं—और तुम शिकार हो जाओगे। तुम सिर्फ अपनी कल्पना से अनेक रोग पकड़ लेते हो। तुम सिर्फ अपनी कल्पना से अनेक समस्याएं निर्मित कर लेते हो
तो तुम समस्याओं को हल भी कर सकते होयदि तुम्हें पता हो कि तुमने ही उन्हें निर्मित किया है। अपनी कल्पना को थोड़ा बढ़ाओऔर तब यह विधि बहुत उपयोगी होगी।

 तीसरी विधि :
जैसे विषयीगत रूप से अक्षर शब्दों में और शब्द वाक्यों में जाकर मिलते हैं और विषयगत रूप से वर्तुल चक्रों में और चक्र मूल— तत्व में जाकर मिलते हैं वैसे ही अंतत: इन्हें भी हमारे अस्तित्व में आकर मिलते हुए पाओ।
यह भी एक कल्पना—संबंधी विधि है।
अहंकार सदा भयभीत है। वह संवेदनशील होने सेखुला होने से डरता हैवह डरता है कि कोई चीज भीतर प्रवेश करके उसे नष्ट न कर दे। इसलिए अहंकार अपने चारों ओर एक किलाबंदी करता हैऔर तुम एक कारागृह में रहने लगते हो। तुम अपने अंदर किसी को भी प्रवेश नहीं देते हो। तुम डरते हो कि यदि कोई चीज भीतर आ जाए और झंझट खड़ी करे तो क्या होगा। तो बेहतर है कि किसी को आने ही मत दो। तब सारा संवाद बंद हो जाता हैउनके साथ भी संवाद बंद हो जाता है जिन्हें तुम प्रेम करते होया सोचते हो कि तुम प्रेम करते हो।
किन्हीं पति—पत्नी को बात करते हुए देखोवे एक—दूसरे से बात नहीं कर रहे हैंउनके बीच कोई संवाद नहीं है। बल्कि वे शब्दों के द्वारा एक—दूसरे से बच रहे हैंवे बात कर रहे हैं ताकि एक—दूसरे से बचा जाए। मौन में वे एक—दूसरे के प्रति खुल जाएंगेमौन में वे एक—दूसरे के समीप आ जाएंगेक्योंकि मौन में कोई दीवार नहीं रहती हैकोई अहंकार नहीं रहता है। इसलिए पति—पत्नी कभी चुप नहीं रहेंगेवे समय काटने के लिए किसी न किसी चीज की चर्चा करते रहेंगे। अन्यथा डर है कि कहीं एक—दूसरे के प्रति संवेदनशील न हो जाएंखुल न जाएं। हम एक—दूसरे से इतने भयभीत हैं।
मैंने सुना है कि एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन घर से बाहर निकल रहा था कि उसकी पत्नी ने कहा. 'नसरुद्दीनक्या तुम भूल गए कि आज कौन—सा दिन है?' नसरुद्दीन को पता थायह उनके विवाह की पच्चीसवीं वर्षगांठ का दिन था। तो उसने कहा'मुझे याद हैबखूबी याद है।’ पत्नी ने फिर पूछा : 'तो हम लोग इस दिन को किस तरह मनाने जा रहे हैं?' नसरुद्दीन ने कहा.'प्रियेमुझे नहीं मालूम।’ और फिर उसने सिर खुजलाते हुए हैरानी के स्वर में कहा. 'कितना अच्छा होगा कि हम इस उपलक्ष्य में दो मिनट मौन रहें।
तुम किसी के साथ मौन नहीं रह सकतेतुम बेचैन होने लगते हो। मौन में दूसरा तुममें प्रवेश करने लगता है। मौन में तुम खुले होते होतुम्हारे द्वार—दरवाजे खुले होते हैंतुम्हारी खिड़कियां खुली होती हैं। तुम डरते हो। तो तुम बातचीत करते रहते होबंद रहने के उपाय करते रहते हो। अहंकार कवच हैअहंकार कारागृह है। और हम इतने असुरक्षित अनुभव करते है कि हमें कारागृह भी स्‍वीकार है। कारागृह थोड़ी सुरक्षा का भाव देता हैतुम सुरक्षित अनुभव करते हो।
इस विधि काइस तीसरी विधि का प्रयोग करने के लिए पहली और सब से बुनियादी बात है कि भलीभांति जान लो कि जीवन एक असुरक्षा है। उसे सुरक्षित बनाने का कोई उपाय नहीं हैतुम जो भी करोगेउससे कुछ होने वाला नहीं है। तुम सिर्फ सुरक्षा का भ्रम पैदा कर सकते होजीवन असुरक्षित ही रहता है। असुरक्षा ही उसका स्वभाव हैक्योंकि मृत्यु उसमें अंतर्निहित है,साथ—साथ जुड़ी है। जीवन सुरक्षित कैसे हो सकता है?
एक क्षण के लिए सोचोअगर जीवन पूरी तरह सुरक्षित हो तो वह मृत ही होगा। सर्वथा सुरक्षित जीवनसमग्रत: सुरक्षित जीवन जीवंत नहीं हो सकता हैक्योंकि उसमें चुनौती की पुलक नहीं रहेगी। अगर तुम सभी खतरों से सुरक्षित हो जाओगे तो तुम मुर्दा हो जाओगे। जीवन के होने में ही जोखिम हैखतरा हैअसुरक्षा हैचुनौती है। उसमें मौत सम्मिलित है। मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। अब मैंने खतरनाक रास्ते पर कदम रखाअब कुछ भी सुरक्षित नहीं हो सकता। लेकिन अब मैं कल के लिए सब कुछ सुरक्षित करने की चेष्टा करूंगा। कल के लिए मैं उस सब की हत्या करूंगा जो जीवित हैक्योंकि तभी मैं कल के लिए सुरक्षित अनुभव करूंगा। तो प्रेम विवाह में बदल जाता है।
विवाह सुरक्षा है। प्रेम असुरक्षित है—अगले क्षण सब कुछ बदल जा सकता है। और तुमने कितनी—कितनी आशाएं बांधी हैं—और अगले क्षण प्रेमिका तुम्हें छोड्कर चली जाती हैया मित्र तुम्हें छोड़ देता है और तुम अपने को अचानक अकेला पाते हो। प्रेम असुरक्षित है। तुम भविष्य के संबंध में आश्वस्त नहीं हो सकतेकोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती है।
तो हम प्रेम की हत्या कर देते हैं और उसकी जगह एक सुरक्षित परिपूरक खोज लेते हैं। उसका नाम ही विवाह है। विवाह के साथ तुम सुरक्षित हो सकते होउसकी भविष्यवाणी की जा सकती है। तुम्हारी पत्नी कल भी तुम्हारी पत्नी रहेगीतुम्हारा पति भविष्य में भी तुम्हारा पति रहेगा। लेकिन क्योंकि तुमने सब सुरक्षा कर लीअब कोई खतरा नहीं है—प्रेम मर गयावह नाजुक संबंध मर गया। क्योंकि मृत चीजें ही स्थाई हो सकती हैंजीवित चीजें बदलेंगी हां,वे बदलने को बाध्य हैं। बदलाहट जीवन का गुण हैऔर बदलाहट में असुरक्षा है।
तो जो भी जीवन की गहराइयों में उतरना चाहते हैं उन्हें असुरक्षित रहने के लिए तैयार रहना चाहिएउन्हें खतरे में जीने के लिए तैयार रहना चाहिएउन्हें अज्ञात में जीने के लिए तैयार रहना चाहिए। उन्हें किसी भी तरह भविष्य को बांधने की,सुरक्षित करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। यह चेष्टा ही सब चीजों की हत्या कर देती है।
और यह भी स्मरण रहेअसुरक्षा जीवंत ही नहीं हैसुंदर भी है। सुरक्षा कुरूप और गंदी है। असुरक्षा जीवंत और सुंदर है। तुम तभी सुरक्षित हो सकते होयदि तुम अपने सभी द्वार—दरवाजेसभी खिड़कियांसब झरोखे बंद कर लो। न हवा को अंदर आने दो और न रोशनी कोकुछ भी अंदर मत आने दो। तब किसी तरह तुम सुरक्षित हो जाते होलेकिन तब तुम जीवित नहीं होतुम अपनी कब में प्रवेश कर गए।
यह विधि तभी संभव है जब तुम खुले हुए होग्रहणशील होभयभीत नहीं हो।
क्योंकि यह विधि पूरे ब्रह्मांड को अपने में प्रवेश देने की विधि है।
'जैसे विषयीगत रूप से अक्षर शब्दों में और शब्द वाक्यों में जाकर मिलते हैं और विषयगत रूप से वर्तुल चक्रों में और चक्र मूल तत्‍व में जाकर मिलते है, वैसे ही अंतत: इन्‍हें भी हमारे अस्तित्व में आकर मिलते हुए पाओ।
प्रत्येक चीज मेरे अस्तित्व में आकर मिल रही है। मैं खुले आकाश के नीचे खड़ा हूं और सभी दिशाओं सेसभी कोने—कातर से सारा अस्तित्व मुझमें मिलने चला आ रहा है। इस हालत में तुम्हारा अहंकार नहीं रह सकता हैइस खुलेपन मेंजहां समस्त अस्तित्व तुममें मिल रहा हैतुम 'मैंकी भांति नहीं रह सकते हो। तुम खुले आकाश की भांति तो रहोगेलेकिन एक जगह केंद्रित 'मैंकी भांति नहीं।
इस विधि को छोटे—छोटे प्रयोगों से शुरू करो। किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ। हवा बह रही है और वृक्ष के पत्तों में सरसराहट की आवाज हो रही है। हवा तुम्हें छूती हैतुम्हारे चारों तरफ डोलती है और गुजर जाती है। लेकिन तुम उसे ऐसे ही मत गुजर जाने दोउसे अपने भीतर प्रवेश करने दो और अपने में होकर गुजरने दो। आंखें बंद कर लो और जैसे हवा वृक्ष से होकर गुजरे और पत्तों में सरसराहट होतुम भाव करो कि मैं भी वृक्ष के समान खुला हुआ हूं और हवा मुझमें भी होकर बह रही है—मेरे आस—पास से नहींठीक मेरे भीतर से होकर बह रही है। वृक्ष की सरसराहट तुम्हें अपने भीतर अनुभव होगी और तुम्हें लगेगा कि मेरे शरीर के रंध्र—रंध्र से हवा गुजर रही है।
और हवा वस्तुत: तुमसे होकर गुजर रही है। यह कल्पना ही नहीं हैयह तथ्य है। तुम भूल गए हो। तुम नाक से ही श्वास नहीं लेतेतुम पूरे शरीर से श्वास लेते होएक—एक रंध्र से श्वास लेते होलाखों छिद्रों से श्वास लेते हो। अगर तुम्हारे शरीर के सभी छिद्र बंद कर दिए जाएंउन पर रंग पोत दिया जाए और तुम्हें सिर्फ नाक से श्वास लेने दिया जाए तो तुम तीन घंटे के अंदर मर जाओगे। सिर्फ नाक से श्वास लेकर तुम जीवित नहीं रह सकते हो। तुम्हारे शरीर का प्रत्येक कोष्ठ जीवंत है और प्रत्येक कोष्ठ श्वास लेता है। हवा सच में तुम्हारे शरीर से होकर गुजरती हैलेकिन उसके साथ तुम्हारा संपर्क नहीं रहा है।
तो किसी झाड़ के नीचे बैठो और अनुभव करो। आरंभ में यह कल्पना मालूम पड़ेगीलेकिन जल्दी ही कल्पना यथार्थ बन जाएगी। यह यथार्थ ही है कि हवा तुमसे होकर गुजर रही है। और फिर उगते हुए सूरज के नीचे बैठो और अनुभव करो कि सूरज की किरणें न केवल मुझे छू रही हैंबल्कि मुझमें प्रवेश कर रही हैं और मुझसे होकर गुजर रही हैं। इस तरह तुम खुल जाओगे,ग्रहणशील हो जाओगे।
और यह प्रयोग किसी भी चीज के साथ किया जा सकता है। उदाहरण के लिएमैं यहां बोल रहा हूं और तुम सुन रहे हो। तुम मात्र कानों से भी सुन सकते हो और अपने पूरे शरीर से भी सुन सकते हो। तुम अभी और यहीं यह प्रयोग कर सकते हो—सिर्फ थोड़ी सी बदलाहट की बात है—और अब तुम मुझे कानों से ही नहीं सुन रहे होतुम मुझे अपने समस्त शरीर से सुन रहे हो। और जब तुम वास्तव में सुनते होध्यान से सुनते होतो यह सुनना तुम्हारे समस्त शरीर से होता है। तुम्हारा कोई अंश नहीं सुनता हैतुम्हारी ऊर्जा का कोई एक खंड नहीं सुनता हैपूरे के पूरे तुम सुनते हो। तुम्हारा समूचा शरीर सुनने में संलग्न होता है। और तब मेरे शब्द तुमसे होकर गुजरते हैंअपने प्रत्येक कोष्ठ सेप्रत्येक रंध्र सेप्रत्येक छिद्र से तुम उन्‍हें पीते हो। वे सभी और से तुममें समाहित होते है।
तुम एक और प्रयोग कर सकते हो जाओ और किसी मंदिर में बैठ जाओ। अनेक भक्त आएंगे—जाएंगे और मंदिर का घंटा बार—बार बजेगा। तुम अपने पूरे शरीर से उसे सुनो। घंटा बज रहा है और पूरा मंदिर उसकी ध्वनि से गज रहा है। मंदिर की प्रत्येक दीवार उसे प्रतिध्वनित कर रही हैउसे तुम्हारी ओर वापिस फेंक रही है।
इसीलिए हमने मंदिरों को गोलाकार बनाया हैताकि आवाज हर तरफ से प्रतिध्वनित हो और तुम्हें अनुभव हो कि हर तरफ से ध्वनि तुम्हारी ओर आ रही है। सब तरफ से ध्वनि लौटा दी जाती हैसब तरफ से ध्वनि तुममें आकर मिलती है। और तुम उसे अपने पूरे शरीर से सुन सकते होतुम्हारी प्रत्येक कोशिकाप्रत्येक रंध्र उसे सुनता हैउसे पीता हैअपने में समाहित करता है। ध्वनि तुम्हारे भीतर से होकर गुजरती है। तुम रंध्रमय हो गए होसब तरफ द्वार ही द्वार हैं। अब तुम किसी चीज के लिए बाधा न रहेअवरोध न रहे—न हवा के लिए न ध्वनि के लिए—न किरण के लिए किसी के लिए भी नहीं। अब तुम किसी भी चीज का प्रतिरोध नहीं करते होअब तुम दीवार न रहे।
और जैसे ही तुम्हें अनुभव होता है कि तुम अब प्रतिरोध नहीं करतेसंघर्ष नहीं करतेवैसे ही अचानक तुम्हें बोध होता है कि अहंकार भी नहीं है। क्योंकि अहंकार तो तभी है जब तुम संघर्ष करते हो। अहंकार प्रतिरोध है। जब—जब तुम कहते हो 'नहीं',अहंकार खड़ा हो जाता है। जब—जब तुम कहते हो 'हां', अहंकार विदा हो जाता है।
मैं उस व्यक्ति को आस्तिक कहता हूं सच्चा आस्तिकजिसने अस्तित्व को हां कहा है। उसमें कोई 'नहींनहीं रहा,कोई प्रतिरोध नहीं रहा। उसे सब स्वीकार हैवह सब कुछ को घटित होने देता है। अगर मृत्यु भी आती है तो वह अपना द्वार बंद नहीं करेगा। उसके द्वार मृत्यु के लिए भी खुले रहेंगे।
इस खुलेपन को लाना हैतो ही तुम यह विधि साध सकते हो। क्योंकि यह विधि कहती है कि सारा अस्तित्व तुममें बहा आ रहा हैतुममें आकर मिल रहा हैतुम समस्त अस्तित्व के संगम होतुम्हारी तरफ से विरोध नहींस्वागत हैतुम उसे अपने में मिलने देते हो। इस मिलन में तुम तो विलीन हो जाओगेतुम तो शून्य आकाश हो जाओगे—असीम आकाश। क्योंकि यह विराट ब्रह्मांड अहंकार जैसी क्षुद्र चीज में नहीं उतर सकतावह तो तभी उतर सकता है जब तुम भी उसके जैसे ही असीम हो गए होजब तुम स्वयं विराट आकाश हो गए हो। लेकिन यह होता है। धीरे— धीरे तुम्हें ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील होना है और तुम्हें अपने प्रतिरोधों के प्रति बोधपूर्ण होना है।
हम बहुत प्रतिरोध से भरे हैं। अगर मैं अभी तुम्हें स्पर्श करूं तो तुम महसूस करोगे कि तुम मेरे स्पर्श का प्रतिरोध कर रहे होतुम एक बाधा खड़ी कर रहे होताकि मेरी ऊष्मा तुममें प्रविष्ट न हो सकेमेरा स्पर्श तुममें प्रविष्ट न हो सके। हम एक—दूसरे को छूने की इजाजत भी नहीं देतेअगर कोई तुम्हें जरा सा भी छू देता है तो तुम सजग हो जाते हो और दूसरा कहता है:'क्षमा करें।
हर जगह प्रतिरोध है। अगर मैं तुम्हें गौर से देखता हूं तो तुम प्रतिरोध करते होक्योंकि मेरा देखना तुममें प्रवेश कर सकता हैतुममें गहरे उतर सकता हैतुम्हें उद्वेलित कर सकता है। तब तुम क्या करोगे?
और ऐसा अजनबी व्‍यक्‍ति के साथ ही नहीं होता है। वैसे तो अजनबी व्‍यक्‍ति के साथ भी इसकी कोई जरूरत नहीं है,क्योंकि कोई भी अजनबी नहीं है—या कहें कि हर कोई अजनबी है। एक ही छत के नीचे रहने से अजनबीपन कैसे मिट सकता है?
क्या तुम अपने पिता को जानते हो जिन्होंने तुम्हें जन्म दियावे भी अजनबी हैं। क्या तुम अपनी मां को जानते हो?वह भी अजनबी है। तो या तो हर कोई अजनबी है या कोई भी अजनबी नहीं है। लेकिन हम डरे हुए हैंऔर हम सब जगह अवरोध निर्मित करते हैं। और ये अवरोध हमें असंवेदनशील बना देते हैंऔर तब कुछ भी हममें प्रवेश नहीं कर सकता।
लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं. 'कोई प्रेम नहीं करताकोई मुझे प्रेम नहीं करता है।’ और मैं उस व्यक्ति को छूता हूं और महसूस करता हूं कि वह स्पर्श से भी डरा हुआ है। एक सूक्ष्म खिंचाव हैमैं उसका हाथ अपने हाथ में लेता हूं और वह अपने को सिकोड़ लेता है। वह अपने हाथ में मौजूद नहीं हैमेरे हाथ में उसका मुर्दा हाथ है। वह तो पीछे हट चुका है। और वह कहता है कि 'कोई मुझे प्रेम नहीं करता है।
कोई तुम्हें प्रेम कैसे कर सकता हैऔर अगर सारा संसार भी तुम्हें प्रेम करे तो भी तुम उसे अनुभव नहीं करोगेक्योंकि तुम बंद हो। प्रेम तुममें प्रवेश नहीं कर सकताकोई द्वार—दरवाजा नहीं है। और तुम अपने ही कारागृह में बंद होकर दुख पा रहे हो।
अगर अहंकार है तो तुम बंद हो—प्रेम के प्रतिध्यान के प्रतिपरमात्मा के प्रति। इसलिए पहले तो ज्यादा संवेदनशील,ज्यादा ग्राहकज्यादा खुले होने की चेष्टा करोजो तुम्हें होता है उसे होने दो। तो ही भगवत्ता घटित हो सकती हैक्योंकि वह अंतिम घटना है। अगर तुम साधारण चीजों को ही अपने में प्रवेश नहीं दे सकते हो तो परम तत्व को कैसे प्रवेश दोगेक्योंकि जब तुम्हें परम घटित होगा तब तो तुम बिलकुल नहीं रहोगेतुम बिलकुल खो जाओगे।
कबीर ने कहा है 'जब मैं था तब हरि नहींअब हरि हैं मैं नाहिं।’ खोजनेवाला कबीर अब कहा हैवह तो रहा नहीं। कबीर आश्चर्य से पूछते हैं. 'यह कैसा मिलन हैजब मैं था तो परमात्मा नहीं था और अब जब परमात्मा है तो मैं नहीं हूं। यह कैसा मिलन है?'
लेकिन वस्तुत: यही मिलन मिलन हैक्योंकि दो नहीं मिल सकते। सामान्यत: हम सोचते हैं कि मिलन के लिए दो की जरूरत हैअगर एक ही है तो मिलन कैसे होगासामान्य तर्क कहता है कि मिलन के लिए दो जरूरी हैंमिलन के लिए दूसरा जरूरी है। लेकिन सच्चे मिलन के लिएउस मिलन के लिए जिसे हम प्रेम कहते हैंउस मिलन के लिए जिसे हम प्रार्थना कहते हैंउस मिलन के लिए जिसे हम समाधि कहते हैंएक ही होना चाहिए। जब साधक है तो साध्य नहीं है और जब साध्य आता है तो साधक विलीन हो जाता है।
ऐसा क्यों होता है?
क्योंकि अहंकार बाधा है। जब तुम्हें लगता है कि मैं हूं तो तुम इतने मौजूद होते हो कि तुममें कुछ भी प्रवेश नहीं कर सकता। तुम अपने से ही इतने भरे होते हो। जब तुम नहीं हो तो सब कुछ तुमसे होकर गुजर सकता है। तुम इतने विराट हो गए होते हो कि परमात्मा भी तुमसे होकर गुजर सकता है। अब पूरा अस्तित्व तुमसे होकर गुजरने को तैयार हैक्योंकि तुम तैयार हो।
धर्म की सारी कला इसमें है कि कैसे स्वयं को खोया जाएकैसे विलीन हुआ जाएकैसे समर्पित हुआ जाएकैसे शून्य आकाश हुआ जाए।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

No comments:

Post a Comment