Monday, 19 February 2018

जनसंख्‍या का विस्‍फोट

संभोग से समाधि की और—31

जनसंख्‍या का विस्‍फोट-
    पृथ्‍वी के नीचे दबे हुए, पहाड़ों की कंदराओं में छिपे हुए, समुद्र की सतह में खोजें गये बहुत से ऐसे पशुओ के अस्‍थिर पंजर मिले है, जिनका अब कोई नामों निशान नहीं रह गया है। वे कभी थे। आज से दस लाख साल पहले पृथ्‍वी बहुत से सरीसृप प्राणियों से भरी थी। लेकिन, आज हमारे घर में छिपकली के अतिरिक्‍त उनका कोई प्रतिनिधि नहीं है। छिपकली भी बहुत छोटा प्रतिनिधि है। दस लाख साल पहले उसके पूर्वज हाथियों से भी पाँच गुना बड़े होते थे। वे सब कहां खो गये, इतने शक्‍तिशाली पशु पृथ्‍वी से कैसे विलुप्‍त हो गये। किसी ने उन पर हमला किया?  किसी ने उन पर एटम बम, हाइड्रोजन बम गिराया? नहीं उनके खत्‍म होने की अद्भुत कथा है।
      उन्‍होंने कभी सोचा भी न होगा कि वे खत्‍म हो जायेंगे। वे खत्‍म हो गए, अपनी संतति के बढ़ जाने के कारण। वे इतने बढ़ गये कि पृथ्‍वी पर जीना उनके लिए असंभव हो गया। भोजन कम हुआ,पानी कम हुआ,लिव्‍हिंग स्‍पेस कम हुआ। जीने के लिए जितनी जगह चाहिए वह कम हो गयी। उन पशुओं को बिलकुल आमूल नष्‍ट हो  जाना पडा।
      ऐसी दुर्घटना आज तक मनुष्‍य जाति के जीवन में नहीं आयी है; लेकिन भविष्‍य में आ सकती है। आज तक नहीं आयी उसका कारण यह था कि प्रकृति ने निरंतर मृत्‍यु को और जन्‍म संतुलित रखा था। बुद्ध के जमाने में दस आदमी पैदा होते थे तो सात या आठ जन्‍म के बाद मर जाते थे। दुनिया की आबादी कभी इतनी नहीं बढ़ी थी कमी पड़ जाए, खाने की कमी पड़ जाये। विज्ञान और आदमी की निरंतर खोज ने और मृत्‍यु से लड़ाई लेने की होड़ ने यह स्‍थिति पैदा कर दी है। कि आज दस बच्‍चे पैदा होते है तो उनमें से मुश्‍किल से एक बच्‍चा मर पाता है।
      स्‍थिति बिलकुल उल्‍टी हो गयी है। आज रूस में डेढ़ सौ वर्ष की उम्र के भी हजारों लोग है। औसत उम्र अस्‍सी और बयासी वर्ष तक कुछ मुल्‍कों में पहुच गई है। स्‍वाभाविक परिणाम जो होना था, वह हुआ कि जन्‍म की दर पुरानी रही, किन्‍तु मृत्‍यु दस हमने कर दी। अकाल थे; किंतु आकाल में मरना हमने बंद कर दिया। महामारियाँ आती थी, प्‍लेग आते थे, मलेरिया होता था,हैजा होता था, वे सब हमने बंद कर दिये। हमने मृत्‍यु के बहुत से द्वार रोक दिये और जन्‍म के सब द्वार खुले छोड़ दिये। मृत्‍यु और जन्‍म के बीच जो संतुलन था, वह विलुप्‍त हो गया।
      1945 में हिरोशिमा और नागासाकी में एटम बम गिरे, उनमें एक लाख आदमी मरे। इस समय लोगों को खतरा है की एटम बम बनते चले गये तो, सारी दुनियां नष्‍ट हो जायेगी। लेकिन आज जो लोग समझते है, वे कहते है कि दुनिया के नष्‍ट होने की संभावना एटम बम से बहुत कम है; दुनियां की नयी सम्‍भावना है यह है—लोगों के पैदा होने से। एक एटम बम गिराकर हिरोशिमा में एक लाख आदमी हमने मारे; लेकिन हम प्रतिदिन डेढ़ लाख आदमी दुनिया में बढ़ा देते है।
      एक हिरोशिमा क्‍या, दो हिरोशिमा रोज हम पैदा कर लेते है। दो लाख आदमी प्रतिदिन बढ़ जाते है।
      इसका डर है कि यदि इसी तरह संख्‍या बढ़ती चली गयी तो इस सदी के पूरे होते-होते हिलने के लिए भी जगह शेष न रह जाएगी। और तब सभाएँ करने की जरूरत नहीं रह जायेगी। क्‍योंकि तब हम लोग चौबीस घंटे सभाओं में होंगे। आदमी को न्‍यूयार्क और बम्‍बई में चौबीसों घंटे हिलने की फुरसत नहीं है। उसे सुविधा नहीं है अवकाश नहीं है।
       इस समय सबसे बड़ी चिंता, जो मनुष्‍य जाति के हित के संबंध में सोचते है, उन लोगों के समक्ष अति तीव्र हो जाना सुनिश्‍चित है कि यदि मृत्‍युदर को रोक दिया और जनम दर को पुराने रास्‍ते चलने दिया तो बहुत डर है कि पृथ्‍वी हमारी संख्‍या से ही डूब जाये और नष्‍ट हो जाये। हम इतने ज्‍यादा हो गये कि जीना असंभव हो गया है। इसलिए जों भी विचारशील है, वे वहीं कहेंगे कि जिस भांति हमने मृत्‍यु दर को रोका है उसी भांति जन्‍म दर को भी रोकना बहुत महत्‍वपूर्ण है।
      पहली बात तो यह ध्‍यान में रख लेनी है कि जीवन एक अवकाश चाहिए है। जंगल में जानवर मुक्‍त है मीलों के घेरे में घूमता है। दौड़ता है उसे कट घरे में बंद कर दें, तो उसका विक्षिप्‍त होना शुरू हो जाता है। बंदर भी मीलों नाचा करते है। पचास बंदरों को एक मकान में बंद कर दें, तो उनका पागल होना शुरू हो जायेगा। प्रत्‍येक बंदर को एक लिव्‍हिंग स्‍पेस, खुली जगह चाहिए जहां वह जी सके।
      अब लंदन, मॉस्को, न्‍यूयॉर्क,और वाशिंगटन में लिव्‍हिंग स्‍पेस खो गये है। छोटे-छोटे कट घरों में आदमी बंद है। एक-एक घर में एक-एक कमरे में दस-दस बारह-बारह आदमी बंद है। वहां वे पैदा होते है, वहीं मरते है, वहीं वे भोजन करते है, वहीं बीमार पड़ते है। एक-एक कमरे में दस-दस बारह-बारह पंद्रह-पंद्रह लोग बंद है। अगर वे विक्षिप्‍त हो जायें तो कोई आश्‍चर्य नहीं है। अगर वे पागल हो जाये तो को चमत्‍कार नहीं है। वे पागल होंगे ही। वे पागल नहीं हो रहे है, यहीं चमत्‍कार है। यही आश्‍चर्य है, अगर इतने कम पागल हो पा रहे है यही कम आश्‍चर्य की बात है।
      मनुष्‍य को खुला स्‍थान चाहिए जीने के लिए लेकिन संख्‍या जब ज्‍यादा हो जाये, तो यह बुराई हमें ख्‍याल में नहीं आती। जब आप एक कमरे में होते है, अब एक मुक्‍ति अनुभव करते है। दस लोग आकर कमरे में सिर्फ बैठ जायें कुछ न करें तो भी आपके मस्‍तिष्‍क में एक अंजान भार बढ़ना शुरू हो जाता है। मनोवैज्ञानिक कहते है कि चारों तरफ बढ़ती हुई भीड़ का प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के मन पर एक अनजाना भार है। आप रास्‍ते पर चल रहे है, अकेले कोई भी उस रास्‍ते पर नहीं है। तब आप दूसरे ढंग के आदमी होते है। और फिर उस रास्‍ते पर दो आदमी बगल की गली के निकल कर आ जाते है। तो आप दूसरे ढंग के आदमी हो जाते है। उनकी मौजूदगी आपके भीतर कोई तनाव पैदा कर देती है।
      आप अपने बाथरुम में होते है, तब आपने ख्‍याल किया है कि आप वही आदमी नहीं होते बैठक घर में होते है। बाथरुम में आप बिलकुल दूसरे आदमी होते है। बूढा भी बाथरुम में बच्‍चे जैसा उन्‍मुक्‍त हो जाता है। बूढ़े भी बाथरुम के आईने में बच्‍चे जैसी जीभ दिखाई है। मुहर चिढ़ाते है। नाच भी लेते है। लेकिन अगर उन्‍हें पता चल जाये कि किसी छेद कोई झांक रहा है। तो फिर वे एकदम बूढ़े हो जायेगे। उनका बचपना खो जायेगा। फिर वे सख्‍त और मजबूर होकर बदल जायेंगे।
      हमें कुछ क्षण चाहिए, जब हम बिलकुल अकेले हो सकें।
      मनुष्‍य की आत्‍मा के जो श्रेष्‍ठ फूल है, वे एकांत और अकेले में ही खिलते है।
      काव्‍य, संगीत अथवा परमात्‍मा की प्रतिध्वनि सब एकांत और अकेले में ही मिलती है।
      आज तक जगत में भीड़-भाड़ में श्रेष्‍ठ काम नहीं हुआ, भीड़ ने अब तक कोई श्रेष्‍ठ काम किया ही नहीं। 
      जो भी जगत में श्रेष्‍ठ है—कविता,चित्र, संगीत,परमात्‍मा, प्रार्थना, प्रेम—वे सब एकान्‍त में और अकेले में ही फूले है।
      लेकिन वे सब फूल शेष न रहे जायेंगे। मुर्झा जायेंगे, मुर्झा रही है। वे सब मिट जायेंगे। सब लुप्‍त हो जायेंगे। क्‍योंकि आदमी श्रेष्‍ठ से रिक्‍त हो गया है।
      भीड़ में निजता मिट गई है। इंडीवीजुअलटी मिट जाती है।
      स्‍वयं को बोध कम हो जाता है। आप अकेले नहीं मात्र भीड़ के अंग होते है। इसलिए भीड़ बुरे काम कर सकती है। अकेला आदमी इतने बुरे काम नहीं कर पाता।
      अगर किसी मस्‍जिद को जलाना हो, तो अकेला आदमी उसे नहीं जला सकता है, चाहे वह कितना ही पक्‍का हिन्दू क्‍यों न हो। अगर किसी मंदिर में राम की मूर्ति तोड़नी हो तो अकेला मुसलमान नहीं तोड़ सकता है। चाहे वह कितना ही पक्‍का मुसलमान क्‍यों न हो। उसके लिए भीड़ चाहिए अगर बच्‍चों की हत्‍या करना हो स्‍त्रीयों के साथ बलात्‍कार करना और जिंदा आदमियों में आग लगानी हो तो अकेला बहुत कठिनाई अनुभव करता है लेकिन भीड़ एकदम सरलता से करवा लेती है। क्‍यों?
      क्‍योंकि भीड़ में कोई व्‍यक्‍ति नहीं रह जाता और जब व्‍यक्‍ति नहीं रह जाता, तो दायित्‍व,रिस्‍पॉन्‍सबिलिटी,भी विदा हो जाती है। तब हम कह सकते है कि हमने नहीं किया,आप भी भीड़ में सम्‍मिलित थे।
      कभी आपने देखा की भीड़ तेजी से चल रही हो; नारे लगा रही हो, तो आप भी नारे लगाने लगते है। और आप भी भीड़ के साथ एक हो जाते हे। ऐसा क्‍या?
      एडल्ट हिटलर ने अपनी आत्‍मकथा में लिखा है कि शुरू-शुरू में मेरे पास बहुत थोड़ लोग थे, दस पन्‍द्रह लोग थे। लेकिन दस-पन्‍द्रह लोगों से हिटलर, कैसे हुकूमत पर पहुंचा, सि अजीब कथा है। हिटलर ले लिखा है कि मैं अपने दस पन्‍द्रह लोगों को ही लेकर सभा में पहुंच जात था। उन पन्‍द्रह लोगों को अलग-अलग कोनों पर खड़ा कर देता था और जब मैं बोलता था तो उन पन्‍द्रह लोगों को अलग-अलग तालियां बजाने को कहा जाता था। वे पन्‍द्रह लोग ताली बजाते थे और बाकी भीड़ भी उनके साथ हो जाती थी। बाकी भीड़ भी तालियां बजाती थी।
      कभी आपने ख्‍याल किया है कि जब आप भीड़ में ताली बजाते है तो आप नहीं बजाते। भीड़ बजवाती है। जब आप भीड़ में हंसते है तो भीड़ ही आपको हंसा देती है। भीड़ संक्रामक है, वह कुछ भी करवा लेती है। क्‍योंकि वह व्‍यक्‍ति को मिटा देती है। वह व्‍यक्‍ति की आत्‍मा को जो उसका अपना होता है उसे पोंछ डालती है।
      अगर पृथ्‍वी पर भीड़ बढ़ती गयी,तो व्‍यक्‍ति विदा हो जायेगा। भीड़ रह जायेगी। व्यिक्तत्व क्षीण हो जायेगा। खत्म हो जायेगा। मिट जायेगा। यह भी सवाल नहीं है कि पृथ्‍वी आगे इतने जीवों को पालने में असमर्थ हो जाये। अगर हमने सब उपाय भी कर लिए, समुद्र से भोजन निकाल लिया, निकाल भी सकते है। क्‍योंकि मजबूरी होगी, कोई उपास सोचना पड़ेगा। समुद्र से भोजन  निकल सकता है। हो सकता है हवा में भी खाना निकाला जा सके। और यह भी हो सकता है कि मिट्टी से भी भोजन को ग्रहण कर सकें। यह बस हो सकता है। सिर्फ गोलियां खाकर भी आदमी जिंदा रह सकता है। भीड़ बढ़ती गई तो भोजन का कोई हल तो हम कर लेंगे, लेकिन आत्‍मा का हल नहीं हो सकेगा।
      इसलिए मेरे सामने परिवारनियोजन केवल आर्थिक मामला नहीं है, बहुत गहरे अर्थों में धार्मिक मामला है।
      भोजन तो जुटाया जा सकता है। उसमे बहुत कठिनाई नहीं है। भोजन की कठिनाई अगर लोग समझते है तो बिलकुल गलत समझते है। अभी समुद्र भरे पड़े है। अभी समुद्रों में बहुत भोजन है। वैज्ञानिक प्रयोग यह कह रहे है कि समुद्रों के पानी से बहुत भोजन निकाला जा सकता है। आखिर मछली भी तो समुद्र से भोजन ले रही है। लाखों तरह के जानवर समुद्र से, पानी से भोजन ले रहे है। हम भी पानी से भोजन निकाल सकते है। हम मछली को खा लेते  है तो हमारा भोजन बन जाती है। और मछली ने जो भोजन लिया, वह पानी से लिया। अगर हम एक ऐसी मशीन बना सके जो मछली का काम कर सकती है। तो हम पानी से सीधा भोजन पैदा कर सकते है। आखिर मछली भी एक मशीन का ही तो काम कर रही है।
      गया घास खाती है, हम गाय का दूध पी लेते है। हम सीधा घास खाये तो मुश्‍किल होगी। बीच में मध्‍यस्‍थ गाय चाहिए। गाय घास को इस हालात में बदल देती है हमारे भोजन के योग्‍य हो जाता है। आज नहीं कल हम मशीन की गाय भी बना लेंगे। जो घास को इस हालत में बदल दे कि हम उसको खा लें। तब दूध जल्‍दी ही बन सकेगा। जब व्‍हेजिटबल घी बन सकता है तो व्हेजिटबल दूध क्‍यों नहीं बन सकता है। कोई कठिनाई नहीं है। भोजन का मसला तो हल हो जायेगा। लेकिन असली सवाल भोजन का नहीं है। असली सवाल ज्‍यादा गहरे है।
      अगर आदमी की भीड़ बढ़ती जाती है तो पृथ्‍वी कीड़े मकोड़े की तरह आदमी से भर जायेगी। इससे आदमी की आत्‍मा खो जायेगी। और उस आत्‍मा को देन का विज्ञान के पास कोई उपाय नहीं है। आत्‍मा खो ही जायेगी। और अगर भीड़ बढ़ती चली गई तो, एक-एक व्‍यक्‍ति पर चारों और से अनजाना दबाव पड़ेगा। हमें अनजाने दबाव कभी दिखाई नहीं पड़ते।
      आप जमीन पर चलते है आपके कभी सोचा की जमीन का ग्रेव्‍हिटेशन, गुरुत्वाकर्षण आपको खींच रहा है। हम बचपन से ही इसके आदी हो गये है इससे हमें पता नहीं चलता, लेकिन जमीन का बहुत बड़ा आकर्षण हमें पूरे वक्‍त खींचे हुए है। अभी चाँद पर जो यात्री गये है, उन्‍हें पता चला कि जमीन उन्‍हें लौटकर वैसी नहीं लगी। जैसी पहले लगती थी। चाँद पर वे यात्री साठ फिट छलांग भी लगा सकते थे। क्‍योंकि चाँद की पकड़ बहुत कम है। चाँद बहुत नहीं खींचता है। जमीन बहुत जोर से खींच रही है। हवाएँ चारों  तरफ से दबाव डाले हुए है। लेकिन उनका पता हमें नहीं चलता। क्‍योंकि हम उसके आदी हो गये है।
क्रमश: अगले लेख में............


और बहुत से अनजाने मानसिक दबाब भी है। गुरुत्वाकर्षण तो भौतिक दबाव हे; लेकिन चारों तरफ से लोगों की मोजूदगी भी हमको दबा रही है। वे भी हमें भीतर की तरफ प्रेस कर रहे है। सिर्फ उनकी मौजूदगी भी हमें परेशान किये हुए है। अगर यह भीड़ बढ़ती चली जाती है। तो एक सीमा पर पूरी मनुष्‍यता के ‘’न्‍यूरोटिक’’ विक्षिप्‍त हो जाने का डर है।
      सच तो यह है कि आधुनिक मनोविज्ञान, मनोविश्‍लेषण यह कहता है कि जो लोग पागल हुए जा रहे है, उन पागल होने वालों में नब्‍बे प्रतिशत पागल ऐसे है जो भीड़ के दबाव को नहीं सह पा रहे है। दबाव चारों तरफ से बढ़ता चला जा रहा है। और भीतर दबाब को सहना मुश्‍किल हुआ जा रहा है। उनके मस्‍तिष्‍क की नसें फटी जा रही है। इसलिए बहुत गहरे में सवाल सिर्फ मनुष्‍य के शारीरिक बचाव का नहीं है। फिजिकल सरवाइवल का ही नहीं है। उसके आत्‍मिक बचाव का भी है।
      जो लोग यह कहते है कि संतति नियमन जैसी चीजें अधार्मिक है। उन्‍हें धर्म का कोई पता नहीं है। क्‍योंकि धर्म का पहला सूत्र है कि व्‍यक्‍ति को व्‍यक्‍तित्‍व मिलना चाहिए। और व्‍यक्‍ति के पास एक आत्‍मा होनी चाहिए। व्‍यक्‍ति भीड़ का हिस्‍सा न रह जाये।
      लेकिन जितनी भीड़ बढ़ेगी,उतना ही हम व्‍यक्‍तियों की फिक्र करने में असमर्थ हो जायेंगे। जितनी भीड़ ज्‍यादा हो जायेगी। उतनी हमें भीड़ की फिक्र नहीं करनी पड़ेगी। जितनी भीड़ ही हमें पूरे जगत की इकट्ठी फिक्र करनी पड़ेगी। फिर यह सवाल नहीं होगा की आपको कौन सा भोजन प्रीतिकर है, और कौन से कपड़े प्रीतिकर हे और कैसे मकान प्रीतिकर हे। तब ये सवाल नहीं है। कैसा मकान दिया जा सकता है भीड़ को, कैसे कपड़े दिये जा सकते है भीड़ को, कैसा भोजन दिया जो सकता है भीड़ को। यह सवाल होगा। तब व्‍यक्‍ति का सवाल विदा हो जाता हे और भीड़ के एक अंश की तरह आपको भोजन कपड़ा और अन्‍य सुविधाएं दी जा सकती है।
      अभी एक मित्र जापान से लौटे है, वे कह रहे थे कि जापान में घरों की कितनी तकलीफ है। भीड़ बढ़ती चली जा रही है। एक नये तरह के पलंग उन्‍होंने ईजाद किये है। आज नहीं कल हमें भी ईजाद करने पड़ेंगे। वे मल्‍टी-स्‍टोरी पलंग है। रात आप अकेले सो भी नहीं सकते। सब खाटें एक साथ जुड़ी हुई है। एक के उपर एक। रात मैं जब आप सोते है, तो अपने नम्‍बर की खाट पर चढ़कर सो जाते है। आप सोने में भी भीड़ के बाहर नहीं रह सकते है। क्‍योंकि भीड़ बढ़ती चली जा रही है। वह रात आपके सोने के कमरे में भी मौजूद हो जायेगी। पर दस आदमी एक ही खाट पर सो रहे हो। तो वे घर कम रह गया,रेलवे कम्‍पार्टमेंट ज्‍यादा हो गया। रेलवे कम्‍पार्टमेंट में भी अभी ‘’टेन-टायर’’ नहीं है। लेकिन दस में भी मामला हल नहीं हो जायेगा।
      अगर यह भीड़ बढ़ती जाती है तो यह सब तरफ व्‍यक्‍ति को एन्‍क्रोचमेंट करेगी। वह व्‍यक्‍ति को सब तरफ से घेरे गी सब तरफ से बंद करेगी। और हमें ऐसा कुछ कना पड़ेगा कि व्‍यक्‍ति धीरे-धीरे खोता ही चला जाये, उसकी चिंता ही बंद कर देनी पड़े।
      मेरी दृष्‍टि में मनुष्‍य की संख्‍या का विस्‍फोट,जनसंख्‍या का विस्‍फोट बहुत गहरे अर्थों में धार्मिक सवाल है। सिर्फ भोजन का आर्थिक सवाल नहीं है।
      जब परिस्थितियां बदल जाती है तब पुराने नियम विदा हो जाते है।
      लेकिन, आज भी घर में एक बच्‍चा पैदा होता है, तो हम बैंड बाजा बजवाते है, शोरगुल करते है, प्रसाद बांटते है। पाँच हजार साल पहले बिलकुल ऐसी ही बात थी। क्‍योंकि पाँच हजार साल पहले दस बच्‍चे पैदा होते थे, तो सात और आठ मर जाते थे। और उस समय एक बच्‍चे का पैदा होना बड़ी घटना थी। समाज के लिए उसकी बड़ी जरूरत थी। क्‍योंकि समाज में बहुत थोड़े लोग थे। लोग ज्‍यादा होना चाहिए। नहीं तो पड़ोसी शत्रु के हमले में जीतना मुश्‍किल हो जायेगा। एक व्‍यक्‍ति का बढ़ जाना बढ़ी ताकत थी। क्‍योंकि व्‍यक्‍ति ही अकेली ताकत था। व्‍यक्‍ति से लड़ना था। पास के कबीले से हारना संभव हो जाता। अगर संख्‍या कम हो जाती है। तब संख्या को बढ़ाने की कोशिश करना जरूरी था। संख्‍या जितनी बढ़ जाये, उतना कबीला मजबूत हो जाता था। इसलिए संख्‍या का बड़ा होना महत्‍व पर्ण था।
      लोग कहते थे कि हम इतनी करोड़ है। उसमें बड़ी अकड़ थी। उसमें बड़ा अहंकार था। लेकिन वक्‍त बदल गया है, हालत बदल गई है उलटी हो गई है। नियम पुराना चल रहा है। हालतें बिलकुल उल्‍टी हो गई है।
      अब जो जितना ज्‍यादा संख्‍या में है। वह उतनी ही जल्‍दी मरने के उपाय में है। तब जो
जितनी ज्‍यादा संख्‍या में था। उतनी ज्‍यादा उसके जीतने की संभावना थी। आज संख्‍या जितनी
ज्‍यादा होगी,मृत्‍यु उतनी ही नजदीक हो जायेगी।
      आज जनसंख्‍या का बढ़ना स्युसाइडल है, आत्‍मघाती है।
      आज कोई समझदार मुल्‍क अपनी संख्‍या नहीं बढ़ा रहा है, बल्‍कि समझदार मुल्‍कों में संख्‍या गिरने तक की संभावना पैदा हो गयी है। जैसे फ्रांस की सरकार थोड़ी चिंतित हो गयी है क्‍योंकि कहीं ज्‍यादा न गिर जाए, यह डर भी पैदा हो गया है। लेकिन कोई समझदार मुल्‍क अपनी संख्‍या नहीं बढ़ा रहा।
      संख्‍या के बढ़ने के पीछे कई कारण है। पहला कारण तो यह है कि यदि जीवन में सुख चाहिए तो न्‍यूनतम लोग होने चाहिए। अगर दीनता चाहिए, दु:ख चाहिए,गरीबी चाहिए, बीमारी चाहिए, पागलपन चाहिए तो अधिकतम लोग पैदा करना उचित है।
      जब एक बाप अपने पांचवें बच्‍चे के बाद भी बच्‍चे पैदा कर रहा है तो वह बच्‍चे का बाप नहीं, दुश्‍मन है। क्‍योंकि वह उसे ऐसी दुनिया में धक्‍का दे रहा है, जहां वह सिर्फ गरीबी ही बांट सकेगा। वह बेटे के प्रति प्रेम पैदा करना अब प्रेम नहीं सिर्फ नासमझी है और दुश्‍मनी है।
      आप दुनियां में समझदार मां-बाप हो सकते है, इस बात को सोचकर की आप कितने बच्‍चे पैदा करेंगे। आने वाली दुनिया में संख्‍या दुश्‍मन हो सकती है। कभी संख्‍या उसकी मित्र थी, कभी संख्‍या बढ़ने से सुख बढ़ता था, आज संख्‍या बढ़ने से दुःख बढ़ता है। स्‍थिति बिलकुल बदल गई है।
      आज जिन लोगों को भी इस जगत में सुख की मंगल की कामना है, उन्‍हें यह फिक्र करनी ही पड़ेगी कि संख्‍या निरंतर कम होती चली जाए।
      हम अपने को अभागा बना सकते है, हमें उसका कोई भी बोध नहीं, हमें उसका कोई भी खयाल नहीं।1947 में हिंदुस्‍तान पाकिस्‍तान का बंटवारा हुआ था। तब किसी ने सोचा भी न होगा कि बीस साल में पाकिस्‍तान में जितने लोग गये थे। हम उससे ज्‍यादा फिर पैदा कर लेंगे।
      हमने एक पाकिस्‍तान फिर पैदा कर लिया है।
      1947 में जितनी संख्‍या पूरे हिंदुस्‍तान और पाकिस्‍तान को मिलाकर थी, आज अकेले हिन्‍दुस्‍तान की उससे ज्‍यादा है। यह संख्‍या इतने अनुपात से बढ़ती चली जा रही है।
      और फिर दुःख बढ़ रहा है। दरिद्रता बढ़ रही है, दीनता बढ़ रही है, बेकारी बढ़ रही है। तो हम परेशान होते है। उससे डरते है और हम कहते है कि बेकारी नहीं चाहिए, बीमारी नहीं चाहिए, हर आदमी को जीवन का सारा सुख सुविधाएं मिलनी चाहिए। और हम यह भी नहीं सोचते है कि जो हम कर रहे है उससे हर आदमी को जीवन की सारी सुविधाएं कभी भी नहीं मिल सकती। हमारे बेटे बेकार ही रहेंगे। भिखमंगी और गरीबी बढ़ेगी। लेकिन हमारे धर्म गुरु समझाते है कि यह ईश्‍वर का विरोध है, संतति नियमन की बात ईश्‍वर का विरोध है।
      हां धर्म गुरु जरूर चाह सकते है। क्‍योंकि मजे की बात यह है कि दुनिया में जितना दुःख बढ़ता है, धर्म गुरूओं की दुकानें उतनी ही ठीक से चलती है। दुनिया में सुख की दुकानें नहीं है। धर्म की दुकानें के दुःख पर निर्भर करती है।
      सुखी और आनंदित आदमी धर्म गुरु की तरफ नहीं जाता है। स्‍वस्‍थ और प्रसन्‍न आदमी धर्म गुरु की तरफ नहीं जाता है। दुःखी बीमार और परेशान व्‍यक्‍ति धर्म की तलाश करता है।
      दुःखी और परेशान आदमी आत्‍मा विश्‍वास खो देता है। वह किसी का सहारा चाहता है। किसी धर्म गुरु के चरण चाहता है। किसी का हाथ चाहता है। किसी का मार्ग दर्शन चाहता है।
      दुनिया में जब तक दुःख है, तभी तक धर्म गुरु टिक सकता है। धर्म तो टिकेगा सुखी हो जाने के बाद भी लेकिन धर्म गुरु के टिकने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए धर्म गुरु चाहेगा कि दुःख खत्‍म न हो जायें, दुःख समाप्‍त न हो जाये। उनके अजीब-अजीब धंधे है।
      मैंने सुना एक रात एक होटल में बहुत देर तक कुछ मित्र आकर शराब पीते रहे, भोजन करते रहे। आधी रात जब वे विदा होने लगे तो मैनेजर ने अपनी पत्‍नी से कहा कि ऐसे भले प्‍यारे, दिल फेंक खर्च करने वाले लोग  अगर रोज आयें तो हमारी जिंदगी में आनंद हो जायें। चलते वक्‍त मैनेजर ने उनसे कहा, ‘’आप जब कभी आया करें। बड़ी कृपा होगी। आप आये हम बड़े आनंदित हुए।‘’ जिस आदमी ने पैसे चुकाये थे, उसने कहा, भगवान से प्रार्थना करना कि हमारा धंधा ठीक चले हम रोज आते रहेंगे। मैनेजर ने पूछा,’’क्‍या धंधा करते है आप?
      उसने कहा कि मैं मरघट में लकड़ी बेचने का काम करता हूं। हमारा धंधा रोज चलता रहे तो हम बारबार आते रहेंगे। कभी-कभी होता है कि धंधा बिलकुल नहीं चलता। कोई गांव में मरता ही नहीं, लकड़ी बिलकुल बिकती नहीं। जिस दिन गांव में ज्‍यादा लोग मरते है, उस दिन लकड़ी ज्‍यादा बिकती है। जिस दिन ज्‍यादा धंधा होता है उस दिन आपके पास चले आते है।
      आपने सूना डाक्‍टर लोग भी कुछ ऐसा ही कहते है। जो मरीज ज्‍यादा होते है, तो कहते है सीजन अच्‍छा चल रहा है। आश्चर्य की बात है। अगर किन्‍हीं लोगों का धंधा लोगों के बीमार होने से चलता हो, तो फिर बीमारी मिटना बहुत मुश्‍किल है।
      अभी डॉक्टरों को भी हमने उलटा काम सौंपा हुआ है कि वह लोगों की बीमारी मिटाये। अत: उनकी भीतरी आकांशा यह है कि लोग ज्‍यादा बीमार हों, क्‍योंकि उनका व्‍यवसाय बीमारी पर खड़ा है।
      इसलिए रूस ने क्रांति के बाद जो काम किये, उनमें एक काम यह था कि उन्‍होंने डाक्‍टर के काम को नेश्‍नलाइज कर दिया। उन्‍होंने कहा कि  डाक्‍टर का काम व्‍यक्‍तिगत निर्धारित करना खतरनाक है, क्‍योंकि वह उपर से बीमार को ठीक करना चाहेगा और भीतर आंकाक्षा करेगा की ‘’बीमार’’ बीमार ही बना रहे। कारण उसका धंधा तो किसी के बीमार रहने से ही चलता है। इसलिए उन्‍होंने डाक्‍टर का धंधा प्राइवेट प्रैक्टिस बिलकुल बंद कर दी। वहां डाक्‍टर को वेतन मिलता है। बल्‍कि उन्‍होंने एक नया प्रयोग भी किया है। हर डाक्‍टर को एक क्षेत्र दिया जाता है, उसमें यदि लोग बीमार होते है तो उससे एक्‍सप्‍लेनेशन मांगा जाता है। इस क्षेत्र में ज्‍यादा लोग बीमार कैसे हुएवहां डाक्‍टर को यह चिंता करनी होती है की कोई बीमार ने पड़े।
      चीन में माओ ने आते ही वकील के धंधे को नेश्नलाइज कर दिया। क्‍योंकि वकील का धंधा खतरनाक है। क्‍योंकि वकील का धंधा कांन्‍ट्राडिक्‍टरी है। है तो वह इसलिए कि न्‍याय उपलब्‍ध करायें। और उसकी सारी चेष्‍टा यह रहती है कि उपद्रव हो, चोरी हो, हत्याएँ हो, क्‍योंकि उसका धंधा इसी पर निर्भर करता है।
      धर्म गुरु का धंधा भी बड़ा विरोधी है। वह चेष्‍टा तो यह करता है की लोग शांत हो, आनंदित हो, सुखी हो, लेकिन उसका धंधा इस पर निर्भर करता है कि लोग अशांत रहें, दुःखी रहें बेचैन और परेशान रहे। कारण अशांत लोग ही उसके पास यह जानने आते है कि हम शांत कैसे रहें। दुःखी लोग उसके पास आते है हमारा दुःख कैसे मिटे? दीन-दरिद्र उसके पास आते है कि हमारी दीनता का अंत कैसे हो?
      धर्म गुरु का धंधा लोगों के बढ़ते हुए दुःख पर निर्भर है।
      इसलिए जब भी दुनिया के धर्म गुरूओं ने सब बातें ईश्‍वर पर थोप दी है, और ईश्‍वर कभी गवाही देने आता नहीं है कि उसकी मर्जी क्‍या है? यह क्‍या चाहता है? उसकी क्‍या इच्‍छा है? इंग्‍लैण्‍ड और जर्मनी में अगर युद्ध हो तो इंग्‍लैण्‍ड का धर्म गुरु समझाता है कि ईश्‍वर की इच्‍छा है कि इंग्‍लैण्‍ड जीते? और जर्मनी का धर्म गुरु समझाता है कि ईश्‍वर की इच्‍छा है कि जर्मनी जीते। जर्मनी में उसी भगवान से प्रार्थना की जाती है कि अपने देश को जिताओ और इंग्‍लैण्‍ड में भी पादरी और पुरोहित प्रार्थना करता है कि है भगवान, अपने देश को जिताओ।
      ईश्‍वर की इच्छा पर हम अपनी इच्‍छा थोपते रहते है। ईश्‍वर बेचारा बिलकुल चुप है। कुछ पता नहीं चलता कि उसकी इच्‍छा क्‍या है। अच्‍छा हो कि हम ईश्‍वर पर अपनी इच्‍छा न थोपों। हम इस जीवन को सोचें, समझें ओर वैज्ञानिक रास्‍ता निकाले।
      यह भी ध्‍यान में रखने योग्‍य है कि जो समाज जितना समृद्ध होता है, वह उतने ही कम बच्‍चे पैदा करता है। लेकिन दुःखी दीन, दरिद्र लोग जीवन में किसी अन्‍या मनोरंजन और सुख की सुविधा न होने से सिर्फ सेक्‍स में ही सुख लेने लगते है। उनके पास और कोई उपाय नहीं रहता।   
      एक अगर संगीत भी सुनता है, साहित्‍य भी पढ़ता है, चित्र भी देखता है, घूमने भी जाता है, पहाड़ की यात्रा भी करता है,उसकी शक्‍ति बहुत दिशाओं में बह जाती है। एक गरीब आदमी के पास शक्‍ति बहाने का और कोई उपाय नहीं रहता। उसके मनोरंजन का कोई और उपाय नहीं रहता। क्‍योंकि सब मनोरंजन खर्चीला है; सिर्फ सेक्‍स ही ऐसा मनोरंजन है, जो मुफ्त उपलब्‍ध है। इसलिए गरीब आदमी बच्‍चे इकट्ठे करता चला जाता है।
      गरीब आदमी इतने अधिक बच्‍चे इकट्ठे कर लेता है कि गरीबी बढ़ती चली जाती है। गरीब आदमी ज्‍यादा बच्‍चे पैदा करता है। गरीब के बच्‍चे और गरीब होते चले जाते है। वे और बच्‍चे पैदा करते जाते है और देश और गरीब होता चला जाता है। किसी ने किसी तरह गरीब आदमी की इस भ्रामक स्‍थिति को तोड़ना जरूरी है। इसे तोड़ना ही पड़ेगा,अन्‍यथा गरीबी का कोई पारावार न रहेगा। गरीबी इतनी बढ़ जायेगी की जीना असंभव हो जायेगा।
      इस देश में तो गरीबी बढ़ ही रही है, जीना करीब-करीब असंभव हो गया है। कोई मान ही नहीं सकता कि हम जी रहे है। अच्‍छा हो कि कहा जाये कि हम धीरे-धीरे मर रहे है।

जीने का क्‍या अर्थ?
      जीने का इतना ही अर्थ है कि ईग्जस्ट करते है। हम दो रोटी खा लेते है, पानी पी लेते है। और कल तक के लिए जी लेते है। लेकिन जीना ठीक अर्थों में तभी उपलब्‍ध होता है जब हम एफ्ल्‍युसन्‍स को, समृद्धि को उपलब्‍ध हो।
      जीवन का अर्थ है ओवर फ्लोइंग जीने का अर्थ है, कोई चीज हमारे ऊपर से बहने लगे।
      एक फूल है। आपने कभी ख्‍याल किया है कि फूल कैसे खिलता है पौधे पर? अगर पौधे को खाद न मिले, ठीक पानी न मिले, तो पौधा जिंदा रहेगा, लेकिन फूल नहीं खिलायेगे। फूल ओवर फ्लोइंग है। जब पौधे में इतनी शक्‍ति इकट्ठी हो जाती है कि अब पत्‍तों को, शाखाओं को, जड़ों को कोई आवश्‍यकता नहीं रह जाती है। तब पौधे के पास कुछ अतिरिक्‍त इकट्ठा हो जाता है। तब फूल खिलता है। फूल जो है, वह अतिरक्ति है, इसलिए फूल सुन्‍दर है। वह अतिरेक है। वह किसी चीज का बहुत हो जाने के बहाव से है।
      जीवन में सभी सौंदर्य अतिरेक है। जीवन सौंदर्य ओवर फ्लोइंग है, ऊपर से बह जाना है।
      जीवन के सब आनंद भी अतिरेक है। जीवन में जो भी श्रेष्‍ठ है, वह सब ऊपर से बह जाता है।
      महावीर और बुद्ध राजाओं के बेटे है, कृष्‍णा और राम राजाओं के बेटे है। ये ओवर फ्लोइंग है। ये फूल जो खिले है गरीब के घर में नहीं खिल सकते थे। कोई महावीर गरीब के घर में पैदा नहीं होगा। कोई बुद्ध गरीब के घर में पैदा नहीं होगा। कोई राम और कोई कृष्‍ण भी नहीं।
      गरीब के घर में ये फूल नहीं खिल सकते। गरीब सिर्फ जी सकता है, उसका जीना इतना न्‍यूनतम है कि उससे फूल खिलनें का कोई उपाय नहीं है। गरीब पौधा है, वह किसी तरह जी लेता है। किसी तरह उसके पत्‍ते भी हो जाते है, किसी तरह शाखाएं भी निकल आती है। लेकिन न तो वह पूरी ऊँचाई ग्रहण कर पाता है, न वह सूरज को छू पाता है। न आकाश की तरफ उठ पाता है। न उसमें फूल खिल पाते है। क्‍योंकि फूल तो तभी खिल सकते है, जब पौधे के पास जीने से अतिरिक्‍त शक्‍ति इकट्ठी हो जाय। जीने से अतिरिक्‍त जब इकट्ठा होता है, तभी फूल खिलते है।
      ताज महल भी वैसा ही फूल हे। वह अतिरेक से निकला हुआ फूल है।
      जगत में जो भी सुंदर है, साहित्‍य है, काव्‍य है, वे सब अतिरेक से निकले हुए फूल है।
      गरीब की जिंदगी में फूल कैसे खिल सकते है?
      लेकिन, हम रोज अपने को गरीब करने का उपाय करते चले जाते है? लेकिन ध्‍यान रहे, जीवन में जो सबसे बड़ा फूल है परमात्‍मा का....वह संगीत साहित्‍य, काव्‍य,चित्र और जीवन के छोटे-छोटे आनंद से भी ज्‍यादा शक्‍ति जब ऊपर इकट्ठी होती है,तब वह परम फूल खिलता है परमात्‍मा का।
      लेकिन गरीब, समाज उस फूल के लिए कैसे उपयुक्‍त बन सकता है। गरीब समाज रोज दीन होता जाता है। रोज हीन होता चला जाता है। गरीब बाप जब दो बेटे पैदा करता है, तो अपने से दुगुने गरीब पैदा करता जाता है। जब वह अपने चार बेटों में संपति का विभाजन करता है तो उसकी संपति नहीं बँटती। संपति तो है ही नहीं। बाप ही गरीब था, बाप के पास ही कुछ नहीं था। तो बाप सिर्फ अपनी गरीबी बांट देता है। और चौगुना गरीब समाज में, अपने बच्‍चों को खड़ा कर जाता है।
      हिंदुस्‍तान सैकड़ों सालों से अमीरी नही, सिर्फ गरीबी बांट रहा है।
      हां, धर्म गुरु सिखाते है ब्रह्मचर्य। वे कहते है कि कम बच्‍चे पैदा करना हो तो ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। किन्‍तु गरीब आदमी के लिए मनोरंजन के सब साधन बंद है। और धर्म-गुरु कहते है कि वह ब्रह्मचर्य धारण करे। अर्थात जीवन में जो कुछ मनोरंजन का साधन उपलब्‍ध है। उसे भी ब्रह्मचर्य से बंद कर दे। तब तो गरीब आदमी मर ही गया। वह चित्र देखने जाता है तो रूपया खर्च होता है। किताब पढ़ने जाता है तो रूपया खर्च होता है। संगीत सुनने जाता है तो रूपया खर्च होता है। एक रास्‍ता और सुलभ साधन था, धर्म-गुरु कहता है कि ब्रह्मचर्य से उसे भी बंद कर दे। इसीलिए धर्म-गुरु की ब्रह्मचर्य की बात कोई नहीं सुनता, खुद धर्म गुरु ही नहीं सुनते अपनी बात। यह बकवास बहुत दिनों चल चुकी। उसका कोई लाभ नहीं हुआ। उससे कोई हित भी नहीं हुआ।
      विज्ञान ने ब्रह्मचर्य की जगह एक नया उपाय दिया, जो सर्वसुलभ हो सकता है। वह है संतति नियमन के कृत्रिम साधन,जिससे व्‍यक्‍ति को ब्रह्मचर्य में बंधने की कोई जरूरत नहीं। जीवन के द्वार खुले रह सकत है, अपने को स्पेस, दमित करने की कोई जरूरत नहीं।
      और यह भी ध्‍यान रहे कि जो व्‍यक्‍ति एक बार अपनी यौन प्रवृति को जोर से दबा देता है। वह व्‍यक्‍ति सदा के लिए किन्‍हीं अर्थों में रूग्‍ण हो जाता है। यौन की वृति से मुक्‍त हुआ जा सकता है। लेकिन यौन की वृत्‍ति को दबा कर कोई कभी मुक्‍त नहीं हो सकता। यौन की वृति से मुक्‍त हुआ जा सकता है। अगर यौन में निकलने वाली शक्‍ति किसी और आयाम में किसी और दिशा में प्रवाहित हो जाये, तो मुक्‍त हुआ जा सकता है।
      एक वैज्ञानिक मुक्‍त हो जाता है। बिना किसी ब्रह्मचर्य के, बिना राम-राम का पाठ किये, बिना किसी हनुमान चालीसा पढ़ एक वैज्ञानिक मुक्‍त हो जाता है। एक संगीतज्ञ भी मुक्‍त हो सकता है। एक परमात्‍मा का खोजी भी मुक्‍त हो सकता है।
      ध्‍यान रहे,लोग कहते है ब्रह्मचर्य जरूरी है, परमात्‍मा की खोज के लिए। मैं कहता हूं,यह बात गलत है। हां परमात्‍मा की खोज पर जाने वाला ब्रह्मचर्य को उपलब्‍ध हो जाता है। अगर कोई परमात्‍मा की खोज में पूरी तरह चला जाये, तो उसकी सारी शक्‍तियां इतनी लीन हो जाती है। कि उसके पास यौन कि दिशा में जाने के लिए न शक्‍ति का बहाव बचता है और न ही आकांशा।
      ब्रह्मचर्य से कोई परमात्‍मा की तरफ नहीं जा सकता, लेकिन परमात्‍मा की तरफ जाने वाला ब्रह्मचर्य को उपलब्‍ध हो जात है।
      लेकिन, अगर हम किसी से कहें कि वह बच्‍चे रोकने के लिए ब्रह्मचर्य का उपयोग करे, तो यह अव्‍यावहारिक है।
      गांधी जी निरंतर यहीं कहते रहे, इस मुल्‍क के और भी महात्‍मा यहीं कहते है कि ब्रह्मचर्य का उपयोग करो। लेकिन, गांधी जैसे महान आदमी भी ठीक-ठीक अर्थों में ब्रह्मचर्य को कभी उपलब्‍ध नहीं हुए। वे भी कहते है कि मेरे स्‍वप्‍न में कामवासना उतर आती है।  वे भी कहते है कि दिन में तो मैं संयम रख पाता हूं। पर स्‍वप्‍नों में सब संयम टूट जाता है। और जीवन के अंतिम दिनों में एक स्‍त्री को बिस्‍तर पर लेकर, सो कर वे प्रयोग करते थे कि अभी भी कहीं कामवासना शेष तो नहीं रह गयी। सत्‍तर साल की उम्र में एक युवती को रात में बिस्‍तर पर लेकर सोते थे, यह जानने के लिए कि कहीं काम-वासना शेष तो नहीं रह गई है। पता नहीं,क्‍या परिणाम हुआ। वे क्‍या जान पाये। लेकिन एक बात पक्‍की है कि उन्‍होंने सत्‍तर वर्ष की उम्र तक शक रहा होगा। कि ब्रह्मचर्य उपल्‍बध हुआ या नहीं। अन्‍यथा इस परीक्षा की क्‍या जरूरत थी।
      ब्रह्मचर्य की बात एकदम अवैज्ञानिक और अव्‍यावहारिक है। कृत्रिम साधनों का उपयोग किया जा सकता है। और मनुष्‍य के चित पर बिना दबाव दिये उनका उपयोग किया जा सकता है।


कुछ प्रश्‍न उठाये जाते है। यहां उनके उत्‍तर देना पसंद करूंगा:--

     एक मित्र ने पूछा है कि अगर यह बात समझायी जाये तो जो समझदार है, बुद्धिजीवी है, इंटेलिजेन्‍सिया है, मुल्‍क का जो अभिजात वर्ग है, बुद्धिमान और समझदार है, वह तो संतति नियमन कर लेगा, परिवार नियोजन कर लेगा। लेकिन जो गरीब है, दीन-हीन है, वे पढ़े लिखे ग्रामीण है, जो कुछ समझते ही नही, वह बच्‍चे पैदा करते ही चले जायेंगे और लम्‍बे अरसे में परिणाम यह होगा कि बुद्धि मानों के बच्‍चे कम हो जायेगे और गैर-बुद्धि मानों के बच्‍चों की संख्‍या बढ़ती जायेगी।
     इसे दूसरे तरह से धर्म-गुरु भी उठाते है। वे कहते है कि मुसलमान तो सुनते ही नहीं, ईसाई सुनते नहीं, कैथोलिक सुनते नही, वे कहते है कि संतति नियमन हमारे धर्म के विरोध में है। मुसलमान फ्रिक नहीं करता तो हिन्‍दू क्‍यों फ्रिक करेगा। हिन्‍दू धर्म गुरु कहते है कि हिन्दू सिकुड़े और मुसलमान, ईसाई बढ़ते चले जायेंगे। पचास साल में मुश्‍किल हो जायेगी, हिन्‍दू नगण्‍य हो जायेंगे। मुसलमान और ईसाई बढ़ जायेंगे। इस बात में भी थोड़ा अर्थ है।
      इन दोनों के संबंध में कुछ कहना चाहूंगा।
      पहली बात तो यह है कि संतति नियमन कम्‍पलसरी, अनिवार्य होना चाहिए, वालेन्‍टरी, इेच्‍छिक नहीं।
      जब तक हम एक-एक आदमी को समझाने की कोशिश करेंगे की तुम्‍हें संतति नियमन करवाना चाहिए, तब तक इतनी भीड़ हो चुकी होगी कि संतति नियमन का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।
      एक अमेरिकी विचार ने लिखा है कि इस वक्‍त सारी दुनिया में जितने डाक्‍टर परिवार नियोजन में सहयोगी हो सकते है,अगर वि सब के सब एशिया में लगा दिए जायें,और वे बिलकुल न सोये चौबीस घंटे आपरेशन करते रहें, तो भी उन्‍हें एशिया को उस स्‍थिति में लाने के लिए, जहां जनसंख्‍या नियंत्रण में आ जाय, पाँच सौ वर्ष लगेंगे। और पाँच सौ वर्ष में तो हमने इतने बच्‍चे पैदा कर लिए होंगे जिसका कोई हिसाब नहीं रह जायेगा।
      ये दोनों संभावनाएं नहीं है। दुनिया के सभी डाक्‍टर एशिया में लाकर लगाये नहीं जा सकते। और पाँच सौ वर्ष में हम खाली थोड़े ही बैठे रहेंगे। पाँच सौ वर्षों में तो हम जाने क्‍या कर डालेंगे। नहीं यह संभव नहीं होगा। समझाने बुझाने के प्रयोग से तो सफलता दिखाई नहीं पड़ती है।
      संतति नियमन तो अनिवार्य करना पड़ेगा और यह अलोकतांत्रिक नहीं है।
      एक आदमी की हत्‍या करने में जितना नुकसान होता है, उससे हजार गुना नुकसान एक बच्‍चे को पैदा करने से होता है। आत्‍महत्‍या से जितना नुकसान होता है, एक बच्‍चा पैदा करने से उससे हजार गुणा नुकसान होता है। समझाने-बुझाने के प्रयोग से तो सफलता दिखाई नहीं पड़ती।
      संतति नियमन तो अनिवार्य होना चाहिए।
      तब गरीब व अमीर और बुद्धिमान व गैर बुद्धिमान का सवाल नहीं रह जायगा। तब हिन्‍दू, मुसलमान और ईसाई का सवाल नहीं रह जायेगा।
      यह देश बड़ा अजीब है, हम कहते है कि हम धर्मनिरपेक्ष है, और फिर भी सब चीजों में धर्म का विचार करते है। सरकार भी विचार रखती है। हिन्‍दू कोड बिल बना हुआ है। वह सिर्फ हिन्‍दू स्‍त्रियों पर ही लागू होता है। यह बड़ी अजीब बात है। सरकार जब धर्म निरपेक्ष है तो मुसलमान स्‍त्रियों को अलग करके सोचे, यह बात ही गलत है। सरकार को सोचना चाहिए स्‍त्रियों के संबंध में।
      मुसलमान को हक है कि वह चार शादियाँ करे,किन्‍तु हिन्‍दू को हक नहीं है। तो मानना क्‍या होगायह धर्म निरपेक्ष राज्‍य कैसे हुआ?
      हिन्‍दुओं के लिए अलग नियम और मुसलमान के लिए अलग नियम नहीं होना चाहिए।
      सरकार को सोचना चाहिए स्‍त्री के लिए। क्‍या यह उचित है कि चार स्‍त्रियां एक आदमी की पत्‍नी बने? यह हिन्‍दू हो या मुसलमान, यह असंगत है। चार स्‍त्रियों एक आदमी की पत्नियाँ बने, यह बात ही अमानवीय है।
      यह सवाल नहीं है कौन हिन्‍दू है और कौन मुसलमान है। यह अपनी-अपनी इच्‍छा की बात है। फिर कल हम यह भी कह सकते है कि मुसलमान को हत्‍या करने की थोड़ी सुविधा देनी चाहिए। ईसाई को थोड़ी या हिन्‍दू को थोड़ी सुविधा देनी चाहिए हत्‍या करने की। नहीं, हमें व्‍यक्‍ति और आदमी की दृष्‍टि से विचार करने की जरूरत नहीं है। यह सवाल पूरे मुल्‍क का है, इसमें हिन्‍दू, मुसलमान और ईसाई अलग नहीं किये जा सकते।
      दूसरी बात विचारणीय है कि हमारे देश में हमारी प्रतिभा निरंतर क्षीण होती चली गयी है। और अगर हम आगे भी ऐसे ही बच्‍चे पैदा करना जारी रखते है तो संभावना है कि हम सारे जगत में प्रतिभा में धीरे-धीरे पिछड़ते चले जायेंगे।
      अगर इस जाति को ऊँचा उठाना हो—स्‍वास्‍थ्‍य में, सौन्‍दर्य में, प्रतिभा में, मेधा में तो हमें प्रत्‍येक आदमी को बच्‍चे पैदा करने का हक नहीं देना चाहिए।
      संतति नियमन अनिवार्य तो होना ही चाहिए। बल्‍कि जब तक विशेषज्ञ आज्ञा न दें, तब तक बच्‍चा पैदा करने का हक किसी को भी नहीं रह जाना चाहिए। मेडिकल बोर्ड जब तक अनुमति न दे-दे, तब तक कोई आदमी बच्‍चे पैदा न कर सके।
      कितने कोढ़ी बच्‍चे पैदा किये जाते है, कितने ईडियट, मूर्ख पैदा किये जाते है। कितने संक्रामक रोगों से भरे लोग बच्‍चे पैदा करते है और उनके बच्‍चे पैदा होते चले जाते है। और देश में दया और धर्म करने वाले लोग है। अगर वे खुद अपने बच्‍चे न पाल सकते हों, तो हम उनके लिए अनाथालय खोलकर उनके बच्‍चों पालने का भी इंतजाम कर देते है। ये ऊपर से तो दान और दया दिखाई पड़ रही है, लेकिन है बड़ी खतरनाक इंतजाम। इंतजाम तो यह होना चाहिए कि बच्‍चे स्‍वस्‍थ,सुन्‍दर,बुद्धिमान,प्रतिभाशाली वह संक्रामक रोगों से मुक्‍त हों।
      असल में शादी के पहले ही हर गांव में हर नगर में डॉक्टरों की, विचारशील मनोवैज्ञानिकों, साइकोलॉलिस्‍टस की सलाहकारसमिति होनी चाहिए। जो प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को निर्देश दे। अगर दो व्‍यक्‍ति शादी करते है, तो वे बच्‍चे पैदा कर सकेंगे या नहीं, यह बता दें। शादी करने का हक प्रत्‍येक को है। ऐसे दो लोग भी शादी कर सकेंगे जिनको सलाह नदी गयी हो, लेकिन बच्‍चो पैदा न कर सकेंगे।
      हम जानते है कि पौधे पर क्रास ब्रीडिंग से कितना लाभ उठाया जा सकता है। एक माली अच्‍छी तरह जानता है कि नये बीज कैसे विकसित किये जाते है। गलत बीजों को कैसे हटाया जा सकता है। छोटे बीज कैसे अलग किये जा सकते है, बड़े बीज कैसे बचाये जा सकते है। एक माली सभी बीज नहीं बो देता। बीजों को छाँटता है।      
      हम अब तक मनुष्‍य-जाति के साथ उतनी समझदारी नहीं कर सके, जो एक साधारण सा माली बग़ीचे में करता है। यह भी आपको ख्‍याल हो कि जब माली को बड़ा फूल पैदा करना होता है तो वह छोटे फूलों को पहले काट देता है। आपने कभी फूलों की प्रदर्शनी देखी है, जो फूल जीतते है,उनके जीतने का कारण क्‍या है?
      उनका कारण यह है कि माली ने होशियारी से एक पौधे पर एक ही फूल पैदा किया। बाकी फूल पैदा ही नहीं होने दिये। बाकी फूलों को उसने जड़ से ही अलग कर दिया, पौधे की सारी शक्‍ति एक ही फूल में प्रवेश कर गयी।
      एक आदमी बारह बच्‍चे पैदा करता है तो भी कभी भी बहुत प्रतिभाशाली बच्‍चे पैदा नहीं कर सकता। अगर एक ही बच्‍चा पैदा करे तो बारह बच्‍चों की सारी प्रतिभा एक बच्‍चे में प्रवेश कर सकती है।
      प्रकृति के भी बड़े अद्भुत नियम है। प्रकृति बड़े अजीब ढंग से काम करती है। जब युद्ध होता है दुनिया में,तो युद्ध के बाद लोगों की संतति पैदा करने की क्षमता बढ़ जाती है। यह बड़ी हैरानी की बात है। युद्ध से क्‍या लेना-देना। जब-जब भी युद्ध होता है तो जन्‍म दर बढ़ जाती है। पहले महायुद्ध के बाद जन्‍म दर एकदम ऊपर उठ गई, कयोंकि पहले  महायुद्ध में साढ़े तीन करोड़ लोग मर गये थे। प्रकृति कैसे इंतजाम रखती है। यह भी हैरानी की बात है। प्रकृति को कैसे पता चला कि युद्ध हो गया, और अब  बच्‍चों की जन्‍म दर बढ़ जानी चाहिए। दूसरे महायुद्ध में भी कोई साढ़े सात करोड़ लोग मारे गये। जन्‍म दर एकदम बढ़ गई। महामारी के बाद हैजा के बाद,प्‍लेग के बाद लोगों की जन्‍म दर बढ़ जाती है।
      अगर एक आदमी पचास बच्‍चे पैदा करे तो उसकी शक्‍ति पचास पर बिखर जाती है। अगर वह एक ही बच्‍चे पर केन्‍द्रित करे तो उसकी शक्‍ति,उसकी प्रतिभा प्रकृति एक ही बच्‍चे में डाल सकती है। सौ लड़कियां पैदा होती है तो लड़के 116 पैदा होते है। यह अनुपात है सारी दुनिया में। और यह बड़े मजे की बात है कि 116 लड़के किस लिए पैदा होते है? 16 लड़ते बेकार रह जायेगे,इन्‍हें कौन लड़की देगा? 100लड़कियां पैदा होती है, 116 लड़के पैदा होते है। लेकिन प्रकृति का इंतजाम बड़ा अद्भुत है। प्रकृति का इंतजाम बहुत गहरा है। वह लड़कियों को कम पैदा करती है और लड़कों को अधिक; क्‍योंकि उम्र पाते-पाते प्रौढ़ होते-होते16 लड़के मर जाते है। और संख्‍या बराबर हो जाती है। असल में लड़कियों के जीवन में जीने की रेजिस्‍टेन्‍स, अवरोध-क्षमता लड़कों से ज्‍यादा होती है। इस लिए 16 लड़के ज्‍यादा पैदा होते है। हर 14 साल बाद संख्‍या बराबर हो जाती है। लड़कियों में जिंदा रहने की शक्‍ति लड़कों से ज्‍यादा है।
      आमतौर पर पुरूष सोचता है कि हम सब तरह से शक्‍तिवान है। इस भूल में मत पड़ना। कुछ बातों को छोड़कर स्‍त्रियां पुरूषों से कई अर्थों में ज्‍यादा शक्‍तिवान है, उनका रेजिस्‍टेन्‍स, उनकी शक्‍ति कई अर्थों में ज्‍यादा है। शायद प्रकृति ने स्‍त्री को सारी क्षमता इसलिए दी है कि वह बच्‍चे को पैदा करने की बच्‍चे को झेलने की, बड़ा करने की जो इतनी तकलीफदेह प्रक्रिया है,उन सब को झेल सके। प्रकृति सब इंतजाम कर देती है। अगर हम बच्‍चे कम पैदा करेंगे तो प्रकृति जो अनेक बच्‍चों पर प्रतिभा देती है। वह एक बच्‍चे पर डाल देगी।
      आदमी इस लिए रहा है कि वह दूसरी चीजों के विषय में वैज्ञानिक चिंतन कर लेता है, लेकिन आदमियों के संबंध में नहीं करता। आदमियों के संबंध में हम बड़े अवैज्ञानिक है। हम कहते है कि हम कुंडली मिलायेंगे। हम कहते है कि हम ब्राह्मण से ही शादी करेंगे।
      विज्ञान तो कहता है की शादी जितनी दूर हो उतनी ही अच्‍छी है। अगर अन्तर जातीय होत बहुत अच्‍छा है। अंतर्देशीय हो;तो और भी अच्‍छा है। और अंतर्राष्‍ट्रीय हो तो अधिक अच्‍छा है। और आज नहीं तो कल अंतर्ग्रहीय हो जाये, मंगल पर या कहीं और आदमी मिल जाये तो और भी अच्‍छा है। क्‍योंकि हम जानते है कि अंग्रेजी सांड और हिन्‍दुस्‍तानी गाय हो तो जो बछड़े पैदा होंगे? उसका मुकाबला नहीं रहेगा।
      हम आदमी के संबंध में समझ का उपयोग कब करेंगे?
      अगर हम समझ का उपयोग करेंगे तो जो हम जानवरों के साथ कर रहे है, समृद्ध फूलों के साथ कर रहे है। वही आदमी के साथ करना जरूरी होगा। ज्‍यादा अच्‍छे बच्‍चे पैदा किये जा सकते है, ज्‍यादा स्‍वस्‍थ,ज्‍यादा उम्र जीने वाले, प्रतिभा शाली। लेकिन उनके लिए कोई व्‍यवस्‍था देने की जरूरत है।
      परिवार नियोजन,मनुष्‍य के वैज्ञानिक संतति नियोजन का पहला कदम है।
      अभी और कदम उठाने पड़ेंगे, यह तो अभी सिर्फ पहला कदम है। लेकिन पहले कदम से ही क्रांति हो जाती है। वह क्रांति आपके ख्‍याल में नहीं है। वह मैं आपसे कहना चाहूंगा। जो बड़ी क्रांति परिवार नियोजन की व्‍यवस्‍था से हो जाती है। हम पहली बार सेक्‍स को यौन को संतति से तोड़ देते है। अब तक यौन संभोग का अर्थ था—संतति का पैदा होना। अब हम दोनों को तोड़ देते है। अब हम कहते है, संतति को पैदा होने की कोई अनिवार्यता नहीं है।
      यौन और संतति को हम दो हिस्‍सों में तोड़ रहे है—यह बहुत बड़ी क्रांति है।
      इसका मतलब अंतत: यह होगा कि अगर यौन से संतति के पैदा होने की संभावना नहीं है तो कल हम ऐसी संतति को भी पैदा करने की व्‍यवस्‍था करेंगे जिसका हमारे यौन से कोई संबंध न हो—यह दूसरा कदम होगा।
      संतति नियमन का अंतिम परिणाम यह होने वाला है कि हम वीर्य-कणों को सुरक्षित रखने की व्‍यवस्‍था कर सकेंगे?आइंस्‍टीन का वीर्य कण उपलब्‍ध हो सकता है।
      एक आदमी के पास कितने वीर्य-कण है। कभी आपने सोचा है? एक संभोग में एक आदमी कितने वीर्य कण खोता है?एक संभोग में एक आदमी इतने वीर्य कण खोता है कि उनसे एक करोड़ बच्‍चे पैदा हो सकत है। और एक आदम अंदाजन जिंदगी में चार हजार बार संभोग करता है। याने एक आदम चार हजार करोड़ बच्‍चों को जन्‍म दे सकता है।
      एक आदमी के वीर्य कण अगर संरक्षित हो सकें तो एक आदमी चार करोड़ बच्‍चों का बाप बन सकता है। एक आइंस्‍टीन चार हजार बच्‍चों को जन्‍म दे सकता है। एक बुद्ध चार हजार बच्‍चों को जन्‍म दे सकता है।
      क्‍या ये उचित होगा की हम आदमी की बाबत विचार करे। और हम इस बात की खोज करें? संतति नियमन ने पहली घटना शुरू कर दी, हमने सेक्‍स को तोड़ दिया। अब हम कहते है कि बच्‍चे की फिक्र छोड़ दो संभोग किया जा सकता है। संभोग का सुख लिया जा सकता है। बच्‍चे की चिंता की कोई जरूरत नहीं है। जैसे ही यह बात स्‍थापित हो जायेगी। दूसरी कदम भी उठाया जा सकता है।
      और वह यह कि—अब जिससे संभोग करते हों, उससे ही बच्‍चा पैदा हो, तुम्‍हारे ही संभोग से बच्‍चा पैदा हो, यह भी अवैज्ञानिक है।
      और अच्‍छी व्‍यवस्‍था की जा सकती है, और वीर्य-कण उपलब्‍ध किया जा सकता है। वैज्ञानिक व्‍यवस्‍था की जा सकती है। और तुम्‍हें वीर्य कण मिल सकता है। चूंकि अब तक हम उसको सुरक्षित नहीं रख सकते थे। अब तो उसको सुरक्षित रखा जा सकता है। अब जरूरी नहीं कि आप जिंदा हों, तभी आपका बेटा पैदा हो। आपके मरने के 50 साल बाद भी आपका बेटा पैदा हो सकता है।
      इसलिए यह जल्‍दी करने की जरूरत नहीं है कि मेरा बेटा मेरे जिंदा रहने में ही पैदा हो जाये। वह बाद में 10 हजार साल बाद भी पैदा हो सकता है। अगर मनुष्‍यों ने समझा कि आपका बेटा पैदा करना जरूरी है। तो वह आपके लिए सुरक्षा कर सकता है।
      आपका बच्‍चा कभी भी पैदा हो सकता है। अब बाप और बेटे का अनिवार्य संबंध उस हालत में नहीं रह जायेगा। जिस हालत में अब तक था, वह टूट जायेगा।
      एक क्रांति हो रही है। लेकिन इस देश में हमारे पास समझ बहुत कम है। अभी तो हम संतति नियमन को ही नहीं समझ पा रहे है। यह पहला कदम है, यह सेक्‍स मारेलिटी के संबंध में पहला कदम है। और एक दफा सेक्‍स की पुरानी आदत, पुरानी नीति टूट जाये तो इतनी क्रांति होगी कि जिसका हिसाब लगाना मुश्‍किल है। क्‍योंकि हमें पता भी नहीं कि जो भी हमारी नीति है वह किसी पुरानी यौन व्‍यवस्‍था से संबंधित है। यौन व्‍यवस्‍था पूरी तरह टूट जाये तो पूरी नीति बदल जाती है।
      धर्म-गुरु इसलिए भी डरा हुआ है। गांधी जी और विनोबा जी इसलिए भी डरे हुए है कि अगर यह कदम उठाया गया तो यह पुरानी नैतिक व्‍यवस्‍था को तोड़ देगा। नयी निति विकसित हो जायेगी। क्‍योंकि पुरानी नीति का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।
      अब तक स्‍त्री को निरंतर दबाया जा सकता था। पुरूष अपने सेक्‍स के संबंध में स्‍वतंत्रता बरत सकता है। क्‍योंकि उसको पकड़ना मुश्‍किल है।
      इसलिए, पुरूष ने ऐसी व्‍यवस्‍था बनायी था, जिसमे स्‍त्री की पवित्रता और अपनी स्‍वतंत्रता का पूरा इंतजाम रखा था। इसलिए स्‍त्री को सती होना पड़ता था, पुरूष को नहीं।
      इसलिए स्‍त्री के कुँवारे रहने पर भारी बल था, पुरूष के कुँवारे रहने की कोई चिंता न थी। इस लिए अब भी माताएं ओर स्‍त्रियां कहती है। कि लड़के तो लड़के है, लेकिन लड़कियों के संबंध में हिसाब अलग है।
      अगर संतति नियमन की बात पूरी होगी। होनी ही पड़ेगी। तो लड़कियां भी लड़कों जैसी मुक्‍त हो जायेगी।  उनको फिर बांधने और दबाने का उपाय नहीं रहेगा। लड़कियां उपद्रव में पड़ सकती थीं,क्‍योंकि उनको गर्भ रह जा सकता है। पुरूष उपद्रव में नहीं पड़ता था, क्‍योंकि उसको गर्भ का कोई डर नहीं है।
      नई व्‍यवस्‍था ने लड़कियों को भी लड़कों की स्‍थिति में खड़ा कर दिया है। पहली दफा स्‍त्री और पुरूष की समानता  सिद्ध हो सकेगी। अब तक सिद्ध ने हो सकती थी। चाहे हम कितना भी चिल्‍लाते कि स्‍त्रियों और पुरूष समान है। वे इसलिए समान नहीं हो सकते थे। क्‍योंकि पुरूष स्‍वतंत्रता बरत सकता था। पकड़ा जाने के भय से स्‍त्री स्‍वतंत्रता नहीं बरत सकती थी।
      विज्ञान की व्‍यवस्‍था ने स्‍त्री को पुरूष के निकट खड़ा कर दिया है। अब वे दोनों बराबर स्‍वतंत्र है। अगर पवित्रता निश्‍चित करनी है, तो दोनों को ही निश्‍चित करनी पड़ेगी। अगर स्‍वतंत्रता तय करनी है, तो दोनों समान रूप सक स्‍वतंत्र होगें।
      बर्थ-कंट्रोल, संतति नियमन के कृत्रिम साधन स्‍त्री को पहली बार पुरूष के निकट बिठाते है। बुद्ध नहीं बिठा सके, महावीर नहीं बिठा सके। अब तक दुनियां में कोई महापुरुष नहीं बिठा सका।
      उन्‍होंने कहा, दोनों बराबर हे। लेकिन वे बराबर हो नहीं सके। क्‍योंकि उनकी एन टॉमी,उनकी शरीर की व्‍यवस्‍था खास कर गर्भ की व्‍यवस्‍था कठिनाई में डाल देती थी। स्‍त्री कभी भी पुरूष की तरह स्‍वतंत्र नहीं हो सकती थी। आज पहली दफा स्‍त्री भी स्‍वतंत्र हो सकती है। अब इसके दो मतलब होंगे—या तो स्‍त्री स्‍वतंत्र की जाये या पुरूष की अब तक की स्‍वतंत्रता पर पुनर्विचार किया जाये।
      अब सारी नीति को बदलना पड़ेगा। इसलिए धर्म-गुरु परेशान है। अब मनु की नीति को बदलना पड़ेगा। इस लिए धर्म गुरु परेशान है। अब मनु की नीति नहीं चलेगी, क्‍योंकि सारी व्‍यवस्‍था बदल जायेगी और इसलिए उनकी घबराहट स्‍वाभाविक है।
      लेकिन, बुद्धिमान लोगों को समझ लेना चाहिए कि उनकी घबराहट,उनकी नीति को बचाने के लिए मनुष्‍यता की हत्‍या नहीं की जा सकती। उनकी नीति जाती हो कल, तो आज चली जाये। लेकिन मनुष्‍यता को बचाना ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है और ज्‍यादा जरूरी है। मनुष्‍य रहेगा तो हम नयी नीति खोज लेंगे,और अगर मनुष्‍यता न रही तो मनु की याज्ञवल्‍क्‍य की किताबें सड़ जायेगी। और गल जायेगी तथा नष्‍ट हो जायेगी। उनको कोई बचा नहीं सकता।
      मैं परिवार नियोजन में मनुष्‍य के लिए भविष्‍य में बड़ी क्रांति की संभावनाएं देखता हूं।
      इतना ही नहीं कि आप दो बच्‍चों पर रोक लेंगे अपने को, बल्‍कि अगर परिवार नियोजन की स्‍वीकृति उसका पूरा दर्शन हमारे ख्‍याल में आ जाये तो मनुष्‍य की पूरी नीति  पूरा धर्म, अंतत: परिवार की पूरी व्‍यवस्‍था और अंतिम रूप से परिवार का पूरा ढांचा बदल जाएगा। कभी छोटी चीजें सब बदल देती है। जिनका हमें ख्‍याल नहीं होता।
      मैं परिवार नियोजन और कृत्रिम साधनों के पक्ष में हूं, क्‍योंकि मैं अनंत: जीवन को चारों तरफ से क्रांति से गुजरा हुआ देखना चाहता हूं।
      चीन से एक आदमी  ने जर्मनी के एक विचारक को एक छोटी सी पेटी भेजी। लकड़ी की पेटी,बहुत खूबसूरत खुदाई थी उस पेटी पर। अपने मित्र को वह पेटी भेजी और लिखा कि मेरी एक शर्त है उसको ध्‍यान में रखना, इस पेटी का मुंह हमेशा पूर्व की तरफ रखना। क्‍योंकि यह पेटी हजार वर्ष पुरानी है और जिन-जिन लोगों के हाथ में गई है, यह शर्त उनके साथ रही है कि इसका मुंह पूर्व की तरफ रहे, यह इसे बनाने वाले की इच्‍छा है। अब तक पूरी की गई थी। इस का ध्‍यान रखना।
      उसके मित्र ने लिख भेजा कि चाहे कुछ भी हो, वह पेटी का मुंह पूर्व की तरफ रखेगा। इसमें कठिनाई क्‍या हैलेकिन पेटी इतनी खूबसूरत थी कि जब उसने अपने बैठक खाने में पेटी का मुंह पूर्व की और करके रखा तो देखा कि पूरा बैठक खाना बेमेल हो गया। उसे पूरे बैठक खाने को बदलना पड़ा,फिर से आयोजितकरना पड़ा, सोफा बदलने पड़े,टेबल बदलने पड़े, फोटो बदलनी पड़ी। तो उसे हैरानी हुई कि कमरे के जो दरवाजे खिड़कियाँ थी। वे बेमेल हो गई। पर उसके पक्‍का आश्‍वासन दिया था तो उसने खिड़की दरवाजे भी बदल डाले। लेकिन वह कमरा अब पूरे मकान में बेमेल हो गया। तो उसने पूरा मकान बदल लिया। आश्‍वासन दिया था। तो उसे पूरा करना था। तब उसने पाया कि उसका बग़ीचा, बाहर का दृश्‍य फूल सब बेमेल हो गये। तब उसको उन सब को बदलना पडा।
      फिर भी उसने अपने मित्र को लिखा कि मेरा घर मेरी बस्‍ती में बेमेल हुआ जा रहा है। इसलिए मैं बड़ी मुश्‍किल में पड़ गया हूं। अपने घर तक तो बदल सकता हूं, लेकिन पूरे गांव को कैसे बदलूंगा और गांव को बदलूंगा तो शायद वह सारी दुनिया बेमेल हो जाए। तो बड़ी मुश्‍किल हो जायेगी।   
      यह घटना बताती है कि एक छोटी सी बदलाहट अंतत: सब चीजों को बदल देती है।
      धर्म गुरु का डरना ठीक है, वह डरा हुआ है। उसके कारण है। उसे अचेतन में यह बोध हो रहा है कि अगर संतति नियमन और परिवार नियोजन की व्‍यवस्‍था आ गई तो अब तक की परिवार की धारणा नीति सब बदल जायेगी।
      और मैं क्‍यों पक्ष में हूं? क्‍योंकि मैं चाहता हूं कि वह जितनी जल्‍दी बदले, उतना ही अच्‍छा है। आदमी ने बहुत दुःख झेले लिए पुरानी व्‍यवस्‍था से, उसे नयी व्‍यवस्‍था चाहिए। जरूरी नहीं कि नयी व्‍यवस्‍था सुख ही लायेगी। लेकिन कम से कम पुराना दुःख तो न होगा। दुःख भी होगें तो नये होगें। और जो नये दुःख खोज सकता है, वह नये सुख भी खोज सकता है।
      असल में नये की खोज की हिम्‍मत जुटानी जरूरी है। पूरे मनुष्‍य को नया करना है। और परिवार नियोजन और संतति नियमन केंद्रिय बन सकता है। क्‍योंकि सेक्‍स मनुष्‍य के जीवन में केंद्रिय है। हम उसकी बात करें या न करें। हम उसकी चर्चा करें या न करें, सेक्‍स मनुष्‍य के जीवन में केंद्रिय तत्‍व है। अगर उसमे कोई भी बदलाहट होती है तो हमारा पूरा धर्म पूरी नीति सब बदल जायेगी। वे बदल जानी ही चाहिए।
      मनुष्‍य के भोजन निवास भविष्‍य की समस्‍याएं ही इससे बंधी नहीं है, मनुष्‍य की आत्‍मा मनुष्‍य की नैतिकता मनुष्‍य के भविष्‍य का धर्म मनुष्‍य के भविष्‍य का परमात्‍मा भी इस बात पर निर्भर है कि हम अपने यौन के संबंध में क्‍या दृष्‍टि कोण अख्तियार करते है।

प्रश्‍नकर्ता: भगवान श्री, परिवार नियोजन के बारे में अनेक लोग प्रश्‍न करते है कि परिवार द्वारा अपने बच्‍चों की संख्‍या कम करना धर्म के खिलाफ है। क्‍योंकि उनका कहना है कि बच्‍चे तो ईश्‍वर की देन है, और खिलाने वाला परमात्‍मा है। हम कौन हैहम तो सिर्फ जरिया है, इंस्टूरूमेंट है। हम तो सिर्फ बीच में इंस्‍टुमेंट है,जिसके ज़रिये ईश्‍वर खिलाता है। देने वाला वह, करने वाला वह, फिर हम क्‍यों रोक डालें? अगर हमको ईश्‍वर ने दस बच्‍चे दिये तो दसों को खिलाने का प्रबंध भी तो वहीं करेगा। इस संबंध में आपका क्‍या विचार है?    

     भगवान श्री: सबसे पहले तो धर्म क्‍या है इस संबंध में थोड़ा सी बात समझ लेनी चाहिए।
      धर्म है मनुष्‍य को अधिकतम आनंद, मंगल और सुख देने की कला।
      मनुष्‍य कैसे अधिकतम रूप में मंगल और सुख को उपलब्‍ध हो, इसका विज्ञान ही धर्म है।
      तो, धर्म ऐसी किसी बात की सलाह नहीं दे सकता, जिससे मनुष्‍य के जीवन में सुख की कमी हो। परमात्‍मा भी वह नहीं चाह सकता, जिससे कि मनुष्‍य का दुःख बढ़े, परमात्‍मा भी चाहेगा कि मनुष्‍य का आनंद बढ़े। लेकिन परमात्‍मा मनुष्‍य को परतंत्र भी नहीं करता क्‍योंक्‍योंकि परतंत्रता भी दुःख है। इसलिए परमात्‍मा ने मनुष्‍य को पूरी तरह स्‍वतंत्र छोड़ा है। और स्‍वतंत्रता में अनिवार्य रूप से यह भी सम्‍मिलित है कि मनुष्‍य चाहे तो अपने लिए दुःख निर्माण कर ले, तो परमात्‍मा रोकेगा नहीं।
      हम अपना दुःख भी बना सकते है, और सुख भी। हम आनंदमय हो सकते है और परेशान भी। यह सारी स्‍वतंत्रता मनुष्‍य को है। इसलिए यदि हम दुःखी होते है, तो परमात्‍मा जिम्‍मेदार नहीं है। उस दुःख के कारण हमें खोजने पड़ेंगे और बदलने पड़ेंगे।
      मनुष्‍य ने दुःख के कारण बदलने में बहुत विकास किया है। एक बड़ा दुःख था जगत में कि मृत्‍यु की दर बहुत ज्‍यादा थी। दस बच्‍चे पैदा होते थे तो नौ बच्‍चे मर जाते थे। खुद का मरना भी शायद दुखद न होगा। जितना दस बच्‍चो का पैदा होना और नौ कर मर जाना। तो मां बाप बच्‍चों के जन्‍म की करीब-करीब खुशी ही नहीं मना पाते,मरने का दुःख मनाते ही जिंदगी बीत जाती थी।
      तो मनुष्‍य ने निरंतर खोज की और अब यह हालत आ गई है कि दस बच्‍चों में से नौ बच सकते है। और कल दस बच्‍चे भी बचाये जा सकते है। दस बच्‍चे में से नौ बच्‍चे मरते थे तो एक आदमी को अगर तीन बच्‍चे बचाना हो तो कम से कम औसतन तीस बच्‍चे पैदा करने होते थे। तब तीस बच्‍चे पैदा होते तो तीन बच्‍चे बचते थे।
      अब मनुष्‍य ने खोज कर ली है नियमों की और वह इस जगह पहुंच गया है कि दस बच्‍चों में से नौ बच्‍चे जिन्‍दा रहेंगे;दस भी जिंदा रह सकते है। लेकिन, आदत उसकी पुरानी पड़ी हुई है—तीस बच्‍चे पैदा करने की।
      आज परिवार नियोजन जो कह रहा है ‘’दो या तीन बच्‍चे बस’’ यह कोई नई बात नहीं है। इतने बच्‍चे तब भी थे। इससे ज्‍यादा तो कभी होते ही नहीं थे। औसत तो यहीं था, तीन बच्‍चों का। और 27 बच्‍चे मर जाते थे। फिर 27 बच्‍चों के मर जाने से तीन का सुख भी समाप्‍त हो जाता था। तो हमने व्‍यवस्‍था कर ली कि हमने मृत्‍यु दर को कम कर लिया। वह भी हमने परमात्‍मा के नियमों को खोज कर किया। वे नियम भी कोई आदमी के बनाये नियम नहीं है। अगर बच्‍चे मर जाते थे तो वे भी हमारे नियम की नासमझी के कारण मरते थे। हमने नियम खोज लिया है। बच्‍चे ज्‍यादा बचा लेते है। बच्‍चे जब हम ज्‍यादा बचा लेते है तो सवाल खड़ा हुआ कि इतने बच्‍चों के लिए इस पृथ्‍वी पर सुख की व्‍यवस्‍था हम कर पायेंगेइतने बच्‍चों के लिए सुख की व्‍यवस्‍था इस पृथ्‍वी पर नहीं की जा सकती।
      बुद्ध के समय में हिंदुस्‍तान की आबादी दो करोड़ थी। आज हिंदुस्‍तान की आबादी 50 करोड़ के ऊपर है। जहां दो करोड़ खुशहाल हो सकते थे वहां, 50 करोड़ लोग कीड़े मकोड़ों की तरह मरने लगेंगे। और परेशान होने लगेंगे। क्‍योंकि जमीन नहीं बढ़ती। जमीन के उत्‍पादन की क्षमता नहीं बढ़ती। आज पृथ्‍वी पर साढ़े तीन खरब लोग है, यह संख्‍या इतनी ज्‍यादा है कि पृथ्‍वी संपन्‍न नहीं हो सकती। इतनी संख्‍या के होते हुए भी हमने मृत्‍यु दर रो ली है। उस वक्‍त हमने न कहां की भगवान चाहता है कि दस बच्‍चे पैदा हो और नौ मर जाये। अगर हम उस वक्‍त कहते तो भी ठीक था। उस वक्‍त हम राज़ी हो गये। लेकिन अब हम कहते है कि हम बच्‍चे पैदा करेंगे, क्‍योंकि भगवान दस बच्‍चे देता है। यह तर्क बेईमान तर्क है। इसका भगवान से धर्म से कोई संबंध नहीं है। जब हम दस बच्‍चे पैदा कर के नौ मारते थे। तब भी हमें यहीं कहना चाहिए था। हम न बचायेंगे। हम दवा न करेंगे। हम इलाज न करेंगे। हम चिकित्‍सा की व्‍यवस्‍था न करेंगे।
      चिकित्‍सा की व्‍यवस्‍था इलाज,दवाएं सबकी खोज हमने की, जो कि बिलकुल उचित ही है और इसको निश्‍चित ही भगवान आशीर्वाद देगा। क्‍योंकि भगवान बीमारी का आशीर्वाद देता हो, और इतने बच्‍चे पैदा हों और उनमें अधिकतम मर जायें। इसके लिए उसका आशीर्वाद हो, ऐसी बात जो लोग कहते है, वे धार्मिक नहीं हो सकते। वे तो भगवान को भी क्रूर,हत्‍यारा और बुरा सिद्ध कर देते है।
      अगर बच्‍चे मरते थे तो हमारी नासमझी थी। अब हमने समझ बढ़ा ली, अब बच्‍चे बचेंगे। अब हमें दूसरी समझ बढ़ानी पड़ेगी कि कितने बच्‍चे पैदा करें। मृत्‍यु दर जब हमने कम कर ली तो हमें जन्‍म दर भी कर करनी पड़ेगी, अन्‍यथा नौ बच्‍चों के मरने से जितना दुःख होता था, दस बच्‍चों के बचने से उससे कई गुणा ज्‍यादा दुख जमीन पर पैदा हो जायेगा।
      आदमी स्‍वतंत्र है अपने दुःख और सुख के लिए।  
      वह आदमी की बुद्धिमत्ता पर निर्भर है कि वह कितना सुख अर्जित करे या कितना दुःख अर्जित करे।
      तो अब जरूरी हो गया है कि हम कम बच्‍चे पैदा करे। ताकि अनुपात वही रहे जो की पृथ्‍वी संभाल सकती है।
      और बड़े मजे की बात है कि हम भगवान का नाम लेते है तो यह भूल जाते है कि अगर भगवान बच्‍चे पैदा कर रहा है तो बच्‍चों को रोकने की जो कल्‍पना, जो ख्‍याल पैदा हो रहा है, वह कौन पैदा कर रहा है। अगर डाक्‍टर के भीतर से भगवान बच्‍चे को बचा रहा है तो डाक्‍टर के भीतर से उन बच्‍चों को आने से रोक भी रहा है। जो की पृथ्‍वी को कष्‍ट में दुख में डाल देंगे।
      अगर सभी कुछ भगवान का है तो यह परिवार नियोजन का ख्‍याल भी भगवान का ही है।
      और मनुष्‍य की यह आकांशा कह हम अधिकतम सुखी हों, यह भी इच्‍छा भगवान की ही है।
      अधिकतम सुख चाहिए तो परिवार का नियमन चाहिए।
      परिवार नियोजन का और कोई अर्थ नहीं है—इसका अर्थ इतना ही है कि पृथ्‍वी कितने लोगों को सुख दे सकती है। भोजन दे सकती है। उससे ज्‍यादा लोगों को पृथ्‍वी पर खड़े करना, अपने हाथ से पृथ्‍वी को नरक बनाना है।
      पृथ्‍वी स्‍वर्ग बन सकती है, नरक बन सकती है—और यह आदमी के हाथ में है।
      जब तक आदमी ना समझ था तो प्रकृति की अंधी शक्‍तियां काम करती थी। बच्‍चे कितने ही पैदा कर लो, मर जाते थे। बीमारी आती थी, महामारी आती थी। प्‍लेग आता था, मलेरिया आता था, और बच्‍चे विदा हो जाते थे। युद्ध होता। आकाल पड़ता भूकम्‍प होते और बच्‍चे विदा हो जाते थे।
      मनुष्‍य ने प्रकृति की ये सारी विध्‍वंसक शक्‍तियां पर बहुत दूर तक कब्‍जा पा लिया है। प्‍लेग नहीं होगा, महामारी नहीं होगी, मलेरिया नहीं होगा, माता नहीं होगी, आकाल नहीं होगा, और बच्‍चे मरने नहीं देंगे। पिछला अकाल जो बिहार में पडा उसमें अनुमान था कि कोई दो करोड़ लोगों की मृत्‍यु हो जायेगी;लेकिन मरे केवल 40 आदमी। तो आकार भी जिन लोगों को मार सकता था उनको भी हमने सब भांति बचा लिया।
      तो हमने प्रकृति की विध्‍वंसक शक्‍ति पर तो रोक लगा दि और उसकी सृजनात्‍मक शक्ति पर अगर हम उसी अनुपात में रोक न लगाये तो हम प्रकृति का संतुलन नष्‍ट करने वाले सिद्ध होंगे।
      परमात्‍मा के खिलाफ कोई काम हो सकता है तो यह है प्रकृति का संतुलन नष्‍ट हो जाये। तो, जो लोग आज संख्‍या बढ़ा रहे है, जमीन की क्षमता से ज्‍यादा वे लोग परमात्‍मा के खिलाफ काम कर रहे है। क्‍योंकि परमात्‍मा का संतुलन बिगड़ने दे रहे है।    
      प्रकृति का संतुलन बचेगा,अगर प्रकृति की सृजनात्मक शक्‍तियों पर भी उसी अनुपात में रोक लगा दें, जिस अनुपात में विध्‍वंसक शक्‍तियों पर रोक लगा दी है। तो अनुपात वही होगा। और यह सुखद है बजाय इसके कि बच्‍चे पैदा हो और मरे बीमारी में, आकाल में, भूकम्प में, युद्ध में, इससे ज्‍यादा उचित है कि वे पैदा ही न हो। क्‍योंकि पैदा होने के बाद मरना, मारना मरने देना अत्‍यन्‍त दुखद है। न पैदा कना कतई दुखद नहीं है।
      इसलिए मैं यह कतई नहीं मानता हूं कि परिवार नियोजन कोई परमात्‍मा के खिलाफ बात है।
      बल्‍कि मैं तो मानता हूं कि इस वक्‍त जिनके भीतर से परमात्‍मा थोड़ी बहुत आवाज दे रहा है, वे यह कहेंगे कि परिवार नियोजन परमात्‍मा का काम है।
      निश्‍चित ही परमात्‍मा का काम हर युग में बदल जाता है। क्‍योंकि कल जो परमात्‍मा का काम था, जरूरी नहीं कि वह आज भी वहीं हो। युग बदलता है परिस्‍थिति बदल जाती है। तो काम भी बदल जाता है।
      अब सारी परिस्‍थितियां बदल गई है। और आदमी के हाथ में इतनी शक्‍तिआं गयी है कि वह पृथ्‍वी को अत्‍यंत आनंदपूर्ण बना सकता है।
      सिर्फ एक चीज की रूकावट हो गयी है कि संख्‍या अत्‍यधिक हो गयी है। तो पृथ्‍वी नष्‍ट हो जायेगी। और बहुत से प्राणी भी अपनी बहुत संख्‍या करके मर चुके है, आज उनका अवशेष भी नहीं मिलता। मनुष्‍य भी मर सकता है।
      इस समय वहीं मनुष्‍य धार्मिक है, जो मनुष्‍य की संख्‍या कम करने में सहयोगी हो रहा है।
      इस समय परमात्‍मा की दिशा में और मनुष्‍य की सेवा की दिशा में इससे बड़ा कोई कदम नहीं हो सकता है। इसलिए धार्मिक चित तो यही कहेगा। कि परिवार नियोजन हो।
      हां, यह हो सकता है। हम इसे बेईमान लोग है कि जो हमें करना होता है, उसके लिए हम भगवान का सहारा खोज लेते है। और जो हमें नहीं करना होता, उसके लिए हम भगवान के सहारे की बात नहीं करते। जब हमें बीमारी होती है तब हम अस्‍पताल जाते है; तब हम यह नहीं कहते की बीमारी भगवान ने भेजी है। कैंसर टी.बी भगवान ने भेजे है। तब हम डाक्‍टर को खोजते है। और जब डाक्‍टर हमें खोजता हुआ आता है और कहता है इतने बच्‍चे नहीं, तब हम कहते है कि ये तो भगवान के भेजे हुए है।
      तो, हमें इन दो में से कुछ एक तय करना होगा कि बीमारी भी भगवान की भेजी हुई है—मलेरिया भी, प्‍लेग भी, आकाल भी, तब हमें इनमें मरने के लिए तैयार होना चाहिए। और अगर हम कहते है कि भगवान के भेजे हुए नहीं है। हम इनसे लड़ेंगे तो फिर हमें निर्णय लेना होगा कि फिर बच्‍चे भी जो हम कहते है भगवान के भेजे है, उन पर हमें नियंत्रण करना जरूरी है।
      मुझे एक घटना याद है।    
      इथोपिया में बड़ी संख्‍या में बच्‍चे मर जाते है। तो इथोपिया के सम्राट ने एक अमेरिकन डॉक्टरों के मिशन को बुलाया और जांच पड़ताल करवाई कि क्‍या कारण है। तो पता चला कि इथोपिया में जो पानी पीने की व्‍यवस्‍था है, वह गंदी है। और पानी जो है, वे रोगाणुओं से भरा है। और लोग सड़क के किनारे के गंदे डबरों का ही पानी पीते रहते है। उसी में सब मल मूत्र भी बहता रहता है। और लोग उसी का पानी पीते है। वहीं उनकी बीमारियों और मृत्‍यु का बड़ा कारण है। साल भर मेहनत के बाद उनके मिशन ने रिपोट दी और सम्राट को कहा कि पानी पीने की यह व्‍यवस्‍था बंद करवाईये, सड़क के किनारे के गड्ढों का पानी बंद करवाईये और पानी की कोई नयी वैज्ञानिक व्‍यवस्‍था करवाईये।
            तो इथोपिया के सम्राट ने कहा कि मैंने समझ ली आपकी बातें और कारण भी समझ लिया; लेकिन मैं ये नहीं करूंगा। क्‍योंकि आज अगर हम यह इंतजाम कर लें, आदमियों को बीमारी से बचाने का, तो फिर कल इन्‍हीं लोगों को समझाना मुश्‍किल होगा कि परिवार नियोजन करो। इथोपिया के सम्राट ने कहा यह दोहरा झंझट हम न लेंगे। पहले हम इनको यह समझायें कि तुम गंदा पानी मत पीओ। इसमे झंझट झगड़ा होगा। बामुश्‍किल बहुत खर्च करके हम इनको राजी कर पायेंगे। तब जनसंख्‍या बढ़ेगी। तब हम इन्‍हें समझायें गे दुबारा कि तुम बच्‍चे कम पैदा करो। तब उसने कहा, इससे यह जो हो रहा है, वहीं ठीक हो रहा है।
      मैं भी समझता हूं कि यदि भगवान पर छोड़ना है तो फिर इथोपिया का सम्राट ठीक कहता है। तो फिर हमें भी इसी के लिए राज़ी होना चाहिए। अस्‍पताल बंद, लोग गंदा पानी पिये, बीमारी में रहें—फिर हम सब भगवान पर छोड़ दे—जितने जियें। इतना जरूर कहे देता हूं कि भगवान के हाथ में छोड़कर इतने आदमी दुनिया में कभी न बचे थे। जितने आदमी ने अपने हाथ में लेकर बचाये। इतने आदमी भगवान के हाथ में बचते।
      इसलिए जब हमने विध्‍वंस की शक्‍तियों पर रोक लगा दी तो हमें सृजन की शक्‍तियों पर भी रोक लगाने की तैयारी दिखानी चाहिए। और इस तैयारी में परमात्‍मा का कोई विरोध नहीं हो रहा है। और न इसमें कोई धर्म का विरोध हो रहा है। क्‍योंकि धर्म है ही इसी लिए कि मनुष्‍य अधिकतम सुखी कैसे हो इसका इंतजाम इसकी व्‍यवस्‍था करनी है।

प्रश्‍न कर्ता: भगवान श्री, एक और प्रश्‍न है कि परिवार नियोजन जैसा अभी चल रहा है उसमें हम देखते है कि हिन्‍दू ही उसका प्रयोग कर रहे है, और बाकी और धर्मों के लोग ईसाई, मुस्‍लिम, ये सब कम ही उपयोग कर रहे है। तो ऐसा हो सकता है कि उनकी संख्‍या थोड़े वर्षों के बाद इतनी बढ़ जाये कि एक और पाकिस्‍तान मांग लें और तुर्किस्‍तान मांग लें और कुछ ऐसी मुश्‍किलें खड़ी हो जायें। फिर पाकिस्‍तान या चीन है, जहां जनसंख्‍या पर रूकावट नहीं है। तो उसमें  अधिक लोग हो जायेंगे और पर हमला करने की चेष्‍टा रखते है। तो हमारी जनसंख्‍या कम होने से हमारी ताकत कम हो जाय। तो इसके बारे में आपके क्‍या ख्‍याल है?
    
भगवान श्री: इस संबंध में दो तीन बातें ख्‍याल में रखने की है।
      पहली बात तो यह कि आज के वैज्ञानिक युग में जनसंख्‍या का कम होना, शक्‍ति का कम होना नहीं है। हालतें उल्‍टी है,हाल तो यह है कि जिस मुल्‍क की जनसंख्‍या जितनी ज्‍यादा है, या टेकांलॉजिकल दृष्‍टि से कमजोर है। क्‍योंकि इतनी बड़ी जनसंख्‍या के पालन-पोषण में, व्‍यवस्‍था में उसके पास अतिरिक्‍त सम्‍पति बचने वाली नहीं है। जिससे वह एटम बम बनाये,हाइड्रोजन बम बनाये, सुपर बन बनाये, और चाँद पर जाये। जितना गरीब देश होगा आज वह उतना ही वैज्ञानिक दृष्‍टि से शक्‍तिहीन देश है।
      आज तो वहीं देश शक्‍ति शाली होगा, जिसके पास ज्‍यादा संपति है, ज्‍यादा व्‍यक्‍ति नहीं।
      वह जमाना गया, जब आदमी ताकतवर था, अब मशीन ताकतवर है। और मशीन उसी देश के पास अच्छी से अच्‍छी हो सकेगी, जिस देश के पास जितनी सम्पन्नता होगी और सम्पन्नता उसी देश के पास ज्‍यादा होगी, जिसके पास प्राकृतिक साधन ज्‍यादा और जनसंख्‍या कम होगी।
      तो पहली बात यह है कि आज जनसंख्‍या शक्‍ति नहीं है और इसलिए भ्रांति में पड़ने का कोई कारण नहीं है। चीन के पास चाहे जितनी जनसंख्‍या हो तो भी शक्‍तिशाली अमेरिका होगा। चीन के पास जितनी भी जनसंख्‍या हो तो भी छोटा सा मुल्‍क इंगलैंड शक्‍तिशाली है। और जापन जैसा मुल्‍क भी शक्‍ति शाली है। शक्‍ति का पूरा का पूरा आधार बदल गया है।
      जब आदमी ही एक मात्र आधार था, तब तो ये बातें ठीक थी कि जनसंख्‍या बड़ा मूल्‍य रखती थी। लेकिन अब आदमी से भी बड़ी शक्‍ति हमने पैदा कर ली है, जो मशीन की है। मशीन ताकत है। और उतना ही सम्‍पन्‍न हो सकता है। जितना ज्‍यादा जनसंख्‍या उसकी कम हो, ताकि उसके पास सम्‍पति बच सके, लोगों को खिलाने कपड़ा पहिनानेइलाज कराने के बाद; ताकि उस शक्‍ति को वैज्ञानिक विकास में लगा सकें।
      दूसरी बात यह समझने जैसी है कि संख्‍या कम होने से उतना बड़ा दुर्भाग्‍य नहीं टूटेगा, जितना बड़ा दुर्भाग्‍य संख्‍या के बढ़ जाने से बिना किसी हमले के टूट जायेगा। यानी हमले का तो कोई उपाय भी किया जा सकता है कि कोई बड़ा मुल्‍क हम पर हमला करे तो हम दूसरों से सहायता ले लें, लेकिन हमारे ही बच्‍चे हमलावर सिद्ध हो जायें संख्‍या के अत्‍यधिक बढ़ जाने के कारण तो हम किसी की सहायता न ले सकेंगे। उस वक्‍त हम बिलकुल असहाय हो जायेंगे।
      इस वक्‍त युद्ध  इतना बड़ा खतरा नहीं है, जितना बड़ा खतरा जनसंख्‍या विस्‍फोट का है। खतरा बाहर नहीं है कि हमें कोई मार डाले,वरन जो हमारी उत्‍पाद क्षमता है बच्‍चें की, वहीं हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है—कि संख्‍या इतनी ही जाये कि हम सिर्फ मर जाये इस कारण से कि न पानी हो, न भोजन हो, न रहने को जगह।
      तीसरी बात यह कि जो हम सोचते है क हिन्‍दू अपनी संख्‍या कम कर लें तो मुसलमान से कम न हो जायें, तो इस डर से हिंदू भी अपनी संख्‍या कम न करें। मुसलमान भी इस डर से अपनी संख्‍या कम न करें कि कहीं हिन्‍दू ज्‍यादा न हो जायें। ईसाई भी यही डर रखें। जैन भी यहीं डर रखें। तो इन सके डर एक है। तब परिणाम यह होगा कि मुल्‍क ही मर जायेगा। तो यह डर किसी को तो तोड़ना शुरू करना पड़ेगा। और जो समाज इस डर को तोड़ेगा, वह संपन्‍न हो जायेगा। मुसलमानों से उनके बच्‍चे ज्‍यादा स्‍वस्‍थ ज्‍यादा शिक्षित होंगे, ज्‍यादा अच्‍छे मकानों में रहेंगे। वे दूसरे समाजों को जिनकी संख्‍या कीड़े मकोड़ों की तरह बढ़ेगी उनको पीछे छोड़कर आगे निकल जायेंगे। और इसका परिणाम यह भी होगा कि दूसरे समाजों में भी स्‍पर्धा पैदा होगी इस ख्‍याल से कि वे गलती कर रहे है।
      आज दूनिया में यह बड़ा सवाल नहीं है कि हिन्‍दू कम हो गये तो कोई हर्ज हो रहा है। कि मुसलमान ज्‍यादा हो गये तो उनको कोई फायदा हो रहा है। बड़ा सवाल यह है कि अगर इन सारे लोगों के दिमाग में यही सवाल भरा रहे तो यह पूरा मुल्‍क मर जायेगा। मगर यही विकल्‍प है कि हिन्‍दू कम हो जायेंगे और इससे हिन्‍दुओं की संख्‍या को नुकसान पहुँचेगा। मुसलमान ज्‍यादा हो जायेंगे, ईसाई ज्‍यादा हो जायेंगे। तो भी मैं कहूंगा कि हिन्‍दू अपने को कम कर लें और भारत को बचाने का श्रेय ले लें। चाहे खुद मिट जायें। हालांकि इसकी कोई संभावना नहीं है। तो भी मैं कहूंगा कि मेरे लिए यह इतना बड़ा सवाल नहीं है,हिन्‍दू-मुसलमान का, जितना बड़ा मेरे लिए एक दूसरा सवाल है।
      जब तक हम परिवार नियोजन को स्‍वेच्‍छा पर छोड़े हुए है, तब तक खतरा एक दूसरा है कि जो जितना शिक्षित आरे उन्‍नत है, जो जितना संपन्‍न है, जिसकी बुद्धि विकसित है, वह तो राजी हो जाएगा स्‍वभावत। वह तो आज परिवार नियोजन के लिए राज़ी हो जाएगा। सिर्फ बुद्धूओं को छोड़कर। बुद्धिमान तो राज़ी होंगे ही; क्‍योंकि परिवार नियोजन से उसके बच्‍चे ज्‍यादा सुखी होंगे। ज्‍यादा शिक्षित होंगे।
      लेकिन खतरा यह है कि जो बुद्धिहीन वर्ग है—उसको न कोई शिक्षा है, न कोई ज्ञान है, न कोई सवाल है—वे समझ ही न पाये और बच्‍चे पैदा करते चले जायें। तो जो नुकसान हो सकता है लम्‍बे अर्थों में,वह यह हो सकता है वह अशिक्षित,अविकसित,पिछड़े हुए लोग ज्‍यादा बच्‍चे पैदा करें और शिक्षित वह संपन्‍न लोग कम बच्‍चे पैदा करें तो मुल्‍क की प्रतिभा को ज्‍यादा नुकसान पहुंचे। यह हो सकता है।
      इसलिए मेरी यह मान्‍यता है कि परिवार नियोजन की बात धीरे-धीरे अनिवार्य हो जानी चाहिए।
      कहीं ऐसा न हो कि बुद्धिमान तो स्‍वीकार कर लें और गैर-बुद्धिमान न करें,तो वह अनिवार्य होना चाहिए। इसलिए मैं अनिवार्य परिवार नियोजन के पक्ष में हूं।
      परिवार नियोजन किसी का स्‍वेच्‍छा पर नहीं छोड़ा जा सकता है।
      यह तो ऐसा है कि जैसे हम  हत्‍या को स्‍वेच्‍छा पर छोड़ दें कि जिसको करना हो करें, जिनको न करना हो न करें। डाके को स्‍वेच्‍छा पर छोड़ दें कि जिसको डाका डालना हो डाले,न डालना हो न डाले। सरकार समझाने की कोशिश करेगी ओर देखती रहेगी। डाका भी आज उतना खतरनाक नहीं है हत्‍या भी आज उतनी खतरनाक नहीं है जितना जनसंख्‍या का बढ़ना।      
      इस जीवंत सवाल को इस तरह स्‍वेच्‍छा पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। और जब हम इसे स्‍वेच्‍छा पर नहीं छोड़ते तो यह हिन्‍दू, मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं रह जाता। क्‍योंकि सिक्‍ख को उसका गुरु समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे। मुसलमान ज्‍यादा हो जायेंगे। मुसलमान को मौलवी समझा रहा है कि तुम कम हो जाओगे, हिन्‍दू कम ज्‍यादा हो जायेगे। वहीं ईसाई पादरी भी सोच रहा है वही हिन्‍दू पंडित भी सोच रहा है। ये बस जा सोच रहे है इनकी सोचने  की वजह भी अनिवार्य परिवार नियोजन से मिट जायेगी।
      यदि हम परिवार नियोजन कर देते है तो कोई हिन्‍दू, मुसलमान, ईसाई का सवाल नहीं रह जाता है।
      मेरे लिए तो सवाल यह है कि सैकड़ों वर्षों में कुछ लोग विकसित हो गये है और कुछ लोग अविकसित रह गये है। जो अविकसित वर्ग है, वह बच्‍चे ज्‍यादा छोड़ जाये तो देश की प्रतिभा और बुद्धिमत्‍ता को भी भारी नुकसान पहुंच सकता है। और यह नुकसान खतरनाक सिद्ध हो सकता है। इसलिए इस दृष्‍टि से मैं  सारे सवाल को सोचता हूं कि केवल परिवार नियोजन ही न हो,बल्‍कि ऐसा लगता है कि वह अनिवार्य हो। एक भी व्‍यक्‍ति सिर्फ इसलिए न छोड़ा जा सके कि वह राज़ी नहीं है। और यह हमें करना ही पड़ेगा। इसे बिना किये हम इन आने वाले 50 वर्षों में जिन्‍दा नहीं रह सकते।
      शक्‍ति के सारे मापदंड बदल गये है, यह हमें ठीक से समझ लेना चाहिए।
      आज शक्‍तिशाली वह है जो संपन्‍न है और संपन्‍न वह है, जिसके पास जनसंख्‍या कम है और उत्‍पादन के साधन ज्‍यादा है।
      आज मनुष्‍य न तो उत्‍पादन का साधन है। न शक्‍ति का साधन है। आज मनुष्‍य सिर्फ भोक्‍ता है, कन्‍ज्‍यूमर है। मशीन पैदा करती है, जमीन पैदा करती है, मनुष्‍य खा रहा है।
      और धीरे-धीरे जैसे टेक्‍नोलॉजी विकसित होती है, आदमी की शक्‍ति सा सारा मूल्‍य समाप्‍त हुआ जा रहा है। आदमी ने हो तो भी चल सकता है। एक लाख आदमी जिस फैक्‍टरी में काम करते हों, उसे एक आदमी चला सकेगा। न हो तो भी चल सकता है। और हिरोशिमा में एक लाख आदमी मारना हो तो उन्‍हें एक आदमी मार सकेगा। पुराने जमाने में तो कम से कम एक लाख आदमी ले जाने पड़ते। अब तो कोई एक आदमी जाता है और एटम बम गिराकर उनको समाप्‍त कर देता है। कल यह भी हो सकता है कि एक आदमी को भी न जाना पड़े। कम्‍प्‍युटराइज्‍ड आदेश एक आदमी भर देगा मशीन में काम हो जायेगा। आदमी की संख्‍या बिलकुल महत्‍वहीन हो गयी है।
      यह जरूरी नहीं है कि मेरी सारी बातें मान ली जायें। इतना ही काफी है कि आप मेरी बात पर सोचें,विचार करें, अगर इस देश में सोच-विचार आ जाये तो शेष चीजें अपने आप छाया की तरह पीछे चली आयेगी।
      मेरी बातें ख्‍याल में ले और उस पर सूक्ष्‍मता से विचार करें तो हो सकता है कि आपको यह बोध आ जाये कि परिवार नियोजन की अनिवार्यता कोई साधारण बात नहीं है। जिसकी उपेक्षा की जा सके। वह जीवन की अनेक-अनेक समस्‍याओं की गहनत्‍म जड़ों से संबंधित है।  और उसे क्रियान्‍वित करने की देरी पूरी मनुष्‍य जाति के लिए आत्‍म धात सिद्ध हो सकती है।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
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