Monday 19 February 2018

अपनी नियति अपने हाथ में लो

तंत्र-सूत्र--(भाग-4) प्रवचन--58

अपनी नियति अपने हाथ में लो—(प्रवचन—अट्ठावनवां)

प्रश्‍नसार:
1—क्‍या त्‍वरित विधियां स्‍वभाव के, ताओ के विपरीत नहीं है?
2—हम अब तक बुद्धत्‍व को प्राप्‍त क्‍यों नहीं हुए?
3—यदि समग्र बोध और समग्र स्‍वतंत्रता को उपलब्‍ध होकर प्राकृतिक
      विकास के करोड़ो जन्‍मों का टाला जा सकता है, तो क्‍या यह
      तर्क नहीं किया जा सकता है क ऐसा हस्‍तक्षेप नहीं करना चाहिए?
4—क्‍या अकर्म और विस्‍तृत बोध पर्यायवाची है?


पहला प्रश्न:

ये विधियां त्वरित है, क्रांतिकारी हैलेकिन क्या ये ताओ के, स्वभाव के विपरीत नहीं हैं?
ताओ के विपरीत हैंवे स्वभाव के विपरीत हैं। कोई भी प्रयत्न स्वभाव के विपरीत हैप्रयत्न मात्र ताओ के विपरीत है। अगर तुम सब कुछ स्वभाव परताओ पर छोड़ सको तो किसी विधि की जरूरत नहीं है। क्योंकि स्वभाव पर छोड़ना परम विधि है। अगर तुम सब कुछ ताओ पर छोड़ सको तो वही गहनतम समर्पण हैपरम समर्पण हैजो मनुष्य कर सकता है। तुम अपने कोअपने भविष्य कोअपनी संभावनाओं को समर्पित कर रहे हो। तुम सब समय कोसब प्रयत्न को समर्पित कर रहे हो।
इसका अर्थ है अनंत धैर्यअनंत प्रतीक्षा। अगर तुम सब कुछ स्वभाव को समर्पित कर सको तो फिर कोई प्रयत्न नहीं करना हैफिर कुछ नहीं करना है। तब तुम बस नदी की धारा के साथ बहते हो। तब तुम बस उसे होने देते हो जो हैजो होता है। तुम अपने को पूरी तरह छोड़ देते हो। चीजें तुम्हें घटित होती हैंलेकिन तुम उनके लिए प्रयत्न नहीं करते हो। तुम उनकी चाह तक नहीं करते हो। अगर वे होती हैं तो ठीकअगर वे नहीं होती हैं तो भी ठीक। तुम कोई चुनाव नहीं करते हो। जो भी होता है वह होता हैतुम्हारी कोई अपेक्षा नहीं है। और निराशा की तो बात ही नहीं हैजीवन की नदी बहती है और तुम उसके साथ—साथ बहते हो।
तुम्हें किसी मंजिल पर नहीं पहुंचना हैक्योंकि मंजिल के साथ प्रयत्न आ जाता है। तुम्हें कहीं जाना नहीं हैक्योंकि अगर कहीं जाना है तो प्रयत्न आ गयाप्रयत्न उसमें निहित है। तुम्हें कहीं नहीं जाना हैकहीं नहीं पहुंचना है। तुम्हारी कोई मंजिल नहीं हैतुम्हारा कोई आदर्श नहीं हैतुम्हें कुछ पाना भी नहीं है। तुम सब कुछ समर्पित कर देते हो। और समर्पण के इस क्षण में,तत्‍क्षणतुम्हें सब कुछ मिल जाता है।
प्रयत्न समय लेगासमर्पण कोई समय नहीं लेगा। विधि को समय की जरूरत होगीसमर्पण को किसी समय की जरूरत नहीं होगी। यही कारण है कि मैं समर्पण को परम विधि कहता हूं।
समर्पण अ—विधि हैगैर—विधि हैतुम उसका अभ्यास नहीं कर सकते। तुम समर्पण को साध नहीं सकते हो। और अगर तुम साध सकते हो तो वह समर्पण नहीं है। तब तुम्हें अपने करने पर भरोसा हैतब तुम कुछ करने की चेष्टा कर रहे होचाहे वह समर्पण ही क्यों न होतुम कुछ करने की चेष्टा कर रहे हो। तब विधि आ जाएगी। और विधि के साथ समय आ जाता है,भविष्य आ जाता है।
समर्पण समय के बाहर हैवह समयातीत है। अगर तुम समर्पण करते हो तो इसी क्षण तुम समय के बाहर हो गएऔर जो भी हो सकता है वह होगा। लेकिन तब तुम उसकी खोज नहीं कर रहे होउसकी चाह नहीं कर रहे हो। तब तुम्हें उसका लोभ नहीं हैतुम्हें उसकी जरा भी कामना नहीं है। वह हो या न होतुम्हारे लिए एक जैसा है।
ताओ का अर्थ समर्पण है—स्वभाव के प्रति समर्पण। तब तुम नहीं हो।
तंत्र और योग विधियां हैं। उनसे तुम स्वभाव पर पहुंचोगेलेकिन यह लंबी प्रक्रिया होगी। अंततः तो सभी विधियों के बाद तुम्हें समर्पण ही करना होगा। लेकिन विधियों से समर्पण अंत में आता हैताओ में वह आरंभ में ही आ जाता है। अगर तुम अभी समर्पण कर सको तो किसी विधि की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर तुम समर्पण नहीं कर सकते और अगर तुम मुझसे पूछते हो कि समर्पण कैसे किया जाएतो विधि जरूरी है।
कभी—कभार लाखों—करोड़ों में एक व्यक्ति ऐसा होता है जो बिना यह पूछे कि कैसे किया जाए समर्पण कर देता है। अगर तुम पूछते हो कि कैसे किया जाए तो तुम वह व्यक्ति नहीं हो जो समर्पण कर सके। कैसे किया जाए पूछने का अर्थ ही यह है कि तुम विधि मांग रहे हो। ये विधियां उन सबके लिए हैं जो इस 'कैसेसे मुक्त नहीं हो सकतेये विधियां तुम्हें 'कैसे करेंकी बुनियादी चिंता से छुटकारा दिलाने के लिए हैं। अगर तुम पूछे बिना ही समर्पण कर सको तो किसी भी विधि की जरूरत नहीं है।
लेकिन तब तुम यहां मेरे पास नहीं आतेतब तुम किसी भी समय समर्पण कर सकते हो। क्योंकि समर्पण के लिए गुरु जरूरी नहीं है। गुरु तो विधियां ही सिखा सकता है। जब तुम खोजते हो तो तुम विधियां ही खोज रहे हो। प्रत्येक खोज विधियों की खोज है। जब तुम किसी के पास जाते हो और पूछते हो तो तुम विधि पूछ रहे होउपाय पूछ रहे हो। अन्यथा कहीं जाने की जरूरत नहीं है। खोज ही बताती है कि तुम्हें विधि की गहरी जरूरत है। तो ये विधियां तुम्हारे लिए हैं।
और ऐसा नहीं है कि विधियों के बिना यह नहीं घट सकतायह घट सकता हैलेकिन बहुत थोड़े लोगों को घटा है। और उन थोड़े से लोगों को भी वस्तुत: अनायास नहीं घटा हैअपने पिछले जन्मों में उन्होंने विधियों के साथ इतना संघर्ष किया है,उन्होंने विधियों के साथ इतना संघर्ष किया है कि अब वे उनसे थक गए हैंऊब गए हैं। जब तुम बार—बार पूछते हो कि कैसे करेंकैसे करेंतो एक क्षण आता है जब तुम उससे ज्यादा नहीं कर सकते और अंततः यह कैसे अपने आप ही गिर जाता है। तब तुम समर्पण कर सकते हो।
तो विधि की जरूरत है ही। कृष्णमूर्ति हैंवे कह सकते हैं कि किसी विधि की जरूरत नहीं है। लेकिन यह उनका पहला जन्म नहीं हैऔर वे अपने पिछले जन्म में यह नहीं कह सकते थे। इस जन्म में भी उन्हें अनेक विधियां दी गई थीं और उन्होंने उनका प्रयोग किया। तो तुम विधियों के द्वारा उस बिंदु पर पहुंच सकते हो जहां तुम समर्पण कर सको और सभी विधियों को छोड़ कर सहज जीओ—लेकिन वह बिंदु भी विधियों के द्वारा ही आता है।
तो विधि ताओ के विरुद्ध हैक्योंकि तुम ताओ के विरुद्ध हो। तुम्हें संस्कारों से मुक्त करना है। अगर तुम ताओ में हो तो कोई विधि जरूरी नहीं है। अगर तुम स्‍वास्‍थ हो तो औषधि की कोई जरूरत नहीं है। प्रत्येक औषधि स्वास्थ्य के विरुद्ध है। लेकिन तुम बीमार होइसलिए औषधि जरूरी है। यह औषधि तुम्हारी बीमारी को मिटाएगी। यह तुम्हें स्वास्थ्य नहीं दे सकतीलेकिन अगर बीमारी हट गई तो तुम्हें स्वास्थ्य घटित होगा। कोई औषधि तुम्हें स्वास्थ्य नहीं दे सकती हैबुनियादी तौर से प्रत्येक औषधि विष हैजहर है। लेकिन तुमने अपने शरीर में बहुत कुछ विष इकट्ठा कर लिया हैतुम्हें उसका एंटीडोट चाहिए। औषधि संतुलन पैदा करेगी और स्वास्थ्य संभव हो पाएगा।
कोई विधि तुम्हें तुम्हारी भगवत्ता नहीं दे सकतीउससे तुम्हें तुम्हारा स्वभाव नहीं उपलब्ध होगा। तुमने अपने स्वभाव के चारों ओर जो बहुत कुछ इकट्ठा कर लिया हैविधि केवल उसे मिटा देगी। वह सिर्फ तुम्हें संस्कार—शून्य करेगी। तुम संस्कारों में दबे हो और अभी तुम समर्पण में छलांग नहीं लगा सकते। अगर तुम छलांग लगा सको तो अच्छा हैलेकिन तुम यह नहीं कर सकते। तुम्हारे संस्कार पूछेंगे कि कैसेतब विधि सहयोगी होगी।
अगर तुम ताओ में जीते हो तो किसी योग कीतंत्र कीधर्म की जरूरत नहीं है। जब कोई बिलकुल स्वस्थ है तो किसी औषधि की क्या जरूरत हैप्रत्येक धर्म औषधि है। जब संसार पूरी तरह ताओ में जीएगा तो धर्म विदा हो जाएगा। तब किसी गुरु कीकिसी बुद्ध कीकिसी जीसस की जरूरत नहीं होगी। क्योंकि तब प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध होगा या जीसस होगा। लेकिन अभी जैसे तुम होतुम्हें विधियों की जरूरत है। विधियां एंटीडोट हैं।
तुमने अपने चारों ओर एक ऐसा जटिल मन निर्मित कर लिया है कि तुम्हें जो भी कहा जाएजो भी दिया जाएतुम उसे जटिल बना लोगे। तुम उसे और ज्यादा जटिल बना लोगेऔर ज्यादा कठिन बना लोगे।
अगर मैं तुमसे कहूं कि समर्पण करो तो तुम तुरंत पूछोगे कि कैसे करूं। अगर मैं तुमसे कहूं कि विधियों का उपयोग करो तो तुम पूछोगे कि क्या विधियां ताओ के विपरीत नहीं हैं। अगर मैं कहूं कि किसी विधि की जरूरत नहीं हैसिर्फ समर्पण करो और परमात्मा तुम्हें उपलब्ध हो जाएगा तो तुम तुरंत पूछोगे कि समर्पण कैसे करूं।
तुम्हारा मन ही ऐसा है। अगर मैं कहूं कि ताओ यहीं और अभी हैतुम्हें कुछ साधना नहीं हैतुम सिर्फ छलांग लो और समर्पण कर दोतो तुम कहोगे कि मैं समर्पण कैसे करूंऔर अगर मैं तुम्हारे कैसे के उत्तर में तुम्हें कोई विधि दूं, तो तुम्हारा मन कहेगा कि क्या विधि या उपाय स्वभाव केताओ के प्रतिकूल नहीं हैअगर भगवत्ता मेरा स्वभाव है तो वह विधि से कैसे उपलब्ध हो सकती हैअगर वह है ही तो विधि व्यर्थ हैनिरर्थक है। फिर विधियों में समय क्यों गंवाया जाएअपने इस मन को देखो।
मुझे याद आता हैएक बार ऐसा हुआ कि एक आदमी नेएक लड़की के पिता ने संगीतकार ल्योपोल्ड गोडोवस्की से कहा कि आप मेरे घर आकर मेरी बेटी को सुनें। उसकी बेटी पियानो बजाना सीख रही थी। तो गोडोवस्की उनके घर आया और उसने बड़े धैर्य से लड़की को पियानो बजाते सुना। जब लड़की ने पियानो बजाना बंद किया तो पिता खुशी से चिल्ला उठा और उसने गोडोवस्की से कहा : 'कितनी अदभुत है!'
कहते है कि गोडोवस्‍की ने कहा: 'बहुत अदभुत। उसकी तरकीब गजब की है। मैंने कभी किसी को ऐसा आसान संगीत इतनी कठिनाई से बजाते हुए नहीं सुना। उसकी विधि आश्चर्यजनक है। ऐसी सरल चीज को इतनी कठिनता से बजाते हुए मैंने पहले कभी किसी को नहीं देखा।
यही तुम्हारे मन में होता रहता है। सरल चीज को भी तुम जटिल बना लोगेअपने लिए कठिन बना लोगे। और यह सुरक्षा का उपाय हैसुरक्षा की व्यवस्था है। क्योंकि जब तुम किसी चीज को कठिन बना लेते हो तो तुम्हें फिर उसे करने की जरूरत नहीं रहती। पहले समस्या तो हल हो और तब तुम उसे कर सकते हो।
अगर मैं समर्पण करने को कहता हूं तो तुम पूछते हो कि कैसेअब जब तक मैं तुम्हारे कैसे का जवाब न दूर तुम समर्पण कैसे कर सकते होऔर अगर मैं तुम्हें कोई विधि देता हूं तो तुम्हारा मन तुरंत एक नई समस्या निर्मित कर लेता है कि विधि क्योंस्वभाव हैताओ हैपरमात्मा हमारे भीतर हैफिर यह प्रयत्न क्योंचेष्टा क्योंऔर जब तक इसका समाधान नहीं होताकुछ करने की जरूरत नहीं है।
स्मरण रहेतुम इस दुष्‍चक्र में सतत और सदा के लिए घूमते रह सकते हो। तुम्हें कहीं न कहीं इसे तोड़ना है और इसके बाहर आ जाना है। तो निर्णायक बनोनिर्णय करो। क्योंकि निर्णय से ही तुम्हारी मनुष्यता का जन्म होगानिर्णय से ही तुम मनुष्य बनते हो। निर्णायक बनो। अगर तुम समर्पण कर सकते हो तो समर्पण करो। और अगर समर्पण नहीं कर सकते तो बौद्धिक समस्या मत पैदा करोतब किसी विधि का प्रयोग करो।
दोनों रास्तों से समर्पण ही घटित होगा। अगर तुम ठीक इसी क्षण समर्पण कर सको तो बहुत अच्छा। लेकिन अगर अभी समर्पण करना संभव न हो तो विधियों के प्रयोग से गुजरो। यह गुजरना आवश्यक है।
यह तुम्हारे कारण आवश्यक हैयह स्वभाव या ताओ के कारण आवश्यक नहीं है। ताओ के लिए किसी अभ्यास की जरूरत नहीं है। अभ्यास तुम्हारे कारण जरूरी है। ये विधियां तुम्हें मिटा डालेंगीइन विधियों के द्वारा तुम मिट जाओगे और तुम्हारी अंतरस्थ आत्मा उदघटित होगी। तुम्हें अपने को पूर्णत: मिटा डालना है। अगर तुम एक छलांग में अपने को मिटा सको तो समर्पण करो। यदि नहीं तो विधियों के द्वारा थोड़ा— थोड़ा करके मिटाओ।
लेकिन एक बात स्मरण रहे तुम्हारा मन समस्याएं पैदा कर सकता हैजो कि उसकी तरकीब है। वह निर्णय को स्थगित करने की तरकीब है। अगर मन सुनिश्चित नहीं है तो तुम्हें अपराध— भाव नहीं होता है। तुम सोचते हो कि मैं क्या कर सकता हूंजब तक कोई चीज सुस्पष्ट नहीं हैसाफ—सुथरी नहीं हैठीक—ठीक पता नहीं हैतब तक मैं क्या कर सकता हूंतुम्हारा मन तुम्हारे चारों ओर धुंध निर्मित कर देगा। और जब तक तुम निर्णय नहीं लेतेतुम्हारा मन तुम्हें कभी स्पष्ट नहीं होने देगा। निर्णय के साथ ही बादल विलीन हो जाएंगे।।
मन बहुत कूटनीतिक हैमन बहुत राजनीतिक हैवह तुम्हारे साथ राजनीतिक खेल खेलता रहता है। वह बहुत चालाक है,चालबाज है।
मैंने सुना हैएक बार मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे और बहू से मिलने आया। वह तीन
दिन के लिए आया थालेकिन एक सप्ताह टिक गया। फिर एक सप्ताह भी गुजर गया और वह महीना भर रह गया। तब पति—पत्नी चिंता में पड़े कि इस के से कैसे छुटकारा पाया जाए! उन्‍होंने इस प्रश्‍न पर विचार—विमर्श किया और फिर एक तरकीब निकाली।
पति ने पत्नी से कहा कि आज रात तुम शोरबा बनाना और मैं कहूंगा कि इसमें नमक बहुत हैइसे पीया नहीं जा सकता,इसे पीना असंभव है। और तुमको कहना है कि इसमें ज्यादा नमक नहीं है। हम लोग विवाद करेंगे और झगड़ना शुरू कर देंगे। तब मैं अपने पिता से पूछूंगा कि आपकी क्या राय हैआप क्या कहते हैंअगर वे मेरे साथ राजी होंगे तो तुम गुस्से से पागल हो जाना और उन्हें घर से निकल जाने को कहना। और अगर वे तुमसे राजी हुए तो मैं आपे से बाहर हो जाऊंगा और उन्हें कहूंगा कि घर से तुरंत निकल जाइए।
तो शोरबा बना और जैसी कि योजना थीवे आपस में विवाद करने लगे और झगड़ने लगे। और फिर बात हद्द पर पहुंच गईवे एक—दूसरे को मारने—पीटने पर उतारू हो गए। नसरुद्दीन यह सब चुपचाप बैठा देख रहा था। तभी बेटा उसकी तरफ मुडा और उसने पूछा. 'अब्बा—जानआप क्या कहते हैंइसमें नमक बहुत ज्यादा है या नहीं?' नसरुद्दीन ने शोरबे में अपना चम्मच डुबोयाउसे चखाक्षण भर के लिए स्वाद पर ध्यान किया और फिर बोला 'यह मेरे बिलकुल अनुकूल है।
नसरुद्दीन ने किसी का पक्ष नहीं लिया। सारा आयोजन व्यर्थ चला गया।
तुम्हारा मन इसी ढंग से काम करता हैवह कभी कोई पक्ष नहीं लेगा। क्योंकि जैसे ही तुम कोई पक्ष लेते होतुम्हें कृत्य में उतरना होगा। मन कोई पक्ष नहीं लेगा और तर्क करता रहेगा। वह कभी कोई निर्णय नहीं लेगावह सदा अनिर्णय में रहेगा। जो भी कहा जाएगा उस पर विवाद तो होगालेकिन वह कभी निर्णय नहीं बनेगा। और तुम अनंत काल तक विवाद कर सकते हो। उसका कहीं कोई अंत नहीं है। केवल निर्णय तुम्हें कृत्य में उतारेगा और कृत्य ही रूपांतरण बनेगा।
तो अगर तुम वस्तुत: अपने भीतर गहन क्रांति चाहते हो तो निर्णय लोस्थगित मत करते रहो। बहुत दार्शनिक मत होओवह खतरनाक है। साधक के लिए दार्शनिक होना खतरनाक है। जो दरअसल कोई साधना नहीं कर रहा हैकेवल समय काट रहा हैदार्शनिक होना उसके लिए ठीक है। उसके लिए यह एक अच्छा खेल है। अगर तुम कीमत चुकाने के लिए राजी हो तो दर्शन—शास्त्र अच्छा खेल है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि कोई इतनी कीमत चुका सकता हैक्योंकि यह समय का अपव्यय है।
तो कोई भी निर्णय लो। अगर समर्पण कर सकते हो तो समर्पण करो। तब उसमें कैसे का सवाल नहीं है। और यदि समर्पण नहीं कर सकते तो किसी विधि का अभ्यास करो। क्योंकि तब तुम विधि के जरिए ही उस जगह पहुंच सकते हो जहां समर्पण घटित होगा।

 दूसरा प्रश्न :

स्वाभाविक गीत से कोई व्यक्ति करोड़ों वर्षों और जन्मों के बाद बुद्धत्‍व को उपलब्ध होगा। लेकिन संभव है कि हम सब अब तक करोड़ों वर्षों और जन्मों से गुजर चुके होंफिर भी बुद्धत्‍व को नहीं उपलब्ध हुए। ऐसा क्यों?

तुम 'क्योंनहीं पूछ सकते। तुम 'क्योंतभी पूछ सकते हो यदि तुम कुछ कर रहे हो। अगर प्रकृति कर रहीं है तो तुम क्‍यों का प्रश्न नहीं उठा सकतेयह प्रकृति की बात। और प्रकृति उत्तरदायी नहीं हैवह तुम्हें कोई उत्तर नहीं देगी। वह बिलकुल चुप है। और प्रकृति के लिए करोड़ों जन्म भी कुछ नहीं हैंशायद उसके लिए कुछ सेकेंड ही हुए हों। तुम्हारे लिए करोड़ों वर्ष और जन्म एक लंबा इतिहास हो सकते हैंप्रकृति के लिए वह कुछ भी नहीं है। प्रकृति को कोई जल्दबाजी नहीं है और प्रकृति तुममें विशेष रूप से उत्सुक नहीं है। वह अपना काम किए जाती हैकिसी दिन घटना घटेगी। लेकिन तुम उससे 'क्योंनहीं पूछ सकते,क्योंकि प्रकृति मौन है।
अगर तुम चिंतित हो कि क्यों अब तक घटना नहीं घटी तो तुम्हें कुछ करना होगा। अगर चिंता ने तुम्हें घेरा है तो तुम कुछ करो। तुम्हारा अपना कृत्य ही तुम्हें उस जगह पहुंचाएगा जहां बुद्धत्व घट सकता है।
प्रकृति के तौर—तरीके धीमे और शांत हैं। वहां जल्दी नहीं हैक्योंकि प्रकृति के लिए समय की कमी नहीं है। अनंत समय हैउसका न आदि है न अंत। लेकिन मनुष्य उस जगह आ गया है जहं। वह सचेतन हो गया हैजहां वह प्रश्न पूछने लगा है। कोई वृक्ष कभी नहीं पूछतावह बोधिवृक्ष भी नहीं पूछता जिसके नीचे बुद्ध बुद्ध हुए थे। वृक्ष कभी नहीं पूछेगा. 'गौतममैं क्यों बुद्ध नहीं हुआमैं भी तो उतने ही करोड़ वर्षों से हूं जितने करोड़ वर्षों से आप हैं। क्यों?' वृक्ष कभी नहीं पूछेगा। वृक्ष बिलकुल प्राकृतिक है। प्रश्न उठाने से आदमी अप्राकृतिक हो गया है। अप्राकृतिक तुममें प्रविष्ट हो गया हैतुम पूछने लगे हो—तुम पूछने लगे हो कि क्यों अब तक नहीं घटित हुआ।
यह पूछना शुभ हैक्योंकि यह तुम्हें उस निर्णायक बिंदु पर पहुंचा देगा जहां तुम अपने ऊपर श्रम करने लग सकते हो। और मनुष्य इसे प्रकृति पर नहीं छोड़ सकतामनुष्य सचेतन हो गया है। तुम अब इसे प्रकृति के ऊपर नहीं छोड़ सकते हो। यही कारण है कि मनुष्य ने धर्मों का निर्माण किया। किसी पशु का कोई धर्म नहीं है। उसकी जरूरत नहीं है। पशु प्रश्न नहीं उठाते हैं;वे जल्दी में नहीं हैं। निसर्ग में सब कुछ मंद गति से हो रहा है—इतनी मंद गति कि गति जैसी नहीं लगती। प्रकृति एक ही पैटर्न को निरंतर दोहराती रहती हैवह एक ही वर्तुल में अनंत काल तक घूमती रहती है।
मनुष्य सचेतन हो गया है। मनुष्य समय के प्रति बोधपूर्ण हो गया है। और जैसे ही तुम्हें समय का बोध होता हैतुम शाश्वत के बाहर फेंक दिए जाते हो। तुम तब जल्दी में होते हो। और मनुष्य की चेतना जैसे—जैसे विकसित होती हैवह और ज्यादा जल्दी में होता हैवह और ज्यादा समय के प्रति बोधपूर्ण होता है।
किसी आदिम समाज में जाकर देखोउन्हें समय का बोध नहीं है। जो समाज जितना सभ्य होता है वह उतना ही समय के प्रति बोधपूर्ण होता है। आदिम समाज प्रकृति के ज्यादा निकट होता हैवह जल्दी में नहीं होता हैमंद गति है। जैसे प्रकृति चलती है वह भी वैसे ही चलता है। तुम जितने ज्यादा सभ्य होते होउतना ही तुम्हें समय का बोध होता है। सच तो यह है कि समय का बोध कसौटी हैकोई समाज कितना सभ्य है यह इससे जाना जा सकता है कि उसे समय का बोध कितना है। तब तुम जल्दी में होते होतब तुम प्रतीक्षा नहीं कर सकते हो। तब तुम इसे प्रकृति पर नहीं छोड़ सकते हो। इसे तुम्हें अपने हाथ में लेना है।
और मनुष्य इसे अपने हाथ में ले सकता है। वह कुछ कर सकता है और प्रक्रिया शीध्र पूरी की जा सकती है। वह एक क्षण में भी पूरी हो सकती है। जो काम करोड़ों वर्षों ने नहीं कियाकरने में असमर्थ रहेउसे तुम एक क्षण में कर सकते हो। एक क्षण में तुम इतनी त्वरा से भर सकते हो कि करोड़ों वर्षों और जन्मों की यात्रा तत्‍क्षण हो सकती है।
यह संभव है। और क्योंकि यह संभव हैइसीलिए तुम चिंता में हो। तुम्हारी चिंता इस बात का लक्षण है कि जो संभव है उसे तुम वास्तविक नहीं बना रहे हो। यही चिंता है और यही मनुष्य की दुविधा है। तुम यह कर सकते होऔर तुम नहीं कर रहे हो। उससे एक आंतरिक चिंता पैदा होती हैसंताप पैदा होता है। अगर वह तुमसे नहीं हो सकता तो प्रश्न ही नहीं उठताफिर चिंता की कोई बात न रही। चिंता बताती है कि अब यह संभव है कि तुम छलांग लगा सकते हो और अनेक अनावश्यक जन्मों का अतिक्रमण कर सकते होलेकिन तुम यह नहीं कर रहे हो।
तुम सचेतन हो गए हो। तुम प्रकृति से ऊपर उठ गए हो। चैतन्य एक नई घटना है। तुम प्रकृति से ऊपर उठ गए हो और अब तुम सचेतन रूप से विकास कर सकते हो। सचेतन विकास क्रांति है। तुम इसके लिए कुछ कर सकते हो। अब तुम गुलाम नहीं होतुम किसी के हाथ की कठपुतली नहीं हो। तुम अपनी नियति अपने हाथ में ले सकते हो। वह संभव है। और क्योंकि वह संभव है और तुम उसके लिए कुछ नहीं कर रहे होइसीलिए एक आंतरिक चिंता पैदा होती है। और तुम इस संभावना के प्रति जितने बोध से भरोगे उतनी ही अधिक चिंता महसूस होगी।
बुद्ध बहुत चिंतित थेतुम उतने चिंतित नहीं हो। बुद्ध बहुत चिंता—ग्रस्त थेसघन संताप में थेबहुत पीड़ित थे। जब तक वे उपलब्ध नहीं हो गएवे भयंकर विषाद में थे। क्योंकि उन्हें पूरा बोध था कि कुछ है जो बिलकुल संभव हैबिलकुल हाथ के पास है। और उन्हें यह भी लगता था कि मैं अभी भी चूक रहा हूंमैं हाथ बढाऊं और पा लूंगा—लेकिन मेरे हाथों को लकवा लग गया है। उन्हें लगता था कि एक ही कदम की बात है और मैं बाहर हो जाऊंगा—और मैं वह कदम नहीं उठा रहा हूंमैं छलांग लगाने से डर रहा हूं।
जब तुम मंजिल के निकट होते हो—और तुम उसे महसूस कर सकते होतुम उसे देख सकते हो—और फिर भी चूकते जाते होतब तुम्हें संताप होता है। जब तुम मंजिल से बहुत दूर होजब तुम उसे महसूस नहीं कर सकतेदेख नहीं सकतेजब तुम्हें यह भी पक्का नहीं है कि कोई मंजिल हैजब तुम नियति के संबंध में बिलकुल अनजान होतब कोई चिंता नहीं होती है।
पशु संताप में नहीं हैं। वे सुखी मालूम पड़ते हैं—मनुष्य से ज्यादा सुखी मालूम पड़ते हैं। कारण क्या हैवृक्ष पशु से भी ज्यादा सुखी हैं। वे इससे बिलकुल अनजान हैं कि क्या हो सकता हैक्या संभव हैक्या बिलकुल निकट है। वे इतने अज्ञान में हैं कि उन्हें अपने अज्ञान का बोध भी नहीं हैवे अपने अज्ञान में आनंदित हैं। उन्हें कोई चिंता नहीं है। वे प्रकृति के साथ बहते रहते हैं।
मनुष्य चिंता—ग्रस्त होता है। और कोई मनुष्य जितना ही ज्यादा मनुष्य होगा उतनी ही बड़ी उसकी चिंता होगी। अगर तुम बस जी रहे हो तो तुम पशु का जीवन जी रहे हो।
धार्मिक संताप तब पैदा होता है जब तुम्हें बोध होता कि अब कुछ हो सकता हैकि बीज मौजूद है और मुझे कुछ करना है कि वह अंकुरित होकि फूल दूर नहीं हैं और मैं यह फसल काट सकता हूं—लेकिन फिर भी कुछ नहीं हो रहा है। तब एक बहुत नपुंसक स्थिति अनुभव होती है।
बुद्ध होने के ठीक पहले बुद्ध की यही दशा थी। वे आत्मघात के कगार पर खड़े थे। तुम्हें उस अवस्था से गुजरना होगा। और तुम उसे प्रकृति पर नहीं छोड़ सकतेतुम्हें उसके लिए कुछ करना होगा—और तुम कर सकते हो। और मंजिल दूर नहीं है।
अगर तुम्हें चिंता होती है तो हतोत्साहित मत होओ। अगर तुम्हें अपने भीतर तीव्र दुख कापीड़ा कासंताप का अनुभव होता है तो उससे निराश मत होओ। वह शुभ लक्षण है। वह बताता है कि तुम्हें उसका और— और बोध हो रहा है जो संभव है,और अब तुम्हें तब तक चैन नहीं होगा जब तक वह वास्तविक न हो जाए।
मनुष्य इसे प्रकृति पर नहीं छोड़ सकताक्योंकि मनुष्य सचेतन होगया है। उसका एक बहुत छोटा अंश ही सचेतन हुआ हैलेकिन उससे ही सब कुछ बदल जाता है। और जब तक तुम्हारा समग्र अस्तित्व सचेतन नहीं होतातुम फिर से पशु या वृक्ष के सहज सुख को नहीं जान सकते। अब उसे जानने का एक ही उपाय है कि तुम और— और सजग हो जाओसचेतन हो जाओ,बोधपूर्ण हो जाओ। तुम पीछे नहीं लौट सकतेपीछे लौटने का कोई उपाय नहीं है। कोई भी पीछे नहीं लौट सकता है। या तो तुम वहीं रहो जहां हो और दुख भोगोया तुम्हें आगे जाना होगा और दुख के पार जाना होगा। तुम पीछे नहीं जा सकते हो।
समग्र मूर्च्छा आनंदपूर्ण हैसमग्र चैतन्य आनंदपूर्ण है। और तुम दोनों के बीच में हो। तुम्हारा एक हिस्सा चेतन हो गया हैलेकिन तुम्हारा बड़ा हिस्सा अभी भी अचेतन है। तुम विभाजित हो। तुम बंट गए होतुम अखंड नहीं रहे। अखंडता खो गई है। पशु अखंड है और फिर संत अखंड हैं। मनुष्य खंडित हैउसका एक हिस्सा पशु ही बना हुआ है और एक हिस्सा संत हो गया है। इसीलिए संघर्ष हैद्वंद्व हैतुम जो भी करते हो वह तुम कभी पूरे हृदय से नहीं कर पाते।
तो दो रास्ते हैं। एक तो यह है कि तुम आत्म—वंचना करोअपने को धोखा दे लो—यानी फिर से बिलकुल अचेतन हो जाओ। तुम नशे में उतर सकते होतुम शराब पी सकते होतुम मादक द्रव्यों का प्रयोग कर सकते हो। उनसे तुम पशु—जगत में फिर लौट जाते हो। तुम अपने उस हिस्से को नशे में डुबो देते हो जो चेतन हो गया है और फिर पूरी तरह अचेतन हो जाते हो।
लेकिन यह धोखा क्षणिक हैतुम फिर उठ खड़े होगे। नशे का असर खो जाएगा और तुम्हारा अचेतन फिर चेतन हो जाएगा। जिस हिस्से को तुमने शराब से या नशे से या रासायनिक द्रव्यों से या किसी भी चीज से जबरदस्ती सुला दिया है वह फिर जाग उठेगाऔर फिर तुम ज्यादा दुख में पडोगेक्योंकि अब तुम तुलना कर सकते हो। अब तुम पहले से ज्यादा दुखी होगे।
तुम अपने को नशे में भुलाए रख सकते हो। और नशे के अनेक उपाय हैं—सिर्फ
रासायनिक उपाय ही नहीं हैंधार्मिक उपाय भी हैं। तुम किसी मंत्र काकिसी जप का उपयोग कर सकते होतुम किसी मंत्र का जप कर सकते हो और उससे मादक प्रभाव पैदा कर सकते हो, नशे जैसा असर पैदा कर सकते हो। तुम अनेक चीजें कर सकते हो, जो तुम्‍हें फिर से बेहोश बना सकती हैं। लेकिन यह बेहोशी थोड़े समय के लिए होगीतुम्हें उससे फिर बाहर आना होगा। और तुम पहले से ज्यादा दुखी बाहर आओगेक्योंकि अब तुम तुलना कर सकते हो कि अगर मूर्च्छा में यह संभव है तो समग्र चैतन्य में क्या नहीं संभव होगा! तुम्हें अब उसके लिए ज्यादा प्यास होगीतुम ज्यादा तड़पोगे।
एक बात स्मरण रहे समग्रता आनंद है। अगर तुम पूरी तरह मूर्च्छित हो तो वह भी आनंद हैलेकिन तुम्हें उसका बोध नहीं है। पशु सुखी हैंलेकिन उन्हें अपने सुख का बोध नहीं है। इसलिए ऐसा सुख व्यर्थ है। यह ऐसा ही है कि जब तुम सोए हो तो सुखी हो और जब तुम जागे हो तो दुखी हो। समग्रता आनंद है।
तुम चैतन्य में भी समग्र हो सकते हो। तब आनंद भी होगा और उसका तुम्हें पूर्ण बोध भी होगा। यह संभव है साधना से,उपाय सेविधियों के प्रयोग सेजो तुम्हारी चेतना को बढ़ाते हैं। तुम संबुद्ध नहीं होक्योंकि तुमने उसके लिए कुछ किया नहीं है,लेकिन तुम्हें बोध हुआ है कि मैं संबुद्ध नहीं हूं। यह प्रकृति ने किया हैकरोड़ों वर्षों में प्रकृति ने तुम्हें बोध दिया है।
शायद तुम्हें इस तथ्य का पता न हो कि जहां तक शरीर का संबंध हैमनुष्य का विकास ठहर गया है। हमारे पास ऐसे अस्थिपंजर हैं जो करोड़ों वर्ष पुराने हैंलेकिन उनमें कोई खास फर्क नहीं हैवे हमारे अस्थिपंजर जैसे ही हैं। करोड़ों वर्षों से शरीर के तल पर कोई विकास नहीं हुआ हैवह वही का वही रहा है। यहां तक कि मस्तिष्क भी वही का वही हैउसमें भी कोई खास विकास नहीं हुआ है। जहां तक शरीर का संबंध हैप्रकृति को जो करना था वह कर चुकी। किसी अर्थ में मनुष्य अब अपने विकास के लिए स्वयं जिम्मेवार है। और यह विकास शारीरिक नहीं होगायह विकास आध्यात्मिक होगा।
बुद्ध के अस्थिपंजर में कोई बुनियादी भिन्नता नहीं हैलेकिन तुम और बुद्ध पूर्णत: भिन्न हो। प्राकृतिक विकास का क्रम क्षैतिज हैसीधी रेखा की तरह हैसाधनाविधि और आध्यात्मिक विकास का क्रम ऊर्ध्वाधर हैखड़ी रेखा की तरह है। तुम्हारा शरीर ठहर गया हैवह अपने विकास के चरम बिंदु पर पहुंच चुका है। अब आगे उसका विकास नहीं है। क्षैतिज विकास ठहर गया हैअब ऊर्ध्वाधर विकास शुरू होता है। अब तुम जहां हो वहां से ऊर्ध्व छलांग लेनी होगी। यह ऊर्ध्वाधर विकास चेतना का होगा—शरीर का नहीं। और उसके लिए तुम खुद उत्तरदायी हो।
तुम प्रकृति से नहीं पूछ सकते कि क्यों मैं संबुद्ध नहीं हूंलेकिन प्रकृति तुमसे पूछ सकती है कि क्यों तुम अब तक संबुद्ध नहीं हुएक्योंकि अब तुम्हें सब कुछ उपलब्ध है। तुम्हारे शरीर को वह सब मिला हुआ है जो जरूरी है। तुम्हें बुद्ध का शरीर प्राप्त है। तुम्हें बुद्ध होने के लिए जो भी जरूरी है वह सब प्राप्त है। सिर्फ थोड़ी व्यवस्था बिठानी हैथोडा संयोजन बिठाना है—और तुम बुद्ध हो जाओगे।
तो प्रकृति तुमसे पूछ सकती है कि तुम अब तक संबुद्ध क्यों नहीं हुए। प्रकृति ने तुम्हें उसके लिए सब कुछ दिया है। और प्रकृति का यह पूछना असंगत नहीं होगा। लेकिन प्रकृति से तुम्हारा पूछना असंगत है। तुम्हें पूछने का कोई अधिकार नहीं है। अब तुम्हें बोध है और तुम कुछ कर सकते हो। तुम्‍हें सभी तत्‍व उपलब्‍ध है; हाइड्रोजन है, आक्‍सीजन है, विद्युत भी है। सिर्फ तुम्हें कुछ प्रयत्न करना हैकुछ प्रयोग करनेहैंऔर पानी निर्मित हो जाएगा।
संबुद्ध होने के लिएबुद्धत्व घटने के लिए जो भी जरूरी हैवह तुम्हारे पास हैलेकिन वह बिखरा हुआ है। तुम्हें उसे संयुक्त करना हैथोड़ी व्यवस्था लानी हैथोड़ी लयबद्धता लानी है—और अचानक वह ज्योति प्रकट होगी जो बुद्धत्व बन जाती है। ये सब विधियां उसी के लिए हैं। तुम्हारे पास सब हैसिर्फ थोड़ी युक्ति की जरूरत हैयह जानने की जरूरत है कि क्या करें ताकि तुम्हें बुद्धत्व घटित हो जाए।

 तीसरा प्रश्न:

आप कहते हैं कि समय बोध और समग्र स्वतंत्रता को उपलब्‍ध होकर प्राकृतिक विकास के करोड़ों वर्षो और करोड़ों जन्मों को टाला जा सकता है। तो क्या इसके विपरीत यह तर्क नहीं दिया जा सकता की कर्म के साथ, उसकी कार्य— कारण की प्राकृतिक शक्‍तियों के साथ हस्‍तेक्षप नहीं करना चाहिएया कि यह भी परम नियम के अंतर्गत ही है कि वह विकासमान जगत कीविकासमान आत्‍मा की पहुंच के भीतर ऐसी संभावना भी दे?
ब कुछ के विपरीत तर्क दिया जा सकता हैलेकिन तर्क कहीं पहुंचाता नहीं है। तुम तर्क दे सकते होलेकिन वह तर्क तुम्हारी मदद कैसे करेगातुम तर्क दे सकते हो कि कर्म की स्वाभाविक प्रक्रिया के साथ हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। तो हस्तक्षेप मत करो। लेकिन तब अपने दुख में सुखी रहो। मगर तुम उसमें सुखी नहीं होतुम हस्तक्षेप करना चाहते हो। अगर तुम नैसर्गिक प्रक्रिया पर भरोसा कर सकी तब तो बहुत अदभुत है। लेकिन फिर कोई शिकायत मत करोफिर तब मत पूछो कि ऐसा क्यों है। कर्म की नैसर्गिक प्रक्रिया के कारण ऐसा है। तुम दुख में हो तो कर्म की नैसर्गिक प्रक्रिया के कारण दुख में हो। इससे अन्यथा संभव नहीं है। तो कोई हस्तक्षेप मत करो।
भाग्य का सिद्धात यही है। तब तुम्हें कुछ नहीं करना हैजो हो रहा हैवह हो रहा है और उसे तुम्हें स्वीकार करना है। तब वह भी समर्पण हो जाता हैतुम्हें कुछ करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन समग्र स्वीकार जरूरी है। वस्तुत: हस्तक्षेप करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन क्या तुम उस अवस्था में हो सकते हो कि तुम कोई हस्तक्षेप न करोतुम तो निरंतर प्रत्येक चीज के साथ हस्तक्षेप कर रहे हो। तुम इसे प्रकृति पर नहीं छोड़ सकते हो। अगर तुम प्रकृति पर छोड़ सको तो कुछ भी जरूरी नहीं है और तुम्हें सब कुछ घटित होगा। लेकिन अगर तुम न छोड़ सको तो फिर हस्तक्षेप करो। और तुम हस्तक्षेप कर सकते होलेकिन उसकी प्रक्रिया को समझना होगा।
सच तो यह है कि ध्यान कर्म की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना नहीं हैध्यान कर्म की प्रक्रिया के बाहर छलांग लगाना है। वस्तुत: यह हस्तक्षेप नहीं हैयह दुष्‍चक्र से छलांग लगाकर बाहर निकल जाना। चक्र चलता रहेगा और प्रक्रिया अपने आप ही समाप्त हो जाएगी। तुम उसे समाप्त नहीं कर सकतेलेकिन तुम उसके बाहर हो सकते हो। और जब तुम उसके बाहर हो जाते हो तो वह तुम्हारे लिए माया हो जाती है।
उदाहरण के लिएरमण कैंसर से मरे। उनके शिष्यों ने उन्हें इस बात के लिए राजी करने की कोशिश की कि वे इलाज कराएं। रमण ने कहां: ठीक है, अगर तुम यह चाहते हो और तुम्हें इससे सुख होगा तो मेरा इलाज करो। लेकिन जहां तक मेरी बात हैमैं बिलकुल ठीक हूं।’ और डाक्टर चकित हुए यह देखकर कि उनका शरीर पीड़ित थागहन पीड़ा में थालेकिन उनकी आंखों में पीड़ा की कोई झलक नहीं थी। उनका शरीर तो गहन कष्ट में थालेकिन वे कष्ट में नहीं थे।
शरीर कर्म जगत का हिस्सा हैवह कार्य—कारण के यांत्रिक वर्तुल का हिस्सा है। लेकिन चेतना उसके पार हो सकती है,उसका अतिक्रमण कर सकती है। रमण साक्षी मात्र थे। वे देख रहे थे कि शरीर पीड़ा में हैकि शरीर मरने जा रहा हैलेकिन मैं साक्षी हूं। वे उसके साथ हस्तक्षेप नहीं कर रहे थे—बिलकुल भी नहीं। जो कुछ हो रहा था वे उसका निरीक्षण कर रहे थेलेकिन वे खुद उस दुष्‍चक्र में नहीं थेउनका उससे तादात्म्य नहीं थावे उसके हिस्से नहीं थे।
ध्यान हस्तक्षेप नहीं है। सच तो यह है कि ध्यान के बिना तुम प्रतिपल हस्तक्षेप कर रहे हो। ध्यान से तुम पार चले जाते होतुम शिखर पर खड़े द्रष्टा हो जाते हो। दूरनीचे घाटी में चीजें चलती रहती हैंलेकिन तुम्हें उनसे कुछ लेना—देना नहीं है। तुम केवल दर्शक हो। मानो वे चीजें किसी दूसरे व्यक्ति को घटित हो रही हैंकिसी स्वप्न में घटित हो रही हैंकिसी फिल्म के परदे पर घटित हो रही हैं। तुम कोई हस्तक्षेप नहीं कर रहे हो। तुम नाटक के हिस्से नहीं होतुम उसके बाहर आ गए हो। अब तुम अभिनेता नहीं रहेतुम दर्शक हो गए हो। इतनी ही बदलाहट है।
और जब तुम साक्षी मात्र रह जाते हो तो शरीर उस सबको पूरा करेगा जिसे पूरा किया जाना है। अगर तुम्हारे दुख के बहुत से कर्म बाकी हैं और अब तुम साक्षी हो गए हो इसलिए तुम्हारा फिर जन्म होने वाला नहीं है तो शरीर को इसी जन्म में उन सारे दुखों को भोगना पड़ेगा जिन्हें वह वैसे अनेक जन्मों में भोगता। इसीलिए बहुत बार ऐसा होता है कि बुद्ध पुरुष को बहुतेरे शारीरिक रोग सताते हैं। क्योंकि अब भविष्य में कोई जन्म नहीं हैभविष्य में कोई जीवन नहीं हैयह उनका अंतिम शरीर हैइसलिए सभी कर्मों को और सारी प्रक्रिया को पूरा करना हैसमाप्त करना है।
तो अगर हम जीसस के जीवन को पूरब की दृष्टि से देखें तो उनकी सूली एक भिन्न घटना हो जाती है। पश्चिमी चित्त जन्मों की श्रृंखला कोपुनर्जन्म के सिद्धात को नहीं मानता हैइसलिए उसके पास सूली का कोई गहन विश्लेषण नहीं है। उन्होंने एक मिथक गढ़ लिया है कि जीसस ने हमारे लिए दुख सहावे हमारे उद्धार के लिए सूली पर चढ़े। लेकिन यह बात बेतुकी लगती हैऔर यह तथ्यपूर्ण भी नहीं है।
अगर जीसस तुम्हारी मुक्ति के लिए मरे तो फिर मनुष्यता अभी भी दुख में क्यों है?
और मनुष्यता तो अभी पहले से भी ज्यादा दुख में है। जीसस की सूली के बाद मनुष्य—जाति प्रभु के राज्य में नहीं प्रविष्ट हो गई है। यदि उन्होंने हमारे लिए दुख उठायायदि उनकी सूली हमारे अपराध और पाप के लिए पश्चात्ताप थीतो जीसस निष्फल गए। क्योंकि


अपराध जारी हैपाप जारी हैदुख बना हुआ है। तब तो उनकी यातना व्यर्थ गईतब तो उनकी सूली निष्‍फल गई।
ईसाइयत के पास केवल एक मिथक है। लेकिन मानव जीवन के पूर्वीय विश्लेषण की दृष्टि बिलकुल भिन्न है। जीसस की सूली उनके अपने ही कर्मों की सघन अभिव्यक्ति थी। यह उनका अंतिम जन्म थावे फिर शरीर में प्रवेश करने वाले नहीं थे। इसलिए उनके समस्त दुख एक बिंदु पर संचित और केंद्रित हो गएघनीभूत हो गए। और वह बिंदु उनकी सूली बन गया।
जीसस ने किसी दूसरे के लिए दुख नहीं सहाकोई किसी दूसरे के लिए दुख नहीं सह सकता। उन्होंने अपने लिएअपने अतीत के कर्मों के लिए दुख सहा। कोई दूसरा तुम्हें मुक्त नहीं कर सकता हैक्योंकि तुम अपने कर्मों के कारण बंधन में हो। तो जीसस तुम्हें कैसे मुक्त कर सकते हैंवे अपने को गुलाम बना सकते हैंवे अपने को मुक्त कर सकते हैंवे स्वयं मुक्त व्यक्ति बन सकते हैं। सूली के द्वारा उनके अपने कर्मों का हिसाब—किताब बंद हो गयापूरा हो गयाउनकी श्रृंखला समाप्त हो गई। कार्य —कारण की श्रृंखला का अंत आ गया। उनका अब फिर जन्म नहीं होगावे अब दूसरे गर्भ में प्रवेश नहीं करेंगे। अगर वे बुद्ध पुरुष नहीं होते तो उन्हें यह सारा दुख अनेक जन्मों में झेलना पड़ता। वही दुख एक जन्म मेंएक बिंदु पर घनीभूत हो गया।
तो तुम हस्तक्षेप नहीं कर सकतेऔर अगर तुम हस्तक्षेप करते हो तो तुम अपने लिए ज्यादा दुख निर्मित कर लोगे। कर्मों में हस्तक्षेप मत करोवरन उनके पार जाओउनके साक्षी बनो। उन्हें स्‍वप्‍नवत समझो—यथार्थ नहीं। उन्हें केवल देखो और उनके प्रति तटस्थ रहो। उनमें ग्रस्त मत होओ। तुम्हारा शरीर पीड़ित है—उस पीड़ा को देखो। तुम्हारा शरीर खुश है—उस खुशी को देखो। उसके साथ तादात्म्य मत करो। ध्यान का इतना ही अर्थ है।
और तरकीबें मत खोजोबहाने मत खोजो। यह मत कहो कि इसके लिए तर्क दिया जा सकता है। तुम किसी भी चीज के लिए तर्क खोज सकते हो। तुम तर्क करने के लिए स्वतंत्र हो। लेकिन स्मरण रहेतुम्हारा तर्क आत्मघाती हो सकता हो। तुम अपने विरोध में ही तर्क दे सकते हो। और तुम ऐसे तर्क खड़े कर सकते होजिनसे तुम्हारा कोई भला नहीं होनेवाला हैजिनसे तुम्हारा कोई रूपांतरण नहीं होनेवाला हैबल्कि वे बाधा बन सकते हैं। लेकिन हम निरंतर तर्क करते रहते हैं।
आज ही एक लड़की मुझे मिलने आई। उसने मुझसे पूछा 'बताइए कि क्या ईश्वर है?' वह विवाद करने को तत्पर थी कि ईश्वर नहीं है। मैंने उसकी तरफ देखा। मैंने उसकी आंखों में झांका। वह तनावग्रस्त थी। वह तर्कों से भरी थी। वह इस मुद्दे पर झगड़ना चाहती थी। वह वस्तुत: गहरे में यह मानना चाहती थी कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि अगर ईश्वर है तो तुम कठिनाई में पड़ोगे। अगर ईश्वर है तो तुम वही नहीं रह सकते जो हो। तब एक चुनौती खड़ी हो जाती है। ईश्वर एक चुनौती है। उसका अर्थ है कि तुम अपने से संतुष्ट नहीं रह सकतेतुमसे कुछ उच्चतरकुछ श्रेष्ठतर संभव है। तब चेतना की एक ऊंची अवस्थापरम अवस्था संभव है। ईश्वर का वही अर्थ है। वह लड़की तर्क करने को तत्पर थी। उसने कहा 'मैं नास्तिक हूं और मैं ईश्वर में विश्वास नहीं करती हूं।
मैंने उस लड़की से कहा. 'यदि ईश्वर नहीं है तो तुम उसमें अविश्वास कैसे कर सकती
होऔर ईश्वर से कोई लेना—देना नहीं है। तुम्हारे विश्वासतुम्हारे अविश्वासउसके पक्ष और विपक्ष में तुम्हारे तर्कसब तुमसे संबंधित हैं। परमात्मा से कोई लेना—देना नहीं है। तुम क्‍यों चिंतित हो? अगर परमात्‍मा नहीं है तो तुम इतनी लंबी यात्रा करके मेरे पास क्‍यों आई हो? जो चीज नहीं हैउसके संबंध में विवाद करने के लिए तुम मेरे पास क्यों आई होउसे भूल जाओउसे क्षमा कर दोऔर अपने घर जाओ। अपना समय मत गंवाओ। अगर ईश्वर नहीं है तो तुम्हें चिंता क्यों हैवह नहीं हैयह सिद्ध करने का प्रयत्न क्यों करती होयह प्रयत्न तुम्हारे बाबत कुछ खबर देता हैकि तुम भयभीत हो। अगर परमात्मा है तो वह चुनौती है। अगर परमात्मा नहीं है तो तुम जो हो वही बनी रह सकती होतब जीवन में कोई चुनौती नहीं है।
जो आदमी चुनौतियों सेखतरों सेजोखिमों से भयभीत हैजो अपने को बदलने सेअपने रूपांतरण से डरता हैवह सदा परमात्मा को अस्वीकार करेगा। अस्वीकार उसका ढंग बन जाता है। लेकिन यह अस्वीकार उसके संबंध में कुछ बताता है—ईश्वर के संबंध में नहीं।
मैंने उस लड़की को कहा कि परमात्मा कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे सिद्ध या असिद्ध किया जा सके। परमात्मा कोई विषय नहीं है जिसके पक्ष या विपक्ष में हम कोई मत बना सकें। परमात्मा तुम्हारे अंतस की संभावना है। वह कोई बाह्य चीज नहीं है,वह तुम्हारे अंतस की संभावना है। अगर तुम उस संभावना तक पहुंच सके तो वह सत्य हो जाता है। और अगर तुम उस शिखर तक की यात्रा न कर सको तो वह असत्य है। और अगर तुम उसके विरोध में तर्क देते हो तो यात्रा करने की बात ही न रही,तुम वही के वही बने रहते हो। और यह एक दुष्‍चक्र बन जाता है।
तुम तर्क करते हो कि ईश्वर नहीं हैऔर इसी कारण तुम कभी उसकी ओर कदम नहीं उठातेक्योंकि यह एक आंतरिक यात्रा हैएक आंतरिक तीर्थयात्रा है। तुम कभी यात्रा नहीं करतेक्योंकि तुम उस बिंदु की ओर कैसे यात्रा कर सकते हो जो है ही नहींतो तुम वही के वही बने रहते हो।
और जब तुम वही के वही बने रहते हो तो तुम्हारा परमात्मा से कभी साक्षात्कार नहीं होता है। कभी उसके किसी अनुभव सेउसकी किसी तरंग से तुम्हारा मिलन नहीं होता है। और तब तुम्हारे लिए यह बात और भी सिद्ध हो जाती है कि वह नहीं है। और जितनी ही यह बात सिद्ध होती हैतुम उससे उतनी ही दूर होते जाते होतुम उतने ही नीचे गिरते जाते होअंतराल उतना ही बड़ा होता जाता है।
तो मैंने उस लड़की से कहा कि प्रश्न यह नहीं है कि परमात्मा है या नहींप्रश्न यह है कि तुम विकास करना चाहती हो या नहीं। अगर तुम विकसित होती हो तो तुम्हारा परम विकास ही उससे मिलन बन जाएगातुम्हारा परम विकास ही उसका साक्षात्कार बन जाएगा। मैंने उससे एक कहानी कही।
एक सुबह जब तेज हवा चल रही थी और वसंत ऋतु विदा हो रही थीएक घोंघा चेरी के वृक्ष के ऊपर धीरे—धीरे चढ़ने लगा। यह देख कर पास के बलूत के वृक्ष पर बैठी चिड़िया हंसने लगींक्योंकि चेरी का मौसम नहीं थावृक्ष पर एक भी चेरी का फल नहीं था। और यह गरीब घोंघा ऊपर चढ़ने के लिए जी—तोड़ परिश्रम कर रहा था। चिड़ियां उसकी बेकार की मेहनत पर हंस रही थीं।
फिर एक चिड़िया उड़ी और घोंघे के पास जाकर बोली. 'मित्रकहां जा रहे होपेड़ पर तो अभी एक भी चेरी नहीं है।
लेकिन घोंघा जरा भी नहीं रुकाउसने अपनी ऊपर की यात्रा जारी रखी। और चलते—चलते ही उसने कहा : 'लेकिन जब तक मैं वहां पहुंचूंगातब तक फल आ जाएंगे। जब मैं पहुंचूंगा तो फल वहां होंगे। मुझे ऊपर तक चढ़ने में बहुत समय लगेगा और तब तक फल आ जाएंगे।
परमात्मा नहीं हैलेकिन जिस क्षण तुम पहुंचोगेवह वहां होगा। परमात्मा कोई ऐसी चीज नहीं है जो पहले से मौजूद हो,वह ऐसा नहीं है। परमात्मा विकास है। परमात्मा तुम्हारा ही विकास है। जब तुम उस बिंदु पर पहुंचते हो जहां तुम पूरी तरह सचेतन होतब परमात्मा है। लेकिन विवाद मत करो। विवाद में अपनी शक्ति गंवाने के बजाय अपने को रूपांतरित करने में शक्ति का उपयोग करो।
और शक्ति बहुत नहीं है। अगर तुम अपनी शक्ति को विवाद में व्यय करोगे तो तुम विवाद करने में निष्णात हो जाओगे। लेकिन यह अपव्यय हैयह छोटी सी चीज के लिए बहुत बड़ी कीमत देने जैसा हैक्योंकि वही शक्ति ध्यान बन सकती है। तुम कुशल तार्किक बन सकते होतुम बहुत तर्कपूर्ण विवाद कर सकते होतुम किसी चीज के पक्ष या विपक्ष में बहुत तर्कसंगत करने वाले प्रमाण खोज ले सकते होलेकिन तुम वही के वही रहोगे। तुम्हारे तर्क तुम्हें रूपांतरित करने वाले नहीं हैं।
एक बात स्मरण रहे : जो भी तुम्हें रूपांतरित करेवह शुभ है। जिससे भी तुम्हें विकास और विस्तार मिलेजिससे तुम्हारी चेतना में वृद्धि होवही शुभ है। और जो भी तुम्हें अटकाए और तुम्हारी यथास्थिति को बनाए रखेवह अशुभ हैवह घातक हैआत्मघातक है।

 अंतिम प्रश्न:

मैं कभी—कभी अपने को अकर्म की अवस्था में, बहुत निष्क्रिय अनुभव करता है लेकिन तब मेरे चारों ओर क्या हो रहा है उसके प्रति मेरा बोध कम हो जाता है। दरअसल मैं अपने चारों ओर की चीजों से विरक्त सा ही जाता हूं। इससे लगता है कि क निष्‍क्रियता झूठी है, क्योंकि मेरी समझ से निष्‍क्रियता के साथ तो बोध बढ़ना चाहिए। क्या आप हस अवस्था पर कुछ कहने की कृपा करेंगे?

 सामान्यत: हम ज्वरग्रस्त अवस्था में होते हैं—सक्रियलेकिन ज्वरग्रस्त। अगर तुम निष्कि्रय हो जाओगे तो ज्वर चला जाएगा। अगर तुम निष्‍क्रियता और अकर्म की अवस्था में होगेअगर तुम अपने भीतर विश्रामपूर्ण होगेतो सक्रियता चली जाएगीस्वर खो जाएगाऔर ज्वर के साथ जो तीव्रता रहती है वह भी नहीं रहेगी। तुम थोड़ा उदास अनुभव करोगेतुम्हें लगेगा कि मेरा बोध घट रहा है। लेकिन बोध नहीं घट रहा हैसिर्फ ज्वर की तेजी घट रही है।
और यह शुभ है। इससे भयभीत मत होओ। और यह मत सोचो कि यह निष्‍क्रियता सच्ची नहीं है। यह बात तुम्हारा मन कह रहा है जिसे ज्वरग्रस्त सक्रियता की और ज्वर की तेजी की जरूरत है। ज्वर कोई बोध नहीं है। लेकिन ज्वर में एक रुग्ण बोधएक रुग्ण सजगता होती है। वह रुग्णता हैउसके पीछे मत जाओ। उसे जाने दोनिष्कि्रयता में उतरो।
 आरंभ में तुम्‍हें लगेगा कि मेरा बोध बढ़ने के बजाए कम हो रहा है। उस कम होने दो क्योंकि जो चीज निष्‍क्रियता के आने से कम होती है वह ज्वरग्रस्त है और इसीलिए कम होती है। उसे कम होने दो। एक क्षण आएगा जब तुम एक संतुलन पर पहुंच जाओगे। उस संतुलन के बिंदु पर फिर न बढती होती है और न घटती। वह स्वस्थ बिंदु हैअब बुखार जा चुका। और संतुलन के उस बिंदु पर तुम्हें जो भी बोध होता है वह सम्यक बोध हैवह ज्वरग्रस्त नहीं है। और काशतुम उस बिंदु की प्रतीक्षा कर सको।
यह कठिन हैक्योंकि आरंभ में तुम्हें लगता है कि मेरी पकड़ ढीली हो रही हैकि मैं सचमुच मुर्दा हो रहा हूंकि मेरी सक्रियतामेरी सजगतामेरा सब कुछ चला गयाकि मैं मृत्यु में उतर रहा हूं। ऐसा लगता हैक्योंकि तुम जिस जीवन को जानते हो वह ज्वरग्रस्त है। दरअसलवह जीवन नहीं हैकेवल ज्वर हैउत्तप्तता हैएक तनाव की अवस्थाअति सक्रियता की अवस्था है। आरंभ में तुम एक ही अवस्था को जानते हो—इस ज्वर की अवस्था को। तुम कुछ और नहीं जानते होइसलिए तुलना कैसे कर सकते हो?
इसलिए जब तुम निष्‍क्रिय होते होशिथिल होते होतो तुम्हें महसूस होगा कि कुछ खो गया है। उसे खो जाने दो। निष्‍क्रियता के साथ रहो। शीघ्र ही एक संतुलन का बिंदु आएगा जब तुम ठीक उस बिंदु पर होगे जहां ज्वर नहीं हैतुम बस स्वयं होंगे। तब कोई दूसरा तुम्हें सक्रियता में नहीं ढकेलेगातब कोई दूसरा तुम्हें संचालित नहीं करेगा। और अब एक सक्रियता तुम्हें घटित होगीलेकिन वह सहज—स्फूर्त होगीवह स्वाभाविक होगी। तुम कुछ करोगेलेकिन अब तुम आगे की ओर खींचे नहीं जाओगे और पीछे की ओर ढकेले नहीं जाओगे।
और वह कसौटी क्या है जिससे तुम जानोगे कि यह सक्रियता मुझ पर थोपी नहीं गई हैकि यह सक्रियता ज्वरग्रस्त नहीं हैयही कसौटी है : अगर कर्म सहज है तो तुम उससे तनावग्रस्त नहीं होंगेकोई बोझ नहीं अनुभव करोगेबल्कि तुम उसका आनंद लोगे। और कर्म अपने आप में लक्ष्य होगाउसका कोई और लक्ष्य नहीं होगा। यह कोई साधन नहीं होगा जिसके जरिए कहीं पहुंचना होयह तुम्हारी ऊर्जा का प्रवाह होगाअतिरेक होगा। और यह अतिरेकयह बाढ़ यहां और अभी होगीयह भविष्य में किसी प्रयोजन के लिए नहीं होगी। तुम उससे आनंदित होगे। वह जो भी कर्म होगा—चाहे बगीचे में गड्डा खोदना हो या वृक्ष की छंटाई करनी हो या बैठना होचलना हो या भोजन करना हो—तुम जो भी कर रहे होगे वह अपने आप में पूर्ण होगावह समग्र कर्म होगा। और उसके बाद तुम थकोगे नहींबल्कि तुम ताजा अनुभव करोगे।
ज्वरग्रस्त सक्रियता तुम्हें थकाती हैवह रुग्ण है। स्वाभाविक सक्रियता तुम्हें पोषण देती हैतुम उसके बाद ज्यादा ऊर्जस्वीज्यादा शक्तिशाली महसूस करते होज्यादा जीवंत महसूस करते हो। वह सक्रियता तुम्हें ज्यादा जीवन प्रदान करती है।
लेकिन आरंभ में जब तुम निष्‍क्रिय होने लगते हो और अकर्म में उतरते हो तो तुम्हें यह अनुभव होना अनिवार्य है कि मेरा बोध कम हो रहा हूं। नहींतुम्हारा बोध नहीं कम हो रहा है, तुम्हारी सिर्फ ज्वरग्रस्त मानसिकताज्वरग्रस्त सजगता कम हो रही है। तुम इस निष्‍क्रियता में प्रतिष्ठित हो जाओगे और एक सहज—स्वाभाविक बोध घटित होगा।
ज्वरग्रस्त सजगता ओर सहज बोध में यही फर्क है। दोनों में यही फर्क है: ज्वरग्रस्त सजगता में एक दिशा में एकाग्रता होती हैशेष सब भूल जाता है। तुम किसी एक चीज पर एकाग्र होते हो। तुम मुझे सुन रहे हो। अगर यह ज्वरग्रस्त सजगता है तो तुम मुझे तो सुनते होलेकिन शेष सब कुछ के प्रति तुम बिलकुल बेहोश होते हो। लेकिन अगर यह निष्‍क्रिय बोध है—ज्वरग्रस्त बोध नहीं—संतुलित और सहज बोध है तो अगर कार गुजरती है तो तुम उसे भी सुनते हो। तब तुम मात्र सजग हो,बोधपूर्ण होतुम सबके प्रति बोधपूर्ण होतुम्हारे चारों ओर जो भी हो रहा हैतुम सबके प्रति बोधपूर्ण हो।
और यही इसका सौंदर्य है कि कार गुजरती है और तुम उसकी आवाज सुनते होलेकिन वह आवाज बाधा नहीं बनती है। अगर तुम ज्वरग्रस्त ढंग से सजग हो तो तुम कार की आवाज सुनोगे तो मुझे सुनने से चूक जाओगेतब गाड़ी बाधा बन जाएगी। क्योंकि तुम नहीं जानते हो कि कैसे उस सबके प्रति पूरी तरह बोधपूर्ण हुआ जाएमात्र बोधपूर्ण हुआ जाएजो तुम्हारे चारों ओर घटित हो रहा है।
तुम्हें एक ही ढंग मालूम है कि कैसे सब कुछ को भूलकर सिर्फ एक चीज के प्रति सजग हुआ जाए। अगर तुम किसी अन्य चीज के प्रति सजग हुए तो तुम्हारा पहली चीज से संपर्क टूट जाएगा। अगर तुम मुझे ज्वरग्रस्त मन से सुन रहे हो तो कोई भी चीज तुम्हें बाधा दे सकती है। क्योंकि जैसे ही तुम्हारा अवधान दूसरी चीज पर जाता हैतुम मुझसे हट जाते होटूट जाते हो। यह अवधान एक आयामी हैयह समग्र नहीं है। और जो स्वाभाविकनिष्‍क्रिय बोध हैवह समग्र होता हैउसे कोई भी चीज बाधा नहीं दे सकती। वह एकाग्रता नहीं हैवह ध्यान है।
एकाग्रता सदा ज्वरग्रस्त होती हैक्योंकि एकाग्रता में तुम अपनी ऊर्जा को एक बिंदु पर जबरदस्ती केंद्रित करते हो। ऊर्जा स्वत: सभी दिशाओं में प्रवाहित होती है। इसे गति करने के लिए कोई एक दिशा नहीं चाहिएऊर्जा सर्वत्र प्रवाहित होते रहने से सहज रहती है। हम द्वंद्व निर्मित करते हैंक्योंकि हम कहते हैं कि इसे सुनना शुभ है और उसे सुनना अशुभ है। अगर तुम प्रार्थना कर रहे हो और कोई बच्चा हंसने लगता है तो तुम उसे विध्‍न मानते हो। तुम्हें उस सरल बोध का खयाल भी नहीं है जिसमें प्रार्थना भी चलती रहती है और बच्चा भी हंसता रहता है और दोनों में कोई विरोध नहीं हैकोई संघर्ष नहीं है। वे दोनों एक ही समष्टि के हिस्से हैं।
इसे प्रयोग करो। पूरी तरह सावचेत होओपूरी तरह बोधपूर्ण होओ। एकाग्र मत होओ। सब तरह की एकाग्रता थकाती है। उसमें तुम थकते हो क्योंकि तुम ऊर्जा के साथ जबरदस्ती कर रहे होअस्वाभाविक ढंग से उसे मजबूर कर रहे हो। सरल बोध सर्वग्राही होता हैउसमें सब समाहित होता है। जब तुम निष्‍क्रिय होते होशात होते होतो सब कुछ तुम्हारे चारों ओर घटित होता है और कुछ भी तुम्हें विचलित नहीं करता। और तब कुछ भी तुम्हारे बोध से चूकता नहींसब कुछ घटित होता रहता है और तुम उसे जानते रहते होदेखते रहते हो।
एक आवाज आती हैवह तुम्हें सुनाई पड़ती हैतुम्हारे भीतर गति करती है और गुजर जाती हैऔर तुम जैसे के तैसे रहते हो। जैसा कि खाली कमरे में होता है। अगर यहां कोई न हो तो सड़क चलती रहेगी और उसकी आवाज कमरे में आती रहेगीगुजरती रहेगी और कमरा अप्रभावित रहेगा—मानो कुछ भी न हुआ हो।
निष्‍क्रिय बोध में तुम अप्रभावित रहते होअछूते रहते हो। सब कुछ घटित होता हैतुम से होकर गुजरता है; लेकिन तुम उससे अस्‍पर्शित रहते हो, बेदाग रहते हो। ज्वरग्रस्‍त एकाग्रता में प्रत्येक चीज तुम्हें छूती हैतुम्हें प्रभावित करती है।
इस संबंध में एक और बात। पूर्वीय मनोविज्ञान में एक शब्द हैसंस्कार। अगर तुम किसी चीज पर अपने अवधान को एकाग्र कर रहे हो तो वह एकाग्रता संस्कार बनाएगीतुम उस चीज से संस्कारित हो जाओगेतुम्हें एक संस्कार मिल जाएगा। और अगर तुम मात्र बोधपूर्ण होनिष्‍क्रिय ढंग से बोधपूर्ण होअगर तुम एकाग्र नहीं होअपने अवधान को कहीं केंद्रित नहीं कर रहे होतुम बस हों—तों कुछ भी तुम्हें संस्कारित नहीं करेगा। तब तुम कोई संस्कार इकट्ठा नहीं करते हो। तुम अस्पर्शितशुद्ध,कुंवारे बने रहते हो—कुछ भी तुम्हें स्पर्श नहीं करता है। जो व्यक्ति निष्‍क्रिय रूप से बोधपूर्ण हैवह संसार में रहता हैलेकिन संसार उसमें नहीं रहता है। वह संसार से गुजरता हैलेकिन संसार उससे नहीं गुजरता है।
झेन संत बोकोजू कहा करते थे. 'जाओ और नदी को पार करोलेकिन ऐसे पार करो कि पानी तुम्हें स्पर्श न करे।’ और उनके आश्रम के पास जो नदी थी उस पर कोई पुल नहीं था। अनेक शिष्य चेष्टा करते थेलेकिन जब वे नदी को पार करते थे तो पानी उन्हें छू जाता था। एक दिन एक शिष्य बोकोजू के पास आया और उसने कहा 'आप हमें पहेलियां देते हैं। हम नदी पार करते हैंउस पर कोई पुल नहीं है। अगर पुल होता तो बेशक हम नदी पार करते और पानी हमें नहीं छूता। लेकिन हमें नदी से होकर गुजरना पड़ता है और पानी छूता है।’ बोकोजू ने कहा. 'मैं आऊंगा और नदी पार करूंगा। तुम देखना।
और बोकोजू ने नदी पार की। निश्चित ही पानी उनके पैर में लग गया और शिष्यों ने कहा. 'देखिएपानी तो आपको लग गया।’ बोकोजू ने कहा. 'जहां तक मैं जानता हूं पानी मुझे नहीं लगा है। मैं तो साक्षी मात्र था। पानी ने मेरे पैर को स्पर्श किया,मुझे नहीं। मैं तो केवल देख रहा था।
निष्‍क्रिय सजगता मेंसाक्षी— भाव में तुम संसार से अस्पर्शित गुजरते हो। तुम संसार में होलेकिन संसार तुममें नहीं है।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

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