Monday 19 February 2018

आरंभ से आरंभ करो

तंत्र--सूत्र--(भाग--4) प्रवचन--62

आरंभ से आरंभ करो—(प्रवचन—बाष्‍ठवां)

      प्रश्‍नसार:
      1—मंजिल को पाने की जल्‍दी और प्रयत्‍न—रहित खेल में संगति कैसे बिठाएं?
      2—अपने शत्रु को भी अपने में समाविष्‍ट करने की शिक्षा क्‍या दमन पर नहीं ले जाती है?

पहला प्रश्न :

आरंभ से आरंभ आपने कल कहा कि हमें अपनी मंजिल की तरफ शीघ्रता से कदम रखने चहिए, क्यौंकि हमारे पास समय बहुत थोड़े है। लेकिन कुछ समय पहले आपने कहा था कि मंजिल की तरफ चलने की पूरी प्रक्रिया प्रयत्न— रहित खेल होना चाहिए आप इन दो शब्दों के बीच, जल्दी और खेल के बीच संगीत कैसे बिठाएंगे? क्योंकि जो जल्‍दी करता है वह खेल के सुख को कभी नहीं पाता है।।


हली बातभिन्न—भिन्न विधियों में संगति बिठाने की चेष्टा मत करो। जब मैं कहता हूं कि जल्दी मत करोसमय को बिलकुल भूल जाओगंभीर मत होओकोई प्रयत्न मत करोसमर्पण करोजो होता है उसे होने दो—तो यह एक भिन्न ही विधि है। यह विधि मनुष्यता के सिर्फ एक हिस्से के काम की हैसभी लोग इस विधि का प्रयोग नहीं कर सकते। और जिस ढंग के लोग इस विधि का प्रयोग कर सकते हैं वे इसके विपरीत विधि का प्रयोग नहीं कर सकते।
यह विधि स्त्रैण चित्त के लिए है। लेकिन जरूरी नहीं कि सभी स्त्रियों के पास स्त्रैण—चित्त हो और सभी पुरुषों के पास पुरुष—चित्त हो। इसलिए जब मैं स्त्रैण—चित्त की बात करता हूं तो उससे मेरा मतलब स्त्रियां नहीं है। स्त्रैण—चित्त का अर्थ है वह मन जो समर्पण कर सकेजो गर्भ की तरह ग्रहणशील होजो खुला और निष्‍क्रिय हो। आधी मनुष्य—जाति इस कोटि में हो सकती हैलेकिन दूसरा आधा वर्ग सर्वथा भिन्न है। जैसे पुरुष और स्त्री मनुष्य—जाति के आधे— आधे हिस्से हैंवैसे ही स्त्रैण—चित्त और पुरुष—चित्त भी मनुष्य—मन के आधे—आधे हिस्से हैं।
स्त्रैण—चित्त प्रयत्न नहीं कर सकताअगर वह प्रयत्न करता है तो वह कहीं नहीं पहुंचेगा। प्रयत्न उसके लिए सिर्फ तनाव और संताप पैदा करेगाहाथ उसके कुछ लगेगा नहीं। स्त्रैण—चित्त का पूरा ढंग ही प्रतीक्षा करना है और चीजों को घटित होने देना है।
जैसा कि स्त्रियों का स्वभाव है : स्त्री यदि प्रेम में भी हो तो वह पहल नहीं करेगी। और अगर कोई स्त्री पहल करे तो तुम्हें उससे दूर रहना चाहिए और बचना चाहिए। क्योंकि वह पुरुष—प्रवृत्ति की हैस्त्री—शरीर के भीतर पुरुष—चित्त है और तुम उपद्रव में पड़ोगे। अगर तुम सचमुच पुरुष हो तो वह स्त्री जल्दी ही तुम्हारे लिए आकर्षक नहीं रह जाएगी। लेकिन अगर तुम स्त्रैण हो—तुम्हारा शरीर पुरुष का है और चित्त स्त्री का—तो तुम स्त्री को पहल करने दोगे और तुम सुखी होगे। लेकिन उस हालत में शरीर के तल पर वह स्त्री है और तुम पुरुष हो और मन के तल पर तुम स्त्री हो और वह पुरुष है।
स्त्री प्रतीक्षा करेगी। वह कभी नहीं कहेगी कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं जब तक उससे यह निवेदन तुम नहीं कर चुकोगे और प्रतिबद्ध नहीं हो जाओगे। प्रतीक्षा में ही स्‍त्री की शक्‍ति है। पुरुष—चित्त आक्रामक होता है। उसे कुछ करना पड़ता है। वह पहल करता हैआगे बढ़ता है।
यही बात आध्यात्मिक यात्रा में घटती है। अगर तुम्हारा चित्त आक्रामक हैपुरुष—चित्त हैतो प्रयत्न आवश्यक है। तब जल्दी करोतब समय और अवसर मत खोओ। तब अपने भीतर उत्कटतातत्परता और संकट की भाव—दशा निर्मित करो,ताकि तुम अपने प्रयत्न में अपने पूरे प्राणों को उंडेल सको। जब तुम्हारा प्रयत्न समग्र होगातुम पहुंच जाओगे। और अगर तुम्हारा चित्त स्त्रैण है तो कोई जल्दी नहीं है—बिलकुल नहीं। तब समय की बात ही नहीं है।
तुमने शायद ध्यान दिया हो या न दिया हो कि स्त्रियों को समय का बोध नहीं रहतारह नहीं सकता। पति बाहर खड़ा है,कार का हार्न बजा रहा है और कह रहा है कि जल्दी नीचे आओ। और पत्नी कहती हैमैं हजार दफे कह चुकी हूं कि एक मिनट में आईदो घंटों से कह रही हूं कि एक मिनट में आई—क्यों पागल हुए जा रहे होहार्न क्यों बजाए जा रहे होस्त्रैण—चित्त को समय का भाव नहीं हो सकता। यह तो पुरुष—चित्त हैआक्रामक चित्तजो समय के बोध से भरा हैसमय के लिए चिंतित है।
स्त्रैण—चित्त और पुरुष—चित्त एक—दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। स्त्री जल्दी में नहीं हैउसके लिए कोई जल्दी नहीं है। दरअसल उसे कहीं पहुंचना नहीं है। यही कारण है कि स्त्रियां महान नेतावैज्ञानिक और योद्धा नहीं होतीं—हो नहीं सकतीं। और अगर कोई स्त्री हो जाएजैसे जॉन आफ आर्क या लक्ष्मी बाई तो उसे अपवाद मानना चाहिए। वह दरअसल पुरुष—चित्त है—सिर्फ शरीर स्त्री का हैचित्त पुरुष का है। उसका चित्त जरा भी स्त्रैण नहीं है। स्त्रैण—चित्त के लिए कोई लक्ष्य नहीं हैमंजिल नहीं है।
और हमारा संसार पुरुष—प्रधान संसार है। इस पुरुष—प्रधान संसार में स्त्रियां महान नहीं हो सकतींक्योंकि महानता किसी उद्देश्य सेकिसी लक्ष्य से जुड़ी होती है। यदि कोई लक्ष्य उपलब्ध करना हैतभी तुम महान हो सकते हो। और स्त्रैण—चित्त के लिए कोई लक्ष्य नहीं है। वह यहीं और अभी सुखी है। वह यहीं और अभी दुखी है। उसे कहीं पहुंचना नहीं है। स्त्रैण—चित्त वर्तमान में रहता है।
यही कारण है कि स्त्री की उत्सुकता दूर—दराज में नहीं होती हैवह सदा पास—पड़ोस में उत्सुक होती है। वियतनाम में क्या हो रहा हैइसमें उसे कोई रस नहीं है। लेकिन पड़ोसी के घर में क्या हो रहा हैमोहल्ले में क्या हो रहा हैइसमें उसका पूरा रस है। इस पहलू से उसे पुरुष बेबूझ मालूम पड़ता है। वह पूछती है कि तुम्हें क्या जानने की पड़ी है कि निक्सन क्या कर रहा है या माओ क्या कर रहा है! उसका रस पास—पड़ोस में चलने वाले प्रेम—प्रसंगों में है। वह निकट में उत्सुक हैदूर उसके लिए व्यर्थ है। उसके लिए समय का अस्तित्व नहीं है।
समय उनके लिए है जिन्हें किसी लक्ष्य परकिसी मंजिल पर पहुंचना है। स्मरण रहेसमय तभी हो सकता है जब तुम्हें कहीं पहुंचना है। अगर तुम्हें कहीं पहुंचना नहीं है तो समय का क्या मतलब हैतब कोई जल्दी नहीं है।
इसे एक और दृष्टिकोण से समझने की कोशिश करो। पूर्व स्त्रैण है और पश्चिम पुरुष
जैसा है। पूर्व ने कभी समय के संबंध में बहुत चिंता नहीं कीपश्चिम समय के पीछे पागल है। पूर्व बहुत विश्रामपूर्ण रहा हैवहां इतनी धीमी गति हैमानो गति ही न हो। वहां कोई बदलाहट नहीं हैकोई क्रांति नहीं है। विकास इतना चुपचाप है कि उससे कहीं कोई शोर नहीं होता। पश्चिम बस पागल हैवहां रोज क्रांति चाहिएहर चीज को बदल डालना है। जब तक सब कुछ बदल न जाए जब तक उसे लगता है कि हम कहीं जा ही नहीं रहेकि हम ठहर गए हैं। अगर सब कुछ बदल रहा है और सब कुछ उथल—पुथल में हैतब पश्चिम को लगता है कि कुछ हो रहा है। और पूर्व सोचता है कि अगर उथल—पुथल मची है तो उसका मतलब है कि हम रुग्ण हैंबीमार हैं। उसे लगता है कि कहीं कुछ गलत हैतभी तो उथल—पुथल हो रही है। अगर सब कुछ सही है तो क्रांति की क्या जरूरतबदलाहट क्यों?
पूर्वी चित्त स्त्रैण है। इसीलिए पूर्व में हमने सभी स्त्रैण गुणों का गुणगान किया हैहमने करुणाप्रेमसहानुभूतिअहिंसा,स्वीकारसंतोषसभी स्त्रैण गुणों को सराहा है। पश्चिम में सभी पुरुषोचित गुणों की प्रशंसा की जाती हैवहां संकल्पसंकल्प—बलअहंकारआत्मसम्मानस्वतंत्रता और विद्रोह जैसे मूल्य प्रशंसित हैं। पूर्व में आज्ञाकारितासमर्पणस्वीकार जैसे मूल्य मान्य हैं। पूर्व की बुनियादी वृत्ति स्त्रैण हैकोमल हैऔर पश्चिम की वृत्ति पुरुष हैकठोर है।
तो इन विधियों को मिलाया नहीं जा सकता हैउनमें समन्वय और सामंजस्य नहीं बिठाया जा सकता है। समर्पण की विधि स्त्रैण चित्त के लिए है। और प्रयत्नसंकल्प और श्रम की विधि पुरुष—चित्त के लिए है। और वे एक—दूसरे के बिलकुल विपरीत होने ही वाली हैं। अगर तुम दोनों में सामंजस्य बिठाने की चेष्टा करोगे तो तुम उनकी खिचड़ी बना दोगे। वह सामंजस्य अर्थहीन होगाबेतुका होगाऔर खतरनाक भी होगा। वह किसी के भी काम का नहीं होगा।
तो यह स्मरण रहे। कई बार ये विधियां परस्पर विरोधी मालूम पड़ेगीक्योंकि वे भिन्न—भिन्न ढंग के चित्तों के लिए बनी हैं और उनके बीच कोई समन्वय बिठाने की कोशिश नहीं की गई है। अगर तुम्हें लगे कि उनमें कुछ विरोधाभास है तो उसको लेकर परेशान मत होओ। विरोधाभास है। और केवल छोटे मन के लोगबहुत क्षुद्रमति लोग ही विरोधाभास से डरते हैं। वे बेचैनी अनुभव करते हैंघबरा जाते हैं। वे सोचते हैं कि कहीं ?? नहीं होना चाहिएसब कुछ संगत होना चाहिए।
यह मूढ़ता हैक्योंकि जीवन स्वयं असंगत है। जीवन स्वयं विरोधों से बना है। तो सत्य विरोध—रहित नहीं हो सकता,केवल झूठ विरोध—रहित हो सकता है। सिर्फ असत्य सुसंगत हो सकता हैसत्य तो असंगत होगा हीक्योंकि उसे अपने में वह सब समेटना है जो जीवन में है। सत्य को समग्र होना है।
और जीवन विरोधाभासी है। पुरुष है और स्त्री है। इसमें मैं क्या कर सकता हूंऔर शिव क्या कर सकते हैंऔर पुरुष स्त्री के विपरीत है। यही कारण है कि स्त्री—पुरुष एक—दूसरे को आकर्षित करते हैंअन्यथा आकर्षण ही नहीं होता।
सच तो यह है कि विपरीतता से ही आकर्षण निर्मित होता है। ध्रुवीय विपरीतता ही चुंबकीय शक्ति बनती है। इसीलिए जब स्त्री—पुरुष मिलते हैं तो उन्हें सुख होता है। जब दो ध्रुवीय विपरीतताएं मिलती हैं तो वे एक—दूसरे को काट देती हैं एक—दूसरे को नकार देती हैं। वे एक दूसरे को काट देती है। क्‍योंकि वे परस्‍पर विपरीत है। जब स्‍त्री—पूरूष एक क्षण के लिए भी मिलते हैं—वस्तुत: मिलते हैंशरीर से ही नहींसमग्रत: मिलते है—जब उनके प्राण प्रेम में जुड़ते हैंतब उस एक क्षण के लिए वे विलीन हो जाते हैं। उस क्षण में वहां न कोई पुरुष होता है और न स्त्रीशुद्ध अस्तित्व होता हैशुद्ध होना होता है। और वही उसका आनंद है।
वही घटना तुम्हारे भीतर भी घट सकती है। गहन विश्लेषण से यह बात प्रकट हुई है कि तुम्हारे भीतर भी ध्रुवीयता है,ध्रुवीय विपरीतता है। अब आधुनिक मनोविश्लेषण ने मन की गहराइयों में उतरकर यह पता लगाया है कि तुम्हारे भीतर भी चेतन मन है और अचेतन मन है—दो ध्रुवीय विपरीतताए हैं। अगर तुम पुरुष हो तो तुम्हारा चेतन चित्त पुरुष है और अचेतन चित्त स्त्री है। और अगर तुम स्त्री हो तो तुम्हारा चेतन चित्त स्त्री है और अचेतन चित्त पुरुष। अचेतन चेतन का विपरीत है।
गहरे ध्यान में तुम्हारे चेतन और अचेतन के बीच एक प्रगाढ़ मिलनएक प्रगाढ़ संभोग घटित होता हैएक गहन आर्गाज्‍म घटित होता है—दोनों एक हो जाते हैं। और जब वे एक होते हैं तो तुम आनंद के गौरीशंकर पर पहुंच जाते हो।
तो स्त्री और पुरुष दो ढंगों से मिल सकते हैं। तुम बाहर की किसी स्त्री से मिल सकते होलेकिन यह मिलन क्षणिक ही हो सकता है—बहुत क्षणिक। एक क्षण के लिए शिखर आता हैऔर फिर चीजें बिखरने लगती हैं।
स्त्री—पुरुष का एक और मिलन है जो तुम्हारे भीतर घटित होता है। वहां तुम्हारे चेतन और अचेतन का मिलन होता है;और यह मिलन शाश्वत हो सकता है। काम—सुख भी आध्यात्मिक आनंद की ही झलक हैलेकिन वह क्षणभंगुर है। लेकिन जब सच्चा आंतरिक मिलन घटित होता है तो वह समाधि हैवह आध्यात्मिक घटना है।
लेकिन तुम्हें अपने चेतन मन से शुरू करना है। अगर तुम्हारा चेतन चित्त स्त्रैण है तो समर्पण सहयोगी होगा। और स्मरण रहेस्त्री होने से स्त्रैण चित्त भी होगाऐसा जरूरी नहीं है उससे ही जटिलता पैदा होती है। अन्यथा तो बात बहुत आसान होती;स्त्री समर्पण का मार्ग पकड़ती और पुरुष संकल्प का।
लेकिन बात इतनी सरल नहीं है। ऐसी स्त्रियां हैं जिनके पास पुरुष—चित्त हैजीवन के प्रति उनका रुझान संघर्ष का है। और ऐसी स्त्रियों की संख्या प्रतिदिन बढ़ रही है। स्त्रियों का मुक्ति—आंदोलन अधिकाधिक पुरुष—चित्त स्त्रियां पैदा करेगावे अधिकाधिक आक्रामक होंगी। उनके लिए फिर समर्पण का मार्ग नहीं रह जाएगा। और क्योंकि स्त्रियां पुरुषों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही हैंइसलिए पुरुष आक्रमण से हट रहा हैवह अधिकाधिक स्त्रैण हो रहा है। भविष्य में पुरुष के लिए समर्पण का मार्ग अधिक उपयोगी होगा।
तुम्हें अपने संबंध में निर्णय लेना है। और सही—गलत की भाषा में मत सोचो। ऐसा मत सोचो कि मैं पुरुष हूं फिर मेरे पास स्त्रैण चित्त कैसे हो सकता है। तुम्हारा चित्त स्त्रैण हो सकता हैउसमें कुछ गलत नहीं है। स्त्रैण चित्त बहुत सुंदर है। और ऐसा भी मत सोचो कि मैं स्त्री हूं तो मेरे पास पुरुष—चित्त कैसे हो सकता है। उसमें भी कुछ गलत नहीं हैपुरुष—चित्त भी म् बहुत सुंदर है। अपने चित्त के संबंध में प्रामाणिक होओ। ठीक—ठीक समझने की कोशिश करो कि मेरे चित्त का ढंग क्या है और उसके अनुसार अपने लिए योग्य मार्ग पर चलो।
और कोई समन्वय करने की चेष्टा मत करो। मुझसे मत पूछो कि आप कैसे इन दोनों के बीच संगति बिठाएगे। मैं कोई संगति नहीं बिठाऊंगा। मैं समझोते के पक्ष में बिलकुल नहीं हूं। और मैं सुसंगत वक्तव्यों के पक्ष में भी नहीं हूं। यह बात मूढ़तापूर्ण हैबचकानी है। जीवन विरोधों से बना है और इसीलिए जीवन जीवन है। सिर्फ मृत्यु सुसंगत हैविरोध—रहित है। जीवन विरोधों में पलता हैविरोधी ध्रुवों से गुजर कर आगे बढ़ता है। और यह विरोधयह चुनौती ऊर्जा निर्मित करती है। उससे ही ऊर्जा पैदा होती है और जीवन गति करता है।
इसे ही हीगल के मानने वाले द्वंद्वात्मक गति कहते हैं। वादप्रतिवाद और फिर संवाद। और यह संवाद फिर वाद बन जाता है और अपना प्रतिवाद पैदा करता है। इस तरह यात्रा चलती रहती है। जीवन ब्लू—सुरा नहीं है। जीवन तर्कबद्ध नहीं है। जीवन द्वंद्वात्मक है।
तुम्हें तर्कबद्धता और द्वंद्वात्मकता के भेद को ठीक से समझ लेना चाहिए। तुम सोचते हो कि जीवन तर्कबद्ध हैइसलिए पूछते हो कि आप सामंजस्य कैसे बिठाएंगे। क्योंकि तर्क तो सदा सामंजस्य बिठाने की कोशिश करता हैवह विरोधी कोविपरीत को बर्दाश्त नहीं कर सकता। तर्क को किसी तरह दिखाना है कि जीवन में कहीं विरोध नहीं हैऔर अगर कहीं विरोध है तो दोनों पक्ष सही नहीं हो सकतेएक न एक जरूर गलत होगा। तर्क कहता है कि दोनों पक्ष एक साथ गलत तो हो सकते हैंलेकिन दोनों एक साथ सही नहीं हो सकते। तर्क सब जगह संगति खोजने की चेष्टा करता है।
विज्ञान तर्कपूर्ण है। यही वजह है कि विज्ञान जीवन के प्रति समग्रत: सच नहीं हैहो नहीं सकता। जीवन विरोधाभासी है। जीवन अतर्क्य है। वह विपरीत के द्वारा काम करता है। जीवन विपरीत से भयभीत नहीं हैवह विपरीत का उपयोग करता है। विपरीत देखने में ही विपरीत हैंगहरे में वे संयुक्त हैंजुड़े हुए हैं। जीवन द्वंद्वात्मक हैतर्कपूर्ण नहीं। जीवन विरोधों के बीच संवाद है—सतत संवाद।
एक क्षण के लिए विचार करो : अगर विरोध न होविपरीत न होतो जीवन मृत हो जाएगाजीवन जीवन न रहेगा। क्योंकि चुनौती कहां से आएगीआकर्षण कहां से आएगाऊर्जा कहां से आएगीतब जीवन ब्लू—सुरा होगामृत होगा। द्वंद्व के कारण हीविपरीत के कारण ही जीवन संभव है।
पुरुष और स्त्री बुनियादी विपरीतताए हैंऔर तब चुनौती से प्रेम की घटना का जन्म होता है। और फिर पूरा जीवन प्रेम के चारों ओर घूमता है। अगर तुम्हारा प्रेमी और तुम इस समग्रता से एक हो जाओ कि कोई अंतराल न रहे तो तुम दोनों मृत हो जाओगे। तब तुम जीवित न रह सकोगे। तब तुम दोनों इस द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से विदा हो जाओगे।
तुम इस जीवन में तभी तक रह सकते हो जब तक तुम्हारी एकता समग्र न हो। और तुम्हें एक—दूसरे से बार—बार दूर हटना पड़ता हैताकि फिर—फिर निकट आ सको। यही कारण है कि प्रेमी आपस में लड़ते रहते हैं। वह लड़ाई दूरी निर्मित करती है। दिन भर वे लड़ेंगेएक—दूसरे से बहुत दूर चले जाएंगेएक—दूसरे के शत्रु बन जाएंगे। उसका मतलब है कि वे अब विपरीत ध्रुवों पर हैं—वे एक—दूसरे से इतनी दूर चले गए हैं जितनी दूर जाना संभव था। प्रेमी सोचने लगते हैं कि कैसे इस स्त्री की हत्या कर दूं और प्रेमिकाएं सोचने लगती हैं कि कैसे इस मुसीबत से छुटकारा हो। वे एक—दूसरे से उतनी दूर हट गए हैं जितनी दूर वे हट सकते थे। और फिर संध्‍या वे प्रेम कर रहे है।
जब वे बहुत दूरबहुत दूर हो जाते हैं तो फिर आकर्षण लौट आता है। वे इतनी दूरी से एक—दूसरे को देखते हैं कि फिर आकर्षित होने लगते हैं। दूरी पर वे फिर स्त्री और पुरुष हो गए हैं—प्रेमी न रहे। अब वे एक—दूसरे के लिए सिर्फ स्त्री और पुरुष हैंअजनबी हैं। अब वे फिर एक—दूसरे के प्रेम में पड़ेंगे। फिर वे निकट आएंगे। और फिर एक बिंदु आएगा जब वे क्षण भर के लिए एक हो जाएंगे। और वही उनका सुख होगाआनंद होगा।
लेकिन फिर उस एक होने के क्षण में ही उनके दूर हटने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। जिस क्षण में पत्नी और पति मिलते हैंउसी क्षणयदि वे साक्षी होकर देख सकें तो वे देखेंगे कि हम फिर अलग होने लगे हैं। शिखर का जो क्षण है वही क्षण अलग होनेविपरीत होने की प्रक्रिया की शुरुआत का क्षण भी है।
और यह क्रम चलता रहता है। तुम पुन: —पुन: निकट आते हो और फिर—फिर दूर होते हो। यही अर्थ है जब मैं कहता हूं कि जीवन विपरीतता के द्वारा ऊर्जा का सृजन करता है। विपरीतता के बिना जीवन नहीं हो सकता है। यदि दो प्रेमी वस्तुत: एक हो जाएं तो वे जीवन से विदा हो जाएंगे। वे मोक्ष को उपलब्ध हो गएवे मुक्त हो गए। उनका अब पुनर्जन्म नहीं होगा। अब भविष्य में उनके लिए जीवन नहीं होगा। अगर दो प्रेमी इतनी समग्रता से एक हो सकें तो उनका प्रेम गहरे से गहरा ध्यान बन गया। और उन्हें वह उपलब्ध हो गया जो बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे उपलब्ध हुआ था। उन्हें वह उपलब्ध हो गया जो क्राइस्ट को क्रास पर उपलब्ध हुआ था। वे अद्वैत को उपलब्ध हो गए। वे अब जीवन मेंसंसार में नहीं रह सकते।
जैसा हम जानते हैंअस्तित्व द्वैतमूलक हैद्वंद्वात्मक है। और ये विधियां तुम्हारे लिए हैं जो द्वैत में जीते हैं। इसलिए अनेक विपरीतताएं होंगी। क्योंकि ये विधियां दर्शनशास्त्र नहीं हैंये विधियां प्रयोग के लिए हैंजीए जाने के लिए हैं। वे गणित के सूत्र नहीं हैंवे वास्तविक जीवन—प्रक्रियाएं हैं। वे द्वंद्वात्मक हैंवे विरोधाभासी हैं। इसलिए उनमें समन्वय बिठाने के लिए मत कहो। वे एक जैसी नहीं हैंवे परस्पर विरोधी हैं।
तुम तो यह देखो कि तुम्हारा प्रकार क्या हैतुम्हारा ढंग क्या है। क्या तुम शिथिल हो सकते होक्या तुम विश्राम में उतर सकते होक्या तुम जो होता है उसे होने दे सकते होक्या तुम निष्‍क्रिय तथाता में उतर सकते होयदि तुम्हारा उत्तर ही में है तो ये विधियां तुम्हारे लिए नहीं हैंक्योंकि ये संकल्प की मांग करती हैं। अगर तुम विश्राम में नहीं जा सकतेऔर अगर मैं तुमसे कहता हूं कि विश्राम करो और तुम तुरंत पूछते हो कि कैसे विश्राम करूंतो वह कैसे का पूछना तुम्हारे मन की खबर देता है। वह प्रश्न बताता है कि तुम सहजता से शिथिल नहीं हो सकतेविश्राम नहीं कर सकते। विश्राम के लिए भी तुम्हें प्रयत्न की जरूरत हैइसलिए तुम पूछते हो कि कैसे विश्राम करूं।
विश्राम विश्राम हैउसमें कैसे के लिए जगह नहीं है। अगर तुम विश्राम करना चाहते हो तो तुम जानते हो कि विश्राम कैसे होता है। तब तुम बस विश्राम करते हो। उसकी कोई विधि नहीं हैउपाय नहीं है। उसमें कोई प्रयत्न नहीं है। जैसे रात में तुम सो जाते होतुम कभी यह नहीं पूछते कि कैसे सोऊ।
लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो अनिद्रा से पीड़ित हैं। अगर तुम उनसे कहो कि मैं बस तकिए पर सिर रखता हूं और सो जाता हूं तो वे तुम पर विश्वास नहीं करेंगे। और उनका संदेह अर्थपूर्ण है। वे तुम पर विश्‍वास नहीं करेंगे; उन्‍हें लगेगा कि तुम उन्‍हें धोखा दे रहे हो। क्‍योंकि वे भी तकिए पर सिर रखते हैंवे सारी रात तकिए पर सिर रखे रहते हैंऔर कुछ नहीं होता है। वे पूछेंगे कि कैसेकैसे तकिए पर सिर रखूंकोई राज जरूर होगा जो तुम छिपा रहे हो। उन्हें लगेगा कि तुम उन्हें धोखा दे रहे हो। सारा संसार उन्हें धोखा देता मालूम पड़ेगा। वे कहेंगे. 'सब लोग यही कहते हैं कि हम बस सो जाते हैंकोई विधि नहीं है,कोई तरकीब नहीं है।
वे तुम्हारा विश्वास नहीं करेंगे। और तुम उन्हें गलत भी नहीं कह सकते। तुम कहते हो. 'हम बस अपना सिर तकिए पर रखते हैंआंखें बंद कर लेते हैंबत्ती बुझा देते हैंनींद में खो जाते हैं।’ वे भी यही सब करते हैंवे भी यही क्रियाकांड करते हैं—और वे तुमसे ज्यादा सलीके से करते हैं—लेकिन फिर भी कुछ फल हाथ नहीं आता। रोशनी बंद हैवे आंखें बंद किए बिस्तर पर पड़े हैंऔर नींद आने का नाम नहीं लेती।
जब तुम सहजता से शिथिल होने की क्षमता खो देते हो तो विधि जरूरी हो जाती है। तब तुम विधि के बिनाउपाय के बिना नहीं सो सकते।
तो अगर तुम्हारा चित्त विश्रामपूर्ण हो सकता है तो समर्पण तुम्हारा मार्ग है। और कोई समस्या मत खड़ी करोबस समर्पण करो। कम से कम आधे लोग यह कर सकते हैं। तुम्हें पता हो या न होलेकिन पचास प्रतिशत लोगों में समर्पण की संभावना हैक्योंकि पुरुष—चित्त और स्त्रैण—चित्त एक अनुपात में होते हैं। वे सदा पचास—पचास प्रतिशत के अनुपात में होते हैं;लगभग सभी क्षेत्रों में आधे —आधे की संख्या में होते हैंक्योंकि स्त्री के विपरीत ध्रुव के बिना पुरुष का होना संभव ही नहीं है। प्रकृति में एक गहन संतुलन है।
क्या तुम जानते होअगर एक सौ लड़कियां पैदा होती हैं तो उनके मुकाबले एक सौ पंद्रह लड़के पैदा होते हैंकारण यह है कि लड़के लड़कियों से कमजोर होते हैं। कामवासना के प्रौढ़ होने की उम्र तक पंद्रह लड़के मर जाएंगे। इसलिए सौ लड़कियों के पीछे एक सौ पंद्रह लड़के पैदा होते हैं। लड़कियां मजबूत होती हैंउनमें ज्यादा शक्ति होती हैवे ज्यादा प्रतिरोध कर सकती हैं। लड़के कमजोर होते हैंउनमें उतनी प्रतिरोध की शक्ति नहीं होती। इसीलिए सौ लड़कियों के मुकाबले एक सौ पंद्रह लड़के! ये पंद्रह लड़के पीछे विदा हो जाएंगे। चौदह वर्ष की उम्र तक आते —आतेजब लड़के—लड़कियां कामवासना की दृष्टि से प्रौढ़ होते हैं,उनकी संख्या बराबर हो जाएगी।
प्रत्येक पुरुष के लिए एक स्त्री है और प्रत्येक स्त्री के लिए एक पुरुष। क्योंकि एक आंतरिक खिंचाव है जिसके बिना वे नहीं जी सकतेवह ध्रुवीय विपरीतता बहुत जरूरी है।
और वही नियम आंतरिक मन के साथ भी सही है। अस्तित्व कोप्रकृति को संतुलन की जरूरत है। इसलिए तुममें से आधे लोग स्त्रैण हैं और वे बहुत आसानी से गहरा समर्पण कर सकते हैं।
लेकिन तुम अपने लिए समस्याएं खड़ी कर सकते हो। हो सकता है तुम्हें समर्पण करने का भाव होलेकिन तुम सोचते हो कि मैं समर्पण कैसे कर सकता हूं। तुम्हें लगता कि मेरे अहंकार को चोट पहुंचेगी। तुम समर्पण करने से भयभीत हो जाते हो;क्योंकि तुम्हें सखाया गया है कि स्वतंत्र बनोस्वतंत्र रहो। अपने को खोओ मतकिसी दूसरे के हाथ में अपनी बागडोर मत दे दो। सदा अपने मालिक रहो।
यह हमें सिखाया गया है। ये सीखी हुई कठिनाइयां हैं। तुम्हें लग सकता है कि मैं समर्पण कर सकता हूंलेकिन फिर दूसरी समस्याएं आती हैं जो तुम्हें समाज सेसंस्कृति सेशिक्षा से मिली हैं। और उनसे सदा समस्याएं निर्मित होती हैं।
अगर तुम्हें सचमुच लगता है कि समर्पण तुम्हारे लिए नहीं है तो उसे भूल जाओउसकी फिक्र ही छोड़ दो। और तब अपनी सब ऊर्जा प्रयत्न में उंडेल दो।
ये दो अतियां हैं। एकअगर तुम वस्तुत: स्त्रैण चित्त हो तो तुम्हें कहीं नहीं जाना है। तब कोई मंजिल नहीं हैतब कोई ईश्वर नहीं है जिसे पाना हैभविष्य में कोई स्वर्ग नहीं हैकुछ भी नहीं है। अब भाग—दौड़ में मत रहीवर्तमान में रहो। और तुम्हें वह सब यहां और अभी अनायास प्राप्त हो जाएगा जो पुरुष—चित्त बहुत भाग—दौड़ और कठिन श्रम से प्राप्त करता है। अगर तुम विश्राम में हो सको तो ठीक अभी ही तुम मंजिल पर हो।
पुरुष—चित्त को तब तक दौड़ना होगा जब तक वह बिलकुल थककर गिर न जाए। तभी वह विश्राम कर सकता है। थककर चूर होने के लिए पुरुष—चित्त को आक्रमणप्रयत्न और श्रम चाहिए। जब थकावट समग्र होती है तभी उसके लिए विश्राम और समर्पण संभव होता है। समर्पण उसके लिए सदा अंत में आता है। स्त्रैण चित्त के लिए समर्पण सदा आरंभ में है। तुम एक ही मंजिल पर पहुंचते होलेकिन पहुंचने के रास्ते भिन्न—भिन्न हैं।
तो कल जब मैंने कहा कि समय मत खोओ तो यह बात मैंने पुरुष—चित्त के लिए कही थी। जब मैंने कहा कि जल्दी करो और ऐसी आपात स्थिति निर्मित करो कि तुम्हारी समग्र ऊर्जातुम्हारे समस्त प्राण एकाग्र हो जाएं और उसी एकाग्रकेंद्रित प्रयास में तुम्हारा जीवन ज्योतिशिखा बन जाएगा तो यह बात मैंने पुरुष—चित्त के लिए कही थी। स्त्रैण—चित्त के लिए मैं कहता हूं कि विश्राम करो और तुम अभी ज्योतिशिखा हो।
यही कारण है कि जहां तुम्हें महावीरबुद्धजीससकृष्णरामजरथुस्त्रमूसा के नाम उपलब्ध हैंवहां तुम्हारे पास स्त्री तीर्थंकरों की ऐसी कोई सूची नहीं है। ऐसा नहीं है कि स्त्रियों ने इस अवस्था को उपलब्ध नहीं किया। उन्होंने भी उपलब्ध किया,लेकिन उनके ढंग भिन्न हैं। और पूरा इतिहास पुरुषों ने लिखा है और पुरुष सिर्फ पुरुष—चित्त को समझ सकता हैवह स्त्रैण चित्त को नहीं समझ सकता। यही समस्या है। यह सचमुच मुश्किल काम है।
पुरुष को यह बात समझ में नहीं आ सकती कि कोई स्त्री केवल गृहिणी रहकर उसे उपलब्ध कर ले जिसे बुद्ध इतने श्रम सेइतनी साधना से उपलब्ध करते हैं। पुरुष यह सोच ही नहीं सकताउसके लिए यह सोचना असंभव है कि स्त्री बस गृहिणी रहकर उपलब्ध हो जाए। वह क्षण में जीती हैअभी का सुख लेती हैवह निकट मेंयहीं और अभी में जीती है। वह दूर की चिंता नहीं करती हैउसके लिए न कोई मंजिल हैन कोई अध्यात्म है। वह बस अपने बच्चों को प्यार करती हैअपने पति को प्रेम करती हैसाधारण स्त्री का जीवन जीती है। लेकिन वह आनंदित है। उसे महावीर की तरह कठिन तप नहीं करना हैबारह वर्षों की लंबी, कठिन तपस्या से नहीं गुजरना है।
लेकिन पुरुष महावीर की प्रशंसा करेगावह पुरुषार्थ को आदर देगा। अगर तुम बिना
प्रयत्न के कुछ पा लो तो पुरुष के लिए उसका कोई मूल्य नहीं है। वह उसे आदर नहीं दे सकता। वह आदर देगा तेनसिंग को,हिलेरी कोक्योंकि वे एवरेस्ट पर पहुंच गए। यहां एवरेस्‍ट का मूल्‍य नहीं है; मूल्‍य इसका है कि यहां तक पहुंचने में इतना श्रम लगता है कि वहां तक पहुंचना इतना खतरनाक है। और अगर तुम कहो कि मैं एवरेस्ट पर ही हूं तो वह हंसेगा। एवरेस्ट अर्थपूर्ण नहीं हैअर्थपूर्ण है वह श्रम जो उस पर चढ़ने में लगता है।
और जब एवरेस्ट पर पहुंचना आसान हो जाएगापुरुष?चित्त के लिए उसका सब आकर्षण समाप्त हो जाएगा। एवरेस्ट पर पाने को कुछ नहीं है। जब हिलेरी और तेनसिंग एवरेस्ट पर पहुंचे तो उन्हें वहां कुछ पाने लायक नहीं मिला। लेकिन पुरुष—चित्त को बड़े गौरव का अनुभव होता है।
जब हिलेरी एवरेस्ट पर पहुंचाउस समय मैं एक विश्वविद्यालय में था। सभी प्रोफेसर खुशी से नाच उठे थे। मैंने एक स्त्री प्रोफेसर से पूछा : 'तुम्हारा हिलेरी और तेनसिंग के बारे मेंजो एवरेस्ट पर पहुंच गए हैंक्या खयाल है?' उसने कहा. 'मेरी समझ में नहीं आता कि इसके लिए इतना शोरगुल क्यों मचाया जा रहा है। इसमें ऐसा क्या हैवे वहां पहुंच कर क्या पा गए?किसी बाजार में पहुंचनाकिसी दुकान पर चले जाना बेहतर होता।
स्त्रैण—चित्त के लिए यह व्यर्थ है। चांद पर जाना—यह जोखिम क्योंइसकी जरूरत क्या हैलेकिन पुरुष—चित्त के लिए मंजिल महत्वपूर्ण नहीं हैअसली चीज पुरुषार्थ है। क्योंकि तभी वह सिद्ध कर पाता है कि मैं पुरुष हूं। प्रयत्नपुरुषार्थआक्रमण और जीवन को दाव पर लगा देना उसे पुलक से भर देता है। पुरुष—चित्त के लिए खतरे में बहुत रस हैस्त्रैण—चित्त के लिए उसमें कोई रस नहीं है।
यही कारण है कि मनुष्य का इतिहास आधा ही लिखा गया है। उसका दूसरा आधा भाग छूट ही गया हैबिलकुल अनलिखा रह गया है। हमें नहीं मालूम कि कितनी स्त्रियां बुद्धत्व को उपलब्ध हुईं। यह जानना असंभव हैक्योंकि हमारे मापदंड,हमारी कसौटियां स्त्रैण—चित्त पर लागू नहीं होती हैं।
तो पहले अपने चित्त के संबंध में निर्णय करो। पहले अपने मन पर ध्यान करो। देखो कि मेरा मन किस प्रकार का है,उसका ढंग क्या है। और फिर उन सब विधियों को भूल जाओ जो तुम पर लागू नहीं होतीं। और उनके बीच समन्वय बिठाने की चेष्टा मत करो।

 दूसरा प्रश्न :

आपने कहार 'अपने होने में अधिक से अधिक आस्‍तित्‍व को समाविष्ट करना सीखो। समस्त आस्‍तित्‍व के मूल स्रोत से ऊर्जा गण करो।  अपने शत्रु को भी अपने में समाहित करो।’ मैं अपने शत्रु को अपने में समाविष्ट कैसे कर सकता हूं अगर साथ—साथ घृणा की वृत्ति को भी पूरी तरह जीना हैक्या यह शिक्षा दमन पर नहीं ले जाती है?

मैंने कहा कि अपने शत्रु को भी अपने में समाविष्ट करोलेकिन मैंने यह नहीं कहा कि शत्रु से ही शुरू करो। शुरू तो मित्र से करो। तुम अभी जैसे होतुम अपने मित्र को भी अपने में सम्मिलित नहीं करते। मित्र से आरंभ करो। वह भी कठिन है। मित्र को भी अपने होने में सम्मिलित करनाउसे भी अपने भीतर प्रवेश देनागहरे उतरने देनाउसके प्रति भी खुला और ग्रहणशील होना कठिन है। तो मित्र से शुरू करो, प्रेमी—प्रेमिका से शुरू करो। शत्रु पर एकाएक मत छलांग लगाओ।
और क्यों तुम शत्रु पर छलांग लगाते होइसलिए कि तुम कह सको कि यह असंभव हैयह हो नहीं सकताताकि तुम उसे छोड़ सकी। पहले कदम से शुरू करो। तुम अंतिम कदम से शुरू करते होफिर यात्रा कैसे संभव होगीतुम सदा अंतिम कदम से शुरू करते हो। पहला कदम अभी उठा नहीं हैइसलिए अंतिम कदम की बात केवल कल्पना है। और तुम्हें लगता है कि यह असंभव है। निश्चित ही यह असंभव है। तुम कैसे अंतिम से आरंभ कर सकते हो?
शत्रु तो समाविष्ट होने का अंतिम बिंदु हैअगर तुम मित्र को अपने में सम्मिलित कर सकी तो शत्रु को भी सम्मिलित करना संभव हो सकता हैक्योंकि मित्र ही तो शत्रु बनते हैं। तुम किसी को शत्रु नहीं बना सकते यदि तुम उसे पहले मित्र नहीं बनाते हो। या बना सकते होअगर तुम किसी को शत्रु बनाना चाहते हो तो पहले उसे मित्र बनाना जरूरी है। मित्रता पहला कदम है।
बुद्ध ने कहीं कहा है कि मित्र मत बनाओक्योंकि वही शत्रु बनाने का पहला कदम है। बुद्ध कहते हैं कि मित्रतापूर्ण बनो,मित्र मत बनाओ। अगर तुम मित्र बनाते हो तो तुमने पहला कदम उठा लियाअब जल्दी ही तुम शत्रु बनाओगे।
मित्र को सम्मिलित करो। निकट से आरंभ करो। आरंभ से ही आरंभ करो। तो ही शत्रु को सम्मिलित करना संभव होगा। तब कठिनाई नहीं अनुभव होगी।
जब तुम्हें मित्र को ही सम्मिलित करना हैमित्र को ही अपने में समाविष्ट करना हैतब भी यह कठिन काम है। क्योंकि प्रश्न मित्र या शत्रु का नहीं हैप्रश्न तुम्हारे खुले होने का है। तुम तो अपने मित्र के लिए भी बंद हो। तुम अपने मित्र से भी अपना बचाव करते हो। तुमने मित्र के प्रति भी अपने को समग्रत: नहीं खोला है। फिर तुम उसे अपने में सम्मिलित कैसे कर सकते हो?तुम उसे तभी सम्मिलित कर सकते हो जब कोई भय न होजब तुम भयभीत नहीं होजब तुम उसे अपने भीतर प्रवेश करने दो और उससे बचने के लिए कोई सुरक्षा—व्यवस्था न करो।
लेकिन तुम तो अपने प्रेमी—प्रेमिका के प्रति भी द्वार—दरवाजे बंद किए बैठे होउनके लिए भी तुमने अपने मन को अभी नहीं खोला है। अभी भी ऐसी चीजें हैं जो गोपनीय हैंनिजी हैं। और अगर तुम्हारा कुछ अपना हैनिजी हैप्राइवेट हैतो तुम खुले नहीं हो सकतेतुम अपने में किसी को समाविष्ट नहीं कर सकते। क्योंकि खतरा है कि तुम्हारा प्राइवेटव्यक्तिगत जीवन प्रकट हो जा सकता हैतुम्हारी गोपनीय बातें सार्वजनिक हो जा सकती हैं। मित्र को भी समाविष्ट करना आसान नहीं है। तो ऐसा मत सोचो कि शत्रु को सम्मिलित करना कठिन हैअभी यह असंभव ही है।
यही कारण है कि जीसस की शिक्षा असंभव हो गईऔर ईसाई नकली हो गए। ऐसा होना ही था। क्योंकि जीसस कहते हैं कि अपने शत्रुओं को प्रेम करोऔर तुम अभी अपने मित्र को भी प्रेम करने में समर्थ नहीं हो। जीसस तुम्हें एक असंभव काम दे रहे हैं। तुम झूठे होने के लिएपाखंडी होने के लिए बाध्य होतुम प्रामाणिक नहीं हो सकते। तुम बात तो करोगे शत्रु को प्रेम करने की और अपने मित्रों को भी घृणा करोगे। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं।
तो पहली बात: अभी शत्रु का विचार मत करो। वह तुम्‍हारे मन की चालाकी है। पहले मित्र का विचार करो। और दूसरी बात. प्रश्न किसी को समाविष्ट करने का नहीं हैप्रश्न है समावेश की क्षमता काखुलेपन काफैलाव का। वह तुम्हारी चेतना का गुण है। उस खुलेपन कोउस विस्तार को पैदा करोउस गुणवत्ता को पैदा करो।
उस गुणवत्ता का निर्माण कैसे होयह विधि उसके लिए ही है। तुम किसी वृक्ष के पास बैठे हो। उस वृक्ष को देखो। वह तुमसे बाहर है। लेकिन यदि वह वृक्ष बिलकुल तुमसे बाहर है तो तुम उसे जान नहीं सकते। उसका कुछ अंश तो अवश्य ही यात्रा करके तुम्हारे भीतर पहुंच गया हैतभी तो तुम जान सके कि वृक्ष हैकि वह हरा है।
लेकिन क्या तुम जानते हो कि यह हरा रंग तुम्हारे भीतर हैवृक्ष में नहींजब तुम आख बंद लेते हो तो पेडू हरा नहीं है। अब वैज्ञानिक भी कहते हैं कि रंग तुम देते हो। प्रकृति में सब कुछ रंगहीन हैवहां कोई रंग नहीं है। रंग तब पैदा होता है जब किसी विषय—वस्तु से आती हुई किरणें तुम्हारी आंखों से मिलती हैं। तो रंग तुम्हारी आंखें पैदा करती हैं। वृक्ष और तुम्हारे मिलन से हरापन घटित होता है।
फूल खिले हैंउनकी गंध तुम्हारे पास आती हैतुम सुगंध महसूस करते हो। लेकिन वह सुगंध भी तुम्हारी दी हुई हैवह प्रकृति में नहीं है। तुम्हारे पास सिर्फ तरंगें पहुंचती हैंजिन्हें तुम गंध में रूपांतरित कर लेते हो। गंध तुम्हारें नाक का गुण है,नाक गंध सूंघती है। तुम न रहो तो कोई गंध नहीं होगी।
ऐसे दार्शनिक हुए हैं—बर्कलेनागार्जुन या शकर—जो कहते हैं कि जगत माया हैतुम्हारे मन का एक खयाल हैक्योंकि हम संसार के संबंध में जो भी जानते हैं वह वस्तुत: हमारा आरोपण है। इसीलिए जर्मन चिंतक और दार्शनिक इमेनुअल कांट कहता है कि वस्तुत: किसी वस्तु को नहीं जाना जा सकताहम जो भी जानते हैं वह हमारा प्रक्षेपण है।
मुझे तुम्हारा चेहरा सुंदर दिखाई देता है। तुम्हारा चेहरा न सुंदर है न कुरूपसुंदरता 'मेरी दृष्टि है। मैं ही तुम्हें सुंदर या कुरूप बनाता हूं। यह मुझ पर निर्भर है। यह मेरा भाव है। अगर तुम संसार में अकेले होकोई कहने वाला न हो कि तुम कुरूप हो या सुंदरतो तुम न सुंदर होगे न कुरूप होंगे। या कि होगेअगर तुम धरती पर अकेले हो तो तुम सुंदर होगे या कुरूप होगे?तुम बुद्धिमान होगे या मूर्ख होगेतुम कुछ नहीं होगे। सच तो यह है कि तुम धरती पर अकेले हो ही नहीं सकतेअकेले तुम हो नहीं सकते।
अगर तुम किसी झाडू के पास बैठे हो तो ध्यान करो। आख खोलों और झाड़ को देखो। और फिर आख बंद करके झाडू को अपने भीतर देखो। अगर यह प्रयोग करोगे—फिर आख खोलकर झाडू को देखो और फिर आख बंद करके उसी झाड़ को अपने भीतर देखो—तो प्रारंभ में तो भीतर दिखने वाला झाडू बाहर के झाडू की धुंधली सी छाया मालूम होगा। लेकिन अगर तुमने प्रयोग जारी रखा तो धीरे — धीरे भीतर का झाडू ठीक बाहर के झाडू जैसा हो जाएगा।
और अगर तुम इस प्रयोग में धैर्यपूर्वक लगे रहे—जो कठिन है—तो एक क्षण आता
है जब बाहर का वृक्ष भीतर के वृक्ष की छाया मात्र बनकर रह जाता है। भीतर का वृक्ष ज्यादा सुंदर, ज्‍यादा जीवंत हो जाता है। क्‍योंकि अब तुम्‍हारी आंतरिक चेतना इसके लिए भूमि बन गई। अब आंतरिक चेतना में इसकी जड़ें जग गई है। अब यह सीधे चैतन्‍य से भोजन ले रहा है। यह बहुत दुर्लभ चीज है।
जब जीसस या जीसस जैसे लोग परमात्मा के राज्य की चर्चा करते हैं तो वे ऐसी रंगीन भाषा में चर्चा करते हैं कि हमें लगता है कि वे या तो पागल हैं या भ्रांत हैं। वे पागल या भ्रांत कुछ भी नहीं हैंउन्होंने अस्तित्व को अपने में समाविष्ट करना सीख लिया है। उनकी अपनी आंतरिक चेतना अब एक जीवनदायी तत्व बन गई है। अब जो कुछ भीतर जाता है वह जीवंत हो जाता हैवह ज्यादा रंगीनज्यादा गंधपूर्णज्यादा प्राणवान हो जाता है—मानो वह इस जगत काइस पार्थिव जगत का न हो—मानो वह किसी उच्च लोक का हो। कवियों को इसका कुछ आभास मिलता है। रहस्यदर्शी इसे बहुत गहरे में जानते हैंलेकिन कवि भी कुछ—कुछ महसूस करते हैं। कवियों को उसकी थोड़ी झलक मिलती है। वे जगत के साथ अपने को एक महसूस कर सकते हैं।
इसे प्रयोग करो : इतने खुलोइतने विस्तृत होओ कि सबको अपने में समाविष्ट कर सकी। जब मैं कहता हूं कि समावेश करना सीखो तो उसका यही मतलब है। वृक्ष को अपने भीतर प्रवेश करने दो और वहां उसे जड़ जमाने दो। फूल को भीतर प्रवेश करने दो और वहां उसे खिलने दोप्रस्फुटित होने दो। तुम्हें इस पर भरोसा नहीं होगाक्योंकि अनुभव किए बिना इसे जानने का और कोई उपाय नहीं है। एक कली परगुलाब की कली पर एकाग्रता साधो। उस पर अवधान को एकाग्र करोउस पर पूरी तरह एकाग्र हो जाओ और उसे बाहर से भीतर आ जाने दो।
और जब कली का यह आंतरिक अनुभव इतना सघनसच्चा हो जाए कि बाहरी कलीअसली कलीतथाकथित असली कली उसकी छाया भर मालूम पड़े—असली धारणा अब अंदर हैअसली चीज भीतर है और बाहरी कली आंतरिक कली की फीकी सी झलक भर है—जब तुम इस बिंदु पर पहुंच जाओ तो आख बंद कर लो और भीतर की कली पर एकाग्रता साधो। तुम चकित रह जाओगेक्योंकि भीतर की कली खिलने लगेगीफूल बनने लगेगीवह ऐसा फूल बनेगी जैसा तुमने कभी नहीं जाना। वैसा फूल तुम्हें बाहर के जगत में कभी नहीं मिलेगा। यह एक अपूर्व घटना है—जब कोई चीज तुम्हारे भीतर बढ़ती हैखुलती है,खिलती है।'
इस भांति बढ़ोविस्तृत होओसमावेश करना सीखो और धीरे—धीरे अपनी सीमाओं को फैलने दो। अपने में प्रेमियों को सम्मिलित करोमित्रों को सम्मिलित करोपरिवार को सम्मिलित करो। फिर परायों को भी सम्मिलित करो। और तब तुम धीरे— धीरे शत्रु को भी सम्मिलित कर लेते हो। वह अंतिम बिंदु होगा। और जब तुम उसे अपने भीतर प्रवेश करने देते होवहां जड़ें जमाने देते होउसे अपनी चेतना का हिस्सा बनने देते होतब तुम्हारे लिए कुछ भी शत्रुतापूर्ण नहीं रह जाता। तब सारा जगत तुम्हारा घर हो गया। तब कुछ भी अजनबी न रहाकोई भी पराया न रहाऔर तुम जगत के साथ आनंदित हो।
लेकिन मन की चालाकी से सावधान रहो। मन सदा तुम्हें ऐसा कुछ कहेगा जिसे तुम कर न सको। और जब तुम नहीं कर पाओगे तो मन कहेगा कि ये फिजूल की बातें हैंइन्हें छोड़ो। मन ऐसा लक्ष्य देगा जिसे तुम पूरा नहीं कर पाओगेयह सदा स्मरण रहे। अपने ही मन के शिकार मत बनो। सदा संभव से शुरू करो; असंभव पर छलांग मत लगा।
और अगर तुम संभव में बढ़ सकेगति कर सकेतो असंभव उसका ही दूसरा छोर है। असंभव संभव के विपरीत नहीं है,वह उसका ही दूसरा छोर है। वह एक ही इंद्रधनुष का हिस्सा हैदूसरा छोर है।
इसमें एक और प्रश्न जुड़ा है : 'मैं अपने शत्रु को अपने में कैसे समाविष्ट कर सकता हूं अगर साथ ही साथ घृणा की वृत्ति को भी पूरी तरह जीना हैक्या यह शिक्षा दमन पर नहीं ले जाती है?'
यह थोड़ी बारीक बात है जिसे अच्छी तरह समझना चाहिए। जब तुम घृणा करते हो तो मैं नहीं कहता कि उसका दमन करो। क्योंकि जो भी दमित किया जाता है वह खतरनाक है। और अगर तुम दमन करते हो तो तुम बिलकुल खुले नहीं हो सकते। तब तुम अपनी एक निजीअलग दुनिया बना लेते हो जो तुम्हें दूसरों को अपने में सम्मिलित नहीं करने देगी। और तुम जिस चीज का भी दमन करोगेतुम उससे सदा ही भयभीत रहोगेक्योंकि किसी भी क्षण वह बाहर आ सकती है। तो पहली बात कि क्रोधघृणा या किसी भी भाव का दमन मत करो।
लेकिन क्रोध या घृणा को किसी दूसरे पर प्रकट करने की भी जरूरत नहीं है। तुम दूसरे पर अपना क्रोध या घृणा प्रकट करते होक्योंकि तुम सोचते हो कि दूसरा जिम्मेवार है। यह बात गलत है। दूसरा जिम्मेवार नहीं हैतुम स्वयं जिम्मेवार हो। तुम घृणा करते होक्योंकि तुम घृणा से भरे हो। दूसरा सिर्फ तुम्हें मौका देता हैऔर कुछ नहीं। अगर तुम आते हो और मुझे गाली देते हो तो तुम मुझे सिर्फ एक मौका देते हो कि मेरे भीतर जो भी है उसे मैं बाहर ले आऊं। अगर घृणा है तो घृणा बाहर आएगीअगर प्रेम है तो प्रेम प्रकट होगा। और अगर करुणा है तो करुणा व्यक्त होगी। तुम केवल मुझे अपने को प्रकट करने का अवसर दे रहे हो।
इसलिए अगर तुम्हारी घृणा बाहर आती है तो यह मत सोचो कि दूसरा उसके लिए जिम्मेवार है। वह सिर्फ माध्यम है। हमारे पास संस्कृत में इसके लिए सुंदर शब्द है : निमित्त। निमित्त यानी माध्यम। वह कारण नहीं हैकारण सदा भीतर है। वह तो कारण को बाहर लाने का निमित्त मात्र है। इसलिए उसका धन्यवाद करोउसका अनुग्रह मानो कि वह तुम्हारी छिपी हुई घृणा के प्रति तुम्हें बोधपूर्ण बनाता है। वह मित्र है। तुम उसे दुश्मन समझ लेते होक्योंकि तुम उस पर सारा दायित्व डाल देते हो। तुम सोचते हो कि वह घृणा पैदा करवा रहा है। यह सदा के लिए गांठ बांध लो. कोई दूसरा तुम्हारे भीतर कुछ निर्मित नहीं कर सकता।
अगर तुम बुद्ध के पास जाओ और उन्हें गाली दो तो वे तुम्हें घृणा नहीं करेंगेवे तुम पर क्रोध नहीं करेंगे। तुम चाहे कुछ भी करोतुम उन्हें क्रोधित नहीं कर सकते। इसलिए नहीं कि तुम्हारे प्रयत्न में कुछ कमी हैबल्कि इसलिए कि उनमें क्रोध ही नहीं है। तुम बाहर क्या लाओगे?
दूसरा व्यक्ति तुम्हारी घृणा का स्रोत नहीं हैइसलिए अपनी घृणा को उस पर मत फेंको। उसके प्रति कृतज्ञ होओउसे धन्यवाद दो। और उस घृणा कोजो तुम्हारे भीतरखाली आकाश में उलीच दो। यह है पहली बात।
दूसरी बात: घृणा को भी अपने भीतर ले लोउसे भी अपने में सम्मिलित कर लो। वह जरा बात। वह गहरा आयाम। घृणा को भी अपने में जगह दो। जब मैं यह कहता हूं तो मेरा क्या अर्थ है?
जब भी कुछ बुरा होता हैजब भी कुछ ऐसा घटित होता है जिसे तुम बुरा कहते होअशुभ कहते होतो तुम उसे कभी अपने में शामिल नहीं करते। और जब कुछ शुभ होता हैभला होता हैतो तुम तुरंत उसे अपने में शामिल कर लेते हो।
जब तुम प्रेमपूर्ण होते हो तो कहते हो कि मैं प्रेम हूं लेकिन जब तुम घृणा करते हो तो कभी नहीं कहते कि मैं घृणा हूं। जब तुम्हें करुणा होती है तो तुम कहते हो कि मैं करुणा हूं लेकिन जब क्रोध आता है तब नहीं कहते कि मैं क्रोध हूं। तुम सदा कहते हो कि मैं क्रोधित हूं—मानो क्रोध तुम्हें घटित हुआ हैमानो तुम क्रोध नहीं होयह कोई बाह्य घटना हैकुछ आकस्मिक चीज है। और जब तुम कहते हो कि मैं प्रेम हूं तो लगता है कि प्रेम तुम्हारा सारभूत गुण हैवह आकस्मिक रूप से तुम पर घटित नहीं हुआ हैवह बाहर से नहीं आया है। तुम मानते हो कि वह तुम्हारे भीतर से आया है।
तो जो भी अच्छा हैशुभ हैतुम उसे अपने में गिन लेते होऔर जो भी बुरा है उसे नहीं गिनते। अशुभ को भी अपने में शामिल करो। क्योंकि तुम्हीं घृणा होतुम्हीं क्रोध हो। और जब तक तुम इस बात को कि मैं घृणा हूं कि मैं क्रोध हूं अपने गहन अंतस में नहीं अनुभव करते होतब तक तुम उसके पार नहीं जा सकते हो।
अगर तुम अनुभव कर सको कि मैं क्रोध हूं तो तुम्हारे भीतर रूपांतरण की एक सूक्ष्म प्रक्रिया सक्रिय हो जाती है। क्या होता है जब तुम कहते हो कि मैं क्रोध हूंबहुत सी बातें होती हैं। पहली बातजब तुम कहते हो कि मैं क्रोधित हूं तो तुम उस ऊर्जा से अलग हो जिसे तुम क्रोध कहते हो। यह सचाई नहीं है। और सत्य झूठे आधार से कभी घटित नहीं हो सकता। यह सच नहीं है कि तुम अपने क्रोध से भिन्न हो। सचाई यह है कि तुम क्रोध ही होयह तुम्हारी ही ऊर्जा है। वह तुमसे कोई अलग चीज नहीं है।
तुम क्रोध कोघृणा को अपने से अलग करते होक्योंकि तुम अपनी एक झूठी प्रतिमा निर्मित करते हो कि मैं कभी क्रोध नहीं करताघृणा नहीं करताकि मैं सदा प्रेमपूर्ण हूं सहृदय और सहानुभूतिपूर्ण हूं। ऐसे तुमने अपनी एक झूठी प्रतिमा निर्मित कर ली है। और यह झूठी प्रतिमा अहंकार है। अहंकार तुम्हें कहे चला जाता है. 'क्रोध को छोड़ोघृणा को काटोये अच्छी चीजें नहीं हैं।’ ऐसा नहीं है कि तुम जानते हो कि वे अच्छी चीजें नहीं हैं। केवल इसलिए तुम उन्हें छोड़ना चाहते होक्योंकि वे तुम्हारी अच्छी प्रतिमा को तोड़ते हैंवे तुम्हारे अहंकार कोतुम्हारी झूठी प्रतिमा को पोषण नहीं देते हैं।
तुम्हारी एक प्रतिमा है। तुम मानते हो कि मैं अच्छा आदमी हूं प्रतिष्ठितसुंदरसुसंस्कृत आदमी हूं। और यह आकस्मिक है कि कभी—कभी तुम अपनी प्रतिमा से गिर जाते हो। और तब तुम अपनी प्रतिमा को फिर संवार लेते हो। लेकिन यह आकस्मिक नहीं हैअसल में वही तुम्हारा असली रूप है। जब तुम क्रोध में होते हो तब तुम्हारा असली रूप अधिक सच्‍चाई से प्रकट —बजाय उन क्षणों के जब तुम झूठी मुसकान ओढ़े रहते हो। जब तुम अपनी घृणा प्रकट करते हो तब तुम ज्यादा प्रामाणिक हो—बजाय उन क्षणों के जब तुम प्रेम का ढोंग करते हो।
पहली बात है कि प्रामाणिक बनोसच्चे होओ। घृणा कोक्रोध कोतुम्हारे भीतर जो भी है, सबको सम्‍मिलित करो। क्‍या होगा? अगर तुम सब कुछ सम्‍मिलित कर लेते हो तुम्हारी झूठी प्रतिमा सदा के लिए गिर जाएगी। और यह शुभ है। यह कितना सुंदर है कि तुम अपनी झूठी प्रतिमा सैअपने मुखौटों से मुक्त हो जाओ। क्योंकि यह झूठी प्रतिमा ही जीवन में जटिलताएं पैदा करती है। इस प्रतिमा के गिरते ही तुम्हारा अहंकार गिर जाएगा। और अहंकार का विसर्जन धर्म का द्वार है।
जब तुम कहते हो कि मैं क्रोध हूं तब तुम्हारा अहंकार कैसे खड़ा रह सकता हैजब तुम कहते हो कि मैं घृणा हूंमैं ईर्ष्या हूं मैं क्रूरता हूंमैं हिंसा हूं तब तुम्हारा अहंकार कैसे खड़ा रह सकता हैअहंकार तो तब खडा होता है जब तुम कहते हो कि मैं ब्रह्म हूं मैं परमेश्वर हूं। तब अहंकार आसान है। मैं आत्मा हूं परमात्मा हूं—यह मानने से तुम्हारा अहंकार सरलता से खड़ा हो सकता है। लेकिन जब तुम कहते हो कि मैं ईर्ष्याघृणाकामक्रोधवासना हूं, तब तुम्हारा अहंकार नहीं रह सकता। झूठी प्रतिमा के गिरने के साथ ही अहंकार गिर जाता हैतुम सच्चे और स्वाभाविक हो जाते हो। और तभी अपनी यथार्थ स्थिति को समझना संभव है। तब तुम अपने क्रोध के पास निर्विरोध भाव से जा सकते होउसे देख सकते हो। वह तुम ही हो। तुम्हें समझना है कि वह मेरी ही ऊर्जा है।
और अगर तुम अपने क्रोध के प्रति समझपूर्ण हो सके तो यह समझ ही क्रोध को बदल देती हैरूपांतरित कर देती है। अगर तुम क्रोध और घृणा की पूरी प्रक्रिया को समझ सके तो उस समझने में ही क्रोधघृणासब विदा हो जाता है। क्योंकि क्रोध केघृणा के होने के लिए बुनियादी जरूरत है उनके प्रति बेहोश होनाअनजान होनासोया होना। जब भी तुम सजग नहीं हो,क्रोध संभव है। और जब तुम सजग हो तो क्रोध असंभव है। जो ऊर्जा क्रोध बन सकती थी वही सजगता में समाहित हो जाती है।
बुद्ध बार—बार अपने भिक्षुओं से कहते हैं. 'मैं यह नहीं कहता कि क्रोध मत करोमैं कहता हूं कि जब तुम क्रोध करो तो सजग रहो। यही वस्तुत: रूपांतरण का मूलभूत सिद्धात है। मैं यह नहीं कहता कि क्रोध मत करोमैं कहता हूं कि जब क्रोध आए तो सजग रहो।
इसे प्रयोग करो। जब क्रोध आए तब सजग हो जाओ। उसे देखो। उसका निरीक्षण करो। उसके प्रति होश रखोसोए मत रहो। और तुम जितना होश रखोक्रोध उतना ही कम होगा। और जिस क्षण तुम पूरी तरह सजग होगेक्रोध बिलकुल नहीं होगा। जो ऊर्जा क्रोध बनती है वही ऊर्जा सजगता बन जाती है।
ऊर्जा तटस्थ है। वही ऊर्जा क्रोध बनती हैवही ऊर्जा घृणा बनती है। और वही ऊर्जा प्रेम बनती हैवही ऊर्जा करुणा बनती है। ऊर्जा तो एक हैक्रोधघृणाप्रेमउसकी अभिव्यक्तियां हैं। और ऐसी कुछ आधारभूत स्थितियां हैं जिनमें ऊर्जा कोई विशेष वृत्ति का रूप ले लेती है। अगर तुम मूर्च्‍छित हो तो ऊर्जा क्रोध बन सकती हैकाम बन सकती हैहिंसा बन सकती है। अगर तुम जागरूक होसावचेत हो तो ऊर्जा यह सब नहीं बन सकतीहोश, बोधचैतन्यऊर्जा को उन मार्गों में जाने नहीं देता है। तब ऊर्जा एक भिन्न धरातल पर गति करती है—वही ऊर्जा।
बुद्ध कहते हैं : 'चलोबैठोभोजन करो—जो भी करो पूरे सावचेत होकर करोपूरे बोध के साथ करो कि यह कर रहा हूं।
एक बार ऐसा हुआ कि बुद्ध टहल रहे थे और एक मक्खी आई और उनके माथे पर बैठ गई। बुद्ध कुछ भिक्षुओं से बातें कर रहे थेतो मक्खी पर ध्यान दिए बिना ही उन्होंने अपना हाथ हिलाया और मक्खी उड़ गई। फिर उन्हें बोध हुआ कि मैंने कुछ किया जो बोधपूर्ण नहीं थाक्योंकि मेरा बोध तो उन भिक्षुओं के प्रति था जिनसे मैं बात कर रहा था।
उन्होंने भिक्षुओं से कहा 'मुझे एक क्षण के लिए क्षमा करो।’ फिर उन्होंने आख बंद की और अपना हाथ उठाया। भिक्षु चकित हुए कि बुद्ध क्या कर रहे हैं! क्योंकि अब कोई मक्खी तो वहां थी नहीं। उन्होंने दोबारा अपना हाथ उठाया और उसी स्थान पर हिलाया जहां मक्खी बैठी थी—यद्यपि अब वह वहां नहीं है। उन्होंने अपना हाथ नीचे कियाआंखें खोलीं और भिक्षुओं से कहा:'अब तुम पूछ सकते हो।
लेकिन उन भिक्षुओं ने कहा. 'हम तो भूल ही गए कि क्या पूछना चाहते थे। अब हम पूछना चाहते हैं कि यह आपने क्या कियामक्खी तो अभी नहीं थीपहले जरूर थीफिर आप क्या कर रहे थे?' बुद्ध ने कहा. 'मैंने वह किया जो मुझे पहले करना चाहिए थापूरी सजगता से हाथ उठाना चाहिए था। यह मेरे लिए अच्छा नहीं थायह बिलकुल बेहोशी मेंयंत्रवत किया गया था।
ऐसा होशऐसा चैतन्य क्रोध नहीं बन सकता है। ऐसी सजगता घृणा नहीं बन सकती है। यह असंभव है।
तो पहले घृणा कोक्रोध कोजो भी बुरा माना जाता हैसबको सम्मिलित करो। उसे अपने में समाविष्ट करोअपनी प्रतिमा में शामिल करोताकि तुम्हारा अहंकार गिर जाएतुम आसमान से जमीन पर उतर आओ। तुम सच्चे बनी।
फिर क्रोध या घृणा को किसी दूसरे पर मत फेंको। उसे रहने दोउसे आकाश के प्रति व्यक्त करो। पूरे सावचेत हो जाओ। अगर तुम क्रोध में हो तो एक कमरे में चले जाओस्वात में चले जाओ और वहां क्रोध करोवहां क्रोध को प्रकट करो—और सजग रहो। वह सब करो जो तुम उस व्यक्ति के साथ करते जो तुम्हारे क्रोध का निमित्त बना था। तुम उसका चित्र कमरे में रख सकते होया उसकी जगह एक तकिया रख सकते हो। और उससे कहो. तुम मेरे पिता हो। और फिर उसकी खूब पिटाई करो। लेकिन पूरी तरह सजग रहो। पूरी तरह सजग रहो कि तुम क्या कर रहे होऔर करो।
और एक अदभुत अनुभव होगा। क्रोध की पूरी अभिव्यक्ति होगी और तुम सजग रहोगे। और तुम हंसोगेतुम जानोगे कि मैं भी क्या—क्या मूढ़ताएं करता हूं। लेकिन तुम यही सब असली पिता के साथ कर सकते थे—अभी तुम सिर्फ तकिए के साथ कर रहे हो।
और अगर तुम यह प्रामाणिकता से कर सके तो तुम अपने पिता के प्रति बहुत करुणा से भर जाओगेबहुत प्रेमपूर्ण हो जाओगे। जब तुम कमरे से बाहर आओगे और अपने पिता को देखोगे तो तुम अपने को उनके प्रति बहुत करुणाबहुत प्रेम से भरा पाओगे। और तुम्हें भाव होगा कि उनसे क्षमा मांग लो।
मेरा यही मतलब है जब मैं कहता हूं कि सबको अपने में सम्मिलित करो। उसका अर्थ दमन नहीं है। दमन सदा खतरनाक हैजहर है। जो भी तुम दमित करते हो उससे तुम सिर्फ आंतरिक जटिलताएं ही निर्मित करते हो। वे जटिलताएं जारी रहेंगी और तुम्हें अंततः पागल
बनाकर छोड़ेंगी। दमन की अंतिम परिणति पागलपन है। तो प्रकट करोअभिव्यक्त करो। लेकिन किसी दूसरे पर मत प्रकट करो। उसकी जरूरत नहीं हैवह मूढ़ता है। और उससे एक दुश्‍चक्र निर्मित होता है। अकेले में प्रकट करो।
 और ध्यानपूर्वक प्रकट करो। और प्रकट करते हुए सजग रहो।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
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Mob-: 9958502499

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