Friday 9 February 2018

तांत्रिक संभोग और समाधि

तंत्र--सूत्र--(भाग--3)--प्रवचन--34

तांत्रिक संभोग और समाधि—(प्रवचन—चौतीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या आप भोग सिखाते है?
2—ध्‍यान में सहयोग की दृष्‍टि से संभोग में
      कितनी बार उतरना चाहिए?
3—क्‍या आर्गाज्‍म से ध्‍यान की ऊर्जा क्षीण नहीं होती?
4—आपने कहा कि काम—कृत्‍य धीमें, पर समग्र
      और अनियंत्रित होना चाहिए। कृपया इन दोनों
      बातों पर प्रकाश डालें।

      तुम्‍हारे प्रश्नों को लेने के पूर्व कुछ अन्य बातो को स्पष्ट करना जरूरी हैक्योंकि उनसे तुम्हें तंत्र के अर्थ और अभिप्राय को समझने में मदद मिलेगी।

तंत्र कोई नैतिक धारणा नहीं है। वह न नैतिक है न अनैतिकतंत्र अधिनैतिक है। तंत्र विज्ञान है। और विज्ञान नैतिक— अनैतिक कुछ नहीं है। तुम्हारी अनैतिक और नैतिक धारणाएं तंत्र के लिए अप्रासंगिक हैं। तंत्र को इस बात से लेना—देना नहीं है कि आदमी का आचरण क्या होना चाहिए। तंत्र आदर्शों की चिंता नहीं लेता है। तंत्र की बुनियादी चिंता यह है कि यथार्थ क्या है,तुम वास्तव में क्या हो। इस भेद को ठीक से समझना जरूरी है।
नैतिकता आदर्शों की फिक्र करती हैउसे फिक्र है कि तुम्हें कैसा होना चाहिएक्या होना चाहिए। इसलिए नैतिकता बुनियादी रूप से निंदात्मक है। तुम कभी आदर्श नहीं हो सकतेइसलिए निंदित हो जाते हो। सब नैतिकता अपराध— भाव निर्मित करती है। तुम कभी आदर्श को नहीं पहुंच सकतेतुम सदा पीछे रह जाते हो। तुम्हारे और आदर्श के बीच सदा खाई बनी रहेगीक्योंकि आदर्श असंभव है और नैतिकता उसे और भी असंभव बना देती है। आदर्श सदा भविष्य में है और तुम अभी तो जैसे हो वैसे हो। और तुम सदा अपनी तुलना आदर्श से करते रहते हो। तुम कभी पूर्ण मनुष्य नहीं होसदा कुछ न कुछ कमी रह जाती है। तब तुम अपने को अपराधी अनुभव करते होआत्म—निंदा अनुभव करते हो।
तंत्र आत्म—निंदा के विरोध में हैक्योंकि आत्म—निंदा तुम्हें कभी रूपांतरित नहीं कर सकती। निंदा से सिर्फ पाखंड पैदा होता है। तब तुम यह दिखाने की चेष्टा करते हो कि तुम वह हो जो कि तुम वास्तव में नहीं हो। पाखंड का अर्थ यह है कि तुम आदर्श व्यक्ति नहीं होतुम जो हो वही होलेकिन दिखाते हो कि आदर्श व्यक्ति हो। उससे तुम्हारे भीतर टूट पैदा होती हैतुम खंडित हो जाते हो। तब तुम एक झूठा चेहरा ओढ़ लेते हो और तुम्हारे भीतर एक झूठा आदमी पैदा हो जाता है। तंत्र बुनियादी रूप से सच्चे आदमी की खोज हैझूठे की नहीं। 
नैतिकता आवश्यक रूप से पाखंड पैदा करती है। उसके लिए ऐसा करना अनिवार्य है। पाखंड और नैतिकता में चोली—दामन का संबंध है। पाखंड नैतिकता का अंग हैउसकी छाया है। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती हैक्योंकि नीतिवादी लोग ही पाखंड की सर्वाधिक निंदा करते हैं। लेकिन पाखंड के निर्माता वे ही हैं। और जब तक दुनिया से नैतिकता नहीं जाती तब तक पाखंड भी नहीं जा सकता है। वे दोनों साथ—साथ रहेंगेवे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
नीति तुम्हें आदर्श देती है और तुम आदर्श नहीं हो। आदर्श तुम्हें दिया ही इसलिए जाता है कि तुम आदर्श नहीं हो। लेकिन तब तुम अपने को गलत समझने लगते हो। और जिसे तुम गलत समझते हो वही तुम्हारा स्वाभाविक जीवन है। वह तुम्हें निसर्ग से मिला हैउसे लेकर तुम पैदा हुए हो। और तत्काल उसके साथ कुछ नहीं किया जा सकता हैतुम उसे बदल नहीं सकते हो। बदलना इतना आसान नहीं है। तुम केवल उसका दमन कर सकते हो। दमन आसान है।''
लेकिन तुम दो चीजें कर सकते हो। तुम एक मुखौटाएक झूठा चेहरा निर्मित कर सकते होतुम वह होने का अभिनय कर सकते हो जो तुम नहीं हो। उससे तुम अपना बचाव कर लेते होतुम समाज के बीच ज्यादा आसानी सेज्यादा सुविधा से रह सकते हो। और तुम्हें भीतर के अपने यथार्थ कोअपने असली व्यक्ति को दबाना होगाक्योंकि झूठे को तभी लादा जा सकता है जब सच्चे को दबा दिया जाए। फलत: तुम्हारा यथार्थ अचेतन में दब जाएगा और तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व चेतन व्यक्तित्व बन जाएगा। तुम्हारा झूठा अंश ज्यादा प्रभावी हो जाएगा और सच्चा अंश नीचे दब जाएगा। तब तुम बंट गएटूट गए। और तुम जितना ही दिखावा करोगेअंतराल उतना ही बड़ा होता जाएगा।
बच्चा जब जन्म लेता है तो वह अखंड होता हैपूर्ण होता है। यही कारण है कि बच्चा इतना सुंदर होता है। यह सौंदर्य पूर्णता का सौंदर्य है। बच्चे में कोई बंटावकोई विभाजनकोई अंतराल नहीं होता है। बच्चा एक हैवहा कुछ सच्चा और कुछ झूठा नहीं है। बच्चा बस असली हैप्रामाणिक है। तुम यह नहीं कह सकते कि बच्चा नैतिक है। वह न नैतिक हैन अनैतिक,उसे नैतिक—अनैतिक का बोध भी नहीं है। जिस क्षण उसे नैतिक— अनैतिक का बोध होता हैबंटाव शुरू हो जाता हैटूट शुरू हो जाती है। और तब बच्चा झूठानकली आचरण करने लगता हैक्योंकि उसके लिए अब सच्चा रहना कठिन से कठिनतर होता जाता है।
ध्यान रहेयह आवश्यक है। समाज के लिएमां—बाप के लिए बच्चे का नियंत्रण करना आवश्यक हो जाता है। बच्चे को शिक्षित और सभ्य बनानाउसे सुसंस्कार और शिष्टाचार सिखाना जरूरी हैअन्यथा बच्चे के लिए समाज में रहना असंभव हो जाएगा। उसे बताना ही होगा कि यह करो और यह मत करो।
लेकिन जब हम उसे कहते हैं कि यह करो तो संभव है कि उसकी प्रामाणिकता वह करने को तैयार न हो। हो सकता है,उसकी वास्तविकता से इस आदर्श का मेल न खाता होबच्चे में वह करने की सच्ची इच्छा ही न हो। और जब हम कहते हैं कि यह न करो या वह न करो तो हो सकता है कि बच्चे का निसर्ग उसे करना चाहे। तो हम नैसर्गिक कोअसली को निंदित कर देते हैं और झूठे कोनकली को लादते हैं। क्योंकि झूठे समाज में झूठ से ही काम चलता है। झूठ सुविधापूर्ण है। जहां सभी झूठे हैं वहां सत्य सुविधापूर्ण नहीं है। एक बच्चे को समाज के साथ बुनियादी कठिनाई होगीक्योंकि पूरा समाज झूठा है।
यह एक दुष्ट—चक्र है। हम सब समाज में जन्म लेते हैं। और अब तक धरती पर एक भी ऐसा समाज नहीं हुआ जो सच्‍चा हो। यही मुसीबत है। बच्‍चा समाज में पैदा होता है। और समाज के अपने नियम—निषेध हैंनीति और आचरण के ढांचे हैं। उन्हें बच्चे को सीखना है। यह बच्चा जब बड़ा होगा तो झूठा हो जाएगा। फिर उसके भी बच्चे होंगे और वह उन्हें भी झूठ बना जाएगा। और यह सिलसिला चलता रहता है। तो फिर करें क्याहम समाज को नहीं बदल सकते हैं। और यदि हम समाज को बदलने की चेष्टा करेंगे तो जब तक यह समाज बदलेगा तब तक हम यहां नहीं होंगे। उसके लिए अनंत समय लग जाएगा। तो फिर क्या किया जा सकता है?
व्यक्ति इस बुनियादी विभाजन के प्रति जागरूक हो सकता है कि सच्चा दमित हो गया है और झूठा आरोपित है। यही पीड़ा हैयही संताप हैयही नरक है! तुम झूठ के द्वारा तृप्त नहीं हो सकतेक्योंकि झूठ से जो तृप्ति मिलेगी वह झूठी होगी। यह स्वाभाविक है। सचाई से ही सच्ची तृप्ति घटित हो सकती है। सत्य से ही सत्य तक पहुंचा जा सकता है। झूठ से कल्पना और सपने और भ्रांतियां ही हाथ आ सकती हैं। झूठ से तुम अपने को सिर्फ धोखा दे सकते होउससे कभी तृप्त नहीं हो सकते।
उदाहरण के लिएसपने में तुमको प्यास लगती है और सपने में ही तुम पानी भी पी लेते हो। उससे नींद को जारी रखने में सुविधा मिल जाती है। अगर पानी पीने का स्वप्न न निर्मित हो तो तुम्हारी नींद टूट जाएगी। प्यास सच्ची हैवह नींद को तोड़ देगी। तब नींद में बाधा पड़ जाएगी। सपना सहयोगी हैवह तुम्हें एहसास देता है कि तुम पानी पी रहे हो। लेकिन वह पानी झूठा है। उससे तुम्हारी प्यास दूर नहीं हुईप्यास सिर्फ भूल गई। यह तृप्ति का धोखा है। तुम्हारी नींद जारी रह सकती हैलेकिन प्यास तो दमित हो गई।
और यह बात नींद और स्‍वप्‍न में ही नहींतुम्हारे पूरे जीवन में घटित हो रही है। तुम अपने झूठे व्यक्तित्व के द्वारा उन चीजों को खोजते हो जो नहीं हैंजो होने का धोखा देती हैं। अगर वे चीजें तुम्हें न मिलीं तो तुम दुखी होगे और अगर मिल गईं तो भी दुखी होगे। और स्मरण रहेउनके न मिलने पर कम दुख होगामिलने पर ज्यादा और गहरा दुख होगा।
मनस्विद कहते हैं कि इस झूठे व्यक्तित्व के कारण हम कभी सच में नहीं चाहते कि मंजिल मिले। क्योंकि अगर मंजिल मिल गई तो तुम पूरी तरह निराश हो जाओगे। तुम आशा में जीते हो और आशा में तुम चलते रह सकते हो। आशा स्वप्न है। तुम कभी मंजिल पर नहीं पहुंचतेइसलिए तुम्हें कभी पता नहीं चलता कि मंजिल झूठी थी। एक गरीब आदमी धन के लिए संघर्ष करता है। वह उस संघर्ष में रहकर ज्यादा सुखी हैक्योंकि संघर्ष में आशा है। और झूठे व्यक्तित्व के लिए आशा ही सुख है। अगर गरीब को धन मिल जाए तो वह निराश हो जाएगा। अब निराशा ही स्वाभाविक परिणाम होगी। धन तो होगालेकिन तृप्ति नहीं होगी। उसे मंजिल मिल गईलेकिन उससे कुछ भी नहीं मिला। उसकी आशाएं धूल में मिल गयीं।
यही कारण है कि जब कोई समाज समृद्ध हो जाता हैवह अशांत हो जाता हैवह उपद्रव में पड़ जाता है। आज अगर अमेरिका इतने उपद्रव में है तो उसका कारण है कि आशाएं पूरी हो गयींमंजिल मिल गई। अब वह अपने को और अधिक धोखा नहीं दे सकता। अगर अमेरिका की युवा पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के सभी लक्ष्यों के प्रति विद्रोह कर रही है तो उसका कारण यही है कि सभी उपलब्‍धियां व्‍यर्थ सिद्ध हुई है।
भारत में हम यह सोच भी नहीं सकते हैं। हम नहीं सोच सकते हैं कि युवक स्वेच्छा से गरीब हो सकते हैंहिप्पी बन सकते हैं। स्वेच्छा से गरीबी का वरण—हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते। हमें अभी आशा बनी है। हम भविष्य के प्रति आशा से भरे हैं कि किसी दिन देश धनवान होगा और यहां स्वर्ग उतरेगा। स्वर्ग सदा आशा में है।
इस झूठे व्यक्तित्व के कारण तुम जो भी करते होजो कुछ भी करते होजो कुछ भी देखते होसब झूठा हो जाता है।
तंत्र कहता है कि सत्य तुम्हें घटित हो सकता हैअगर तुम फिर से यथार्थ मेंवास्तविकता में अपनी जड़ें जमा लोसत्य मेंवास्तविकता में अपनी नींव रख लो। लेकिन वास्तविकता में जड़ें जमाने के लिए तुम्हें अपने साथ बहुत—बहुत साहस की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि झूठ सुविधापूर्ण हैऔर तुमने झूठ का इतना अभ्यास किया हुआ हैऔर तुम्हारा मन झूठ से इस भांति संस्कारित है कि तुम्हें असलियत से बहुत भय मालूम पड़ेगा।

 किसी ने पूछा है :

कल आपने कहा कि काम— कृत्य में समग्रत: उतरो, उसका सुख लोउसका आनंद लोउसमें डूबे रहोऔर जब शरीर कांपने लगे तो कंपन ही हो जाओ। तो क्या आप हमें भोग लिखा रहे हैं?

 ही विकृति है। यही तुम्हारा झूठा व्यक्तित्व है जो तुमसे बोल रहा है। झूठा व्यक्तित्व सदा किसी चीज का सुख लेने का विरोधी है। वह सदा तुम्हारे विरोध में है। वह कहता है कि सुख मत लो। वह सदा त्याग का पक्षपाती है। वह कहता है कि तुम दूसरों के लिए अपना बलिदान कर दो। यह बहुत सुंदर मालूम पड़ता हैक्योंकि तुम इसी शिक्षा में पले हो कि दूसरों के लिए त्याग करो। इसे वे परोपकार कहते हैं। और अगर तुम सुख लेते हो तो वे तुम्हें स्वार्थी कहेंगे। और जब कोई कहता है कि यह स्वार्थ है तो सुख पाप बन जाता है।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि तंत्र की दृष्टि बिलकुल भिन्न है। तंत्र कहता है कि जब तक तुम स्वयं सुखी नहीं होतब तक तुम किसी को भी सुख नहीं पहुंचा सकते। जब तक तुम स्वयं से संतुष्ट नहीं होतब तक तुम दूसरों की सेवा नहीं कर सकतेतब तक तुम दूसरों के संतुष्ट होने में कुछ हाथ नहीं बंटा सकते। जब तक तुम खुद आनंद से नहीं भरे होतब तक तुम समाज के लिए एक खतरा हो। क्योंकि जो व्यक्ति त्याग करता है वह सदा पर—पीड़क हो जाता है।
अगर तुम्हारी मां तुमसे हमेशा कहती रहे कि मैंने तुम्हारे लिए इतना त्याग किया तो समझना कि वह तुम्हें सताएगी। अगर कोई पति अपनी पत्नी से कहता रहे कि मैं तुम्हारे लिए त्याग कर रहा हूं तो समझना कि वह पर—पीड़क होगाआततायी होगा।
त्याग सदा दूसरों को सताने की एक चालाक विधि है। जो लोग सदा त्याग करने में लगे हैंवे बड़े खतरनाक लोग हैं,उनसे खतरे की संभावना बहुत है। उनसे सावधान रहो। और त्याग से बचो। यह शब्द ही कुरूप है।
सुख लोआनंद से भरो। और जब तुम आनंद से भरे होते हो तो वही आनंद दूसरों तक पहुंचने लगता है। लेकिन वह त्याग नहीं है। तुम किसी पर उपकार नहीं करते होकिसी को तुम्हें धन्यवाद देने की जरूरत नहीं है। बल्कि तुम दूसरों के प्रति अनुगृहीत अनुभव करोगे कि वे तुम्हारे आनंद में सम्मिलित हुए। त्यागकर्तव्यसेवा जैसे शब्द कुरूप हैंगंदे हैं। उनमें हिंसा भरी है।
तंत्र कहता है कि यदि तुम खुद प्रकाश से नहीं भरे हो तो दूसरों को प्रकाशवान होने में सहायता नहीं दे सकते। स्वार्थी बनो तो ही तुम परोपकारी बन सकते हो। अन्यथा परोपकार की सारी धारणा अर्थहीन है। स्वयं सुखी होओ तो ही तुम दूसरों के सुखी होने में हाथ बंटा सकते हो। अगर तुम दुखी और उदास होअगर तुम निराश होतो तुम दूसरों के प्रति सदा हिंसा से भरे रहोगेतब तुम दूसरों के लिए दुख ही निर्मित करोगे।
तुम महात्मा बन जा सकते होवह बहुत कठिन नहीं है। लेकिन अपने महात्माओं को तो देखो! वे उन सब को सताने में लगे हैं जो उनके पास जाते हैं। लेकिन उनके सताने में बड़ी चालबाजी है। वे तुम्हें तुम्हारे हित में सताते हैंतुम्हें तुम्हारे हित के लिए यातना देते हैं। और चूंकि वे अपने को भी सताते हैंइसलिए तुम यह नहीं कह सकते कि आप हमें जो उपदेश देते हैं वह खुद नहीं करते। वे करते हैंवे अपने को भी सताते हैं। इसलिए उन्हें तुम्हें सताने का पूरा अधिकार है। और जो यातना तुम्हारे हित में दी जाती है वह बहुत खतरनाक हैउससे तुम बच नहीं सकते।
और सुख लेने में गलती क्या हैसुखी होने में गलती क्या हैअगर गलती है तो दुखी होने में गलती हैक्योंकि दुखी आदमी अपने चारों ओर दुख की तरंगें पैदा करता है। सुखी होओ! और काम—कृत्यप्रेम—कृत्य आनंद को उपलब्ध होने का सबसे गहन साधन बन सकता है।
तंत्र कामुकता नहीं सिखाता है। वह कहता है कि काम आनंद का स्रोत बन सकता है। और एक बार तुमने उस आनंद को जान लिया तो तुम उसके पार जा सकते हो। क्योंकि अब तुम्हारे पांव यथार्थ की जमीन में जमे हैं। काम में ही सदा नहीं रहना हैलेकिन काम को जंपिंग प्याइंट बनाया जा सकता है। तंत्र यही सिखाता है : काम को जंपिंग प्याइंट बनाओ। अगर तुम्हें आर्गाज्म काकाम—समाधि का अनुभव हो जाए तो तुम उस बड़ी समाधि कोजागतिक समाधि को समझ सकते हो जिसकी चर्चा संत सदा से करते आए हैं।
मीरा नाच रही है। तुम उसे नहीं समझ सकतेतुम उसके गीतों को भी नहीं समझ सकते। वे कामुक गीत हैंउनके प्रतीक कामुक हैं। ऐसा होगा ही। क्योंकि मनुष्य के जीवन में काम—कृत्य ही एक कृत्य है जिसमें तुम्हें अद्वैत कागहन एकता का अनुभव होता हैजिसमें अतीत विलीन हो जाता हैभविष्य विलीन हो जाता है और सिर्फ वर्तमान का क्षण—जो कि एकमात्र वास्तविक क्षण है—बचता है।
इसलिए समस्त संतो नेरहस्यवादियों नेजिन्हें परमात्मा के साथअस्तित्व के साथ एकता का अनुभव हुआ हैअपने अनुभवों को व्यक्त करने के लिए सदा काम—प्रतीकों का उपयोग किया है। कोई दूसरा प्रतीककोई दूसरी उपमा नहीं है जो करीब भी आती हो।
काम सिर्फ आरंभ हैअंत नहीं। लेकिन अगर तुम आरंभ चूक गए तो अंत भी चूक जाओगे। और अंत को उपलब्‍ध होने में आरंभ से नहीं बचा जा सकता।
तंत्र कहता है कि जीवन को सहजता से स्वीकार करोझूठे व्यक्ति मत बनो। काम की संभावना प्रगाढ़ हैउसकी क्षमता बड़ी है। उसका उपयोग करो। और उसका सुख लेने में गलती क्या है?
सच तो यह है कि समस्त नैतिकता सुख के विरोध में है। यदि कोई सुखी है तो तुम्हें लगता है कि कुछ गलत हो रहा है। यदि कोई दुखी है तो सब ठीक—ठाक मालूम पड़ता है। हम एक रुग्ण समाज में रहते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति दुखी है। इसलिए जब तुम दुखी हो तो सब लोग खुश हैंक्योंकि सब लोग तुम्हारे साथ सहानुभूति दिखा सकते हैं। और जब तुम सुखी हो तो लोगों को समझ में नहीं आता कि वे क्या करें। जब कोई तुम्हें सहानुभूति प्रकट करता है तो उसके चेहरे को देखो। चेहरे पर एक चमक हैएक सूक्ष्म दीप्ति आई हुई है। सहानुभूति प्रकट करते हुए वह प्रसन्न है। लेकिन अगर तुम सुखी हो तो उसकी कोई संभावना नहीं रहती। तुम्हारा सुख दूसरों के लिए दुख पैदा करता है और तुम्हारा दुख दूसरों का सुख बन जाता है। यह रुग्णता हैमानसिक रुग्णता है। मालूम पड़ता है कि हमारी बुनियाद ही विक्षिप्त हो गई है।
तंत्र कहता है. सच्चे बनोअपने प्रति प्रामाणिक बनो। तुम्हारा सुख बुरा नहीं हैशुभ है। सुख पाप नहीं है। पीड़ा पाप है,दुखी होना पाप है। सुखी होना पुण्य हैक्योंकि सुखी व्यक्ति दूसरों के लिए दुख नहीं निर्मित करेगा। सुखी आदमी ही दूसरों के सुख का आधार बन सकता है।
दूसरी बात कि जब मैं कहता हूं कि तंत्र न नैतिक है न अनैतिक तो उसका मतलब है कि तंत्र बुनियादी रूप से एक विज्ञान है। वह तुम्हारा निरीक्षण करता है। तुम जो होउसकी फिक्र करता है। उसका अर्थ है कि तंत्र तुम्हें बदलने की चेष्टा तो बिलकुल नहीं करतालेकिन वह यथार्थ के जरिए तुम्हें निश्चित ही रूपांतरित कर देता है।
जादू और विज्ञान में जो भेद है वही भेद नीति और तंत्र में है। जादू यथार्थ को जाने बिना सिर्फ शब्दों के जरिए चीजों को बदलने की चेष्टा करता है। जादूगर कह सकता है कि अब वर्षा बंद हो जाएगीलेकिन वास्तव में वह वर्षा को नहीं रोक सकता। या वह कह सकता है कि वर्षा होगीलेकिन वह वर्षा ला नहीं सकता है। वह महज शब्दों का खेल है। कभी—कभार संयोग घट सकता है और तब जादूगर को लगेगा कि मैं कितना शक्तिशाली हूं। और अगर उसकी भविष्यवाणी के मुताबिक कोई चीज नहीं होती है तो वह सदा कह सकता है कि कुछ भूल—चूक रह गई होगी। उसके धंधे में सदा इतनी सुविधा छिपी रहती है। जादूगरी में सब कुछ अगरसे शुरू होता है। जादूगर कह सकता है कि अगर सब शुभ होंपुण्यवान हों तो फलां दिन वर्षा होगी। फिर अगर वर्षा हुई तो ठीक और अगर नहीं हुई तो जादूगर कहेगा कि सब पुण्यवान नहीं थेकोई न कोई पापी था।
इस बीसवीं सदी में भी जब बिहार में अकाल पड़ा तो महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति ने कहा कि बिहार में अकाल इसलिए पड़ा क्योंकि वहा के लोग पापी हैं। मानो सारा संसार पुण्यात्मा हैसिर्फ बिहार पापी है।
जादू अगर से शुरू करता है और वह अगर बहुत बड़ा है। विज्ञान कभी अगर से नहीं शुरू करता है। विज्ञान सबसे पहले यह जानने की चेष्टा करता है कि तथ्य क्या हैयथार्थ क्या हैअसलियत क्या है। यथार्थ कोअसलियत को जानकर ही उसे रूपांतरित किया जा सकता है। अगर तुम जानते हो कि विद्युत क्‍या है तो तुम उसे बदल सकते हो, रूपांतरित कर सकते हो,उसका उपयोग कर सकते हो। लेकिन जादूगर नहीं जानता है कि विद्युत क्या है और जाने बिना ही वह उसे रूपांतरित करने चलता हैकम से कम रूपांतरित करने का विचार करता है। ऐसी भविष्यवाणियां झूठी हैंभ्रांत हैं।
नीति जादू जैसी है। वह पूर्ण मनुष्य की चर्चा किए जाती है और उसे यह नहीं मालूम है कि मनुष्य क्या हैयथार्थ मनुष्य क्या है। पूर्ण मनुष्य स्‍वप्‍न ही बना रहता है और उसका उपयोग सिर्फ यथार्थ मनुष्य की निंदा करने के लिए होता है। मनुष्य उस लक्ष्य तक कभी नहीं पहुंच पाता है।
तंत्र विज्ञान है। तंत्र कहता है कि पहले जानो कि यथार्थ क्या हैमनुष्य क्या है। अभी मूल्य मत निर्मित करोअभी आदर्श मत खडे करो। पहले उसे जानो जो है। इसका विचार मत करो कि क्या होना चाहिए। सिर्फ उसकी सोचोजो है। और जब वह जान लिया जाए जो है तो तुम उसे बदल सकते हो। तब तुम्हें कुंजी मिल गई।
उदाहरण के लिएतंत्र कहता है कि कामवासना का विरोध मत करो। अगर तुम कामवासना के विरोध में जाओगे और ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होने की चेष्टा करोगे तो तुम असंभव की चेष्टा करोगे। वह जादूगरी है। काम—ऊर्जा को जाने बिनाकाम की संरचना को समझे बिनाउसके यथार्थ कोउसके रहस्यों को जाने बिना तुम ब्रह्मचर्य का आदर्श निर्मित कर ले सकते हो। लेकिन तब तुम क्या करोगेतब तुम सिर्फ दमन करोगे।
लेकिन जो व्यक्ति कामवासना का दमन करता है वह उस व्यक्ति से ज्यादा कामवासना से ग्रस्त है जो काम— भोग में संलग्न है। क्योंकि भोग के द्वारा ऊर्जा व्यय हो जाती हैदमन से वह तुम्हारे भीतर चक्कर लगाती रहती है। जो व्यक्ति काम—दमन करता है उसे सर्वत्र कामुकता ही नजर आती हैउसके लिए सब कुछ कामुक हो जाता है। ऐसा नहीं कि सब कुछ कामुक हैलेकिन वह सर्वत्र उसका प्रक्षेपण कर लेता है। अब वह प्रक्षेपण करता हैउसकी दमित ऊर्जा प्रक्षेपण करती है। वह जहां भी दृष्टि डालेगाउसे कामुकता ही कामुकता नजर आएगी। और क्योंकि वह अपनी निंदा करता हैवह सबकी निंदा करने लगेगा।
ऐसा नैतिक व्यक्ति खोजना मुश्किल है जो भयानक रूप से निंदा करने वाला न हो। वह सबकी निंदा करेगाउसकी नजर में सब लोग गलत हैं। और ऐसा करके वह तृप्त होता हैउसका अहंकार तृप्त होता है। वह क्यों सबको गलत समझता हैक्योंकि उसे सर्वत्र वही चीज दिखाई देती है जिसका वह दमन कर रहा है। उसका अपना चित्त ज्यादा कामुक होता जाएगा और वह और—और भयभीत रहेगा। यह ब्रह्मचर्य विकृति हैयह अस्वाभाविक है।
एक भिन्न गुणवत्ता का ब्रह्मचर्यएक अलग ढंग का ब्रह्मचर्य तंत्र के साधक को घटित होता है। लेकिन उसकी पूरी प्रक्रिया उलटी हैबिलकुल उलटी है। तंत्र पहले यह सिखाता है कि तुम कामवासना में प्रवेश कैसे करोउसे कैसे जानोकैसे अनुभव करो। उसकी गहनतम छिपी संभावना कोउसके शिखर को कैसे प्राप्त करो। उसमें छिपे सार—सौंदर्य कोउसके मूलभूत सुख और आनंद को कैसे उपलब्ध होओ। और अगर तुमने उस रहस्य को जान लिया तो तुम उसका अतिक्रमण कर सकते हो। क्योंकि गहन काम—समाधि में तुम्हें जो आनंद मिलता है वह आनंद काम से नहींकिसी और चीज से आता है। काम तो सिर्फ एक स्‍थिति है;और उसमें जो सुखजो आनंद मिलता हैवह किसी दूसरी चीज सेदूसरे स्रोत से मिलता है।
वह दूसरी चीज तीन तत्वों में बांटी जा सकती है। लेकिन जब मैं उन तत्वों के संबंध में बोलता हूं तो यह मत समझो कि तुम उन्हें मेरे शब्दों से ही समझ जाओगे। उन्हें तुम्हारा अनुभव बनना होगासिद्धात की भांति वे व्यर्थ हैं। लेकिन काम के इन्हीं तीन तत्वों के कारण तुम आनंद को उपलब्ध होते हो।
उनमें प्रथम हैसमय—शून्यताउसमें तुम बिलकुल ही समय के पार हो जाते हो। वहा समय नहीं है। तुम समय को बिलकुल भूल जाते होतुम्हारे लिए समय समाप्त हो जाता है। यह नहीं कि समय मिट जाता हैसिर्फ तुम्हारे लिए समय समाप्त हो जाता हैतुम समय में नहीं होते होन अतीत होता है और न भविष्य। इसी क्षण मेंयहां और अभी सारा अस्तित्व केंद्रीभूत होता है। यही क्षण एकमात्र सच्चा क्षण होता है। अगर तुम इस क्षण को काम—कृत्य के बिना भी एकमात्र वास्तविक क्षण बना सको तो काम की जरूरत ही न रहे। ध्यान में यही घटित होता है।
दूसरी बात कि काम—कृत्य में पहली बार तुम्हारा अहंकार खो जाता हैतुम निरहंकारी हो जाते हो। इसलिए वे सारे लोग जो अति अहंकार से भरे हैंसदा काम के विरुद्ध हो जाते हैं। क्योंकि काम में उन्हें अहंकार खोना पड़ता है। तब न तुम हो और न दूसरा हैतुम और तुम्हारी प्रेमिकादोनों किसी और चीज में विलीन हो जाते हैं। एक नया यथार्थ घटित होता हैएक नई इकाई अस्तित्व में आती हैजिसमें पुराने दो खो जाते हैंपूरी तरह खो जाते हैं। इससे अहंकार को भय होता है। तुम नहीं बचोगे। अगर तुम काम के बिना भी इस क्षण को प्राप्त कर सको जिसमें तुम नहीं होते हो तो फिर काम— भोग की जरूरत नहीं रहती।
और तीसरी बात कि काम—कृत्य में तुम पहली बार नैसर्गिक होते हो। जो कुछ झूठा थाओढ़ा हुआ थामुखौटा थावह सब खो जाता है। समाजसभ्यतासंस्कृतिसब खो जाता है। तब तुम निसर्ग के अंश मात्र हो। जैसे वृक्ष हैंपशु हैंचांद—तारे हैंवैसे ही तुम भी प्रकृति के अंश हो। अब तुम विराट के साथ होऋत के साथ होताओ के साथ होतुम उसके साथ बह रहे हो। तुम उसमें तैर भी नहीं सकतेक्योंकि तुम नहीं हो। तुम बस बह रहे होप्रवाह तुम्हें लिए जा रहा है।
ये तीन चीजें तुम्हें आनंद देती हैंसमाधि की एक झलक देती हैं। काम—कृत्य एक स्थिति भर है जिसमें यह सहजता से घटित होता है। अगर तुम इन तत्वों को जान लेते हो और इन्हें अनुभव कर लेते हो तो तुम काम—कृत्य के बिना भी उन्हें निर्मित कर सकते हो। समस्त ध्यान मूलतः काम— भोग के बिना काम— भोग का अनुभव है। लेकिन तुम्हें उससे गुजरना ही होगा। उसे तुम्हारे अनुभव का हिस्सा बन जाना होगा। उसकी मात्र धारणासिद्धात या विचार से कुछ भी नहीं होगा।
तंत्र काम— भोग के लिए नहींकाम के अतिक्रमण के लिए है। लेकिन वह अतिक्रमण आदर्श से नहींसिर्फ अनुभव से हो सकता है—अस्तित्वगत अनुभव से। ब्रह्मचर्य केवल तंत्र के द्वारा घटित होता है। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती हैलेकिन विरोधाभासी नहीं है। ज्ञान के द्वारा ही अतिक्रमण घटित होता है। अज्ञान से अतिक्रमण नहीं हो सकताअज्ञान से सिर्फ पाखंड पैदा होता है।

 अब मैं दूसरे प्रश्न लूंगा। किसी ने पूछा है :

ध्यान की प्रक्रिया में बाधा न पहुंचे, बल्कि सहयोग मिलेइस दृष्टि से संभोग में कितनी बार उतरना उचित है?

 ह प्रश्न हमारी नासमझी के कारण उठता है। तुम्हारे साधारण संभोग में और तांत्रिक संभोग में बुनियादी भेद है। तुम्हारा काम— भोग सिर्फ तनाव से क्षणिक छुटकारा होता हैवह अच्छी छींक जैसा है। उसमें ऊर्जा फिंक जाती है और तुम हलके हो जाते हो। यह काम— भोग दीन—हीन करता हैयह सृजनात्मक नहीं है। यह ठीक है—राहत जैसा है। इससे तुम्हें आराम मिल जाता हैलेकिन और कुछ नहीं।
तांत्रिक संभोग बुनियादी रूप से बिलकुल उलटा और भिन्न है। वह छुटकारा पाने के लिए नहीं हैवह ऊर्जा को बाहर फेंकने के लिए नहीं है। तंत्र में स्खलन के बिनाऊर्जा को बाहर फेंके बिना संभोग में रहना हैवह भी उसके आरंभ के साथ रहना हैअंत के साथ नहीं। इससे काम— भोग की गुणवत्ता बदल जाती हैउसका पूरा गुणधर्म भिन्न हो जाता है।
यहां दो चीजें समझने जैसी हैं। काम— भोग में दो प्रकार के शिखर— अनुभव हैंदो प्रकार के आर्गाज्म हैं। एक आर्गाज्म से तुम परिचित होजिसमें तुम उत्तेजना के शिखर पर पहुंचकर उसके आगे नहीं जा सकतेअंत आ जाता है। उत्तेजना ऐसे बिंदु पर पहुंच जाती है जहां वह स्वैच्छिक नहीं रह जातीऊर्जा छलांग लेती है और बाहर निकल जाती है। उससे तुम खाली हो जाते होहलके हो जाते हो। कोई बोझ सा उतर जाता है और तुम विश्रांति और नींद में चले जाते हो।
तुम यहां काम— भोग का उपयोग ट्रैंक्वेलाइजर की तरह करते हो। यह प्रकृति प्रदत्त ट्रैंक्वेलाइजर है। इसके बाद अच्छी नींद आएगीबशर्ते चित्त धर्म से बोझिल न हो। अन्यथा ट्रैक्येलाइजर भी व्यर्थ हो जाएगा। अगर तुम्हारा चित्त धारणाओं से बोझिल नहीं है तो ही काम— भोग ट्रैंक्वेलाइजर का काम कर सकता है। अगर तुम्हें अपराध— भाव पकड़ता है तो तुम्हारी नींद भी बिगड़ जाएगी। तब तुम्हें गिरावट अनुभव होगीतब तुम आत्म—निंदा में संलग्न हो जाओगे। और तब तुम व्रत लोगे कि अब फिर मैं इस पाप में नहीं गिरूंगा। तब तुम्हारी नींद भी उपद्रव में पड़ जाएगी। लेकिन यदि तुम सहज होधर्म सेनीति से बोझिल नहीं हो तो काम— भोग टैंरक्वेलाइजर बन सकता है।
यह एक तरह का आर्गाज्म हैकाम का शिखर—अनुभव हैजिसमें उत्तेजना का शिखर प्राप्त होता है। तंत्र दूसरे प्रकार के शिखर—अनुभव की फिक्र लेता है। और अगर तुम पहले प्रकार को शिखर— अनुभव कहते हो तो तांत्रिक संभोग को घाटी—अनुभव कहना उचित होगा। इसमें तुम्हें उत्तेजना के शिखर पर नहीं पहुंचना हैवरन विश्राम की गहनतम घाटी में उतरना है। लेकिन दोनों के आरंभ में उत्तेजना से काम लेना है। इसलिए मैं कहता हूं कि आरंभ में दोनों समान हैंलेकिन उनके अंत बिलकुल भिन्न हैं।
उत्तेजना का उपयोग दोनों में करना है। वहा से तुम या तो उत्तेजना के शिखर पर चढ़ोगे या विश्राम की घाटी में उतरोगे। पहली यात्रा तो तीव्र से तीव्रतर होते जाना है; तुम्हें उत्तेजना के साथ बढ़ना हैउत्तेजना को उसके शिखर तक पहुंचाना है। लेकिन दूसरी यात्रा में उत्तेजना केवल आरंभ में होगी। और पुरुष के प्रवेश करते ही प्रेमी और प्रेमिका दोनों विश्राम में हो सकते हैं। किसी हलचल की जरूरत नहीं हैदोनों प्रेम— आलिंगन में विश्रामपूर्ण हो सकते हैं। जब भी पुरुष या स्त्री को ऐसा लगे कि इंद्रियों का तनाव समाप्त होने को हैतभी थोड़ी गति और उत्तेजना की जरूरत है। लेकिन फिर विश्राम में चले जाना चाहिए।
तुम इस प्रगाढ़ आलिंगन को सख्‍लन के बिना घंटों लंबा सकते हो और उसके बाद दोनों गहरी नींद में सो जा सकते हो। यही घाटी— अनुभव है। इसमें दोनों व्यक्ति विश्रामपूर्ण हैं और उनका मिलन भी विश्रामपूर्ण होता है।
सामान्य संभोग में तुम दो उत्तेजित व्यक्तियों की भांति मिलते हों—तनावग्रस्तउत्तेजितखाली होने को आतुर। साधारण आर्गाज्म पागलपन जैसा मालूम होता है। तांत्रिक आर्गाज्‍म्र प्रगाढ़ विश्राम वाला ध्यान है। उसमें यह प्रश्न ही नहीं उठता है कि कितनी बार संभोग में उतरा जाए। तुम जितनी बार चाहो उतर सकते होक्योंकि उसमें ऊर्जा की हानि नहींवरन ऊर्जा की प्राप्ति होती है।
तुम्हें शायद इसका बोध नहींलेकिन यह जीवशास्त्र या जीव—ऊर्जा का एक तथ्य है कि पुरुष और स्त्री विपरीत शक्तियां हैं। तुम उन्हें निषेध—विधेययिन—याग या जो भी कहोवे एक—दूसरे को चुनौती देने वाली शक्तियां हैं। और जब वे गहन विश्राम में मिलती हैं तो वे परस्पर एक—दूसरे को जीवन प्रदान करती हैं। इस मिलन से स्त्री—पुरुष दोनों शक्तिसंपन्न हो जाते हैं,दोनों शक्तिशाली हो जाते हैंदोनों जीवंत हो जाते हैंदोनों नई ऊर्जा से भर जाते हैं। ऐसे मिलन में कुछ भी खोता नहींविपरीत ध्रुवों के मिलन से ऊर्जा का नवीकरण होता है। तांत्रिक संभोग तुम जितना चाहो उतना कर सकते हो।
साधारण संभोग में तुम बार—बार नहीं उतर सकतेक्योंकि उसमें तुम्हारी ऊर्जा नष्ट होती है और उसे पुन: प्राप्त करने के लिए तुम्हारे शरीर को प्रतीक्षा करनी होगी। और ऊर्जा प्राप्त करके फिर उसे नष्ट ही करना है। यह एक अर्थहीन सिलसिला हैसारा जीवन फिर—फिर ऊर्जा कमाने और नष्ट करने में व्यतीत हो जाता है। यह एक ग्रस्तता हैरुग्णता है।
इस संबंध में एक दूसरी बात भी समझने जैसी है। तुमने शायद ध्यान न दिया हो कि पशु काम—कृत्य का सुख लेते हुए नहीं मालूम पड़ते हैंसंभोग में वे सुख लेना नहीं जानते। बंदरों और वनमानुषों को देखोकुत्तों और अन्य जानवरों को देखोउन्हें संभोग में देखकर यह कहना असंभव है कि वे उसका सुख ले रहे हैंकि वे आनंदित हो रहे हैं। यह असंभव है। उनका काम— भोग बिलकुल यांत्रिक मालूम पड़ता है। लगता है कि कोई प्राकृतिक शक्ति उन्हें इसके लिए बाध्य कर रही है। अगर तुमने बंदरों को संभोग करते देखा हो तो देखा होगा कि संभोग के बाद वे तुरंत एक—दूसरे से अलग हो जाते हैं। उनके चेहरों को देखोउनमें प्रसन्नता जरा भी नहीं हैजैसे कि कुछ हुआ ही नहीं। जब ऊर्जा धक्के देती हैजब वह अतिशय होती है तो वे उसे बस फेंक देते हैं।
साधारण काम—कृत्य ऐसा ही है। लेकिन नीतिवादी ठीक उलटी बात कहते आ रहे हैं।
वे कहते हैं : भोग मत करोसुख मत लो। वे कहते हैं. यह तो पशुओं जैसा कृत्य है। लेकिन यह बात गलत है। पशु कभी सुख नहीं लेते हैंकेवल मनुष्य सुख ले सकता है। और तुम जितना गहरा सुख लोगे उतनी ही श्रेष्‍ठ मनुष्‍यता का उदय होगा। और अगर तुम्‍हारा संभोग ध्यानपूर्ण हो जाएसमाधि पूर्ण हो जाए तो परम उपलब्ध हो जाए। लेकिन तंत्र की बात स्मरण रखो. यह घाटी— अनुभव है। यह शिखर—अनुभव नहीं हैघाटी— अनुभव है।
पश्चिम में अब्राहम मैसलो ने शिखर—अनुभव की बहुत बात की है। तुम उत्तेजना के शिखर पर पहुंचकर नीचे गिरते हो। यही कारण है कि प्रत्येक संभोग के बाद तुम दीन—हीन अनुभव करते हो। और यह स्वाभाविक हैतुम शिखर से नीचे गिरते हो।
लेकिन तांत्रिक संभोग के बाद तुम्हें यह गिरावट कभी अनुभव नहीं होगी। उसमें तुम और नीचे नहीं गिर सकतेक्योंकि तुम घाटी में ही हो। वरन तुम ऊपर उठते हुए अनुभव करोगे। तांत्रिक संभोग से लौटने पर तुम गिरते नहींऊपर उठते हो। तुम ऊर्जा से आपूरित होकर ज्यादा शक्तिवानज्यादा जीवंत और तेजोमय हो जाते हो। और वह आनंद घंटों बना रह सकता हैदिनों बना रह सकता है। यह इस पर निर्भर है कि तुम कितनी गहराई से उसमें उतरे थे। तांत्रिक संभोग में उतरने पर देर— अबेर तुम्हें पता चलेगा कि स्खलन ऊर्जा का अपव्यय हैउसकी कोई जरूरत नहीं है। अगर बच्चा नहीं पैदा करना है तो स्खलन बिलकुल जरूरी नहीं है।
और इस तांत्रिक काम—अनुभव के बाद तुम पूरे दिन विश्राम अनुभव करोगे। एक तांत्रिक काम—अनुभव के बाद तुम कई दिनों तक विश्रांतशातअहिंसकअक्रोधी और सुखी रह सकते हो। और इस तरह का व्यक्ति कभी दूसरों के लिए उपद्रव नहीं खडा करेगामुसीबत नहीं पैदा करेगा। हो सकेगा तो वह दूसरों को सुखी बनाने में सहयोग देगाअन्यथा वह दूसरों को दुख तो कभी नहीं देगा।
केवल तंत्र नए मनुष्य का निर्माण कर सकता है। और यह नया मनुष्य—समयातीत और निरहंकार कोअस्तित्व के साथ गहन अद्वैत को जानने वाला मनुष्य—अवश्य विकासमान होगा। एक नया आयाम खुल गया है। वह बहुत दूर नहीं हैवह दिन बहुत दूर नहीं हैजब काम या सेक्स विलीन हो जाएगा। जब काम अनजाने विदा हो जाता हैजब एक दिन अचानक तुम्हें पता चलता है कि काम बिलकुल विदा हो गयाउसकी कोई वासना न रहीतो ब्रह्मचर्य का जन्म होता है।
लेकिन यह कठिन है। यह कठिन मालूम पड़ता हैक्योंकि तुम्हें बहुत गलत शिक्षा दी गई है। और तुम इससे भयभीत हो,क्योंकि तुम्हारा मन संस्कारित है।
हम दो चीजों से बहुत डरते हैंहम कामवासना और मृत्यु से बहुत डरते हैं। और वे दोनों ही बुनियादी हैं। धर्म का सच्चा साधक दोनों में प्रवेश करेगा। वह काम को जानने के लिए काम का अनुभव लेगा। क्योंकि काम को जानना जीवन को जानना है। और वह मृत्यु को भी जानना चाहेगा। क्योंकि जब तक तुम मृत्यु को नहीं जानते हो तब तक तुम शाश्वत जीवन को भी नहीं जान सकते।
अगर तुम काम में उसके मर्म तक प्रवेश कर सकी तो तुम जीवन को जान लोगे। और वैसे ही अगर तुम स्वेच्छा से मृत्यु में उसके केंद्र तक प्रवेश कर जाओ तो तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे। तब तुम अमर होक्योंकि मृत्यु तो केवल परिधि पर घटित होती है।
काम और मृत्युदोनों एक सच्चे साधक के लिए बुनियादी हैं। लेकिन सामान्य मनुष्यता के लिए दोनों घबड़ाने वाले है। कोई उनकी चर्चा नहीं करता है। और दोनों बुनियादी हैं और दोनों गहन रूप से एक—दूसरे से संबंधित हैं। वे इतने जुड़े हुए हैं कि तुम कामवासना में प्रवेश करो और तुरंत तुम एक प्रकार की मृत्यु में प्रवेश करने लगते हो। क्योंकि काम—अनुभव में तुम मरते हो,तुम्हारा अहंकार विलीन होता है। काम— अनुभव में समय विलीन हो जाता हैतुम्हारा व्यक्तित्व विदा हो जाता है। तब तुम ही मरने लगते हो। संभोग सूक्ष्म मृत्यु है।
और अगर तुम्हें बोध हो जाए कि काम सूक्ष्म मृत्यु है तो मृत्यु तुम्हारे लिए बड़ी काम—समाधि का अनुभव बन जाएगी। कोई सुकरात मृत्यु में निर्भय प्रवेश करता है। बल्कि वह मृत्यु को जानने के लिए उत्साह से भरा हैउल्लास और उत्तेजना से भरा है। उसके हृदय में मृत्यु के लिए गहन स्वागत का भाव है। क्योंक्योंकि अगर तुम संभोग की छोटी मृत्यु को जानते हो,अगर तुमने उससे प्राप्त होने वाला आनंद जाना हैतो तुम बड़ी मृत्यु को भी जानना चाहोगे। तुम उसके पीछे छिपे आनंद को भी भोगना चाहोगे।
लेकिन हमारे लिए काम और मृत्यु दोनों घबड़ाने वाले हैं। तंत्र के लिए दोनों अनुसंधान के आयाम हैं। उनसे होकर ही यात्रा है।

 किसी ने पूछा है :

अगर किसी को कुंडलिनी जागरण का अनुभव हो तो क्या काम के शिखर अनुभवों से उसकी ध्यान की ऊर्जा क्षीण नहीं होती है?

 बुनियादी रूप से काम—कृत्य को न समझने के कारण ये सारे प्रश्न उठ रहे हैं। सामान्यत: तो यही होता हैअगर तुम्हारी कुंडलिनी ऊर्जा जागती है और सिर की तरफ उठती है तो तुम्हें सामान्य आर्गाज्म नहीं हो सकेगा। और अगर तुम उसकी कोशिश करोगे तो तुम्हें अपने भीतर गहन द्वंद्व का सामना करना होगा। क्योंकि ऊर्जा ऊपर उठ रही है और तुम उसे नीचे लाने की चेष्टा कर रहे हो।
लेकिन तांत्रिक आर्गाज्म में यह कठिनाई नहीं हैबल्कि यह सहयोगी होगा। ऊपर उठती ऊर्जा तांत्रिक आर्गाज्म के विरोध में नहीं है। तुम विश्रामपूर्ण हो सकते होऔर अपनी प्रेमिका के साथ यह विश्रामपूर्ण स्थिति ऊर्जा को ऊपर उठने में सहयोग देगा।
सामान्य काम—कृत्य में यह कठिनाई जरूर है। यही कारण है कि सभी गैर—तांत्रिक विधियां काम के विरोध में हैं। क्योंकि उन्हें नहीं मालूम है कि घाटी—अनुभव भी संभव है। वे एक ही भांति के अनुभव सेसामान्य शिखर— अनुभव से परिचित हैं। और तब उनके लिए जरूर यह समस्या है। योग के लिए यह समस्या हैक्योंकि योग तुम्हारी काम—ऊर्जा को ऊपर उठाने की चेष्टा करता है। तुम्हारी ऊपर उठती काम—ऊर्जा को ही कुंडलिनी कहते हैं। काम— भोग में ऊर्जा नीचे जाती है। योग कहेगा कि ब्रह्मचर्य धारण करोक्योंकि अगर तुम दोनों करोगेयोग और भोग दोनों करोगे तो तुम अपने को अराजकता में डाल लोगे। एक और तुम ऊर्जा को ऊपर उठाने की चेष्टा करोगे और दूसरी ओर उसे नीचे उतारने कीबाहर फेंकने की चेष्टा करोगे। तब तुम उपद्रव में पड़ोगेअराजकता में पड़ोगे।
यही कारण है कि योग की विधियां काम—विरोधी हैं। लेकिन तंत्र काम — विरोधी नहीं हैक्योंकि तंत्र का आर्गाज्‍मतंत्र का काम — अनुभव सर्व था भिन्न है। वह घाटी — अनुभव है। घाटी—अनुभव सहयोगी हो सकता है; अराजकता की संभावना नहीं है। वह सहयोगी हो सकता है।
अगर तुम पुरुष हो और स्त्री से बच रहे हो या स्त्री हो और पुरुष से बच रहे हो तो तुम जो भी करोगेविपरीत यौन तुम्हारे मन में सदा बसा रहेगा और तुम्हें नीचे की ओर खींचता रहेगा। यह विरोधाभासी हैलेकिन सच है। लेकिन जब तुम अपनी प्रेमिका के साथ प्रगाढ़ आलिंगन में होते हो तो तुम दूसरे को भूल सकते हो। तभी तुम दूसरे को भूलते हो। पुरुष भूल जाता है कि स्त्री हैस्त्री भूल जाती है कि पुरुष है। प्रगाढ़ आलिंगन में ही दूसरा विदा होता है। और जब दूसरा नहीं है तो तुम्हारी ऊर्जा आसानी से प्रवाहित होती हैअन्यथा दूसरा उसे नीचे की ओर खींचता रहता है।
इसलिए योग तथा दूसरी सामान्य विधियां तुम्हें विपरीत यौन से बचने की शिक्षा देती हैं। तुम्हें बचना होगातुम्हें सतत सजग रहना होगासंघर्ष और नियंत्रण करना होगा। लेकिन अगर तुम विपरीत यौन के विरोध में हो तो वह विरोध ही तुम्हें निरंतर तनावग्रस्त रखेगा और तुम्हें नीचे खींचता रहेगा।
तंत्र कहता है : तनाव की जरूरत नहीं है। दूसरे के साथ विश्रामपूर्ण होओ। उस विश्रांत क्षण में दूसरा विलीन हो जाता है और तुम्हारी ऊर्जा ऊपर की ओर प्रवाहित हो सकती है। लेकिन यह तभी ऊपर की ओर प्रवाहित होती है जब तुम घाटी में होते हो। अगर तुम शिखर पर हो तो वह नीचे बहने लगती है।

 एक और प्रश्न :

कल रात आपने कहा कि पूरा कृत्य बिना किसी जल्दबाजी के धीरे— धीरे होना चाहिए। और आपने यह भी कहा कि काम—कृत्य पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए और उसमें भाग लेने वाले को समग्र होना चाहिए। इससे मुझे उलझन हो रही है। कृपा कर इन दोनों बलों को स्पष्ट करें।

 ह नियंत्रण नहीं है। नियंत्रण एक भिन्न चीज है और विश्राम उससे बिलकुल भिन्न चीज है। संभोग में तुम विश्रामपूर्ण होते होउसे नियंत्रित नहीं करते। अगर तुम उसे नियंत्रित करते हो तो विश्रामपूर्ण नहीं हो सकोगे। अगर तुम नियंत्रण कर रहे हो तो देर—अबेर तुम उसे खतम करने की जल्दी. में होगे। क्योंकि नियंत्रण में शक्ति लगती है और उससे तनाव पैदा होता है। और तनाव के कारण तुम्हें कृत्य को समाप्त करने की जरूरत और जल्दी पड़ती है। तंत्र में नियंत्रण नहीं हैतुम किसी चीज का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो। तुम किसी जल्दबाजी में नहीं होक्योंकि किसी लक्ष्य के लिए संभोग नहीं हो रहा है। तुम कहीं जा नहीं रहे हो। यह बस एक खेल हैइसमें कोई गंतव्य नहीं हैकहीं पहुंचना नहीं है। इसलिए कोई जल्दी नहीं है।
लेकिन आदमी अपने किसी कृत्य में पूरी तरह नहीं उपस्थित रहता है। अगर तुम अपना हर काम जल्दबाजी में करते हो तो तुम्हें काम—कृत्य: में भी जल्दी रहेगी। जो व्यक्ति बहुत ज्यादा समय —बोध से भरा है वह काम — कृत्य भी जल्दी —जल्दी निपटाएगा। उसे लगेगा कि इसमें समय नष्ट रहा। हम इंस्‍टैंट काफी और इंस्‍टैंट संभोग की मांग करते है। काफी तक तो बात ठीक हैलेकिन इंस्टैंट संभोग की मांग मूढ़ता है। इंस्टैंट संभोग नहीं हो सकतायह कोई काम नहीं हैयह जल्दी करने की चीज नहीं है। जल्दबाजी में तुम उसे नष्ट कर दोगेतुम उसकी असली बात ही चूक जाओगे। उसका सुख लोक्योंकि उसके द्वारा समयशून्यता का अनुभव होता है। जल्दबाजी में समयशून्यता का अनुभव नहीं हो सकता।
तंत्र कहता है कि संभोग में जल्दी मत करोआहिस्ते—आहिस्ते चलोउसका सुख लो। उसमें ऐसे जाओ जैसे सुबह टहलने के लिए निकलते हो। इसे आफिस जाने जैसा मत समझोआफिस जाना और बात है। जब तुम आफिस जा रहे हो तो कहीं पहुंचने की चिंता रहती है। और जब टहलने जाते हो तो कोई जल्दी नहीं रहतीक्योंकि कहीं पहुंचना नहीं है। तुम सिर्फ टहल रहे होघूम रहे हो। कोई जल्दी नहीं हैकोई गंतव्य नहीं है। तुम किसी भी जगह से लौट सकते हो।
घाटी निर्मित करने के लिए यह गैर—जल्दबाजीयह धीमापन आधारभूत हैअन्यथा शिखर निर्मित हो जाएगा। लेकिन जब मैं यह कहता हूं तो उसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हें नियंत्रण करना है। तुम्हें अपनी उत्तेजना को नियंत्रित नहीं करना है। वह स्व—विरोधी बात हो जाएगी। उत्तेजना को नियंत्रित नहीं किया जा सकताअगर करोगे तो दोहरी उत्तेजना पैदा हो जाएगी। बस विश्राम करो। उसे खेल की भाति लो। कोई लक्ष्य मत बनाओ। आरंभ पर्याप्त है।
संभोग में आंखें बंद कर लो और दूसरे के शरीर कोदूसरे की अपनी ओर आती हुई ऊर्जा को अनुभव करो और उसमें लीन हो जाओउसमें डूब जाओ। यह होगा। थोड़े दिन पुरानी आदत जिद्द के साथ बनी रहेगीलेकिन फिर वह भी जाती रहेगी। लेकिन उसे हटाने की जबरदस्ती मत करो। सिर्फ विश्राम मेंज्यादा से ज्यादा विश्राम में उतरो। अगर स्खलन न हो तो यह मत समझो कि कुछ गलत हो रहा है।
अक्सर स्खलन न होने पर आदमी सोचता है कि कुछ गड़बड़ हैउसे लगता है कि कुछ गलत हो रहा है। कुछ भी गलत नहीं हो रहा है। और यह मत सोचो कि तुम कुछ चूक रहे हो। तुम कुछ नहीं चूक रहे हो। शुरू—शुरू में तो लगेगा कि तुम कुछ चूक रहे होक्योंकि उत्तेजना और शिखर का अभाव रहेगा। घाटी के आने के पूर्व तुम्हें लगेगा कि मैं कुछ चूक रहा हूं। लेकिन ऐसा सिर्फ पुरानी आदत के कारण लगेगा। थोड़े समय मेंकोई महीने भर या तीन सप्ताह के भीतर घाटी प्रकट होना शुरू होगी। और जब घाटी प्रकट होगी तो तुम अपने शिखर को भूल जाओगे। इसके सामने कोई शिखर कुछ नहीं है। लेकिन तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी। उसके साथ जबरदस्ती मत करो। उसका नियंत्रण मत करो। सिर्फ विश्राम करो।
विश्राम एक समस्या है। जब हम कहते हैं कि विश्राम करो तो लगता है कि उसके लिए कोई प्रयत्न करना होगा। हमारी भाषा के कारण यह भाव पैदा होता है। मैं एक किताब पढ़ रहा था। किताब का नाम है : यू मस्ट रिलैक्स—तुम्हें विश्राम जरूर करना है। अब यह 'जरूर करना हैतुम्हें विश्राम नहीं करने देगा। जब विश्राम लक्ष्य बन जाता हैजब उसे करना अनिवार्य हो जाता है तो जब तुम विश्राम नहीं कर पाओगे तो तुम्हें निराशा होगी।जरूर करना हैयह शब्दावली कहती है कि इसमें कठिन प्रयत्न निहित हैयह मुश्किल काम है।
ऐसे तुम विश्राम नहीं कर सकते। समस्या भाषा की है। कुछ चीजें हैं जिन्हें भाषा सदा गलत ढंग से पेश करती है। उदाहरण के लिए यह विश्राम है। अगर मैं विश्राम करने को कहता हूं तो लगता है कि उसके लिए कुछ प्रयत्‍न करना है और तुम पूछोगे कि विश्राम कैसे किया जाए। कैसेपूछकर तुम बात ही चूक गए। तुम यह नहीं पूछ सकतेक्योंकि 'कैसेका अर्थ विधि है। और विधि प्रयत्न मांगती है और प्रयत्न तनाव पैदा करता है।
अगर तुम पूछोगे कि विश्राम कैसे किया जाए तो मैं कहूंगा कि कुछ मत करोबस विश्राम करो! मैं कहूंगा : लेट जाओ और प्रतीक्षा करो। कुछ भी मत करोतुम जो भी करोगे उससे बाधा पैदा होगीअवरोध पैदा होगा। अगर तुम एक से सौ तक और फिर सौ से वापस एक तक गिनती करने लगो तो तुम्हें सारी रात जागना पड़ेगा। और अगर बीच में नींद आ जाए तो यह मत सोचना कि गिनती के कारण नींद आ गई। नहींनींद इसलिए आ गई क्योंकि गिनते—गिनते तुम ऊब गए। और ऊब नींद लाती है। गिनती नहींऊब नींद ले आई। ऊब के कारण तुम गिनना भूल गए और तब नींद लग गई। नींद या विश्राम तभी आता है जब तुम कुछ भी नहीं करते।
यही समस्या है। जब मैं कहता हूं काम—कृत्य तो तुम्हें लगता है कि इसमें प्रयत्न निहित है। नहींप्रयत्न नहीं करना है। तुम बस अपनी प्रेमिका या अपने प्रेमी के साथ खेलना शुरू कर दोखेलते रहो। एक—दूसरे को महसूस करोएक—दूसरे के प्रति संवेदनशील बनो—जैसे बच्चे आपस में खेलते हैं या कुत्ते या अन्य जानवर खेलते हैं। खेलते रहो और काम—कृत्य के संबंध में कोई विचार मत करो। संभोग हो भी सकता हैनहीं भी हो सकता है। अगर खेलते—खेलते वह घटित हो तो वह तुम्हें आसानी से घाटी में पहुंचा देगा।
अगर तुम काम— भोग के संबंध में विचार करते हो तो तुम अपने से आगे निकल जाते हो। तुम अपनी प्रेमिका के साथ खेलते हुए काम—कृत्य का विचार कर रहे हो तो उसका मतलब है कि तुम्हारा खेल झूठा है। तब तुम वर्तमान में नहीं हो,तुम्हारा मन भविष्य में है। और यह मन सदा भविष्य में सरकता रहेगा। जब तुम संभोग में होगे तो मन उसको समाप्त करने का विचार करने लगेगा। मन सदा तुम्हारे आगे— आगे चलता है।
मन को ऐसा मत करने दो। बस खेलो और काम—कृत्य के बारे में भूल जाओ। वह घटित होगा। और जब वह घटित हो तो उसे घटित होने दो। तब विश्राम करना आसान होगा। जब संभोग घटित हो तो विश्राम करो। एक—दूसरे में डूबोएक—दूसरे की उपस्थिति में रहो और आनंदित होओ।
परोक्ष रूप से कुछ किया जा सकता है। उदाहरण के लिएजब तुम उत्तेजित होते हो तो तुम्हारी श्वास तेजी से चलने लगती है। उत्तेजना में तेज श्वास की जरूरत है। तो विश्राम के लिए तुम गहरी श्वास लोगहरी पर धीमी श्वास लो—तेज श्वास नहीं। श्वास को सरल—सहज बना लो तो संभोग लंबा होगा।
और बातचीत मत करोकुछ मत बोलो। बोलने से भी उपद्रव होता है। मन का नहींशरीर का उपयोग करो। और मन का उपयोग सिर्फ उसे महसूस करने के लिए करो जो घटित हो रहा है। विचार मत करोसिर्फ महसूस करो कि क्या हो रहा है। जो उष्णता बह रही हैजो प्रेम प्रवाहित हो रहा हैउसे अनुभव करो। और सजग रहो। लेकिन सजगता को भी प्रयास मत बनाओ। अप्रयास बहोअनायास बहो। तब घाटी प्रकट होगी। और जब घाटी प्रकट होगी
घाटी कोविश्रामपूर्ण आर्गाज्म को प्राप्त करते ही अतिक्रमण है। तब काम काम नहीं रहतावह ध्यान हो जाता हैसमाधि हो जाता है।

आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499

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