Monday, 5 February 2018

मन के धोखों से सावधान

तंत्र--सूत्र (भाग--1) प्रवचन--4

मन के धोखों से सावधान—(प्रवचन—चौथा)

     
प्रश्‍नसार:

1—ऐसी आसान विधियों से क्‍या ज्ञान—उपलब्‍धि संभव है?

2—काम करते हुए क्‍या श्‍वास—बोध का प्रयोग किया जा सकता है?


प्रश्न :

यह कैसे संभव है कि कोई व्यक्ति बस श्वास— क्रिया के एक विशेष बिंदु पर होश साधर ज्ञान को उयलब्ध जाएश्वास—प्रश्वास के ऐसे छोटे क्षणिक अंतराल के प्रति सजग होकर अचेतन से मुक्त होना कैसे संभव है?

 ह प्रश्न अर्थपूर्ण हैऔर यह प्रश्न अनेक के मन में उठा होगा। कई चीजें यहां समझने की हैं। समझा जाता है कि अध्यात्म एक कठिन उपलब्धि है। यह दोनों में कुछ नहीं हैन यह कठिन है और न उपलब्धि ही। तुम जो भी हो तुम आध्यात्मिक ही हो। तुम्हारे अस्तित्व में कुछ जोड़ा जाने को नहीं हैन उससे कुछ हटाया जाने को है। तुम उतने पूर्ण हो जितने पूर्ण हो सकते हो। ऐसा नहीं है कि तुम किसी भविष्य में पूर्ण होने जा रहे होऐसा भी नहीं कि तुम्हें पूर्ण होने के लिए कुछ दुष्कर करना होगा। यह अन्यत्र और कहीं पहुंचने की यात्रा भी नहीं हैतुम कहीं और नहीं जा रहे हो। तुम अभी भी वहीं हो। जो उपलब्ध किया जा सकता हैवह उपलब्ध ही है।

इस भाव को अपने में गहराने दो। तभी समझोगे कि ऐसी विधियां कैसे सहयोगी होती हैं। अगर अध्यात्म कोई उपलब्धि है तो सचमुच वह कठिन होगाकठिन ही नहींदरअसल असंभव होगा। अगर तुम पहले से ही आध्यात्मिक नहीं हो तो फिर आध्यात्मिक नहीं हो सकते। कभी नहीं होओगे। क्योंकि वह आध्यात्मिक कैसे होगा जो आध्यात्मिक नहीं हैअगर तुम अभी दिव्य नहीं हो तो फिर कोई संभावना नहीं हैउपाय नहीं है। तुम जो भी चेष्टा करोलेकिन अगर तुम दिव्य नहीं हो तो उस चेष्टा से दिव्यता नहीं पैदा हो सकती। तुम भागवत नहीं हो तो तुम्हारी चेष्टा से भगवत्ता नहीं पैदा की जा सकती है। तब वह असंभव चेष्टा है।
लेकिन सारा मामला उलटा है। तुम अभी वही हो जो होना चाहते हो। तुम्हारी कामना का लक्ष्य तुममें अभी ही उपस्थित है। यहां और अभीइसी क्षण तुम वह हो जिसे भगवत्ता कहते हैं। परमात्मा यहीं हैवही है। यही कारण है कि आसान विधियां काम आ सकती हैं। वह उपलब्धि नहीं हैअनावरण हैआविष्कार है। मगर वह छिपा हैऔर बहुत छोटी—छोटी चीजों में छिपा है। जैसे तुम्हारा शरीर वस्त्रों में छिपा रहता हैवैसे ही अध्यात्म भी कुछ वस्त्रों में छिपा है। उन्हीं वस्त्रों को हम व्यक्तित्व कहते हैं। तुम यहां और अभी नग्न हो सकते हो; वैसे ही तुम्हारा अध्यात्म भी अनावृतआविष्कृत हो सकता है।
लेकिन तुम नहीं जानते हो कि वे वस्त्र क्या हैं। तुम नहीं जानते कि तुम कैसे उनके भीतर छिपे हो। और तुम नहीं जानते कि कैसे नग्न हुआ जाता है। इतने समय से तुम वस्त्रों के भीतर रहते आये हो, जन्‍मों—जन्‍मों से तुम वस्‍त्रों के साथ ही जाये हो। और तुमने उसके साथ ऐसा तादात्म्य साध लिया है कि अब तुम भी नहीं सोचते कि ये वस्त्र हैं। तुम तो सोचते हो कि ये वस्त्र ही मैं हूं। वही बाधा है।
उदाहरण के लिएतुम्हारे पास खजाना है जिसे तुम भूल गए हो या तुम्हें जिसकी अभी तक पहचान नहीं हुई है कि यह खजाना है और तुम सड्कों पर भीख मांग रहे हो। तुम भिखारी हो। अगर कोई तुमसे कहे कि जाओ और अपने घर के भीतर देखोतुम्हें भिखारी होने की जरूरत नहीं हैतुम इसी क्षण सम्राट हो सकते हो! तो तुम्हारे भीतर का भिखारी उससे अवश्य कहेगाकैसी मूर्खता की बातें करते होमैं इसी क्षण सम्राट कैसे हो सकता हूंवर्षों से भीख मांग रहा हूं और अभी तक भिखारी का भिखारी हूं। और अगर जन्मों तक भी भीख मांगूं तो भी मैं सम्राट नहीं हो सकता। इसलिए तुम्हारा यह वक्तव्य बिलकुल अनर्गल और तर्कशून्य है कि तुम इसी क्षण सम्राट हो सकते हो।
असंभव है यह। भिखारी को इसका भरोसा नहीं हो सकता। क्योंक्योंकि भीख मांगने वाला मन एक लंबी आदत है। लेकिन अगर खजाना घर में गड़ा है तो मामूली खुदाई सेथोडी मिट्टी हटाने से वह पाया जा सकता है। और फिर तुरंत वह भिखारी नहीं रहेगावह सम्राट हो जाएगा।
यही बात अध्यात्म के साथ है। वह छिपा हुआ खजाना है। किसी भविष्य में कहीं कुछ उपलब्ध करने को नहीं है। तुमने अभी तक उसे पहचाना नहीं हैलेकिन वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। तुम ही खजाना हो। और कैसी विडंबना है कि तुम भीख मांगते हो!
इसलिए आसान विधियां भी काम कर सकती हैं। जमीन खोदनाथोड़ी मिट्टी हटाना बड़ा प्रयत्न नहीं हैऔर तुम सम्राट हो सकते हो। तुम्हें मिट्टी हटाने के लिए थोडी खुदाई करनी है। और जब मैं मिट्टी हटाने की बात कहता हूं तो सिर्फ प्रतीक के लिए नहीं कहता हूं। अक्षरश: तुम्हारा शरीर मिट्टी का अंश हैऔर तुमने उससे तादात्म्य कर लिया है। इस मिट्टी को जरा हटाओजरा सा गड्डा बनाओ और तुम्हें खजाने का पता मिल जाएगा।
यही कारण है कि यह प्रश्न बहुतों को उठेगा। सच में हरेक व्यक्ति यह प्रश्न पूछेगा ऐसी छोटी सी विधिश्वास—क्रिया के प्रति सजग होनाआने वाली और जाने वाली श्वास के प्रति होशपूर्ण होना और दोनों के बीच अंतराल को प्राप्त करनाक्या यह काफी हैक्या ऐसी सरल चीज ज्ञानोपलब्धि के लिए काफी हैक्या तुम्हारे और बुद्ध के बीच इतना ही फर्क है कि तुमने दो श्वासों के बीच के अंतराल को नहीं प्राप्त किया है और बुद्ध ने प्राप्त कर लिया हैबस इतना ही?
बात अतर्क्य लगती हैबुद्ध के और तुम्हारे बीच की दूरी विशाल है। यह दूरी अनंत मालूम होती है। भिखारी और सम्राट के बीच अनंत फासला हैलेकिन अगर छिपे खजाने की बात है तो भिखारी शीघ्र ही सम्राट भी हो सकता है। बुद्ध भी तुम्हारी तरह कभी भिखारी थे। वे सदा से सम्राट नहीं थे। एक खास बिंदु पर भिखारी मर गया और वे स्वामी हो गए।
यह कोई क्रमिक प्रक्रिया नहीं है। ऐसा नहीं है कि बुद्ध धीरे— धीरे संग्रह किए चलते हैं और किसी दिन भिखारी न रहकर सम्राट हो जाते हैं। नहींअगर संग्रह की ही बात है तो भिखारी सम्राट नहीं हो सकतातब भी वह भिखारी ही रहेगा। वह समृद्ध भिखारी हो सकता मन के धोखो से हैलेकिन भिखारी ही रहेगा। और समृद्ध भिखारी गरीब भिखारी से बड़ा भिखारी है। बुद्ध एक बुद्ध एक दिन आंतरिक खजाने को पा गये। तब वे भीखारी नहीं है, स्‍वामी है। गौतम सिद्धार्थ और गौतम बुद्ध के बीच का फासला अंतहीन है। और वही फासला तुम्हारे और बुद्ध के बीच भी है। लेकिन वह खजाना तुम्हारे भीतर भी उतना ही छिपा है जितना बुद्ध के भीतर छिपा था। इसलिए एक छोटीबहुत छोटी विधि सहयोगी हो सकती है।
एक दूसरा उदाहरण लें। एक आदमी अंधीबीमार आख लिए पैदा होता है। एक अंधे के लिए संसार बिलकुल दूसरी चीज है। लेकिन एक छोटा सा आपरेशनछोटी सी शल्य—चिकित्सा पूरी बात चीज को बदल दे सकती है। क्योंकि सिर्फ आंखों को दुरुस्त करना है। और जिस क्षण आंखें  तैयार हुईं कि वह देखने लगेगाक्योंकि देखने वाला तो उसके भीतर ही छिपा है। द्रष्टा तो मौजूद ही हैकेवल खिड़की की कमी है। तुम किसी घर में हो जिसमें खिड़की नहीं है। दीवार में एक छेद बना लो और अचानक तुम बाहर देखने लगोगे।
हम वही हैं जो हम होंगेजो हमें होना चाहिएजो हम होने वाले हैं। भविष्य वर्तमान में ही छिपा है। समस्त संभावना बीज में छिपी है। केवल खिड़की खोलनी हैकेवल छोटा सा आपरेशन करना है। अगर तुम यह समझ सकीयह कि अध्यात्म है हीवही हैतो फिर यह समस्या नहीं है कि छोटी सी विधि से कैसे काम चलेगा?
असल में बड़े प्रयत्न की जरूरत नहीं है। छोटे प्रयत्न ही चाहिए। प्रयत्न जितना छोटा हो उतना अच्छा। यही कारण है कि कई बार ऐसा होता है कि तुम जितनी ही चेष्टा करते होउपलब्धि उतनी ही कठिन हो जाती है। तुम्हारा प्रयासतुम्हारा तनाव,तुम्हारी व्यस्ततातुम्हारी कामनातुम्हारी अपेक्षासब बाधा बन जाता है। लेकिन एक छोटे से प्रयत्न से जिसे वे झेन में प्रयलहीन प्रयत्न कहते हैं—ऐसा करना कि न करने जैसा हो—घटना आसानी से घट जाती है। तुम उसके पीछे जितना अधिक पागल होते हो संभावना उतनी ही कम हो जाती है। क्योंकि जहां सूई से काम चल जाता हैवहा तुम तलवार चला रहे हो। तलवार काम नहीं देगी। वह बड़ी हो सकती हैलेकिन जहां सूई की जरूरत है वहां तलवार क्या करेगी?
किसी कसाई के पास जाओवहां बड़े—बडे औजार मिलेंगे। और किसी मस्तिष्क के सर्जन के पास जाओवहां बड़े—बड़े औजार नहीं मिलेंगे। और अगर मिलें तो वहां से झटपट खिसक जाना। मस्तिष्क का सर्जन कसाई नहीं है। उसे बहुत छोटे—छोटे औजारों की जरूरत है। वे जितने छोटे हों उतना अच्छा।
आध्यात्मिक विधिया अति सूक्ष्म हैंवे स्थूल नहीं हैं। वे स्थूल नहीं हो सकतींक्योंकि अध्यात्म की शल्य—चिकित्सा और भी सूक्ष्म है। सर्जन को मस्तिष्क के भीतर स्थूल पदार्थ के साथ ही काम करना हैलेकिन जब तुम आध्यात्मिक तल पर काम करते होतो बात बहुत सूक्ष्म हो जाती है। वहा शल्य—चिकित्सा ज्यादाऔर ज्यादा सौंदर्यपरक हो जाती है। वहां स्थूल पदार्थ नहीं है। सब कुछ सूक्ष्म हो जाता है वहां। यह एक बात हुई।
और दूसरी बात प्रश्न में पूछी गई है कि 'छोटी बात से बडा परिणाम कैसे संभव है?'
यह धारणा अबुद्धिपूर्ण और अवैज्ञानिक है। विज्ञान अब जानता है कि कण जितना छोटा होगाउतना आणविक होगा,उतना ही विस्फोटक होगा। वह जितना छोटा होगा उतना ही बड़ा उसका परिणाम होगा। क्या तुम 1945 के पहले सोच सकते थे,क्या कोई भी कल्‍पनाशील कवि या स्वप्‍नद्रष्टा सोच सकता था कि दो आणविक विस्‍फोट जापान के दो बड़े नगरों कोहिरोशिमा और नागासाकी को पूरी तरह मिटा डालेंगेक्षणों में दो लाख लोगों का जीवन समाप्त हो गया। और कौन सी विस्फोटक शक्ति इस्तेमाल की गई थीएक अणु! सबसे छोटे कण ने दो नगर ध्वस्त कर दिए।
उस अणु को तुम नहीं देख सकते हो। न केवल आख से उसे नहीं देख सकतेकिसी उपाय से भी उसे नहीं देख सकते हो। किसी भी यंत्र से अणु को नहीं देखा जा सकता है। हम उसके परिणाम भर देख सकते हैं। इसलिए मत सोचो कि हिमालय बड़ा हैक्योंकि उसका शरीर इतना बड़ा है। एक आणविक विस्फोट के सामने हिमालय नपुंसक है। एक छोटा परमाणु पूरे हिमालय को नष्ट कर सकता है। जरूरी नहीं है कि स्थूल पदार्थ के बड़े होने से उसकी शक्ति भी बड़ी हो। सच्चाई उलटी है कि इकाई जितनी छोटी होगी वह उतनी ही बेधक होगी। इकाई जितनी छोटी होगी उतनी ही घनी शक्ति से वह भरी होगी।
ये छोटी—छोटी विधियां आणविक हैं। जो लोग बड़ी चीजें कर रहे हैं उन्हें परमाणु—विज्ञान का पता नहीं है। तुम सोचोगे कि जो आदमी छोटे परमाणुओं के साथ काम करता है वह छोटा है और जो हिमालय के साथ काम करता है वह बड़ा है। हिटलर विशाल भीड़ के साथ काम करता थामाओ भी विशाल भीड़ के साथ काम करता है। और आइंस्टीन और प्लांक अपनी—अपनी प्रयोगशालाओं में पदार्थ की छोटी इकाइयों के साथऊर्जा—कणों के साथ काम करते थे। लेकिन अंततः आइंस्टीन की शोध के सामने राजनीतिज्ञ नपुंसक सिद्ध हुए। वे बड़े पैमाने पर काम करते थेलेकिन उन्हें छोटी इकाई के रहस्य का ज्ञान नहीं था।
नीतिवादी भी सदा बड़े तलों पर काम करते हैं। लेकिन ये स्थूल तल हैं। चीज बहुत बड़ी दिखाई पड़ती है। वे अपना जीवन सदाचार सिखाने मेंयह—वह साधने मेंसंयम में लगा देते हैं। उनका पूरा ढांचा बड़ा मालूम होता है।
लेकिन तंत्र इस बात की चिंता नहीं लेता। तंत्र मनुष्य के आणविक रहस्यों कामनुष्य के मन कामनुष्य की चेतना की चिंता करता है। और तंत्र ने आणविक रहस्यों को प्राप्त कर लिया है। ये विधियां आणविक विधियां हैं। अगर तुम उन्हें साध लो तो परिणाम विस्फोटक होगापरिणाम जागतिक होगा।
एक दूसरी बात को भी ख्याल में ले लेना है। तुम कहते हो कि ऐसे छोटे से सरल प्रयोग से कोई ज्ञानोपलब्ध कैसे हो सकता हैतो तुम यह बात उसको प्रयोग में लाए बिना ही कहते हो। अगर प्रयोग करोगे तो कभी नहीं कहोगे कि वह छोटा सा सरल प्रयोग है। वैसा वह इसलिए मालूम देता है कि दो—तीन वाक्यों में पूरे प्रयोग को रख दिया गया है। क्या तुम जानते हो कि अणु—वितान का सूत्र क्या हैपूरा सूत्र दो या तीन शब्दों में है। और उन्हीं दो—तीन शब्दों सेजो समझते हैं और प्रयोग करना जानते हैंवे पूरी पृथ्वी को नष्ट कर सकते हैं। लेकिन सूत्र बहुत छोटा है।
ये विधियां भी सूत्र हैं। अगर तुम सूत्र को देखोगे तो वह बहुत छोटाआसान दिखाई पड़ेगा। लेकिन वह छोटाआसान है नहीं। उसे प्रयोग करने की कोशिश करो। प्रयोग करोगे तो समझोगे कि वह आसान नहीं है। वह सरल दिखाई पड़ती हैलेकिन बहुत गहनतम चीज है। हम प्रक्रिया का विश्लेषण करेंगे तो तुम समझोगे।
जब तुम श्वास लेते हो तो श्वास को अनुभव नहीं करते। तुमने श्वास को कभी नहीं अनुभव किया है। यद्यपि तुम यह बात मानने को राज़ी नहीं होओगे। तुम कहोगे, यह बात सही नहीं है। हो सकता है हम सतत जागरूक न होंलेकिन उसे अनुभव अवश्य करते हैं।
नहींतुमने श्वास को कभी नहीं जाना हैतुमने श्वास के मार्ग को जाना है। समुद्र को देखोउसमें लहरें हैं। तुम लहरों को देखते हो। लेकिन वे लहरें हवा द्वारा पैदा होती हैं। और तुम हवा को नहीं देखतेहवा द्वारा पैदा की गई लहरों को देखते हो। वैसे ही जब तुम श्वास भीतर ले जाते हो तो वह नथुनों को छूती है। और तुम नथुनों को अनुभव करते होश्वास को अनुभव नहीं करते। श्वास नीचे जाती है और तुम उसके जाने के मार्ग को महसूस करते हो। तुम स्पर्श और मार्ग को अनुभव करते हो।
जब शिव कहते हैंबोधपूर्ण होतो वे क्या कहना चाहते हैंपहले तो तुम मार्ग के प्रति बोधपूर्ण होओगे। और जब मार्ग के प्रति पूरी तरह बोधपूर्ण हो जाओगे तो फिर धीरे—धीरे—स्वयं श्वास के प्रति बोधपूर्ण होओगे। और जब श्वास को भी जान लोगे तब फिर अंतराल को भी जान जाओगे।
यह बात उतनी आसान नहीं है जितनी आसान मालूम देती है। उतनी आसान नहीं है। तंत्र के लिएसमस्त भारतीय खोज के लिए बोध के अनेक तल हैं। अगर मैं तुम्हें आलिंगन करूं तो पहले तुम अपने शरीर पर मेरे स्पर्श को अनुभव करोगे। पहले ही मेरे प्रेम को अनुभव नहीं करोगेक्योंकि प्रेम इतना स्थूल नहीं है।
साधारणत: हम प्रेम के प्रति कभी बोधपूर्ण नहीं होतेहम शरीर की गति को ही महसूस करते हैं। हम प्रेमपूर्ण गति को जानते हैं और प्रेम—शून्य गति को जानते हैंलेकिन हम कभी स्वयं प्रेम को नहीं जानते। अगर मैं तुम्हें अं तो तुम उसके स्पर्श को जानोगेमेरे प्रेम को नहीं जानोगे। वह प्रेम बहुत सूक्ष्म बात है। और जब तक तुम प्रेम को नहीं जान लेते तब तक वह चुंबन मृत हैउसका कुछ मतलब नहीं है। अगर तुम मेरे प्रेम को जानो तो ही तुम मुझे जान पाओगे। क्योंकि वह और भी गहरी बात है।
श्वास भीतर जाती हैतुम स्पर्श को ही जानते होश्वास को नहीं जानते। लेकिन साधारणत: तो तुम स्पर्श को भी नहीं महसूस करते हो। जब कुछ अड़चन आती है तो ही उसे जानते होअन्यथा नहीं। तो पहले चरण में तुम मार्ग को ही जानोगे जहां श्वास छूती मालूम देगी। तब धीरे—धीरे तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ेगीऔर वर्षों लग जाएंगे जब स्पर्श ही नहींश्वास की गति के प्रति भी बोधपूर्ण हो सकोगे। तब तंत्र कहता हैतुम प्राण को जान लोगे। और उसके बाद ही वह अंतराल मिलता है जहां श्वास ठहर जाती हैवह केंद्र मिलता है जहां श्वास स्पर्श करती हैया वह विलय बिंदु या मोड़ मिलता है जहां अंतःश्वास बहिर्श्वास बनती है।
यह चरण बहुत कठिन हैउतना आसान यह नहीं है। जब साधना में उतरोगेजब इस केंद्र के पास जाओगेतब पता चलेगा कि यह कितना कठिन है। श्वास के पार इस केंद्र तक पहुंचने के लिए बुद्ध को छह वर्ष लग गए थे। इस मोड़ पर आने के लिए उन्हें छह वर्षों की लंबीकठिन यात्रा करनी पड़ी थी। तब घटना घट पाई। महावीर इस पर बारह वर्षों तक श्रम करते रहे,तब घटना घटी। लेकिन सूत्र सरल है और सिद्धांतत कोई बाधा नहीं है कि इसी क्षण न घटे। लेकिन तुम वह बाधा होतुम्हें हटा दिया जाए तो इसी क्षण घट सकता है।
खजाना हैऔर उपाय भी पता है। तुम खोद सकते होलेकिन नहीं खोदोगे। आसानी का यह प्रश्न उठाना भी खुदाई से बचने की चाल है। क्योंकि तुम्हारा मन कहता हैकैसी आसान बात है! मूर्ख मत बनोइतनी आसान चीज से तुम बुद्ध कैसे हो सकते होयह होने वाली बात नहीं है। और तब तुम कुछ भी नहीं करोगे।
मन बहुत चालाक है। अगर मैं कहूं कि यह कठिन है तो मन कहेगा कि यह कठिन बात तुम्हारे बस की नहीं है। और अगर कहूं कि आसान है तो मन कहेगा कि यह इतना आसान है कि केवल मूर्ख इस पर विश्वास करेंगे। मन चीजों की बुद्धि—संगत व्याख्या किए जाता है और करने से बचता रहता है।
मन बाधाएं खड़ी करता है। इसे आसान सोचना भी कठिनाई बनेगा और कठिन सोचना भी। अगर यह कठिन है तो तुम क्या करोगेतुम न आसान चीज कर सकते होन कठिन चीज कर सकते हो। तो बताओ कि क्या कर सकते हो। अगर तुम कठिन चीज कर सकते हो तो मैं इसे कठिन बना दूंगा। और अगर आसान चीज ही कर सकते हो तो मैं इसे आसान बना दूंगा। यह दोनों है और यह इस पर निर्भर है कि इसकी व्याख्या कैसे की जाती है। एक चीज जरूरी है कि तुम कुछ करो। अगर कुछ नहीं करना है तो मन तुम्हें हमेशा दलीलें दे देगा।
सिद्धांतत यह यहां और अभी संभव हैकोई वास्तविक बाधा नहीं है। लेकिन बाधाएं हैं। वे वास्तविक न होंवे महज मानसिक होंवे तुम्हारे भ्रम ही होंलेकिन वे हैं। अगर मैं कहूं कि मत डरोआगे बढ़ोजिस चीज को तुम सांप समझते हो वह सांप नहीं हैमहज रस्सी हैतो भी तुम्हारा डर कायम रह सकता है। तुम्हें तो वह सांप ही मालूम पड़ता है।
इसलिए मैं कुछ भी कहूं र उससे बात नहीं बनने को है। तुम तो कांप रहे होतुम बचना चाहते होतुम भागना चाहते हो। मैं कहता हूं कि रस्सी है और तुम्हारा मन कहेगा कि यह आदमी सांप के साथ साजिश में सम्मिलित हो सकता है। कुछ गड़बड़ जरूर हैअन्यथा यह आदमी क्यों मुझे सांप के मुंह में भेज रहा हैयह हो सकता है मेरी मृत्यु में उत्सुक हो या किसी और बात में उत्सुक हो। अगर मैं तुम्हें बहुत विश्वास दिलाने की कोशिश करूं कि रस्सी ही है तो उसका मतलब होगा कि किसी न किसी तरह तुम्हें सांप के पास भेजने में लगा हूं। अगर मैं कहूं कि सिद्धांतत रस्सी को इसी क्षण रस्सी के रूप में देखा जा सकता है तो भी तुम्हारा मन अनेक सवाल उठा सकता है।
यथार्थ में कोई संकट नहीं हैयथार्थ में कोई समस्या नहीं है। न कभी रही हैन कभी रहेगी। जो भी समस्या है वह मन में है। और तुम यथार्थ को मन के द्वारा देखते होइस तरह यथार्थ समस्यामूलक बन जाता है। तुम्हारा मन प्रिज्म की भांति काम करता हैवह यथार्थ को बांट देता है और तब समस्याएं पैदा करता है। इतना ही नहींवह समाधान भी पैदा करता है जो कि और गहरी समस्याओं को जन्म देता है। सच तो यह है कि कोई समस्या ही नहीं है जिसको हल किया जाए। सत्य बिलकुल समस्यामुक्त हैकोई समस्या ही नहीं है।
लेकिन तुम समस्या के बिना देख ही नहीं सकतेतुम जहां देखते हो वहीं समस्या खड़ी कर देते हो। तुम्हारी दृष्टि समस्यामूलक है। मैंने तुम्हें यह श्वास की विधि बताई। अब मन कहता हैयह तो इतना आसान है! क्योंमन इसे आसान क्यों कहता है?
जब पहली बार भाप के इंजन का आविष्कार हुआ था तो किसी को उस पर विश्वास नहीं हुआ। वह इतना आसान दिखाई दिया कि विश्वास कैसे होवही भाप जो तुम्हारे रसोईघर में, तुम्‍हारी चाय की केतली में तुम्‍हें रोज दिखाई देती है। उससे एक इंजन चलेगा, उससे सैकड़ों लोग ढोए जाएंगेयह किसी को विश्वास नहीं हुआ।
तुम्हें मालूम है कि इंग्लैड में क्या हुआजब पहली रेलगाड़ी रवाना हुई तो कोई उसमें बैठने को राजी नहीं हुआ। अनेक लोगों को फुसलाया गयाघूस तक दी गई। गाड़ी में बैठने के लिए उन्हें रुपए दिए गए। लेकिन आखिरी क्षण में वे भाग खड़े हुए। उन्होंने कहां कि पहली बात तो यह है कि भाप यह चमत्कार नहीं कर सकती। भाप जैसी सरल चीज यह चमत्कार कैसे कर सकती हैऔर अगर इंजन चलता है तो उसका मतलब साफ है कि उसमें कहीं शैतान काम कर रहा है। भाप नहींशैतान का काम है यह। और दूसरी बात कि गाड़ी चल पड़ीतो कौन जिम्मा लेगा कि वह रुक भी सकेगी?
कोई आदमी जिम्मा नहीं ले सकता थाक्योंकि यह पहली गाड़ी थी। इसके पहले वह कभी नहीं रुकी थीरुकने की संभावना भर थी। अनुभव तो था नहीं कि वितान कहता कि है।रुकेगी। सिद्धांतत वह रुकने वाली थी। लेकिन लोग सिद्धांत में उत्सुक नहीं थे। वे जानना चाहते थे कि गाड़ी को रोकने का यथार्थ अनुभव था या नहीं था। कहीं यह नहीं रुकी तो चढ़ने वालों का क्या होगा?
तो जेल से बारह कैदी उस पर चढ़ने के लिए लाए गए। उन्हें मरना ही थाउन्हें मृत्युदंड मिला हुआ थाइसलिए गाड़ी के रुकने की समस्या नहीं रही। उसमें गाड़ी का पागल चालक बैठा जो समझता था कि गाड़ी रुकेगी। वह वैज्ञानिक बैठा जिसने उसका आविष्कार किया था और वे बारह यात्री बैठे जिन्हें किसी तरह मरना ही था।
उस समय उन्होंने भी यही कहां था कि भाप जैसी सरल चीज क्या करेगी! लेकिन अब यह बात कोई नहीं कहता है,क्योंकि अब भाप काम कर रही है और तुम जानते हो।
सब कुछ सरल हैसत्य सरल है। अज्ञान के कारण वह जटिल मालूम देता हैअन्यथा सब कुछ सरल है। एक बार इसे जान गए तो वह सरल ही है। लेकिन जानना जरूर कठिन होगा। याद रहेसत्य के कारण नहींतुम्हारे मन के कारण जानना कठिन होगा। यह विधि सरल हैलेकिन यह तुम्हारे लिए सरल नहीं होगी। तुम्हारा मन कठिनाई पैदा करेगाइसलिए प्रयोग करके देखो।

 एक दूसरे मित्र ने पूछा है :

अगर मैं श्वास के प्रति सजग होने की हम विधि का प्रयोग करूं, अगर मैं श्वास—प्रश्वास को अवधान दूं, तो मैं कोई दूसरा काम नहीं कर सकता। सारा अवधान तो सजग होने में लग जाता है। अगर और कुछ करूं तो श्वास के प्रति बोधपूर्ण नहीं रह सकता।

 ह होगा। इसलिए आरंभ में सुबह या शाम कोया कभी भीएक निश्चित समय चुन लो और घंटेभर यह प्रयोग करो। उस समय कोई दूसरा काम मत करो। प्रतिदिन घंटेभर सिर्फ इसका प्रयोग करो। एक बार इससे परिचित हो गएइसके साथ लयबद्ध हो गएतो फिर समस्या नहीं रहेगी। तब तुम सड़क पर चलते हुए भी बोधपूर्ण रह सकते हो। फिर समस्‍या नहीं रहेगी। जब तुम सड़क पर चलते हुए भी बोधपूर्ण रह सकते हो।
 बोध और अवधान में फर्क है। जब तुम किसी चीज को अवधान देते हो तो वह एकांतिक हैअनन्य है। वह अवधान केवल एक के प्रति हैउस समय तुम्हें अन्य सभी चीजों से अपना अवधान हटा लेना पड़ता है। इसलिए अवधान एक तनाव बन जाता है। अगर तुम अपनी श्वास को अवधान देते होश्वास को देख रहे होते होतो साथ ही राह चलने या ड्राइविंग को अवधान नहीं दे सकते। इसलिए ड्राइविंग करते समय इसका प्रयोग मत करनाक्योंकि तुम दोनों को एक साथ अवधान नहीं दे सकते। अवधान का अर्थ ही है कि एक समय में एक चीज को ही दिया जा सकता है।
बोध बहुत भिन्न चीज है। वह एकांतिक नहीं है। बोध में अवधान देना नहीं हैअवधानपूर्ण होना है। ध्यान देना नहीं है,ध्यानपूर्ण होना है। यह मात्र सजग होना हैहोशपूर्ण होना है। तुम सजग तब होते हो जब सब कुछ के प्रति सका होते हो। तुम अपनी श्वास के प्रति सजग हो और राह चलते राही के प्रति भी सजग हो। सडक पर कोई शोर मचा रहा हैरेलगाड़ी निकल रही हैऊपर कोई वायुयान उड़ा जाता हैसब कुछ उस सजगता मेंजाग में सम्मिलित है। बोध सर्वग्राही हैअवधान एकांतिक।
लेकिन आरंभ अवधान से करना है। इसलिए रोज निश्चित समय पर प्रयोग करो। घंटेभर के लिए अपनी श्वास को अवधान दोउसे देखा करो। धीरे— धीरे तुम्हारा अवधान बोध में बदल जाएगा। उसके बाद दूसरा सरल प्रयोग करो। उदाहरण के लिए जब चल रहे हो तो अवधानपूर्वक चलो और चलने और श्वास—क्रिया दोनों के प्रति होश रखो। दोनों क्रियाओं के बीचचलने और श्वास लेने के बीच विरोध मत पैदा करो। दोनों के ही द्रष्टा बनो। और यह कठिन नहीं है।
उदाहरण के लिए देखो। यहां मैं एक चेहरे को अवधान दे सकता हूं। जब मैं एक चेहरे को देख रहा हूं तो अन्य सभी चेहरे मेरे लिए नहीं होगे। अगर एक ही चेहरे के प्रति मेरा अवधान है तो बाकी सब चेहरे खो गएअवधान के बाहर हो गए। और अगर मैं उस चेहरे की सिर्फ नाक पर ही अवधान को केंद्रित करूं तो फिर पूरा चेहराबाकी चेहरा अवधान के दायरे से बाहर हो गया। इस तरह मैं अपने अवधान को संकुचित किए जाता हूं।
विपरीत भी संभव है। मैं पूरे चेहरे को अवधान देता हूं। तब आखनाकसब उसमें सम्मिलित है। फिर मैं अपनी दृष्टि को और फैलाता हूं मैं अब तुम्हें व्यक्ति की तरह नहींसमूह की तरह देखता हूं तब सब समूह मेरे अवधान में सम्मिलित है। फिर सामने सड़क है और उसका शोरगुल है। अगर मैं तुम्हें सड़क और उसके शोरगुल से भिन्न समझूं तो मैं सड़क और शोरगुल को अपने अवधान से बाहर करता हूं। लेकिन मैं तुम्हें और सडक दोनों को एक साथ भी देख सकता हूं। तब मैं दोनों के प्रतितुम्हारे और सड़क के प्रति बोधपूर्ण हो सकता हूं। इस तरह मैं पूरे ब्रह्मांड के प्रति बोधपूर्ण हो सकता हूं।
यह बात तुम्हारी दृष्टि परतुम्हारे दृष्टि— क्षेत्र पर निर्भर है। वह बड़े से बड़ा हो सकता है। लेकिन पहले अवधान से शुरू करो और याद रखो कि तुम्हें बोध को उपलब्ध होना है। इसलिए निश्चित समय रख लो। सुबह का समय अच्छा रहेगाक्योंकि तब तुम ताजा होते हो। उस समय ऊर्जा प्रबल रहती हैसब कुछ जाग रहा है। सबेरे तुम ज्यादा जीवंत होते हो।
शरीर—शास्त्री कहते हैं कि सुबह में तुम अधिक जीवंत ही नहीं होतेउस समय तुम्हारे शरीर की ऊंचाई भी बढ़ जाती है। शाम की बजाए सुबह तुम्हारी ऊंचाई भी अधिक होती है।
अगर तुम छह फीट ऊंचे हो तो सुबह आधा इंच अधिक ऊंचे हो जाते हो। शाम होते—होते फिर छह फीट हो जाते हो। क्योंकि थकावट के कारण तुम्हारी रीढ़ संकुचित हो जाती है। इसलिए सुबह के वक्त तुम ताजायुवा और जीवंत रहते हो।
इसे करो—ध्यान को अपने कार्यक्रम में अंतिम मत रखोउसे प्रथम स्थान दो। जब तुम्हें लगे कि अब यह प्रयत्न न रहा,जब तुम पूरे घंटेभर अवधानपूर्वक श्वास लेते रहे और उसे ही जानते रहेजब तुमने अनायास श्वास के अवधान को हासिल कर लियाजब तुम आराम के साथ और किसी बल प्रयोग के बिना इस अवधान का आनंद लेने लगेतभी समझना कि उपलब्धि हुई।
और तब उसमें और कुछ जोड़ोजैसे कि चलने को जोड़ दो। अब श्वास के साथ चलने को भी याद रखो। और इसी तरह जोड़ते चले जाओ। कुछ समय के बाद तुम अपनी श्वास—क्रिया के प्रति सतत सजग बने रहोगे—यहां तक कि नींद में भी सजग रहने लगोगे। और जब तक नींद में सजगता नहीं रहती तब तक गहराई को नहीं जान सकोगे। और ऐसी सजगता आती हैधीरे— धीरे आती है।
इसके लिए धैर्य की जरूरत है और साथ ही सही ढंग से आरंभ करने की। इसे जान लोक्योंकि मनुष्य का चालाक मन सदा गलत ढंग से आरंभ करने को कहता है। तब तुम दो —तीन दिन में ही इसे यह कहकर छोड़ दोगे कि यह असंभव प्रयास है। मन गलत ढंग से आरंभ करा देगा। इसलिए सदा ध्यान रखो कि सही ढंग से आरंभ किया जाएक्योंकि सही शुरुआत का मतलब है कि आधा काम तो हो ही गया।
लेकिन हम गलत ढंग से शुरू करते हैं। तुम भलीभांति जानते हो कि अवधान कठिन चीज है। यह इसलिए कठिन है कि तुम बिलकुल सोए हुए हो। अगर तुमने किसी और जरूरी काम के साथ—साथ श्वास को अवधान देना शुरू किया तो तुम सफल नहीं हो सकोगे। और तुम अपने जरूरी काम को तो नहीं छोड़ोगेश्वास को अवधान देना जरूर बंद कर दोगे। इसलिए अपने लिए अनावश्यक समस्याएं मत पैदा करो। चौबीस घंटे में थोड़ा सा समय तो निकाल ही सकते होचालीस मिनट से चल जाएगा। इसलिए प्रयोग करो।
मन बहुत बहाने करेगा। वह कहेगा : समय कहां हैपहले से ही कितने काम करने को पड़े हैं। या कहेगा. अभी तो संभव नहीं हैअभी स्थगित रखो। भविष्य में जब स्थिति अच्छी होगी तब करना। मन क्या कहता हैउससे सावधान रहो। मन का बहुत भरोसा मत करो। लेकिन मन पर हम संदेह नहीं करते हैं। हम सब कुछ पर संदेह करते हैंअपने मन पर नहीं करते। वे लोग भीजो संदेहवाद कीसंदेह कीबुद्धि की ढेरों चर्चा करते हैंवे भी अपने मन पर संदेह नहीं करते।
लेकिन यह तुम्हारा मन है जिसने तुम्हें उस हालत में ला रखा है जिसमें तुम हो। अगर तुम नरक में हो तो तुम्हारा मन तुम्हें इस नरक में लाया है। लेकिन तुम्हें इस मार्गदर्शक पर कभी संदेह नहीं होता। तुम किसी भी गुरु पर संदेह कर सकते हो,अपने मन पर नहीं करते। अटूट श्रद्धा के साथ तुम अपने मन के गुरु का अनुगमन करते हो। और इसी मन ने तुम्हें इस उपद्रव मेंइस संताप में ला खड़ा किया है जो तुम हो।

इसलिए अगर किसी पर संदेह करना है, तो अपने मन पर ही संदेह करो। और जब भी मन कुछ कहे तो उस पर दो बार विचार करो। क्या यह सच है कि तुम्हें समय नहीं हैक्या सच ही तुम्हारे पास ध्यान करने के लिएध्यान को देने के लिए घंटेभर का भी समय नहीं हैइस बात पर फिर से विचार करो। एक बार फिर मन से पूछो : क्या दरअसल मेरे पास समय नहीं है?
मुझे तो यह बात सच नहीं लगती। मैंने तो ऐसा आदमी नहीं देखा है जिसके पास पर्याप्त से ज्यादा समय न रहता हो। मैंने लोगों को यह कहकर ताश खेलते देखा है कि हम समय काट रहे हैं। वे सिनेमा जाते हैं और कहते हैंऔर क्या किया जाए! समय काटने को वे गपशप कर रहे हैंएक ही अखबार को बार—बार पढ़ रहे हैंउन्हीं बातों पर चर्चा कर रहे हैं जिन पर जिंदगीभर चर्चा करते रहे हैं। और वे ही लोग कहते हैं : समय नहीं है। अनावश्यक कामों के लिए उन्हें काफी समय है। क्यों?
अनावश्यक काम में लगे रहने से मन को कोई खतरा नहीं है। लेकिन जिस क्षण तुम ध्यान की सोचते होमन सचेत हो जाता है। अब तुम खतरनाक आयाम में जा रहे हो। क्योंकि ध्यान का अर्थ मन की मृत्यु है। अगर तुम ध्यान में गए तो देर— अबेर तुम्हारे मन को विदा लेनी पड़ेगीवह पूरी तरह समाप्त होगा। तब मन चौकस हो जाता है और अनेक बातें कहता है समय कहां हैसमय भी है तो और महत्व के काम पड़े हैं। अभी रुकोध्यान तो किसी भी समय कर सकते हो। धन ज्यादा महत्वपूर्ण है। पहले धन इकट्ठा कर लोफिर आराम से ध्यान करना। धन के बिना ध्यान कैसे होगापहले धन पर ध्यान दोतब ध्यान पर।
ध्यान को आसानी से टाला जा सकता हैऐसा तुम्हें लगता है। क्योंकि ध्यान तुम्हारे अभी जीवित रहने के लिए जरूरी नहीं है। रोटी नहीं स्थगित की जा सकतीरोटी के बिना तुम मर जाओगे। धन को भी स्थगित नहीं किया जा सकताक्योंकि तुम्हारी बुनियादी जरूरतों के लिए वह जरूरी है। ध्यान स्थगित किया जा सकता है। तुम्हारे जीवित रहने से इसका कोई संबंध नहीं हैतुम इसके बिना भी जीवित रह सकते हो। दरअसल इसके बिना तुम आसानी से जीवित रह सकते हो।
जिस क्षण तुम ध्यान में गहरे उतरोगेतुम कम से कम इस जमीन पर जीवित नहीं रहोगे। तुम विदा हो जाओगे। इस जीवन के वर्तुल सेचक्र से निकल ही जाओगे। ध्यान मृत्यु की तरह हैइसलिए मन भयभीत हो जाता है। ध्यान प्रेम की तरह हैइसलिए मन डर जाता है। और तब कहता है इसे स्थगित करो। और तुम अनंत काल तक इसे स्थगित किए जा सकते हो। तुम्हारा मन सदा ही इस तरह की बातें कहे चला जाता है।
और यह मत सोचो कि मैं यह बात दूसरों के बाबत कह रहा हूं। मैं यह बात तुम्हारे बाबत कह रहा हूं। मैं ऐसे अनेक बुद्धिमान लोगों से मिला हूं जो ध्यान के संबंध में बहुत बुद्धिहीन बातें करते हैं।
एक सज्जन दिल्ली से आए। वे बड़े सरकारी अधिकारी हैं। वे यहां ध्यान सीखने के लिए ही आए थे। दिल्ली से आए थे और सात दिन यहां टिके। मैंने उनसे कहां कि सुबह ध्यान म् के लिए बंबई के चौपाटी समुद्रतट जाया करें। उन्होंने कहां कि यह कठिन हैमैं इतने सबेरे न


उठ सकूंगा। और इस बात पर वे कभी विचार नहीं करेंगे कि उनके मन ने उनसे क्या कहां। क्या यह इतना कठिन है?अब तुम समझो कि प्रयोग सरल हो सकता हैलेकिन तुम्हारा मन
सरल नहीं है। मन कहता है: मैं सुबह छह बजे कैसे उठ सकूगा।
मैं एक बड़े नगर में थाऔर वहां के कलेक्टर रात के ग्यारह बजे मुझे मिलने आए। मैं सोने ही जा रहा था कि वे आए और बोले. बहुत जरूरी बात है। मैं अशांत हूंमेरे लिए यह जीवन—मरण का प्रश्न है। मुझे कम से कम आधा घंटा दें और ध्यान सिखाएं। अन्यथा मुझे आत्महत्या करने की नौबत आ सकती है। मैं अत्यंत अशात हूं और मैं इतना हताश हो चुका हूं कि मेरे आंतरिक संसार में कुछ घटना जरूरी है। मेरा बाह्य संसार तो उजड़ ही चुका है। मैंने उनसे कहां कि तब कल पांच बजे सुबह यहां आएं। लेकिन उन्होंने कहांयह संभव नहीं है।
जीवन—मरण का सवाल है और वे पांच बजे नहीं उठ सकते! उन्होंने कहां कि यह संभव नहीं हैक्योंकि मैं इतना सबेरे कभी नहीं उठता। इस पर मैंने कहांअच्छा तब दस बजे दिन में आइए। पर उन्होंने कहांयह भी कठिन हैक्योंकि साढ़े दस बजे तो मुझे दफ्तर जाना है।
वे एक दिन की छुटी नहीं ले सकते। और यह उनके जीवन—मरण का प्रश्न है! तब मैंने उनसे पूछायह आपके जीवन—मरण का प्रश्न है या मेरे जीवन—मरण काऔर वे कोई बुद्धिहीन व्यक्ति नहीं थे। काफी बुद्धिमान थे। ये चालाकियां ही बुद्धि की थीं।
इसलिए ऐसा मत सोचो कि तुम्हारा मन भी वैसी ही चालाकियां नहीं कर रहा हैवह बहुत बुद्धिमान है। और चूंकि तुम सोचते हो कि यह मेरा मन हैइसलिए तुम उस पर संदेह नहीं करते। यह तुम्हारा नहीं हैयह महज एक सामाजिक उपज है। यह तुम्हें दिया गया हैतुम पर लाद दिया गया है। बचपन से ही तुम किसी खास ढंग से शिक्षिल और संस्कारित किए गए हो। तुम्हारा मन दूसरों द्वारा निर्मित हुआ हैमां—बापशिक्षक और समाज के द्वारा निर्मित हुआ है। यह अतीत है जो तुम्हारे मन को बनाता है और प्रभावित करता है। मुर्दा अतीत जीवित वर्तमान पर अपने को निरंतर आरोपित किए जाता है। और ये शिक्षक मृत अतीत के मात्र एजेंट हैं। और वे जीवित के विरोध में हैं। वे चीजों को जबरदस्ती तुम्हारे मन पर लादे जा रहे हैं।
लेकिन इस मन की तुम्हारे साथ ऐसी घनिष्ठता है कि अंतर करीब—करीब खो गया है और तुम्हारा उसके साथ तादात्म्य हो गया है। तुम कहते हो कि मैं हिंदू हूं। फिर सोचोइस पर पुनर्विचार करो। तुम हिंदू नहीं होतुम्हें हिंदू मन दिया गया है। तुम तो मात्र एक सरलनिर्दोष मनुष्य पैदा हुए थे। न हिंदू न मुसलमान। लेकिन फिर तुम्हें मुसलमान का या हिंदू का चित्त दिया गया। और तुम्हें एक खास ढंग में जबरदस्ती संस्कारित किया गया। और फिर जिंदगीभर इस मन में कुछ न कुछ जुड़ता ही गया। इस तरह मन भारी हो गयातुम पर भारी हो गया है। तुम कुछ नहीं कर पातेतुम पर मन की मनमानी चल रही है। तुम्हारे अनुभव भी तुम्हारे मन से ही जुड़ते रहे हैं। और तुम्हारा अतीत तुम्हारे एक—एक वर्तमान क्षण को निरंतर संस्कारित कर रहा है। अगर मैं तुमसे कुछ कहूं तो तुम उस पर ताजा ढंग सेखुले ढंग से विचार नहीं करोगे। तुम्हारा पुराना मनतुम्हारा अतीत बीच में आ जाएगा और पक्ष या विपक्ष में बोलने लगेगा।
याद रखो कि तुम्हारा मन तुम्हारा नहीं है। तुम्हारा शरीर तुम्हारा नहीं हैवह तुम्हें तुम्हारे
मां—बाप से मिला है। वैसे ही तुम्हारा मन तुम्हारा नहीं हैवह भी मा—बाप से मिला है। फिर तुम कौन होकोई या तो शरीर से तादात्म्य किए बैठा है या मन से। तुम सोचते हो कि मैं युवा हूं कि मैं बूढ़ा हूंतुम सोचते हो कि मैं हिंदू हूं कि जैन हूं कि पारसी हूं। तुम नहीं हो। तुम शुद्ध चेतना कि तरह पैदा हुए थे। सब कारागृह है।
ये विधियां तुम्हें आसान मालूम पड़ती हैंवे आसान नहीं हैं। क्योंकि तुम्हारा मन निरंतर अनेक जटिलताएं और समस्याएं पैदा करेगा।
अभी कुछ दिन पहले एक व्यक्ति मेरे पास आए। और बोले कि मैं आपके ध्यान का प्रयोग कर रहा हूं लेकिन कृपया बताएं कि किस धर्मशास्त्र में उसका उल्लेख हैअगर आप मुझे विश्वास दिला दें कि वह मेरे धर्मशास्त्र में है तो मेरे लिए आसान हो जाएगा।
लेकिन शास्त्र में उसके होने से ध्यान आसान कैसे हो जाएगाक्योंकि मन तब समस्या नहीं खड़ी करेगा। मन कहेगा कि ठीक हैयह हमारा हैहमें करना चाहिए। और अगर यह किसी और शास्त्र में लिखा हैतो मन उसके विरोध में हो जाएगा।
मैंने उनको पूछाआप तो यह ध्यान तीन महीने से कर रहे हैंआप कैसा अनुभव करते हैंउन्होंने कहांअदभुत। मुझे आश्चर्यजनक अनुभव हुआ है। लेकिन मुझे शास्त्र से कुछ प्रमाण दें।
उनका अपना अनुभव उनके लिए प्रमाण नहीं है। वे कहते हैंमुझे आश्चर्यजनक अनुभव हुआ हैमैं अधिक शांतअधिक प्रेमपूर्ण हो चला हूं। अदभुत अनुभव हुए हैं। लेकिन अपना ही अनुभव उनके लिए प्रमाण नहीं है। मन अतीत में प्रमाण खोजता है।
मैंने उनसे कहां कि यह तो आपके किसी शास्त्र में नहीं लिखा हैउलटे शास्त्र में अनेक ऐसी बातें लिखी हैं जो इस ध्यान विधि के प्रतिकूल पड़ती हैं। उनका चेहरा उदास हो गया और उन्होंने कहां कि तब मेरे लिए यह ध्यान करनाइसे जारी रखना कठिन होगा।
लेकिन उनका अपना ही अनुभव किसी काम का क्यों नहीं है?
तुम्हारा अतीत—संस्कारमन—सतत तुम्हें अपने सांचे में कस रहा है और तुम्हारे वर्तमान को नष्ट कर रहा है। इसे याद रखीइससे सावधान रहो। अपने मन के प्रति संदेहपूर्ण बनो। उस पर भरोसा मत करो। अगर तुम इस प्रौढता को उपलब्ध हो सके कि मन पर भरोसा न करो तो ही ये विधियां सरलसहयोगी और क्रियात्मक हो सकती हैं। वे चमत्कार कर सकती हैंवे चमत्कार करेंगी।
ये विधियांये उपाय बुद्धि से बिलकुल नहीं समझे जा सकते हैं। मैं एक असंभव प्रयास कर रहा हूं। लेकिन क्यों कर रहा हूंयदि वे बुद्धि से नहीं समझे जा सकते तो क्यों मैं तुमसे बोल रहा हूंवे बुद्धि से तो नहीं समझी जा सकतींलेकिन ये वे विधियां हैं जो तुम्हारे जीवन को रूपांतरित कर सकती हैंऔर उन्हें बताने का दूसरा कोई उपाय भी नहीं है। तुम केवल बुद्धि से समझ सकते होऔर यह एक समस्या है। तुम कोई दूसरी चीज नहीं समझ सकतेकेवल बुद्धि से समझ सकते हो। और यह भी सही है कि ये विधियां बुद्धि से नहीं समझी जा सकतीं। तो फिर कैसे समझा और समझाया जाए?
या तो तुम बुद्धि को बीच में लाए बिना समझने की क्षमता हासिल करो या और कोई उपाय खोजा जाए जिससे कि वे तुम्हें बुद्धि द्वारा बोधगम्य हो सकें। दूसरा विकल्प संभव नहीं है; पहला संभव है।
तुम्हें बुद्धि से ही शुरू करना होगा। लेकिन बुद्धि से चिपके मत रहो। जब मैं कहता हूं कि करोतो करना शुरू करो। जब तुम्हारे भीतर कुछ घटित होने लगेगा तब तुम अपनी बुद्धि को हटाकर बिना किसी बीच बचाव केसीधे मेरे करीब पहुंचने लगोगे। लेकिन कुछ करना शुरू करो। हम वर्षों चर्चा किए जा सकते है। तुम्‍हारे मन में बहुत सी बातें भर जाएंगी, लेकिन उससे कुछ लाभ होने वाला नहीं है। उलटे उससे तुम्हारी हानि हो सकती हैक्योंकि तब तुम बहुत जानने लगोगे। और अगर तुम बहुत जानने लगेतो तुम भ्रांत हो जाओगेउलझन में पड़ोगे। बहुत बातें जानना अच्छा नहीं है। अच्छा है कि थोडा ही जानो और प्रयोग करो। अकेली एक विधि सहयोगी हो सकती हैकुछ करना सदा सहयोगी होता है।
और करने में कठिनाई क्या हैकहीं बहुत गहरे में भय छिपा है। भय यह है कि अगर यह करोगे तो कुछ होना बंद हो जाएगा। यही भय है। यह विरोधाभासी बात मालूम पड़ती हैलेकिन मैं अनेक—अनेक लोगों से मिला हूं जो बदलना चाहते हैंजो कहते हैं कि हमें ध्यान की जरूरत हैहमें गहरे रूपांतरण की जरूरत हैलेकिन किसी गहरे तल पर वे भयभीत भी हैं। वे दोहरे हैंदो मन वाले हैं। वे पूछते रहते हैं कि हम क्या करेंलेकिन वे कभी कुछ नहीं करते। फिर वे क्यों पूछते रहते हैं?
वे पूछते हैं सिर्फ अपने आपको यह भ्रम देने के लिए कि हम भी अपने को बदलने में उत्सुक हैं। इसलिए वे पूछते हैं। इस और उस गुरु के पास जाते हैंखोजते हैंलेकिन कभी कुछ नहीं करते। गहरे में वे भयभीत हैं।
एरिक फ्राम ने एक किताब लिखी है. फियर आफ फ्रीडम—स्वतंत्रता का भय। किताब का नाम विरोधाभासी है। सभी लोग सोचते हैं कि हम स्वतंत्रता चाहते हैंसभी सोचते हैं कि हम इस लोक और परलोक में भीमुक्ति के लिए प्रयास कर रहे हैं। वे कहते हैंहम मोक्ष चाहते हैंहम सब सीमाओं सेसब दासताओं से छुटकारा चाहते हैंहम पूर्ण रूप से मुक्त होना चाहते हैं। लेकिन एरिक फ्राम कहता है कि मनुष्य मुक्ति से भयभीत हैडरा हुआ है। हम चाहते हैंहम कहे जाते हैं कि हम चाहते हैं,लेकिन कहीं गहरे मन में हम स्वतंत्रता से डरते हैं। हम नहीं चाहते हैं। क्योंयह द्वैतयह दोहरापन क्यों है?
स्वतंत्रता भय पैदा करती है। और ध्यान गहरी से गहरी स्वतंत्रता है। तुम बाहरी घेरों से ही मुक्त नहीं होतेभीतरी दासता से भीदासता की जड़ मन से भी मुक्त हो जाते हो। तुम पूरे अतीत से मुक्त हो जाते हो। मन गया कि अतीत गया। अब तुम इतिहास का अतिक्रमण कर गए। अब कोई समाज नहीं रहाकोई धर्मकोई शास्त्रकोई परंपरा नहीं रहीक्योंकि उनका आवास मन ही है। अब कोई अतीत नहीं हैअब कोई भविष्य भी नहीं हैक्योंकि अतीत और भविष्य मन के अंग हैंस्मृति और कल्पना भर हैं। अब तुम अभी और यहीं होवर्तमान में हो। अब कोई भविष्य नहीं होगा। अब केवल वर्तमान और वर्तमान होगा—शाश्वत वर्तमान। तब तुम पूर्णरूप से मुक्त हो। तब तुम सब परंपरा कासब इतिहास काशरीरमनसबका अतिक्रमण कर गए। भय से भी मुक्त।
लेकिन ऐसी मुक्तिऐसी स्वतंत्रता में तुम कहां होओगेऐसी मुक्ति में क्या तुम बचोगेइस मुक्ति मेंइस विराटता में तुम्हारा छोटा सा मैंतुम्हारा अहंकार कहां टिकेगा? क्या तब तुम कह सकोगे कि मैं हूंतुम कहते हो कि मैं बंधन में हूं क्योंकि तुम अपनी सीमा को जान सकते हो। जब बंधन नहीं रहा तब सीमा भी नहीं रही। तब तुम एक उपस्थिति की तरह होकुछ ज्यादा नहीं। परिपूर्ण शून्यपरिपूर्ण खालीपन। और वही भय पैदा करता है।
और वहीं कारण है कि आदमी ध्यान की बातें तो करता हैलेकिन कुछ करता नहीं।
सभी प्रश्न इसी भय से पैदा होते हैं। इस भय को अनुभव करो। अगर इसे जान लोगे तो यह विदा हो जाएगा। और अगर नहीं जानोगे तो जारी रहेगा। क्या तुम आध्यात्मिक अर्थों में मरने को राजी होक्या तुम नहीं होने के लिए तैयार हो?
जब कोई बुद्ध के पास आता था तो वे कहतेबुनियादी सत्य यह है कि तुम नहीं हो। और क्योंकि तुम नहीं होतुम न मर सकते हो और न जन्म ले सकते हो। क्योंकि तुम नहीं होतुम दुख में और बंधन में नहीं हो सकते। क्या तुम इसे स्वीकार करने को राजी होबुद्ध पूछतेक्या तुम यह मानने को तैयार होअगर तुम यह मानने को राजी नहीं हो तो तुम अभी ध्यान का प्रयोग मत करो। पहले पता कर लो कि तुम सचमुच हो या नहीं हो। पहले इसी पर ध्यान करो। कोई आत्मा हैभीतर कोई तत्व है या तुम एक संयोग भर हो?
अगर तुम खोजो तो पता चलेगा कि तुम्हारा शरीर एक संयोग हैजोड़ है। कुछ चीज तुम्हारी मां से मिली हैकुछ चीज पिता से मिली है और शेष सब भोजन से मिला है। यही तुम्हारा शरीर है। इस शरीर में तुम नहीं होकोई आत्मा नहीं है। फिर मन पर ध्यान करो। कुछ यहं। से आया हैकुछ वहां से आया है। मन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो मौलिक हो। वह भी एक संग्रह है। खोजो कि मन में कोई आत्मा है।
अगर गहरे खोजते चले गए तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारा व्यक्तित्व एक प्याज जैसा है। एक पर्त को हटाओ कि दूसरी पर्त सामने आ जाती है। दूसरी को हटाओतीसरी आ जाती है। पर्त पर पर्त हटाते जाओ और अंत में तुम्हारे हाथ में शून्य बचेगा। जब सारी पर्तें हट गईं तो भीतर कुछ भी नहीं है।
शरीर और मन प्याज जैसे हैं। अगर तुम शरीर और मन के छिलकों को हटा दो तो तुम्हें जिसका साक्षात्कार होगाउसे बुद्ध ने शून्य कहां है। इस शून्य का साक्षात्कार डर पैदा करता है। वही डर है। यही कारण है कि हम कभी ध्यान नहीं करते हैं। हम उसके बारे में बातें करते हैंलेकिन हम उसे करते नहीं। वही भय हैगहरे में तुम जानते हो कि शून्य है। लेकिन तुम इस भय से बच नहीं सकते हो। जो भी करोभय बना रहेगा। जब तक उसका साक्षात्कार न कर लोवह बना रहेगा। साक्षात्कार मात्र उपाय है।
एक बार अपने शून्य का साक्षात्कार कर लोएक बार जान लो कि भीतर तुम आकाश की तरह होशून्य होतो फिर भय नहीं रहेगा। तब कोई भय नहीं रह सकताक्योंकि यह शून्य नष्ट नहीं किया जा सकता है। यह शून्य मरने वाला नहीं है। जो मर सकता थावह नहीं रहावह तो प्याज के छिलकों जैसा था।
यही कारण है कि कई बार गहरे ध्यान में आदमी इस शून्य के करीब पहुंचता है तो डर जाता हैघबराकर कांपने लगता है। उसे लगता है कि मैं तो मरा। और तब वह इस शून्य से भागकर संसार में लौट जाना चाहता है। और अनेक सचमुच लौट जाते हैंवे फिर भीतर की तरफ झांकने का नाम नहीं लेते।
जैसा मैं देखता हूं तुम लोगों में से प्रत्येक ने किसी न किसी जन्म में ध्यान का प्रयोग किया है। और उस शून्य के निकट पहुंचने पर भय ने तुम्हें पकड़ा और तुम भाग निकले। तुम्हारे गहरे अचेतन में उसकी स्मृति बसी है। और अब वही स्मृति बाधा बन जाती है। फिर जब भी तुम ध्यान का प्रयोग करने की सोचते हो तो तुम्हारे गहरे अचेतन में बसी यह स्मृति तुम्हें विचलित करती है और कहती है, सोचो मत, करो मत; एक बार करके तुम देखे चुके हो।
 ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है—मैंने अनेक लोगों में झांककर देखा है—जिसने किसी न किसी जीवन में ध्यान का प्रयोग न किया हो। वह याद कायम हैयद्यपि तुम्हें इसका बोध नहीं है कि वह याद कहां है। वह है। जब भी तुम कुछ करते हो,वह याद अवरोध बनकर खडी हो जाती है और किसी न किसी ढंग से तुम्हें रोक देती है।
इसलिए अगर तुम ध्यान में सचमुच उत्सुक हो तो उसके संबंध में अपने भय को खोज निकालो। इसके बाबत ईमानदार बनो कि तुम डरे हो कि नहीं। और अगर डरे हो तो सबसे पहले ध्यान के लिए नहींभय के लिए कुछ करना जरूरी होगा।
बुद्ध कई उपाय प्रयोग में लाते थे। कभी कोई उनसे कहता था कि मुझे ध्यान से डर लगता है। और यह जरूरी हैगुरु को अवश्य बताना चाहिए कि मैं डरता हूं। तुम गुरु को धोखा नहीं दे सकतेऔर उसकी जरूरत भी नहीं है। तो जब कोई उनसे कहता कि मैं ध्यान से डरता हूं तो बुद्ध कहतेतुम पहली शर्त पूरी कर रहे हो। जब तुम स्वयं कहते हो कि मैं ध्यान से डरता हूं तो संभावना खुलती है। तब कुछ किया जा सकता है। क्योंकि तुमने एक गहरे घाव को उघाड़ा है। वह भय क्या हैउसी पर ध्यान करो। जाओ और खोदकर देखो कि वह भय कहां से आता हैउसका स्रोत क्या है।
सब डर अंततः मृत्यु पर आधारित है। सब डर! उसका जो भी रूप—रंग होजो भी नाम होसब डर मृत्यु पर खड़ा है। यदि थोड़ा गहरे जाओ तो पाओगे कि तुम मृत्यु से डरे हो।
जब कोई व्यक्ति बुद्ध को आकर कहता कि मैं मृत्यु से भयभीत हूं मुझे इसका पता चल गया हैतो बुद्ध उससे कहते कि मरघट जाओ और वहा बैठकर जलती चिता पर ध्यान करो। लोग रोज मर रहे हैंवे वहा जलाए जाएंगे। उस मरघट में रहो और चिता पर ध्यान करो। जब मरने वाले के परिवार के लोग भी वहा से विदा हो जाएं तब भी तुम वहां रुके रहो। बस आग को,उसमें जलती लाश को देखो। जब सब कुछ धुआं ही धुआं हो रहे तो उसकी भी गहराई में देखते रहो। कुछ सोचो मततीन महीनेछह महीने या नौ महीने तक बस ध्यान करो। और जब तुम्हें निश्चय हो जाए कि मृत्यु से बचा नहीं जा सकताजब परम निश्चय हो जाए कि मृत्यु जीवन का एक ढंग हैकि मृत्यु जीवन में ही निहित हैकि मृत्यु होने ही वाली हैकि उससे बचने का कोई उपाय नहीं हैकि तुम मृत्यु में ही होतब लौटकर मेरे पास आना।
मृत्यु पर महीनों ध्यान करने के बाददिन—रात लाशों को जलते और राख होते देखने के बादबचे हुए धुओं को भी अंततः विलीन होते देखने के बादएक निश्चय घनीभूत हो जाता है कि मृत्यु निश्चित है। असल में यही एक चीज निश्चित हैशेष सब चीजें अनिश्चित हैं। जीवन में जो एक चीज निश्चित है वह मृत्यु है। दूसरी किसी भी चीज के लिए तुम कह सकते हो कि वह हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती हैलेकिन मृत्यु के लिए यह बात नहीं कह सकते। मृत्यु हैवह होने वाली हैवह हो ही चुकी है। जिस क्षण तुम जीवन में प्रविष्ट हुएउसी क्षण मृत्यु में भी प्रविष्ट हो गए। अब उसके बाबत कुछ भी नहीं किया जा सकता है।
और जब मृत्यु निश्चित ही है तो उसका डर भी नहीं रहता है। भय तो उन चीजों के साथ है जो बदली जा सकती है। जब मरना ही है तो भय क्‍या? यदि तुम मृत्‍यु के बाबत कुछ कर सकोउसे बदल सकोतो भय बना रहेगा। और अगर जान लिया कि कुछ नहीं किया जा सकताकि तुम मृत्यु में ही होकि वह अटल हैतो भय भी विदा हो जाता है।
और जब मृत्यु का भय जाता रहता है तो बुद्ध तुम्हें ध्यान करने की इजाजत देंगे। वे कहेंगेअब ध्यान कर सकते हो।
तो तुम भी अपने मन की गहराइयों में उतरो। इन विधियों को सुनना तभी सार्थक होगा जब तुम्हारी आंतरिक रुकावटें टूट गई होंजब तुम्हारे भीतरी भय विलीन हो गए हों और जब तुमने निश्चित जान लिया हो कि मृत्यु ही यथार्थ हैइसलिए अगर ध्यान में मैं मर भी जाऊं तो डर नहीं हैध्यान में मृत्यु भी घटित हो जाए तो उसके लिए भी मैं तैयार हूं। केवल तभी तुम गति कर सकते हो। और वह गति राकेट की गति होगीक्योंकि कोई अवरोध न रहे।
दूरी समय नहीं लेतीअवरोध समय लेते हैं। तुम इसी क्षण गति कर सकते हो यदि अवरोध न हों। तुम तो वहीं होपर बाधाएं हैं। यह बाधा—दौड़हर्डल रेस है। और तुम अधिकाधिक रुकावटें पार करते हो तो तुम्हें अच्छा लगता है। तुम्हें अच्छा लगता है कि तुम रुकावटों को पार कर गए। लेकिन कैसी मूढ़ता है कि तुमने ही ये रुकावटें राह में रखी थीं। वे वहा थीं ही नहीं। तुम ही रुकावटें रखते होतुम ही उन्हें पार करते हो और तुम ही अच्छा भी अनुभव करते हो। फिर—फिर रुकावटें रखनाफिर—फिर उन्हें पार करना—इस तरह तुम एक वर्तुल में घूमते हो और कभी केंद्र पर नहीं पहुंचते।
मन रुकावटें पैदा करता हैक्योंकि मन भयभीत है। वह तुमको बहुत तरह की दलीलें देगा कि तुम ध्यान क्यों नहीं करते हो। मन का भरोसा मत करो। गहरे उतरो और बुनियादी कारण को खोज निकालो।
क्यों कोई आदमी सतत भोजन की चर्चा करता हैलेकिन कभी भोजन नहीं करतापागल मालूम पड़ता है। कोई दूसरा आदमी प्रेम की बातें किए जाता हैलेकिन प्रेम कभी नहीं करता। तीसरा आदमी किसी और चीज की बातें करता रहता हैलेकिन कुछ करता नहीं। यह बातचीत एक ग्रस्तता बन जाती है—एक मजबूरी। ऐसा व्यक्ति बातचीत को ही कृत्य मान बैठता है। बातचीत करने से तुम्हें लगता है कि मैं कुछ कर रहा हूं। और तब तुम चैन महसूस करते हो। तुम कुछ कर रहे होबात ही कर रहे होपढ़ रहे होसुन रहे हो। लेकिन यह करना नहीं है। यह धोखा है। इस धोखे में मत पड़ो।
मैं यहां इन एक सौ बारह विधियों के संबंध में चर्चा करूंगायह इसलिए नहीं कि तुम्हारे मन को भोजन दूं ज्यादा ज्ञान दूंसूचनाएं दूं। मैं तुम्हें पंडित बनाने की चेष्टा में नहीं हूं। मैं इसलिए बोलता हूं कि तुम्हें ऐसी विधि दे सकूं जो तुम्हारे जीवन को बदल दे। इसलिए जो विधि तुम्हें अनुकूल मालूम पड़े उसे बातचीत का विषय न बनाकर सीधे प्रयोग करो। उसके बारे में चुप हो जाओ और उसे करो। तुम्हारा मन अनेक प्रश्न खड़े करेगा। मुझसे पूछने के पहले खुद खोजबीन करो कि ये प्रश्न सच में कुछ अर्थ रखते हैं या वे तुम्हें सिर्फ धोखा दे रहे हैं।
पहले प्रयोग करो और तब प्रश्न पूछो। तब तुम्हारे प्रश्न व्यावहारिक होंगे। और मुझे म् पता है कि कौन प्रश्न प्रयोग करने पर पूछा गया है और कौन मात्र जिज्ञासा सेबुद्धि से। इसलिए मैं धीरे—धीरे तुम्हारे बुद्धिगत प्रश्नों के उत्तर देना बंद कर दूंगा। कुछ करो। और तब तुम्हारा प्रश्न सार्थक होगा। ये प्रश्नजो कहते हैं कि प्रयोग बहुत सरल हैकुछ करने के बाद नहीं पूछे गए हैं। यह उतना सरल नहीं है।
अंत में मैं फिर दोहरा दूं : तुम सत्य ही होकेवल जागरण की जरूरत है। तुम्हें कहीं अन्यत्र नहीं जाना हैबस स्वयं के भीतर प्रवेश करना है। और वह प्रवेश इसी क्षण संभव है। यदि तुम अपने मन को हटाकर अलग रख सको तो तुम अभी और यहीं प्रविष्ट हो। और ये विधियां तुम्हारे मन को हटाकर अलग रखने की विधियां हैं।
एक बार मन हटा कि तुम सत्य हो।
आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
Physiotherapy, Acupressure, Naturopathy, Yoga, Pranayam, Meditation, Reiki, Spiritual & Cosmic Healing, (Treatment & Training Center)
C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499 

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