Monday, 5 February 2018

केंद्रित, संतुलित और आप्‍तकाम होओ

तंत्र--सूत्र (भाग--1) प्रवचन--10

केंद्रित, संतुलित और आप्‍तकाम होओ(प्रवचनदसवां)

      प्रश्‍नसार:

1—क्‍या आत्‍मोपलब्‍धि बुनियादी आवश्‍यकता है?

2—मनन, एकाग्रता और ध्‍यान पर प्रकाश डालें।

3—नाभि—केंद्रके विकास के लिए जो प्रशिक्षण है
   वह ह्रदय और मस्‍तिक के केंद्रों के प्रशिक्षण
   से भिन्‍न कैसे है?

4—क्‍या सभी बुद्धपुरूष नाभि—केंद्रित है?


कई प्रश्न हैं। पहला प्रश्न :

क्या आत्मोपलब्‍धि सेल्फ—एक्‍जुअलाइजेशन मनुष्य की बुनियादी आवश्यकता है?

 हले यह समझने की कोशिश करो कि सेल्क—एरूअलाइजेशन. काआत्मोपलब्धि का अर्थ क्या है। ए .एच मैसलो ने इस शब्द सेल्फ—एरूअलाइजेशन का प्रयोग किया है। मनुष्य एक संभावना की तरह पैदा होता है। वह सच में वास्तविक नहीं है,मात्र संभावना है। मनुष्य एक संभावना की भांति जन्म लेता हैवास्तविकता की भांति नहीं। वह कुछ हो सकता हैवह अपनी संभावना को वास्तविकता बना सकता है। और ऐसा नहीं भी हो सकता है। अवसर का उपयोग किया जा सकता हैनहीं भी किया जा सकता है।

और प्रकृति तुम्हें वास्तविक होने के लिए मजबूर नहीं कर रही है। तुम स्वतंत्र हो। तुम वास्तविक होने को चुन सकते हो;तुम इसके लिए कुछ न करने को भी चुन सकते हो। मनुष्य एक बीज की तरह पैदा होता है। कोई भी मनुष्य भरा—पूरा,आप्तकाम होकर नहीं पैदा होता हैसिर्फ आप्तकाम होने की संभावना साथ लाता है।
अगर यह बात है—और यही बात है—तब आत्मोपलब्धि एक बुनियादी आवश्यकता हो जाती है। क्योंकि तुम जब तक आप्तकाम नहीं होतेजब तक वह नहीं होते जो हो सकते हो या जो होने को पैदा हुए होजब तक तुम्हारी नियति पूरी नहीं होती,यथार्थ नहीं होतीजब तक तुम्हारा बीज भरा—पूरा वृक्ष नहीं बन जातातब तक तुम्हें लगेगा कि तुम कुछ खो रहे होतुम में कुछ कमी है।
और प्रत्येक व्यक्ति को यह महसूस होता है कि वह कुछ खो रहा है। यह खोने का भाव इसलिए है कि तुम अभी वास्तविक नहीं हुए हो। बात ऐसी नहीं है कि तुम धन का या पद—प्रतिष्ठा का या शक्ति का अभाव अनुभव करते हो। अगर तुम्हें वह सब मिल भी जाए जो तुम मांगते हो—धनसत्ताप्रतिष्ठा या जो भी—तो भी तुम सदा अपने भीतर कोई अभाव अनुभव करते रहोगे। क्योंकि वह अभाव किसी बाहरी चीज से संबंधित नहीं है। जब तक तुम आप्तकाम न हो जाओजब तक ऐसी उपलब्धि या खिलावट या आंतरिक परितोष को न प्राप्त हो जाओ जहां कह सको कि यह वही है जो होने को मैं बना थातब तक यह अभाव खटकता रहेगा और तुम इस अभाव के भाव को किसी भी दूसरी चीज से दूर नहीं कर सकते।
तो आत्‍मोपलब्‍धि का अर्थ है कि एक आदमी वहीं हो गया है जो उसे होना था। वह एक बीज की तरह पैदा हुआ था और अब उसका फूल खिल गयावह पूर्ण विकास कोआंतरिक विकास कोआंतरिक मंजिल को पा गया। जिस क्षण तुम पाओगे कि तुम्हारी सभी संभावनाएं वास्तविक हो गईं उस क्षण तुम जीवन के शिखर कोप्रेम के शिखर कोस्वयं अस्तित्व के शिखर को अनुभव करोगे।
अब्राहम मैसलो नेजिसने इस सेल्फ—एक्‍यूअलाइजेशन शब्द का प्रयोग कियाएक और शब्द का आविष्कार किया हैवह शब्द हैपीक—एक्सपीरिएंस—शिखर—अनुभव। जब कोई स्वयं को उपलब्ध होता है तो वह शिखर कोआनंद के शिखर को उपलब्ध होता है। तब किसी भी चीज की खोज बाकी नहीं रह जातीतब वह अपने साथ पूर्णत: संतुष्ट होता है। अब कोई कमी नहीं रहीकोई चाहकोई मांगकोई दौड़ नहीं रही। वह जो भी है वह अपने साथ संतुष्ट है। आत्मोपलब्धि शिखर—अनुभव बन जाती हैऔर सिर्फ आत्मोपलब्ध व्यक्ति ही शिखर—अनुभव को प्राप्त हो सकता है। तब वह जो कुछ भी करता हैजो कुछ भी छूता हैजो कुछ भी करता है या नहीं करता हैमात्र होना भी उसके लिए शिखर—अनुभव है। होना मात्र आनंदित होना है। तब आनंद का किसी बाहरी वस्तु से लेना—देना नहीं हैवह आंतरिक विकास की महज उपज हैउप—उत्पत्ति है।
बुद्ध आत्मोपलब्ध व्यक्ति हैं। यही कारण है कि हम बुद्धमहावीर या उन जैसे लोगों के चित्र या मूर्ति पूरे खिले हुए कमल पर बैठे हुए बनाते हैं। वह पूर्ण खिला हुआ कमल आंतरिक खिलावट का शिखर है। भीतर वे खिल गए हैंऔर पूरी तरह खिल गए हैं। वह आंतरिक खिलावट उन्हें प्रभामंडित करती हैउनसे आनंद की सतत वर्षा होती रहती है। और जो भी उनकी छाया के नीचे आते हैंजो भी उनके पास आते हैंवे उनके चारों ओर एक शाति का माहौल अनुभव करते हैं।
महावीर के संबंध में एक दिलचस्प विवरण है। वह एक मिथक है। लेकिन मिथक सुंदर होते हैंऔर वे बहुत कुछ कहते हैं जो अन्यथा नहीं कहा जा सकता। कहा जाता है कि जब महावीर चलते थे तो 'उनके चारों ओर चौबीस मील के दायरे में सभी फूल खिल जाते थे। अगर फूलों का मौसम भी नहीं होता तो भी फूल खिलते थे।
यह महज काव्य की भाषा है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति आत्मोपलब्ध नहीं था और वह महावीर के संपर्क में आता तो उनकी खिलावट उसके लिए संक्रामक हो जाती और वह अपने भीतर भी खिलावट अनुभव करता। अगर किसी व्यक्ति के लिए यह उचित मौसम नहीं होताअगर वह तैयार भी नहीं होतातो भी वह उनकी खिलावट को प्रतिबिंबित करताउसके भीतर उस खिलावट की प्रतिध्वनि महसूस होती। अगर महावीर किसी व्यक्ति के निकट होते तो वह अपने भीतर एक प्रतिध्वनि महसूस करता और उसे उसका आभास मिलता जो वह हो सकता था।
आत्मोपलब्धिसेल्फ—एक्यूअलाइजेशन बुनियादी आवश्यकता है। बुनियादी कहने से मेरा मतलब है कि अगर तुम्हारी सभी जरूरतें भी पूरी हो जाएंसिर्फ आत्मलाभआत्मोपलब्धि न होतो तुम रिक्त और खाली महसूस करोगे। इसके विपरीत अगर आत्मलाभ हो जाए और बाकी कुछ भी नहींतो भी तुम अपने भीतर गहरीपूरी संतुष्टि अनुभव करोगे। यही कारण है केंद्रित,संतुलित कि बुद्ध भिखारी होते हुए भी सम्राट थे।
बुद्ध ज्ञानोपलब्ध होने पर काशी आएऔर काशी के राजा उनसे मिलने आए। राजा ने बुद्ध से कहाआपके पास कुछ भी तो नहीं हैआप महज भिखारी हैं। लेकिन आपके सामने मैं ही भिखारी मालूम पड़ता हूं। आपके पास कुछ भी नहीं हैलेकिन आप जिस ढंग से चलते हैंजिस ढंग से देखते हैंजिस ढंग से आप हंसते हैंउससे लगता है कि सारी पृथ्वी ही आपका राज्य है। और आपके पास दृश्य में कुछ नहीं हैकुछ भी नहीं है। फिर आपकी शक्ति का राज क्या हैआप तो सम्राट जैसे दिखते हैं। सच तो यह है कि कोई सम्राट भी कभी ऐसा नहीं दिखा—मानो सारा संसार आपका है। आप सम्राट हैं। लेकिन आपकी शक्ति क्या हैउसका स्रोत क्या है?
तो बुद्ध ने कहावह मुझमें है। मेरी शक्ति का स्रोत या जो भी आप मेरे चारों तरफ देखते हैंवह दरअसल मेरे भीतर है। मेरे पास स्वयं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। लेकिन वह पर्याप्त हैमैं आप्तकाम हूं र मैं अब और कुछ नहीं चाहता। मैं कामना—रहित हो चुका हूं।
सच तो यह है कि आत्मोपलब्ध व्यक्ति कामना—रहित हो जाता है। इसे स्मरण रखो। साधारणत: हम कहते हैं कि अगर तुम निष्काम हो जाओ तो तुम अपने को जान लोगे। लेकिन इससे विपरीत ज्यादा सत्य है। अगर तुम अपने को जान लो तो तुम निष्काम हो जाओगे। इसलिए तंत्र निष्काम होने पर जोर नहीं देताआत्मोपलब्ध होने पर जोर देता है। तब कामना—मुक्ति आप ही आती है।
कामना का अर्थ है कि तुम अपने भीतर परितृप्त नहीं होभराव नहीं अनुभव करते। तुम्हें किसी चीज का अभाव मालूम पड़ता हैइसलिए तुम उसके पीछे दौड़ रहे हो। परितृप्ति के लिए तुम एक कामना से दूसरी कामना के पीछे भाग रहे हो। वह दौड़,वह खोज कभी समाप्त नहीं होती है। क्योंकि एक चाह दूसरी चाह को जन्मा जाती है। सच तो यह है कि एक चाह दस चाहो को पैदा करती है। अगर तुम कामनाओं के जरिए आनंद की निष्काम दशा को खोजने निकले तो तुम कभी नहीं पहुंचोगे।
लेकिन इसकी जगह अगर तुम एक दूसरा प्रयोग करोआत्मोपलब्धि की विधियों का प्रयोग करोअपनी आंतरिक संभावनाओं को हासिल करनेउन्हें वास्तविक बनाने की विधियों का प्रयोग करोतो जितने ही तुम वास्तविक होओगे उतनी ही कामनाएं कम होती जाएंगी। क्योंकि कामनाएं असल में इसलिए पैदा होती हैं कि तुम अपने भीतर रिक्त होखाली हो। और जब तुम भीतर रिक्त नहीं होते तो कामनाएं विसर्जित हो जाती हैं।
तो इस आत्मोपलब्धि के लिए क्या करें?
दो बातें समझने जैसी हैं। एक कि आत्मोपलब्धि का यह अर्थ नहीं है कि अगर तुम बड़े चित्रकार या महान संगीतज्ञ या महाकवि हो गए तो आत्मोपलब्ध हो गए। हालांकि उस हालत में तुम्हारा एक अंश तो आत्मोपलब्ध होगाऔर उससे भी बहुत तृप्ति मिलती है। अगर तुम्हारे भीतर एक अच्छे संगीतज्ञ की संभावना है और तुम उसे वास्तविक बनाओ और संगीतज्ञ बन जाओ तो तुम्हारा एक अंश परितृप्त हो जाएगा। लेकिन उससे तुम्हारा समग्र परितृप्त नहीं होगातुम्हारे भीतर की शेष मनुष्यता अतृप्त ही रहेगी। तुम असंतुलित रह जाओगेएक अंश तो विकसित होगा शेष सब गले में पत्थर की तरह लटकता रहेगा।
एक कवि को देखो। जब वह कवि—सुलभ मुद्रा में होता है, वह बुद्ध जैसा दिखता है; वह अपने को पूरी तरह भूल जाता है—मानो उसके भीतर का साधारण मनुष्य विदा हो गया इसलिए कवि कविता की मुद्रा में शिखर छू लेता है—आशिक शिखर। और कभी—कभी कवियों को वैसी झलकें आती हैं जो कि एक बुद्ध के लिए ही संभव हैं।
एक कवि भी बुद्ध की भांति बोल सकता है। उदाहरण के लिए खलिल जिब्रान है। छ बुद्ध की भांति बोलता हैलेकिन वह बुद्ध नहीं है। वह कवि हैमहाकवि है। इसलिए तुम खलिल जिब्रान को उसकी कविता के माध्यम से देखो तो वह बुद्धक्राइस्ट या कृष्ण दिखता है। लेकिन अगर तुम खलिल जिब्रान नामक व्यक्ति से मिलो तो वह महज मामूली है। वह प्रेम के संबंध में इतने सुंदर ढंग से बोलता है कि बुद्ध भी न बोल सकें। लेकिन बुद्ध अपने पूरे अस्तित्व से प्रेम को जानते हैंखलिल जिब्रान उसे बस कविता की उड़ान में जानता है। जब वह कविता की उड़ान भरता है तब उसे प्रेम की झलकें मिलती हैंसुंदर झलकें और छ उन्हें अपूर्व अंतर्दृष्टि के साथ अभिव्यक्त करता है। लेकिन अगर तुम्हें असली खलिल जिब्रान मिल जाए जिब्रान नामक आदमी मिल जाए तो तुम बहुत अंतर पाओगे। उसके कवि और उसके व्यक्ति में बहुत फासला है। उसका कवि ऐसा है जो इस व्यक्ति को कभी—कभी घटित होता हैलेकिन वह व्यक्ति कवि नहीं है।
यही कारण है कि कवि अनुभव करते हैं कि जब वे कविता रचते हैं तो रचने वाला कोई और होता हैवे नहीं। उन्हें लगता है कि वे किसी अन्य ऊर्जा केशक्ति के हाथों के यंत्र हो गए हैंवे तब नहीं होते हैं। यह भाव इसलिए आता है कि दरअसल उनका समग्र नहीं मात्र अंश आत्मोपलब्ध होता है। मानो तुमने आकाश नहीं छुआसिर्फ तुम्हारी एक अंगुली ने आकाश छुआ है। तुम तो धरती से ही बंधे हो। कभी तुम उछलते हो और क्षणभर के लिए धरती पर नहीं होते होतुम गुरुत्वाकर्षण को धोखा दे देते हो। लेकिन दूसरे क्षण तुम फिर धरती पर हो। इसलिए अगर कोई कवि अपनी ऊचाइयों को छूता है तो उसे झलकें मिलेगी—आशिक झलकें। अगर कोई संगीतज्ञ अपनी ऊंचाइयों को छूता है तो उसे झलकें मिलेंगी।
बीथोवन के संबंध में कहा जाता है कि जब वह स्टेज पर होता था तो भिन्न ही आदमी होता था—सर्वथा भिन्न आदमी। गेटे ने कहा है कि जब बीथोवन स्टेज पर अपने आरकेस्ट्रा का निर्देशन कर रहा होता था तब वह मनुष्य नहींदिव्य होता था। वह जिस ढंग से देखता था, जिस ढंग से हाथ उठाता थासब अति—मानवीय था। लेकिन स्टेज से उतरकर वह महज मामूली मनुष्य हो जाता था। स्टेज पर जो मनुष्य था वह किसी और शक्ति के वश में था मानो बोथावन वहां नहीं थाकोई इतर शक्ति उसमें प्रविष्ट हो गई थी। स्टेज के नीचे फिर वह उम्र थामामूली आदमी था।
यही कारण है कि कविसंगीतज्ञमहान कलाकारसृजनशील लोग ज्यादा तनावग्रस्त हैं। उन्हें दो तरह का जीवन जीना पड़ता है। सामान्य आदमी इतना तनावग्रस्त नहीं होताक्योंकि वह एक ही अस्तित्व में वास करता है। वह जमीन पर होता है। जब कि कविसंगीतज्ञमहान कलाकार छलांग लेते हैं वे गुरुत्वाकर्षण के बाहर चले जाते हैं। किसी—किसी क्षण में वे इस जमीन के नहीं रहतेमनुष्यता केंद्रितसंतुलित के हिस्से नहीं होते। तब वे बुद्धों के देश के हिस्से हो जाते हैं। लेकिन वे फिर यहां वापस आ
जाते हैं। उनके अस्तित्व के दो बिंदु होते हैंउनके व्यक्तित्व बंटे होते हैं। नतीजा यह होता है कि हरेक सृजनशील कलाकारहरेक महान कलाकार एक अर्थ में पागल होता है। तनाव इतना ज्यादा है। इन दो तरह के अस्तित्वों के बीच की खाई इतनी बड़ी होती है कि उन्हें पाटा नहीं जा सकता। कभी वह महज मामूली मनुष्य होता है और कभी बुद्ध—समान होता है। इन दो बिंदुओं के बीच वह बंटा होता है। लेकिन उसे झलकें तो मिलती हैं।
तो जब मैं आत्मोपलब्धि की बात करता हूं तो मेरा यह मतलब नहीं है कि तुम महाकवि हो जाओ या बड़े संगीतज्ञ बन जाओ। मैं यही चाहता हूं कि तुम समग्र मनुष्य बन जाओ। मैं यह भी नहीं कहता कि तुम महान पुरुष बन जाओक्योंकि महान पुरुष भी सदा आशिक है। किसी चीज में भी महानता सदा आशिक होती है। उसमें मनुष्य एक दिशा में तो गति पर गति करता जाता हैलेकिन अन्य सभी दिशाओं में और आयामों में वह वही का वही बना रहता है—असंतुलित।
तो जब मैं कहता हूं कि समग्र मनुष्य बनो तो इसका यह अर्थ नहीं है कि महान पुरुष बन जाओ। मेरा अर्थ यही है कि एक मनुष्य की भांति—संगीतज्ञकविकलाकार की भांति नहीं—एक मनुष्य की भांति संतुलन पैदा करोकेंद्रित होओ और आप्तकाम बनो।
मनुष्य की भांति आप्तकाम होने का अर्थ क्या है?
एक महाकवि महान कविता के कारण महाकवि है। एक महान संगीतज्ञ महान संगीत के कारण महान संगीतज्ञ है। वैसे ही एक महापुरुष महापुरुष हैक्योंकि उसने कुछ कृत्य किए हैंवह बड़ा वीर हो सकता है। महापुरुष किसी एक दिशा में महापुरुष है। यह आशिक हैमहानता आशिक हैखंडित है। यही कारण है कि महापुरुषों को साधारणजन से अधिक संताप झेलना पड़ता है।
फिर समग्र मनुष्य क्या हैपूरा मनुष्यसमग्र मनुष्य होने का अर्थ क्या हैपहले तो उसका अर्थ यह है कि तुम केंद्रित हो जाओबिना केंद्र के मत रहो। इस क्षण तुम कुछ होअगले क्षण कुछ और हो।
मेरे पास लोग आते हैं तो मैं सामान्यतया उनसे पूछता हूं तुम अपना केंद्र कहां महसूस करते होहृदय मेंमस्तिष्क में या नाभि केंद्र मेंतुम्हारा केंद्र कहां है?
साधारणत: वे कहते हैं कि कभी मैं मस्तिष्क में उसे महसूस करता हूं कभी हृदय में और कभी कहीं भी नहीं। फिर मैं उन्हें कहता हूं कि आख बंद करो और अभी उसे अनुभव करो कि कहां है। और तब बहुसंख्यक लोगों की यह स्थिति होती है। वे कहते हैंअभीइस क्षण मुझे लगता है कि मैं मस्तिष्क में केंद्रित हूं। लेकिन दूसरे क्षण वे वहां नहीं होते। वे कहते हैंमैं हृदय में हूं। और अगले क्षण केंद्र वहां से भी खिसक गया हैवह और कहीं हैकाम—केंद्र में या और कहीं।
सच तो यह है कि तुम केंद्रित नहीं होतुम क्षणिक ढंग से केंद्रित हो। तुम्हारे प्रत्येक क्षण का अलग केंद्र हैइसलिए तुम बदलते रहते हो। जब मस्तिष्क काम करता है तो तुम समझते हो कि मस्तिष्क केंद्र है। और जब तुम प्रेम में होते हो तब समझते हो कि हृदय केंद्र है। और जब तुम कोई खास काम नहीं करते होते तब तुम उलझन महसूस करते हो। तब तुम्हें केंद्र का पता चलताक्‍योंकि तुम्‍हें उसका पता तभी चलता जब तुम कुछ कर। उस समय शरीर का एक विशेष भाग केंद्र बन जाता है। लेकिन तुम केंद्रित नहीं हो। जब तुम कुछ नहीं कर रहे होते तो तुम्हें अपने केंद्र का पता नहीं हो सकता।
एक समग्र मनुष्य केंद्रित होता है। वह जो भी कर रहा हो वह सदा अपने केंद्र में रहता है। अगर उसका मन सक्रिय है तो वह सोचता हैउसके मन में विचार चलता हैलेकिन वह अपने नाभि—केंद्र में स्थित है। केंद्र उसका कभी खोता नहीं है। वह मस्तिष्क का उपयोग कर लेता हैलेकिन वह कभी मस्तिष्क में नहीं रहता है। वह हृदय का उपयोग कर लेता हैलेकिन वह कभी हृदय में नहीं रहता है। ये उसके लिए उपकरण बने रहते हैं और वह केंद्रित रहता है।
दूसरी बात कि समग्र मनुष्य संतुलित है। सच तो यह है कि जब कोई केंद्रित होता है तो वह संतुलित भी हो जाता है। उसका जीवन एक गहन संतुलन है। वह कभी एकतरफाएकांगी नहीं होता हैवह कभी किसी अति पर नहीं होता हैवह सदा मध्य में रहता है। बुद्ध ने इसे ही मज्‍झिम निकाय कहा है। वह सदा मध्य में रहता है।
जो व्यक्ति केंद्रित नहीं है वह सदा अति पर चला जाएगा। वह खाएगा तो बहुत खा लेगा। या वह उपवास करेगा। लेकिन सम्यक भोजन उसके लिए संभव नहीं है। उपवास आसान हैअति भोजन ठीक है। वह या तो संसार में उलझा रहेगा या वह संसार का त्याग कर देगा। लेकिन वह कभी संतुलित नहीं हो सकता हैवह कभी मध्य में नहीं रह सकता है। क्योंकि अगर तुम केंद्रित नहीं हो तो तुम नहीं जानते हो कि मध्य का क्या अर्थ है।
जो मनुष्य केंद्रित है वह सब बात में सदा मध्य में रहता हैवह कभी अति पर नहीं जाता। बुद्ध कहते हैं कि उसका भोजन सम्यक भोजन होता हैवह न कभी ज्यादा खाता है और न कभी उपवास करता है। उसका श्रम सम्यक श्रम होता हैवह न कभी अति श्रम करता है और न कभी आलस्य करता है। वह जो भी है संतुलित है।
तो पहली बात कि आत्मोपलब्ध व्यक्ति केंद्रित होगा। दूसरी बात कि वह संतुलित होगा। और तीसरी बात कि अगर ये दो चीजें—केंद्रित होना और संतुलित होना—घटित हो गईं तो बाकी चीजें अपने आप ही उसके पीछे—पीछे आएंगी। वह सदा विश्राम मेंअमन—चैन में होगाकभी तनाव में नहीं होगा। जो भी परिस्थिति होउसका विश्रामउसकी शांति भंग नहीं होगी। मैं कहता हूं किसी भी परिस्थिति मेंबेशर्त उसकी शाति भंग नहीं होगी। क्योंकि जो केंद्रित है वह सदा विश्राम में हैआराम में है। यदि मृत्यु आ जाए तो भी वह विश्राम में रहेगा। वह मृत्यु का स्वागत वैसे करेगा जैसे किसी मेहमान का किया जाता है। दुख आए तो वह उसका भी स्वागत करेगा। जो भी होउसको उसके केंद्र से च्‍युत नहीं किया जा सकता। यह विश्राम भी केंद्रित होने की उप—उत्पत्ति है।
ऐसे आत्मोपलब्ध व्यक्ति के लिए कुछ भी क्षुद्र नहीं हैकुछ भी महान नहीं है। सब कुछ उसके लिए पवित्रसुंदर और धार्मिक हो जाता है। वह जो भी करता हैजो भीवह उसे अन्यतम भाव से करता है। कुछ भी तुच्छ नहीं है। वह यह नहीं कहेगा कि यह तुच्छ है या यह महान है। सच में न कुछ महान है और न कुछ तुच्छ और नगण्य। उस व्यक्ति का स्पर्श महत्वपूर्ण होता है। आत्मोपलब्ध व्यक्तिसंतुलित—केंद्रित व्यक्ति सब कुछ को बदल देता है, उसका स्पर्श उन्हें बड़ा बना देता है।
तुम किसी बुद्ध को देखोतुम पाओगे कि वे चलते हैं और चलने को भी प्रेम करते हैं। अगर तुम बोधगया जाओ जहां निरंजना नदी के किनारे बोधिवृक्ष के नीचे बैठ हुए ज्ञान को उपलब्ध हुए थे तो वहां तुम पाओगे कि उनके चरण—चिह्न सुरक्षित हैं। बुद्ध एक घंटा ध्यान करते थे फिर आसपास में घूमते थे। बौद्ध शब्दावली में उसे चक्रण। कहते हैं। वे बोधिवृक्ष के नीचे बैठते थेफिर घूमते थेलेकिन उनका घूमना भी ध्यान जैसा ही होता था—शांत और पवित्र।
किसी ने एक बार बुद्ध से पूछा कि आप ऐसा क्यों करते हैंकभी आप आख बंद करके ध्यान करते हैं और कभी चलते हैं। बुद्ध ने कहा कि शांत होने के लिए बैठना आसान हैइसलिए मैं चलता हूं। लेकिन मैं वही शांति साथ लिए हुए चलता हूं। मैं बैठता हूंलेकिन भीतर वही रहता हूं—शांत। मैं चलता हूं लेकिन भीतर की शांति वैसी ही बनी रहती है।
आंतरिक गुण सदा एकरस है। वे सम्राट से मिलें कि भिखारी सेबुद्ध बुद्ध ही रहते हैंउनका आंतरिक गुण एक सा बना रहता है। भिखारी से मिलते समय वे कुछ दूसरे नहीं हो जाते हैंसम्राट से मिलते समय वे दूसरे नहीं हो जाते हैं। वे वही रहते हैं। भिखारी ना—कुछ नहीं हैसम्राट बहुत—कुछ नहीं है। और सच तो यह है कि बुद्ध से मिलते समय सम्राटों ने अपने को भिखारी महसूस किया है और भिखारियों ने अपने को सम्राट। उनका स्पर्शउनकी मनुष्यताउनकी गुणवत्ता एक ही रहती है।
अपने जीवन—काल में हर सुबह बुद्ध अपने शिष्यों से कहते थेकुछ पूछना हो तो पूछो। फिर जिस दिन वे मर रहे थे उस सुबह भी उन्होंने वही किया। उन्होंने शिष्यों को बुलाया और कहाकुछ पूछना चाहो तो पूछो। और याद रखो कि यह आखिरी सुबह है। दिन समाप्त होने के बाद मैं नहीं रहूंगा।
वे वही थे उस दिन भी! उस सुबह भी दूसरे दिनों की तरह ही उन्होंने कहाअच्छाकुछ पूछना है तो पूछ लोलेकिन यह अंतिम दिन है। उनके स्वर में कोई बदलाहट नहीं थी। लेकिन शिष्य रोने लगे। पूछना तो भूल ही गए। बुद्ध ने कहारोते क्यों हो! किसी और दिन रोते तो ठीक था। यह तो अंतिम दिन है। शाम तक मैं नहीं रहूंगा। इसलिए रोने में समय मत गवाओ। और दिन तुम समय गंवा सकते थे। रोने में समय व्यर्थ मत करो। रोते क्यों हो! कुछ पूछना हो तो पूछ लो। जीवन और मृत्युदोनों में वे समान थे।
तो तीसरी बात कि व्यक्ति विश्राम में होता है। उसके लिए जीवन और मृत्यु समान हैंआनंद और दुख समान हैं। कुछ भी उसे अशांत नहीं करता हैकुछ भी उसे अपने घर सेकेंद्र से विचलित नहीं करता है। ऐसे व्यक्ति में तुम कुछ जोड नहीं सकते,ऐसे व्यक्ति से तुम कुछ घटा नहीं सकते। वह आप्तकाम है। उसका श्वास—श्वास आप्तकाम है—शातआनंदित। वह पा गया है। वह पहुंच गया है। वह अस्तित्व को उपलब्ध हो गया है। उसका फूल पूर्ण मनुष्य के रूप में खिल गया है।
यह आशिक खिलावट नहीं है। बुद्ध महाकवि नहीं हैंयद्यपि वे जो भी कहते हैं वह कविता है। वे कवि बिलकुल नहीं हैं,लेकिन उनके चलने में भी कविता है। वे चित्रकार नहीं हैंलेकिन जब भी वे बोलते हैंजो भी वे कहते हैं वह चित्र बन जाता है। वे संगीतज्ञ नहीं हैं,
लेकिन उनका पूरा अस्तित्व सर्वश्रेष्ठ संगीत है। यह मनुष्य अपनी समग्रता में उपलब्ध हो गया है। चुपचाप भी बैठा हो तो उसकी उपस्‍थिति काम करती है। सृजन करती है। उसकी उपस्थिति सृजनात्मक है।
तंत्र किसी आंशिक विकास की फिक्र नहीं करतावह तुम्हारे पूरे अस्तित्व के साथ तुम्हारी चिंता लेता है। इसलिए तीन चीजें बुनियादी हैं। तुम्हें केंद्रित होना हैअपनी जड़ों से संयुक्त होना है। उसका अर्थ है कि तुम्हें सदा मध्य में होना है—और किसी प्रयत्न के बिना। अगर कोई प्रयत्न है तो तुम संतुलित नहीं हुए। और तुम्हें विश्राम में होना है—जगत के साथ विश्राम मेंअस्तित्व के साथ विश्राम में। और तब बहुत चीजें उसके परिणाम में उसके पीछे—पीछे आती हैं।
यह बुनियादी जरूरत है। क्योंकि जब तक यह जरूरत पूरी नहीं होतीतुम नाम के लिए ही मनुष्य हो। तुम यथार्थत: मनुष्य नहीं हो। हो सकते होक्षमता है। लेकिन क्षमता को वास्तविक बनाना होगा।

 दूसरा प्रश्न :

कृप्‍या कर मनन, एकाग्रता और ध्यान के अर्थ बताएं।

 नन का अर्थ है विचारनादिशाबद्ध विचारना। हम सब विचार करतें हैंलेकिन वह मनन नहीं है। वह विचारना दिशा—रहित हैअस्पष्ट हैकहीं जाता हुआ नहीं है। असल में हमारा विचारना मनन नहीं हैबल्कि फ्रायडवादियों की भाषा में उसे एसोसिएशन कहना चाहिए। तुम्हारे अनजाने ही एक विचार दूसरे विचार को जन्म दिए जाता है। एसोसिएशन के कारण एक विचार अपने आप ही दूसरे विचार पर चला जाता है।
तुम एक कुत्ते को गली पार करते देखते हो। जिस क्षण तुम कुत्ते को देखते होतुम्हारा मन कुत्तों के संबंध में सोचने लगता है। कुत्ता तुम्हें ले चला। और फिर मन के अनेक एसोसिएशन हैं। जब तुम बच्चे थे तुम एक विशेष कुत्ते से डरा करते थे। वह कुत्ता तुम्हारे मन में उभर आता है और उसके साथ तुम्हारा बचपन चला आता है। फिर कुत्ते तो भूल जाते हैं और एसोसिएशन के प्रभाव के कारण तुम अपने बचपन के संबंध में दिवा—स्‍वप्‍न देखने लगते हो। और फिर बचपन के साथ जुड़ी हुई अनेक चीजें आती हैंऔर तुम उनके बीच चक्कर काटने लगते हो।
जब तुम्हें फुरसत हो तो तुम सोचने से पीछे चलोविचारने से पीछे हटकर वहां जाओ जहां से विचार आया। एक—एक कदम पीछे हटो। और तब तुम पाओगे कि वहां कोई दूसरा विचार था जो इस विचार को लाया। और उनके बीच कोई संगति नहीं है। तुम्हारे बचपन के साथ इस गली के कुत्ते का क्या लेना—देना है! कोई संगति नहीं हैसिर्फ मन का एसोसिएशन है। अगर मैं गली पार करूं तो वह कुत्ता मुझे मेरे बचपन में नहीं ले लाएगाकहीं अन्यत्र ले जाएगा। किसी तीसरे व्यक्ति को वह कहीं और ले जाएगा।
हरेक आदमी के मन में एसोसिएशन की श्रृंखला है। कोई भी घटना एसोसिएशन की श्रृंखला से जुड़ जाती है। तब मन कंप्यूटर की भांति काम करने लगता है। तब एक चीज से दूसरी चीजदूसरी से तीसरी निकलती चली जाती है। यही तुम दिन भर करते रहते हो। जो भी तुम्हारे मन में आए उसे ईमानदारी से एक कागज के टुकड़े पर लिख लो। तुम हैरान होओगे कि
यह क्या मेरे मन में चल रहा है! दो विचारों के बीच कोई संबंध नहीं है। और तुम इसी तरह के विचार करते रहते हो। तुम इसे विचारना कहते होयह सिर्फ एक विचार का दूसरे विचार के साथ एसोसिएशनऔर तुम उनके साथ बह रहे हो।
विचार तब मनन बनता है जब वह एसोसिएशन के कारण नहींनिर्देशन से चलता है। अगर तुम किसी खास समस्या पर काम कर रहे हो तो तुम सब एसोसिएशन की श्रृंखला को अलग कर देते हो और उसी एक समस्या के साथ गति करते हो। तब तुम अपने मन को निर्देश देते हो। मन तब भी इधर—उधर सेकिसी पगडंडी से किसी एसोसिएशन की श्रृंखला पकड़कर भागने की चेष्टा करेगा। लेकिन तुम सभी अन्य रास्तों को रोक देते हो और मन को एक मार्ग से ले चलते हो। तब तुम अपने मन को दिशा देते हो।
किसी समस्या में संलग्न एक वैज्ञानिक मनन में होता है। वैसे ही किसी समस्या में उलझा हुआ तार्किक या गणितज्ञ मनन करता है। जब कवि किसी फूल पर मनन करता है तब शेष संसार उसके मन से ओझल हो जाता है। तब दो ही होते हैं,फूल और कविऔर कवि फूल के साथ यात्रा करता है। रास्ते के किनारों से अनेक चीजें आकर्षित करेंगीलेकिन वह अपने मन को कहीं नहीं जाने देता है। मन एक ही दिशा में गति करता है—निर्देशित।
यह मनन है। विज्ञान मनन पर आधारित है। कोई भी तार्किक विचारक मनन है। उसमें विचार निर्देशित हैदिशाबद्ध है। विचार की दिशा निश्चित है। सामान्य विचारना तो व्यर्थ है। मनन तर्कपूर्ण हैबुद्धिपूर्ण है।
फिर एकाग्रता है। एकाग्रता एक बिंदु पर ठहर जाना है। यह विचारना नहीं हैएक बिंदु पर होने को एकाग्रता कहते हैं। सामान्य विचारणा में मन पागल की तरह गति करता है। मनन में पागल मन निर्देशित हो जाता हैउसे जहां—तहां जाने की छूट नहीं है। एकाग्रता में मन को गति की ही छूट नहीं रहती। साधारण विचारणा में मन कहीं भी गति कर सकता हैमनन में किसी दिशा—विशेष में ही गति कर सकता हैएकाग्रता में वह कहीं भी नहीं गति कर सकता। एकाग्रता में उसे एक बिंदु पर ही रहने दिया जाता है। सारी ऊर्जासारी गति एक बिंदु पर स्थिर हो जाती है।
योग का संबंध एकाग्रता से है। साधारण मन दिशाहीनअनियंत्रित विचारक से संबंधित है और वैज्ञानिक मन दिशाबद्ध विचारना से। योगी का चित्त अपने चिंतन को एक बिंदु पर केंद्रित रखता हैवह उसे गति नहीं करने देता।
और फिर है ध्यान। साधारण विचारणा में मन कहीं भी जा सकता है। मनन में उसे एक दिशा में गति करने की इजाजत हैदूसरी सब दिशाएं वर्जित हैं। एकाग्रता में मन को किसी भी दिशा में गति करने की इजाजत नहीं हैउसे सिर्फ एक बिंदु पर एकाग्र होने की छूट है। और ध्यान में मन है ही नहीं। ध्यान अ—मन की दशा है। ये चार अवस्थाएं हैं : साधारण विचारना,मननएकाग्रता और ध्यान।
ध्यान का अर्थ हैअ—मन। उसमें एकाग्रता के लिए भी गुंजाइश नहीं हैमन के होने की ही गुंजाइश नहीं है। यही कारण है कि ध्यान को मन से नहीं समझा जा सकता। एकाग्रता तक मन की पहुंच हैमन की पकड़ है। मन एकाग्रता को समझ सकता हैलेकिनमन ध्यान को नहीं समझ सकता। वहां मन कि पहुच बिलकुल नहीं है। एकाग्रता में मन को एक बिंदु पर रहने दिया जाता हैध्यान में वह बिंदु भी हटा लिया जाता है। साधारण विचारणा में सभी दिशाएं खुली रहती हैंएकाग्रता में दिशा नहींएक बिंदु भर खुला हैऔर ध्यान में वह बिंदु भी नहीं खुला है। वहां मन के होने की भी सुविधा नहीं है।
साधारण विचारणा मन की साधारण दशा हैध्यान उसकी उच्चतम संभावना है। निम्नतम है सामान्य विचारना,एसोसिएशन। और उच्चतम शिखर है ध्यानअ—मन।

 दूसरे प्रश्न के साथ यह भी पूछा है :

यदि मनन और एकाग्रता मन की प्रक्रियाएं हैं तो मन की प्रक्रियाएं अ—मन की अवस्था उपलब्ध करने में कैसे सहयोगी होती हैं?

 प्रश्न महत्वपूर्ण है। मन पूछता है कि मन ही मन के पार कैसे जा सकता हैकैसे कोई मानसिक प्रक्रिया उस चीज को पाने में सहयोगी हो सकती है जो मन की नहीं हैयह बात परस्पर—विरोधी मालूम देती है। तुम्हारा मन उस अवस्था को पैदा करने में प्रयत्नशील कैसे हो सकता है जो मन की अवस्था नहीं है?
इसे समझो। जब मन है तो क्या हैवह विचारने की प्रक्रिया है। और जब अ—मन की दशा है तब क्या हैवह विचारने की प्रक्रिया का अभाव है। अगर तुम अपने विचारने की प्रक्रिया को घटाते जाओअपनी विचारणा को विसर्जित करते जाओतो तुम धीरे— धीरे अ—मन की अवस्था को पहुंच जाओगे।
तो मन का अर्थ है विचारना और अ—मन का अर्थ है निर्विचार। और मन सहयोगी हो सकता हैमन आत्मघात करने में सहयोगी हो सकता है। तुम आत्महत्या कर सकते होलेकिन तुम कभी नहीं पूछते कि कोई जिंदा आदमी स्वयं को मारने में कैसे सहयोगी हो सकता है। तुम अपने मरने में अपनी ही सहायता कर सकते हो। हर कोई कर रहा है। तुम अपनी ही मृत्यु को लाने में सहयोगी हो सकते हो। और तुम जिंदा हो। वैसे ही मन अ—मन होने में सहयोगी हो सकता है। मन कैसे सहयोगी हो सकता है?
अगर विचार करने की प्रक्रिया गहरी होती जाए तो तुम मन से अधिक मन की ओर बढ़ रहे हो। और अगर विचार की प्रक्रिया क्षीण होती जाएविरल होती जाएतो तुम अ—मन की ओर बढ़ने में अपनी मदद कर रहे हो। यह तुम पर निर्भर है। और मन सहयोगी हो सकता हैक्योंकि इस क्षण तुम अपनी चेतना के साथ क्या करते हो यही मन है। अगर तुम उसके साथ बिना कुछ किए अपनी चेतना को अपने पर छोड़ दो तो वह ध्यान बन जाती है।
तो दो संभावनाएं हैं। एक यह कि धीरे—धीरेक्रमश: तुम अपने मन को कम करोघटाओ। अगर वह एक प्रतिशत घटे तो तुम्हारे भीतर निन्यानबे प्रतिशत मन है और एक प्रतिशत अ—मन। यह ऐसा है जैसे तुम अपने कमरे से फर्नीचर हटा रहे हो,साज—सामान हटा

 रहे हो। और अगर तुमने कुछ फर्नीचर हटा दिया तो थोड़ा खाली स्थानथोड़ा आकाश वहां पैदा हो गया। फिर और ज्यादा फर्नीचर तो और ज्यादा आकाश पैदा हो गया। और जब सब फर्नीचर हटा दिया तो समूचा कमरा आकाश हो गया।
सच तो यह है कि फर्नीचर हटाने से कमरे में आकाश नहीं पैदा हुआआकाश तो वहां था ही। वह आकाश फर्नीचर से भरा था। जब तुम फर्नीचर हटाते हो तो वहां कहीं बहार से आकाश नहीं आता है। आकाश फर्नीचर से भरा थातुमने फर्नीचर हटा दिया और आकाश फिर से उपलब्ध हो गया।
गहरे में मन भी आकाश है जो विचारों से भरा हैदबा है। तुम थोड़े से विचारों को हटा दो और आकाश फिर से प्राप्त हो जाएगा। अगर तुम विचारों को हटाते जाओ तो तुम धीरे— धीरे आकाश को फिर से हासिल कर लोगे। यही आकाश ध्यान है।
यह बात क्रमिक भी हो सकती है और अचानक भीत्वरित भीएक छलाग में भी। जरूरी नहीं है कि जन्मों—जन्मों तक धीरे— धीरे फर्नीचर हटाया जाएक्योंकि उस प्रक्रिया की भी अपनी कठिनाई है। जब धीरे— धीरे फर्नीचर हटाते हो तो पहले एक प्रतिशत आकाश पैदा होता है और शेष निन्यानबे प्रतिशत भरा का भरा रहता है। अब यह निन्यानबे प्रतिशत आकाश एक प्रतिशत खाली आकाश के संबंध में अच्छा नहीं अनुभव करेगावह उसे फिर से भरने की चेष्टा करेगा।
तो आदमी एक तरफ से विचारों को कम करता है और दूसरी तरफ से नए—नए विचार पैदा किए जाता है। सुबह तुम थोड़ी देर के लिए ध्यान करते होउसमें तुम्हारी विचार की प्रक्रिया धीमी हो जाती है। फिर तुम बाजार जाते हो जहां विचारों की दौड़ शुरू हो जाती है। स्पेसआकाश फिर से भर गया। दूसरे दिन तुम फिर वही सिलसिला दोहराते होउसे रोज दोहराते हो—विचारो को बाहर निकालनाफिर उन्हें भीतर लेना।
तुम सब फर्नीचर इकट्ठा भी बाहर फेंक सकते हो। यह तुम्हारा निर्णय है। यह कठिन जरूर हैक्योंकि तुम फर्नीचर के आदी हो गए हो 1 तुम्हें फर्नीचर के बिना अड़चन अनुभव होगीतुम्हें समझ में नहीं आएगा कि स्पेस काआकाश का क्या करें। तुम उसमें गति करने से भी डरोगेतुमने ऐसी स्वतंत्रता में कोई गति नहीं की है।
मन एक संस्कार है। हम विचारों के आदी हो गए हैं। क्या तुमने देखा है—यदि नहीं देखा है तो देखना—कि तुम रोज—रोज वही—वही विचार दोहराते रहते हो। तुम ग्रामोफोन रेकार्ड होवह भी पुरानानया नहीं। तुम वही—वही चीजें पुनरुक्त करते रहते हो। क्योंउसका उपयोग क्या हैएक ही उपयोग है कि वह एक लंबी आदत है और तुम्हें लगता है कि मैं कुछ कर रहा हूं।
तुम अपने बिस्तर पर पड़े नींद की प्रतीक्षा कर रहे हो और वही बातें रोज—रोज मत में दोहराती हैं। यह तुम रोज—रोज क्यों करते होलेकिन वह एक तरह से काम आती है। पुरानी आदतें संस्कार के रूप में सहायता करती हैं। एक बच्चे को खिलौना चाहिएउसे खिलौना मिल जाए तो उसे नींद आ जाएगी। और तब तुम उससे खिलौना ले सकते हो। लेकिन खिलौना न रहे तो बच्चे को नींद न आएगी। यह भी संस्कार है। जैसे ही उसे खिलौना मिलता है कि उसके मन में कुछ प्रेरणा होती हैवह नींद में उतरने के लिए राजी हो जाता है।
वही बात तुम्हारे साथ हो रही है। खिलौनों में फर्क हो सकता है। किसी आदमी को तब तक नींद नहीं आती है जब तक वह राम—राम का उच्चार न करे। वह सो नहीं सकता है तब तक। यह राम—राम उसका खिलौना है। वह राम—राम कहता है,खिलौना मिल गया। और वह सो जाता है।
तुम्हें एक नए कमरे में नींद आने में कठिनाई होती है। अगर तुम किसी खास ढंग के पकड़े पहनकर सोने के आदी हो तो तुम्हें रोज—रोज उन्हीं खास कपड़ों की जरूरत पड़ेगी। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर तुम्हें नाइट गाउन पहनकर सोने की आदत है और अगर वह न मिले तो तुम्हें नींद लगने में कठिनाई होगी। क्योंअगर तुम कभी नग्न होकर नहीं सोए हो और तुम्हें नग्न होकर सोने को कहा जाए तो तुम्हें अड़चन होगी। क्योंनग्नता और नींद में कोई संबंध नहीं है। लेकिन तुम्हारे लिए तो यह संबंध है। पुरानी आदत! पुरानी आदतों के साथ आदमी आराम अनुभव करता हैवह सुविधाजनक है।
वैसे ही सोचने के ढंग—ढांचे भी आदतें हैं। तुम्हें आराम मालूम देता है—रोज—रोज वही विचारवही दिनचर्या। तुम्हें लगता हैसब ठीक चल रहा है। तुम्हारे विचारों में तुम्हारा न्यस्त स्वार्थ है। वही समस्या है। तुम्हारा फर्नीचर महज कचरा नहीं है जिसे फेंक दिया जाएउसमें तुमने बहुत कुछ पूंजी लगा रखी है। सब फर्नीचर तुरंत और इकट्ठा फेंका जा सकता हैवह हो सकता है। त्वरित घटना घट जाएउसके उपाय भी हैं। तुरंतइसी क्षण तुम अपने सारे मानसिक फर्नीचर से मुक्त हो सकते हो।
लेकिन तब तुम अचानक रिक्तखालीशून्य हो जाओगे और तुम्हें पता नहीं रहेगा कि तुम कौन हो। अब तुम्हें यह भी पता नहीं चलेगा कि क्या करें। क्योंकि पहली दफा तुम्हारे पुराने ढंग—ढांचे तुम्हारे पास नहीं होंगे। उसका धक्काउसकी चोट इतनी त्वरित हो सकती है कि तुम मर भी सकते होपागल भी हो सकते हो।
इसलिए त्वरित विधियां प्रयोग में नहीं लायी जाती हैंजब तक कोई तैयार न हो त्वरित विधियां काम में नहीं लायी जाती हैं। कोई अचानक पागल हो जा सकता हैक्योंकि उसके पुराने अटकाव नहीं रहे। अतीत तुरंत विदा हो जाता है। और चूंइक अतीत अचानक चला जाता हैइसलिए तुम भविष्य की भी नहीं सोच सकते। क्योंकि भविष्य को तो हम सदा अतीत की भाषा में सोचते हैं। सिर्फ वर्तमान बचा रहता हैऔर तुम कभी वर्तमान में रहे नहीं। या तो तुम अतीत में रहते हो या भविष्य में। इसलिए जब तुम पहली बार मात्र वर्तमान में होओगे तो तुम्हें लगेगा कि तुम पागल हो गए हो।
यही कारण है कि त्वरित विधियां उपयोग में नहीं लायी जाती हैं। और वे तभी उपयोग में लायी जाती हैं जब तुम किसी ध्यान—पीठ से जुड़े होजब तुम किसी गुरु के साथ समूह में काम कर रहे होजब तुम समग्रत: भक्तिभाव में होजब तुमने ध्यान के लिए अपना समूचा जीवन अर्पित कर दिया हो।
इसलिए क्रमिक विधियां ही अच्छी हैं। वे लंबा समय लेती हैंलेकिन तुम धीरे—धीरे आकाश के आदी हो जाते हो। तुम आकाश कोउसके सौंदर्य कोउसके आनंद को अनुभव करने लगते हो। और तुम्हारा फर्नीचर धीरे— धीरे हट जाता हैनिकल जाता है।
इसलिए साधारण विचार से मनन पर जाना अच्छा हैवह क्रमिक विधि है। मनन से एकाग्रता पर जाना अच्छा हैवह क्रमिक विधि है। और एकाग्रता से ध्यान पर छलांग लगाना अच्छा है। तब तुम धीरे—धीरे गति करते हो—जमीन को प्रत्येक कदम पर अनुभव करते हुए। और जब यथार्थत: प्रत्येक कदम में तुम्हारी जड़ जम जाती है तभी तुम अगला कदम शुरू करने केंद्रितसंतुलित की सोचते हो। यह छलांग नहीं हैयह क्रमिक विकास है।
इसलिए सामान्य विचारमननएकाग्रता और ध्यानये चार चरण हैंचार कदम है।

तीसरा प्रश्न :

क्या नाभि—केंद्र का विकास ह्रदय और मस्तिष्क के केंद्र के विकास से स्‍वतंत्र और भिन्न है। या नाभि—केंद्र का विकास ह्रदय और मस्तिष्क के विकास के साथ युगपत घटित होता हैऔर कृपा कर यह भी समझाएं की किस तरह नाभि—केंद्र के विकास की विधि और प्रशिक्षण ह्रदय और मस्तिष्क के विकास की विकास और प्रशिक्षण से भिन्न है?

 क बुनियादी बात समझने जैसी है कि हृदय और मस्तिष्क के केंद्रों का विकास तो करना हैलेकिन नाभि—केंद्र का नहीं। नाभि—केंद्र को खोज भर लेना हैविकसित नहीं करना है। नाभि—केंद्र हैउसे पुन: खोज लेना है। वह पूरी तरह विकसित हैतुम्हें उसका विकास नहीं करना है। हृदय और मस्तिष्क के केंद्र विकास करने की चीजें हैं। उन्हें ढूंढना नहीं हैउनका विकास करना है। समाजसंस्कृतिशिक्षासंस्कार उनके विकास में सहयोगी होते हैं।
लेकिन नाभि—केंद्र को लेकर तो तुम पैदा ही होते होउसके बिना तुम नहीं हो सकते। तुम हृदय—केंद्र के बिना हो सकते होतुम मस्तिष्क—केंद्र के बिना हो सकते हो। वे जरूरतें हैंउनका होना अच्छा है। लेकिन तुम उनके बिना भी हो सकते हो। उनके बिना होना असुविधाजनक होगालेकिन उनके बिना हुआ जा सकता है। लेकिन नाभि—केंद्र के बिना तुम नहीं हो सकते हो। वह जरूरत नहीं हैवह तुम्हारा जीवन है।
हृदय—केंद्र को कैसे विकसित किया जाएप्रेम कैसे पैदा किया जाएसंवेदनशीलता कैसे बढ़ाई जाएकैसे चित्त संवेदनशील होइसके लिए विधियां हैं। इसके लिए भी विधियां हैं कि ज्यादा बुद्धिमानज्यादा तर्कपूर्ण कैसे हुआ जाए। बुद्धि विकसित की जा सकती हैभाव विकसित किया जा सकता हैलेकिन अस्तित्व को विकसित नहीं किया जा सकतावह है। उसे पुन: खोज भर लेना है।
इसमें कई बातें निहित हैं। एकहो सकता है कि तुम्हारा मस्तिष्कतुम्हारी तर्क—शक्ति आइंस्टीन जैसी न हो। लेकिन तुम बुद्ध हो सकते हो। आइंस्टीन अपनी पूर्णता में काम करने वाला मस्तिष्क—केंद्र है। वैसे ही कोई प्रेमीकोई मजनू अपनी पूर्णता में काम करने वाला हृदय—केंद्र है। संभव है कि तुम मजनू भी न हो सकोलेकिन तुम बुद्ध हो सकते हो। क्योंकि बुद्धत्व तुम्हारे भीतर विकसित नहीं किया जाना हैवह है ही। वह बुनियादी केंद्रमौलिक केंद्रनाभि—केंद्र की बात है। वह है ही। तुम बुद्ध हो हीसिर्फ बेहोश हो।
तुम आइंस्टीन नहीं होहोने की चेष्टा कर सकते हो। और फिर पक्का नहीं है कि तुम आइंस्टीन हो ही जाओ। पक्का नहीं हैक्योंकि सच में यह असंभव लगता है। क्यों असंभव लगता हैक्योंकि आइंस्टीन जैसा मस्तिष्क होने के लिए वही वातावरण,वही विकासवही प्रशिक्षण चाहिए जो आइंस्टीन को मिला था। लेकिन उसे दोहराया नहीं जा सकताक्योंकि दोहराना असंभव है। पहले तो तुम्हें वही मां—बाप खोजने पड़ेंगेक्योंकि प्रशिक्षण गर्भ में ही
शुरू हो जाता है। वही मां —बाप खोजने कठिन हैंअसंभव हैं। वही मां—बापजन्म—दिनवही परिवार, वहीं संगी—साथी कैसे मिलेंगे? आइंस्‍टीन का जीवन हूं-ब-हू दोहराना पड़ेगा। अगर उसका एक बिंदु भी चूक गया तो तुम दूसरे व्यक्ति हो जाओगे। इसलिए यह असंभव है।
एक व्यक्ति एक बार ही इस संसार में आता हैक्योंकि वही—वही स्थिति नहीं दोहरायी जा सकती। वही स्थिति बड़ी बात है। उसका अर्थ है कि वैसे ही क्षण में ठीक वैसा ही संसार होना चाहिए। यह संभव नहीं हैअसंभव है। और तुम तो यहां आ चुके होइसलिए जो भी तुम करोगे उसमें तुम्हारा अतीत सम्मिलित होगा। तुम आइंस्टीन नहीं हो सकते होव्यक्तित्व नहीं दोहराया जा सकता।
बुद्धत्व कोई व्यक्तित्व नहीं हैबुद्धत्व एक घटना है। इसमें कोई व्यक्तिगत गुण अर्थ नहीं रखते। बुद्ध होने के लिए तुम्हारा होना ही पर्याप्त है। वह केंद्र वहां है हीमौजूद ही हैकेवल तुम्हें उसे आविष्कृत भर करना है। तो हृदय—केंद्र की विधियां विकसित करने की विधियां हैं और नाभि—केंद्र की विधियां आविष्कृत करने की विधियां हैं। तुम्हें आविष्कृत भर करना है। बुद्ध तो तुम हो हीकेवल तुम्हें इसे जान लेना है।
तो दो तरह के लोग हैं। ऐसे बुद्ध जो जानते हैं कि हम बुद्ध हैं और ऐसे बुद्ध जो नहीं जानते कि हम बुद्ध हैं। लेकिन सभी बुद्ध हैं। जहां तक अस्तित्व का सवाल हैसब वही हैं। सिर्फ अस्तित्व में साम्यवाद हैऔर कहीं भी साम्यवाद असंगत है। बाकी सभी आयामों में कोई समान नहीं हैवहां असमानता बुनियादी है। इसलिए यह विरोधाभासी मालूम पड़ेगा अगर मैं कहूं कि केवल धर्म साम्यवाद ला सकता है। लेकिन यहां साम्यवाद से मेरा मतलब है अस्तित्व कीहोने की क्षमता। तब तुम बुद्धक्राइस्ट,कृष्ण के समान हो। लेकिन किसी दूसरे अर्थ में कोई दो व्यक्ति समान नहीं हैं। जहां तक बाहरी जीवन का संबंध हैअसमानता बुनियादी है। और जहां तक आंतरिक जीवन का संबंध हैसमानता बुनियादी है।
इसलिए ये एक सौ बारह विधियां नाभि—केंद्र के विकास की विधियां नहीं हैंये उसे उघाड़ने की विधियां हैं। यही कारण है कि कभी—कभी कोई व्यक्ति क्षणमात्र में बुद्ध हो जाता हैक्योंकि कुछ सृजन करने की बात नहीं है। अगर तुम अपने को देख सकोअगर अपने भीतर गहरे जा सकोतो तुम्हें जो भी चाहिए वह वहां है। वहां तुम बुद्ध हो। इसलिए प्रश्न यही है कि कैसे तुम उस बिंदु पर फेंक दिए जाओ जहां तुम बुद्ध हो ही। ध्यान तुम्हें बुद्ध नहीं बनाता हैवह सिर्फ तुम्हें तुम्हारे बुद्धत्व का बोध देता है।

 एक और प्रश्न:

क्या सभी बुद्धपुरुष नाभि— केंद्रित हैंउदाहरण के लिए बताएं कि कृष्णमूर्ति
मस्तिष्क— केंद्रित हैं या नाभि— केंद्रितऔर रामकृष्ण ह्रदय— केंद्रित थे या नाभि—केंद्रित?

सभी बुद्धपुरुष नाभि—केंद्रित होते हैंलेकिन बुद्धपुरुषों की अभिव्यक्ति दूसरे केंद्रों के जरिए हो सकती है। इस भेद को साफ—साफ समझ लो। सभी बुद्धपुरुष नाभि—केंद्रित होते हैं; दूसरी संभावना नहीं है। लेकिन अभिव्यक्ति और बात है।
रामकृष्ण अपनी अभिव्यक्ति हृदय के द्वारा करते हैं। वे अपने संदेश के लिए हृदय को
माध्यम बनाते हैं। नाभि से जो भी उन्होंने पाया है उसे वे हृदय से प्रकट करते हैं। वे गाते हैंवे नाचते हैंवह उनके आनंद की अभिव्यक्ति का ढंग है। लेकिन आनंद नाभि पर मिलता है,
अन्यत्र नहीं। रामकृष्ण नाभि पर केंद्रित हैं। लेकिन दूसरों को यह कहने के लिए पर केंद्रित हूं वे हृदय का उपयोग करते हैं।
 कृष्णमूर्ति उस अभिव्यक्ति के लिए मस्तिष्क का उपयोग करते हैं।
यही कारण है कि उनकी अभिव्यक्तियां परस्पर विरोधी हैं। अगर तुम रामकृष्ण को मानते हो तो तुम कृष्णमूर्ति को नहीं मान सकते। और अगर कृष्णमूर्ति पर तुम्हारा भरोसा है तो तुम रामकृष्ण पर भरोसा नहीं कर सकते। क्योंकि भरोसा सदा अभिव्यक्ति में केंद्रित होता हैअनुभव में नहीं। रामकृष्ण उस आदमी को बचकाने मालूम पड़ेंगे जो बुद्धि सेविचार से जीता है। वह कहेगायह क्या नासमझी है—नाचनागानावे क्या कर रहे हैंबुद्ध कभी नहीं नाचेये रामकृष्ण नाच रहे हैं! वे बचकाने लगते हैं।
बुद्धि को हृदय सदा बचकाना मालूम पड़ता है। लेकिन हृदय को बुद्धि व्यर्थसतही मालूम पड़ती है।
कृष्णमूर्ति जो भी कहते हैं वह वही हैअनुभव वही है जो रामकृष्णचैतन्य या मीरा को हुआ था। लेकिन अगर व्यक्ति मस्तिष्क—केंद्रित है तो उसकी अभिव्यक्तिउसकी व्याख्या बुद्धिगत होगी। अगर रामकृष्ण कृष्णमूर्ति को मिलेंगे तो कहेंगेआइए,हम नाचे। समय क्यों बर्बाद करेंनाचकर उसे ज्यादा आदमी से कहा जा सकता है और वह गहरे जाता है। कृष्णमूर्ति कहेंगे,नाचनाच से तो आदमी सम्मोहित हो जाता है। नाचे मत। विश्लेषण करेंतर्क करेंबोधपूर्ण हों।
अभिव्यक्ति के ये अलग—अलग केंद्र हैंलेकिन अनुभव एक ही है। कोई अपने अनुभव का चित्र बना सकता हैझेन गुरुओं ने अपने अनुभव का चित्र बनाया। जब वे ज्ञान को उपलब्ध होते हैं तब वे चित्र बनाते हैं। उपनिषद के ऋषियों ने सुंदर कविता कीवे जब ज्ञान को प्राप्त हुए उन्होंने कविता रची। चैतन्य नाचते थेरामकृष्ण गाते थे। बुद्ध नेमहावीर ने अपने अनुभव को कहने के लिएलोगों को समझाने के लिए बुद्धि का उपयोग किया। उन्होंने अपने अनुभव बताने के लिए महान सिद्धानों की रचना की।
लेकिन अनुभव स्वयं में न बुद्धि—निर्भर है न भाव—निर्भरवह दोनों के पार है। बहुत कम लोग हुए हैं जो दोनों केंद्रों के द्वारा अपने को अभिव्यक्ति दे सकें। तुम्हें कृष्‍णमूर्ति अनेक मिल जाएंगेतुम्हें रामकृष्ण अनेक मिल जाएंगे। लेकिन यह कभी—कभार ही होता है कि कोई दोनों केंद्रों के जरिए अपने को अभिव्यक्त करे। तब वह व्यक्ति तुम्हें उलझन में डाल देता है। तुम उस आदमी के साथ कभी चैन नहीं अनुभव करोगेक्योंकि तुम्हें दोनों के बीच तारतम्य नहीं दिखाई पड़ेगा। वे परस्पर इतने विरोधी हैं।
इसलिए जब मुझे कुछ समझाने को होता है तो निश्चय ही उसे बुद्धि के द्वारा समझाना पड़ता है। इसलिए मैं बहुत से ऐसे लोगों को आकर्षित कर लेता हूं जो बुद्धिवादी हैंमस्तिष्क—प्रधान हैं। फिर एक दिन वे देखते हैं कि मैंने कीर्तन और नृत्य की इजाजत भी दे रखी है। तब वे अड़चन में पड़ते है। वे पूछते हैंयह क्या हैदोनों में कोई लेना—देना नहीं है!  
लेकिन मेरे लिए उनमें कोई विरोध नहीं है। नृत्य भी कहने का एक ढंग हैऔर कभी—कभी वह ज्यादा गहरा ढंग होता है। बुद्धि भी कहने का एक ढंग हैऔर कभी—कभी वह बहुत स्पष्ट ढंग। इसलिए दोनों अभिव्यक्ति के उपाय है।
अगर तुम बुद्ध को नाचते देखो तो तुम्हें अड़चन होगी। और अगर तुम महावीर को नग्न खड़े और बांसुरी बजाते देख लो तो तुम सो न सकोगे। सोचोगेमहावीर को यह क्या हो गयापागल तो नहीं हो गएकृष्ण के हाथ में बांसुरी ठीक हैमहावीर के हाथ में बिलकुल अविश्वसनीय हो जाती है। महावीर और हाथ में बांसुरी! यह अकल्पनीय हैतुम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
लेकिन इसका यह कारण नहीं है कि महावीर और कृष्ण मेंबुद्ध और चैतन्य में कोई विरोध है। इसका कारण महज अभिव्यक्ति का भेद है। बुद्ध एक विशेष तरह के चित्तों को आकर्षित करेंगे—मस्तिष्क—प्रधान चित्तों को। और चैतन्य और रामकृष्ण ठीक उसके विपरीत हृदय—प्रधान चित्तों को आकर्षित करेंगे।
लेकिन कठिनाई खड़ी होती हैमेरे जैसा व्यक्ति कठिनाई खड़ी करता है। मैं दोनों चित्तों को आकर्षित करता हूं—लेकिन कोई भी मेरे साथ चैन नहीं अनुभव कर पाता है। जब मैं बोलता होता हूं तो मस्तिष्क—प्रधान व्यक्ति मेरे साथ चैन अनुभव करता है। लेकिन जब मैं दूसरे तरह की अभिव्यक्ति को मौका देता हूं तो मस्तिष्क—प्रधान व्यक्ति बेचैन हो जाता है। और वही बात दूसरे के साथ घटती है। जब कोई भाव—प्रधान विधि उपयोग की जाती है तो हृदय—प्रधान व्यक्ति चैन अनुभव करता हैलेकिन जब मैं समझाता हूं तर्क का उपयोग करता हूं तो वह गायब हो जाता हैतब वह यहां नहीं होता। वह कहता हैयह मेरे लिए नहीं है।
एक महिला परसों ही आई। और उसने कहा कि मैं माउंट आबू गई थी और वहां मुझे अड़चन खड़ी हो गई। पहले दिन मैंने आपका प्रवचन सुना और वह बहुत सुंदर लगा। मैं बहुत प्रभावित हुईगदगद हो गई। लेकिन फिर मैंने देखा कि कीर्तन हो रहा हैनाच हो रहा हैऔर मैं वहां से तुरंत भाग खड़ी होने को तैयार हो गई। यह मेरे लिए नहीं था। मैं बस के अड्डे पर पहुंच गई। लेकिन वहां एक समस्या उठ खड़ी हुईमैं आपका प्रवचन सुनना चाहती थी। फिर मैं लौट आयी। आपके प्रवचन को मैं नहीं चूकना चाहती थी।
वह महिला जरूर कठिनाई में होगी। उसने मुझे कहायह सब इतना परस्पर—विरोधी था। उसे ऐसा लगाक्योंकि ये केंद्र ही परस्पर—विरोधी हैं। पर विरोध तुम्हारे भीतर है। तुम्हारे मस्तिष्क और तुम्हारे हृदय के बीच तालमेल नहीं हैवे द्वंद्व में हैं। और तुम्हारे इस अंतर्द्वंद्व के चलते रामकृष्ण और कृष्णमुर्ति परस्पर विरोधी मालूम पड़ते हैं। तुम अपने मस्तिष्क और हृदय के बीच सेतु रच लो तो तुम्हें पता चलेगा कि ये तो महज माध्यम थे।
रामकृष्ण निपट अनपढ़ थेबुद्धि का विकास न हुआ था। वे शुद्ध हृदय थे। उनका एक केंद्रहृदय केंद्र विकसित हुआ था। कृष्णमूर्ति शुद्ध मस्तिष्क हैं। वे एनी बीसेंटलीडबीटर और दूसरे थियोसोफिस्ट जैसे परम बुद्धिवादियों के हाथ में रहे थे। वे इस सदी के बड़े से बड़े शास्त्रकार थे। थियोसोफी बड़ी से बड़ी शास्त्र—व्यवस्थाओं में एक है। वह सर्वथा बुद्धि—प्रधान है। और कृष्णमूर्ति बुद्धिवादियों के हाथों पले थे। वे विशुद्ध बुद्धि हैं। वे जब हृदय और प्रेम की बात भी करते है तो उनकी अभिव्यक्ति बुद्धि की होती है। रामकृष्ण उनसे भिन्न हैं। वे जब बुद्धि की बात करते हैं तो उसमें भी वे बेतुके मालूम पड़ते हैं।
तोतापुरी रामकृष्ण के पास आए। रामकृष्ण उनसे वेदांत सीखने लगे। तोतापुरी ने उनसे कहायह भक्ति की नासमझी छोड़ोइस काली कोमां को बिलकुल विदा करो। यदि यह
 सब तुम नहीं छोड़ते तो मैं वेदांत नहीं सिखा सकता। वेदांत भक्‍ति नहीं हैज्ञान है। रामकृष्ण ने कहाठीक है। लेकिन एक क्षण रुकेमैं मां से जाकर पूछ लूं कि क्या मैं यह सब नासमझी छोड़ दूं। मां से पूछने के लिए मुझे क्षणभर का समय दे दें।
वे हृदय—प्रधान पुरुष हैं। मां को छोड़ने के लिए भी मां से ही पूछेंगे! और उन्होंने कहामां इतनी प्यारी है कि वह मुझे छोड़ने की आज्ञा दे देगीआप चिंता न करें। तोतापुरी कुछ नहीं समझ सके। रामकृष्ण ने कहावह इतनी प्रेमपूर्ण हैउसने कभी मुझे नहीं नहीं कहा है। अगर मैं कहूं कि मां मैं तुम्हें छोड़ता हूं क्योंकि मुझे वेदांत सीखना है और मैं इस भक्ति की नासमझी में नहीं रह सकतातो वह इसकी भी आज्ञा दे देगी। वह मुझे यह सब छोड़ने की पूरी स्वतंत्रता दे देगी।
अपने मस्तिष्क और हृदय के बीच सेतु निर्मित करो और तब तुम जानोगे कि जो भी ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं वे एक ही बात कहते हैंसिर्फ उनकी भाषा भिन्न होती है।
आज इतना ही।
Kalpant Healing Center
Dr J.P Verma (Swami Jagteswer Anand Ji)
(Md-Acu, BPT, C.Y.Ed, Reiki Grand Master, NDDY & Md Spiritual Healing)
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C53,  Sector 15 Vasundra, Avash Vikash Markit, Near Pani Ki Tanki,  Ghaziabad
Mob-: 9958502499 

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